94. मुझे अब बूढ़े होने की चिंता नहीं रही

लियांग झी, चीन

प्रिय शिउचुआन :

मुझे तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे पत्र से मुझे पता चला कि तुम आजकल अपने कर्तव्य में छोटे भाई-बहनों के साथ सहयोग कर रही हो, और तुम्हें लग रहा है कि तुम अपनी ऊर्जा और सहनशक्ति के मामले में तालमेल नहीं बिठा पा रही हो, इसलिए तुम कुछ हद तक निराश महसूस कर रही हो। तुम्हें चिंता है कि जैसे-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ेगी, तुम जो कर्तव्य कर पाओगी वे कम होते जाएँगे, इससे तुम्हारे बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने की तुम्हारी उम्मीद खत्म हो जाएगी। हाल ही में मुझे भी यही चिंताएँ हुई हैं, इसलिए आज मैं तुम्हें अपने कुछ अनुभव बताने के लिए यह पत्र लिख रहा हूँ।

पिछले अगस्त में, भाई यांग शुन और मैं दोनों कंप्यूटर टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अपने कर्तव्य निभा रहे थे। अपने खाली समय में, मैंने सुसमाचार के धर्मोपदेश और अपने जीवन के अनुभवों के बारे में लेख भी लिखे। मैं सचमुच बहुत खुश था और इस कर्तव्य का बहुत आनंद ले रहा था। भाई यांग शुन जवान था, युवा ऊर्जा और जीवन शक्ति से भरपूर, उसका दिमाग तेज और फुर्तीला था और तकनीकी कौशल सीखने में उसने मेरी बहुत मदद की। हालाँकि मेरी मानसिक काबिलियत और ऊर्जा एक युवा व्यक्ति के बराबर नहीं थी, कुछ समय बाद, यांग शुन का अनुसरण करते हुए मैंने बहुत सारा तकनीकी ज्ञान सीख लिया। मैं बहुत खुश था और मैंने मन ही मन संकल्प लिया कि मैं अपने कर्तव्य को करने के इस अवसर का पूरा लाभ उठाऊँगा। आगे बढ़ते हुए, यांग शुन और मैंने एक साथ तकनीकी कौशल का अध्ययन करना जारी रखा, अपने खाली समय में, मैंने धर्मोपदेश लिखने का अभ्यास किया और सुसमाचार का प्रचार करने से संबंधित सत्यों की अधिक समझ हासिल की। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर मुझे बहुत संतुष्टि महसूस हुई, मैंने सोचा कि इन दो कर्तव्यों में संतुलन बनाने से मेरे बचाए जाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने की उम्मीद बढ़ गई है। लेकिन कुछ समय बाद, मैंने देखा कि मेरे और यांग शुन के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। यांग शुन जवान था और उसकी समझ अच्छी थी, वह तुरंत प्रतिक्रिया देता था और जल्दी सीखता था। जब भाई-बहनों को तकनीकी समस्याएँ आती थीं, तो वह अपने सीखे हुए ज्ञान का उपयोग करके तुरंत जवाब देता और उन्हें हल कर देता था। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, भले ही मैं बुनियादी समस्याएँ सुलझा सकता था, अधिक कठिन समस्याओं के साथ मेरी प्रतिक्रियाएँ धीमी थीं और मैं भुलक्कड़ था, नई चीजें सीखने के कुछ ही समय बाद वे मेरे दिमाग से निकल जाती थीं। मुझे लगातार संदर्भ सामग्री और ट्यूटोरियल देखने पड़ते थे, कुछ प्रक्रियाओं में महारत हासिल करने के लिए मुझे बार-बार अभ्यास करने की जरूरत पड़ती थी। जब मैं कुछ समझ नहीं पाता था, तो यांग शुन उसे सँभाल लेता था और मैं सिर्फ कुछ सहायक कार्य ही कर पाता था। जब हम दोनों ने धर्मोपदेश लिखना शुरू किया, मेरे खत्म करने से कई दिन पहले ही यांग शुन अपना धर्मोपदेश जमा कर देता था। मैं बस उसकी गति के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहा था और अंतर बहुत स्पष्ट था। मैंने मन ही मन सोचा, “काश मैं समय को 20 साल पीछे ले जा पाता, तो मैं यांग शुन की तरह नई चीजों को तेजी से सीख पाता और इस कर्तव्य में सक्षम होता। यह कितना अद्भुत होता!” लेकिन जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई, मेरी ऊर्जा, सहनशक्ति, नजर, याददाश्त और प्रतिक्रिया की गति अब साथ नहीं दे पा रही थी। साथ ही, मुझे अपने उच्च रक्तचाप और ब्लड शुगर को नियंत्रण में रखने के लिए दवा की जरूरत थी। दिन में बहुत देर तक कंप्यूटर स्क्रीन पर देखने से मेरी नजर धुँधली हो जाती थी, रात में, भले ही मैं शांत बैठकर कुछ धर्मोपदेश लिखना चाहता था, पर मैं ज्यादा देर तक नहीं बैठ पाता था, जल्दी ही थकान, नींद और पिंडलियों में सूजन महसूस करने लगता था और थोड़ी देर मुश्किल से टिकने के बाद मैं ऊँघने लगता था। यांग शुन मुझसे आराम करने का आग्रह करता, लेकिन मैं अनिच्छुक महसूस करता, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरी उम्र या ये छोटी-मोटी स्वास्थ्य समस्याएँ मेरे कर्तव्य के आड़े आएँ। अगर मैं यह कर्तव्य अब और नहीं कर पाता तो मुझे लगा कि जो कर्तव्य मैं कर पाऊँगा वे और भी कम हो जाएँगे, इससे तो यह अनिश्चित हो जाएगा कि क्या मुझे बचाया जाएगा और क्या मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर पाऊँगा। यांग शुन जो केवल तीस के दशक में था, युवा और ऊर्जा से भरपूर था, जबकि मैं साठ से ज्यादा का हो चुका था, मेरी सेहत, याददाश्त और प्रतिक्रिया का समय युवाओं के आस-पास भी नहीं था, इसलिए मैं खुद से और ज्यादा असंतुष्ट महसूस करने लगा। मैं सोचने लगा कि जवान होना कितना अच्छा है, क्योंकि युवाओं के पास अभी भी अपने कर्तव्य करने के बहुत सारे अवसर और एक उज्ज्वल भविष्य होता है। मुझे लगा कि जहाँ उनका रास्ता और चौड़ा होता जा रहा है, वहीं मेरा रास्ता और सँकरा होता जा रहा है। मैं चिंता और दुःख में जी रहा था, मुझमें अब लेख या धर्मोपदेश लिखने की ऊर्जा नहीं बची थी और मैं “बस एक-एक दिन गुजारो” वाले रवैये के साथ अपना कर्तव्य करने लगा। शिउचुआन, क्या तुम्हें नहीं लगता कि मेरी दशा बहुत खराब थी?

एक दिन मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ और गलतियाँ कर बैठता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ ... खास तौर से कुछ ऐसे बड़े-बूढ़े हैं, जो अपना सारा वक्त परमेश्वर के लिए खपने और अपना कर्तव्य निभाने में बिताना चाहते हैं, मगर वे शारीरिक रूप से बीमार हैं। कुछ को उच्च रक्तचाप होता है, कुछ को उच्च रक्त शर्करा होती है, कुछ को जठरांत्र संबंधी समस्याएँ होती हैं और उन लोगों की शारीरिक ताकत उनके कर्तव्य की अपेक्षाओं की बराबरी नहीं कर पाती, इसलिए वे झुँझलाते हैं। वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, ‘मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?’ चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक-समान होते हैं और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। इसलिए बूढ़े लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि बूढ़े होने और युवाओं की तुलना में उनकी असाधारण आकांक्षाओं के कम होने, और उनके स्थिर हो पाने के कारण उनकी महत्वाकांक्षाएँ या आकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं, और उनमें कम भ्रष्ट स्वभाव होते हैं—यह एक भ्रांति है। युवा लोग पद के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े पद के लिए जोड़-तोड़ नहीं कर सकते? युवा सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर सकते हैं और मनमानी कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े ऐसा नहीं कर सकते? (हाँ, जरूर कर सकते हैं।) युवा घमंडी हो सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े घमंडी नहीं हो सकते? लेकिन बड़े-बूढ़े जब घमंडी होते हैं, तो ज्यादा उम्र के कारण वे उतने आक्रामक नहीं होते और इसलिए यह उनका घमंड तेज-तर्रार नहीं होता। युवा अपने लचीले हाथ-पैर और फुर्तीले दिमाग के कारण अहंकार का ज्यादा स्पष्ट दिखावा करते हैं, जबकि बड़े-बूढ़े अपने सख्त हाथ-पाँव और हठीले दिमाग के कारण अहंकार का कम स्पष्ट दिखावा करते हैं। लेकिन उनके अहंकार और भ्रष्ट स्वभावों का सार एक-समान होता है। किसी बूढ़े व्यक्ति ने चाहे जितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, या चाहे जितने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसका भ्रष्ट स्वभाव कायम रहेगा। ... तो ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध पाखंड और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, गहन विश्लेषण करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर की संगति ठीक उसी दशा को संबोधित करती है जिसका हम बुजुर्ग लोग सामना करते हैं। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमारे शरीर कमजोर होते जाते हैं और अपने कर्तव्य निभाने में कुछ चुनौतियाँ आ सकती हैं। हम अक्सर शक्तिहीन महसूस करते हैं और युवाओं से ईर्ष्या करते हैं। बिल्कुल मेरी तरह, जब मैंने देखा कि यांग शुन जवान है, उसकी याददाश्त अच्छी है और शरीर स्वस्थ है, तो मैंने सोचा कि वह और अधिक कर्तव्य कर सकता है, इसलिए उसके उद्धार की उम्मीद ज्यादा है। वहीं, मुझे लगा कि जैसे-जैसे मैं बूढ़ा हो रहा हूँ, खराब स्वास्थ्य और घटती याददाश्त के साथ, मैं केवल सहायक कार्य ही कर सकता था, मुझे चिंता हुई कि अगर मैं यह कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाया, तो ऐसे बहुत से दूसरे कर्तव्य नहीं होंगे जो मैं कर सकूँ और मुझे बचाए जाने की उम्मीद खोने का डर था। इससे मुझे हताशा महसूस हुई। लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि परमेश्वर लोगों को इस आधार पर नहीं बचाता कि उनकी उम्र कितनी है या वे कितने कर्तव्य करते हैं, बल्कि इस आधार पर बचाता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं। बुजुर्ग लोगों को शारीरिक कमजोरी या बीमारी का अनुभव हो सकता है, लेकिन यह उन्हें सत्य का अनुसरण करने से नहीं रोकता। भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूँ, मैंने विभिन्न पारंपरिक विचारों और धारणाओं के साथ-साथ सांसारिक आचरण के कई शैतानी फलसफों को संचित कर लिया है और मेरे शैतानी भ्रष्ट स्वभाव युवाओं से कम नहीं हैं। उदाहरण के लिए, पिछली वसंत ऋतु में मैं सुसमाचार का प्रचार कर रहा था। कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मुझे सुसमाचार का प्रचार करने का कुछ अनुभव था, इसलिए मैंने भाई-बहनों के सामने दिखावा करने के लिए अपने अनुभव का इस्तेमाल किया, खुद को दिखाने और उनकी प्रशंसा पाने के लिए मैंने डींगें मारीं। मुझे एहसास हुआ कि मुझे अभी भी बहुत से भ्रष्ट स्वभावों को हल करना है और कई सत्यों में प्रवेश करना है, मुझे परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर और सत्य का अभ्यास करके उन्हें सुलझाने की जरूरत है। साथ ही, मुझे अपना कर्तव्य यथासंभव अच्छी तरह से करने की जरूरत थी। ये वे चीजें थीं जो मैं हताशा की स्थिति में जीने और सत्य का अनुसरण करना छोड़ने के बजाय कर सकता था। जब मैंने इसके बारे में सोचा, तो मुझे लगा कि अगुआ ने मेरे लिए जिस कर्तव्य की व्यवस्था की थी, वह काफी उपयुक्त था। जब यांग शुन अपने कर्तव्यों में व्यस्त होता था, तो मैं कुछ सहायक कार्यों में मदद करता था, जब वह व्यस्त नहीं होता था, तो मैं लेख और धर्मोपदेश लिखता था। मैं आमतौर पर अपने कर्तव्यों में प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभावों पर भी ध्यान देता था और उन्हें हल करने के लिए सत्य की खोज करता था। इस तरह से अभ्यास करने से, मेरे पास अभी भी बचाए जाने का मौका था। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि बुजुर्ग लोग सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते या उसे समझ नहीं सकते और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं हैं : जब तक हम अपनी क्षमताओं के भीतर अपने कर्तव्य करते हैं और सत्य का अनुसरण करना नहीं छोड़ते, तो हमारी उम्र चाहे जो भी हो, हम सभी के पास बचाए जाने का मौका है। इस एहसास ने मेरे दिल को रोशन कर दिय और मैं अब उतना चिंतित महसूस नहीं करता था।

एक दिन मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अपना कर्तव्य निभाना हरेक व्यक्ति का फर्ज है, अपना कर्तव्य निभाने के अपने सिद्धांत होते हैं, हरेक व्यक्ति को अपना कर्तव्य सत्य-सिद्धांतों के अनुसार निभाना चाहिए, और सृजित प्राणियों से यही करने की अपेक्षा की जाती है। क्या यहाँ मेहनताने का कोई उल्लेख है? इनाम का कोई उल्लेख है? (नहीं।) मेहनताने या इनाम का कोई उल्लेख नहीं है—यह एक दायित्व है। ‘दायित्व’ का क्या अर्थ है? दायित्व वह है जो लोगों से निभाने की अपेक्षा की जाती है, जिसके लिए व्यक्ति के श्रम के अनुसार इनाम नहीं मिलता। परमेश्वर ने कभी यह निर्धारित नहीं किया कि जो व्यक्ति अपने कर्तव्य को बहुत अधिक निभाता है उसे बड़ा इनाम मिलना चाहिए, और जो व्यक्ति अपने कर्तव्य को कम निभाता है या उसे ऐसे तरीके से निभाता है जो अच्छा नहीं है तो उसे मामूली इनाम मिलना चाहिए—परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा। तो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं? परमेश्वर कहता है कि अपना कर्तव्य निभाना हरेक व्यक्ति का फर्ज है और यह ऐसा कार्य है जिसे करने की सृजित प्राणियों से अपेक्षा की जाती है—यही सत्य है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और सबसे कम इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गया कि कर्तव्य हर सृजित प्राणी का दायित्व और फर्ज है और ऐसा कुछ भी नहीं है कि तुम जितने अधिक कर्तव्य करोगे, उतना ही बड़ा इनाम मिलेगा या तुम जितने कम कर्तव्य करोगे, परमेश्वर से उतने ही कम आशीष मिलेंगे। ये विचार मेरी धारणाओं और कल्पनाओं के अलावा और कुछ नहीं थे। परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम और मंजिल इस आधार पर निर्धारित करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं। चाहे कोई व्यक्ति बूढ़ा हो या जवान, जब तक वे सत्य की खोज करते हैं और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाने का इरादा रखता है और परमेश्वर किसी एक व्यक्ति के साथ भी अन्याय नहीं करता। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से निर्धारित होता है। मैं चीजों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर नहीं देख रहा था, इसके बजाय मैंने यह आँका कि क्या किसी को उसके योगदान के आकार के आधार पर बचाया जा सकता है। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समझ की कमी को दर्शाता है और परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा है! मैंने सोचा कि कैसे पौलुस ने यूरोप के अधिकांश हिस्सों में सुसमाचार फैलाया और कई कलीसियाएँ स्थापित कीं। ऐसा लगा जैसे उसने बहुत बड़ा योगदान दिया, लेकिन उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया। उसने अपने काम और खुद को खपाने को सौदेबाजी के मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया और परमेश्वर से मुकुट की माँग की। वह अक्सर खुद को ऊँचा उठाता और अपनी गवाही देता था, उसने कभी परमेश्वर की गवाही नहीं दी। उसने यहाँ तक दावा किया कि उसके लिए जीना ही मसीह है, जिसने परमेश्वर के स्वभाव को गंभीर रूप से नाराज किया। अंत में, वह बचाया नहीं गया और इसके बजाय उसे नरक में दंडित किया गया। किसी व्यक्ति के कर्तव्य में उसके योगदान का आकार यह निर्धारित नहीं कर सकता कि वह बचाया जाएगा या नहीं। किसी व्यक्ति का उद्धार इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं और अपने कर्तव्यों को पूरे दिल और दिमाग से करता है या नहीं। शिउचुआन, जब हम सत्य को नहीं समझते, तो हम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके मुद्दों को देखते हैं। इससे हम कितनी आसानी से परमेश्वर के इरादों को गलत समझ बैठते हैं!

इसके बाद मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया, खुद से पूछा, “मेरी चिंताओं और निराशाओं के पीछे क्या है, उनकी वजह क्या है?” अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा विश्वास होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने के उनके संकल्प के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जब मसीह-विरोधी कलीसिया में अपने कर्तव्य करते हैं, चाहे वे कितना भी त्याग करते, खुद को खपाते या कष्ट सहते और कीमत चुकाते दिखें, वे यह सब आशीषें पाने के लिए कर रहे हैं, वे परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के साधन के रूप में अपने कर्तव्य का उपयोग कर रहे हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में, मुझे एहसास हुआ कि अनुसरण पर मेरा अपना दृष्टिकोण एक मसीह-विरोधी जैसा ही था। जब से मैंने परमेश्वर को पाया है, ऐसा लगा था कि मैं कलीसिया की व्यवस्थाओं का पालन करने और अपने कर्तव्य करने में सक्षम था, लेकिन यह सब आशीषें पाने के इरादे से था। आशीषों की खातिर, मैंने स्वेच्छा से मेजबानी के कर्तव्य करने के लिए दो अपार्टमेंट किराए पर लिए। स्वर्ग के राज्य के आशीषों के बदले में, मैं सक्रिय रूप से अपने कर्तव्य करने के लिए एक अच्छी-खासी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़ने को भी तैयार था। एक अच्छी मंजिल पाने की खातिर, मैंने अपनी बीमारी को अपने कर्तव्यों के आड़े नहीं आने दिया, क्योंकि मैंने सोचा कि मैं जितने अधिक कर्तव्य करूँगा, मुझे परमेश्वर से उतने ही अधिक आशीषें मिलेंगे। लेकिन जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई, जब मैंने देखा कि मेरे कर्तव्यों में मेरी दक्षता और प्रभावशीलता युवाओं के बराबर नहीं रह सकती, तो मुझे चिंता होने लगी कि मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा या मेरा काम बदल दिया जाएगा, तब जो कर्तव्य मैं कर पाऊँगा वे और भी कम हो जाएँगे, जिससे आशीषें पाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की मेरी उम्मीद दूर की कौड़ी हो जाएगी। मैं चिंता, व्याकुलता और निराशा की दशा में जी रहा था, “बस एक-एक दिन गुजारो” वाले रवैये के साथ अपने कर्तव्य करता था। कर्तव्य एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी है, वे न्यायोचित और स्वाभाविक हैं, लेकिन मैंने अपने कर्तव्य को आशीषें अर्जित करने के प्रमाण के रूप में माना, जब तक मैं आशीषें पा सकता था, चाहे कितनी भी जरूरत क्यों न हो, मैं त्याग करने, खुद को खपाने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने को तैयार था, लेकिन अगर आशीषें पाने की कोई उम्मीद नहीं थी, तो मेरे पास अपने कर्तव्य करने की कोई प्रेरणा नहीं थी। मुझमें अंतरात्मा नाम की कोई चीज थी ही कहाँ? पीछे मुड़कर देखने पर मैंने पाया कि जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है, तब से मैंने उसके वचनों के माध्यम से उसकी बहुत सारी चरवाही और सिंचन का आनंद लिया है और मुझे परमेश्वर से कोई माँग नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया है और मुझे परमेश्वर के घर आकर अपना कर्तव्य करने की अनुमति दी है, यह पहले से ही परमेश्वर का अनुग्रह है। भले ही मेरे लिए कोई अच्छी मंजिल न हो, मुझे कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए और मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। मैंने जितना इसके बारे में सोचा, उतना ही परमेश्वर का ऋणी महसूस किया, मैंने उससे प्रार्थना की, मैं आशीषें पाने की अपनी इच्छा को छोड़ने और अनुसरण को लेकर इन गलत दृष्टिकोणों से बाहर निकलने को तैयार था।

अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “वृद्ध भाई-बहनों के पास भी करने के लिए अपने काम हैं, और परमेश्वर ने उन्हें त्यागा नहीं है। वृद्ध भाई-बहनों में भी वांछनीय और अवांछनीय दोनों पहलू हैं। उनके पास अधिक सांसारिक आचरण के फलसफे और अधिक धार्मिक विचार होते हैं। अपने कार्यों में वे कई कठोर परंपराओं का पालन करते हैं, वे नियमों के शौकीन होते हैं जिन्हें वे यंत्रवत् और लचीलेपन के बिना लागू करते हैं। यह एक अवांछनीय पहलू है। किंतु ये वृद्ध भाई और बहन हर परिस्थिति में शांत और दृढ़ बने रहते हैं; उनके स्वभाव स्थिर होते हैं, और वे अप्रत्याशित और अस्थिर मनोदशाओं वाले नहीं होते। वे चीज़ों को समझने में धीमे हो सकते हैं, पर यह कोई बड़ा दोष नहीं है। जब तक तुम लोग समर्पित हो सकते हो; जब तक तुम परमेश्वर के वर्तमान वचनों को स्वीकार कर सकते हो और उनकी छानबीन नहीं करते; जब तक तुम केवल समर्पण और अनुसरण से ताल्लुक रखते हो, और परमेश्वर के वचनों पर कभी कोई निर्णय नहीं देते या उनके बारे में कोई अन्य बुरे विचार नहीं रखते; जब तक तुम उसके वचनों को स्वीकार करते हो और उन्हें अभ्यास में लाते हो—तब तक, ये शर्तें पूरी करने पर तुम पूर्ण किए जा सकते हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सभी के द्वारा अपना कार्य करने के बारे में)। “तुम युवा भाई-बहन हो या वृद्ध, तुम जानते हो कि तुम्हें क्या कार्य करना है। जो अपनी युवावस्था में हैं, वे अभिमानी नहीं हैं; जो वृद्ध हैं, वे नकारात्मक नहीं हैं और न ही वे पीछे हटते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी कमियाँ दूर करने के लिए एक-दूसरे के सामर्थ्य का उपयोग करने में सक्षम हैं, और वे बिना किसी पूर्वाग्रह के एक-दूसरे की सेवा कर सकते हैं। युवा और वृद्ध भाई-बहनों के बीच मित्रता का एक पुल बन गया है, और परमेश्वर के प्रेम के कारण तुम लोग एक-दूसरे को बेहतर समझने में सक्षम हो। युवा भाई-बहन वृद्ध भाई-बहनों को हेय दृष्टि से नहीं देखते, और वृद्ध भाई-बहन दंभी नहीं हैं : क्या यह एक सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं है? यदि तुम सभी का यही संकल्प हो, तो तुम लोगों की पीढ़ी में परमेश्वर की इच्छा निश्चित रूप से पूरी होगी(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सभी के द्वारा अपना कार्य करने के बारे में)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रेरित किया और मुझे बहुत आस्था दी। भले ही हम बुजुर्गों का स्वास्थ्य थोड़ा खराब रहता है, अगर हम परमेश्वर के वचनों को सुनते हैं, उसके प्रति समर्पित होते हैं और उसके वचनों का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, हम सभी के पास बचाए जाने का अवसर है। बुजुर्ग लोगों को अपनी तुलना युवाओं से करने की जरूरत नहीं है, उन्हें अपनी क्षमताओं और कमजोरियों को सही ढंग से देखना चाहिए। युवा तेज-तर्रार और जल्दी सीखने वाले होते हैं, भले ही युवाओं में अपनी क्षमताएँ होती है, लेकिन उनमें गहन विचारशीलता की कमी भी हो सकती है। बुजुर्ग लोग अपने काम में शांत और स्थिर होते हैं, इस तरह से एक साथ सहयोग करने से हम अपने कर्तव्यों में एक-दूसरे के पूरक बन पाते हैं। जब मुझे तकनीकी समस्याएँ आती हैं, तो मैं यांग शुन से मदद माँगता हूँ, जब यांग शुन को कठिन सवालों का सामना करना पड़ता है, तो वह मेरे साथ उन पर चर्चा करता है, जिससे हम जल्दी से एक आम सहमति पर पहुँच जाते हैं। अगर हम दोनों में से कोई भी नहीं समझता, तो हम अपने अगुआ से मार्गदर्शन लेते हैं, अंततः हमें अभ्यास का मार्ग मिल जाता है। इसके अलावा, यांग शुन और मेरे दोनों के लिए, चाहे कोई भी दूसरे की भ्रष्टता के खुलासों या सत्य सिद्धांतों के अनुरूप न होने वाले क्रियाकलापों को देखे, हम अभिमान से बाधित महसूस किए बिना एक-दूसरे को ये बातें बता पाते हैं और खुली संगति के माध्यम से, हम दोनों एक-दूसरे से लाभान्वित होते हैं। अब मैं अपनी उम्र के कारण अपने कर्तव्य न कर पाने की चिंता नहीं करता और इस बात पर ध्यान केंद्रित करता हूँ कि परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे करूँ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

शिउचुआन, मुझे उम्मीद है कि मेरा यह अनुभव तुम्हारी मदद करेगा। अपने वास्तविक अनुभव में, मैं देखता हूँ कि परमेश्वर बुजुर्गों के प्रति पक्षपाती नहीं है, अगर मुझे बेनकाब करने के लिए परमेश्वर ने ऐसी स्थिति की व्यवस्था न की होती, तो मुझे यह एहसास नहीं होता कि मेरे इतने सारे दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं थे। इस प्रकाशन ने मुझे लाभ पहुँचाया है। अगर तुम्हें कोई नई रोशनी या प्रबोधन मिले, तो कृपया मुझे लिखकर साझा करना। तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा!

लियांग झी

18 नवंबर, 2023

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