95. परमेश्वर के इरादे के अनुसार माता-पिता के साथ कैसे पेश आएँ
जब मैं छोटी थी तो अक्सर अपनी दादी को कहते सुनती थी, “अमुक परिवार के उस बच्चे को देखो, वह कितना लापरवाह, कृतघ्न और कितना गैर-संतानोचित बच्चा है। उसके माता-पिता उसे कितनी मेहनत से पालते हैं, लेकिन वह जरा भी संतानोचित धर्मनिष्ठा नहीं दिखाता। स्वर्ग अपना न्याय करेगा!” उसने मुझे सिखाया कि जब मैं बड़ी हो जाऊँ तो अपने माता-पिता के साथ अच्छे से पेश आऊँ और अपने ससुराल वालों के प्रति संतानोचित रहूँ, उसने यह भी कहा कि संतानोचित धर्मनिष्ठा पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है और अगर कोई व्यक्ति संतानोचित नहीं है तो वह बहुत बड़ा पाप कर रहा है और उसमें कोई अंतरात्मा नहीं है। इसलिए अपने युवा दिल में मैंने मान लिया कि मेरे माता-पिता मेरे साथ कैसे भी पेश आएँ, मुझे उनके प्रति संतानोचित ही होना चाहिए और अगर मैं संतानोचित नहीं हूँ तो मैं बहुत बड़ा पाप कर रही हूँ और स्वर्ग द्वारा दंडित की जाऊँगी। बचपन से ही मैं अपने माता-पिता की बात बहुत ध्यान से सुनती थी और जब मैं काम करने और पैसे कमाने लगी तो मैंने अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने की पूरी कोशिश की। जब वे बीमार पड़ते तो जब भी मेरे पास समय होता, मैं उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास रहती और छुट्टियों के दौरान मैं उनके लिए हर तरह के उपहार खरीदती। अपने माता-पिता को खुश और संतुष्ट देखकर मुझे बहुत खुशी होती। साल 2001 में मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। थोड़े समय बाद मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने लगी, लेकिन मैं अभी भी घर वापस जाने और अपने माता-पिता से मिलने के लिए समय निकालती थी। लगभग दस साल बाद एक यहूदा के विश्वासघात के कारण मुझे गिरफ्तार करने पुलिस मेरे घर आई। परमेश्वर की सुरक्षा से मैं बच निकलने में कामयाब रही, लेकिन मैं इतनी जल्दी में निकल गई कि बहुत सी बातें अपने माता-पिता को नहीं समझा पाई। मेरी बुजुर्ग सास को अभी भी मेरे बच्चे की देखभाल करनी पड़ रही थी और सिर्फ यह सोचकर कि मेरे माता-पिता और सास को फँसाया जा रहा है, मुझे लगा जैसे मैंने मुसीबत खड़ी कर दी है। मैंने सोचा कि मेरे माता-पिता ने मुझे पालने में कितनी मेहनत की होगी और मेरे लिए खाना, कपड़े और पढ़ाई का प्रबंध करना कितना मुश्किल रहा होगा। अब जब वे बूढ़े हो रहे हैं, उन्हें अपने बच्चों की जरूरत है ताकि वे उनकी देखभाल करें और उनके साथ रहें, लेकिन न सिर्फ मैंने एक बेटी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छे से पूरी नहीं कीं, बल्कि मैंने उन्हें फँसा भी दिया, जिससे वे मेरे बारे में चिंता करने लगे और बेचैन हो गए। मुझे हैरानी हुई कि क्या मेरे माता-पिता और पड़ोसी कहेंगे कि मुझमें अंतरात्मा और मानवता की कमी है और मुझे गैर-संतानोचित बेटी कहेंगे? उस समय बड़े लाल अजगर की निगरानी के कारण मैंने घर पर फोन करने की हिम्मत नहीं की। मुझे नहीं पता था कि मेरे माता-पिता कैसे हैं, जिससे मैं चिंतित हो गई। मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए अपना दिल शांत नहीं रख पाई और समय-समय पर अपने विचारों में भटकती रही। इससे मेरे काम की प्रगति प्रभावित हुई। मैं जानती थी कि मुझे इस मनोदशा को जल्द बदलना होगा, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, सब कुछ उसे सौंप दिया और उससे मार्गदर्शन माँगा।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति बन जाता, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं चीजों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आस्था, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर चिंतन किया तो मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैं हमेशा अपने माता-पिता के प्रति ऋणी और दोषी होने की मनोदशा में जीती थी और इसकी वजह शैतान के पारंपरिक विचार थे जो मेरे दिल में गहराई तक समा चुके थे। जैसे मेरी दादी अक्सर मुझे सिखाती थी, “तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना चाहिए और अगर तुम ऐसा नहीं करोगी तो तुम बहुत बड़ा पाप करोगी,” “तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी चाहिए, वरना तुम्हें स्वर्ग द्वारा दंडित किया जाएगा।” मैंने हमेशा इन शब्दों को अपने आचरण के सिद्धांत माना था। बचपन से ही मैं अपने माता-पिता की बात मानने और उन्हें नाराज करने से बचने की कोशिश करती थी। पैसे कमाना शुरू करने के बाद मैंने अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने की पूरी कोशिश की और छुट्टियों के दौरान मैं उनके लिए हर तरह के उपहार खरीदती थी और जब वे बीमार पड़ते थे तो मैं उन्हें इलाज के लिए अस्पताल ले जाती थी। अपने माता-पिता को खुश देखकर मुझे भी खुशी होती थी। जब बड़ा लाल अजगर मेरे पीछे पड़ गया और मुझे घर से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा, मैं न सिर्फ अपने माता-पिता की देखभाल करने में असमर्थ हो गई, बल्कि मैंने उन्हें भी फँसा दिया, जिससे उन्हें मेरी चिंता हो गई। मैं अपने माता-पिता के प्रति ऋणी महसूस करने लगी और मैं अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकी, नतीजतन मेरे काम में देरी हुई। मुझे पता था कि सृजित प्राणी के रूप में मेरा कर्तव्य एक जिम्मेदारी है, जिससे मैं बिल्कुल भी नहीं बच सकती, लेकिन मैं अभी भी “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो” के भ्रामक दृष्टिकोणों के अनुसार जी रही थी। चूँकि मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित नहीं हो सकी, इसलिए मेरी अंतरात्मा बेचैन हो गई और अपना कर्तव्य निभाते समय अपने विचारों को भटकने से नहीं रोक सकी। मैंने देखा कि पारंपरिक संस्कृति ने मुझे कितना गहरा नुकसान पहुँचाया है।
अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “क्या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित प्रेम दिखाना सत्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सही और सकारात्मक बात है, लेकिन हम यह क्यों कहते हैं कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि लोग अपने माता-पिता के साथ संतानोचित व्यवहार करने में किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और वे यह भेद नहीं कर पाते कि उनके माता-पिता वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं।) एक व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका संबंध सत्य से है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम्हें उनके प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे होते हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम्हें हर हाल में उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहना होता है, जो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? (नहीं।) ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अपने घर के आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता के कुछ काम करते हुए उनकी मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उनकी परेशानी दूर करो; अपने बजट के अनुरूप उनके लिए पोषक आहार खरीदो। परंतु, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, जबकि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करने का फैसला करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी हो, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, और यह सत्य का अभ्यास करने से कम बात है।’ इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं, यदि वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से लगातार रोकते हैं, और अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (अस्वीकार का।) उस समय तुम्हें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनके प्रति संतानोचित आदर प्रदर्शित करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और बुरे कर्मों के बादशाह की पूजा करते हैं, और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों से भिन्न मार्गों पर चल रहे हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान दिखाना किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप तो यह उससे भी कम है। इसलिए, अपने माता-पिता का संतानोचित सम्मान करने और अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान प्रदर्शित करने का संबंध लोगों के प्रति संतानोचित व्यवहार करने से है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है, वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, और वे सबसे शानदार चीजें हैं। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर का आदेश पूरा करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं उन सिद्धांतों को समझ गई जिनके अनुसार किसी को अपने माता-पिता के साथ पेश आना चाहिए। जब किसी के कर्तव्य का टकराव अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने से होता है, उसे अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि अपने कर्तव्य को अच्छे से पूरा करना उसके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार में जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करना शामिल है, लेकिन कोई भी व्यक्ति इन चीजों को कितनी भी अच्छी तरह से क्यों न निभाए, यह सत्य का अभ्यास नहीं है। सिर्फ एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से पूरा करना ही सत्य का अभ्यास करना है। चूँकि कर्तव्य सृष्टिकर्ता द्वारा सृजित प्राणियों के लिए दिए गए आदेश हैं, वे सर्वोच्च जिम्मेदारी हैं और उन्हें पूरा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। मैं सत्य नहीं समझती थी और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने को ही आचरण का सिद्धांत मानती थी। जब मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त होती या जब मेरा पीछा किया जाता और मैं भाग रही होती और मैं अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाती, मैं अपने माता-पिता के प्रति ऋणी महसूस करती और खुद को गैर-संतानोचित बेटी मान लेती, और जब तक मैंने परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े, तब तक मुझे एहसास नहीं हुआ कि मेरा यह नजरिया गलत है। मैं भाग्यशाली थी कि मुझे परमेश्वर की वाणी सुनने का मौका मिला। मैंने अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार पाया था, उसके बहुत से वचनों को खाया और पिया था, कुछ सत्य समझे थे, फिर भी मैंने कभी परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के बारे में नहीं सोचा। मुझमें वाकई मानवता और अंतरात्मा की कमी थी! अब मुझे पता था कि सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से पूरा करना सर्वोच्च प्राथमिकता है और यह मेरे अपने जीवन के बराबर ही महत्वपूर्ण है, मुझे इसे पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना था क्योंकि इसे पूरा न करना बहुत बड़ा पाप होगा। उसके बाद मेरा दिल शांत हो गया और मैं अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम हो गई।
मई 2020 के बीच में मैं गुप्त रूप से अपने माता-पिता के घर गई। जब मेरे पिता ने मुझे पहली बार देखा तो उसका रवैया अच्छा था, लेकिन कुछ समय बाद उसके हाव-भाव अचानक बदल गए और उसने मुझे डाँटना शुरू कर दिया। उसने मुझसे पूछा कि मैं पिछले कुछ सालों से क्या कर रही हूँ और उसने मुझे यह भी बताया कि दो साल पहले वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया था और लगभग मरने के कगार पर था, फिर भी उन्हें मेरी झलक तक नहीं दिखी। उसे चिंता थी कि मैं और मेरा पति सुसमाचार का प्रचार करते समय पकड़े जाएँगे और वह रात को सो नहीं पाया और मानसिक रूप से बहुत परेशान हो गया। उसने मुझे बेपरवाह कृतघ्न और गैर-संतानोचित संतान भी कहा। उसे शुरू में उम्मीद थी कि मैं उसके बुढ़ापे में उसकी देखभाल करूँगी, लेकिन उसने मेरे लिए जो कुछ भी किया, उसके बदले मैंने उसे लगभग गुस्से से मरने के लिए छोड़ दिया... उसकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे दिल में सुई चुभोई जा रही हो। मुझे लगा कि मेरे पिता ने मुझे पालने, मेरे खाने-पीने और कपड़ों का प्रबंध करने और मेरी शिक्षा का खर्च उठाने के लिए बहुत मेहनत की है और मैं न केवल संतानोचित होने में विफल रही, बल्कि उसे अपने बारे में चिंता करने पर मजबूर भी किया। यहाँ तक कि जब वह गंभीर रूप से बीमार था, तब भी मैं उसकी देखभाल करने या उसके साथ रहने के लिए वहाँ नहीं थी। मैं जरा भी संतानोचित नहीं थी! मैंने अपने माता-पिता के प्रति बहुत ऋणी महसूस किया। अपने पिता की बातें सुनकर मेरे चेहरे पर आँसू बहने लगे और मैं सच में घर पर थोड़ी देर और रुकना चाहती थी ताकि मैं अपने माता-पिता की ठीक से देखभाल कर सकूँ और अपने दिल में इस ऋण को चुका सकूँ। उस समय मैं काफी देर तक अपने दिल को शांत नहीं कर सकी, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे अपने दिल की रक्षा करने के लिए कहा ताकि यह परेशान न हो। प्रार्थना करने के बाद मेरा दिल बहुत शांत हो गया और मुझे परमेश्वर के वे वचन याद आ गए जो मैंने खाए और पिए थे। मैं अपने दिल में साफ समझ गई कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य का अभ्यास करना नहीं है, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से पूरा करना ही सत्य का अभ्यास करने का अर्थ है और अपने माता-पिता के साथ रहने, एक बेटे या बेटी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छे से पूरी करने के लिए अपने कर्तव्य छोड़ना परमेश्वर को धोखा देना होगा और यह बहुत बड़ा पाप होगा। उसके बाद मैंने शांति से अपने पिता को समझाया और उसका रवैया धीरे-धीरे नरम हो गया और मैं अपना काम पूरा करने के बाद जल्दी से चली गई।
उसके बाद जब भी मैंने अपने पिता की बातों के बारे में सोचा तो मेरे दिल में दर्द की सिहरन उठी। मैं यह स्वीकार सकती हूँ कि दूसरे मुझे नहीं समझते, लेकिन मेरे पिता को मुझसे ऐसी बातें क्यों कहनी पड़ीं? उस दौरान भले ही मैं अपना कर्तव्य पूरा करने में दिन बिता रही थी, मगर मेरे दिल पर बोझ था, ऐसा लग रहा था कि मैं भारी बोझ उठा रही हूँ और मैं हमेशा अपराध बोध से लदी रहती हूँ। जब मैं इन नकारात्मक भावनाओं में जी रही थी तो मेरा दिल उदास और दमित हो गया और अपने कर्तव्य में मेरी दक्षता में काफी गिरावट आई। यह शायद एक या दो महीने तक चला, फिर मेरी मनोदशा धीरे-धीरे ठीक हो गई। बाद में जब मैंने परमेश्वर की संगति का यह सत्य पढ़ा कि माता-पिता तुम्हारे ऋणदाता नहीं हैं, मैं माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को और अधिक स्पष्टता से देखने लगी और मैं इन दमनकारी भावनाओं से मुक्त हो गई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों में यह साँस और जीवन होता है, और इन चीजों का स्रोत और उद्गम उनके माता-पिता नहीं हैं। बात बस इतनी है कि लोगों का निर्माण उनके माता-पिता द्वारा उन्हें जन्म देने के जरिए हुआ—मूलतः, यह परमेश्वर ही है जो लोगों को ये चीजें देता है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं, तुम्हारे जीवन का विधाता परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को रचा, उसी ने मानवजाति के जीवन का सृजन किया, और उसी ने मानवजाति को जीवन की साँस दी, जो कि मनुष्य के जीवन का उद्गम है। इसलिए, क्या ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं’ पंक्ति समझने में आसान नहीं है? तुम्हारी साँस तुम्हारे माता-पिता ने नहीं दी, न यह साँस उनके कारण जारी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन के प्रत्येक दिन की देखभाल करता है और उस पर राज करता है। तुम्हारे माता-पिता फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा प्रत्येक दिन कैसा बीतता है, हर दिन खुशहाल और आसान है या नहीं, तुम हर दिन किससे मिलते हो, या हर दिन कैसे माहौल में जीते हो। बात बस इतनी है कि परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता के जरिए तुम्हारी देखभाल करता है—तुम्हारे माता-पिता बस वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारी देखभाल के लिए भेजा। ... सीधे शब्दों में कहें, तो वे बस साधारण सृजित प्राणी हैं। बात बस इतनी है कि तुम्हारे नजरिये से उनकी एक खास पहचान है—उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वे तुम्हारे मुखिया हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। लेकिन परमेश्वर के नजरिये से वे बस साधारण इंसान हैं, वे बस भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके बारे में कुछ भी विशेष नहीं है। वे अपने जीवन के ही विधाता नहीं हैं, तो वे तुम्हारे जीवन के विधाता कैसे बन सकते हैं? भले ही उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, फिर भी वे नहीं जानते कि तुम्हारा जीवन कहाँ से आया, वे फैसला नहीं कर सकते थे कि किस वक्त, किस घड़ी और किस जगह तुम्हारा जीवन आएगा या तुम्हारा जीवन कैसा होगा। वे इनमें से कोई भी बात नहीं जानते। इन बातों के लिए वे बस निश्चेष्ट होकर परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करते हैं। चाहे इस बारे में वे खुश हों या न हों, चाहे वे इस पर यकीन करें या न करें, ये तमाम चीजें परमेश्वर के हाथों आयोजित और घटित होती हैं। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं—क्या यह मामला समझने में आसान नहीं है? (आसान है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे सँभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को सँभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। यानी उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं। तुम्हारे अपने विकल्प हैं, तुम्हारा अपना जीवन पथ है और अपनी नियति है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किए हैं जिनसे तुम्हारे माता-पिता का कोई लेना-देना नहीं है। लिहाजा, जब तुम्हारे माता-पिता में से कोई एक कहता है : ‘तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो। तुम इतने वर्षों से मुझे देखने नहीं आए, मुझे फोन किए तुम्हें जाने कितने दिन हो गए। मैं बीमार हूँ और मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मैंने तुम्हें बेकार में ही पाल-पोस कर बड़ा किया। तुम सचमुच लापरवाह और अहसान-फरामोश छोकरे हो!’ अगर तुम इस सत्य को नहीं समझते कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,’ तो ये बातें सुनना उतना ही पीड़ादायक होगा जितना दिल में छुरा भोंकने पर होता है, और तुम्हारा जमीर निंदित महसूस करेगा। इनमें से प्रत्येक शब्द तुम्हारे दिल में बैठ जाएगा और इसके कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्म आएगी, तुम उनका ऋणी महसूस करोगे और उनके प्रति अपराधबोध से ग्रस्त हो जाओगे। जब माता या पिता कहते हैं कि तुम अहसान-फरामोश हो, तो तुम्हें सच में लगेगा : ‘वे बिल्कुल सही हैं। उन्होंने मुझे इस उम्र तक बड़ा किया, और उन्हें मेरी छत्रछाया में जरा भी आराम नहीं मिला। अब वे बीमार हैं, उन्हें उम्मीद थी कि मैं उनके सिरहाने बैठकर उनकी सेवा करूँगा और उनका साथ दूँगा। उन्हें जरूरत थी कि मैं उनकी दयालुता का कर्ज चुकाऊँ, और मैं वहाँ नहीं था। मैं सच में लापरवाह अकृतज्ञ हूँ!’ तुम खुद को लापरवाह अकृतज्ञ का दर्जा दे दोगे—क्या यह वाजिब है? क्या तुम एक लापरवाह अकृतज्ञ हो? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे जितने भी संतानोचित क्यों न हो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम उनकी दैहिक पीड़ा और बोझों को कुछ हद तक कम कर सकते हो, लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम लापरवाह अकृतज्ञ नहीं हो, पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, उनकी देखभाल करते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? क्या वे नहीं मरेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है? ... चाहे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक लापरवाह अहसान-फरामोश कहें या न कहें, कम-से-कम तुम सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो। अगर तुम परमेश्वर की नजरों में लापरवाह अहसान-फरामोश नहीं हो, तो यही काफी है। लोग क्या कहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं, वह अनिवार्य रूप से सही नहीं है, और उनका कहा उपयोगी नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाना चाहिए। अगर परमेश्वर कहता है कि तुम एक सक्षम सृजित प्राणी हो, फिर अगर लोग तुम्हें लापरवाह अहसान-फरामोश कहें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। बस इतना ही है कि लोग इन अपमानों से तब आहत होंगे जब उनके जमीर पर इनका असर होगा, या अगर वे सत्य को नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद छोटा हो, वे थोड़ी बुरी मनःस्थिति में और थोड़ा अवसादग्रस्त हों, लेकिन जब वे परमेश्वर के समक्ष लौट आएँगे तो यह सब दूर हो जाएगा, और फिर उनके लिए इससे कोई समस्या नहीं होगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि के प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन स्रोत है और मेरा जीवन परमेश्वर से आया है। मैं परमेश्वर द्वारा दी गई साँस ले रही थी, परमेश्वर के वचनों के पोषण का आनंद ले रही थी और मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का भी भरपूर आनंद लिया था। मैं जानती थी कि मुझे सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना है और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना है, यही अंतरात्मा और मानवता होने का अर्थ है। बाहर से ऐसा लगता था कि मेरे माता-पिता ने मुझे जन्म दिया और मेरा पालन-पोषण किया और उन्होंने मेरे पालन-पोषण, मेरे भोजन, कपड़ों और पढ़ाई का प्रबंध करने के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन असल में यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित किया गया था। माता-पिता सिर्फ अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर रहे हैं, इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता और मुझे इसका कीमत चुकाने या प्रतिदान करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं सत्य की खोज किए बिना शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जी रही थी, अपने माता-पिता के साथ ऐसे पेश आ रही थी मानो वे मेरे ऋणदाता हों, सोच रही थी कि चूँकि मेरे माता-पिता ने मुझे पालने के लिए कड़ी मेहनत की है, इसलिए मुझे अपने माता-पिता की दयालुता का मूल्य चुकाना चाहिए। जब मेरा पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ा तो मैं उसकी देखभाल करने के लिए वहाँ नहीं थी इस बात ने मुझे खुद को बेपरवाह, कृतघ्न और गैर-संतानोचित संतान होने के रूप में सोचने पर मजबूर कर दिया और मेरा दिल अक्सर अपराध बोध से भर जाता था। भले ही मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए दिखती थी, लेकिन मेरे अपराध बोध की भावनाएँ मेरे काम की दक्षता को प्रभावित कर रही थीं। परमेश्वर के वचन खाने और पीने से मुझे एहसास हुआ कि सृजित प्राणी के रूप में मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने के लिए इस दुनिया में नहीं आई थी और मेरे लिए अपना मिशन पूरा करना और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना अधिक महत्वपूर्ण है। यह वही है जो अंतरात्मा और मानवता वाले व्यक्ति को करना चाहिए। मैंने यह भी समझा कि अपने माता-पिता के साथ कैसे पेश आना है, इससे संबंधित सिद्धांत भी होने चाहिए। अगर स्थितियाँ अनुमति देती हैं तो मैं एक बेटी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर सकती हूँ और अपने माता-पिता की देखभाल कर सकती हूँ, लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो मुझे दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है, न ही मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए इस बात का बोझ लेना चाहिए। दरअसल माता-पिता और बच्चों के बीच का रिश्ता बस एक जैविक बंधन है और कोई किसी का ऋणी नहीं होता। अगर मैं अपना कर्तव्य छोड़कर अपने माता-पिता की दयालुता का मूल्य चुकाने के लिए घर जाकर संतानोचित बेटी बन जाती या अगर अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित न हो पाने के कारण मुझे अपराध बोध और हताशा हो जाती और इस तरह अपने कर्तव्य में देरी करती तो मुझमें वाकई अंतरात्मा और मानवता की कमी होती!
फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम सही मार्ग पर चलते हो, तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने के लिए सृष्टि प्रभु के समक्ष आना चुना है। इस संसार में यही एकमात्र सही मार्ग है। तुमने सही विकल्प चुना है। तुम्हारे माता-पिता सहित विश्वास न रखने वाले लोग तुम्हें चाहे कितना भी समझ न पाएँ या तुमसे चाहे जितने निराश हों, इससे परमेश्वर में विश्वास के पथ पर चलने के तुम्हारे फैसले पर या कर्तव्य निभाने के संकल्प पर असर नहीं पड़ना चाहिए, न ही इससे परमेश्वर में तुम्हारी आस्था प्रभावित होनी चाहिए। तुम्हें डटे रहना होगा, क्योंकि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। यही नहीं, तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना चाहिए। तुम्हारे सही मार्ग पर चलते समय वे तुम्हारे लिए बोझ नहीं बनने चाहिए। तुम सही मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, तुमने जीवन में सबसे सही विकल्प चुना है; अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा साथ नहीं देते, हमेशा अहसान फरामोश होने के लिए तुम्हें डाँटते हैं तो यह और भी जरूरी है कि तुम उन्हें पहचानो, भावनात्मक स्तर पर उनका त्याग कर दो, और उनके कारण लाचार मत बनो। अगर वे तुम्हें समर्थन, बढ़ावा या दिलासा नहीं देते, तो तुम ठीक रहोगे—इन चीजों के रहते या न रहते हुए तुम न कुछ खोओगे, न पाओगे। तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं। परमेश्वर तुम्हें प्रोत्साहन और पोषण दे रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है। तुम अकेले नहीं हो। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के बिना भी तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य उसी तरह निभा सकते हो, और इस आधार पर तुम अब भी एक नेक इंसान रहोगे। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागने का यह अर्थ नहीं है कि तुमने अपना सदाचार और नैतिकता खो दी है, और इसका यकीनन यह अर्थ नहीं है कि तुमने अपनी मानवता, नैतिकता और न्याय को त्याग दिया है। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने का कारण यह है कि तुमने सकारात्मक चीजें चुनी हैं और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य चुना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, यह सबसे सही मार्ग है। तुम्हें डटे रहना होगा, अपने विश्वास में दृढ़ रहना होगा। संभव है कि परमेश्वर में विश्वास रखने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के कारण तुम अपने माता-पिता का समर्थन न जुटा पाओ और निश्चित रूप से उनका आशीष न पा सको, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुमने कुछ भी नहीं खोया है। सबसे अहम चीज यह है कि जब तुमने परमेश्वर में विश्वास रखने के पथ पर चलने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने को चुना, तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए अपेक्षाएँ और बड़ी ऊँची उम्मीदें रखना शुरू कर दिया। इस दुनिया में रहते हुए अगर लोग अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से दूर हो जाएँ, तो भी वे अच्छे से जी सकते हैं। बेशक, वे अपने माता-पिता से दूर जाकर भी सामान्य ढंग से जी सकते हैं। सिर्फ परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीषों से भटकने पर ही वे अंधकार में डूब जाते हैं। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके मार्गदर्शन की तुलना में माता-पिता की अपेक्षाएँ बिल्कुल तुच्छ हैं, और जिक्र करने लायक नहीं हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “इस दुनिया में, किस प्रकार के लोग आदर के सबसे अधिक योग्य हैं? क्या वे नहीं जो सही मार्ग पर चलते हैं? यहाँ ‘सही मार्ग’ का अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारना नहीं है? क्या सही मार्ग पर चलने वाले, वे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर का अनुसरण कर उसके प्रति समर्पण करते हैं? (वही हैं।) अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो, या ऐसा बनने का प्रयास करते हो, और तुम्हारे माता-पिता तुम्हें न समझें, और हमेशा तुम्हें कोसें भी—यदि तुम्हारे कमजोर, अवसाद-ग्रस्त और खोये हुए होने पर, वे न सिर्फ तुम्हारा साथ न दें, दिलासा देकर बढ़ावा न दें, अक्सर माँग करें कि तुम वापस आकर उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाओ, ढेर सारा पैसा कमा कर उनकी देखभाल करो, उन्हें निराश न करो, उन्हें अपनी छत्रछाया में आराम करने और तुम्हारे साथ बढ़िया जीवन जीने योग्य बनाओ—क्या ऐसे माता-पिता को त्याग नहीं देना चाहिए? (बिल्कुल।) क्या ऐसे माता-पिता तुम्हारे आदर के योग्य हैं? क्या वे तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के योग्य हैं? क्या वे इस योग्य हैं कि तुम उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाओ? (नहीं।) क्यों नहीं? इसलिए कि वे सकारात्मक चीजों से विमुख हो गए हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर से घृणा करते हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह इसलिए है क्योंकि वे तुम्हारे सही मार्ग पर चलने से घृणा करते हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) वे ऐसे लोगों से घृणा करते हैं, जो न्यायोचित प्रयोजनों में लगे रहते हैं; वे तुमसे घृणा कर तुम्हें नीची नजर से देखते हैं क्योंकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और अपना कर्तव्य निभाते हो। ये कैसे माता-पिता हैं? क्या वे घिनौने और दुष्ट माता-पिता नहीं हैं? क्या वे स्वार्थी माता-पिता नहीं हैं? क्या वे दुष्ट माता-पिता नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास की वजह से बड़े लाल अजगर ने तुम्हें वांछित सूची में डालकर तुम्हारा पीछा किया है, तुम घर लौटने में असमर्थ, भगोड़े रहे हो, और कुछ लोगों को तो विदेश भी जाना पड़ा है। तुम्हारे रिश्तेदार, दोस्त और सहपाठी, सभी कहते हैं कि तुम भगोड़े हो गए हो, और इन बाहरी अफवाहों और गप्पबाजी के कारण तुम्हारे माता-पिता सोचते हैं कि तुमने उन्हें अनुचित रूप से कष्ट सहने और शर्मिंदा होने को मजबूर किया है। न सिर्फ वे तुम्हें नहीं समझते, तुम्हारा साथ नहीं देते, या तुमसे सहानुभूति नहीं रखते, न सिर्फ वे इन अफवाहें फैलाने वालों, तुमसे घृणा कर तुमसे भेदभाव करने वालों की भर्त्सना नहीं करते, वे भी तुमसे घृणा करते हैं, वे तुम्हारे बारे में वही बातें कहते हैं जो परमेश्वर में विश्वास न रखने वाले और सत्ताधारी कहते हैं। तुम ऐसे माता-पिता के बारे में क्या सोचते हो? क्या वे अच्छे हैं? (नहीं।) तो क्या तुम लोगों को अब भी यही लगता है कि तुम उनके ऋणी हो? (नहीं।) ... कुछ माता-पिता अक्सर कहते हैं : ‘तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी कुत्ते को पाल-पोस कर बड़ा करने से भी बदतर है। जब तुम किसी कुत्ते को पाल-पोस कर बड़ा करते हो, तो वह तुम्हारे बहुत करीब होता है और उसे अपने मालिक को देखकर दुम हिलाना आता है। तुम्हें बड़ा करके मैं क्या अपेक्षा रख सकता हूँ? तुम पूरा दिन परमेश्वर में विश्वास रखने में और अपना कर्तव्य निभाने में बिता देते हो, तुम व्यापार नहीं करते, काम पर नहीं जाते, तुम कोई सुरक्षित आजीविका भी नहीं चाहते, और अंत में हमारे तमाम पड़ोसी तुम पर हँसने लगे हैं। मुझे तुमसे क्या हासिल हुआ है? मुझे तुमसे एक भी अच्छी चीज नहीं मिली है, तुम्हारी छत्रछाया में मुझे जरा भी आराम नहीं मिला।’ अगर तुम सांसारिक दुनिया के बुरे चलनों की पीछे चले होते, और तुमने वहाँ सफल होने का प्रयास किया होता, तो तुम्हारे माता-पिता शायद तुम्हारे कष्ट सहने, बीमार होने या दुखी होने पर तुम्हारा साथ देते, तुम्हें बढ़ावा और दिलासा देते। फिर भी वे इस तथ्य से खुश या प्रफुल्लित नहीं हैं कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, और तुम्हारे पास बचाए जाने का अवसर है। इसके विपरीत, वे तुमसे घृणा कर तुम्हें कोसते हैं। अपने सार के आधार पर, ये माता-पिता तुम्हारे शत्रु हैं, कट्टर दुश्मन हैं, वे तुम्हारे जैसे लोग नहीं हैं, वे तुम्हारे मार्ग पर नहीं चल रहे हैं। भले ही तुम सब ऊपर से एक परिवार की तरह दिखाई देते हो, मगर तुम्हारे सार, तुम्हारे अनुसरणों, तुम्हारी पसंद, तुम्हारे चलने के मार्गों, और सकारात्मक चीजों, परमेश्वर और सत्य को देखने के तुम्हारे रवैयों के आधार पर, वे तुम्हारे जैसे लोग नहीं हैं। इसलिए तुम चाहे जितना भी कहो, ‘मुझे उद्धार की आशा है, मैं जीवन में सही मार्ग पर चल पड़ा हूँ,’ उनका दिल नहीं पसीजेगा, वे तुम्हारे लिए खुश और प्रफुल्लित नहीं होंगे। इसके बजाय वे शर्मिंदा महसूस करेंगे। भावनात्मक स्तर पर ये माता-पिता तुम्हारा परिवार हैं, लेकिन उनके प्रकृति सार के आधार पर वे तुम्हारा परिवार नहीं, तुम्हारे शत्रु हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने के बाद मेरा हृदय और भी उज्ज्वल हो गया। परमेश्वर ने उन सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट रूप से संगति है जिनके अनुसार व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ पेश आना चाहिए। यह माता-पिता की हर बात को आँख मूंदकर मानने के बारे में नहीं है; यह भेद पहचानना जरूरी है कि वे किस तरह के लोग हैं। मुझे याद आया कि कैसे अपने कर्तव्यों में मैं कभी-कभी अपने पिता की बातों से प्रभावित होती थी और ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं उनके द्वारा बोली गई भ्रामक भ्रांतियों का भेद नहीं पहचानती थी और क्योंकि मैं लोगों या मामलों को परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं देखती थी और न ही उनके अनुसार आचरण करती थी। मेरा पिता चाहता था कि मैं उसके प्रति संतानोचित रहने और उसके बुढ़ापे में उसकी देखभाल करने और उसे सम्मान दिलाने के लिए पैसा कमाऊँ। पहले जब मैं घर पर होती थी, छुट्टियों के दौरान अपने पिता से मिलने के लिए बढ़िया सिगरेट, शराब और अच्छा खाना साथ लाती थी। जब वह बीमार था तो मैं उसका इलाज करने अस्पताल साथ गई और उसने आज्ञाकारी और समझदार होने के लिए मेरी प्रशंसा की, मुझे संतानोचित बेटी कहा। लेकिन अब मैं उससे मिलने नहीं जा सकी और चूँकि उनकी भौतिक जरूरतें पूरी नहीं हो रही थीं, इसलिए वे मुझसे असंतुष्ट थे। मैं घर वापस नहीं जा पा रही थी क्योंकि बड़ा लाल अजगर मेरे पीछे पड़ा था, फिर भी उसे बड़े लाल अजगर से कोई शिकायत नहीं थी। इसके बजाय उसे लगा कि मैंने उसे शर्मिंदा किया है, मुझे एक बेपरवाह, कृतघ्न और गैर-संतानोचित बेटी कहकर कोसा, मेरे बारे में जो भी कठोर शब्द सोच सका, उन्हें बक दिया। उसने हमारे बीच पिता और बेटी के बंधन को भी दरकिनार कर दिया। मेरा पिता ये सब मेरी भलाई के लिए नहीं कर रहा था। अगर उसे सच में मेरी परवाह होती तो उसे परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने के जीवन में सही मार्ग पर चलने में मेरा साथ देना चाहिए था। इसके बजाय उसने न सिर्फ मेरा साथ नहीं दिया बल्कि मेरा अपमान भी किया और एक बार तो उसने मुझे मजबूर करने के लिए अपनी मौत का इस्तेमाल करने की कोशिश में नदी में छलांग लगा दी। मैंने सत्य और परमेश्वर से घृणा करने की उनकी असली प्रकृति देखी, उसका सार परमेश्वर-विरोधी राक्षस का था और वह परमेश्वर का शत्रु था। ऐसा पिता मेरे लिए इस लायक नहीं था कि मैं उसकी चिंता करूँ या उनके प्रति संतानोचित रहूँ। लेकिन मैं उसके सार का भेद नहीं पहचानती थी और मुझे हमेशा लगता था कि मैंने उसे निराश किया है। मैं वाकई भ्रमित मूर्ख थी, जो सही और गलत के बीच अंतर नहीं जानती थी! एक बार जब मैंने अपने पिता का सार समझ लिया तो मुझे उसके प्रति ऋणी होने का एहसास नहीं हुआ।
परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने सीखा कि मुझे अपने माता-पिता के साथ कैसे पेश आना चाहिए और मुझे यह भी समझ आया कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से पूरा करना और सत्य का अनुसरण करना ही जीवन में सही मार्ग है और मुझे बिना किसी हिचकिचाहट के इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। उसके बाद मैंने अपने हृदय से बोझ की भावना निकाल दी और अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित हो गई और समय के साथ अपने कर्तव्यों में मेरी दक्षता में बहुत सुधार हुआ। यह सारी समझ और लाभ पाने में मेरा सक्षम होना परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के कारण ही संभव हुआ। परमेश्वर का धन्यवाद!