96. मैंने दमन की नकारात्मक भावनाओं को छोड़ दिया है

मैं चर्च में संगीत रचना का कार्य करती हूँ। अक्टूबर 2020 में, चर्च के पदाधिकारियों ने यह तय किया कि भाई वांग चेन और मेरे पास संगीतकारों के काम की समीक्षा करने की जिम्मेदार रहेगी। उस समय, मुझे ज्यादा दबाव महसूस नहीं हुआ और हर दिन कुछ खाली समय भी मिल जाता था। कुछ दिनों के बाद, चर्च के पदाधिकारियों ने मुझे पर्यवेक्षक के पद पर पदोन्नत कर दिया। मैंने सोचा कि पर्यवेक्षक होने का अर्थ हर काम की निगरानी करना है, कि मैं निश्चित रूप से हर दिन व्यस्त रहूंगी, और मुझे पहले जैसा चैन नहीं मिल पायेगा, इसलिए, मैं थोड़ा अनिच्छुक थी। लेकिन फिर मैंने सोचा, “चर्च ने इतने सालों तक मेरा ध्यान रखा है, इसलिए मेरे पास अंतश्चेतना होनी चाहिये, परमेश्वर की मंशा को मानना चाहिये, और अपने बेहतरीन प्रयासों के साथ सहयोग करना चाहिये।” यही सोचकर मैं इस भूमिका के लिए तैयार हो गयी।

उसके बाद, अपने काम में, मुझे न केवल अपनी टीम के सदस्यों की त्रुटिपूर्ण स्थितियों के समाधान के लिये सहभागिता करनी पड़ती, बल्कि मुझे उनके प्रश्नों के उत्तर देते हुये पत्रों के जवाब भी देने पडे। कभी-कभी, जब मैंने काम की समीक्षा पूरी भी नहीं की होती, तो ऐसे पत्र आ जाते थे जिनका त्वरित जवाब देने की आवश्यकता होती थी, और मेरे पास आराम करने के लिए एक क्षण भी नहीं होता था। कभी-कभी मैं थोड़ा आराम करना चाहती थी, लेकिन अगर मैं कुछ पत्रों का समय पर जवाब नहीं देती, तो इसका काम पर असर पड़ता, इसलिए मुझे शीघ्रता से ये प्रतिक्रियाएं देनी पड़ती थीं। बाद में, पदाधिकारी ने देखा कि वांग चेन ने जिन कार्यों की समीक्षा की थी उनमें कुछ समस्याएं थीं, और सुझाव दिया कि मैं उनकी दोबारा समीक्षा करूं। इससे मेरे पास समय और भी कम पड़ने लगा। मैंने ये सभी विवरण देखे जिनका समाधान किया जाना था, और मैंने खुद को बहुत दमित महसूस किया। इनमें से कोई भी कार्य अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता था, और अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहता, तो मैं मानसिक रूप से पूरी तरह थक चुकी होती। मैं उन क्षणों के लिए तरसने लगी जब मैं बस आराम कर सकती थी। मैं पिछला सोचने लगी कि जब मैं पर्यवेक्षक नहीं थी और केवल कार्यों की समीक्षा करती थी, तब कितनी आसानी था, और यह भी कि शायद मुझे अपने पुराने काम पर ही वापस लौट जाना चाहिए! लेकिन फिर मैंने सोचा, “यह अवज्ञाकारी होगा!” इसलिए, मैं अनिच्छा से करती रही। कुछ समय बाद, मैं एक मशीन की तरह महसूस करने लगी, मेरा मस्तिष्क लगातार तनाव में रहता था। हमेशा ऐसे कई मुद्दे होते थे जिनका जवाब देने और जिनके प्रबंधन की आवश्यकता होती थी। हालाँकि मैं रुकने वाली नहीं थी, और मैंने वह सब कुछ किया जो मुझे करना चाहिए था, मैं बस काम के साथ बहती चली जा रही थी। मुझे अपने दिल पर कोई बोझ महसूस नहीं हुआ, और मैं परिणाम नहीं चाह रही थी। मैं बस यांत्रिक रूप से हाथ में लिये गये कार्यों को पूरा कर रही थी, और मैंने अपने कार्य में कभी कोई प्रगति नहीं की। वांग चेन ने कहा कि मुझे बोझ का कोई एहसास नहीं है, परन्तु मैं यह सुनना नहीं चाहती थी और मन ही मन शिकायत करने लगी, “मैं पहले से ही बहुत व्यस्त हूँ, इतने सारे कामों को संभालते हुये, मेरे लिये सभी का प्रबंधन कैसे संभव हो सकता है? क्या तुम मुझसे बहुत ज़्यादा नहीं मांग रहे हो? तुम्हें क्या लगता है मेरे पास कितने हाथ और सिर हैं? मैं एक साथ दो स्थानों पर नहीं हो सकती।” मैंने आत्म विश्लेषण नहीं किया और वांग चेन के प्रति भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो गयी। कभी-कभी मैं सोचती थी, “शायद मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए और फिर से एक ही ज़िम्मेदारी वाले काम की ओर लौट जाना चाहिये, जोकि बहुत कम थकाने वाला होगा।” चूँकि मेरी स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए मैंने काम में प्रत्यक्ष समस्याओं पर ध्यान ही नहीं दिया। जब वांग चेन ने बताया कि मेरे लापरवाही भरे रवैये और कर्तव्य के प्रति सजग न रहने के कारण काम की प्रगति प्रभावित हुयी है, तब जाकर मैंने आत्मचिंतन शुरू किया और भगवान से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे लगता है कि यह ज़िम्मेदारी मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मैं काफी व्यथित और दमित महसूस करती हूं और अक्सर अपने दायित्व को त्यागने का विचार करती हूं। मैं जानती हूं कि यह स्थिति ठीक नहीं है, परंतु मैं अपनी समस्याओं की पहचान नहीं कर पाती हूं। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें और इस खराब स्थिति को पलटने में मेरी सहायता करें।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “आम तौर पर सामान्य लोग इन कठिनाइयों के बारे में सुनकर थोड़ा घबरा जाते हैं, थोड़ा दबाव महसूस करते हैं, लेकिन जो लोग परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी होते हैं, वे कठिनाइयों का सामना और दबाव महसूस करने पर अपने दिल में मौन होकर प्रार्थना करेंगे और परमेश्वर से विनती करेंगे कि वह उन्हें मार्गदर्शन, आस्था, प्रबोधन और मदद दे, और वे गलतियाँ करने से बचने के लिए उससे रक्षा करने की विनती भी करेंगे ताकि वे अपनी वफादारी अच्छे से निभा सकें और एक स्वच्छ जमीर प्राप्त करने के लिए पुरजोर कोशिश कर सकें। लेकिन मसीह-विरोधियों जैसे लोग ऐसे नहीं होते हैं। जब वे यह सुनते हैं कि कार्य में मसीह द्वारा कुछ विशिष्ट व्यवस्थाएँ की हैं जो उन्हें लागू करनी हैं और कार्य में कुछ कठिनाइयाँ हैं, तो वे मन-ही-मन प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और इसे करने को तैयार नहीं होते हैं। यह अनिच्छा कैसी दिखती है? वे कहते हैं : ‘मेरे हिस्से में कभी अच्छी चीजें क्यों नहीं आतीं? मुझे हमेशा समस्याएँ और माँगें क्यों पकड़ा दी जाती हैं? क्या मुझे निठल्ला या हुक्म का गुलाम मान लिया गया है? मुझ पर हुक्म चलाना इतना आसान नहीं है! तुम इसे इतनी आसानी से कह देते हो, तुम इसे खुद करने की कोशिश क्यों नहीं करते!’ क्या यह समर्पण है? क्या यह स्वीकृति का रवैया है? वे क्या कर रहे हैं? (प्रतिरोध कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं।) यह प्रतिरोध और विरोध कैसे उत्पन्न होता है? उदाहरण के लिए, अगर उनसे कहा जाए, ‘जाओ कुछ किलोग्राम मांस खरीद लाओ और सबके लिए धीमी आँच में पका चाशु यानी ब्राइड पोर्क बनाओ’ तो क्या वे इसका विरोध करेंगे? (नहीं।) लेकिन अगर उनसे यह कहा जाए कि ‘तुम आज जाकर उस खेत की जुताई करो और जुताई करते समय तुम्हें खेत के सारे पत्थर हटाने होंगे, तभी तुम्हें खाना मिल पाएगा।’ तो वे अनिच्छुक हो जाएँगे। कम में जब एक बार शारीरिक कष्ट, कठिनाई या दबाव शामिल हो जाता है तो उनकी नाराजगी सतह पर आ जाती है और वे ऐसा करने को राजी नहीं होते; वे प्रतिरोध और शिकायत करने लगते हैं : ‘मेरे साथ अच्छी चीजें क्यों नहीं होतीं? जब आसान और हल्के कामों की बारी आती है तो मेरी अनदेखी क्यों कर दी जाती है? मुझे कठिन, थकाऊ या गंदे कामों के लिए क्यों चुना जाता है? क्या इसका यह कारण है कि मैं निष्कपट और आसानी से धौंस में आ जाने वाला लगता हूँ?’ यहीं से आंतरिक प्रतिरोध शुरू होता है। वे इतने प्रतिरोधी क्यों होते हैं? कैसा ‘गंदा और थकाऊ काम’? कैसी ‘कठिनाइयाँ’? क्या ये सब उनके कर्तव्य का हिस्सा नहीं हैं? जिसे भी यह काम सौंपा जाए उसे ही करना चाहिए; इसमें ठोक-बजाकर चुनने की क्या बात है? क्या यह उनके लिए जान-बूझकर कठिनाई खड़ी करने को लेकर है? (नहीं।) लेकिन वे मानते हैं कि उनके लिए जान-बूझकर कठिनाई खड़ी की जा रही है, उन्हें मुश्किल में डाला जा रहा है, इसलिए वे इस कर्तव्य को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और इसे स्वीकारने के इच्छुक नहीं रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? क्या ऐसा है कि जब उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और वे आराम से नहीं रह सकते, तो वे प्रतिरोधी बन जाते हैं? क्या यह बिना शर्त, शिकायत-रहित समर्पण है? वे जरा-सी कठिनाई में अनिच्छुक हो जाते हैं। ऐसा कोई भी काम जो वे नहीं करना चाहते, जो उन्हें कठिन, अवांछनीय, नीच लगता है या जो दूसरों की नजर में तुच्छ समझा जाता है, वे उसके प्रति जरा-सा भी समर्पण नहीं दिखाते और उसका उग्रता से प्रतिरोध करते हैं, उस पर ऐतराज करते हैं और उसे करने से इनकार कर देते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि जब मानवता वाला कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य में कठिनाइयों और दबाव का सामना करता है, वो प्रार्थना कर पाता है, परमेश्वर पर भरोसा कर पाता है, और प्रतिरोध या विरोध करने के बजाय सहयोग करने की पूरी कोशिश करता है। परन्तु जब एक मसीह-विरोधी को अपने कर्तव्य में थोड़ी सी भी कठिनाई या दबाव का सामना करना पड़ता है और उसे कष्ट उठाना पड़ता है या कीमत चुकानी पड़ती है, पहली चीज़ जो वो करता है, वह है विरोध करना, विद्रोह करना और शिकायत करना। वे यह भी सोचते हैं कि लोग उनका जीवन कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे कि वे पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं, और उनसे गुलाम की तरह काम कराते हैं। इससे, हम मसीह-विरोधियों के अत्यधिक स्वार्थ और नीचता को देखते हैं, और यह भी कि वे परमेश्वर के इरादों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं। क्या मेरा व्यवहार ऐसा ही नहीं था? मुझ पर परमेश्वर का अनुग्रह था कि मुझे पर्यवेक्षक बनने का यह अवसर मिला, लेकिन जब मैंने देखा कि काम का बोझ कितना भारी था और कैसे अगुआ प्रत्येक कार्य की बारीकी से खोज-खबर लेते थे, मुझे लगा कि मैं बहुत दबाव में हूं और मेरी देह को बहुत कष्ट सहना पड़ेगा, इसलिए मैं अनिच्छुक हो गई और वास्तव में प्रतिरोधी बन गई। मुझे लगा कि यह कर्तव्य बहुत दमनकारी और कष्टदायक है। मैंने काम के प्रति बोझ की अपनी भावना खो दी, और मैंने उन कार्यों पर ध्यान नहीं दिया जिन्हें मुझे करना चाहिए था। जब वांग चेन ने मुझे याद दिलाया कि मुझे बोझ का कोई अहसास नहीं है, तब भी मुझे अनिच्छा महसूस हुई, और मेरे मन में उसके प्रति पूर्वाग्रह भी विकसित हो गया। मैंने देखा कि परमेश्वर द्वारा आयोजित और व्यवस्थित की गई इस स्थिति के प्रति मेरा रवैया प्रतिरोध और विरोध का था, और यह कि मैं बिल्कुल भी समर्पण नहीं कर रही थी। क्या मैं ठीक एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट नहीं कर रही थी? चाहे वह काम पर करीब से नज़र रखने वाले अगुआ हों या मेरा साझेदार भाई मेरी समस्याएँ बता रहा हो, यह सब कलीसिया के हितों की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने के लिए है कि कार्य के अच्छे परिणाम प्राप्त हों। मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए और पूरी निष्ठा से सहयोग देना चाहिए। इस तरह का जमीर और विवेक एक सामान्य व्यक्ति में होना चाहिए। लेकिन मैं पूरी तरह से प्रतिरोधी महसूस करती रही और मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। मुझे महसूस हुआ कि मेरे साथ तो अन्याय हुआ है और मैंने अपना कर्तव्य छोड़ने पर विचार किया। मैंने देखा कि मैं सचमुच विवेक से परे थी! अपने कर्तव्य को इस तरह से लेना दर्शाता है कि मुझमें बिल्कुल भी मानवता नहीं है! मैंने परमेश्वर के इरादों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया, और मैंने केवल अपने दैहिक हितों के बारे में सोचा, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना हर संभव प्रयास करने को तैयार नहीं हुयी, और इससे कलीसिया का काम प्रभावित हुआ। इसमें, मैं वास्तव में विद्रोही थी और मैंने परमेश्वर के दिल को चोट पहुंचायी। इसलिए मैंने अपने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदलने की इच्छा रखते हुए, परमेश्वर से प्रार्थना की।

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर के इरादों को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और वफादारी से उस पर डटे रहते हो, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर लोगों को जो बोझ देता है वह सब उनकी सहन करने की सीमा के भीतर होता है और वो मानवीय हदों को पार नहीं करता क्योंकि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को समझता है। यह कर्तव्य जो मुझे दिया गया था वह परमेश्वर की ओर से एक परीक्षा थी, और मैं अपने दैहिक आराम के लिए अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, स्वयं से विद्रोह किया और समर्पण किया, अपने कर्तव्य के प्रति अपने पिछले रवैये में बदलाव किया। मैंने दैनिक कार्यभार के आधार पर अपने समय की यथोचित योजना बनाई, और मैंने अपने कार्यों की प्राथमिकता तय की, जिससे समग्र कार्यदक्षता में सुधार हुआ। कुछ समय बाद, कभी-कभी जब काम का बोझ बढ़ जाता, तब भी मैं दमित महसूस करती, पर मैं जागरूकता से खुद से विद्रोह करके, और सक्रिय रूप से ऊपर उठने की कोशिश करते हुये, समस्याओं को हल करने के लिए सिद्धांतों को तलाश करने की पहल कर पा रही थी। वास्तविक सहयोग के माध्यम से, कार्य के समग्र परिणामों में सुधार हुआ।

कुछ समय बाद, मैंने सुना कि कलीसिया ने मुझे पदोन्नति देकर मुझे ज़िम्मेदारी निभाने के लिए किसी और स्थान पर भेजने की योजना बनाई है, और जब मैंने सोचा कि तब से मेरा कार्यभार कैसे और भी अधिक हो जायेगा, दमन की मेरी नकारात्मक भावनाएं अनजाने में फिर से सामने आ गईं। हालांकि मुझे पता था कि यह स्थिति गलत थी, लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि इसे कैसे सुलझाया जाए। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है मन में आने वाली हर इच्छा के अनुसार कार्य न कर पाना। वे जो चाहें, जब चाहें और जैसे चाहें, वैसा कर पाना एक ऐसी अपेक्षा है, जो इन लोगों के काम और जीवन दोनों में होती है। हालाँकि विभिन्न कारणों से, जिनमें कानून, जीवन-परिवेश या किसी समूह के नियम, प्रणालियाँ, शर्तें और अनुशासनात्मक युक्तियाँ आदि शामिल हैं, लोग अपनी इच्छाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करने में असमर्थ रहते हैं। नतीजतन, वे अपने दिल की गहराइयों में दमित महसूस करते हैं। दो-टूक कहें तो यह दमन इसलिए होता है कि लोग व्यथित महसूस करते हैं—कुछ लोगों को अन्याय भी महसूस होता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैसा चाहे वैसा करने में असमर्थ होने का अर्थ है अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाना—इसका अर्थ है कि व्यक्ति विभिन्न कारणों से और विभिन्न वस्तुनिष्ठ परिवेशों और स्थितियों के प्रतिबंधों के चलते जिद्दी या स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा अनमने रहते हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय ढिलाई बरतने के तरीके ढूँढ़ते हैं। कभी-कभी कलीसिया के काम में शीघ्रता आवश्यक होती है, लेकिन वे वैसे करना चाहते हैं, जैसा वे चाहते हैं। अगर वे शारीरिक रूप से बहुत अच्छा महसूस नहीं करते, या कुछ दिनों तक उनकी मनोदशा खराब रहती है और वे उदासी महसूस करते हैं, तो वे कलीसिया का काम करने के लिए कठिनाई सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं होते। वे खास तौर से आलसी और आराम-तलब हो जाते हैं। जब उनमें प्रेरणा की कमी होती है, तो उनका शरीर सुस्त हो जाता है और वे हिलने-डुलने को तैयार नहीं होते, लेकिन उन्हें अगुआओं द्वारा काट-छाँट का और अपने भाई-बहनों द्वारा आलसी कहे जाने का डर होता है, इसलिए अन्य सभी के साथ अनिच्छा से काम करने के सिवाय वे कुछ नहीं कर पाते। लेकिन वे इस बारे में बहुत अनिच्छुक, नाखुश और निरुत्सुक महसूस करेंगे। वे अपकृत, व्यथित, नाराज और थका हुआ महसूस करेंगे। वे अपनी इच्छानुसार कार्य करना चाहते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और व्यवस्थाओं से अलग होने या उनके विरुद्ध जाने का साहस नहीं करते। नतीजतन, समय के साथ उनके भीतर एक भावना उभरने लगती है—दमन। जब यह दमनात्मक भावना उनमें घर कर जाती है, तो वे धीरे-धीरे उदासीन और कमजोर दिखाई देने लगते हैं। किसी मशीन की तरह उन्हें अब इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होती कि वे क्या कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे वही करते हैं जो उनसे रोज करने के लिए कहा जाता है, और उसी तरह करते हैं जिस तरह से उन्हें करने के लिए कहा जाता है। हालाँकि सतह पर वे बिना रुके, बिना थमे, बिना अपने कर्तव्य निभाने वाले परिवेश से दूर गए अपने काम करते रहेंगे, लेकिन अपने दिल में वे दमित महसूस करेंगे और सोचेंगे कि उनका जीवन थकाऊ और शिकायतों से भरा है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से ही मुझे एहसास हुआ कि जब भी मुझे भारी काम के बोझ और अपने कर्तव्य के दबाव का सामना करना पड़ता था, तो मैं दमित महसूस करती थी। यह मुख्य रूप से अपनी मर्ज़ी के अनुसार अपना कर्तव्य करने की मेरी इच्छा के कारण था, और एक बार जब मेरा कर्तव्य मेरी दैहिक इच्छाओं के साथ मेल नहीं खाता था और मैं अपनी इच्छानुसार काम नहीं कर पाती थी, तो मैं दमित और पीड़ित महसूस करती थी। पहले, मैं केवल काम की जांच के लिए ज़िम्मेदार थी और मुझे बहुत अधिक चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी, और कोई ज़्यादा कठिनाई या दबाव नहीं था, इसलिये मैं सामान्य रूप से सहयोग कर पायी। लेकिन पर्यवेक्षक बनने के बाद, मुझे काम के सभी पहलुओं की जिम्मेदारी लेनी पड़ी, और मुझे कार्य के प्रत्येक मद पर विचार करना और उसका जायजा लेना होता था। इसके ऊपर से, अगुआओं ने मुझसे वांग चेन द्वारा जांचे गए काम की निगरानी करवाई, जिसका मतलब था कि मुझे और भी अधिक समय और ऊर्जा लगानी पड़ती थी। मैं प्रतिरोध महसूस कर रही थी और समर्पण करने को तैयार नहीं थी, लेकिन मैंने मना करने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि मुझे डर था कि अगुआ कहेंगे कि मुझमें बोझ की भावना नहीं है। हालांकि मैं काम करती हुयी दिखाई देती थी, मैं अंदर से विमुख और अनिच्छुक थी। कभी-कभी, मैं किसी काम को यह सोचकर सरसरी तौर पर जांच देती थी कि यह ठीक-ठाक है, लेकिन फिर यदि समस्यायें उत्पन्न होती थीं, तो मुझे इसे फिर से करना पड़ता था। जब वांग चेन ने मेरी समस्याओं के बारे में बताया, मैंने जवाब लड़ाए और हठपूर्वक विरोध करती और इस्तीफा देने तक के बारे में सोचने लगती। मैंने कई वर्षों तक परमेश्वर के वचनों के प्रावधान का आनंद लिया है, फिर भी मैंने परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने का प्रयास नहीं किया। जब मुझे वफ़ादार होने की ज़रूरत थी, मैंने अपनी मर्ज़ी के अनुसार काम किया, यहां तक कि मैं अपने कर्तव्य से भी बचना चाहती थी और कलीसिया के काम की उपेक्षा करना चाहती थी। सचमुच मुझमें मानवता की कमी थी! इन दृश्यों को याद करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि मेरा मामला वास्तव में काफी गंभीर था। यदि मेरी दमनकारी भावनाओं का समय रहते समाधान नहीं किया गया, मैं और अधिक निराश और पतनोमुख हो जाऊँगी, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में असमर्थ हो जाऊंगी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े और अपनी समस्याओं की स्पष्ट समझ प्राप्त की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों के दमन का कारण क्या होता है? यह निश्चित रूप से शारीरिक थकान के कारण नहीं होता, तो इसका कारण क्या होता है? अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। ... वे अक्सर इन मामलों में दमित महसूस करते हैं और भाई-बहनों से मदद स्वीकारने या अगुआओं द्वारा निरीक्षण किए जाने के लिए तैयार नहीं होते। अगर वे कोई गलती करते हैं, तो वे दूसरों को अपने निपटान या काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देंगे। वे किसी भी तरह से बंधन में नहीं रहना चाहते। वे सोचते हैं, ‘मैं परमेश्वर में इसलिए विश्वास करता हूँ ताकि मुझे खुशी मिल सके, तो मैं अपने लिए चीजें कठिन क्यों बनाऊँ? मेरा जीवन इतना थकाऊ क्यों हो? लोगों को खुशी से रहना चाहिए। उन्हें इन नियमों और उन प्रणालियों पर इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। उनका हमेशा पालन करने से क्या लाभ? अभी इसी क्षण मैं जो चाहूँ सो करने जा रहा हूँ। तुम लोगों में से किसी को भी इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए।’ इस तरह का व्यक्ति खास तौर से जिद्दी और स्वच्छंद होता है : वह खुद को किसी भी रुकावट से पीड़ित नहीं होने देता, न ही वह किसी कार्य-परिवेश में रुकावट महसूस करना चाहता है। वे परमेश्वर के घर के नियमों और सिद्धांतों का पालन नहीं करना चाहते, वे उन सिद्धांतों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते जिनका लोगों को अपने आचरण में पालन करना चाहिए, यहाँ तक कि वे उस चीज का भी पालन नहीं करना चाहते जो जमीर और विवेक कहते हैं कि उन्हें करना चाहिए। वे जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, वे वही करना चाहते हैं जिससे उन्हें खुशी मिले, जो उन्हें फायदा पहुँचाए और जिसमें उन्हें आराम महसूस हो। उनका मानना होता है कि इन रुकावटों के तहत रहना उनकी इच्छा का उल्लंघन होगा, यह एक तरह का आत्म-अपमान होगा, यह अपने प्रति बहुत कठोरता होगी, और लोगों को इस तरह नहीं रहना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोगों को अपने दैहिक सुख और कामनाओं के साथ-साथ अपने आदर्शों और इच्छाओं का बेलगाम आनंद लेते हुए स्वतंत्र और मुक्त होकर जीना चाहिए। उन्हें लगता है कि उन्हें अपने तमाम विचारों का आनंद लेना चाहिए, जो चाहे कहना चाहिए, जो चाहे करना चाहिए और जहाँ चाहे जाना चाहिए और ऐसा उन्हें बिना नतीजों या अन्य लोगों की भावनाओं की परवाह किए और खासकर बिना अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों पर विचार किए करना चाहिए, या उन कर्तव्यों पर जो विश्वासियों को निभाने चाहिए, या उन सत्य वास्तविकताओं पर जिन्हें उन्हें कायम रखना और जीना चाहिए, या उस जीवन-मार्ग पर जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए। लोगों का यह समूह हमेशा समाज में और अन्य लोगों के बीच जैसा चाहे वैसा करना चाहता है, लेकिन चाहे वे कहीं भी जाएँ, वे उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते। वे मानते हैं कि परमेश्वर का घर मानवाधिकारों पर जोर देता है, लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता देता है, वह मानवता की और लोगों के साथ सहनशीलता और धैर्य बरतने की परवाह करता है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में आने के बाद वे अपने दैहिक सुखों और इच्छाओं में मुक्त रूप से लिप्त हो पाएँगे, लेकिन चूँकि परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश और विनियम हैं, इसलिए वे अभी भी जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। इसलिए परमेश्वर के घर में शामिल होने के बाद भी उनकी इस नकारात्मक दमनात्मक भावना का समाधान नहीं हो पाता। वे किसी तरह की जिम्मेदारियाँ निभाने या कोई मिशन पूरा करने या एक सच्चा इंसान बनने के लिए नहीं जीते। परमेश्वर में उनका विश्वास एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपना मिशन पूरा करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए नहीं होता। चाहे वे जिन भी लोगों के बीच हों, जिन भी परिवेशों में हों या जिस भी पेशे में हों, उनका अंतिम लक्ष्य खुद को ढूँढ़ना और तृप्त करना होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य इसी के इर्द-गिर्द घूमता है और आत्म-तृप्ति उनके जीवन भर की इच्छा और उनके अनुसरण का लक्ष्य होती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। “समाज में कौन लोग होते हैं, जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते? वे आलसी, मूर्ख, कामचोर, गुंडे, बदमाश और आवारा—ऐसे ही लोग होते हैं। वे कोई नए कौशल या क्षमताएँ नहीं सीखना चाहते, न ही वे गंभीर करियर बनाना या नौकरी ढूँढ़ना चाहते हैं ताकि अपना गुजारा कर सकें। वे समाज के आलसी और आवारा लोग हैं। वे कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, और फिर बिना कुछ दिए कुछ पाना चाहते हैं, और अपने हिस्से के आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। वे अवसरवादी हैं। ये अवसरवादी कभी अपने कर्तव्य करने को तैयार नहीं होते। अगर चीजें थोड़ी-सी भी उनके अनुसार नहीं होतीं, तो वे दमित महसूस करते हैं। वे हमेशा स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं, वे किसी भी तरह का काम नहीं करना चाहते, और फिर भी वे अच्छा खाना और अच्छे कपड़े पहनना चाहते हैं, और जो चाहे खाना और जब चाहे सोना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जब ऐसा दिन आएगा, तो वह निश्चित ही अद्भुत होगा। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं सहना चाहते और भोग-विलास के जीवन की कामना करते हैं। इन लोगों को जीना भी थका देने वाला लगता है; वे नकारात्मक भावनाओं से बँधे होते हैं। वे अकसर थका हुआ और भ्रमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते। वे अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहते या अपने उचित मामले नहीं सँभालना चाहते। वे किसी नौकरी पर टिके रहना और उसे अपना पेशा और कर्तव्य, अपना दायित्व और जिम्मेदारी मानकर शुरू से आखिर तक लगातार करते रहना नहीं चाहते; वे उसे खत्म करके परिणाम प्राप्त करना नहीं चाहते, न ही उसे यथासंभव सर्वोत्तम मानक के अनुसार करना चाहते हैं। उन्होंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। वे बस बेमन से कार्य करना चाहते हैं और अपने कर्तव्य को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब उन्हें थोड़ा दबाव या किसी तरह के नियंत्रण का सामना करना पड़ता है, या जब उन्हें थोड़ा ऊँचे स्तर पर रखा जाता है या थोड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो वे असहज और दमित महसूस करते हैं। उनके भीतर ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें जीना थका देने वाला लगता है और वे दुखी रहते हैं। जीना थका देने वाला लगने का एक बुनियादी कारण यह है कि ऐसे लोगों में समझ की कमी होती है। उनकी समझ क्षीण होती है, वे पूरा दिन कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, सपनों में जीते हैं, दिवा-स्वप्न देखते हैं, हमेशा अत्यधिक अजीबोगरीब चीजों की कल्पना करते हैं। यही कारण है कि उनके दमन का समाधान करना बहुत कठिन होता है। उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती, वे छद्म-विश्वासी होते हैं। एकमात्र चीज जो हम कर सकते हैं, वह यह है कि उन्हें परमेश्वर का घर छोड़ने, दुनिया में लौटने और आराम और सुख की अपनी जगह खोजने के लिए कह दें(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि लोगों द्वारा महसूस की जाने वाली दमनकारी भावनायें शारीरिक पीड़ा या थकावट के कारण नहीं होती हैं, और वे मुख्य रूप से किसी व्यक्ति की मानसिकता और दृष्टिकोण से जुड़ी समस्याओं के कारण होती हैं। मैंने मन ही मन सोचा, “उसी स्थिति का सामना करते समय जहां किसी को थोड़ा अधिक बोझ उठाना पड़ता है, थोड़ी अधिक कीमत चुकानी पड़ती है, शारीरिक कष्ट सहना होता है, चिंता करनी पड़ती है, और ऊर्जा लगानी होती है, ऐसा क्यों है कि कुछ लोग दमित महसूस नहीं करते, और यहां तक महसूस करते हैं कि यह परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया जाना है, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने और परमेश्वर के प्यार का बदला चुकाने का प्रयास करते हैं जबकि अन्य लोग इसे एक दर्दनाक और दमनकारी मामले के रूप में देखते हैं? दरअसल, इसका कारण उनका काम में बहुत व्यस्त होना नहीं है, इसका मुख्य कारण यह है कि वे देह पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं और हमेशा आराम की तलाश में रहते हैं। लोग जिसका अनुसरण करते हैं और जिसके लिए तरसते हैं उसमें उन्हें खुशी मिलती है। यदि वे जिसकी लालसा रखते हैं वह सकारात्मक चीज़ें हैं, और यदि वे सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का प्रयास करते हैं, फिर अपने कर्तव्यों में थोड़ी अधिक मेहनत करने से उन्हें दमित होने का एहसास नहीं होगा, और इसके बजाय, वे सहज और आनंदित महसूस करेंगे।” जिस कारण मैंने इन दमनकारी भावनाओं को महसूस किया वह मुख्यत: यह था कि मेरा अनुसरण गलत दृष्टिकोणों पर आधारित था। मैं इस शैतानी दर्शन के अनुसार जी रही थी कि “शराब का स्वाद लेना और संगीत का आनंद लेना, जीवन वास्तव में कितना समय देता है?” और “ज़िंदगी छोटी है, तो जब तक है मौज करो।” मेरा मानना था कि व्यक्ति को जैसे चाहे वैसे जीना चाहिए, खुशी और आराम महसूस करते हुए, बिना किसी रुकावट या प्रतिबंध के, और इस तरह से जीना स्वतंत्रता का प्रतीक था। यदि कोई व्यक्ति हमेशा दबा हुआ रहता है और स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता है, तो उसे घुटन महसूस होगी, और यह स्वयं के साथ दुर्व्यवहार के समान होगा। मुझे अपने स्कूल के दिनों की बात याद आई, कई सहपाठियों ने भविष्य में अच्छी नौकरी पाने के लिए कड़ी मेहनत की, जबकि मैं तो 45 मिनट की कक्षा के दौरान भी दबाव महसूस करती थी। काम पर लगने के बाद भी, मैं कंपनी के कायदे-कानूनों से बंधा नहीं रहना चाहती थी, और अगर मैं हमेशा उच्च तनाव की स्थिति में रहती, तो मुझे अपनी स्थिति बदलने की आवश्यकता महसूस होती। परमेश्वर को पाने के बाद भी मेरी यही मानसिकता बनी रही, हमेशा अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करने को प्राथमिकता देती थी, चाहती थी कि मेरा कार्यक्रम मेरी इच्छा के अनुसार हो और किसी दबाव का सामना न करना पड़े। यदि काम में मेरी व्यस्तता अधिक होती और दबाव ज्यादा होता, और मैं अपनी इच्छानुसार काम नहीं कर पाती, मैं अवज्ञाकारी और दमित महसूस करती, और मैं बस बिना मन लगाए काम करती, यहां तक कि नकारात्मक और लापरवाह भी होने लगी। फलस्वरूप, कार्य के परिणाम प्रभावित हुए। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया भरोसे के लायक नहीं था और इससे परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा था। अपनी मर्ज़ी के अनुसार अपना काम करने और अपनी देह को संतुष्ट करने में, मैं स्पष्ट रूप से अपने उचित कार्य की उपेक्षा कर रही थी। मेरा मुद्दों पर दृष्टिकोण और जिन चीजों का मैंने अनुसरण किया वे समाज में आवारा और निकम्मे लोगों के समान ही थे, फिर भी मैंने गलती से यह मान लिया था कि इस तरह जीने का मतलब है कि मैं स्वच्छंद हो सकती हूँ और मेरा व्यक्तित्व है। मैं सचमुच मूर्ख थी। खासकर जब मैंने देखा कि परमेश्वर ऐसे लोगों के बारे में कहता है कि “उनकी समझ क्षीण होती है,” “वे छद्म-विश्वासी होते हैं,” और “उन्हें परमेश्वर का घर छोड़ने, दुनिया में लौटने और आराम और सुख की अपनी जगह खोजने के लिए कह दें,” मुझे और भी ज्यादा पछतावा और अपराधबोध महसूस हुआ। मैं प्रार्थना के लिये परमेश्वर के सामने पहुंची। “हे परमेश्वर, मैं अपने कार्यों पर अपने पिछले गलत दृष्टिकोण को बदलने के लिए तैयार हूं, और अब अपनी मर्ज़ी के अनुसार काम करने का प्रयास नहीं करूंगी। मैं एक जिम्मेदार व्यक्ति बनना चाहती हूँ जो बोझ उठाता है, और चाहे मुझे कितनी भी बड़ी कठिनाइयों या दबावों का सामना करना पड़े, मैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाऊंगी ताकि आपके दिल को सुकून मिल सके।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अभ्यास का एक मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। तुम्हें निर्णायक मामलों में निर्णायक समय पर और निर्णायक कार्यों में परमेश्वर की मदद लेनी चाहिए। अगर तुम में संकल्प है, तो तुम्हें परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह तुम्हें ताड़ना देकर अनुशासित करे, और तुम्हें प्रबुद्ध करे ताकि तुम सत्य समझ सको, इस तरह तुम्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। अगर तुम में वास्तव में दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में उससे प्रार्थना कर विनती करते हो, तो परमेश्वर कार्य करेगा। वह तुम्हारी अवस्था और तुम्हारे विचार बदल देगा। अगर पवित्र आत्मा थोड़ा-सा कार्य करता है, तुम्हें थोड़ा प्रेरित और थोड़ा प्रबुद्ध करता है, तो तुम्हारा हृदय बदल जाएगा और तुम्हारी अवस्था रूपांतरित हो जाएगी। जब यह रूपांतरण होता है, तो तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना दमनात्मक नहीं है। तुम्हारी दमित अवस्था और भावनाएँ रूपांतरित होकर हलकी हो जाएँगी, और वे पहले से अलग होंगी। तुम महसूस करोगे कि इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में आनंद मिलेगा। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना, आचरण करना और अपना कर्तव्य निभाना, कठिनाइयाँ सहना और कीमत चुकाना, नियमों का पालन करना और सिद्धांतों के आधार पर काम करना अच्छा है। तुम महसूस करोगे कि सामान्य लोगों को इसी तरह का जीवन जीना चाहिए। जब तुम सत्य के अनुसार जीते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारा दिल स्थिर और शांत है और तुम्हारा जीवन सार्थक है। तुम सोचोगे : ‘मुझे यह पहले क्यों नहीं पता चला? मैं इतना जिद्दी क्यों था? पहले मैं शैतान के फलसफों और स्वभाव के अनुसार जीता था, न तो इंसान की तरह जीता था न ही भूत की तरह, और जितना ज्यादा जीता था, उतना ही ज्यादा यह पीड़ादायक महसूस होता था। अब जब मैं सत्य समझता हूँ, तो मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव थोड़ा छोड़ सकता हूँ और अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में बिताए गए जीवन की सच्ची शांति और खुशी महसूस कर सकता हूँ!’ क्या तब तुम्हारी मनोदशा बदल नहीं गई होगी? (हाँ।) जब तुम जान जाते हो कि तुम्हारा जीवन पहले दमनात्मक और दुखद क्यों लगता था, जब तुम अपने कष्ट का मूल कारण ढूँढ़ लेते हो और समस्या हल कर लेते हो, तो तुम्हें बदलाव की उम्मीद होगी। अगर तुम सत्य की दिशा में प्रयास करते हो, परमेश्वर के वचनों पर ज्यादा श्रम करते हो, सत्य के बारे में ज्यादा संगति करते हो और अपने भाई-बहनों की अनुभवात्मक गवाहियाँ भी सुनते हो, तो तुम्हारे पास एक स्पष्ट मार्ग होगा, तब क्या तुम्हारी अवस्था में सुधार नहीं होगा? अगर तुम्हारी अवस्था में सुधार होता है, तो तुम्हारी दमनात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे कम हो जाएँगी और अब तुम्हें उलझाएँगी नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि जो लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं और अपने उचित कर्तव्यों का पालन करते हैं, वे परमेश्वर के इरादों को समझते हैं और उन पर विचार करते हैं, और हमेशा उचित मामलों को ध्यान में रखते हैं। वे अपने कर्तव्यों को पूरा करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने को अपनी जिम्मेदारी और लक्ष्य मानते हैं। भले ही अनेक कठिनाइयां और भारी दबाव हों, वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और उन पर भरोसा करेंगे और प्रत्येक कार्य में अपना सर्वश्रेष्ठ देंगे। जब उन्हें ऐसा लगता है कि वे दुराग्रही हो रहे हैं, तो वे खुद से भी विद्रोह करके, परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन पाने के लिये प्रार्थना करते हैं। मैंने नूह के बारे में सोचा जब उसे परमेश्वर का आदेश प्राप्त हुआ था। वह परमेश्वर के तात्कालिक इरादों को समझ गया, इसलिए जब जहाज़ के निर्माण के महान कार्य का सामना करना पड़ा, तो भले ही कठिनाई और दबाव बहुत अधिक था, नूह का इससे बचने या भागने का कोई इरादा नहीं था, न ही उसने इसके साथ लापरवाही बरती। इसके बजाय, वह चिंतित था और केवल परमेश्वर के आदेश को यथाशीघ्र पूरा करना चाहता था। उसने परमेश्वर के प्रत्येक निर्देश को ध्यान से सुना और उन पर कार्य किया, और उसे किसी भी विवरण के छूट जाने का डर था जिससे काम की गुणवत्ता और प्रगति प्रभावित हो। खुद को देखूँ तो, सचमुच मुझमें मानवता की बहुत कमी थी। परमेश्वर ने मुझसे कोई अत्यधिक मांग नहीं की थी, परमेश्वर ने बस मुझे कुछ और बोझ वहन करने के लिए दिये थे जिन्हें मैं अपने आध्यात्मिक कद और क्षमता के आधार पर हासिल कर सकती थी, और वह ऐसा इसलिए कर रहा था ताकि मैं और अधिक प्रशिक्षण ले सकूं, जीवन में तेजी से प्रगति कर सकूं, और अपने कर्तव्य को एक मानक तरीके से जल्दी पूरा कर सकूं। और फिर भी, मैं परमेश्वर के हृदय को बिल्कुल भी नहीं समझ पायी थी; मैं सचमुच उसकी ऋणी थी। यदि मुझे और अधिक बोझ उठाने के लिये सौंपा जाए, तो मैं बिल्कुल भी फिर से परमेश्वर के श्रमसाध्य अच्छे इरादों को निराश नहीं कर सकती। यह सबक सीखने के ठीक बाद, अगुआ ने मुझे लिखा कि मुझे अपनी जिम्मेदारियां किसी और स्थान पर निभानी होंगी। मैं जानती थी कि यह परमेश्वर द्वारा मुझ पर एक और बोझ डाला जा रहा था। और चाहे यह कितना भी दबाव लेकर आए, मुझे यह ज़िम्मेदारी निभानी ही थी। यह मेरे लिए अपने अपराध की भरपाई करने का एक अवसर भी था, इसलिए मैंने सहमति दे दी। जब मैं अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उस नए स्थान पर पहुंची, तो काम का बोझ सच में बढ़ गया, और मुझे अब भी काफी दबाव महसूस होता था। हालांकि, जब मैंने यह सोचा कि यह अतिरिक्त बोझ दरअसल परमेश्वर की मेरी प्रति सुरक्षा है, जो मुझे अपनी देह में लिप्त होने से रोक रहा है और मेरी ऊर्जा को मेरी ज़िम्मेदारियों पर केंद्रित करने में मदद कर रहा है, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं अब अपनी देह का अनुसरण नहीं कर सकती, मुझे जिम्मेदार और जवाबदेह बनना होगा, और मुझे परमेश्वर के हृदय को समझना सीखना होगा। चूँकि मेरा नज़रिया बदल गया है, इसलिए काम में अभी भी कुछ कठिनाइयां और दबाव होने पर भी अब मैं दमित नहीं महसूस करती। बल्कि, अब मैं दबाव को एक तरह की ज़िम्मेदारी के रूप में देखती हूं। मैं बहुत मुक्त महसूस कर रही हूं और अपनी ज़िम्मेदारियों में शांति और प्रसन्नता का आनंद लेने लगी हूँ।

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