100. आशीष की चाह छिन्न-भिन्न होने के बाद
2011 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा और दो साल भी नहीं हुए थे कि मेरे पति का बीमारी से निधन हो गया। यूँ तो मेरा बच्चा छोटा था और परिवार आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहा था, फिर भी मैं अपने कर्तव्यों में जुटी रही। बाद में मुझे एक कलीसिया का अगुआ चुन लिया गया और मैंने सोचा, “एक अगुआ का कर्तव्य निभाने में सक्षम होना परमेश्वर की ओर से एक उत्कर्ष है, अपने कर्तव्य निभाकर ही मैं और अधिक अच्छे कर्म तैयार कर सकती हूँ और केवल ऐसा करके ही मैं परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करूँगी और उसके राज्य में प्रवेश करूँगी।” इसलिए मैंने अपने बच्चे को अपने ससुराल वालों के हवाले कर दिया और अपना सारा समय अपने कर्तव्यों को समर्पित कर दिया। मैं अपने कर्तव्यों में खुद को खपाने के लिए उत्साही थी और चाहे कलीसिया ने मेरे लिए जो भी करने की व्यवस्था की हो, मैंने कभी मना नहीं किया। चाहे बारिश हो या धूप, मैं अपने कर्तव्यों में जुटी रही। कुछ ही समय बाद मेरी जिम्मेदारी वाले काम में कुछ नतीजे मिलने लगे। बाद में मुझे प्रचारक चुन लिया गया और मेरी जिम्मेदारियों का दायरा ज्यादा से ज्यादा बढ़ता गया और मैं आत्म-संतुष्टि से भर गई, सोचने लगी कि मैं कष्ट सहन कर सकती हूँ, कीमत चुका सकती हूँ, त्याग कर सकती हूँ और खुद को खपा सकती हूँ और मुझे अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे मिल रहे हैं और मुझे विश्वास था कि परमेश्वर मुझे जरूर आशीष देगा। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं अपने कर्तव्यों में और भी अधिक प्रेरित हो गई। बाद में, मेरे पेट में कभी-कभी हल्का दर्द होता था, लेकिन मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और अपने कर्तव्य करना जारी रखा।
एक सुबह नाश्ता करने के बाद मैं अपनी बाइक पर बैठकर एक सभा स्थल पर गई और सीढ़ियाँ चढ़ते समय मेरे पेट में दर्द की सिहरन उठी, लेकिन मैंने हिम्मत जुटाई और सभा पूरी की। इसके बाद मैं जाँच के लिए अस्पताल गई और डॉक्टर ने मुझसे गंभीर स्वर में कहा, “तुम्हें गैस्ट्रिक रक्तस्राव के साथ इरोसिव गैस्ट्रिटिस है और इस स्थिति में समय पर इलाज की जरूरत है। अगर इसका सही तरीके से इलाज नहीं किया गया तो पेट का कैंसर होने का खतरा है।” डॉक्टर की यह बात सुनकर मुझे थोड़ा डर लगा, चिंता हुई कि अगर मेरी बीमारी का समय पर इलाज नहीं हो पाया, मुझे वाकई पेट का कैंसर हो गया और मैं मर गई तो मैं परमेश्वर के उद्धार से चूक जाऊँगी और मेरे सारे प्रयास और खपना व्यर्थ हो जाएगा। मैं अंदर से थोड़ी कमजोर पड़ने लगी, लेकिन फिर मुझे परमेश्वर के वचन याद आ गए : “बीमारी का आना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसकी सदिच्छा निहित होती है। भले ही तुम्हारे शरीर को थोड़ी पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, अपनी खोज निरंतर जारी रखो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें रोशन और प्रबुद्ध करेगा। अय्यूब की आस्था कैसी थी? सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए मुझे आशा की एक किरण दिखाई दी और मैंने महसूस किया कि इस बीमारी में परमेश्वर का इरादा निहित है। मैं शिकायत नहीं कर सकती थी। मुझे सबसे पहले समर्पण करना था और परमेश्वर में आस्था रखनी थी, विश्वास करना था कि जब तक मेरे फेफड़ों में साँस है, परमेश्वर मुझे मरने नहीं देगा। मैंने सोचा कि पिछले कुछ वर्षों में मैंने हमेशा कैसे त्याग किए हैं और अपने कर्तव्यों में खुद को कैसे खपाया है; जब मेरा बच्चा अभी भी इतना छोटा था और परिवार को मुश्किलों का सामना करना पड़ा, यहाँ तक कि जब मेरे पति का निधन हो गया, तब भी मैंने अपने कर्तव्यों को नहीं छोड़ा, इसलिए मुझे विश्वास था कि परमेश्वर मेरे कर्तव्यों में किए गए प्रयासों और खपने पर विचार करेगा और वह मेरी रक्षा करेगा और मेरी बीमारी को ठीक करेगा।
बाद में मैं कुछ पारंपरिक चीनी दवा के लिए अस्पताल गई और अंतःशिरा ड्रिप भी ली और मैं अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से करती रही। लेकिन मेरे पेट में अभी भी अक्सर दर्द होता था, मेरा पाचन कमजोर था, इसलिए मैं केवल दलिया ही ले पाती थी, और कभी-कभी मुझे एसिड रिफ्लक्स हो जाता था। कुछ समय तक दवा लेने के बाद मेरी हालत सुधरी तो नहीं, बल्कि असल में और भी खराब हो गई। खाने के बाद मुझे अपच हो जाता था, मुझे हमेशा ऐसा लगता था जैसे मेरे गले में खाना अटक गया है और अक्सर मुझे मिचली आती थी। रात में भी सोते समय मुझे पेट में जलन होती थी। बीमारी की यातना का सामना करते हुए मैं अंदर से बहुत कमजोर पड़ गई थी और मैंने सोचा, “मैंने अपना सारा समय अपने कर्तव्यों को समर्पित कर दिया है, मैं हर दिन व्यस्त रहती हूँ और यहाँ तक कि जब मैं बीमार भी पड़ती हूँ तो भी मैं अपने कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं करती, फिर मेरे प्रयासों और खपने के बावजूद परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की और मेरी बीमारी को ठीक क्यों नहीं किया?” मैं परमेश्वर के बारे में गलतफहमी और शिकायतों में जीती थी और बहुत नकारात्मक हो गई। मुझे कुछ भी करने की प्रेरणा नहीं मिलती थी और मैं परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना या परमेश्वर के करीब नहीं जाना चाहती थी। मुझे अब अपने कर्तव्यों के लिए बोझ की भावना भी महसूस नहीं होती थी, जिसका असर काम की सभी मदों पर पड़ता था। मेरी मेजबानी करने वाली बहन ने मेरी खराब मनोदशा देखी और मुझे अपने साथ परमेश्वर के वचनों का पाठ सुनने के लिए आमंत्रित किया। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर मनुष्य को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं में पूर्ण बना सकता है। यह इस पर निर्भर करता है कि तुम अनुभव करने में सक्षम हो या नहीं, और तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के लिए कोशिश करते हो या नहीं। यदि तुम सचमुच परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के लिए कोशिश करते हो, तो नकारात्मक पहलू तुम्हारी हानि नहीं कर सकता, बल्कि तुम्हारे लिए अधिक वास्तविक चीज़ें ला सकता है, और तुम्हें यह जानने में और अधिक सक्षम सकता है कि तुम्हारे भीतर क्या कमी है, अपनी वास्तविक स्थिति को समझने में अधिक सक्षम बना सकता है, और यह देखने में भी कि मनुष्य के पास कुछ नहीं है, और मनुष्य कुछ नहीं है; यदि तुम परीक्षण अनुभव नहीं करते, तो तुम नहीं जानते, और तुम हमेशा यह महसूस करोगे कि तुम दूसरों से ऊपर हो और प्रत्येक व्यक्ति से बेहतर हो। इस सबके द्वारा तुम देखोगे कि जो कुछ पहले आया था, वह सब परमेश्वर द्वारा किया गया था और सुरक्षित रखा गया था। परीक्षणों में प्रवेश तुम्हें प्रेम या विश्वास से रहित बना देता है, तुममें प्रार्थना की कमी होती है और तुम भजन गाने में असमर्थ होते हो और इसे जाने बिना ही तुम इसके मध्य स्वयं को जान लेते हो। परमेश्वर के पास मनुष्य को पूर्ण बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की काट-छाँट करने के लिए वह समस्त प्रकार के परिवेशों का उपयोग करता है, और मनुष्य को अनावृत करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है; एक ओर वह मनुष्य की काट-छाँट करता है, दूसरी ओर मनुष्य को अनावृत करता है, और तीसरी ओर वह मनुष्य को उजागर करता है, उसके हृदय की गहराइयों में स्थित ‘रहस्यों’ को खोदकर और उजागर करते हुए, और मनुष्य की अनेक अवस्थाएँ प्रकट करके वह उसे उसकी प्रकृति दिखाता है। परमेश्वर मनुष्य को अनेक विधियों से पूर्ण बनाता है—प्रकाशन द्वारा, मनुष्य की काट-छाँट करके, मनुष्य के शुद्धिकरण द्वारा, और ताड़ना द्वारा—जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं)। जैसे-जैसे मैंने सुना और विचार किया तो मैं गहराई से प्रभावित हुई। परमेश्वर के वचनों ने सीधे मेरी मनोदशा को प्रतिबिंबित किया। जब मैं बीमारी से पीड़ित नहीं थी तो मैं अपने कर्तव्यों में उत्सुक और सक्रिय थी, लेकिन अब जब मैं बीमार थी और मेरी हालत में कुछ समय से सुधार नहीं हुआ था तो मैंने अपने कर्तव्यों के प्रति आस्था और बोझ की भावना खो दी थी। मैंने प्रार्थना करने की अपनी प्रेरणा भी गँवा दी थी। अतीत में मैं सोचती थी कि मैं परमेश्वर से बहुत प्रेम करती हूँ और चूँकि मैं अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार को दरकिनार करने में सक्षम हूँ, इसलिए मैं एक ऐसी इंसान हूँ जो सत्य का अनुसरण और अभ्यास करती है। अब मैंने देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद काफी छोटा था और मुझमें परमेश्वर के प्रति वास्तविक आस्था और प्रेम की कमी थी। परमेश्वर इस बीमारी का उपयोग मेरा शोधन और मुझे प्रकट करने के लिए कर रहा था ताकि मुझे अपनी भ्रष्टता और कमियों को जानने में मदद मिल सके, उसके प्रति मेरी नेकनीयती और समर्पण को पूर्ण किया जा सके। मैं अब और परमेश्वर को गलत नहीं समझ सकती थी या नकारात्मक नहीं हो सकती थी मैं अपनी बीमारी को परमेश्वर को सौंपने और अपना दिल अपने कर्तव्यों में लगाने के लिए तैयार हो गई। इसका एहसास होने पर मेरी मनोदशा में कुछ सुधार हुआ।
2014 के अंत तक मेरे पेट की बीमारी और भी गंभीर हो गई और थोड़ा सा खाने पर भी मेरा पेट फूलने लगता था और मुझे दर्द की सिहरन महसूस होती रहती थी। मैं अंदर से बहुत कमजोर महसूस करती थी, चिंता करती थी कि अगर यह बीमारी और बढ़ गई, पेट के कैंसर में बदल गई और मैं मर गई तो क्या होगा। अगर मैं मर गई और परमेश्वर द्वारा मुझे बचाया नहीं जा सका तो क्या मेरे सारे प्रयास और खपना व्यर्थ नहीं हो जाएगा? मैंने हमेशा अपने कर्तव्य निभाए थे, पीड़ा सही थी और कीमत चुकाई थी, यहाँ तक कि बीमार होने पर भी अपने कर्तव्य करती रही। फिर मैंने परमेश्वर का आशीष और सुरक्षा क्यों नहीं देखी? मैं अंधेरे में जीती थी और अपने कर्तव्य नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने ऊपरी अगुआ से कहा कि मैं इलाज के लिए घर जाना चाहती हूँ। अगुआ ने मेरे साथ परमेश्वर के इरादे की संगति की और सुझाव दिया कि मुझे अपने कर्तव्य निभाते हुए अपनी बीमारी का इलाज करना चाहिए और अपने शरीर का ख्याल रखना चाहिए। मैंने सोचा कि मेरी बीमारी इतनी गंभीर नहीं है कि मैं अपने कर्तव्यों का सबसे छोटा हिस्सा भी न कर सकूँ और साथ ही चूँकि मैं कलीसिया अगुआ थी, मेरे लिए अपना काम सौंपने के लिए उपयुक्त व्यक्ति ढूँढ़ना मुश्किल था। अगर मैं अपने कर्तव्य छोड़ देती हूँ तो इससे दिखेगा कि मुझमें वाकई अंतरात्मा की कमी है, लेकिन अगर मैं अपने कर्तव्य जारी रखती हूँ तो मैं अपनी बीमारी से बाधित हो जाऊँगी। अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर को पुकारा, “परमेश्वर, मैं नहीं जानती कि इस बीमारी का अनुभव कैसे किया जाए, मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं इस स्थिति में सबक सीख सकूँ और तुम्हारा इरादा समझ सकूँ।” उस शाम मैंने भाई-बहनों के साथ अपनी मनोदशा के बारे में बात की। भाई-बहनों ने मेरे लिए परमेश्वर के वचन पढ़े और दो अंशों ने वाकई मुझे प्रभावित किया। परमेश्वर कहता है : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। “मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3 : मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद एक बहन ने मेरे साथ बहुत संगति की। उसने मुझे याद दिलाया कि हमेशा परमेश्वर से अपनी बीमारी दूर करने के लिए कहना अनुचित व्यवहार है। परमेश्वर के वचन पढ़ने और उसकी संगति सुनने के माध्यम से मैं अचानक रोशन हो गई। मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करती हूँ। शुरू मैं अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और बच्चे को परे रख पाई थी, लेकिन यह सब परमेश्वर की सुरक्षा और आशीष पाने की खातिर था और इसलिए था कि मैं परमेश्वर द्वारा बचाई जा सकूँ और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकूँ। जब बीमारी का सामना करना पड़ा तो मुझे उम्मीद थी कि परमेश्वर कर्तव्यों में लगाए गए मेरे प्रयास और खपने पर विचार करेगा और मेरी बीमारी को ठीक करेगा, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और मेरी हालत में सुधार नहीं हुआ, बल्कि यह बिगड़ती गई, मैं नकारात्मक हो गई और शिकायत करने लगी, परमेश्वर से सवाल करने लगी कि वह मुझे ठीक क्यों नहीं कर रहा है। जब मेरी हालत गंभीर हो गई तो मैं यहाँ तक सोचने लगी कि अपने लिए बाहर निकलने का रास्ता निकालूँ, मैं अपने कर्तव्य छोड़ना चाहती थी और ठीक होने के लिए घर जाना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे ये लक्ष्य कि मैंने अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के लिए खुद को कैसे खपाया है सही नहीं थे, मैं अपने कष्ट और खपने के माध्यम से परमेश्वर का आशीष पाना चाहती थी, जब मैं अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकी तो मैंने परमेश्वर से दूर जाने के बारे में सोचा। मैं किस रूप में अपने कर्तव्य निभा रही थी? मैं किस रूप में परमेश्वर के प्रति वफादार या समर्पित थी? मैं स्पष्ट रूप से परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी और उसके साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। मैंने परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं किया; इसके बजाय मैंने उसके साथ एक अक्षय पात्र, एक संकटमोचक औजार जैसा व्यवहार किया। मैं वाकई स्वार्थी और नीच थी! तब जाकर मुझे समझ में आया कि मेरे इस बीमारी का सामना करने में वाकई परमेश्वर का इरादा निहित है और यह मेरे गलत दृष्टिकोणों, उद्देश्यों और कामनाओं को प्रकट कर रही है। अन्यथा मैं अभी भी यही सोचती कि मैंने अपने परिवार और करियर का त्याग अपने कर्तव्य निभाने के लिए किया और मैं परमेश्वर के प्रति बहुत प्रेम दिखा रही हूँ। सच तो यह था कि मैं अपना कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं निभा रही थी, मैं इसे अशुद्ध इरादों और लेन-देन के उद्देश्यों से निभा रही थी। अगर मैं इसी दृष्टिकोण के साथ परमेश्वर में विश्वास करना और अपने कर्तव्य निभाना जारी रखती तो मैं आखिरकार परमेश्वर द्वारा ठुकरा दी जाती!
अपनी खोज में मैंने यह भी देखा कि मैं परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता को नहीं जानती थी। अपनी बीमारी के सामने मैं लगातार अपनी हालत बिगड़ने और मरने के बारे में चिंतित रहती थी। मेरी आस्था बहुत कम थी। परमेश्वर कहता है : “मनुष्य का सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होता है, और मनुष्य जिये या मरे इसका निर्णय भी परमेश्वर करता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। “संपूर्ण मानवजाति में कौन है जिसकी सर्वशक्तिमान की नज़रों में देखभाल नहीं की जाती? कौन सर्वशक्तिमान द्वारा तय प्रारब्ध के बीच नहीं रहता? क्या मनुष्य का जीवन और मृत्यु उसका अपना चुनाव है? क्या मनुष्य अपने भाग्य को खुद नियंत्रित करता है? बहुत से लोग मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वह उनसे काफी दूर रहती है; बहुत से लोग वैसे व्यक्ति बनना चाहते हैं जो जीवन में मज़बूत हैं और मृत्यु से डरते हैं, फिर भी उनकी जानकारी के बिना, उनकी मृत्यु का दिन निकट आ जाता है, उन्हें मृत्यु की खाई में डुबा देता है; बहुत से लोग आसमान की ओर देखते हैं और गहरी आह भरते हैं; कई लोग अत्यधिक रोते हैं, दर्दनाक आवाज़ में सिसकते हैं; कई लोग परीक्षणों में हार मान लेते हैं; और कई प्रलोभन में फाँस लिए जाते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 11)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि परमेश्वर सब कुछ नियंत्रित करता है और सब पर संप्रभु है और मनुष्य का जीवन और मरण उसके हाथ में है। मेरी बीमारी में सुधार होगा कि नहीं होगा, यह भी परमेश्वर के हाथ में था। इस दौरान मैं अपनी बीमारी से लगातार बेबस थी, डरती थी कि मेरी बीमारी कैंसर में बदल जाएगी और मेरी जान को खतरे में डाल देगी, इसलिए मैंने अपने स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अपने कर्तव्य छोड़ने के बारे में सोचा। मैं मुँह जुबानी यह दावा तो करती थी कि परमेश्वर हर चीज का संप्रभु है, लेकिन वास्तविक जीवन में मुझे वाकई परमेश्वर में आस्था नहीं थी। जब मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो मैंने परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया या उसकी ओर नहीं देखा, बल्कि चिंता और बेचैनी में जीती रही, अपने लिए बाहर निकलने का कोई रास्ता तलाशती रही। मैं यह विश्वास नहीं करती थी कि मेरा ठीक होना या न होना परमेश्वर के हाथ में है, बल्कि यह सोचती थी कि चिकित्सा उपचार लेने के लिए खुद पर भरोसा करने और ठीक होने पर ध्यान केंद्रित करने से ही मेरी बीमारी ठीक हो जाएगी। क्या यह एक छद्म-विश्वासी का दृष्टिकोण नहीं था? जब मेरा पति बीमार था तो मैं उसे इलाज के लिए हर जगह ले गई और डॉक्टरों ने कहा कि उसकी बीमारी लाइलाज है। दोस्तों और परिवार ने मुझे व्यर्थ प्रयासों में लगे न रहने की सलाह दी, लेकिन मैंने फिर भी भाग्य को स्वीकारने से इनकार कर दिया। उसकी बीमारी का इलाज कराने के लिए मैंने अपनी सारी बचत खर्च कर दी और यहाँ तक कि कर्ज भी ले लिया। भले ही मैंने खुद को उसकी देखभाल करने में समर्पित कर दिया और उसके साथ रही, लेकिन अंत में मैं उसकी जान नहीं बचा सकी। इससे मुझे एहसास हुआ कि जीवन और मृत्यु परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। लोग अपने भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकते, न ही वे दूसरों की नियति बदल सकते हैं। दरअसल चाहे मैं कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाऊँ या घर चली जाऊँ, मैं अभी भी चिकित्सा देखभाल पा सकती थी और अपने शरीर की सामान्य रूप से देखभाल कर सकती थी, लेकिन मेरी बीमारी सुधरेगी या बिगड़ेगी, यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित कर दिया गया था। किसी व्यक्ति की उम्र कितनी होगी यह भी परमेश्वर ही तय करता है। और अगर मेरा समय आ गया होता तो भले ही मैं अपने कर्तव्य छोड़कर घर पर रहकर स्वस्थ हो जाती, मेरी हालत अभी भी उतनी ही खराब होती जितनी होनी चाहिए और जब मेरा समय आता, तब मैं मर जाती, लेकिन अगर मेरा समय नहीं आया होता और मेरा मिशन पूरा नहीं हुआ होता तो परमेश्वर मुझे जल्दी मरने नहीं देता। मैंने देखा कि मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता को नहीं जाना था और मैंने अपने दिन चिंता और बेचैनी में बिताए थे, चिंता करती रहती थी कि मेरी बीमारी और बदतर हो जाएगी या मैं मर जाऊँगी। मैं वाकई मूर्ख और अज्ञानी थी! वास्तविकता में ये चिंताएँ अनावश्यक थीं और इससे कुछ भी नहीं बदलना था। मैं बस इतना कर सकती थी कि सब कुछ परमेश्वर को सौंप दूँ, खुद को उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के लिए समर्पित कर दूँ। साथ ही मैं चिकित्सा देखभाल पा सकती थी, सामान्य रूप से स्वस्थ हो सकती थी और अपने कर्तव्यों को यथासंभव सर्वोत्तम तरीके से कर सकती थी। चाहे मैं कितने भी लंबे समय तक जीवित रहूँ या मेरी बीमारी में सुधार हो या न हो, मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना ही था।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ और अपने कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है, इसलिए मुझे परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने या उससे पुरस्कार माँगने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। चाहे भविष्य में परमेश्वर मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे, चाहे मुझे आशीष मिले या दुर्भाग्य सहना पड़े, मुझे सृजित प्राणी के स्थान पर उचित रूप से खड़ा होना चाहिए, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करना चाहिए। क्या किसी व्यक्ति को आखिरकार परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण को स्वीकार कर सकता है, अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकता है और परमेश्वर के साथ अनुरूपता प्राप्त कर सकता है। कोई व्यक्ति कड़ी मेहनत, कष्ट सहने या त्याग के जरिए परमेश्वर का आशीष अर्जित नहीं करता है। जब से मैंने परमेश्वर को पाया है, मैं केवल बाहरी उत्साह और व्यस्तता से संतुष्ट थी और मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती आ रही थी या अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करती आ रही थी और मैंने शायद ही कभी परमेश्वर के वचनों के माध्यम से आत्म-चिंतन किया और खुद को जाना था। कुछ त्याग करने और खपने के बाद मैंने मान लिया था कि मैं परमेश्वर के आशीष का आनंद लेने की हकदार हूँ। जब आशीष पाने की मेरी उम्मीदें टूट गईं तो मैं परमेश्वर को गलत समझने और उसके बारे में शिकायतें करने लगी, यहाँ तक कि अपने पिछले त्यागों पर पछताने लगी और अपने कर्तव्य करने में अनिच्छुक हो गई। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है और मुझ जैसी कोई स्वार्थी और घृणित, जो हमेशा आशीष खोजती रहती थी और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी की कोशिश करती रहती थी, परमेश्वर को इस्तेमाल करती और धोखा देती थी, फिर भी आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की चाह रखती थी, बस मानसिक भ्रम से ही ग्रस्त थी! मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और परमेश्वर में वर्षों विश्वास करने के बाद भी चीजों और जीवन स्वभाव को लेकर मेरे विचार नहीं बदले थे। भले ही मैं बहुत कष्ट उठाऊँ या अपने दिन भागते-दौड़ते हुए बिताऊँ, फिर भी मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली इंसान रहूँगी और आखिरकार मुझे निकाल दिया जाएगा और दंडित किया जाएगा। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मेरे लिए परमेश्वर के लिए खुद को खपाना स्वाभाविक और सही है। मुझे परमेश्वर से आशीष माँगने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बजाय मुझे जो करना चाहिए वह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाना है, और जहाँ तक मेरे परिणाम और गंतव्य की बात है, उसकी व्यवस्था परमेश्वर को करनी है। यह एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, अगर यह बीमारी न हुई होती तो मुझे अपनी आस्था में आशीष पाने के अपने मिलावटी इरादे का पता न चलता। मैं आशीष खोजने का अपना इरादा छोड़ने के लिए तैयार हूँ और चाहे मैं ठीक हो जाऊँ या नहीं, जब तक मेरे फेफड़ों में साँस है, मैं तुम्हारे लिए खुद को खपाऊँगी और अपने कर्तव्य करूँगी। भले ही एक दिन यह बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि मैं मर जाऊँ, मैं शिकायत नहीं करूँगी और मैं तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी।”
एक दिन मैंने भक्ति के दौरान पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कभी-कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई परिस्थिति खड़ी करेगा, तुम्हारे आसपास मौजूद लोगों के जरिए तुम्हारी काट-छाँट करेगा और कष्ट दिलाएगा, तुम्हें सबक सिखाएगा और सत्य को समझने और चीजों की असलियत जानने का अवसर देगा। परमेश्वर अभी यही कार्य कर रहा है, तुम्हारी देह को कष्ट दे रहा है, ताकि तुम अपना सबक सीख सको और भ्रष्ट स्वभाव दूर कर अपना कर्तव्य निभा सको। पौलुस अक्सर कहता था कि उसकी देह में काँटा है। यह कौन-सा काँटा था? यह एक बीमारी थी और वह इससे बच नहीं सकता था। वह बखूबी जानता था कि यह कौन-सी बीमारी है, कि यह उसके स्वभाव और प्रकृति से जुड़ी है। अगर वह इस काँटे का मारा न होता, अगर उसे यह बीमारी न लगी होती तो वह शायद कहीं भी और कभी भी अपना राज्य स्थापित कर सकता था, लेकिन इस बीमारी के कारण उसके पास ताकत नहीं बची थी। इसलिए अधिकांश समय बीमारी लोगों के लिए एक प्रकार की ‘सुरक्षा छतरी’ होती है। अगर तुम बीमार नहीं होते, बल्कि ताकत से भरे होते हो, तो तुम कोई भी बुराई कर सकते हो और कोई भी मुसीबत बुला सकते हो। जब लोग बेहद अहंकारी और स्वच्छंद होते हैं तो आसानी से अपना विवेक गँवा सकते हैं। बुराई कर चुकने के बाद वे पछताएँगे, लेकिन तब तक वे अपनी मदद करने में लाचार हो चुके होंगे। इसीलिए थोड़ी-सी बीमारी होना लोगों के लिए अच्छी चीज है, एक सुरक्षा कवच है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई। अगर यह बीमारी मुझ पर नहीं आई होती तो अपने विश्वास में आशीष खोजने का मेरा मिलावटी इरादा उजागर नहीं होता और मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के प्रयास में अपनी कड़ी मेहनत का उपयोग पूँजी के रूप में करती रहती। जैसे-जैसे मैं और अधिक जिम्मेदारियाँ लेती और कष्ट सहती तो मैं यह मानकर और अधिक अहंकारी होती जाती कि मेरे पास परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने के लिए पूँजी है। अगर यह बीमारी मेरे इस आशय के गलत दृष्टिकोणों को प्रकट करने न आई होती कि मुझे किस चीज का अनुसरण करना चाहिए तो मुझे परमेश्वर में अपने विश्वास में अपने मिलावटी इरादे का पता न चलता और मैं गलत रास्ते पर चलती रहती, ठीक पौलुस की तरह, जिसने परमेश्वर से धार्मिकता का मुकुट माँगा, उसका प्रतिरोध किया और वह आखिरकार परमेश्वर द्वारा निकाल दिया गया और दंडित किया गया। पीछे मुड़कर देखें तो मुझे जो बीमारी हुई, वह वाकई मेरे ऊपर एक तरह की सुरक्षात्मक छतरी की तरह थी। यह परमेश्वर का मुझे बचाने का तरीका था और भले ही मैंने शारीरिक रूप से कष्ट सहा, लेकिन इसने मेरे अनुसरण के पीछे के गलत नजरिए को सुधार दिया। ये चीजें आरामदायक माहौल में हासिल नहीं की जा सकती थीं। परमेश्वर द्वारा मुझे बीमारी का अनुभव करने की अनुमति देना मेरे लिए चीजों को मुश्किल बनाना नहीं था, बल्कि उसका इरादा मुझे परिवर्तित करना था, मुझे बीमारी के माध्यम से सत्य खोजने, आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने में सक्षम बनाना था, इस तरह उसके सामने पश्चात्ताप करना था। अपनी बीमारी के माध्यम से मुझे परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे का एहसास हुआ और यह कि परमेश्वर लोगों पर जो कुछ भी करता है वह हमेशा उद्धार और प्रेम के लिए होता है। मैं सचमुच परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ थी!
इसके बाद मैंने अपना दिल अपने कर्तव्यों में लगा दिया। हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती थी, “स्वस्थ शरीर होना कितना अच्छा होगा, मेरी बीमारी न जाने कब ठीक होगी,” लेकिन मुझे तुरंत एहसास हो जाता था कि मैं अभी भी परमेश्वर से माँग कर रही हूँ और समर्पण नहीं कर रही हूँ, इसलिए मैं चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, “परमेश्वर, चाहे बीमारी मेरे साथ कितने भी लंबे समय तक क्यों न रहे, भले ही मेरी बीमारी ठीक न हो, मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हूँ और जब तक मेरे फेफड़ों में साँस है, मैं अपने कर्तव्यों का पालन करूँगी।” प्रार्थना के माध्यम से मेरा दिल बहुत शांत हो गया। इस बात पर चिंतन करते हुए कि मैं पहले कैसे अपनी बीमारी में डूबी रहती थी और कलीसिया के कार्य में देरी करती थी और यह कि परमेश्वर ने मुझे अभी भी अपने कर्तव्यों के माध्यम से पश्चात्ताप करने का अवसर दिया है, मैं अपने कर्तव्यों के प्रति अपना पुराना रवैया बदलने और परमेश्वर के प्रति अपने ऋण की भरपाई करने को तैयार थी। बाद में मैंने अपनी सहयोगी बहन के साथ काम में आने वाली बाधाओं और समस्याओं की समीक्षा की, एक-एक करके कार्यान्वित किए जाने वाले कार्यों को दर्ज किया, उन्हें कार्यान्वित करने के लिए भाई-बहनों के साथ संगति की और उन समस्याओं को वास्तव में सुलझाया जिनका सामना भाई-बहन अपने कर्तव्यों में करते थे। कुछ समय बाद सभी क्षेत्रों में कलीसिया के काम में कुछ हद तक सुधार हुआ और भाई-बहन भी अपने कर्तव्यों में सक्रिय थे। मुझे भी बहुत प्रोत्साहन मिला और अब मैं अपनी बीमारी से पहले की तरह बेबस नहीं थी। एक दिन मुझे एक नुस्खा मिला जो मेरे पेट की समस्याओं का इलाज कर सकता था और कुछ बार दवा लेने के बाद मेरे पेट में दर्द होना बंद हो गया, मेरा शरीर धीरे-धीरे ठीक हो गया। मैंने अपने दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद दिया और उसकी स्तुति की, मैंने देखा कि परमेश्वर कितना बुद्धिमान और सर्वशक्तिमान है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह मुझे बदलने और शुद्ध करने के लिए है!
इस बीमारी का अनुभव करते हुए भले ही मुझे शारीरिक रूप से कष्ट हुआ, मैंने परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में अपने गलत विचारों को सही किया और मेरी आस्था में अशुद्धियाँ कुछ हद तक शुद्ध हो गईं। मुझे यह भी समझ आया कि किसी भी सृजित प्राणी के लिए अपने कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है, और व्यक्ति को चाहे आशीष मिले या पीड़ा, उसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करना चाहिए। मैंने जो समझ और परिवर्तन प्राप्त किए हैं, वे सभी परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के माध्यम से प्राप्त नतीजे हैं।