99. अपना कर्तव्य करने में जिम्मेदारी से डरना स्वार्थ है
फरवरी 2023 में मैं जिला अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभा रही थी। एक दिन मुझे उच्च अगुआ से एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि शिनचेंग कलीसिया को सीसीपी से दमन का सामना करना पड़ रहा है और परमेश्वर के वचनों की किताबों की सुरक्षा करने वाले कई घरों की किताबें पुलिस द्वारा जब्त कर ली गई हैं। किताबों की सुरक्षा करने वाले दो अन्य घर अभी भी खतरे में हैं और इसलिए किताबों को तत्काल स्थानांतरित करने की जरूरत है, इसलिए हमें जल्दी से नए सुरक्षित घर खोजने के लिए कहा गया। फिर मैंने जल्दी से अपने पर्यवेक्षण के तहत आने वाली कलीसियाओं को पत्र लिखकर उन्हें सुरक्षित घर उपलब्ध कराने के लिए कहा। पत्र भेजने के बाद मैंने अचानक सोचा, “अगर मेरी व्यवस्थाएँ गलत हुईं और भाई-बहन किताबों को स्थानांतरित करते समय पकड़े जाते हैं तो क्या मुझे इसकी जिम्मेदारी नहीं लेनी होगी? परमेश्वर के वचनों की ये किताबें परमेश्वर के चढ़ावे का उपयोग करके प्रकाशित की गई हैं और अगर किताबों को स्थानांतरित करते समय पुलिस द्वारा जब्त कर लिया जाता है तो अंजाम गंभीर होंगे। इसके लिए मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता है।” मैंने सोचा कि कैसे मा शियाओ अगुआ के ओहदे के लाभों में लिप्त हो गई थी। वह हमेशा अपनी मनमर्जी से काम करती थी और वह हमेशा अंतिम निर्णय लेना चाहती थी, जिससे चढ़ावे को बहुत नुकसान हुआ। इसके बाद उसने जिम्मेदारी से भी मुँह मोड़ लिया और जरा भी पश्चात्ताप नहीं किया और अंत में उसे निष्कासित कर दिया गया। परमेश्वर के वचनों की किताबों की सुरक्षा करना बड़ा मामला है। मेरे आस-पास के कई भाई-बहन जोखिम में हैं, इसलिए सुरक्षित घर ढूँढ़ना मुश्किल होगा। मैंने सोचा, “अगर कुछ हो गया तो क्या होगा? क्या मुझे भी मा शियाओ की तरह निकाल दिया जाएगा? लेकिन पत्र पहले ही भेजा जा चुका है, अब मुझे क्या करना चाहिए? अगर मैंने अगुआ को बताया होता कि कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं है तो काम बन जाता। ठीक है, चूँकि मैंने पहले ही लिख दिया है, मुझे लगता है कि मैं चीजों को अपने हिसाब से होने दूँगी।” कुछ दिनों बाद कलीसिया के अगुआओं ने पत्र भेजे कि उन्हें कोई उपयुक्त घर नहीं मिला है। लेकिन सच्चाई यह थी कि मैं तीन कलीसियाओं के बारे में जानती थी जहाँ हालात इतने खराब नहीं थे और जब तक हम सावधान रहते, हम किताबों को अस्थायी रूप से रखने के लिए कुछ घर ढूँढ़ सकते थे। लेकिन मैं इसकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, इसलिए मैंने उच्च अगुआ को लिखा, “यहाँ की स्थिति अच्छी नहीं है और कई घर असुरक्षित भी हैं, सुरक्षित घर खोजने के लिए अन्य कलीसियाओं में जाना सबसे अच्छा होगा।”
कुछ दिनों बाद उच्च अगुआ ने एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया कि हम इस महत्वपूर्ण क्षण में परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर रहे थे और भले ही अन्य कलीसियाओं को भी सुरक्षित घर खोजने में कठिनाई हुई हो, लेकिन उन्होंने परमेश्वर से प्रार्थना की, वास्तविक तरीके से सहयोग किया और कुछ खोजने में कामयाब रहे। उन्होंने परमेश्वर का मार्गदर्शन देखा था। पत्र पढ़ने के बाद मुझे शर्मिंदगी और अपराध बोध दोनों महसूस हुए, मैंने सोचा, “हम एक ही कर्तव्य कर रहे हैं, लेकिन जब दूसरों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है तो वे काम सँभालने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने में सक्षम होते हैं, लेकिन जब मेरे सामने मुश्किलें आती हूँ तो मैं भाग जाती हूँ और कछुए की तरह अपना सिर अपने खोल में छिपा लेती हूँ। मैं वाकई उनकी बराबरी नहीं कर सकती!” इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारे वचनों की किताबें स्थानांतरित करने के इस महत्वपूर्ण मामले में मैं परमेश्वर के घर के हितों पर बिल्कुल भी विचारशील नहीं रही हूँ और मैं सुरक्षित घर खोजने में सक्रियता से सहयोग नहीं कर रही हूँ। मैं बस उस तरह की इंसान हूँ जो चीजें गलत होने पर मदद करने की जहमत नहीं उठाती। अगर अगुआ ने मेरी काट-छाँट नहीं की होती और चेतावनी नहीं दी होती तो मैं आत्म-चिंतन नहीं करती। मैं बहुत सुन्न हो गई हूँ!”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे आखिरकार खुद को समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं लेना पड़ेगा, और यदि लेना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार का प्रचार करते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी लेने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी और उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी रुकावटों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक हितों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उन्हें अपमानित होने और निंदा का और आलोचना का डर होता है और वे सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं करते। नतीजतन, वह उसे हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जिनमें कलीसिया का कार्य करते समय बोझ उठाने की भावना हो, जो जिम्मेदारी लें, सत्य सिद्धांत कायम रखें, और जो कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यतः तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कर्तव्य चुनते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। अगर कलीसिया का अगुआ उनके लिए किसी कर्तव्य पालन की व्यवस्था करता है, तो पहले वे यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी : अगर ऐसा होता है, तो वे उसे स्वीकार नहीं करते। अगर उन्हें उसकी जिम्मेदारी लेने और उसके लिए जिम्मेदार होने की आवश्यकता नहीं होती, तो वे उसे अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिर भी वे यह देख लेते हैं कि काम थका देने वाला या परेशान करने वाला तो नहीं, और कर्तव्य को अनिच्छा से स्वीकार कर लेने के बावजूद, वे उसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रेरित नहीं होते, उस स्थिति में भी वे बेपरवाह बने रहना पसंद करते हैं। आराम, कोई मेहनत नहीं, और कोई शारीरिक कठिनाई नहीं—यह उनका सिद्धांत होता है। दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या किसी समस्या से उनका सामना होता है, तो उनकी टालमटोल का पहला तरीका यह होता है कि उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को कर दी जाए और अगुआ को ही उसे सँभालने और हल करने दिया जाए, और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—जब तक वे खुद जिम्मेदारी नहीं लेते, तब तक उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कर्तव्य-पालन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, चालाकियाँ करना कहा जाता है। यह केवल बातें बनाना है; वे कुछ भी वास्तविक नहीं कर रहे हैं। वे मन में कहते हैं, ‘अगर यह चीज मुझे सुलझानी है और मैं गलती कर बैठा तो क्या होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?’ उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह छद्म-विश्वासी नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर ने मेरी सटीक मनोदशा उजागर कर दी और मैं वाकई व्यथित हो गई और ऐसा लग रहा था जैसे मेरा दिल छलनी हो गया हो। शिनचेंग कलीसिया को सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी का सामना करना पड़ रहा था और तत्काल दो सुरक्षित घर खोजने की जरूरत थी। अंतरात्मा वाला कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों पर विचारशील होता और अगर मुश्किलें भी होतीं तो वह परमेश्वर पर भरोसा करता और वह सही समय पर सुरक्षित स्थान पर किताबें स्थानांतरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। लेकिन मैंने पहले अपने हितों पर विचार किया और मुझे हमेशा चिंता लगी रही कि किताबें स्थानांतरित करने के दौरान कुछ गलत हो सकता है और फिर मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और मैं अपराध कर बैठूँगी और अगर मेरे अपराध बढ़ते रहे तो मैं उद्धार का अपना अवसर गँवा दूँगी। खुद को बचाने के लिए मैं कोई रास्ता निकालने की कोशिश करती रही और अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाती रही। मैं बिल्कुल वही धूर्त और धोखेबाज व्यक्ति थी, जिसे परमेश्वर ने उजागर किया। मैं कोई भी जिम्मेदारी लेने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थी और मेरे पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था! इस समय परमेश्वर के वचनों की किताबें पुलिस द्वारा जब्त किए जाने के निरंतर खतरे में थीं, लेकिन मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचा। किस तरह से मेरे पास मानवता थी? मैं कितनी स्वार्थी और घिनौनी थी!
बाद में मैं चिंतन करने लगी, “मैं हमेशा जिम्मेदारी लेने से क्यों डरती हूँ? किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव इसके लिए जिम्मेदार है?” मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि जब मैं किसी चीज का सामना करती थी, मैं हमेशा जिम्मेदारी लेने से डरती थी और अपने हितों के बारे में पहले सोचती थी, क्योंकि मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” के शैतानी जहर के अनुसार जीती थी और ये चीजें मेरी प्रकृति बन गई थीं। अतीत में जब मैं दूसरों के साथ बातचीत करती थी या चीजें सँभालती थी, मैं सबसे पहले सोचती थी कि क्या किसी बात से मुझे फायदा होगा या मुझे जिम्मेदारी लेने की जरूरत होगी। यहाँ तक कि अपने कर्तव्य में भी मैं अभी भी वैसी ही हूँ। जब अगुआ ने मुझे किताबें ले जाने के लिए जगह ढूँढ़ने का काम सौंपा, मैं चिंताओं से भर गई, बार-बार सोचने लगी, डरती रही कि एक बार मुझे जगह मिल गई, अगर स्थानातंरण के दौरान कुछ गलत हो गया या किताबें पुलिस ने जब्त कर लीं तो मुझे जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। अगर इस कारण बड़ा नुकसान हुआ तो मुझे बर्खास्त भी किया जा सकता है। मुझे नुकसान न पहुँचे और इस जिम्मेदारी से बच सकूँ, इसके लिए मैंने बहाना बनाया कि मुझे कोई उपयुक्त जगह नहीं मिल रही है। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि शिनचेंग कलीसिया में स्थिति बहुत खराब है, क्योंकि यहूदाओं ने उन्हें धोखा दे दिया था और किताबों की सुरक्षा करने वाले घरों पर कभी भी पुलिस छापा मार सकती है। मैं यह भी जानती थी कि इस महत्वपूर्ण क्षण में एक अगुआ के रूप में परमेश्वर के वचनों की किताबों की रक्षा करना मेरी जिम्मेदारी है और मुझे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। लेकिन मैंने सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचा, जिम्मेदारी लेने से डरती रही और अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ लिया। मैं बहुत स्वार्थी थी और मुझमें मानवता की कमी थी! इसका एहसास होने पर मुझे ऋणग्रस्तता की गहरी भावना महसूस हुई और मैं बस खुद को थप्पड़ मारना चाहती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ... अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने देखा कि कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ निष्पक्ष बर्ताव करता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर अपने घर में राज करता है और वहाँ सत्य शासन करता है। वे सोचते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य में कोई गलती करता है तो परमेश्वर का घर उसे दंडित करेगा, उसके कर्तव्य करने के अधिकार को रद्द कर देगा और यहाँ तक कि उसे बाहर निकाल देगा या निष्कासित कर देगा। असल में, परमेश्वर का घर प्रत्येक व्यक्ति को सिद्धांतों के अनुसार, संदर्भ के आधार पर और किसी व्यक्ति के काम करने के इरादे और अपने कर्तव्य के प्रति उसके दृष्टिकोण के आधार पर सँभालता है। अगर कोई व्यक्ति लगातार अपने कर्तव्य अनमने ढंग से करता है, मामलों में सिद्धांतों की खोज नहीं करता है, हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव पर भरोसा करके अपना कर्तव्य करता है, परमेश्वर के घर के काम से अनादर और बिना जिम्मेदारी के पेश आता है, जिससे परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचता है तो ऐसे लोगों की न सिर्फ काट-छाँट की जानी चाहिए, बल्कि उन्हें जवाबदेह भी ठहराया जाना चाहिए और अगर वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं, बहस करते हैं, प्रतिरोध करते हैं और पश्चात्ताप करने से पूरी तरह से इनकार करते रहते हैं तो परमेश्वर का घर उनके साथ उसी तरह से पेश आएगा, उन्हें बर्खास्त कर देगा या यहाँ तक कि उन्हें निकाल भी देगा। लेकिन कुछ लोग जब अपने कर्तव्य में समस्याओं का सामना करते हैं तो सत्य की खोज कर सकते हैं और जब उन्हें कुछ समझ में नहीं आता है तो वे दूसरों से सलाह ले सकते हैं और चीजों को अच्छी तरह से करने का प्रयास कर सकते हैं। भले ही उनके सहयोग के दौरान समस्याएँ या विचलन उत्पन्न हो सकते हैं या वे कलीसिया के काम को कुछ नुकसान पहुँचा सकते हैं, लेकिन बाद में उन्हें पछतावा और अपराध बोध होता है और वे वाकई पश्चात्ताप करते हैं। ऐसे लोगों को अभी भी परमेश्वर के घर द्वारा अपने कर्तव्यों को करने का अवसर दिया जाएगा और उन्हें आसानी से निकाला नहीं जाएगा। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के आधार पर सँभालता है। जैसी मा शियाओ थी, अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान वह रुतबे के लाभों में लिप्त रही, हमेशा अपनी मनमर्जी से अपना कर्तव्य करती रही, सत्य की खोज नहीं की और चढ़ावों को नुकसान पहुँचाया। उसने भाई-बहनों के बार-बार याद दिलाने पर भी ध्यान नहीं दिया और जिम्मेदारी से बचती रही, हठपूर्वक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलती रही। परमेश्वर के घर ने सिद्धांतों के अनुसार उसे कलीसिया से निकाल दिया और यह पूरी तरह से परमेश्वर की धार्मिकता थी और उसके साथ बिल्कुल भी अन्याय नहीं हुआ था। कलीसिया ने उसे एक बार के अपराध के कारण नहीं, बल्कि उसके निरंतर व्यवहार के आधार पर निकाला। मैंने भी अतीत में अपराध किए थे, लेकिन बाद में मैंने आत्मचिंतन किया और खुद को जाना और पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हुई, इसलिए परमेश्वर के घर ने मुझे अभी भी अपने कर्तव्य करने का अवसर दिया। मैंने देखा कि परमेश्वर का घर हमेशा सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। लेकिन मैं सतर्कता और गलतफहमी की मनोदशा में जी रही थी, मान नहीं रही थी कि परमेश्वर अपने घर में राज करता है और सत्य वहाँ शासन करता है। मैंने सोचा कि अपने कर्तव्यों में गलती करने से मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा या निकाल दिया जाएगा, जैसे कि परमेश्वर लोगों को सिर्फ उन्हें हटाने के लिए बेनकाब करता है। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा नहीं है? अगर मेरी यह मनोदशा नहीं सुधरी तो देर-सवेर मैं भी परमेश्वर द्वारा ठुकरा दी जाऊँगी और हटा दी जाऊँगी।
इसके बाद मैंने अपने मुद्दों को हल करने के लिए अभ्यास का मार्ग खोजा। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियत की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। अपने कर्तव्य में मुझे परमेश्वर के घर के हितों पर विचारशील होना चाहिए और अपनी स्वार्थी इच्छाओं और हितों को अलग रखना चाहिए। जब परमेश्वर के घर के हित मेरे अपने हितों से टकराते हैं तो मुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। मैंने मन ही मन एक संकल्प लिया, “अब से परमेश्वर के घर के काम से जुड़े किसी भी मामले में, चाहे वह कितना भी मुश्किल क्यों न हो, मैं परमेश्वर पर भरोसा करूँगी, इस काम को सक्रियता से सँभालूँगी और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने की पूरी कोशिश करूँगी।”
एक महीने बाद ऊपरी अगुआ ने एक और पत्र भेजा, जिसमें हमें चार भाइयों के रहने के लिए दो सुरक्षित घर खोजने के लिए कहा गया। दो भाई खतरे में थे और एक अन्य भाई का गिरफ्तारी का रिकॉर्ड था और वह वांछित था। अधिक सुरक्षित घर खोजने के विचार ने मेरी चिंताओं को फिर से जगा दिया, “मेरे पर्यवेक्षण के दायरे में आने वाली कलीसियाओं की स्थिति अच्छी नहीं है और एक सुरक्षित घर ढूँढ़ना आसान नहीं है। जो घर हमने खोजा, अगर वह सुरक्षित नहीं हुआ और भाई हमारे साथ रहते हुए गिरफ्तार हो गया तो क्या अगुआ मुझे जिम्मेदार नहीं ठहराएँगे? क्या मुझे उसे यह बताना चाहिए कि हम यहाँ कहीं जगह नहीं खोज सकते और उसे किसी दूसरी कलीसिया में ढूँढ़ना चाहिए?” जब मैंने इस तरह सोचा, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने हितों के बारे में सोच रही थी, इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, हालाँकि स्थिति गंभीर है और कई मुश्किलें हैं, मैं अपने गलत इरादों को छोड़कर सुरक्षित घरों की तलाश करने के लिए तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। मुझे अपने हितों को छोड़कर परमेश्वर के घर के हितों को प्राथमिकता देनी थी। मैंने देखा कि भाई जहाँ रह रहे थे, वहाँ बहुत खतरा था और उन्हें किसी भी समय गिरफ्तार किया जा सकता था और अगर मैं जिम्मेदारी लेने के डर से खुद को बचाती हूँ और इन भाइयों को सुरक्षित रखने के लिए समय पर सुरक्षित घर खोजने की कोशिश नहीं करती तो मुझमें कोई मानवता नहीं होगी। मुझे यह भी याद आया कि पिछली बार मैं हमेशा अपने हितों के बारे में चिंतित थी और जिम्मेदारी लेने से डरती थी और इस बात पर मुझे पछतावा हुआ था। मैं इस बार वही गलती नहीं कर सकती थी। जब मैंने वाकई सहयोग किया तो मैंने जल्दी से दो सुरक्षित घर ढूँढ़े और फिर भाइयों को अपने साथ ले आई।
इस प्रकाशन के माध्यम से मैंने आखिरकार देखा कि मैं वाकई कितनी स्वार्थी, घिनौनी और मानवता से रहित थी। मैंने सोचा था कि मेरे पास अच्छी मानवता है और मैं कलीसिया के काम की रक्षा कर सकती हूँ, लेकिन इस स्थिति के माध्यम से मेरी भ्रष्टता सामने आई, जिससे मुझे खुद को समझने और कुछ बदलाव करने का मौका मिला। यह मेरे लिए परमेश्वर का महान उद्धार था और यह कुछ ऐसा था जिसे मैं एक आरामदायक परिवेश में महसूस नहीं कर सकती थी। परमेश्वर का धन्यवाद!