33. बहुतों को बेनकाब होते और हटाए जाते देखने के बाद

यी शिन, चीन

फरवरी 2023 में यहूदा के विश्वासघात के कारण पुलिस मेरे घर पर आई और मुझसे परमेश्वर में मेरी आस्था के बारे में पूछताछ करने लगी। यह देखकर कि जांघ की हड्डी के गल जाने से मैं चल-फिर नहीं पाती हूँ, वे मुझे अपने साथ नहीं ले गए। उस समय मैं कोई भी कर्तव्य नहीं निभा पाती थी और सुरक्षा जोखिमों के कारण भाई-बहन भी मेरे घर नहीं आ पाते थे। शुरू में तो मुझे पता था कि इस तरह के वातावरण की अनुमति परमेश्वर ने ही दी है, लेकिन जब मैंने सोचा कि मैं न तो अपना कर्तव्य निर्वहन कर पाती हूँ, न ही श्रम कर पाती हूँ, तो मुझे हैरानी हुई कि क्या परमेश्वर इस वातावरण के जरिए मुझे बेनकाब कर हटा रहा है। मैंने यह भी सोचा कि पिछले कुछ वर्षों में कलीसिया में कई लोगों को एक के बाद एक बेनकाब कर हटा दिया गया है। जैसे वांग ताओ को ही लो। वह पाठ-आधारित कर्तव्य निर्वहन करता था और कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रख रहा था, उसने अपनी जवानी और शादी दोनों का त्याग कर दिया था, यहाँ तक कि चालीस-पचास की उम्र में भी विवाह नहीं किया, हमेशा घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निर्वहन करता रहा, लेकिन बाद में पता चला कि वह छद्म-विश्वासी है और उसे निकाल दिया गया। ली ली के साथ भी यही हुआ, उसने थोड़े समय तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद अपनी आस्था पर ध्यान देने के लिए अपना पारिवारिक व्यवसाय छोड़ दिया। दुनिया ने उसे बहुत बदनाम किया, उपहास किया, उसके बेटे तक ने उसका बहुत विरोध किया, फिर भी वह अपना कर्तव्य निर्वहन करती रही, सुसमाचार का प्रचार करते समय उसने बहुत कष्ट सहे और कीमत चुकाई और कुछ लोगों को विश्वासी भी बनाया। आखिर में यह उसे एक बुरे व्यक्ति के तौर पर बेनकाब कर निकाल दिया गया। ऐसे बहुत से लोग थे जो पकड़े जाने के बाद यहूदा बन गए और निकाल दिए गए। इन सभी परिचित चेहरों को एक-एक करके बेनकाब होते और हटाए जाते देखकर मुझे लगा कि परमेश्वर का कार्य वाकई उस मुकाम पर आ पहुँचा है जहाँ सभी को किस्म के अनुसार वर्गीकृत किया गया है, भले ही कलीसिया ने मुझे निकाला नहीं था, लेकिन न तो मैं अपना कर्तव्य निभा पा रही थी और न ही भाई-बहनों से संपर्क कर पा रही थी। कहीं इसका मतलब यह तो नहीं कि परमेश्वर इस वातावरण का उपयोग मुझे हटाने के लिए कर रहा था और अब वह मुझे नहीं चाहता था? यह सोचकर मुझे बहुत नकारात्मकता और उदासी महसूस हुई और मैं उलझन में भी पड़ गई। क्या परमेश्वर ने इतने सारे लोगों को बचाने के लिए नहीं चुना था? अंत में वे एक-एक करके बेनकाब कर हटाए क्यों जा रहे थे? इस तरह तो परमेश्वर के कार्य के अंत में बहुत कम लोग बचेंगे। क्या सचमुच परमेश्वर का यही इरादा है? विशेषकर जब मैंने परमेश्वर के वचनों में कर्तव्य पालन के बारे में पढ़ा तो मैंने सोचा, “मैं तो अब चल भी नहीं सकती, अपना कर्तव्य क्या निभा पाऊँगी? परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की पड़ताल करता है; उसे पक्का पता होगा कि मैं बहुत भ्रष्ट हूँ, इसलिए उसने मुझे बीमारी के जरिए हटा दिया। मेरे लिए सत्य का परिश्रमपूर्वक अनुसरण करने का क्या लाभ है? भविष्य में मेरा उद्धार नहीं होगा और कोई अच्छा परिणाम या गंतव्य भी नहीं होगा।” मैं इतनी नकारात्मक हो गई कि कुछ भी नहीं करना चाहती थी। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने के मूड में नहीं थी, मुझे यह भी नहीं पता था कि परमेश्वर से प्रार्थना करते समय क्या कहूँ। मैं अक्सर नकारात्मकता की वजह से रोया करती थी। मैं जानता थी कि मेरी मनोदशा सही नहीं है, मैं इतनी नकारात्मक नहीं बनी रहना चाहती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी मनोदशा बहुत खराब है। मुझे लगता है तुम मुझे नहीं चाहते और हटा देना चाहते हो। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं तुम्हारा इरादा समझ सकूँ और इस नकारात्मक मनोदशा से बाहर आ सकूँ।” मैं बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करती रही।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों में यह अंश मिला : “हाल के वर्षों में कलीसिया कार्य अत्यंत व्यस्त रहा है, और इसलिए प्रत्येक समूह में सदस्यों के तबादले, उनके कार्य में बदलाव, और साथ ही उन्हें प्रकट करने, हटा देने और स्वच्छ करने का कार्य अपेक्षाकृत ज्यादा होता रहा है। इस कार्य की प्रक्रिया में, टीम सदस्यों के तबादले खास तौर पर अधिक बार हुए हैं और उनका दायरा भी व्यापक रहा है। लेकिन, चाहे जितने भी तबादले हुए हों, या चीजें चाहे जितनी भी बदल जाएँ, परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखने वाले और परमेश्वर की चाह रखने वाले लोगों का सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ निश्चय नहीं बदलता, उद्धार प्राप्त करने की उनकी कामना नहीं बदलती, परमेश्वर में उनकी आस्था नहीं घटती, वे हमेशा एक अच्छी दिशा में विकसित होते रहे हैं और आज तक अपने कर्तव्य निर्वहन में डटे रहे हैं। इससे भी काफी बेहतर वे लोग हैं जो निरंतर अलग काम सौंपे जाने के माध्यम से अपनी सही जगह पा लेते हैं और अपने कर्तव्य में सिद्धांत खोजना सीख लेते हैं। लेकिन, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जिन्हें सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम नहीं है, और जो सत्य से विमुख महसूस करते हैं, वे अच्छे ढंग से कर्तव्य नहीं निभाते। कुछ लोग फिलहाल कर्तव्य निभाते रहने के लिए स्वयं को मजबूर कर रहे हैं, जबकि दरअसल उनकी अंदरूनी दशा पहले से ही पूरी तरह खस्ता है, और वे बुरी तरह से अवसाद-ग्रस्त और नकारात्मक हैं। लेकिन उन्होंने अभी भी कलीसिया नहीं छोड़ी है, और वे यूँ नजर आते हैं मानो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और अब भी अपने कर्तव्य निभाते हैं, मगर असल में उनके दिल बदल गए हैं, वे परमेश्वर से दूर हो गए हैं और उन्होंने उसका परित्याग कर दिया है। कुछ लोग शादी करके अपना जीवन जीने के लिए घर लौट आते हैं...। कुछ लोग अमीर होने के अपने सपनों के पीछे भागना जारी रखते हैं; कुछ अधिकारी या नौकरशाह बनने का अपना सपना साकार करने के लिए आधिकारिक करियर बनाने का प्रयास करते हैं; कुछ लोग संतान रूपी समृद्धि के पीछे भागते हैं, इसलिए वे शादी कर लेते हैं और बच्चों को जन्म देते हैं; कुछ लोगों को परमेश्वर में उनके विश्वास के लिए परेशान किया जाता है, बरसों तक सताया जाता है, वे कमजोर और बीमार पड़ जाते हैं और फिर वे अपने कर्तव्य का परित्याग कर अपना शेष जीवन जीने के लिए घर लौट जाते हैं। सभी की स्थिति अलग-अलग होती है। कुछ लोग अपनी मर्जी से चले जाते हैं, और अपने नाम निकलवा देते हैं, कुछ छद्म-विश्वासी होते हैं जिन्हें हटा दिया जाता है, कुछ लोग तरह-तरह के बुरे कृत्यों के कारण निष्कासित कर दिए जाते हैं। इन लोगों की हड्डियों में क्या घुसा होता है? उनका सार क्या है? क्या तुमने इसे स्पष्ट रूप से देखा है? ... तो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते वक्त वे जोश से भरे हुए थे, उन्होंने अपने घर-बार छोड़ दिए, अपनी नौकरियाँ छोड़ दीं, परमेश्वर के घर के लिए अक्सर चढ़ावे दिए, और जोखिम-भरे काम सँभाले। उन्हें जैसे भी देखो, वे पूरी ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते दिखे। तो फिर भला अब वे कैसे बदल गए? क्या इसलिए कि परमेश्वर ने उन्हें पसंद नहीं किया और शुरू से ही उसने उनका फायदा उठाया? (नहीं।) परमेश्वर सभी से निष्पक्षता और बराबरी से पेश आता है, सबको अवसर देता है। उन सबने कलीसियाई जीवन जिया, परमेश्वर के वचनों को खाया-पिया, और परमेश्वर द्वारा पोषण, सिंचन और अगुआई पाकर जीवन-यापन किया, तो फिर वे इतना ज्यादा कैसे बदल गए? परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते वक्त उनका व्यवहार और कलीसिया छोड़ते समय उनका व्यवहार ऐसा था मानो वे दो अलग व्यक्ति हों। क्या परमेश्वर के कारण उन्होंने उम्मीद खो दी? क्या परमेश्वर के घर या उसके कार्यों ने उन्हें बुरी तरह निराश कर दिया? क्या परमेश्वर, उसके द्वारा बोले जाने वाले वचनों या उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य ने उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाई? (नहीं।) तो फिर कारण क्या है? इसे कौन समझा सकता है? ... (हे परमेश्वर, मेरे ख्याल से जब इन लोगों ने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तो उन्होंने अपने उत्साह और नेक इरादे पर भरोसा किया, और वे कुछ चीजें कर पाए, लेकिन अब परमेश्वर का घर अपने सारे कार्यों को ज्यादा-से-ज्यादा गंभीरता से ले रहा है। उसकी अपेक्षा है कि लोग सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करें। लेकिन ये लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, अपने कर्तव्य निभाते समय मनमानी करते हैं और अक्सर उनकी काट-छाँट होती है। तो वे और ज्यादा महसूस करते हैं कि वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम चला रहे हैं, वे वैसा आगे नहीं कर सकते, अंततः वे परमेश्वर का घर छोड़ देते हैं। मेरे ख्याल से यह एक कारण है।) वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम करते रहे हैं, वैसा आगे नहीं कर सकते—क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम करते रहे हैं, वैसा आगे नहीं कर सकते—यह उन लोगों के बारे में कहा जाता है जो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं। ऐसे कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जैसे-तैसे काम नहीं करते, ईमानदार हैं, जो इस मामले को गंभीरता से लेते हैं, तो ऐसा कैसे हुआ कि उन्होंने काम करना छोड़ दिया? (क्योंकि अपनी प्रकृति से ये लोग सत्य से प्रेम नहीं करते। उन्होंने आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा। वे देखते हैं कि परमेश्वर का घर हमेशा सत्य पर चर्चा करता है, और वे सत्य से विमुख और उसे लेकर प्रतिरोध महसूस करते हैं, सभाओं में जाकर धर्मसंदेश सुनने की उनकी इच्छा कम होती जाती है, और इसी वजह से वे उजागर हो जाते हैं।) यह एक प्रकार की स्थिति है, और ऐसे बहुत-से लोग हैं। ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो हमेशा अपने कर्तव्य फूहड़ तरीके से निभाते हैं, जो कभी भी अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाते, या वे जो भी कर्तव्य निभाते हैं उनकी जिम्मेदारी नहीं लेते। ऐसा नहीं है कि वे काबिल नहीं हैं, या उनकी काबिलियत उस कार्य के लायक नहीं है, बात बस इतनी है कि वे अवज्ञाकारी हैं, और वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते। वे हमेशा अपने मन की करते हैं, जब तक उनकी निरंकुशता और मनमानी के कारण आखिरकार कोई रुकावट और बाधा नहीं आ जाती। उनकी चाहे जितनी काट-छाँट हो, वे प्रायश्चित्त नहीं करते, और इसलिए आखिर उन्हें बाहर कर दिया जाता है। जिन लोगों को बाहर कर दिया जाता है, उनका स्वभाव घिनौना होता है, उनकी मानवता अहंकारपूर्ण होती है। वे जहाँ भी जाते हैं, अपनी ही बात मनवाना चाहते हैं, सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं, तानाशाहों जैसे कृत्य करते हैं, जब तक कि उन्हें हटा नहीं दिया जाता। कुछ लोग बदल दिए जाने और हटा दिए जाने के बाद महसूस करते हैं कि वे जहाँ भी जाते हैं अब उनके लिए कुछ भी आसान नहीं होता, कोई भी उन्हें भाव नहीं देता या कोई उन पर ध्यान नहीं देता। कोई भी उनके बारे में ऊँची राय नहीं रखता, अब वे अपनी बात नहीं मनवा सकते, उनकी मनमानी नहीं चलती, और आशीष प्राप्त करना तो दूर रहा, वे रुतबा पाने की भी उम्मीद नहीं कर सकते। उन्हें लगता है कि अब वे कलीसिया में जैसे-तैसे काम करते हुए जीवन नहीं बिता सकते, अब उन्हें इसको लेकर कोई दिलचस्पी नहीं रही, इसलिए वे छोड़ कर जाने का फैसला लेते हैं—ऐसे बहुत-से लोग हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))

परमेश्वर में विश्वास का मार्ग पथरीला और ऊबड़-खाबड़ है। यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया है। चाहे कुछ भी हो, चाहे वह लोगों की इच्छा के अनुरूप या उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या नहीं, या वे उसके बारे में पहले से जान सकते हैं या नहीं, उसके घटित होने को परमेश्वर की संप्रभुता और उसके आयोजन से अलग नहीं किया जा सकता। परमेश्वर द्वारा यह सब करने का महत्व यह है कि वह लोगों को उससे सबक लेने और परमेश्वर की संप्रभुता जानने देता है। परमेश्वर की संप्रभुता को जानने का लक्ष्य लोगों को परमेश्वर का विरोध करने के लिए प्रेरित करना नहीं है, न ही यह है कि परमेश्वर को समझने के बाद लोगों के पास उससे प्रतिस्पर्धा करने के लिए अधिक शक्ति और पूँजी हो। बल्कि, इसका लक्ष्य यह है कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो, वे उसे परमेश्वर से स्वीकार करना सीखें, सत्य को समझने के लिए सत्य खोजें और फिर सच्चा समर्पण हासिल करने के लिए इसका अभ्यास करें और परमेश्वर में सच्चा विश्वास विकसित करें। क्या तुम लोग इसे समझते हो? (हाँ।) तो, तुम लोग इसे कैसे व्यवहार में लाते हो? क्या ऐसी चीजों के संबंध में तुम लोगों के अभ्यास का मार्ग सही है? क्या तुम अपने ऊपर पड़ने वाली हर चीज समर्पण वाले हृदय और सत्य की खोज करने के दृष्टिकोण के साथ लेते हो? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम ऐसी मानसिकता से युक्त होगे। तुम पर जो कुछ भी पड़ेगा, तुम उसे परमेश्वर से स्वीकार करोगे, और तुम सत्य की खोज करते रहोगे और उसके इरादों को समझोगे, और लोगों और चीजों को उसके वचनों के आधार पर देखोगे। खुद पर पड़ने वाली सभी चीजों में तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर उसे जानने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगे। यदि तुम सत्य खोजने वालों में से नहीं हो, तो चाहे तुम पर कोई भी मुसीबत आए, तुम उससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं निपटोगे, और न ही सत्य खोजोगे। तुम परिणाम के तौर पर कोई भी सत्य हासिल किए बिना बस लापरवाही करते रहोगे। परमेश्वर लोगों को सत्य खोजने के लिए प्रशिक्षित करने के लिए ऐसी कई चीजों की व्यवस्था करके उन्हें पूर्ण बनाता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती हैं ताकि वे उसके कर्मों की समझ प्राप्त कर सकें और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता को देख सकें, जिससे उनका जीवन धीरे-धीरे विकसित हो सके। ऐसा क्यों है कि जो सत्य का अनुसरण करते हैं वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, सत्य प्राप्त करते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं, जबकि जो सत्य का अनुसरण नहीं करते उन्हें निकाल दिया जाता है? इसका कारण यह है कि सत्य का अनुसरण करने वाले किसी भी मुसीबत में सत्य को खोज सकते हैं, इसलिए उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य और प्रबोधन होता है, वे सत्य का अभ्यास करके परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं और उसके द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हैं; जबकि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें लगता है कि परमेश्वर का कार्य उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, फिर भी वे सत्य खोजकर इसे ठीक नहीं करते हैं; यहाँ तक कि वे नकारात्मक होकर शिकायत भी कर सकते हैं। समय बीतने के साथ परमेश्वर को लेकर उनकी धारणाएँ बढ़ती जाती हैं और वे उस पर संदेह करना और उसे नकारना शुरू कर देते हैं। नतीजतन, उन्हें परमेश्वर के कार्य द्वारा त्याग कर निकाल दिया जाता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))

परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे उसका इरादा समझ में आ गया। परमेश्वर चाहे जैसे भी वातावरण का आयोजन करे, वह आशा करता है कि लोग इससे सबक सीख सकें, सत्य खोज सकें और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचान सकें, इस प्रकार उन लोगों को पूर्ण बनाया जा सके जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं। लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेशों से सत्य खोजने या सबक सीखने को तैयार नहीं होते, बल्कि वे नकारात्मक होकर परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, इसलिए आखिरकार परमेश्वर उन्हें हटा देता है। जब मैंने देखा कि कलीसिया में लोग एक-एक करके बेनकाब किए और हटाए जा रहे हैं तो बीमारी के कारण कर्तव्य निर्वहन में अपनी असमर्थता देखते हुए मुझे लगा कि परमेश्वर मुझे बेनकाब कर हटा रहा है, इससे मैं नकारात्मक महसूस करने लगी। इन सभी समस्याओं का समाधान सत्य की खोज करके किया जाना था; मैं नकारात्मकता में जीती नहीं रह सकती थी। मैंने आत्मचिंतन किया कि मैं क्या प्रकट कर रही हूँ। मुझे लगा कि परमेश्वर लोगों को बेनकाब कर उन्हें हटाने के लिए इन वातावरणों का आयोजन करता है, परमेश्वर एकतरफा तौर पर लोगों को नहीं चाहता। क्या यह दृष्टिकोण सही था? परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे एक बात समझ आई : परमेश्‍वर सभी लोगों के साथ धार्मिकता से पेश आता है। उसने हमें बहुत सारे सत्य की आपूर्ति की है, सभी पहलुओं में सिद्धांत और मार्ग साफ तौर पर समझाए हैं, हमें भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने और गलत मार्ग पर चलने के परिणाम भी बताए हैं। फिर परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेने के लिए वातावरण का आयोजन करता है, यह देखने के लिए कि क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं और अपनी गवाही में दृढ़ रह सकते हैं। इस अवधि में परमेश्वर लोगों को कोई मार्ग विशेष चुनने के लिए बाध्य या विवश नहीं करता; वह लोगों को स्वतंत्रता देता है। अगर लोग सत्य खोज सकें, परमेश्वर द्वारा आयोजित वातावरण के प्रति समर्पित हो सकें, आत्मचिंतन कर खुद को जान सकें और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकें तो जिस वातावरण का वे सामना करते हैं वह उनके लिए पूर्ण किए जाने का साधन बन जाता है। लेकिन अगर वे कभी सत्य न खोजें, परमेश्वर द्वारा आयोजित वातावरण का प्रतिरोध और शिकायत करें, यहाँ तक कि खुद को निराशा में डुबो दें, तब यह वातावरण उन्हें बेनकाब कर हटा देने का कार्य करता है। किसी व्यक्ति का अंतिम परिणाम उसकी अपनी पसंद और जिस मार्ग पर वह चलता है, उससे जुड़ा होता है। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। कलीसिया में उन बुरे लोगों, मसीह विरोधियों और छद्म-विश्वासियों के बारे में विचार करने पर देखा गया कि जिन्हें बेनकाब कर हटाया गया है, उसके पीछे उनकी व्यक्तिगत पसंद और सत्य का अनुसरण करने में उनकी विफलता थी। वांग ताओ की तरह, भले ही शुरू में उसने अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सब कुछ छोड़ दिया था, लेकिन वह लगातार सत्य स्वीकारने से इनकार करता रहा, हमेशा लोगों और चीजों का अति-विश्लेषण करता रहा। वह न तो अगुआ की संगति सुनता था और न ही अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए तैयार था। अधीरता से यह तक कहता था, “कौन जानता है कि परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा! मैं अब अपना कार्य नहीं करना चाहता, मैं काम करके कुछ पैसे कमाना चाहता हूँ।” अगुआ ने परमेश्वर में विश्वास रखने और कर्तव्य निर्वहन की महत्ता पर संगति भी की, लेकिन वांग दिखावा करते हुए कहता, “मुझे बरखास्त कर दो। मैं यह कार्य नहीं कर सकता।” वह यहाँ तक कहता, “मेरे साथ कैसी भी संगति करो, मैं कर्तव्य निर्वहन नहीं करूँगा—चाहो तो मुझे निकाल दो।” जहाँ तक ली ली की बात है, भले ही वह चीजों को त्यागने, खुद को खपाने और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम थी, फिर भी वह परमेश्वर की ओर से आईं चीजें नहीं स्वीकारती थी, पूरी तरह सत्य अस्वीकारती थी, लोगों और चीजों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करती थी, यहाँ तक कि वह भाई-बहनों की आलोचना करती थी और कलीसिया के जीवन में बाधा डालती थी। भाई-बहनों ने कई बार उसके साथ संगति करने की कोशिशें कीं, लेकिन उसके बावजूद वह बदलने को तैयार नहीं थी। बाद में उसके सुसमाचार प्रचार का कोई लाभ नहीं हुआ, उसने नकारात्मकता भी फैलाई जिससे सुसमाचार के कार्य में बाधा पैदा हुई। जब अगुआओं ने उसकी काट-छाँट की तो लगा वह इसे स्वीकार कर रही है, लेकिन बाद में अगुआ के प्रति उसने असंतोष फैलाया, दूसरों को अपनी तरफ खींचा और उनके मन में अगुआ के खिलाफ पूर्वाग्रह भर दिए, लेकिन उसे किसी तरह का कोई अफसोस नहीं था। मैंने देखा कि लगातार सत्य अस्वीकारने के कारण ही उन्हें बेनकाब कर हटा दिया गया, जिन परिस्थितियों का उन्होंने सामना किया, उनके जरिए वे खुद को जानने और उन पर चिंतन करने में नाकाम रहे, उनकी प्रवृत्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य करने की थी, वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा डाल रहे थे। लेकिन मैंने गलती से यह मान लिया था कि परमेश्वर एकतरफा तरीके से लोगों को हटाना चाहता है, अब वह लोगों को नहीं चाहता। यह परमेश्वर को गलत समझना था और इसे परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा भी माना जा सकता है। मैंने अपनी बीमारी पर भी विचार किया जिसके कारण मैं अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए बाहर नहीं जा पाती थी और मेरे वातावरण में मौजूद खतरों की वजह से भाई-बहन मुझसे संपर्क नहीं कर पाते थे। मैंने मान लिया था कि परमेश्वर ने मुझे बेनकाब कर हटा दिया है, लेकिन यह भी परमेश्‍वर को गलत समझना था। हकीकत में परमेश्वर ने मेरी परीक्षा लेने के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण किया था, यह देखने के लिए कि मैं कौन सा मार्ग चुनती हूँ। अगर मैं लगातार शिकायत करते हुए गलतफहमियाँ ही पाले रहती, नकारात्मकता में जीती रहती, परमेश्वर के वचन न पढ़ती, परमेश्वर से प्रार्थना न करती या उसके निकट न जाती या फिर परमेश्वर को ही त्यागने के बारे में सोचने लगती तो यह वातावरण वाकई मुझे बेनकाब कर हटा देता। लेकिन अगर मैं इस वातावरण के प्रति समर्पित हो पाती, जो भ्रष्टताएँ मैं प्रकट कर रही थी उन पर चिंतन कर उन्हें पहचान पाती और उनका समाधान करने के लिए सत्य खोज पाती तो इस तरह का वातावरण मुझे पूर्ण बना देता। इन बातों को समझ लेने पर मेरा दिल काफी रोशन हो गया। अब भले ही मैं इस वातावरण में अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पा रही थी, लेकिन मुझे समर्पित होकर सत्य खोजना था और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना था।

मैंने विचार किया : इस वातावरण का सामना करने पर मैं इतनी नकारात्मक क्यों हो गई? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है। शायद अपना कर्तव्य निभाते हुए या कलीसिया का जीवन जीते हुए उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार त्यागने और खुद को खुशी-खुशी परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम हैं, और अब वे आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा को जानकर इसे दरकिनार भी कर चुके हैं, और अब उससे नियंत्रित या विवश नहीं होते। फिर वे सोचते हैं कि उनमें अब आशीष पाने की प्रेरणा नहीं रही, लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। लोग मामलों को केवल सतही तौर पर देखते हैं। परीक्षणों के बिना, वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं। अगर वे कलीसिया नहीं छोड़ते या परमेश्वर के नाम को नहीं नकारते, और परमेश्वर के लिए खपने में लगे रहते हैं, तो वे मानते हैं कि वे बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि वे अब अपने कर्तव्य-पालन में व्यक्तिगत उत्साह या क्षणिक आवेगों से प्रेरित नहीं हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार सत्य की तलाश और अभ्यास कर सकते हैं, ताकि उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो सकें और वे कुछ वास्तविक बदलाव हासिल कर सकें। लेकिन जब सीधे लोगों की मंजिल और परिणाम से संबंधित कोई बात हो जाती है तो वे किस प्रकार व्यवहार करते हैं? सच्चाई पूरी तरह से प्रकट हो जाती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मैं केवल आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रख रही थी। पहले जब मुझे किसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ता था तब मैं सक्रियता से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पाती थी। मैं कलीसिया द्वारा सौंपा गया कोई भी कार्य कर लेती थी; यहाँ तक कि जब मैं बीमारी से पीड़ित थी तब भी मैं दृढ़ता से अपने कर्तव्य का निर्वहन करती थी। लेकिन अब गंभीर बीमारी के चलते मैं कोई भी कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी और भाई-बहन भी मुझसे संपर्क नहीं कर पा रहे थे। मुझे लगा कि परमेश्वर ने मुझे हटा दिया है और अब मेरे पास कोई अच्छा परिणाम या गंतव्य नहीं है। मैं इस हद तक नकारात्मक हो गई कि मैं कोई भी कार्य नहीं करना चाहती थी, सत्य का अनुसरण या ऊपर उठने का प्रयास नहीं करना चाहती थी। मैं परमेश्वर के वचन तक पढ़ने के मूड में नहीं थी और नकारात्मकता की मनोदशा में रहने लगी थी। यह जाहिर हो गया था कि मैं सक्रिय रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन परमेश्वर से आशीष पाने, बदले में एक अच्छा परिणाम और गंतव्य हासिल करने के लिए कर रही थी। लेकिन जब मैंने देखा कि अब आशीष पाने की कोई आशा नहीं है तो मैंने परमेश्वर में विश्वास रखने की प्रेरणा खो दी—परमेश्वर में मेरे विश्वास और कर्तव्य निर्वहन में कोई ईमानदारी नहीं थी। मुझे लगता था परमेश्वर में मेरा विश्वास सच्चा है, मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान हूँ, जब भी कुछ घटित होता तो मैं तुरंत उसका समाधान करने के लिए सत्य खोजती। इस अनुभव ने मुझे पूरी तरह बेनकाब कर दिया। जब मैंने देखा कि अब आशीष पाने की कोई आशा नहीं है तो मैं नकारात्मक हो गई और मैंने सत्य की खोज करना बंद कर दिया। मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान कैसे हो सकती थी? भले ही मुझे इस तरह के वातावरण का सामना नहीं करना पड़ा था और मैं अपना कर्तव्य निर्वहन कर पाती थी, अगर मेरा भ्रष्ट स्वभाव न बदलता, परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्यों के निर्वहन के बारे में मेरी प्रेरणाएँ और विचार सही न होते तो अंत में मैं सत्य प्राप्त न करने के कारण परमेश्वर द्वारा हटाए जाने का लक्ष्य बन जाती। मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है, इसलिए हमें परमेश्वर में विश्वास रखकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। एक सृजित प्राणी के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है। लेकिन मैं आशीष पाने के इरादे से परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। क्या मुझमें रत्ती भर भी विवेक या जमीर था? मैंने दिल में पछतावा और खुद को ऋणी महसूस किया, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझमें सचमुच जमीर नहीं है। मैं तुममें सच्चा विश्वास नहीं रखती; यह सब मैंने आशीष पाने के लिए किया है। हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप कर खुद को बदलने के लिए तैयार हूँ। भविष्य के परिणाम की परवाह किए बिना मैं ईमानदारी से तुम में विश्वास रखकर तुम्हारा अनुसरण करूँगी और पूरी लगन से सत्य का अनुसरण करूँगी।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपने दृष्टिकोण के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पूछते हैं, ‘क्या परमेश्वर नहीं चाहता कि हर व्यक्ति बचाया जाए, और किसी का भी विनाश न हो? अगर परमेश्वर ऐसी कार्यविधि अपनाएगा तो कितने लोग बचाए जा सकेंगे?’ जवाब में परमेश्वर पूछेगा, ‘कितने लोग मेरे वचनों पर ध्यान देते हैं और मेरे मार्ग पर चलते हैं?’ जितने हैं, बस उतने ही हैं—यह परमेश्वर का नजरिया और उसके कार्य का तरीका है। परमेश्वर इससे ज्यादा कुछ नहीं करता। इस मामले में मनुष्य की धारणा क्या है? ‘परमेश्वर इस मानवजाति पर दया दिखाता है, उसे इस मानवजाति की चिंता है, तो उसे अंत तक जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए। अगर मनुष्य अंत तक उसका अनुसरण करता है, तो वह अवश्य बचाया जाएगा।’ यह धारणा सही है या गलत? क्या यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है? अनुग्रह के युग में लोगों के लिए ऐसी धारणाएँ रखना सामान्य था, क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते थे। अंत के दिनों में, परमेश्वर ने लोगों को ये तमाम सत्य बताए हैं, और परमेश्वर ने लोगों को बचाने के अपने सिद्धांत भी उन्हें समझा दिए हैं, इसलिए अगर लोग अपने दिलों में अभी भी ये धारणाएँ रखते हैं तो यह बड़ी अनर्थक बात है। परमेश्वर ने तुम्हें ये तमाम सत्य बता दिए हैं, तो अगर अंत में, तुम अभी भी कहते हो कि तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझते और अभ्यास करना नहीं जानते, और तुम अभी भी ऐसी विद्रोही और विश्वासघाती बातें कहते हो, तो क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकेगा? ऐसे कुछ लोग हैं जो हमेशा सोचते हैं, ‘परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, उसे दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी प्राप्त हो जानी चाहिए और उसे परमेश्वर के महिमामंडन की गवाही देने के लिए ढेर सारे लोगों, शक्तिशाली ताकतों और काफी संख्या में उच्च क्रम के व्यक्तित्वों का प्रयोग करना चाहिए। यह कितना अद्भुत होगा!’ यही मनुष्य की धारणा है। बाइबल में, पुराने और नए दोनों नियमों में, ऐसे कुल कितने लोग थे जिन्हें बचाया और पूर्ण किया गया था? अंत में वे कौन थे जो परमेश्वर का भय मान कर बुराई से दूर रह पाए? (अय्यूब और पतरस।) बस ये दो लोग ही थे। परमेश्वर की नजर में, उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना, दरअसल, उसे जानने, सृष्टिकर्ता को जानने का मानक है। परमेश्वर की नजर में, इब्राहिम और नूह धार्मिक थे, लेकिन फिर भी वे अय्यूब और पतरस से एक पायदान नीचे थे। बेशक, उस समय परमेश्वर ने इतना अधिक कार्य नहीं किया था। उसने लोगों को उतना पोषण नहीं दिया था जितना वह उन्हें अब देता है, न ही उसने इतने स्पष्ट वचन बोले थे, न ही उसने इतने बड़े पैमाने पर उद्धार का कार्य किया था। शायद उसे बड़ी संख्या में लोग प्राप्त नहीं हुए थे, लेकिन यह अभी भी उसके पूर्व-निर्धारण में है। इसमें सृष्टिकर्ता के स्वभाव के किस पहलू को देखा जा सकता है? परमेश्वर को और अधिक लोग प्राप्त होने की उम्मीद है, लेकिन असल में अगर अधिक लोग प्राप्त न हो सके—अगर परमेश्वर को अपने उद्धार के कार्य के दौरान अधिक लोग प्राप्त न हो पाए—तो परमेश्वर उन्हें त्यागना और निकाल देना चाहेगा। यही है सृष्टिकर्ता की आंतरिक वाणी और नजरिया। इस बारे में, परमेश्वर को ले कर इंसान की क्या अपेक्षाएँ या धारणाएँ हैं? ‘चूँकि तुम मुझे बचाना चाहते हो, इसलिए तुम्हें अंत तक जिम्मेदार होना चाहिए और तुमने मुझे आशीष देने का वादा किया था, इसलिए तुम्हें मुझे आशीष देने चाहिए और मुझे पाने देना चाहिए।’ इंसान के अंदर बहुत-सी ‘अपेक्षाएँ’ हैं—अनेक माँगें हैं—और यह उसकी एक धारणा है। अन्य लोग कहते हैं, ‘परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है—छह हजार वर्षीय योजना—अगर अंत में वह केवल दो ही लोगों को प्राप्त करे, तो यह कैसी शर्मिंदगी की बात होगी। क्या तब उसके सारे कार्यकलाप व्यर्थ नहीं हो जाएँगे?’ इंसान सोचता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन परमेश्वर दो लोगों को प्राप्त करके भी खुश है। परमेश्वर का असली उद्देश्य मात्र उन दो लोगों को प्राप्त करना ही नहीं है, बल्कि अधिक लोगों को प्राप्त करना है, लेकिन अगर लोग जागते नहीं और नहीं समझते और वे परमेश्वर को गलत समझ कर उसका प्रतिरोध करते हैं, और वे सभी बेकार और निकम्मे हैं, तो परमेश्वर उन्हें प्राप्त नहीं करना चाहेगा। यही परमेश्वर का स्वभाव है। कुछ लोग कहते हैं, ‘इससे बात नहीं बनेगी। तब क्या शैतान हँसी नहीं उड़ाएगा?’ शायद शैतान हँसी उड़ाए, मगर इसके बावजूद क्या वह परमेश्वर का परास्त शत्रु नहीं है? फिर भी परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त किया है—उनमें से अनेक ऐसे हैं जो शैतान का त्याग कर सकते हैं और उसके नियंत्रण से मुक्त हो सकते हैं। परमेश्वर ने सच्चे सृजित प्राणियों को प्राप्त किया है। जो लोग परमेश्वर को प्राप्त नहीं हुए हैं, क्या उन्हें शैतान ने बंदी बना लिया है? तुम लोगों को पूर्ण नहीं बनाया गया है, क्या तुम लोग शैतान का अनुसरण करने में सक्षम हो? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, ‘अगर परमेश्वर को मेरी आवश्यकता नहीं है, तो भी मैं शैतान का अनुसरण नहीं करूँगा। अगर वो मुझे आशीष देगा, तो भी मैं नहीं लूँगा।’ जो लोग परमेश्वर को प्राप्त नहीं हुए हैं, वे भी शैतान का अनुसरण नहीं करते—क्या इस प्रकार परमेश्वर महिमामंडित नहीं होता? परमेश्वर द्वरा प्राप्त लोगों की संख्या, और जिस पैमाने पर वह उन्हें प्राप्त करता है, उस बारे में लोगों के मन में एक धारणा होती है; वे मानते हैं कि परमेश्वर को उन थोड़े-से लोगों को ही प्राप्त नहीं करना चाहिए। इंसान के मन में ऐसी धारणा इसलिए पैदा होती है, क्योंकि एक ओर वह परमेश्वर के मन की थाह नहीं पा सकता और यह नहीं समझ सकता कि वह किस प्रकार के व्यक्ति को प्राप्त करना चाहता है—इंसान और परमेश्वर के बीच हमेशा दूरी होती है; दूसरी ओर, इंसान के लिए ऐसी धारणाएँ रखना वह तरीका है जिससे वह अपनी नियति और भविष्य के मामले में, खुद को दिलासा दे कर अपने आपको मुक्त रख सकता है। इंसान मानता है, ‘परमेश्वर ने बहुत कम लोग प्राप्त किए हैं—हम सबको प्राप्त कर लेना उसके लिए कितना गौरवशाली होगा! अगर परमेश्वर किसी को न निकाले, बल्कि हर एक को जीत ले और अंततः हर कोई पूर्ण बन जाए और परमेश्वर द्वारा लोगों को चुने जाने और बचाए जाने की बात बेकार न जाए, न ही उसके प्रबंधन का कार्य बेकार हो, तो क्या शैतान और ज्यादा शर्मिंदा न होगा? क्या परमेश्वर और अधिक महिमामंडित नहीं होगा?’ वह ऐसा इसलिए कह सकता है क्योंकि कुछ तो वह सृष्टिकर्ता को नहीं जानता और कुछ उसकी अपनी स्वार्थपूर्ण मंशा है : उसे अपने भविष्य की चिंता है, इसलिए वह इसे सृष्टिकर्ता की महिमा से जोड़ देता है, इस तरह यह सोचकर कि चित भी मेरी, पट भी मेरी, उसके दिल को चैन मिलता है। इसके अलावा, उसे यह भी लगता है कि ‘परमेश्वर का लोगों को प्राप्त कर शैतान को अपमानित करना शैतान की हार का मजबूत साक्ष्य है। यह एक पत्थर से तीन चिड़िया मारना है!’ लोग अपना फायदा करवाने के तरीके ढूँढ़ने में माहिर होते हैं। यह बड़ी चतुरतापूर्ण धारणा है, है कि नहीं? लोगों में स्वार्थी मंसूबे होते हैं, और क्या इन मंसूबों में विद्रोहशीलता नहीं झलकती है? क्या इसमें परमेश्वर से माँग नहीं की जाती है? इसके भीतर परमेश्वर के विरुद्ध एक अनकहा प्रतिरोध है, जो कहता है, ‘तुमने हमें चुना है, हमारी अगुआई की है, हम पर इतनी मेहनत की है, हमें अपना जीवन और अपनी संपूर्णता दी है, अपने वचन और सत्य दिए हैं, और हमसे इतने वर्ष अपना अनुसरण करवाया है। अगर अंत में तुम हमें प्राप्त नहीं कर पाए तो यह कैसी बड़ी क्षति होगी।’ ऐसा बहाना परमेश्वर को ब्लैकमेल करने, और उन्हें प्राप्त करने को बाध्य करने का प्रयास है। यह कहना है कि अगर परमेश्वर ने उन्हें प्राप्त नहीं किया तो वे कुछ नहीं खोएँगे, इससे परमेश्वर को ही नुकसान होगा—क्या यह वक्तव्य सही है? इसमें मनुष्य की माँगें, उसकी कल्पनाएँ और धारणाएँ शामिल हैं : परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, तो उसे ज्यादा-से-ज्यादा लोग अवश्य प्राप्त करने चाहिए। यह ‘अवश्य’ कहाँ से आता है? यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं, उसकी अनुचित माँगों और उसके घमंड, और साथ ही उसके हठी और खूंख्वार स्वभाव के मिश्रण से आता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (2))

परमेश्वर के वचनों से मैंने अपनी धारणाओं के बारे में कुछ भेद पहचाना। पहले मुझे लगता था कि परमेश्वर द्वारा को लोगों को बेनकाब कर हटाया नहीं जाना चाहिए; उसे और अधिक लोगों को प्राप्त करना चाहिए ताकि वह अधिक महिमा प्राप्त कर सके। इसलिए जब मैंने कलीसिया में लोगों को एक-एक कर बेनकाब होते और हटाए जाते देखा तो मैं उलझन में पड़ गई : इतने सारे लोगों के बेनकाब होने और हटाए जाने के बाद आखिरकार कितने लोग बचाए जाएँगे? विशेषकर जब मैं बीमारी के कारण अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर पाती थी तो मुझे भी ऐसा ही लगता था कि परमेश्वर मुझे बेनकाब कर हटा रहा है। मैंने परमेश्वर को गलत समझा और मन ही मन उससे बहस भी की, “क्या परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाना नहीं है? आखिर हम सब क्यों हटाए जा रहे हैं?” इससे परमेश्वर के कार्य के बारे में मेरी जानकारी का अभाव जाहिर हो गया। दरअसल लोगों को बचाने का परमेश्वर का इरादा बदलता नहीं है, वह और अधिक लोगों को पाने की आशा करता है। अगर लोग परमेश्वर के लिए वफादारी से परिश्रम करने को तैयार होते हैं तो वह उन्हें आसानी से नहीं हटाता। लेकिन अगर लोग परमेश्वर के उद्धार को संजोकर नहीं रखते, हालात का सामना करने पर सत्य नहीं खोजते, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करते, गड़बड़ी और व्यवधान पैदा करते हैं, अपनी मेहनत से अच्छा करने के बजाय नुकसान ज्यादा करते हैं तो उन्हें हटाया ही जाएगा। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। उसे लोगों की संख्या नहीं, गुणवत्ता चाहिए। वह सच्चे सृजित प्राणी पाना चाहता है जो ईमानदारी से उसकी आराधना कर उसके अनुकूल हो सकें, फिर भले ही वे संख्या में कम हों। इसके अलावा मेरी यह उम्मीद कि परमेश्वर लोगों को बेनकाब कर हटाने के बजाय अधिक लोगों को बचाएगा, इसमें मेरा अपना स्वार्थ छिपा था। क्योंकि ऐसा होने पर मुझे हटाया नहीं जाएगा, मेरी संभावनाएँ और गंतव्य सुरक्षित हो जाएँगे। इसलिए जब लगा कि परमेश्वर मुझे बेनकाब कर हटा रहा है तो मैं नकारात्मक हो गई और अब मैं सत्य का अनुसरण नहीं करना चाहती थी। मैंने मन ही मन परमेश्वर से तर्क-वितर्क किया : क्या परमेश्वर ने हमें बचाने के लिए नहीं चुना था? हममें से इतने सारे लोगों को एक-एक कर बेनकाब कर हटाया क्यों जा रहा है? मेरा आशय यह था कि परमेश्वर को हमें हटाना नहीं चाहिए; उसे हमें अंत तक बचाना चाहिए। क्या इस सोच की प्रकृति पौलुस के शब्दों के समान ही नहीं थी : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। यह तो परमेश्‍वर के विरुद्ध चिल्लाना है! यह एक बहुत ही दुष्ट स्वभाव है। दरअसल परमेश्वर चाहे कैसे भी वातावरण का आयोजन करे, यह हमें उसमें सत्य खोजने और सत्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है ताकि हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग सकें और बचाए जा सकें। जैसे कि यह वातावरण : हालाँकि यह मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं था और इससे मुझे थोड़ी पीड़ा हुई, लेकिन इसने मेरे भीतर आशीष प्राप्त करने की प्रेरणा को बेनकाब किया जिससे मैं परमेश्वर में अपने विश्वास और कर्तव्य निर्वहन के पीछे छिपी हुई मिलावटों को पहचानकर पूरी तरह से खुद को बदल पाई। मैंने देखा कि यह वातावरण मेरे लिए उद्धार है। परमेश्‍वर ने हमें बचाने के लिए बहुत मेहनत की है। वह न केवल हमें आपूर्ति देने के लिए सत्य व्यक्त करता है, बल्कि हमें शुद्ध और पूर्ण बनाने के लिए हमारे लिए तरह-तरह के वातावरण का आयोजन भी करता है। फिर भी मैंने परमेश्वर द्वारा आयोजित वातावरण का प्रतिरोध किया और उसके बारे में शिकायत की। मुझे वाकई नहीं पता था कि मेरे लिए क्या अच्छा है! परमेश्वर का मुझे अंत के दिनों के अपने कार्य को स्वीकारने के लिए चुनना पहले ही उसका अनुग्रह है। मुझे उसका आभारी होना चाहिए। भले ही आखिरकार मुझे आशीष या कोई अच्छा परिणाम न मिले, लेकिन फिर भी मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए और उससे बहस नहीं करनी चाहिए।

बाद में मुझे परमेश्वर के और भी वचन मिले : “अभी से गंभीरता से इसका अनुसरण करना शुरू करो—लेकिन तुम्‍हें इसका अनुसरण कैसे करना चाहिए? तुम्हें उन मामलों पर विचार करने की जरूरत है जिनमें तुम अक्सर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो। परमेश्वर ने तुम्‍हें सबक सिखाने के लिए बार-बार तुम्‍हारे लिए परिस्थितियाँ तैयार की हैं, ताकि इन मामलों के माध्यम से तुम बदल सको, उसके वचन तुममें कार्यरत हों, और तुम सत्य वास्तविकता के किसी पहलू में प्रवेश कर सको, उन मामलों में तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना बंद करके परमेश्वर के शब्दों के अनुसार जिओ, और उसके वचन तुममें गढ़ दिए जाएँ और वे तुम्‍हारा जीवन बन जाएँ। लेकिन तुम अक्सर इन मामलों में परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हो, न तो उसके प्रति समर्पण करते हो और न ही सत्य स्वीकार करते हो, न ही उसके वचनों को ऐसे सिद्धांतों के रूप में लेते हो जिनका तुम्‍हें पालन करना चाहिए, और न ही उसके वचनों को जीते हो। इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचती है और तुम बार-बार उद्धार का अवसर खो देते हो। तो तुम्‍हें स्‍वयं को कैसे बदलना चाहिए? आज से ही, ऐसे मामलों में जिनकी तुम आत्‍मचिंतन के जरिये पहचान कर सकते हो और स्‍पष्‍ट रूप से समझ सकते हो, तुम्‍हें परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण करना चाहिए, उसके वचनों को सत्य वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना चाहिए, उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहिए, और अपने जीने के तरीके को बदलना चाहिए। इस तरह की स्‍थ‍ितियों का सामना करने पर तुम्‍हें अपनी देह की इच्छाओं और प्राथमिकताओं से विद्रोह करना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? (हाँ है।) ... हालाँकि, यदि तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, यदि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहते हो, और सत्य तथा जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्‍हें परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना चाहिए, उसके वचनों का अभ्‍यास करने और उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ होना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को कायम रखने से शुरुआत करनी चाहिए। ये केवल कुछ सरल वाक्य हैं, फिर भी लोग नहीं जानते कि इनका अभ्यास या अनुभव कैसे किया जाए। तुम्‍हारी क्षमता या शिक्षा जो भी हो, और तुम्‍हारी उम्र कितनी भी हो या विश्वास करते कितने भी वर्ष बीते हों, चाहे जो हो, यदि तुम सही लक्ष्यों और दिशा के साथ सत्य का अभ्यास करने के सही रास्ते पर हो, और यदि तुम जिसका अनुसरण करते हो वह सब सत्य का अभ्यास करने के लिए है, तो अंततः तुम जो हासिल करोगे वह निस्संदेह सत्य वास्तविकता होगी और परमेश्वर के वचन तुम्‍हारा जीवन बन जाएँगे। पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करो, फिर धीरे-धीरे इस मार्ग के अनुसार अभ्यास करो और अंततः तुम्‍हें कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त होगा। क्या तुम्‍हें इस पर विश्वास है? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (20))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। अगर मैं सत्य का अनुसरण करके बचाया जाना चाहती थी तो मुझे परमेश्वर द्वारा आयोजित वातावरण के प्रति समर्पित होना था, सत्य खोजना था और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना था। भले ही मैं अब कोई कर्तव्य निर्वहन या भाई-बहनों से संपर्क नहीं कर पा रही थी, लेकिन मैंने इस स्थिति में परमेश्वर की सुरक्षा देखी थी। मेरी गंभीर बीमारी के बावजूद परमेश्वर ने मुझे एक-एक साँस दी थी और मैं अभी तक जीवित थी। मैं अभी भी घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ पा रही थी; परमेश्वर ने मुझे अपने वचन पढ़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया था। लेकिन मुझे आभारी होना नहीं आता था। परमेश्वर की सुरक्षा की सराहना करने के बजाय मैं नकारात्मक हो गई थी और उसे गलत समझ बैठी थी। मैं वाकई अनुचित थी। मुझे अपने आप को और अधिक जानने और आत्मचिंतन करने की आवश्यकता थी, अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की खोज करनी थी—यह सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति होती।

कुछ समय बाद मैं फिर से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने योग्य हो गई और सुसमाचार के धर्मोपदेशों का चयन करने लगी। मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन का एक और मौका देने के लिए मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी थी। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान मैंने अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव की जाँच करने पर ध्यान दिया। कभी-कभार अगर मैं अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे हासिल कर लेती तो फूली न समाती और सोचती कि मैं बहुत अच्छी हूँ। लेकिन जब कभी मेरे कर्तव्य निर्वहन से कोई विशेष लाभ न होता या मैं अपने रास्ते से भटक जाती तो मैं नकारात्मक हो जाती और चिंतित हो जाती कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। अपने बारे में इन प्रकाशनों की प्रतिक्रिया में मैं समाधान के लिए परमेश्वर के वचन खोजती। कुछ समय तक इस तरह अभ्यास करने पर मुझे दिल में बहुत संतुष्टि मिली। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद!

पिछला:  29. खतरे और प्रतिकूलता के बीच मैंने कैसे चुनाव किया

अगला:  35. धूर्त और कपटी होना आपको अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने से रोकती है

संबंधित सामग्री

17. शैतान के तंग घेरे से निकलना

झाओ गांग, चीनउत्तर-पूर्व चीन में विगत नवंबर में कड़ाके की ठंड पड़ी थी, ज़मीन पर गिरी बर्फ ज़रा भी नहीं पिघलती थी, और कई लोग जो बाहर चल रहे थे,...

12. त्रित्व की पहेली का निराकरण

जिन्ग्मो, मलेशियामैं भाग्यशाली थी कि 1997 में मैंने प्रभु यीशु के सुसमाचार को स्वीकार किया और, जब मैंने बपतिस्मा लिया, तो पादरी ने...

23. गंभीर खतरे में होना

जांगहुई, चीन2005 में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के कुछ ही दिनों बाद, मैंने अपनी पुरानी कलीसिया के एक...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

Connect with us on Messenger