34. खुद का दिखावा करके मैंने क्या सीखा
अक्टूबर 2016 में मैं एक प्रचारक का कर्तव्य निभा रही थी। उस समय मसीह विरोधियों द्वारा फैलाई गई गड़बड़ी और तोड़फोड़ के कारण जिन कई कलीसियाओं के लिए मैं जिम्मेदार थी उनका कार्य ठप्प पड़ गया था। मैंने और मेरी दो सहयोगी बहनों ने अभी यह कर्तव्य संभाला ही था, इसलिए हम इन कलीसियाओं के लोगों से परिचित नहीं थे, जिस कार्य की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी उसका दायरा इतना व्यापक था कि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था और लगा कि मैं यह जिम्मेदारी नहीं उठा सकती, इसलिए मैं इस जिम्मेदारी से बचना चाहती थी। लेकिन फिर मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन खाए और पिए हैं फिर भी जब सबसे अधिक आवश्यकता है तो मैं अपना पद छोड़ना चाहती हूँ। क्या यह अपमान का संकेत नहीं है?” इसलिए मैंने अपनी मानसिकता को अनुकूल बनाया और मेरी सहयोगी बहनों ने एक दूसरे को सहारा दिया और संगति की और उन भाई-बहनों से मदद माँगी जो स्थिति से अच्छी तरह परिचित थे। कुछ समय तक सहयोग करने के बाद हम मसीह-विरोधी गिरोह से निपटे और कार्य में सुधार के संकेत दिखने लगे। इस अनुभव के बाद मुझे एहसास हुआ कि वाकई मैं इसे अपने दम पर हासिल नहीं कर सकती थी, यह सब पवित्र आत्मा के कार्य का नतीजा था। कुछ ही समय बाद कलीसिया को सीसीपी की बेतहाशा गिरफ्तारी और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिन घरों में ये भाई-बहन अपना कर्तव्य निर्वहन कर रहे थे वे असुरक्षित हो गए थे और इन लोगों को तत्काल कहीं और भेजने की आवश्यकता थी। जब मैंने यह समाचार सुना तो मेरे होश उड़ गए, मुझे लगा अब इन लोगों को कहीं और भेजना नामुमकिन है। अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे बहुत से भाई-बहनों को स्थानांतरित करने की आवश्यकता थी, लेकिन मैं उनके लिए एक साथ इतने सारे मेजबान घर कहाँ से ढूँढ़कर लाती? मैं मुश्किल हालात में थी और वाकई समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, लेकिन फिर मैंने मन ही मन सोचा, “यह भाई-बहनों की सुरक्षा और कलीसिया के हितों से जुड़ा मामला है। उन्हें कहीं और न भेजना कोई विकल्प नहीं है।” बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हें विश्वास होना चाहिए कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है और लोग बस सहयोग कर रहे हैं। यदि तुम खरे हो, तो परमेश्वर जान जाएगा और वह हर हालात में तुम्हारे लिए रास्ता खोलेगा। किसी भी कठिनाई को पार करना मुश्किल नहीं है; तुम्हें यह विश्वास होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। इन्हें पढ़कर लगा जैसे मैं अंधेरे में रोशनी की किरण देख रही हूँ, मेरा दिल फौरन रोशन हो गया और मेरी आस्था को और बल मिला। मैंने अपनी सहयोगी बहनों के साथ मेजबान घर की तलाश के विषय पर चर्चा की। तीन दिन बाद एक कलीसिया की बहन ने मुझे लिखा कि कई मेजबान घर मिल गए हैं और भाई-बहन अभी भी सक्रिय रूप से घर देने की पेशकश कर रहे हैं। मैं इतनी भावुक हो गई कि मेरी आंखों से आँसू बहने लगे। मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह कलीसिया एक साथ इतने सारे मेजबान घर उपलब्ध करा सकती है, मुझे सचमुच लगा कि परमेश्वर हमारे साथ है और हमारा मार्गदर्शन कर रहा है, अगर हम ईमानदारी से सहयोग करते रहेंगे तो परमेश्वर के कर्म देख सकेंगे। इसके बाद हमारी आस्था और भी प्रबल हो गई और हमने स्थानांतरण का कार्य सुचारु रूप से पूरा कर लिया। जब मैंने देखा कि बार-बार कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद कार्य सुचारु रूप से चल रहा है तो मुझे बहुत खुशी हुई। परमेश्वर को धन्यवाद देने के साथ-साथ मैंने अपने योगदान की गिनती भी शुरू कर दी। मेरा मानना था हालाँकि यह नतीजा वास्तव में परमेश्वर के कार्य से प्राप्त हुआ था, लेकिन यह मेरे प्रयासों और सहयोग के बिना संभव नहीं हो पाता। हालाँकि परमेश्वर में विश्वास रखते हुए मुझे बहुत अधिक समय नहीं हुआ था, लेकिन यह तथ्य कि इस कार्य से ऐसे नतीजे प्राप्त हुए जो साबित करते हैं कि मेरे पास कुछ सत्य वास्तविकताएँ हैं, वरना इतना कठिन कार्य इतनी सफलतापूर्वक कैसे पूरा हो पाता? मैं जितना इस तरह सोचती उतना ही मुझे लगता कि मेरा योगदान बड़ा है और मैं एक दुर्लभ प्रतिभा हूँ, विशेषकर तब जब अगुआ ने हमारी कार्यक्षमता की प्रशंसा की थी, मुझे और भी अधिक यकीन हो गया कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं और कलीसिया में कोई भी मुझसे अधिक अच्छा नहीं है। उसके बाद मैं गर्व से सिर ऊँचा करके चलती और जब भी अवसर मिलता मैं अपने अनुभव सुनाती और सबको उनके बारे में विस्तार से बताती। मैं चाहती थी कि भाई-बहन जानें कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं और मैं जानती हूँ कि जिन चीजों का मैंने सामना किया है उन्हें कैसे अनुभव किया जाए।
एक बार मैं कई कलीसियाओं के अगुआओं के साथ एक सभा में थी, कार्य के कार्यान्वयन के दौरान एक अगुआ ने असहाय होकर कहा, “तुम नहीं जानते कि हमारी कलीसिया में क्या स्थिति है, एक उपयाजक तक का चयन करना कठिन है। यह कार्य बहुत कठिन है!” मैंने मन ही मन सोचा, “तुम इन्हें कठिनाइयाँ कहते हो? जिन चुनौतियों से मैं गुजरी हूँ वे तुम्हारी चुनौतियों से कहीं ज्यादा बड़ी थीं। मुझे तुम्हारे साथ संगति करने की आवश्यकता है कि मैंने अपनी कठिनाइयों पर कैसे काबू पाया ताकि तुम देख सको कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं और मैं जानती हूँ कि जिन चीजों का मैं सामना करती हूँ उनका अनुभव कैसे करना है।” इसलिए मैंने बताया कैसे जब मैंने पहली बार अपना कर्तव्य संभाला और मुझे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तो मैंने परमेश्वर की ओर देखा था, परमेश्वर पर भरोसा किया था और उसने किस प्रकार मेरा मार्गदर्शन किया था, मैंने शुरू से लेकर अंत तक पूरी बात बता दी, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं कोई विवरण छूट न जाए। इन सबके बारे में बात करते समय मैंने उस मुश्किल समय की अपनी नकारात्मकता और कमजोरी को छिपा लिया, मैं नहीं चाहती थी कि भाई-बहन यह देखें कि मुझमें कमियाँ हैं। जब मैंने अपनी बात खत्म की तो सभी बहनों ने मेरी ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखा। और एक बहन ने ईर्ष्या से कहा, “तुम्हें वाकई पता है कि कैसे परमेश्वर पर भरोसा करना है और मुश्किलें आने पर उनका अनुभव कैसे करना है। इतनी मूर्ख होने की वजह से मैं खुद से घृणा करती हूँ—जब मेरे सामने कठिनाइयाँ आती हैं तो मुझे पता नहीं होता कि मैं परमेश्वर पर कैसे भरोसा करूँ या उनका अनुभव कैसे करूँ।” दूसरी बहनों ने भी सहमति में सिर हिलाया। मुझे यह सोचकर वाकई खुशी हुई, “मैं तुम सबसे बेहतर हूँ। इन कठिनाइयों पर विजय पाना पूरी तरह से मेरी अगुआई के कारण ही संभव हो सका, वरना मैं प्रचारक कैसे बन पाती!” लेकिन मैं शांति का नकाब ओढ़े रही और बहन के साथ संगति की, “परमेश्वर किसी व्यक्ति को दूसरे पर वरीयता नहीं देता, अगर तुम उसे खोजते हो तो वह तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। हम सिर्फ नारे नहीं लगा सकते, उन पर अमल भी करना होगा!” चूँकि मेरा सारा ध्यान दिखावा करने पर था और भाई-बहन जिन कठिनाइयों का सामना कर रहे थे उनके संबंध में परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग पर संगति नहीं कर रही थी, इसलिए सभा के बाद भी उन्हें यह नहीं पता था कि अभ्यास कैसे करना है।
उस दौरान मैंने देखा कि हमारी मेजबान बहन अक्सर दिखावा कर रही है और बीच-बीच में यह कहकर हमारा अनादर कर रही है कि हमने बहुत समय से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा है और हमारे पास अनुभव की भी कमी है। एक बार तो वह एक छोटी सी बात पर हम पर बहुत गुस्सा हो गई। मेरी सहयोगी बहनों ने उसके साथ संगति की, लेकिन वे जितना ज्यादा उसके साथ संगति करते, वह उतनी ही ज्यादा गुस्सा हो रही थी। उसने यहाँ तक कह दिया, “मैं अब यह कर्तव्य नहीं कर सकती! तुम्हें कोई और ढूँढ़ना होगा!” बाद में मेजबान बहन मेरे पास आई और अपने उस दिन के गुस्से के लिए आकर मुझसे माफी माँगी। मुझे लगा कि उसका गुस्सा सिर्फ इस एक घटना की वजह से नहीं था, लेकिन मैं यह असलियत नहीं जान पाई कि आखिर क्या गलती हुई थी। जब मैंने उससे बात की तो आखिरकार मुझे पता चल गया यह सब इसलिए था क्योंकि वह इस बात से असंतुष्ट थी कि उसे मेजबानी का कार्य सौंप दिया गया और समूह का अगुआ नहीं बनाया गया। मैंने बताया कि वह किस तरह से दिखावा करती थी, हमें अपमानित और बेबस करती थी। मेरी सहयोगी बहनों के वापस आने के बाद मैं उन्हें देख मुस्कुराई और शेखी बघारी कि कैसे मैंने मेजबान बहन का भेद पहचानकर उसे उजागर कर दिया। मैंने अपनी सहयोगी बहनों को भी झिड़कते हुए कहा, “तुमने देखा नहीं जब तुम उसके साथ संगति कर रही थीं तो उसने तुम्हें एकदम अनसुना कर दिया था? लेकिन फिर भी तुम उसके साथ संगति करती रहीं।” उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा कि मैं वाकई मामलों की असलियत समझने में सक्षम हूँ। मुझे सचमुच बहुत खुशी हुई और सोचा कि मैंने सत्य समझ लिया है और भेद पहचानना आ गया है। एक बार मैं पाठ-आधारित कार्य के पर्यवेक्षक के साथ एक सभा में शामिल हुई। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं इस पर्यवेक्षक को बहुत अच्छे से नहीं जानती हूँ और वह मेरी कार्यक्षमता के बारे में नहीं जानती। मुझे कोई ऐसा विषय खोजना होगा जिस पर मैं बात कर लोगों का भेद पहचान सकूँ ताकि वे मेरा सम्मान करें।” तभी उसने मेरे सामने मेजबान बहन का विषय उठाया, इसलिए मैंने उस विषय का उपयोग करते हुए कहा, “मैंने बहुत पहले ही उसकी रुतबा पाने की चाहत की असलियत को जान लिया था, लेकिन मेरी सहयोगी बहनें उसके साथ संगति करती रहीं।” पर्यवेक्षक ने सहमति में सिर हिलाया। बाद में जब भी कोई समस्या होती तो पर्यवेक्षक सीधे मुझसे चर्चा करती, यहाँ तक कि मेरी सहयोगी बहनों के साथ बातचीत करने के बाद भी वह मेरी राय लेती थी। मैं स्वाभाविक रूप से अग्रणी भूमिका निभा रही थी और अधिकांश कार्य की व्यवस्था मुझे ही करनी पड़ती थी। एक बार एक बहन ने मुझसे कहा, “मुझे ऐसा क्यों लगता है कि जब तुम तीनों एक साथ कार्य कर रही होती हो तो बॉस तुम होती हो?” यह सुनकर मैं हैरान रह गई। “वह ऐसा कैसे कह सकती है? हम तीनों को सहयोग करना होता है, वह यह कैसे कह सकती है कि मैं बॉस होती हूँ? कहीं वजह यह तो नहीं कि मैं बहुत घमंडी हूँ और हमेशा दिखावा करती हूँ? क्या परमेश्वर मुझे चेताने के लिए इस बहन का उपयोग कर रहा है?” मुझे थोड़ा डर लगा, लेकिन मैंने आत्मचिंतन नहीं किया और उसके बाद भी मैं उसी तरह व्यवहार करती रही, जहाँ भी जाती दिखावा करती।
इस मनोदशा में रहते हुए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि परमेश्वर ने मुझसे मुँह मोड़ लिया है। सभाओं में संगति के दौरान मुझे लगता जैसे मेरी आत्मा शुष्क हो गई है और मैं किसी भी मसले की असलियत नहीं जान पा रही हूँ। मेरा कार्य भी गलतियों से भरा पड़ा था। उच्च अगुआओं ने मुझे लगातार अपना उत्कर्ष और दिखावा करने, अपनी दो सहयोगी बहनों को कठपुतली बना देने और सारे कार्य निर्णय खुद लेने के लिए उजागर किया। उन्होंने कहा कि मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही हूँ और मुझे बर्खास्त कर दिया। अपना कर्तव्य गँवा देने के बाद मैं निराशा में डूब गई और बहुत दुखी हो गई। लगा जैसे पल झपकते ही मैं स्वर्ग से धरती पर आ गिरी हूँ और मैं इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। हर तरह से सोचकर देख लिया, लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि मुझ जैसा कोई व्यक्ति, जिसमें बोझ लेने की भावना और सत्य वास्तविकताएँ हैं, बरखास्त क्यों कर दिया जाएगा। मैंने विचार किया कि मैं हमेशा कलीसिया के कार्य में सबसे आगे रहती थी, फिर भी यह अंजाम हुआ। मुझे लगा मेरे साथ अन्याय हुआ है और उस आक्रोश में मैं रात भर सो न सकी। इस दुख में मैं लगातार प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आती रही और परमेश्वर से विनती करती रही कि वह मुझे मार्गदर्शन दे और प्रबुद्ध करे ताकि मैं उसके इरादों को समझकर सबक सीख सकूँ।
एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्ट मनुष्यजाति इन चीजों में माहिर है। जब लोग अपनी शैतानी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में आम है। लोग सामान्यतः कैसे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपनी बड़ाई करते हैं, जो उन्हें लोगों के मन में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उनकी सराहना करें, उन्हें मान दें, उनकी प्रशंसा करें और यहाँ तक कि उनकी आराधना करें, उनका आदर करें और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो ऊपरी तौर पर तो परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं। क्या इस तरह पेश आना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से परे हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है, अर्थात, वे निर्लज्ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए क्या-क्या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, सांसारिक आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीकों पर इतराते तक हैं। अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमजोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तब भी दूसरे लोगों को बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ गलत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुकसान पहुँचाया होता है उसका तो वे जिक्र तक नहीं करते। जब उन्होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतजार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्या यह अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का ही तरीका नहीं है? क्या अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्वभाव प्रकट होता है? अहंकार। यह प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव रखें। उनके शब्द पूरी तरह अकाट्य होते हैं और उनमें अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्वभाव है? और क्या उसमें दुष्टता के कोई तत्त्व हैं? (हैं।) यह एक प्रकार का दुष्ट स्वभाव है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक मनोदशा उजागर कर दी। मैंने विचार किया कि जब मैं कलीसिया के अगुआओं के साथ सभाओं में शामिल होती थी और देखती थी कि उन्हें कठिनाइयाँ हो रही हैं तो मैं समाधानों पर संगति करने को अपना उत्कर्ष और दिखावा करने के अवसर के रूप में लेती थी और उन बातों पर विस्तार से चर्चा करती कि किस तरह मैंने सत्य खोजा और परमेश्वर से प्रार्थना की, लेकिन कठिनाइयों का सामना करते समय मुझे जो नकारात्मकता और कमजोरी महसूस होती थी, उन बातों को मैं एकदम गोल कर जाती थी। मेजबान बहन का भेद पहचानने के मामले में सहयोगी बहनों से प्रशंसा पाने के लिए मैं मामले की असलियत न जानने में जानबूझकर अपनी असमर्थता छिपा जाती थी और केवल इस बारे में बात करती कि कैसे मैंने इसका भेद पहचान लिया। मैं ऐसा इसलिए करती ताकि सहयोगी बहनों को लगे कि मुझे सत्य की समझ है, मैं मामलों का भेद पहचान सकती हूँ और उनसे बेहतर हूँ। पाठ-आधारित कार्य के पर्यवेक्षक से मिलते समय मैं बहुत हिसाब-किताब लगाती थी और दिखावा करने के अवसर तलाशती थी। मैं जो बातें कहती उनमें जानबूझकर अपनी दो सहयोगी बहनों को छोटा दिखाती और खुद को ऊँचा दिखाने के लिए यह दर्शाती कि वे मुझसे कमतर हैं। चूँकि मैं भाई-बहनों के सामने लगातार दिखावा करती थी, इसलिए समस्याओं का सामना करते समय उन्होंने परमेश्वर की ओर देखना या सत्य सिद्धांतों की खोज करना बंद कर दिया था, इसके बजाय वे संगति और समाधान के लिए मुझ पर भरोसा करने लगे थे। इस वजह से मेरी सहयोगी बहनें कठपुतली बनकर रह गई थीं। दूसरों से प्रशंसा पाने के लिए मैं दिखावा करने का कभी कोई मौका नहीं छोड़ती थी, मेरी हर कथनी और करनी मेरे गुप्त इरादों से प्रेरित थी। मैं सचमुच घृणित और दुष्ट थी! मनुष्य का हृदय परमेश्वर का मंदिर होता है, इसलिए मनुष्य को परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। लेकिन मैं दूसरों से अपनी पूजा करवाने की कोशिश करती थी। क्या मैं डाकू की तरह व्यवहार नहीं कर रही थी? मेरी करतूतों और कर्मों के अनुसार मैं धिक्कारे जाने और दंडित किए जाने की पात्र थी! लेकिन परमेश्वर ने मुझे मेरे क्रियाकलापों के अनुसार दंड नहीं दिया। इसके बजाय उसने मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दिया। मेरा दिल अफसोस और ग्लानि से भर गया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कार्य के संबंध में, मनुष्य का विश्वास है कि परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ना, सभी जगहों पर प्रचार करना और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाना ही कार्य है। यद्यपि यह विश्वास सही है, किंतु यह अत्यधिक एकतरफा है; परमेश्वर इंसान से जो माँगता है, वह परमेश्वर के लिए केवल इधर-उधर दौड़ना ही नहीं है; यह आत्मा के भीतर सेवकाई और पोषण से जुड़ा है। ... कई लोग हैं, जो केवल परमेश्वर के लिए इधर-उधर दौड़ने, और हर जगह उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, किंतु अपने व्यक्तिगत अनुभव को अनदेखा करते हैं और आध्यात्मिक जीवन में अपने प्रवेश की उपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर की सेवा करने वाले लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाते हैं। कई वर्षों से परमेश्वर की सेवा और मनुष्य की सेवकाई करने वालों ने कार्य करने और उपदेश देने को ही प्रवेश मान लिया है, और किसी ने भी अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव को महत्वपूर्ण प्रवेश के रूप में नहीं लिया है। इसके बजाय, उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य से प्राप्त प्रबुद्धता को दूसरों को सिखाने के लिए पूँजी के रूप में लिया है। उपदेश देते समय उन पर बहुत ज़िम्मेदारी होती है और वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करते हैं, और इसके माध्यम से वे पवित्र आत्मा की वाणी को प्रकाशित कर रहे हैं। इस समय, जो लोग कार्य करते हैं, वे आत्मसंतोष से भर जाते हैं, मानो पवित्र आत्मा का कार्य उनका व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव बन गया हो; उन्हें लगता है कि उनके द्वारा बोले गए सभी वचन उनके स्वयं के हैं, लेकिन फिर मानो उनका स्वयं का अनुभव उतना स्पष्ट नहीं होता, जितना उन्होंने वर्णन किया होता है। और तो और, बोलने से पहले उन्हें पता भी नहीं होता कि क्या बोलना है, किंतु जब पवित्र आत्मा उनमें कार्य करता है, तो उनके वचन अनवरत रूप से धाराप्रवाह बह निकलते हैं। एक बार जब तुम इस तरह उपदेश दे लेते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारा वास्तविक आध्यात्मिक कद उतना छोटा नहीं है, जितना तुम मानते थे, और उस स्थिति में, जब पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कई बार कार्य कर लेता है, तो तुम यह निश्चित कर लेते हो कि तुम्हारे पास पहले से ही आध्यात्मिक कद है और ग़लत ढंग से यह मान लेते हो कि पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा स्वयं का प्रवेश और तुम्हारा स्वयं का अस्तित्व है। जब तुम लगातार इस तरह अनुभव करते हो, तो तुम अपने स्वयं के प्रवेश के बारे में सुस्त हो जाते हो, अनजाने ही आलस्य में फिसल जाते हो, और अपने स्वयं के प्रवेश को महत्व देना बंद कर देते हो। इसलिए, दूसरों की सेवकाई करते समय तुम्हें अपने आध्यात्मिक कद और पवित्र आत्मा के कार्य के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करना चाहिए। यह तुम्हारे प्रवेश को बेहतर तरीके से सुगम बना सकता है और तुम्हारे अनुभव को लाभ पहुँचा सकता है। जब मनुष्य पवित्र आत्मा के कार्य को अपना व्यक्तिगत अनुभव मान लेता है, तो यह भ्रष्टता का स्रोत बन जाता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, तुम लोग जो भी कर्तव्य करो, तुम लोगों को अपने प्रवेश को एक महत्वपूर्ण सबक समझना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (2))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि भले ही मैं कार्य और प्रचार कर पा रही थी, थोड़ा-बहुत भेद पहचानती थी और कुछ समस्याएँ भी सुलझा पाती थी, लेकिन ये सब पवित्र आत्मा के कार्य के नतीजे थे, ये मेरे वास्तविक आध्यात्मिक कद का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। मुझे वो समय याद आया जब मैं पहली बार प्रचारक बनी थी। कई कलीसियाओं का कार्य रुक गया था और उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मेरी दिली प्रार्थना और परमेश्वर को पुकारने से परमेश्वर ने भाई-बहनों के जरिए हमारी मदद की और सभी के सहयोग से हमने सफलतापूर्वक मसीह-विरोधी गिरोह को बाहर निकाल दिया। बाद में सीसीपी की गिरफ्तारियों के कारण हमें भाई-बहनों को कहीं और भेजने की व्यवस्था करनी पड़ी। हम कठिनाइयों में जी रहे थे, परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन ने हमें आस्था दी और भाई-बहनों ने सक्रिय रूप से मेजबान घर उपलब्ध कराए। खुद परमेश्वर अपने कार्य की सुरक्षा कर रहा था। भेद पहचानने के मामले में भी मैं एकदम अनाड़ी थी, बाद में परमेश्वर ने इन परिस्थितियों की व्यवस्था की, मेरे लिए चीजें प्रकट कीं और अपने वचनों से मेरा मार्गदर्शन किया जिससे मैं मेजबान बहन का भेद पहचान सकी। ये सब परमेश्वर के कार्य के नतीजे थे, लेकिन हर चीज का श्रेय मैं ले लेती थी, मैं जहाँ भी जाती वहीं अपनी शान बघारती और दिखावा करती थी। मैंने सचमुच परमेश्वर को मुझसे घृणा करने पर मजबूर कर दिया था! अब मैंने पवित्र आत्मा का कार्य गँवा चुकी थी, मैं अंधेरे में भटक रही थी, साफ-साफ कुछ देख नहीं पा रही थी, विभिन्न कार्यों की प्रभावशीलता में तेजी से गिरावट आई थी। हालाँकि मैं समस्याएँ सुलझाने के लिए पहले से अधिक मेहनत कर रही थी, लेकिन मैं गलतियाँ करती चली जा रही थी और कार्य में खामियाँ भरी पड़ी थीं। मैं साल भर से इन कलीसियाओं का पर्यवेक्षण और प्रशिक्षण कार्य संभाल रही थी, फिर भी मेरे कार्य का यह अंजाम हुआ। मैंने देखा कि मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। मैं मूर्ख और अंधी हो गई थी, पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पहचान पा रही थी। मैंने गलती से पवित्र आत्मा के कार्य के नतीजों को अपना असली आध्यात्मिक कद मान लिया था, मुझे लगता था कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, इसलिए मैंने इन चीजों को दूसरों के सामने दिखावा करने के लिए पूंजी के रूप में इस्तेमाल किया था। मुझे सचमुच कोई शर्म नहीं थी! यह देखकर कि मैंने कार्य को कितना नुकसान पहुँचाया है, मुझे बहुत पछतावा और ग्लानि हुई और मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने अनजाने में बहुत बुराई की है। अगर तुम्हारी ताड़ना और अनुशासन मुझ पर न आया होता तो मैंने कभी आत्मचिंतन न किया होता। मुझे वाकई बरखास्त किए जाने ने बचा लिया! परमेश्वर, मैं गहराई से आत्मचिंतन और तुम्हारे आगे पश्चात्ताप करूँगी।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद से उनकी प्रकृति बिगड़नी शुरू हो गई है और उन्होंने धीरे-धीरे सामान्य लोगों में मौजूद समझ को खो दिया है। मनुष्य होते हुए भी लोगों ने मनुष्य की तरह बरताव करना बंद कर दिया है; बल्कि, वे जंगली आकांक्षाओं से भरे हुए हैं; वे मनुष्य की स्थिति पार कर चुके हैं, फिर भी, वे और भी ऊँचे जाने की लालसा रखते हैं। यह ‘और भी ऊँचे’ क्या दर्शाता है? वे परमेश्वर से बढ़कर होना चाहते हैं, स्वर्ग से बढ़कर होना चाहते हैं, और बाकी सभी से बढ़कर होना चाहते हैं। लोगों के ऐसे स्वभाव प्रकट करने का मूल कारण क्या है? कुल मिलाकर यही नतीजा निकलता है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत अधिक अहंकारी है। ज्यादातर लोग ‘अहंकार’ शब्द का अर्थ समझते हैं। यह एक निंदात्मक शब्द है। अगर कोई अहंकार प्रकट करता है, तो दूसरे सोचते हैं कि वह अच्छा इंसान नहीं है। जब भी कोई अविश्वसनीय रूप से अहंकारी होता है, तो दूसरे हमेशा मान लेते हैं कि वह दुष्ट व्यक्ति है। कोई भी इस शब्द को अपने साथ जोड़ा जाना पसंद नहीं करता। पर तथ्य यह है कि हर कोई अहंकारी है, और सभी भ्रष्ट मनुष्यों का यही सार है। कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं जरा भी अहंकारी नहीं हूँ। मैंने कभी भी महादूत नहीं बनना चाहा, न ही मैंने कभी परमेश्वर से या दूसरों से ऊंचा उठना चाहा है। मैं हमेशा एक ऐसा व्यक्ति रहा हूँ जो शिष्ट और कर्तव्यनिष्ठ है।’ कोई जरूरी नहीं है; ये शब्द गलत हैं। जब लोग अपनी प्रकृति और सार में अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपनी आज्ञा मनवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करे, तुम्हारी आज्ञा मानें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करेंगे और अपने तरीके से चीजों को करेंगे। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेंगे। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहेगा और वे परमेश्वर को अलग रख देंगे। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें दुष्ट व्यक्ति समझेगा और हटा देगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किये जाने के बाद लोगों का स्वभाव शैतानी हो जाता है, अहंकार के कारण वे अपना विवेक खो बैठते हैं और फिर उनमें एक सृजित प्राणी बनकर परमेश्वर की आराधना करने की इच्छा नहीं रहती। अपने अहंकारी स्वभाव के कारण मुझे भी लोगों की प्रशंसा और सराहना पाना अच्छा लगता था। कुछ कलीसियाओं की थोड़ी-बहुत समस्याओं का समाधान करने के बाद मैं यह मानने लगी थी कि मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, मैं अहंकारी हो गई थी। हर किसी के साथ बातचीत में मैं हमेशा दिखावा करने और शेखी बघारने के अवसर तलाशती रहती थी। इससे मेरी सहयोगी बहनें मेरी प्रशंसा करतीं और जब भी कोई समस्या पैदा होती तो वे समाधान के लिए मुझ पर भरोसा करतीं। मैं जानती थी कि उनकी यह मनोदशा गलत है, लेकिन मैं न तो उनकी मदद करती और न ही उनके साथ संगति करती, इसके उलट मुझे सम्मान पाना अच्छा लगता था। जब भाई-बहन समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करते तो मैं उन्हें हल करने के लिए सत्य न खोजती या संगति न करती, बल्कि अपनी खूबियाँ और काबिलियत दिखाती, केवल अपनी उपलब्धियाँ और अपने अच्छे पहलू दिखाती, लेकिन अपनी नकारात्मक और कमजोर मनोदशा के बारे में कोई जिक्र न करती। मैं भाई-बहनों के सामने भी खुद को ऊँचा उठाती, अपनी दो सहयोगी बहनों का अनादर करती ताकि सभी लोग मुझे उनसे बेहतर समझें और मेरा सम्मान करें। जब भी मसले आते तो वे अंतिम निर्णय के लिए मेरी ओर रुख करते और आखिरकार मैंने अपनी सहयोगी बहनों को कठपुतली मात्र बना दिया था। फिर भी मुझे डर नहीं लगा। बल्कि मैं इस सबका आनंद ले रही थी, सोचती थी कि भाई-बहनों का मेरा सम्मान करना सही है और जब बहन ने मुझे चेताया तब भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। मैं बस एक नीच और तुच्छ सृजित प्राणी थी, लेकिन मैं अपनी पहचान और मनोदशा से अनजान थी। परमेश्वर की आराधना करने के लिए एक सृजित प्राणी बनने के बजाय मैं दिखावा करके लोगों को अपने सामने लाने की कोशिश कर रही थी। मैं इतनी अहंकारी हो गई थी कि अपना विवेक खो बैठी थी! इतनी भयंकर बुराई करने के बाद भी मैं आत्म-प्रशंसा में लगी थी। मैं वाकई बेशर्म, नीच और तुच्छ थी! मैं बस चाहती थी कि जमीन फटे और मैं उसमें समा जाऊँ। मुझे परमेश्वर का सामना करने में बेहद शर्म आती थी, भाई-बहनों तक का सामना करने में बहुत लज्जा महसूस होती थी। ऐसे में आखिरकार मुझे यह एहसास हुआ कि मेरी बरखास्तगी ने मुझे सुरक्षित कर दिया है। अगर मुझे बरखास्त न किया गया होता और कुकर्म जारी रखने से न रोका गया होता तो मैं अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार ही जीती रहती और रुतबा पाने के गलत रास्ते पर चलती रहती और आखिरकार परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करने के कारण दंड भुगतने के लिए नरक में डाल दी गई होती। मैंने देखा कि यह बरखास्तगी वास्तव में उद्धार का ही एक रूप है, मैं दिल से परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी थी।
बाद में मैंने यह जानने की कोशिश की कि मैं कैसे परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही दे सकती हूँ। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊँचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एक मार्ग दिखाया जिसके जरिए मैं परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही दे सकती हूँ, मसलों का सामना करने पर अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता पर बात कर सकती हूँ, बता सकती हूँ कि कैसे मैंने परमेश्वर का प्रतिविरोध किया और उसके खिलाफ विद्रोह किया, कैसे मैंने खुद को जानने के लिए सत्य की खोज की, मैं खुलकर अपनी भ्रष्टता और अपनी प्रकृति सार को उजागर कर सकती हूँ, यह गवाही दे सकती हूँ कि मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए कैसे परमेश्वर ने अपने वचनों का प्रयोग किया। इस तरह से संगति करने से परमेश्वर का उत्कर्ष होगा और उसकी गवाही देना होगा। अपने अनुभवों के बारे में बात करते समय मुझे अपने दिल की नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में बात करनी चाहिए और बताना चाहिए कि कैसे परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन किया, मुझे अपने बारे में क्या समझ हासिल हुई और अभ्यास के कौन से मार्ग मिले। इससे भाई-बहनों को यह जानने का मौका मिलेगा कि परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना मनुष्य कोई कार्य नहीं कर सकता, परमेश्वर ही सब पर संप्रभुता रखता है, इससे लोग परमेश्वर को जानने में सक्षम बनेंगे। इतना भर करना ही परमेश्वर का सचमुच उत्कर्ष करना और उसकी गवाही देना होगा। अपने अनुभवों के बारे में मैंने कैसे बात की, इस पर आत्मचिंतन करने से मुझे एहसास हुआ कि मेरा इरादा दूसरों से अपना सम्मान करवाना था, मैं जानबूझकर अपनी नकारात्मक और कमजोर मनोदशा छुपा रही थी, और विस्तार से बता रही थी कि कैसे मैंने मुश्किल घड़ी में परमेश्वर की ओर देखा, उस पर भरोसा किया और कैसे परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन किया। नतीजतन भाई-बहनों ने देखा मैं जानती हूँ कि जिन चीजों का मैं सामना किया है उनका अनुभव कैसे करना है, इससे वे मेरा सम्मान तो करते थे, लेकिन उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। मैं लगातार अपना उत्कर्ष करती और दिखावा करती थी जिससे परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा! मुझे बहुत अफसोस हुआ और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारे प्रहार और अनुशासन ने मेरे सुन्न हृदय को जगा दिया है और आखिरकार मुझे यह दिखा दिया है कि मैं हमेशा से तुम्हारे खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध करती रही हूँ। अगर भविष्य में मुझे कर्तव्य निर्वहन का एक और अवसर मिला तो मैं पक्का गलत अनुसरण छोड़कर अपना सही स्थान ग्रहण कर लूँगी और एक सृजित प्राणी के रूप में आज्ञाकारिता से पेश आऊँगी।”
मई 2021 में अगुआओं ने एक समस्या का समाधान करने के लिए मेरे एक कलीसिया में जाने की व्यवस्था की। कलीसिया में मा ली नाम की एक कुकर्मी थी, वह एक नवनिर्वाचित अगुआ पर हमला कर रही थी जिसके कारण वह अगुआ नकारात्मक हो गई थी। जब मैं वहाँ पहुँची तो पता चला कि मा ली को 2018 में एक अगुआ पर हमला करने की वजह से आत्मचिंतन के लिए अलग कर दिया गया था, लेकिन वह अभी भी वैसी ही थी। मुझे लगा वह कुकर्मी है, लेकिन मैं कोई गलती करने से डरती थी, इसलिए मैंने उसके लगातार इस व्यवहार की रिपोर्ट उच्च अगुआओं को कर दी। अगुआओं ने संगति करते हुए उत्तर दिया कि सिद्धांतों के अनुसार : मा ली कुकर्मी है, उसके बारे में सामग्री जुटाकर कर उसे हटा दिया जाना चाहिए। इसलिए मैंने सभी के साथ समझदारी से संगति की और उस कुकर्मी को निकाल दिया। इसके बाद भाई-बहनों का कलीसियाई जीवन सामान्य हो गया और कलीसिया का कार्य भी सुचारू रूप से चलने लगा। एक सभा के दौरान बहन फांग शिन ने मुझसे कहा, “तुम्हारे पास वास्तव में सत्य वास्तविकताएँ हैं। तुमने आते ही यह भेद पहचान लिया कि मा ली कुकर्मी है और इस मामले को सही समय पर संभाल लिया। अगर तुम नहीं आती तो मैं वाकई यह कार्य नहीं कर पाती।” उसकी यह बात सुनकर मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं नहीं आती तो ये लोग वाकई उस कुकर्मी को संभाल नहीं पाते, और कलीसियाई जीवन सामान्य नहीं हो पाता।” लेकिन जैसे ही मैंने यह सोचा, मुझे तुरंत एहसास हुआ कि यह पवित्र आत्मा का कार्य था जिससे यह नतीजा आया, लेकिन मैं आत्म-प्रशंसा में लगी थी और परमेश्वर की महिमा चुरा रही थी। इसी तरह मैं पहले भी असफल हो चुकी हूँ, अब मैं और ज्यादा दिखावा नहीं कर सकती थी। मैंने कहा कि शुरू में मैं मा ली से जुड़े इस मामले की असलियत नहीं जान पाई थी, इसलिए मैंने मार्गदर्शन के लिए उच्च अगुआओं को पत्र लिखा और जब अगुआओं ने सिद्धांतों पर आधारित संगति की, तभी मैं साफ तौर पर देख पाई कि मा ली कुकर्मी है। संगति के बाद फांग शिन को समझ आया, उसने कहा कि उसमें लोगों को आदर्श मानने की प्रवृत्ति है और उसे इस प्रवृत्ति को बदलना होगा।
इस अनुभव के बाद मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई। अगर मैं असफल होकर ठोकर न खाती और परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन न होता तो मुझे पता ही नहीं चलता कि मैं गलत मार्ग पर हूँ, न ही मुझे अपने अहंकारी और परमेश्वर-प्रतिरोधी प्रकृति की सच्ची समझ प्राप्त होती। यह अनुभव मेरे जीवन प्रवेश में एक अनमोल खजाना बन गया है, यह मेरी आस्था की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ है और मेरे गलत अनुसरण को सही किया है। साथ ही इससे मुझे परमेश्वर के उत्कर्ष और गवाही के बारे में भी थोड़ा और सत्य समझने में मदद मिली, मैंने इस विषय में अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर लिया है।