37. बधिर होने के बाद अस्सी की उम्र पार कर चुकी महिला का अनुभव

लियांग शिन, चीन

2005 में मैं अड़सठ साल की हुई थी और उस साल अक्टूबर की शुरुआत में एक दिन एक दोस्त ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार सुनाया। परमेश्वर के वचन खाने और पीने से मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है जो मानवता को बचाता है और मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के एक साल से भी कम समय बाद अगुआ ने मेरे लिए कलीसिया की परमेश्वर के वचनों की किताबों के प्रबंधन की व्यवस्था की। मैंने मन ही मन सोचा, “चूँकि मैंने यह कर्तव्य लिया है, इसलिए मुझे मेहनती और जिम्मेदार होना चाहिए। मुझसे कोई गलती नहीं होनी चाहिए। सिर्फ अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने से ही मैं परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकती हूँ।” उसके बाद मैंने सक्रियता रूप से अपना कर्तव्य किया, सभी किताबों को व्यवस्थित और क्रमांकित किया और सब कुछ स्पष्टता से दर्ज किया। मैंने सोचा, “जब तक मैं अपने कर्तव्य के प्रति पूरी तरह समर्पित रहूँगी, न सिर्फ अगुआ और भाई-बहन प्रसन्न होंगे, बल्कि परमेश्वर भी निश्चित रूप से संतुष्ट होगा और मुझे आशीष देगा।” भविष्य में आशीष और उद्धार पाने के विचार ने मुझे बहुत खुश कर दिया। दो साल बाद अगुआ ने मुझे दो नजदीकी कलीसियाओं में किताबें और पत्र पहुँचाने में लगा दिया। हालाँकि मेरी उम्र के किसी व्यक्ति के लिए यह कर्तव्य थोड़ा कठिन था, जैसे ही मैंने सोचा कि यह कर्तव्य करने से मैं परमेश्वर को संतुष्ट कर सकूँगी और उसका आशीष पाऊँगी और खासकर जब मैंने भविष्य में राज्य की सुंदरता के बारे में सोचा तो मुझे बहुत आनंद मिला, इसलिए थकावट होने पर भी मैंने शिकायत नहीं की।

साल बीतते गए, 2024 आ गया और अब मेरी उम्र सत्तासी साल हो गई। मेरा स्वास्थ्य साल दर साल गिरता जा रहा था और मुझे कई बीमारियाँ हो गईं, जैसे समय से पहले दिल की धड़कन, हाइपरलिपिडिमिया, उच्च रक्तचाप और उच्च रक्त शर्करा और तीन साल पहले मुझे डिजेनरेटिव लंबर रोग हो गया था और जब यह काफी बढ़ गया तो मेरी पीठ के निचले हिस्से में इतना दर्द होने लगा कि मैं खड़ी नहीं हो पाती थी और जरा भी हिलने से असहनीय दर्द होता था। लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो इन बीमारियों ने मेरी मनोदशा को ज्यादा प्रभावित नहीं किया क्योंकि उन्होंने मुझे अपना कर्तव्य करने से नहीं रोका और उन्होंने परमेश्वर में मेरी आस्था के माध्यम से उद्धार की मेरी खोज को प्रभावित नहीं किया। मुझे सबसे ज्यादा दर्द इस बात से हुआ कि मैं दोनों कानों से बहरी हो गई थी। मैं अपने परिवार की सामान्य बातचीत बिल्कुल नहीं सुन पाती थी और उन्हें मेरे कान में चिल्लाना पड़ता था ताकि मैं थोड़ा भी सुन सकूँ। मेरे परिवार ने मेरे लिए सुनने की कई अलग-अलग मशीनें खरीदीं, लेकिन कोई भी लंबे समय तक काम नहीं आई। मैं अस्पताल गई और पता चला कि उम्र के साथ मेरे सुनने की क्षमता चली गई है, जो लाइलाज है। उसके बाद मुझे लगा जैसे मैं एक खामोश दुनिया में जी रही हूँ। मैं परमेश्वर के उपदेश या संगति नहीं सुन पाती थी, न ही मैं परमेश्वर के वचनों के भजन साफ सुन पाती थी। सभाओं में मैं दूसरों द्वारा अपने अनुभवों या परमेश्वर के वचनों की सच्चाई के बारे में की जाने वाली संगति भी नहीं समझ पाती थी और जब मैं उनके होंठ पढ़ने की कोशिश करती तो मैं समझ नहीं पाती कि वे क्या कह रहे हैं। मेरी शारीरिक स्थिति के कारण कलीसिया ने मुझे कर्तव्य सौंपना बंद कर दिया। मुझे गहरा दुख हुआ और मैं अकेले में अनगिनत बार रोती रही। मैंने सोचा, “सच में सब खत्म हो गया है। कोई कर्तव्य किए बिना क्या मैं अब भी आशीष या अच्छे गंतव्य की आशा कर सकती हूँ? क्या यह सब सिर्फ एक भ्रम बन गया है? क्या परमेश्वर ने मुझे छोड़ दिया है? अब जब कि मैं बहरी हो गई हूँ तो क्या मैं मात्र एक सजावट, एक बेकार इंसान नहीं हूँ? मैं अभी भी क्या कर्तव्य कर सकती हूँ? अविश्वासी दुनिया में कुछ बुजुर्ग लोग सौ से अधिक वर्षों तक जीवित रहते हैं, फिर भी उनकी सुनने और देखने की क्षमता अच्छी होती है। मैंने अठारह वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है; और इन सभी वर्षों में मैं उत्सुकता से खुद को खपाती रही हूँ और सक्रियता से अपने कर्तव्य करती रही हूँ। चाहे कलीसिया ने मेरे लिए जो भी कर्तव्य निर्धारित किए हों, मैंने हमेशा उन्हें ईमानदारी और जिम्मेदारी से किया और मैंने कभी भी अपनी उम्र को अपने कर्तव्यों में रुकावट नहीं बनने दिया। फिर परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए था, मेरी रक्षा करनी चाहिए थी और मुझे बहरा होने से बचाना चाहिए था। मैं बहरी कैसे हो सकती हूँ? अब मैं परमेश्वर की वाणी नहीं सुन सकती या अपने कर्तव्य नहीं कर सकती। मैं इस तरह से सत्य का अनुसरण कैसे कर सकती हूँ? मेरे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है और राज्य की सुंदरता मेरी पहुँच से बाहर है। सब कुछ खत्म हो गया है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता। वैसे भी मैं नब्बे साल की होने वाली हूँ और मुझे नहीं पता कि मेरे पास कितने दिन बचे हैं। मैं बस एक-एक करके अपने दिन जैसे-तैसे बिताऊँगी।” मैं परमेश्वर के बारे में शिकायतों और गलतफहमी में रहती थी, वाकई नकारात्मक और बेचैन हो गई थी। मैं समय गुजारने के लिए अपने फोन पर समय बिताने लगी और मैं अब प्रार्थना करना या परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ना चाहती थी। मेरी बेटी मेरी बुरी मनोदशा देखकर अक्सर मेरे कान में चिल्लाती थी, “क्या तुम अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करती? क्या हमें उन परिस्थितियों को स्वीकारना नहीं चाहिए जो परमेश्वर से हमारे पास आती हैं? हम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं। परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं और बहुत से सत्य व्यक्त किए हैं और हर समस्या के लिए परमेश्वर के वचनों में समाधान का मार्ग है। तुम्हारी आँखें ठीक हैं, इसलिए तुम परमेश्वर के और ज्यादा वचन पढ़ सकती हो। पढ़ो कि परमेश्वर बुजुर्ग लोगों से क्या अपेक्षा करता है और जब हम पर बीमारी आती है तो उसके इरादे क्या होते हैं। सिर्फ सत्य से खुद को सुसज्जित करके ही हमारी समस्याओं का समाधान हो सकता है। सिर्फ नकारात्मक और बेचैन रहने से क्या फायदा होगा?” मेरी बेटी की बातों ने मुझे जगा दिया। मेरा दिल परमेश्वर से दूर हो गया था, मैं कम प्रार्थना कर रही थी, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मैं ध्यान नहीं लगा पाती थी और अपने फोन पर लगे रहकर समय बर्बाद करती थी। मैं नकारात्मकता में फँस गई थी और इससे निकल नहीं पा रही थी। मुझे पता था कि मेरी बीमारी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, लेकिन मैं समर्पण नहीं कर पा रही थी। तभी मुझे परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति याद आई : “सत्य के अनुसरण का सरलतम नियम यह है कि तुम्हें परमेश्वर से सभी चीजों को स्वीकारना और सभी चीजों में समर्पण करना चाहिए। यह इसका एक अंश है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। मैं समझ गई कि परमेश्वर का इरादा है कि हम उससे होने वाली हर चीज स्वीकार करें और हम पूर्ण समर्पण करें। तथ्यों से पता चला कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर रही थी और मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान नहीं हूँ। मैंने परमेश्वर के सामने सिर झुकाया और प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, जब से मैंने अपनी सुनने की क्षमता खोई है, मेरी मनोदशा बहुत खराब हो गई है। मुझे लगता है कि मेरे बहरेपन के कारण मैं अब उद्धार या आशीष प्राप्त नहीं कर सकती और मैं तकलीफ में जी रही हूँ। मैंने तुमसे अनुचित तरीके से माँगें की हैं और तुम्हारे बारे में शिकायत की है। मेरे पास वाकई अंतरात्मा और विवेक की कमी है! हे परमेश्वर, मुझे इस गलत मनोदशा से बाहर निकालो और मेरा मार्गदर्शन करो।”

बाद में मैंने खुद से पूछा, “मेरे बहरेपन ने मुझे इतना दर्द क्यों दिया? मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण का दिल क्यों नहीं रख सकी?” मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्‍था का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपने इरादों और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और माँगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा से आशीष के लिए परमेश्वर पर विश्वास करती थी। मुझे विश्वास था कि जब तक मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगी, मेरे उद्धार की आशा रहेगी। अच्छा गंतव्य और आशीष पाने के लिए मैं स्वीकारती, आज्ञापालन करती और कलीसिया द्वारा मेरे लिए निर्धारित किसी भी कर्तव्य को लगन से करती थी। भले ही मैं बूढ़ी थी और किताबों का प्रबंधन करना चुनौतीपूर्ण था, मैंने कभी भी मुश्किल के बारे में शिकायत नहीं की या अपनी उम्र से अपने कर्तव्य को प्रभावित नहीं होने दिया। लेकिन जब मैं बहरी हो गई, मैं परमेश्वर के उपदेश या संगति नहीं सुन पाती थी या परमेश्वर के वचन के भजन नहीं सीख पाती थी, और जब मैं भाई-बहनों के साथ सभा करती थी, मैं परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ के बारे में उनकी संगति नहीं सुन पाती थी। इसलिए मुझे लगा कि जब मैंने कार्य के इस चरण को स्वीकारा तो मैं पहले से ही बूढ़ी थी और अब जब मैं कुछ भी नहीं सुन सकती हूँ तो मुझे और भी कम सत्य प्राप्त होगा। खासकर जब कलीसिया ने मेरे लिए कर्तव्यों की व्यवस्था करना बंद कर दिया, मुझे चिंता होने लगी कि मुझे अब आशीष नहीं मिलेगा और मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने प्रार्थना करना और सत्य खोजना बंद कर दिया और मैं अपना समय बस अपने फोन पर बिताने लगी। मैंने एक नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाया, बस दिन काटने की कोशिश रही थी। अगर मैं इसके माध्यम से प्रकट नहीं की जाती तो मैं आत्म-चिंतन नहीं करती और खुद को नहीं जानती और मैं अभी भी सोचती कि मैं अपने कर्तव्यों में अच्छा काम कर रही हूँ। अब मैंने देखा कि मैंने जो कुछ भी किया वह मेरे आशीष और अच्छे गंतव्य के लिए था और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए बिल्कुल नहीं था। इस चिंतन के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मेरी प्रकृति कितनी घिनौनी और घृणित है। मैं एक इंसान होने का दावा कैसे कर सकती हूँ? मैं यह कहने की हिम्मत कैसे कर सकती हूँ, “मैंने अठारह वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, इसलिए उसे मुझे आशीष देना चाहिए और मेरी रक्षा करनी चाहिए?” मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मैं वाकई बेशर्म थी! मेरा स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला था; मेरे अठारह साल के विश्वास की तो बात ही छोड़ दो—अगर मैं अट्ठाईस या अड़तीस साल तक भी विश्वास करती तो भी यह बेकार ही जाता।

अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम—सृजित प्राणी—किस आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो? लोग परमेश्वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्‍म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। वास्तव में, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्‍ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्‍हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्‍ट कर दिया होता, तब भी क्‍या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्‍हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। ... वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक विवेकहीन साबित हो रहे हैं। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीजें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्‍वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्‍य हर चीज की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीजें हैं जिन्‍हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्वर के स्‍वभाव को जानना आसान बात नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं समझती। जब परमेश्वर के कार्य मेरी धारणाओं के अनुरूप थे तो मैं उन्हें स्वीकार कर पाई और परमेश्वर को धार्मिक कहा, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो मैं यह स्वीकार नहीं पाई कि परमेश्वर धार्मिक है। मैंने हमेशा माना था कि परमेश्वर को पाने के बाद चाहे कलीसिया मेरे लिए कोई भी कर्तव्य क्यों न तय करे, मैं समर्पण कर सकती हूँ और माना कि मैं अपने कर्तव्य लगन से निभाती हूँ और कभी भी अपने बुढ़ापे के कारण देरी नहीं होने देती, इसलिए मैंने सोचा कि परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए और मुझे बहरा नहीं होने देना चाहिए और ऐसा करने से ही वह धार्मिक होगा। अब जबकि मैं अपने बहरेपन के कारण अपने कर्तव्य नहीं कर सकती थी और आशीष पाने का मेरा लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था, मुझे लगा कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं जो मानती थी वह सिर्फ मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं और वे सत्य के अनुरूप नहीं थीं। मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को मापने के लिए “जितना ज्यादा काम करोगे, उतना ज्यादा पाओगे; जितना कम काम करोगे, उतना कम पाओगे; कोई काम नहीं, कोई पुरस्कार नहीं” के सांसारिक दृष्टिकोण का इस्तेमाल कर रही थी। मेरा दृष्टिकोण गलत था। चाहे परमेश्वर के कार्य मानवीय धारणाओं के अनुरूप हों या नहीं, उसके अच्छे इरादे हमेशा उनमें होते हैं। परमेश्वर किसी भी सृजित प्राणी के प्रति जो कुछ भी करता है, वह धार्मिक है। क्योंकि परमेश्वर का सार धार्मिकता है। मुझे इसे अपनी धारणाओं से नहीं मापना चाहिए। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्‍ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है।” मैं तो बस एक साधारण सृजित प्राणी हूँ, मुझे परमेश्वर से माँग करने का क्या अधिकार है? जब मैंने परमेश्वर से अपनी अनुचित माँगों के बारे में सोचा, मुझे बहुत दुख और पछतावा हुआ और मेरा चेहरा आँसुओं से भीग गया। मैं 87 साल की हूँ और अभी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकती हूँ, यह पहले से ही परमेश्वर की सुरक्षा और अनुग्रह है। तब से मैं अब परमेश्वर से माँग नहीं कर पाई, मुझे उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था।

मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और सबसे कम इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर किसी के गंतव्य का निर्धारण इस आधार पर नहीं करता कि उसने कितना कष्ट सहा है या उसने कितना कुछ किया है, बल्कि इस आधार पर करता है कि उसका स्वभाव बदला है या नहीं। इन सभी वर्षों में भले ही मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया था और कुछ मुश्किलें झेली थीं, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी और जब परमेश्वर का कार्य मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता था, तब भी मैं उसके बारे में शिकायत कर सकती थी और उसका प्रतिरोध कर सकती थी। मैंने देखा कि परमेश्वर में विश्वास करने के इतने वर्षों के बाद भी मेरा स्वभाव अभी भी नहीं बदला है, फिर भी मैं अभी भी उद्धार और अच्छे गंतव्य की उम्मीद कर रही थी, जो कि ख्याली पुलाव पकाने से ज्यादा कुछ नहीं था। भले ही मैं बहरी हो गई हूँ, मेरी आँखें अभी भी ठीक हैं और मैं अभी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकती हूँ, इसलिए भविष्य में मुझे परमेश्वर के वचनों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने, अपना भ्रष्ट स्वभाव समझने और सुलझाने के लिए सत्य की अधिक खोज करने और स्वभाव में परिवर्तन पाने की जरूरत है।

बाद में एक बहन ने मेरा अनुभव सुना, उसने बताया कि मैं अपने कर्तव्य करने और आशीष या दुर्भाग्य पाने के बीच के संबंध को नहीं समझ पाई हूँ। उसने मुझे पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी साझा किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। जैसे-जैसे मैंने पढ़ा और विचार किया, मुझे एहसास हुआ कि किसी का कर्तव्य परमेश्वर द्वारा दिया गया एक आदेश है और यह मनुष्य की कर्तव्य-बद्ध जिम्मेदारी है, जो आशीष या दुर्भाग्य पाने से संबंधित नहीं है। एक विश्वासी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना आशीष और सम्मान है, सिर्फ सत्य का अनुसरण करके और अपने कर्तव्य करते हुए स्वभाव में परिवर्तन पाकर ही मैं परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकती हूँ। अगर मेरा स्वभाव नहीं बदलता, चाहे मैंने कितने भी कर्तव्य किए हों या कितने भी रास्ते तय किए हों, अगर मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया तो यह सब व्यर्थ होगा और मैं उद्धार प्राप्त नहीं कर पाऊँगी। पौलुस ने किसी से भी अधिक काम किया, लेकिन उसका स्वभाव नहीं बदला। उसके काम में उसके बलिदान और प्रयास परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं थे, बल्कि ताज और पुरस्कार पाने के लिए थे। यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत था और वह परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चला। नतीजतन उसे दंडित किया गया और अंत में उसे नरक मिला। मुझे आशीष के पीछे भागने का इरादा छोड़ना था और चाहे मुझे कोई अच्छी मंजिल मिले या न मिले, मुझे सत्य का अनुसरण करना ही था। हालाँकि मैं बहरी हो गई थी और अस्थायी रूप से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ थी, फिर भी मैं परमेश्वर की गवाही देने के लिए अनुभजन्य गवाहियाँ लिखने का अभ्यास कर सकती थी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आई, “हे परमेश्वर! कई वर्षों से मैंने सिर्फ आशीष पाने के लिए अपने कर्तव्य किए हैं, एक ऐसे मार्ग पर चल रही हूँ जो तुम्हारा प्रतिरोध करता है। मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने, आशीष की अपनी इच्छा छोड़ने और सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए तैयार हूँ। मैं स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास करूँगी, तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी।” इसके बाद मैं हर दिन परमेश्वर के वचन खाती और पीती थी, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जो कुछ भी समझती थी, उसे लिखती थी। मैंने यह देखने के लिए अनुभवजन्य गवाही वीडियो भी देखे कि भाई-बहन परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करते हैं। कभी-कभी मैं अपनी बेटी के साथ संगति करती और हर दिन संतुष्टिदायक और सार्थक महसूस होता। अब मेरी मनोदशा और हालत बहुत अच्छी है और मैं अब अपने बहरेपन के कारण दर्द में नहीं रहती। परमेश्वर का धन्यवाद!

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