38. अब मैं जानती हूँ कि अपने अपराधों से कैसे पेश आना है
2012 में जब मैं कलीसिया अगुआ थी तो एक यहूदा के विश्वासघात के कारण मुझे स्थानीय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने लगातार चार दिन और तीन रात मुझ पर अत्याचार किया, अलग-अलग शिफ्टों में मुझ पर नजर रखी गई। जब भी मैं झपकी लेने लगती तो वे मेरे सिर पर चीनी मिट्टी के बर्तन से वार करते, मुझ पर चिल्लाते और मेरा अपमान करते। वे उच्च अगुआओं के बारे में जानने के लिए मुझ पर दबाव बनाते, लेकिन जब देखते कि मैं जबान नहीं खोल रही हूँ तो पूरी ताकत से मेरी हथकड़ियाँ पीछे खींचते और यह कहकर मुझे धमकाते कि अगर मैंने जबान नहीं खोली तो मेरे दोनों बच्चों को विश्वविद्यालय से निकाल दिया जाएगा। मैं उनकी चालों में न आती और कुछ न बोलती। बाद में तो मैं इतनी टूट गई कि यातना सहना मुश्किल हो गया। मेरे कान बजने लगे और सिर में भनभनाहट सी होने लगी। एक पुलिस अधिकारी को मैंने यह कहते सुना, “देखते हैं तुम एक हफ्ते और टिक पाती हो क्या। हमारे पास तो फुर्सत ही फुर्सत है। जब तक तुम अपने दिमाग का नियंत्रण खोकर वो सब नहीं बता देती जो हम जानना चाहते हैं, तब तक हम तुम्हें इसी हालत में रखेंगे।” मैं बहुत खुमारी में थी और अपने दिमाग को थोड़ा साफ करने की कोशिश कर रही थी। एक पुलिस अधिकारी ने खूँखार अंदाज में कहा, “अगर तुम अपना अपराध स्वीकार नहीं करोगी तो हम तुम्हें गुप्त रूप से दूसरे प्रांत में भेज देंगे और फिर तुम्हारे घरवाले तुम्हें ढूँढ़ नहीं पाएँगे।” यह सुनकर मुझे बहुत डर लगा। मैंने सोचा अगर ये लोग मुझे किसी दूसरे प्रांत में भेज देंगे तो पक्का यातना देते रहेंगे और अगर मैं यातना दिए जाने से मर गई तो फिर मेरे उद्धार की कोई संभावना नहीं होगी। उस वक्त पुलिस वाले यह चाहते थे कि मैं उन्हें कम से कम सात लोगों के नाम बता दूँ। मुझे इतना सताया गया कि मेरे लिए खड़ा हो पाना मुश्किल हो रहा था, मुझे डर था अगर मेरा दिमागी नियंत्रण चला गया और मैंने कलीसिया के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी का खुलासा कर दिया तो मैं ऐसी यहूदा बन जाऊँगी जिसने परमेश्वर को धोखा दिया और इसका अर्थ और भी अधिक कठोर दंड होगा। मैंने सोचा, “जिन चार भाई-बहनों को कुछ दिन पहले गिरफ्तार किया गया था उन पर जुर्माना लगाकर उन्हें पहले ही रिहा कर दिया गया है। अगर मैं उनके नाम बता दूँ तो पुलिस कुछ समय तक उनके पीछे नहीं जाएगी। एक अन्य व्यक्ति था जिसे गिरफ्तार किया गया था और जिसने पहले मुझे धोखा दिया था, उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया गया है। अगर पुलिस उसे दोबारा भी पकड़ लेती है तो कलीसिया को कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि उसे कलीसिया के बारे में कोई जानकारी नहीं है।” इसलिए मैंने उन पाँच लोगों के नाम बता दिए। मैं हैरान रह गई जब पुलिस प्रमुख ने मेरे सामने एक नोटबुक जोर से पटकी और मेरी ओर इशारा करते हुए चिल्लाया, “मेरे साथ मजाक मत कर। उन सबका ‘मत-परिवर्तन’ कर दिया गया है!” जब कुछ अधीनस्थों ने अपने प्रमुख को गुस्से में देखा तो उन्होंने मेरे सिर को एक बिजली के कंबल में लपेटा और मेरे घुटनों को अपने पैरों से कुचलने लगे, फिर उन्होंने मेरे जूते और मोजे फाड़ डाले और मेरे तलवों पर चमड़े की बेल्ट से मारने लगे। उनमें से एक ने कहा, “अगर तुमने जबान नहीं खोली तो हम तुम्हारे नाखूनों के नीचे बाँस की छड़ें घुसेड़ देंगे।” यह कहकर वह गाड़ी से बाँस लेने चला गया। मैं यह सोचकर भयभीत हो गई, “अगर ये लोग सचमुच मेरे नाखूनों के नीचे बाँस घुसेड़ देंगे तो मैं यह कैसे सहन कर पाऊँगी? ऐसा लगता है कि जैसे ये मुझे यातना देकर मार डालने पर तुले हैं।” मुझे बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी। मुझे उस भाई का ख्याल आया जो अक्सर मेरी मेजबानी करता था। वह बुजुर्ग था और केवल अपने घर पर ही सभाएँ आयोजित कर पाता था, इसलिए मुझे लगा कि उसका नाम बता देने से कलीसिया को कोई बड़ी हानि नहीं होगी। मैंने उसका असली नाम और पता लिख लिया। उन्होंने देखा कि मैंने अभी तक ज्यादा लोगों के नाम नहीं बताए हैं, इसलिए उनकी पूछताछ जारी रही। उस समय मेरा दिमाग साफ हो गया और अचानक मुझे अपना दिल खाली सा लगने लगा मानो मैंने अपनी आत्मा गँवा दी हो। मुझे वाकई डर लगा। मैंने यहूदा की तरह भाई-बहनों को धोखा दिया था, परमेश्वर मुझे माफ नहीं करेगा, परमेश्वर में विश्वास रखने वाला मेरा जीवन खत्म होने को था। मुझे इन राक्षसों से नफरत हो गई और इनकी चालों में फँस जाने के कारण खुद से भी घृणा होने लगी। इसके बाद जब उन्होंने दोबारा मेरी जबान खुलवाने की कोशिश की तो मैंने दृढ़ता से मना कर दिया। आखिरकार उन्होंने मुझे छोड़ दिया।
जब घर पहुँची तो मेरे शरीर में बिल्कुल दम नहीं बचा था। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था : “मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा, जिन्होंने गहरी पीड़ा के समय में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी दूर तक ही है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं, जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, और ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं, जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे जो भी व्यक्ति हो, मेरा यही स्वभाव है। मुझे तुम लोगों को बता देना चाहिए : जो कोई मेरा दिल तोड़ता है, उसे दूसरी बार मुझसे क्षमा प्राप्त नहीं होगी, और जो कोई मेरे प्रति निष्ठावान रहा है, वह सदैव मेरे हृदय में बना रहेगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है। मैंने यहूदा की तरह भाई-बहनों को धोखा दिया था और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया था। मुझे लगा कि परमेश्वर मेरे जैसे व्यक्ति को नहीं चाहेगा। जब भी मैं सोचती कि मैंने भाई-बहनों को धोखा दिया है मेरे मन में पीड़ा की एक लहर सी दौड़ जाती। बुजुर्ग भाई ने मेरी मेजबानी की थी, लेकिन मैंने उसे धोखा दिया। दयालुता का बदला शत्रुता से चुकाने के कारण मुझे अपने आप से घृणा होने लगी, मैं एक जानवर से भी बदतर हो गई थी, मुझे परमेश्वर के प्रति अपने विश्वासघात पर पछतावा हुआ। उन दिनों मैं लगभग हर दिन रोती थी। मुझे वो दिन याद आए जब मैं भाई-बहनों के साथ सभा करके और अपना कर्तव्य निर्वहन करके कितनी खुश रहती थी, लेकिन वो दिन हमेशा के लिए अब सिर्फ यादें बनकर रह गए थे। मैं परमेश्वर द्वारा ठुकराई गई यहूदा बन गई थी। मैंने एक अक्षम्य पाप किया था, मुझे लगा अगर मैं अपनी आस्था पर कायम भी रही तो भी परमेश्वर मुझ जैसे इंसान को नहीं बचाएगा। मैं परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें पढ़ना या प्रार्थना करना भी नहीं चाहती थी और जब भी सोचती कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाला मेरा जीवन समाप्ति पर है तो मैं बहुत दुखी और हताश महसूस करती थी। मैंने सोचा कि शायद मेरी मृत्यु से मुझे राहत मिलेगी। इतने निम्नतम स्तर पर पहुँचकर मैंने अपने कान में एक बहुत ही कोमल वाणी की फुसफुसाहट सुनी, “जब तक तुम्हारे पास आशा की एक नन्ही सी भी किरण है परमेश्वर तुम्हारा उद्धार करेगा।” मैंने फौरन परमेश्वर के वचन खोजकर पढ़े। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम लोगों के पास अभी थोड़ी-सी भी उम्मीद बची है, तो चाहे परमेश्वर तुम्हारे पुराने अपराध याद रखे या न रखे, तुम्हें कैसी मानसिकता बनाए रखनी चाहिए? ‘मुझे अपने स्वभाव में बदलाव लाना होगा, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना होगा, दोबारा कभी शैतान के बहकावे में नहीं आना होगा, और दोबारा ऐसा कुछ भी नहीं करना होगा जो परमेश्वर के नाम को शर्मसार करे’” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के प्रोत्साहन भरे वचन पढ़कर मैं इतनी भावुक हो गई कि रो पड़ी। मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। परमेश्वर मेरे अपराध के अनुसार मेरे साथ व्यवहार नहीं कर रहा था, बल्कि मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दे रहा था। मुझे अनुसरण जारी रखना था। अगर मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन न भी कर पाऊँ तो भी घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ सकती हूँ, मैं निराशा में डूबी नहीं रह सकती। बाद में मैंने भाई-बहनों से सुना कि पुलिस ने उन लोगों का पीछा नहीं किया जिन्हें मैंने धोखा दिया था। और जिस भाई ने मेरी मेजबानी की थी पुलिस जब उसे गिरफ्तार करने उसके घर गई तो वह पुलिस के आने की आवाज सुनकर छिप गया और पकड़ा नहीं जा सका। चूँकि मैंने कलीसिया को कोई खास नुकसान नहीं पहुँचाया था, इसलिए मुझे निष्कासित नहीं किया गया। मैं जानती थी कि यह मेरे प्रति परमेश्वर की दया और सहिष्णुता है, मैं परमेश्वर की बहुत आभारी और ऋणी थी। मैं पछतावे और ग्लानि से भरी थी। पुलिस की पूछताछ के दौरान अगर मैं उनकी चालों को समझ पाती, थोड़ी देर और अपनी जबान बंद रखकर परमेश्वर पर भरोसा कर पाती तो मैं कहीं बेहतर स्थिति में होती और यहूदा न बनती और मुझ पर इतना बड़ा कलंक न लगता। भविष्य में अगर पुलिस ने मुझे दोबारा गिरफ्तार किया तो मैं अपनी गवाही में अडिग रहूँगी, फिर भले ही इसका मतलब पीट-पीटकर मार डाला जाना हो, मैं शैतान के आगे नहीं झुकूँगी या भाई-बहनों को धोखा नहीं दूँगी।
2013 की शरद ऋतु के अंत में प्रांतीय राष्ट्रीय सुरक्षा ब्रिगेड ने स्थानीय पुलिस को मुझे जबरन सार्वजनिक सुरक्षा ब्यूरो ले जाने का निर्देश दिया। रास्ते में मैंने सोचा, “इस बार पुलिस चाहे जो भी हथकंडे अपनाए, भले ही वे मुझे यातना देकर मार डालें, मैं भाई-बहनों के नाम नहीं बताऊँगी या कलीसिया के बारे में कोई जानकारी नहीं दूँगी।” जब मैं सार्वजनिक सुरक्षा ब्यूरो पहुँची तो राष्ट्रीय सुरक्षा ब्रिगेड के कैप्टन ने मुझसे कलीसिया के चढ़ावे के ठिकानों के बारे में पूछताछ की, उसने कहा अगर मैंने जवाब नहीं दिया तो वे मुझे नगर निगम के महिला हिरासत केंद्र में भेज देंगे। मैंने देखा कि वे कलीसिया के पैसे के पीछे पड़े हैं। वे बेहद नीच और बेशर्म इंसान थे, उन्होंने मुझे हर तरह की धमकी दी, मगर मैं चुप रही। अंत में उन्होंने मुझे जाने दिया। मेरे घर लौटने के बाद वे मुझ पर लगातार निगरानी रखने लगे, उन्होंने मेरे परिवार को भी मुझ पर नजर रखने का निर्देश दिया। लगभग दो वर्षों तक मैं किसी भी सभा में भाग नहीं ले सकी और न ही सामान्य रूप से अपना कार्य कर सकी। मैं थोड़ी हताश महसूस कर रही थी, जब भी मैं इस बारे में सोचती कि कैसे मैंने एक बार परमेश्वर को धोखा दिया था और यहूदा की तरह पेश आई थी, अब मैं अपना कोई भी कर्तव्य निर्वहन नहीं कर सकती, मेरे पास अपने किए का प्रायश्चित्त करने का कोई अवसर नहीं है, आखिरकार मैं उन लोगों में शामिल हो जाऊँगी जिन्हें हटा दिया जाएगा तो मेरे दिल में टीस उठती मानो चाकू घोंपा जा रहा हो। मैं रोते-रोते परमेश्वर से प्रार्थना करती और उससे मेरा मार्गदर्शन करने को कहती। बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का यह भजन याद आया जिसे मैं पहले अक्सर गाया करती थी “परीक्षण माँग करते हैं आस्था की” : “परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना या उनके भीतर नकारात्मकता आना या परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य बात है। लेकिन कुल मिलाकर तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए और अय्यूब की तरह तुम्हें भी परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। मुझे परमेश्वर का इरादा समझ में आ गया। कष्ट और शोधन से इंसान को परमेश्वर में सच्ची आस्था प्राप्त होनी चाहिए। मुझे समर्पण करना था और मैं परमेश्वर में अपनी आस्था नहीं गँवा सकती थी, अगर मैं अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए बाहर न भी जा पाऊँ तो भी मैं घर पर रहकर अनुभवजन्य गवाही लेख तो लिख ही सकती हूँ। यह सोचकर मेरा दर्द थोड़ा कम हो गया।
2015 में कलीसिया ने मेरे लिए पाठ आधारित कर्तव्यों की व्यवस्था की। एक बार मैंने भाई झांग मिंग को अपनी आस्था के कारण गिरफ्तार किए जाने के अनुभव के बारे में बात करते हुए सुना। उसने कहा, “भले ही मुझे धोखा दिया जाए और जेल में डाल दिया जाए, मैं दूसरों को धोखा कभी नहीं दूँगा। अगर मैं ऐसा करता हूँ तो यह पूरी तरह से मानवता का अभाव होना होगा!” भाई की बात सुनकर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं अपना सिर भी उठा पाऊँ। मुझे अपने दिल में ऐसा दर्द महसूस हुआ जैसे कोई चाकू घोंप रहा हो। यह भाई अपनी गवाही में दृढ़ न रहने की अपेक्षा जेल जाना अधिक पसंद करेगा, लेकिन अपनी जान के डर से मैंने भाई-बहनों को धोखा दिया। यह एक अक्षम्य अपराध था। इस विचार ने मुझे निराशा में डाल दिया कि परमेश्वर मेरे जैसे व्यक्ति को नहीं बचाएगा। बाद में मैंने भाई-बहनों के अनुभवजन्य गवाही लेख पढ़े जिनमें उन्होंने यहूदा बनने से इनकार करते हुए परमेश्वर की खातिर अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए अपने जीवन की प्रतिज्ञा ली। भले ही वे घायल और चोटिल थे, लेकिन गवाही देने और सिर ऊँचा करके परमेश्वर को महिमान्वित करने में उनकी शक्ति सचमुच विस्मयकारी थी। फिर मैंने अपने आप को देखा। मैं दैहिक-सुख की खातिर एक शर्मनाक यहूदा बनकर रह गई हूँ, मैंने भाई-बहनों को धोखा दिया है और परमेश्वर के नाम को कलंकित किया है। मैं सचमुच स्वार्थी और नीच हूँ, एक जानवर से भी बदतर हूँ और जीने लायक नहीं हूँ! मैं बेहद पीड़ा में थी, मैंने सोचा कि एक दिन जब मैं मर जाऊँगी तो मुक्त हो जाऊँगी और अपनी आत्मा में जो पीड़ा महसूस कर रही हूँ वह मुझे और नहीं सहनी पड़ेगी। इसके तुरंत बाद मेरी पेट की पुरानी बीमारी और खराब हालत में आ गई और मेरे पैरों का गठिया भी बिगड़ गया। दर्द इतना भयंकर होता कि मैं रात को सो नहीं पाती थी। इस दौरान मेरी साथी बहनों ने मुझे सत्य खोजने और आत्मचिंतन करने की याद दिलाई। मैंने मन ही मन सोचा, “इसमें आत्मचिंतन करने की क्या बात है? यह पीड़ा परमेश्वर का दंड है और फल है और मैं इसी के लायक हूँ। उस समय मुझे मृत्यु से डरने और यहूदा बनने को किसने कहा था? यह कलंक कभी नहीं मिटेगा। चाहे मैं कितना भी प्रयास करूँ मुझे अन्य भाई-बहनों की तरह बचाए जाने का मौका नहीं मिलेगा। मैं बस वही करूँगी जो कलीसिया मुझे करने को कहेगी। अगर श्रम कर सकती हूँ तो श्रम करूँगी और जब मेरा श्रम समाप्त हो जाएगा तो मर जाऊँगी।” चूँकि मैं सत्य की खोज नहीं कर रही थी मैं वर्षों से अपने अपराध में लिप्त थी, मुझे मुक्ति का कोई अहसास नहीं हो रहा था। यह बात मेरे दिल में एक काँटे की तरह चुभ गई और इसका उल्लेख करने मात्र से ही मुझे गहरी पीड़ा होती थी।
दिसंबर 2023 में मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा। वीडियो में परमेश्वर के वचनों का एक अंश था जो मेरी दशा के लिए बहुत प्रासंगिक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों के हताशा में डूबने का एक और कारण यह भी है कि वयस्क होने या सयाने होने से पहले ही लोगों के साथ कुछ चीजें हो जाती हैं, यानी वे कोई अपराध करते हैं, या कुछ बेवकूफी-भरे, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण काम करते हैं। इन अपराधों, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण करतूतों के कारण वे हताशा में डूब जाते हैं। इस प्रकार की हताशा अपनी ही निंदा है और यह एक तरह से इसका निर्धारण भी है कि वे किस किस्म के इंसान हैं। ... ऐसे काम करने वाले लोग कोई खास चीज होने पर, या कुछ निश्चित माहौल या संदर्भों में अक्सर अनजाने ही बेचैन महसूस करते हैं। बेचैनी की यह भावना अनजाने ही उन्हें गहन हताशा में डुबो देती है और वे अपनी हताशा से बँधकर प्रतिबंधित हो जाते हैं। जब भी वे सत्य पर कोई धर्मसंदेश या संगति सुनते हैं, यह हताशा धीरे-धीरे उनके दिमाग और उनके अंतरतम में पहुँच जाती है और वे खुद से कई सवाल पूछते हैं, ‘क्या मैं यह कर सकता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हूँ? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर सकता हूँ? मैं किस किस्म का इंसान हूँ? मैंने पहले वह काम किया, मैं वैसा इंसान हुआ करता था। क्या मैं बचाए जाने से परे हूँ? क्या परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा?’ कुछ लोग कभी-कभार अपनी हताशा की भावना को जाने दे सकते हैं, उसे पीछे छोड़ सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाने, दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करने में वे भरसक अपनी पूरी ईमानदारी और शक्ति लगा सकते हैं, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में तन-मन लगा सकते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों में अपने पूरे प्रयास उंडेल देते हैं। लेकिन जैसे ही कोई विशेष स्थिति या परिस्थिति सामने आती है, हताशा की भावना उन पर फिर एक बार हावी हो जाती है और उन्हें दिल की गहराई से दोषी महसूस करवाती है। वे मन-ही-मन सोचते हैं, ‘तुमने पहले वह करतूत की थी, तुम उस किस्म के इंसान थे। क्या तुम उद्धार पा सकते हो? सत्य पर अमल करने का क्या कोई तुक है? तुम्हारी करतूत के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी करतूत के लिए तुम्हें माफ कर देगा? क्या अब इस तरह कीमत चुकाने से उस अपराध की भरपाई हो सकेगी?’ वे अक्सर खुद को फटकारते हैं, भीतर गहराई से दोषी महसूस करते हैं, और हमेशा शक्की बन कर खुद से कई सवाल पूछते हैं। हताशा की इस भावना को वे कभी पीछे नहीं छोड़ पाते, त्याग नहीं पाते और अपनी शर्मनाक करतूतों के लिए वे हमेशा बेचैनी महसूस करते रहते हैं। तो, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, ऐसा लगता है मानो उन्होंने कभी परमेश्वर के वचन सुने ही नहीं या उन्हें समझा ही नहीं। मानो वे नहीं जानते कि क्या उद्धार-प्राप्ति का उनके साथ कोई लेना-देना है, क्या उन्हें दोषमुक्त कर छुड़ाया जा सकता है, या क्या वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना और उसका उद्धार प्राप्त करने योग्य हैं। उन्हें इन सब चीजों का कोई अंदाजा नहीं है। कोई जवाब न मिलने और कोई सही फैसला न मिलने के कारण, वे निरंतर भीतर गहराई से हताश महसूस करते हैं। अपने अंतरतम में वे बार-बार अपनी करतूतें याद करते रहते हैं, वे उसे अपने दिमाग में बार-बार चलाते रहते हैं, शुरुआत से अंत तक याद करते हैं कि यह सब कैसे शुरू हुआ और कैसे खत्म। वे इसे कैसे भी याद करते हों, हमेशा पापी महसूस करते हैं और इसलिए वर्षों तक इस मामले को लेकर निरंतर हताश महसूस करते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय भी, किसी कार्य के प्रभारी होने पर भी, उन्हें लगता है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रही” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं थोड़ी-बहुत भावुक हो गई। जब से मैंने भाई-बहनों को धोखा दिया था तब से मेरे दिल में ग्लानि थी। यहूदा होने का यह दाग मेरे दिल में काँटे की तरह गड़ गया था, मुझे लगा परमेश्वर मेरे अपराध को माफ नहीं करेगा या मेरे जैसे इंसान को नहीं बचाएगा। मैं बहुत दुखी थी। भले ही कलीसिया ने मेरे अपराध के लिए मुझे निष्कासित नहीं किया था और मुझे अपने कर्तव्यों के निर्वहन का अवसर दिया था, लेकिन जब भी मैं अपने अपराध के बारे में सोचती तो पाती कि मैं निराशा में जी रही हूँ और मैं यह मान बैठी थी कि अब मेरे उद्धार की कोई आशा नहीं है। मैंने बहुत से भाई-बहनों को देखा जो अपनी गिरफ्तारी के बाद जीवन और मृत्यु की चिंताओं को दर-किनार कर पाए थे, उन्होंने परमेश्वर को धोखा दिए बिना सभी प्रकार की यातनाएँ सही थीं और सच्ची नेकी के साथ जीवन जिया था जिससे मुझे लाज-शर्म महसूस हुई। एक जानवर से भी बदतर बन जाने पर मुझे अपने आप से नफरत होने लगी, मुझे खुद से घृणा होने लगी कि मुझमें दृढ़ता नहीं है, मैं एक शर्मनाक यहूदा की तरह पेश आ रही हूँ। भले ही मैं अपना कर्तव्य निर्वहन करती दिखती थी, लेकिन मैं अक्सर मन में सोचती, “मैं एक यहूदा हूँ जिसने परमेश्वर को धोखा दिया है। क्या परमेश्वर मेरे जैसे इंसान को बचाएगा? क्या परमेश्वर मेरे अपराधों को क्षमा कर सकता है? क्या मैं निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करके अपने अपराध की भरपाई कर सकती हूँ?” मुझे लगा कि परमेश्वर निश्चित रूप से मुझ जैसे व्यक्ति से घृणा करता होगा। जब भाई-बहन जीवन प्रवेश और स्वभाव में परिवर्तन लाने के बारे में बातें करते तो मुझे लगता मैं वाकई इस लायक नहीं हूँ। मैं लंबे समय से अपने अपराध से परेशान थी, सत्य का अनुसरण करने के संकल्प के बिना निराशा की स्थिति में जी रही थी। मैं अपने अपराध की भरपाई के लिए थोड़ा-बहुत श्रम करके ही संतुष्ट थी। परमेश्वर का इरादा यह है कि चाहे कोई व्यक्ति किसी भी परिस्थिति का सामना करे या कोई भी अपराध करे, वह अपना स्वभाव बदलने का प्रयास कर सकता है। फिर भी मैंने परमेश्वर को गलत समझा और इस तरह खुद को उससे दूर कर लिया। मुझमें मानवता कहाँ थी?
बाद में मैंने विचार किया, “मैं इतनी निराश क्यों हूँ? मेरी समस्या का वास्तविक कारण क्या है?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर ने उस पर विश्वास रखने वालों के इरादों को उजागर कर दिया है। लोग आशीष की खातिर, अपने भविष्य और नियति की खातिर कष्ट सहते हैं और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए खुद को खपा देते हैं। जब उन्हें आशीष नहीं मिलता और उनके पास अच्छा भविष्य या गंतव्य नहीं होता तो वे हताश हो जाते हैं, फिर वे सत्य का अनुसरण या सत्य का अभ्यास करने का प्रयास नहीं करते, उन्हें तो यह भी लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। मैंने उस समय पर विचार किया जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया था, मैंने त्याग किए थे, खुद को खपाया था और सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार किया था और जब मुझे मेरे घरवालों ने सताया, धार्मिक जगत के लोगों ने परेशान किया और दुनियावी लोगों ने बदनाम किया गया तब भी मैं अपने कर्तव्य पर डटी रही थी। मेरा मानना था कि ऐसा करने से भविष्य में आशीष और अच्छा गंतव्य मिलेगा। जब मुझे गिरफ्तार किया गया तो मृत्यु के भय से भाई-बहनों को धोखा देकर मैं यहूदा बन गई और एक गंभीर अपराध किया, इसलिए मुझे लगा कि परमेश्वर अब मुझे नहीं बचाएगा। जब मैंने देखा कि मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकती तो मैं प्रगति करने के प्रयासों के प्रति आस्था गँवा बैठी और खुद को एक चलती-फिरती लाश मानकर अपने दिन बिताने लगी। बाद में मैं फिर अपना कर्तव्य निर्वहन करने लगी, लेकिन मैं यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं कर रही थी। मैं बस इतना चाहती थी कि परमेश्वर देखे कि मैं अपने कर्तव्य के लिए क्या कीमत चुका रही हूँ और वह मेरे अपराध को क्षमा कर मुझे मेरे पापों से मुक्त कर दे, मैं यह उम्मीद लगाए थी कि शायद भविष्य में मुझे उसका आशीष मिल जाए। मैंने देखा कि कुछ गिरफ्तार भाई-बहनों ने यातनाएँ सहन कीं और परमेश्वर के साथ विश्वासघात न करने की शपथ ली, कैसे वे अपनी गवाही में अडिग रहे। जबकि मैंने यहूदा बनकर परमेश्वर को धोखा दे दिया था और जब मैंने सोचा कि कैसे मेरा अपराध परमेश्वर को घृणित लगता है और मैं आशीष नहीं पा सकती तो मैंने सत्य का अनुसरण करना और प्रगति करने का प्रयास छोड़ दिया, मैं निराशा और हताशा की स्थिति में चली गई। मैंने सोचा कि कैसे पौलुस ने स्वीकार किया कि परमेश्वर द्वारा मारे जाने के बाद वह उसका विरोध करने वाला मुख्य पापी है, फिर भी उसे प्रभु यीशु के प्रति अपने विरोध के प्रकृति सार की कोई समझ नहीं थी, उसने अपने कष्ट, कारावास, भागदौड़ और खपने को परमेश्वर से मुकुट और पुरस्कार माँगने के लिए पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया। अपने कष्टों और खपने के पीछे पौलुस की मंशा आशीष पाना और परमेश्वर से सौदेबाजी करना था। यह सच्चा पश्चात्ताप नहीं था। मैंने भाई-बहनों को धोखा देकर बहुत बड़ी बुराई कर बैठी थी फिर भी मुझे आशा थी कि मैं अपने कर्तव्य के जरिए अपने पापों के लिए परमेश्वर की क्षमा प्राप्त कर लूँगी और आशीष पाने का अवसर पा लूँगी। मुझमें वाकई विवेक नहीं था! परमेश्वर मुझे सहन कर रहा था और कर्तव्य निर्वहन का अवसर दे रहा था, मुझमें जमीर और विवेक होना चाहिए था और पूरी लगन से अपना कर्तव्य निर्वहन करना चाहिए था, और इस बात की परवाह किए बिना कि भविष्य में मुझे आशीष मिलेगा या नहीं मुझे समर्पण करना चाहिए था इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने आशीष पाने के लिए हमेशा तुम्हारे साथ सौदेबाजी करने की कोशिश की है, मैं वाकई विद्रोही रही हूँ और मुझमें मानवता की कमी है। भले ही मेरा श्रम पूरा होने के बाद तुम मुझे नष्ट कर दो, फिर भी मुझे तुम्हारी धार्मिकता की स्तुति करनी चाहिए। परमेश्वर, मैं सचमुच पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मेरा परिणाम चाहे जो हो, मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने को तैयार हूँ, मैं अब आशीष पाने के पीछे और नहीं भागूँगी।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “थोड़ा-सा अपराध कर देने पर कुछ लोग अंदाजा लगाते हैं : ‘क्या परमेश्वर ने मुझे प्रकट कर हटा दिया है? क्या वह मुझे मार डालेगा?’ इस बार परमेश्वर लोगों को मारने के लिए नहीं, बल्कि यथासम्भव अधिकतम सीमा तक उन्हें बचाने के लिए कार्य करने आया है। कोई भी त्रुटिहीन नहीं है—अगर सभी को मार दिया जाए, तो क्या यह ‘उद्धार’ होगा? कुछ अपराध जान-बूझकर किए जाते हैं, जबकि अन्य अपराध अनिच्छा से होते हैं। जो चीजें तुम अनिच्छा से करते हो, उन्हें पहचानने के बाद अगर तुम बदल सकते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हारे ऐसा करने से पहले ही तुम्हें मार देगा? क्या परमेश्वर इस तरह से लोगों को बचाएगा? वह इस तरह काम नहीं करता! चाहे तुम्हारा विद्रोही स्वभाव हो या तुमने अनिच्छा से कार्य किया हो, यह याद रखो : तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। तुरंत खुद को बदलो और अपनी पूरी ताकत से सत्य के लिए प्रयास करो—और, चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न आएँ, खुद को निराशा में न पड़ने दो। परमेश्वर मनुष्य के उद्धार का कार्य कर रहा है और वह जिन्हें बचाना चाहता है, उन पर यूँ ही मनमाने ढंग से प्रहार नहीं करेगा। यह निश्चित है। भले ही वास्तव में परमेश्वर का ऐसा कोई विश्वासी हो जिसे उसने अंत में मार गिराया हो, फिर भी जो कुछ परमेश्वर करता है, उसके धार्मिक होने की गारंटी होगी। समय आने पर वह तुम्हें बताएगा कि उसने उस व्यक्ति को क्यों मारा, जिससे तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाओगे। अभी बस सत्य के लिए प्रयास करो, जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करो और अपने कर्तव्य के अच्छे प्रदर्शन का अनुसरण करो। इसमें कोई गलती नहीं है! चाहे परमेश्वर अंत में तुम्हें कैसे भी सँभाले, उसके धार्मिक होने की गारंटी है; तुम्हें इस पर संदेह नहीं करना चाहिए, और तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। भले ही इस समय तुम परमेश्वर की धार्मिकता न समझ पाओ, लेकिन एक दिन आएगा जब तुम आश्वस्त हो जाओगे। परमेश्वर न्यायपूर्वक और सम्मानपूर्वक कार्य करता है; वह खुलकर हर चीज प्रकट करता है। अगर तुम लोग इस पर ध्यान से विचार करो, तो तुम इस हृदयस्पर्शी निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाना और उनके भ्रष्ट स्वभाव बदलना है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को अपराध करने के तुरंत बाद दंड देता है। परमेश्वर लोगों के साथ उनके संदर्भ, उनके इरादों और उनके सार के आधार पर व्यवहार करता है। मानवजाति को बचाने के दौरान अगर लोग अपराध करते हैं और तुरंत पश्चात्ताप कर खुद को बदल सकते हैं, अगर वे अपने अपराधों के समाधान के लिए सत्य खोज सकते हैं और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास कर सकते हैं तो फिर भी परमेश्वर लोगों को एक और मौका देता है। यह वह सिद्धांत है जिसके अनुसार परमेश्वर लोगों से व्यवहार करता है। पुलिस ने मुझे इतना प्रताड़ित किया कि मैं अर्धचेतन अवस्था में पहुँच गई और इस संदर्भ में एक लम्हे के लिए मैं कमजोर पड़ गई और भाई-बहनों को धोखा दे बैठी। इससे कलीसिया या भाई-बहनों को कोई खास नुकसान नहीं हुआ और उसके बाद मुझे पछतावा हुआ और अपने प्रति घृणा से भर गई। कलीसिया ने मुझे निष्कासित नहीं किया और मेरे लिए कर्तव्यों का निर्वहन करने की व्यवस्था की। यह मुझ पर परमेश्वर की दया और सहनशीलता थी। लेकिन हमारी कलीसिया में दो व्यक्ति ऐसे थे जो कई वर्षों से अगुआ थे, गिरफ्तार होने के बाद वे यहूदा बन गए और भाई-बहनों को धोखा दे दिया। उन्हें कोई पछतावा नहीं हुआ, बल्कि “थ्री स्टेटमेंट्स” पर हस्ताक्षर भी कर दिए, उन्होंने बड़े लाल अजगर के साथी और अनुचर के रूप में काम करते हुए पुलिस को भाई-बहनों की पहचान करने और उन्हें गिरफ्तार करने का रास्ता दिखा दिया। वे सार रूप में दानव थे और अंत में उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि लोगों के साथ व्यवहार करने में परमेश्वर के अपने सिद्धांत हैं। अगर कोई व्यक्ति कमजोरी के क्षण में कोई महत्वहीन जानकारी दे देता है और बाद में उसे पछतावा होता है और वह ईमानदारी से पश्चात्ताप करता है तो इसके बावजूद परमेश्वर ऐसे लोगों को अवसर देता है। लेकिन जो लोग परमेश्वर को धोखा देते हैं और जिनमें यहूदा का सार होता है वे खरपतवार हैं जो अंदर घुस आए हैं, उन्हें निष्कासित कर दिया जाना चाहिए और अंत में परमेश्वर की सजा का सामना करना चाहिए। मैं परमेश्वर के इरादे को नहीं समझ पाई थी और अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं में जी रही थी, बल्कि मैंने तो परमेश्वर को गलत समझा और हार मान बैठी। मैं सचमुच भ्रमित थी और सही-गलत में अंतर नहीं कर पा रही थी या अच्छे-बुरे में फर्क करने में असमर्थ थी।
एक बार मैंने एक अनुभवजन्य गवाही का वीडियो देखा जिसने मुझे वाकई प्रभावित किया। वीडियो में भाई गिरफ्तारी के बाद एक मेजबान बहन को धोखा दे देता है और वह अपने दिल में महसूस हो रहे दर्द को शब्दों में बयाँ करने के लिए संघर्ष करता है, इसलिए वह इस बात पर विचार करता है कि वह परमेश्वर को धोखा देकर यहूदा क्यों बन गया। उसे पता चला कि वह ये सब हरकतें मृत्यु के भय के कारण कर बैठा है। विचार करने पर मुझे पता चला कि मेरी असफलता के मूल में भी मृत्यु का भय ही था, परमेश्वर में मेरी आस्था सच्ची नहीं थी और परमेश्वर की संप्रभुता में मेरा विश्वास नहीं था। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “संपूर्ण मानवजाति में कौन है जिसकी सर्वशक्तिमान की नज़रों में देखभाल नहीं की जाती? कौन सर्वशक्तिमान द्वारा तय प्रारब्ध के बीच नहीं रहता? क्या मनुष्य का जीवन और मृत्यु उसका अपना चुनाव है? क्या मनुष्य अपने भाग्य को खुद नियंत्रित करता है? बहुत से लोग मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वह उनसे काफी दूर रहती है; बहुत से लोग वैसे व्यक्ति बनना चाहते हैं जो जीवन में मज़बूत हैं और मृत्यु से डरते हैं, फिर भी उनकी जानकारी के बिना, उनकी मृत्यु का दिन निकट आ जाता है, उन्हें मृत्यु की खाई में डुबा देता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 11)। मुझे समझ आया कि जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में है। मुझे पुलिस द्वारा पीट-पीटकर मार डाला जाएगा या नहीं, यह परमेश्वर पर निर्भर है। भले ही मुझे यातना देकर मौत के घाट उतार दिया जाए, अगर मैं अपनी गवाही में अडिग रहकर परमेश्वर को महिमान्वित करूँगी तो मेरी मृत्यु मूल्यवान और सार्थक होगी। प्रभु यीशु ने कहा था : “जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्ट कर सकता है” (मत्ती 10:28)। भले ही उत्पीड़न से इंसान की देह की मौत हो जाए, लेकिन अगर वह व्यक्ति अपनी गवाही में अडिग रहने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर सके तो उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। ठीक वैसे ही जैसे प्रभु यीशु के अनुयायियों ने उसका अनुसरण किया था। प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के कारण उन सभी को उत्पीड़न सहना पड़ा था। उनमें से कुछ को घोड़ों ने कुचल दिया था, कुछ के सिर काट दिए गए थे और कुछ को पत्थरों से मार डाला गया था, पतरस को परमेश्वर के लिए सलीब पर उल्टा लटका दिया गया था। उन्होंने अपने बहुमूल्य जीवन का उपयोग परमेश्वर के प्रति जबरदस्त गवाही देने के लिए किया, हालाँकि ऐसा लगता था कि उनकी देह मर चुकी है, लेकिन उनकी आत्माएँ परमेश्वर के पास लौट गईं और वे एक अलग तरीके से जीने लगीं। उन्होंने अपने जीवन की कीमत पर शैतान को शर्मिंदा किया। अगर मैं पुलिस द्वारा यातना देकर मार दिए जाने से डरी, मैंने भाई-बहनों से गद्दारी की और कलीसिया के बारे में जानकारी उगल दी, परमेश्वर को धोखा दिया और एक यहूदा बन गई तो मैं अपने जीवन को तो सुरक्षित रख लूँगी, लेकिन मेरे पास सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की कोई गवाही नहीं होगी। मैं शैतान की हँसी की पात्र भी बन जाऊँगी। भले ही मेरा शरीर जीवित रहेगा, पर परमेश्वर की नजरों में मैं मृतकों में हो जाऊँगी और अंत में मैं अभी भी नरक में दंड पाऊँगी। मैंने मृत्यु के अर्थ की असलियत को नहीं जाना और अपने दयनीय अस्तित्व को घसीटते रहने के लिए शैतान के साथ समझौता कर लिया। अनंत तिरस्कार से मेरी आत्मा को होने वाली पीड़ा शारीरिक पीड़ा से कहीं अधिक कष्टदायक है। अगर मैं अपनी गवाही में अडिग रहने और परमेश्वर को महिमान्वित करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर पाती तब मैं सचमुच एक इंसान के रूप में जी रही होती। आत्मचिंतन में मैंने पाया कि मेरी असफलता का एक और कारण था। मुझे लगा कि जो भाई-बहन महत्वहीन कर्तव्य निभाते हैं या जो भाई-बहन अभी-अभी पकड़े गए थे और रिहा कर दिए गए थे उनके साथ गद्दारी करने से कलीसिया के हितों को बहुत नुकसान नहीं पहुँचेगा, लेकिन यह दृष्टिकोण गलत था। अगर मेरे विश्वासघात के कारण भाई-बहनों को गिरफ्तार किया गया और फिर वे यातना सहन करने में असमर्थ हो गए तो वे दूसरों को धोखा दे सकते हैं और फिर और भी भाई-बहनों को गिरफ्तार किया जा सकता है। शैतान यही तो चाहता है। शैतान का मकसद है कि उसकी धमकियों और प्रलोभनों में आकर अधिक से अधिक भाई-बहन एक-दूसरे को धोखा दें, अधिक से अधिक लोग परमेश्वर को नकारें और अस्वीकार करें, अंत में इसका परिणाम यह होगा कि परमेश्वर का प्रतिरोध करने के कारण लोगों को उसके द्वारा विनाश का सामना करना पड़ेगा और वे उद्धार पाने का अवसर पूरी तरह से गँवा बैठेंगे। वास्तव में चाहे किसी भी भाई या बहन के साथ विश्वासघात किया गया हो, इस कृत्य की प्रकृति यहूदा जैसी ही है जिससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता है और यह परमेश्वर की नजर में एक अमिट कलंक है। यह एहसास होने पर मुझे सीसीपी से और भी अधिक नफरत हो गई, सत्य न समझ पाने और इतना दयनीय होने के कारण मुझे खुद से भी घृणा हो गई।
बाद में मैंने खोज की कि मैं अपने अपराधों के साथ कैसे पेश आऊँ और किस तरह से अभ्यास करूँ कि मुझे परमेश्वर की सहनशीलता प्राप्त हो सके। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर तुम्हें किस तरह से क्षमादान देकर दोष-मुक्त कर सकता है? यह तुम्हारे दिल पर निर्भर करता है। अगर तुम ईमानदारी से पाप-स्वीकार करते हो, सच में अपनी गलती और समस्या को पहचान लेते हो, यह पहचानते हो कि तुमने क्या किया है-भले ही वह अपराध हो या पाप-सच्चे पाप-स्वीकार का रवैया अपनाते हो, तुम अपनी करतूत के लिए सच्ची घृणा महसूस करते हो और सच में सुधर जाते हो और तुम वह गलत काम दोबारा कभी नहीं करते, तो अंतत : एक दिन आएगा जब तुम्हें परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति मिल जाएगी, यानी परमेश्वर तुम्हारी की हुई अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और गंदी करतूतों के आधार पर तुम्हारा परिणाम तय नहीं करेगा। जब तुम इस स्तर पर पहुँच जाओगे, तो परमेश्वर इस मामले को पूरी तरह भूल जाएगा; तुम भी दूसरे सामान्य लोगों जैसे ही होगे, जरा भी फर्क नहीं होगा। लेकिन यह इस बात पर निर्भर होगा कि तुम ईमानदार रहो और तुम्हारा रवैया दाऊद की तरह सच्चा हो। अपने अपराध के लिए दाऊद ने कितने आँसू बहाए थे? अनगिनत आँसू। वह कितनी बार रोया था? अनगिनत बार। उसके बहाए आँसुओं को इन शब्दों में बयान किया जा सकता है : ‘मैं हर रात अपने आँसुओं में तैरते बिस्तर पर सोता हूँ।’ मुझे नहीं पता कि तुम्हारा अपराध कितना गंभीर है। अगर सचमुच गंभीर है, तो तुम्हें तब तक रोना पड़ सकता है जब तक कि तुम्हारा बिस्तर तुम्हारे आँसुओं पर तैरने न लगे—परमेश्वर से क्षमा पाने से पहले तुम्हें उस स्तर तक पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त करना पड़ सकता है। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो मुझे डर है कि तुम्हारा अपराध परमेश्वर की नजरों में पाप बन जाएगा और तुम्हें इससे छुटकारा नहीं मिलेगा। तब तुम मुसीबत में पड़ जाओगे और फिर इस बारे में कुछ भी और कहना बेतुका होगा। ... अगर तुम परमेश्वर से क्षमादान पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले ईमानदार बनना पड़ेगा : एक ओर तो तुम्हें ईमानदारी से पाप-स्वीकार करना पड़ेगा और ईमानदारी से अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना होगा, वरना सब निरर्थक है। अगर तुम ये दो चीजें कर सको, अगर तुम ईमानदार और आस्थावान बनकर परमेश्वर का मन जीत सको, कि वह तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्ति दे सके, तो तुम ठीक दूसरे लोगों जैसे ही बन जाओगे। परमेश्वर तुम्हें भी उसी नजर से देखेगा जिससे वह दूसरों को देखता है, वह तुमसे भी वैसे ही पेश आएगा जैसे वह दूसरों से पेश आता है, और वह तुम्हें भी उसी तरह न्याय और ताड़ना देगा, परीक्षण करके तुम्हारा शोधन करेगा, जैसे वह दूसरे लोगों को करता है—तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं होगा। इस प्रकार तुममें न सिर्फ सत्य का अनुसरण करने का दृढ़-संकल्प और आकांक्षा होगी, बल्कि परमेश्वर सत्य के अनुसरण में तुम्हें भी उसी तरह प्रबुद्ध करेगा, मार्गदर्शन और पोषण देगा। बेशक, अब चूँकि तुममें ईमानदार और सच्ची आकांक्षा और एक ईमानदार रवैया है, इसलिए परमेश्वर तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं करेगा और ठीक दूसरे लोगों की ही तरह तुम्हें उद्धार का मौका मिलेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि परमेश्वर लोगों के अपराधों के प्रति कैसा व्यवहार करता है। परमेश्वर यह देखता है कि लोग अपने द्वारा किये गए पापों से सचमुच घृणा कर पाते हैं या नहीं, क्या वे सचमुच दिल से परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर पाते हैं और क्या अपने कर्तव्य अच्छे करने के लिए सत्य सिद्धांतों की खोज कर पाते हैं। परमेश्वर लोगों के बुरे कर्मों से घृणा करता है, लेकिन वह उन हृदयों को संजोकर भी रखता है जो पश्चात्ताप करते हैं। ठीक उसी तरह जैसे पतरस ने प्रभु यीशु को उसके कष्टों के दौरान तीन बार नकारा था, बाद में उसे प्रभु यीशु के वचन याद आए और उसे अपने किए पर पछतावा हुआ, वह फूट-फूट कर रोया और प्रभु यीशु के सामने अपना पाप स्वीकार कर पश्चात्ताप किया। उसके बाद उसने कलीसिया की चरवाही का भार उठाने के लिए प्रभु यीशु के महान आदेश को स्वीकार कर लिया और अंत में उसने परमेश्वर के लिए सलीब पर उल्टा लटककर उसके प्रति अपने प्रेम की गवाही दी। पतरस ने परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप किया और उसके द्वारा पूर्ण किया गया। एक घटना दाऊद द्वारा व्यभिचार करने की भी घटी थी। उस पर परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव आया था जिसके कारण उसके परिवार में लगातार विपत्तियाँ आने लगीं। उसने परमेश्वर से शिकायत नहीं की, बल्कि परमेश्वर का अपमान करने वाले अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप किया, वह इतना रोया कि उसके आँसुओं से उसका बिस्तर भी तैरने लगा था। बुढ़ापे में एक छोटी लड़की उसका बिस्तर गर्म करने आई, लेकिन उसने उसे छुआ तक नहीं। दाऊद ने परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप किया। मैं पतरस और दाऊद के उदाहरणों का अनुसरण करने, परमेश्वर के सामने ईमानदारी से पाप स्वीकारने और पश्चात्ताप करने को तैयार थी। मैंने पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी निराशा की भावना ने मुझे कई वर्षों तक बाँधे रखा है, यह सत्य का अनुसरण करने में मेरी विफलता और तुम्हारे प्रति मेरी गहरी गलतफहमी के कारण हुआ है और सत्य न खोजने की मेरी अपनी सुन्नता के कारण भी। अब जब मैंने तुम्हारे वचन पढ़ लिये हैं तो मैं तुम्हारा इरादा समझ गई हूँ। मैं तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहती हूँ ताकि अब तुम्हें और गलत न समझूँ और सच में तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।” इसके बाद मैंने भाई-बहनों के साथ संगति में अपने अपराध के बारे में खुलकर बात की और अपनी असफलता के मूल कारण का गहन-विश्लेषण किया। कलीसिया ने मेरे लिए नवागतों के सिंचन की व्यवस्था की और मैंने पूरी लगन से खुद को सत्य से युक्त किया। जब मुझे नवागतों के सिंचन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उस पर भरोसा किया और सत्य सिद्धांतों की खोज की। मैं बार-बार परमेश्वर के मार्गदर्शन की गवाह बनी। मैं बहुत प्रभावित हुई। हालाँकि मैंने एक गंभीर अपराध किया था, लेकिन जब मैंने अपनी कठिनाइयों में परमेश्वर पर भरोसा किया, तब भी उसने मेरा मार्गदर्शन कर मुझे प्रबुद्ध किया, मुझे पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन का अनुभव करने की अनुमति दी। मैंने देखा कि अगर मैं सच्चा पश्चात्ताप करती हूँ तो परमेश्वर मुझे वास्तविक सहायता प्रदान करेगा। मेरा हृदय निरंतर परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ था। सत्य की खोज और परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं धीरे-धीरे अपनी निराशा की भावना से उबर आई और अपने अपराध को सही ढंग से लेने में सक्षम हो पाई।
इन सब अनुभवों के बाद मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर लोगों के प्रति वैसा ही व्यवहार करता है जैसा माता-पिता अपने बच्चों के साथ करते हैं। जब बच्चे विद्रोही हो जाते हैं या गलतियाँ करते हैं तो माता-पिता लगातार उनकी आलोचना या उपदेश नहीं करते, बल्कि धैर्यपूर्वक उनका मार्गदर्शन करते हैं और यह आशा करते हुए कि वे सही मार्ग पर चलेंगे। जब परमेश्वर देखता है कि लोग अपराध कर रहे हैं, हालाँकि उसके कठोर वचनों में न्याय, प्रकाशन, निंदा और ताड़ना होती है, लेकिन इस उम्मीद में कि लोग सत्य का अनुसरण और उद्धार प्राप्त कर सकें, वह यह भी बताता है कि सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए अपराधों का समाधान कैसे किया जाए। मानवजाति के प्रति परमेश्वर का प्रेम बहुत महान है! परमेश्वर का धन्यवाद! परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही मैं यह समझ हासिल करने की क्षमता प्राप्त कर पाई हूँ।