4. जब मेरे चाचा को निष्कासित किया गया
मेरे चाचा पारंपरिक चीनी पद्धति के चिकित्सक हैं। जब मैं दस साल की थी, तो एक हादसा हुआ और मुझे खून की उल्टियाँ होने लगीं और तब मेरे चाचा ने ही उस अहम क्षण में मुझे बचाया था। मुझे हमेशा उनकी यह जीवन रक्षक दयालुता याद रहती थी और मैं सोचती थी कि बड़े होने पर मैं उचित ढंग से अपने चाचा का यह एहसान चुकाऊँगी। 2008 में बीमारी के कारण मेरे पिता का निधन हो गया। जब हमारा पूरा परिवार गहरे दुख में था तब मेरे चाचा ने हमें अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सुसमाचार सुनाया। इससे न केवल हमें कुछ संबल मिला, बल्कि सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने का मौका भी मिला, जिससे मैं अपने चाचा के प्रति और भी अधिक आभारी हो गई। मेरे पिता की मृत्यु के कारण मेरी माँ के लिए हम तीन बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाना मुश्किल हो गया था। तब मेरे चाचा मुझे अपने घर ले आए, जहाँ मैं उनके साथ चिकित्सा की पढ़ाई करते हुए परमेश्वर पर विश्वास कर सकती थी। मैं उनके घर पर ही रहती और वहीं खाती-पीती थी। मेरी सेहत बहुत अच्छी नहीं थी और मेरे चाचा अक्सर मेरे लिए पौष्टिक आहार तैयार करते थे। वह मुझे अपनी बेटी की तरह मानते थे, इसलिए मैं उनके प्रति कृतज्ञता से भरी रहती थी और सोचती थी कि अगर भविष्य में उन्हें कोई कठिनाई हुई, तो जब तक मैं उनकी मदद करने में सक्षम हूँ, उनकी हर संभव मदद करूँगी।
2011 में कलीसिया ने तय किया कि मेरे चाचा एक बुरे व्यक्ति हैं। वह अहंकारी और दंभी थे, बेवजह मुश्किलें खड़ी करते थे और सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करते थे। वह उन लोगों को सताते थे जो उन्हें सुझाव देते थे, अक्सर अगुआओं, कार्यकर्ताओं की आलोचना करते, उन पर हमला और उनकी निंदा करते थे। उन्होंने भाई-बहनों और अगुआओं के बीच संघर्ष को भड़काया, जिससे कलीसियाई जीवन और कार्य में गंभीर बाधाएँ पैदा होती थीं। भाई-बहन उनसे इतने दबे हुए रहते थे कि बात करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे और बार-बार संगति करने के बावजूद उन्होंने पश्चात्ताप करने से इनकार कर दिया। कलीसिया ने उन्हें निष्कासित करने का फैसला किया। उस समय अगुआ ने पूछा कि क्या मैं हस्ताक्षर करने को तैयार हूँ, यह सुनकर मैं उलझन में पड़ गई। मेरे चाचा का व्यवहार एकदम स्पष्ट था; यहाँ तक कि उनकी अवमानना और हमलों के कारण मेरे भी आँसू निकल आते थे। लेकिन मैं सोच रही थी, “अगर मैंने हस्ताक्षर कर दिए और उन्हें पता चल गया तो वह मेरे बारे में क्या सोचेंगे? बचपन में मेरे चाचा ने मेरी जान बचाई थी, हमें सुसमाचार सुनाया था और मुझे चिकित्सा के बारे में सिखाया था। वह मेरे लिए कई मायनों में अच्छे हैं और अगर मैंने हस्ताक्षर कर दिए तो क्या वह यह नहीं कहेंगे कि मैं हृदयहीन और कृतघ्न हूँ?” हालाँकि उस समय अगुआ ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे सचमुच प्रभावित किया। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। मेरे चाचा ने स्पष्ट रूप से एक बुरे व्यक्ति की तरह व्यवहार किया था, लेकिन मैं अभी भी हस्ताक्षर नहीं करना चाहती थी। क्या मैं कलीसिया में उनके निरंतर गड़बड़ियाँ फैलाने और विघ्न-बाधाएँ पैदा करने को बरदाश्त नहीं कर रही थी? मुझे स्नेह के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।” फिर मैंने अपने हस्ताक्षर कर दिए।
2012 में कलीसिया ने मेरे चाचा के निष्कासन का नोटिस जारी किया और मुझे उनका सामना करने से हमेशा डर लगता था। बाद में जब मेरे चाचा को पता चला कि मैंने हस्ताक्षर कर दिए हैं, तो उन्होंने भेद की पहचान न होने के लिए डाँटा और मुझे मूर्ख कहा! उनकी बात सुनकर मैं जान गई कि उन्होंने अपने बुरे कर्मों पर बिल्कुल आत्म-चिंतन नहीं किया था या उन्हें समझा नहीं था, लेकिन मैं अभी भी सोचती थी कि मैंने हस्ताक्षर करके कहीं उनके प्रति बहुत निर्दयता और कृतघ्नता तो नहीं दिखाई है। बाद में अपने कर्तव्य की जरूरतों के चलते मैंने अपने चाचा का घर छोड़ दिया। हालाँकि मुझे अब अपने चाचा का सामना नहीं करना पड़ता था, लेकिन उनकी डाँट वाले शब्द अभी भी मेरे मन में घूमते रहते थे। खास तौर पर बाद में कुछ ऐसा हुआ जिसने मुझे अपने चाचा के प्रति और भी एहसानमंद महसूस कराया और मैंने कुछ ऐसा कर दिया जिससे परमेश्वर का प्रतिरोध होता था।
2016 के अंत में मैं अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए घर से दूर थी और गंभीर न्यूमोनिया और फुफ्फुस बहाव के कारण भाई-बहनों ने मुझे अस्पताल में भर्ती करा दिया था। मेरे चाचा तुरंत अस्पताल पहुँचे और पैसे और प्रयास दोनों से उन्होंने मेरी अथक देखभाल की। मेरा रक्तचाप खतरनाक रूप से कम था और उन्होंने एक्यूप्रेशर से मेरा इलाज किया। मेरे डिस्चार्ज होने के बाद उन्होंने मुझे स्वस्थ होने में मदद करने के लिए पारंपरिक चीनी दवा भी तैयार की। यह देखकर कि उनके निष्कासन के लिए हस्ताक्षर करने के बावजूद वह मेरे साथ अच्छे थे, उनके प्रति मेरा अपराध-बोध और भी बढ़ गया। इस दौरान मेरे चाचा ने मुझे बताया कि कैसे उन्होंने निष्कासित होने के बाद भी पिछले कुछ वर्षों में सुसमाचार का प्रचार करना जारी रखा था और कई लोगों को परमेश्वर के पास लाए थे। सुसमाचार का प्रचार करने के कारण उन्हें सीसीपी द्वारा गिरफ्तार भी किया गया था, उनके घर की तलाशी ली गई थी, संपत्ति जब्त कर ली गई थी और उनकी फॉर्मेसी बंद कर दी गई थी। उन्होंने 100,000 युआन से अधिक गँवा दिए थे। बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न के बावजूद उन्होंने यह नहीं बताया कि परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें कहाँ रखी हैं। लेकिन जब सीसीपी ने उन्हें तस्वीरें दिखाईं और उनसे भाई-बहनों की पहचान करने के लिए कहा तो उन्होंने मान लिया कि उन बहनों में से एक अगुआ है। यह वही अगुआ थी जिसने कुछ साल पहले उन्हें निष्कासित किया था। यह सब बताने के बाद उन्होंने मुझे फटकार लगाई कि मुझमें अंतरात्मा नहीं है, कहा कि वह मुझे बेटी की तरह मानते हैं और पिता की तरह मेरी देखभाल करते हैं, लेकिन मैंने बदले में कोई मानवीय भावना नहीं दिखाई और उनसे निर्दयी जानवर की तरह व्यवहार किया। उन्हें ये बातें कहते हुए सुनकर मुझे उनके प्रति कृतज्ञता महसूस हुई और मैंने उनसे सहानुभूति जताई। उसी दौरान मैंने उच्च-स्तरीय अगुआओं को यह कहते सुना कि यदि निष्कासित किए गए लोग पश्चात्ताप दिखाएँ और परमेश्वर में विश्वास करना और सुसमाचार का प्रचार करना जारी रखें, तो उन्हें कलीसिया में वापस लिया जा सकता है। इसने मुझे अपने चाचा की याद दिला दी। मैंने सोचा कि भले ही उन्हें निष्कासित कर दिया गया था, लेकिन वे पिछले कुछ वर्षों से सुसमाचार फैला रहे थे। जब उन्हें गिरफ्तार किया गया और सीसीपी द्वारा पूछताछ की गई, तब भी उन्होंने परमेश्वर को अस्वीकार नहीं किया। क्या ऐसे में मेरे चाचा को कलीसिया में वापस लिया जाना संभव नहीं था? भले ही वे केवल सुसमाचार का प्रचार करें और पिछले गलत कामों की भरपाई करने के लिए मेहनत करें, तो भी ठीक रहेगा। उसके बाद यदि अन्य लोग उनके साथ परमेश्वर के वचनों पर अधिक संगति करें, तो क्या वह धीरे-धीरे स्वयं द्वारा की गई बुराई पर आत्म-चिंतन शुरू करके पश्चात्ताप कर खुद में बदलाव नहीं ला सकते थे? यदि मैं उन्हें कलीसिया में वापस स्वीकार करवा पाई, तो क्या वह यह नहीं देखेंगे कि मेरे पास थोड़ी अंतरात्मा है और मैं इतनी कृतघ्न व्यक्ति नहीं हूँ? जब यह विचार मेरे मन में आया तो मुझे लगा कि मुझे सुधार करने और उनकी दयालुता का बदला चुकाने का मौका मिल गया है। इसलिए मैंने अगुआ को पत्र लिखकर अपने चाचा के अच्छे व्यवहार के बारे में बताया। लेकिन जहाँ तक कलीसिया के अगुआ की तस्वीर पुलिस के सामने पहचानने और मेरे सामने शिकायत करने और मुझे उपदेश देने की बात है, मैंने वह सब कुछ नहीं बताया। बाद में अगुआओं ने किसी को उनसे मिलने भेजा ताकि यह देखा जा सके कि क्या वह कलीसिया में वापस स्वीकार किए जाने के मानदंड पूरे करते हैं। कुछ दिनों बाद एक बहन ने मुझे बताया, “जब हम तुम्हारे चाचा के पास गए और उनसे पूछा कि उन्होंने कैसे आत्म-चिंतन किया और खुद को जानने की कोशिश की, तो वह भड़क गए और कहा, ‘तुम यहाँ तथ्यों की जाँच करने के लिए बिल्कुल भी नहीं आए हो। तुम और अगुआ सिर्फ एक-दूसरे को बचा रहे हो; तुम सब इसमें शामिल हो।’ लगा कि वह हमें मारने ही वाले हैं, और यह तुम्हारी चाची ही थीं जो उन्हें ऐसा करने से मना करती रहीं और उन्हें रोकती रहीं। फिर उन्होंने अपने हाथ हिलाना शुरू कर दिया और अतीत के बारे में जोर-जोर से चिल्लाने लगे, गलतियाँ निकालने लगे, वह उन बातों को छोड़ने को तैयार ही नहीं थे, फिर अगुआओं पर हमला और उनकी आलोचना करने लगे। हमने देखा है कि उन्हें बिल्कुल भी अपनी समझ नहीं है और वह कलीसिया में वापस स्वीकार किए जाने के योग्य नहीं हैं।” फिर बहन ने मेरे साथ मेरे चाचा के सार का भेद पहचानने और असलियत जानने के बारे में भी संगति की और मुझसे पूछा कि मैं इस मामले को कैसे देखती हूँ। अपने चाचा के व्यवहार के सामने मैं कुछ भी नहीं कह पाई; वास्तव में वह स्वीकार किए जाने योग्य नहीं थे।
बाद में मैंने परमेश्वर के उन वचनों को खोजा जो मेरे मुद्दों के लिए प्रासंगिक थे। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : “शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन सेवकों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। “परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ आशीष पाने की फिराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जान-बूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में वास्तव में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जान-बूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अपनी गहरी आलोचना महसूस हुई। मेरे चाचा को निष्कासित हुए कई साल हो चुके थे। यदि उनमें थोड़ी भी अंतरात्मा या विवेक होता तो लोगों को नुकसान पहुँचाने, कलीसिया के जीवन में गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ डालने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने के इतने सारे काम करने के बाद उनकी अंतरात्मा को अपराध-बोध हुआ होता। उन्होंने आत्म-चिंतन करके पछतावा महसूस किया होता और वह पश्चात्ताप करते। खासकर भाई-बहनों और मैंने इस दौरान उनके साथ संगति की थी और उनके मुद्दों के बारे में बताया था, लेकिन उनमें अभी भी कोई अपनी समझ नहीं थी, यहाँ तक कि पिछले कुछ वर्षों से वे मुझसे और उससे भी ज्यादा अगुआ से नफरत करते थे। उनका मानना था कि उनका निष्कासन केवल दूसरों के कारण हुआ था, निष्कासित करने वाली अगुआ के प्रति वह नाराज थे, यहाँ तक कि उन्होंने पुलिस के सामने उसकी तस्वीर भी पहचान ली थी। इसके बाद उन्होंने अगुआ के खिलाफ अपने पूर्वाग्रह फैलाना जारी रखा, उसकी वह एक नकली अगुआ और मसीह-विरोधी के रूप में निंदा करते थे। यह स्पष्ट था कि उनमें एक बुरे व्यक्ति का सार है, उनकी प्रकृति सत्य से विमुख और घृणा करने वाली है और वह कभी पश्चात्ताप नहीं करेंगे और नहीं बदलेंगे। सचमुच ऐसे बुरे व्यक्ति के सामने मैं अंतरात्मा रखने और उनकी दयालुता का बदला चुकाने पर जोर देती रही, यहाँ तक कि उनका बचाव भी करती रही और उनके बारे में अच्छी बातें करती रही, उम्मीद करती रही कि उन्हें कलीसिया में वापस स्वीकार कर लिया जाएगा। मैं वास्तव में अंधी और मूर्ख थी जो अच्छाई और बुराई में अंतर करने में असमर्थ थी। क्या मैं शैतान का पक्ष लेने की कोशिश नहीं कर रही थी, बुरे लोगों के पक्ष में खड़े होकर और परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रही थी?
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में कुछ समझ हासिल की। तब मुझे और भी दृढ़ता से लगा कि मेरे चाचा को कलीसिया में वापस स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। परमेश्वर कहता है : “मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी उत्कृष्ट है, तुम्हारी योग्यताएँ कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितनी निकटता से मेरा अनुसरण करते हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुमने अपने रवैये में कितना सुधार किया है; जब तक तुम मेरी अपेक्षाएँ पूरी नहीं करते, तब तक तुम कभी मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। अपने विचारों और गणनाओं को जितनी जल्दी हो सके, बट्टे खाते डाल दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दो; वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिए सभी को भस्म कर दूँगा और, खराब से खराब यह होगा कि मैं अपने वर्षों के कार्य और पीड़ा को शून्य में बदल दूँ, क्योंकि मैं अपने शत्रुओं और उन लोगों को, जिनसे बुराई की दुर्गंध आती है और जो अब भी वही पुराने शैतान जैसे लगते हैं, अपने राज्य में नहीं ला सकता या उन्हें अगले युग में नहीं ले जा सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक और अपमान न किए जाने वाले स्वभाव को महसूस कर पाई और लोगों के साथ व्यवहार करने के लिए परमेश्वर के सिद्धांत भी समझ पाई। जब मैंने उच्च-स्तरीय अगुआओं को यह कहते सुना कि यदि निष्कासित किए गए लोग परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखते हैं, सुसमाचार का प्रचार और पश्चात्ताप करते रहते हैं तो उन्हें कलीसिया में वापस लिया जा सकता है तो मैंने इसकी तुलना अपने चाचा के बाहरी व्यवहार से की। मैंने सोचा कि निष्कासित होने के बाद भी उन्होंने सुसमाचार का प्रचार जारी रखा था और बड़े लाल अजगर की गिरफ्तारी और उत्पीड़न के दौरान उन्होंने परमेश्वर को नहीं अस्वीकारा था और इस प्रकार मैंने सोचा कि आत्म-चिंतन और समझ की कमी के बावजूद उन्हें स्वीकारा जा सकता है। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि लोगों को मापने के लिए परमेश्वर के पास मानक हैं और लोगों को स्वीकार करने के कलीसिया के भी सिद्धांत हैं। खास तौर पर वे लोग जिन्हें अतीत में बुराई करने के लिए निष्कासित किया गया था, उनका यह मूल्यांकन करना अहम है कि क्या उन्होंने वास्तव में अपने बुरे कर्मों को समझा है, पश्चात्ताप किया है और बदलाव किया है। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया है तो उन्हें कलीसिया में कभी भी वापस नहीं लिया जा सकता। भले ही मेरे चाचा ने निष्कासन के बाद भी सुसमाचार का प्रचार जारी रखा था, कुछ अच्छे व्यवहार दिखाए थे, लेकिन उन्होंने अपने पिछले बुरे कर्मों या भ्रष्ट प्रकृति पर जरा भी आत्म-चिंतन नहीं किया था या उन्हें नहीं समझा था। चाहे अन्य लोगों ने उनके साथ कितनी भी संगति कर उनकी समस्याओं के बारे में बताया हो या उनकी काँट-छाँट कर उन्हें उजागर किया हो, उन्हें किसी भी तरह का कोई एहसास नहीं हुआ था, यहाँ तक कि अगर कोई उन्हें आत्म-चिंतन करने के लिए कहता तो वह उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाते थे, अगुआओं के खिलाफ पूर्वाग्रह फैलाते थे, लोगों को गुमराह करते और कलीसिया के जीवन को अस्त-व्यस्त करते थे। साफ तौर पर ऐसा बुरा व्यक्ति और शैतान परमेश्वर की धार्मिकता के कारण पूरी तरह से निष्कासित किया गया था। वैसे ही जैसे परमेश्वर कहता है : “क्योंकि मैं अपने शत्रुओं और उन लोगों को, जिनसे बुराई की दुर्गंध आती है और जो अब भी वही पुराने शैतान जैसे लगते हैं, अपने राज्य में नहीं ला सकता या उन्हें अगले युग में नहीं ले जा सकता।” लेकिन मैंने फिर भी उनका पक्ष लिया, चाहा कि उन्हें कलीसिया में फिर से ले लिया जाए। क्या मैं परमेश्वर का विरोध नहीं कर रही थी? इस एहसास के बाद मुझे और भी अधिक लगा कि मैं सत्य नहीं समझती और बहुत ही अज्ञानी और मूर्ख हूँ!
बाद में चूँकि मुझे अभी अपनी बीमारी से उबरना था, इसलिए मुझे अक्सर चाचा से बातचीत करनी पड़ती थी। उनका व्यवहार और भी खराब होता गया; न केवल वह अगुआओं की आलोचना करते थे, बल्कि वह अहंकारी होकर बात करते थे और पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए व्यक्ति की आलोचना करते थे। इससे मुझे सत्य से घृणा करने और परमेश्वर का दुश्मन होने का उनका सार और भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगा। मुझे उनके पक्ष में एक बार बोलने के लिए अपराध-बोध और पश्चात्ताप भी हुआ। मैं खुद से पूछे बिना नहीं रह पाई, “मैं हमेशा इस तरह के बुरे व्यक्ति की दयालुता का बदला क्यों चुकाना चाहती हूँ?” मैं तब तक इसका कारण नहीं खोज पाई जब तक कि मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों का एक अंश नहीं पढ़ लिया और समस्या का मूल कारण नहीं जान लिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “नैतिक आचरण को लेकर ऐसे कथन कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ लोगों को यह नहीं बताते कि समाज में और मानवजाति के बीच उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं। इसके बजाय, ये लोगों को एक खास तरीके से सोचने और व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं, भले ही वे ऐसा चाहें या न चाहें, और वे परिस्थितियाँ या संदर्भ चाहे कुछ भी हों जिनमें दयालुता के ऐसे व्यवहार उन पर किए जाते हैं। प्राचीन चीन से ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, एक भूखे भिखारी लड़के को एक परिवार ने अपने पास रख लिया, जिसने उसे खाना-कपड़ा दिया, मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी और उसे हर तरह का ज्ञान सिखाया। उन्होंने उसके बड़े होने तक इंतजार किया और फिर उसे कमाई का जरिया बना लिया। उसे बुरे काम करने के लिए, लोगों को मारने और ऐसी चीजें करने के लिए भेजने लगे, जो वह नहीं करना चाहता था। अगर तुम उसकी कहानी को उन एहसानों की रोशनी में देखो जो उस परिवार ने उस पर किए, तो उसका बचाया जाना एक अच्छी बात थी। लेकिन अगर यह सोचा जाए कि उससे बाद में क्या करवाया गया तो क्या यह सचमुच अच्छी बात थी या बुरी बात? (बुरी बात थी।) लेकिन पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा, जैसे कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ के कारण लोग इसमें भेद नहीं कर पाते। ऊपर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि लड़के के सामने बुरे काम करने, लोगों को चोट पहुँचाने और हत्यारा बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं था—ऐसे काम जो ज्यादातर लोग नहीं करना चाहेंगे। लेकिन क्या अपने मालिक के कहने पर ऐसे बुरे काम करने और दूसरों की जान लेने के तथ्य के पीछे उसकी दयालुता का बदला चुकाने की गहरी भावना नहीं थी? खास तौर से पारंपरिक चीनी संस्कृति की ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ जैसी शिक्षा के कारण, लोग ऐसे विचारों के प्रभाव और नियंत्रण से बच नहीं पाते। वे जिस तरह व्यवहार करते हैं, और उनके क्रियाकलापों के पीछे जो इरादे और मकसद होते हैं, वे यकीनन इनसे नियंत्रित होते हैं। जब लड़के ने खुद को इस स्थिति में पाया तो उसके मन में पहला विचार क्या आया होगा? ‘मुझे इस परिवार ने बचाया है, और वे सब मेरे साथ कितने अच्छे रहे हैं। मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे उनकी दया का बदला चुकाना ही होगा। मेरी जिंदगी उनकी दी हुई है, इसलिए मुझे इसे उन पर अर्पित कर देना होगा। वे जो भी कहें मुझे करना चाहिए, चाहे इसका मतलब बुरे काम करना और लोगों की जान लेना हो। मैं यह नहीं सोच सकता कि यह सही है या गलत, मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना ही है। अगर मैंने ऐसा न किया तो क्या मैं मनुष्य कहलाने लायक भी हूँ?’ परिणामस्वरूप, जब भी परिवार उसे किसी की हत्या करने या कोई और बुरा काम करने के लिए कहता था, तो वह बिना किसी झिझक या संकोच के कर देता था। तो क्या उसका आचरण, उसके कृत्य, और उसकी निर्विवाद आज्ञाकारिता, सब इस विचार और दृष्टिकोण से संचालित नहीं होते थे कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’? क्या वह नैतिक आचरण के इसी मानक को पूरा नहीं कर रहा था? (हाँ।) तुम इस उदाहरण से क्या समझते हो? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ की कहावत अच्छी बात है या नहीं? (यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसके पीछे कोई सिद्धांत नहीं है।) दरअसल, जो व्यक्ति दयालुता का बदला चुकाता है उसका एक सिद्धांत तो होता है, जो यह है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर कोई तुम पर दया करता है तो बदले में तुम्हें भी दया करनी चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर पाते तो तुम मनुष्य नहीं हो, और अगर इसके लिए तुम्हारी निंदा की जाए तो तुम कुछ नहीं कह सकते। एक कहावत है कि ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,’ पर इस मामले में, लड़के पर कोई छोटी-मोटी दया नहीं दिखाई जाती है, बल्कि उसकी जान बचाई जाती है, इसलिए उसके पास इसका मोल एक जीवन देकर चुकाने के सभी कारण मौजूद थे। उसे नहीं पता था कि दयालुता के प्रतिदान की सीमाएँ और सिद्धांत क्या थे। उसका विश्वास था कि उसका जीवन उस परिवार का दिया हुआ था, इसलिए उसे बदले में अपना जीवन अर्पित करना होगा, और वे जो भी चाहते थे उसे करना होगा, चाहे किसी की हत्या हो या दूसरे बुरे काम। दयालुता के प्रतिदान के इस तरीके में न कोई सिद्धांत होता है न सीमा। उसने कुकर्मियों का साथ देने का काम किया और इस चक्कर में खुद को बर्बाद कर लिया। क्या उसका इस तरीके से दयालुता का बदला चुकाना सही था? बिल्कुल नहीं। यह चीजों को करने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका था” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने जाना कि मैं हमेशा अपने चाचा के प्रति एहसानमंद महसूस करती थी और मुझमें अपराध-बोध था और सुधार करके उनकी दयालुता का बदला चुकाना चाहती थी। ऐसा मुख्य रूप से इसलिए था क्योंकि मैं “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” और “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” की नैतिक सोच से बेबस थी। मेरा मानना था कि अगर किसी ने मेरी सबसे ज्यादा जरूरत के समय मदद की है या संकट के समय मेरी जान बचाई है, तो मुझे इस दयालुता को हमेशा याद रखना चाहिए और भविष्य में इसका उचित ढंग से भुगतान करना चाहिए। ऐसा करने से ही मुझमें अंतरात्मा और मानवता होगी। अगर मैं दयालुता का बदला चुकाना नहीं जानती तो मैं ऐसी इंसान होती जो कृतघ्न है और जिसके पास कोई मानवता नहीं है, मुझे तिरस्कृत किया जाता और कृतघ्न कमीना कहा जाता। उदाहरण के लिए मेरी माँ को ही ले लें। उनके चार भाई-बहन हैं और अतीत में उनके परिवार को आर्थिक रूप से संघर्ष करना पड़ा था। मेरे सबसे बड़े चाचा की पढ़ाई में मदद करने के लिए मेरे सबसे छोटे चाचा और मेरी माँ ने आगे की शिक्षा के अपने अवसर छोड़ दिए। आखिरकार मेरे सबसे बड़े चाचा को एक स्थिर नौकरी मिल गई और शुरू में परिवार को उम्मीद थी कि वह अपने भाई-बहनों की मदद करेंगे। मगर न केवल वह अपने भाई-बहनों की मदद करने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने अपनी माँ की सहायता भी नहीं की। हमारे सभी रिश्तेदार और दोस्त उन्हें कृतघ्न कहते थे और वह ऐसे व्यक्ति बन गए जिनका सभी ने तिरस्कार कर दिया। ऐसे परिवेश में पली-बढ़ी होने के कारण मुझे लगा कि मुझे भविष्य में एक अंतरात्मा वाला व्यक्ति बनना चाहिए, ऐसा इंसान जो दयालुता का बदला चुकाना जानता हो। यह ऐसी सोच का प्रभाव था जिसने मुझे अपने साथ कुछ होने पर सही और गलत का भेद पहचानने या यह पहचानने में असमर्थ बना दिया कि मैं किस तरह के व्यक्ति का ऋण चुका रही हूँ और मुझे इसकी परवाह नहीं थी कि मेरे कार्य-कलाप सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं। जब कोई मुझ पर दयालुता दिखाता था, तो मुझे उसे याद रखने और उसका ऋण चुकाने की इच्छा होती थी। जैसा मेरे चाचा के संदर्भ में हुआ, जब मुझे उन्हें निष्कासित करने के लिए अपने हस्ताक्षर करने का समय आया, तो चूँकि उन्होंने मेरी जान बचाई थी, हमें अंत के दिनों के परमेश्वर के सुसमाचार का उपदेश दिया था और मुझे अपने बच्चे की तरह रखा था, तो इस दयालुता ने मेरे लिए हस्ताक्षर करना कठिन बना दिया। मुझे डर था कि ऐसा करने से मैं एक कृतघ्न व्यक्ति बन जाऊँगी जिसमें कोई अंतरात्मा नहीं है। हालाँकि मैंने अंततः हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन मेरी अंतरात्मा इससे उबर नहीं पाई और मैं उनके प्रति ऋणी महसूस करने लगी। इसके अलावा जब मैं घर से दूर अपना कर्तव्य निभाते हुए बीमार हो गई थी, तो मेरे चाचा ने मेरी देखभाल करने में बहुत पैसा लगाया और प्रयास किए, जिससे मुझे और भी अधिक अपराध-बोध हुआ। इसलिए लोगों को स्वीकार करने के सिद्धांतों पर उच्च-स्तरीय अगुआओं की संगति सुनने के बाद मैं अपने चाचा का ऋण चुकाने के लिए इस मौके का फायदा उठाना चाहती थी। नतीजतन, भले ही यह साफ था कि मेरे चाचा ने पिछले कुछ वर्षों में की गई अपनी बुराई पर आत्म-चिंतन नहीं किया था या उन्हें नहीं समझा था और यहाँ तक कि अपने निष्कासन पर नाराजगी भी जताई थी और कलीसिया के अगुआ को पहचाना था जिसने उन्हें बड़े लाल अजगर के पास भेज दिया था, लेकिन चूँकि मैं “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की सोच से नियंत्रित थी, मैंने अगुआओं के सामने उनके बारे में अच्छी बातें कीं, इस उम्मीद में उनके बुरे व्यवहार पर पर्दा डाला और छिपाया कि उन्हें कलीसिया में वापस ले लिया जाएगा, जिससे मैं अपना ऋण चुका सकूँगी। मुझे एहसास हुआ कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की पारंपरिक सोच मुझे बेबस कर रही है जिससे मैं अच्छे और बुरे, सही और गलत में अंतर करने में असमर्थ हो गई। इसने मुझे बिना किसी सिद्धांत या नैतिक आधार के कार्य करने पर मजबूर कर दिया। अब यह कलीसिया को शुद्ध करने और बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों और छद्म-विश्वासियों की सफाई का समय था। अगर मैं अभी भी अंतरात्मा रखने और बुरे लोगों की दयालुता का बदला चुकाने, उन्हें कलीसिया में वापस स्वीकार कराने की इच्छा पर ध्यान केंद्रित करती, तो क्या मैं बुरे लोगों का साथ देकर गड़बड़ी और विघ्न-बाधाएँ नहीं पैदा कर रही होती? मेरा व्यवहार अपनी प्रकृति में उस व्यक्ति से कैसे अलग था जिसे परमेश्वर ने दयालुता का बदला चुकाने के लिए हत्या करने वाले भिखारी के रूप में वर्णित किया है? इसे समझने पर मैंने स्पष्ट रूप से “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की पारंपरिक नैतिक सोच की भ्रांति और जहर को देखा। यह पूरी तरह से गुमराह और भ्रष्ट करने वाली भ्रांति है।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ इस पारंपरिक अवधारणा को ठीक-से समझने की जरूरत है। इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘दयालुता’ शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए? इसमें दयालुता के किस पहलू और प्रकृति की बात की गई है? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ का क्या महत्व है? लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में दयालुता का बदला चुकाने के इस विचार से बेबस नहीं होना चाहिए—जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है उसके लिए तो यह एकदम अनिवार्य है। मानवीय धारणाओं के अनुसार ‘दयालुता’ क्या है? एक छोटे स्तर पर, दयालुता का मतलब है, मुसीबत में किसी व्यक्ति का तुम्हारी मदद करना। उदाहरण के लिए, जब तुम भूख से बेहाल हो तो कोई तुम्हें चावल का कटोरा दे देता है, या जब तुम प्यास से तड़प रहे हो तो कोई तुम्हें पानी की बोतल दे देता है। या तुम गिर पड़ते हो और उठ नहीं पाते हो तो कोई तुम्हें हाथ पकड़कर उठा देता है। ये सभी दयालुता के काम हैं। दयालुता का बड़ा कर्म, किसी का तुम्हें उस समय बचा लेना है जब तुम बहुत ही कठिन परिस्थिति में फंस गए हो—यह जान बचाने वाली दयालुता है। जब तुम जान के खतरे में हो और कोई मौत से बचने में तुम्हारी मदद करता है, तो वह मूल रूप से तुम्हारी जान बचाता है। ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें लोग ‘दयालुता’ के रूप में देखते हैं। इस तरह की दयालुता किसी भी तरह के छोटे-मोटे, भौतिक एहसान से बहुत ऊपर है—यह महान दयालुता है, जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से नहीं तोला जा सकता। जिन्हें इस तरह की दयालुता मिलती है, वे कृतज्ञता की ऐसी भावना महसूस करते हैं जिसे धन्यवाद के कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर क्या दयालुता को इस तरह से नापना सही है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह सही नहीं है? (क्योंकि यह माप पारंपरिक संस्कृति के मापदंड पर आधारित है।) यह उत्तर परिकल्पना और धर्म-सिद्धांत पर आधारित है, और भले ही यह सही प्रतीत हो, यह मामले के मर्म को नहीं छूता। तो हम इसे व्यावहारिक तौर पर कैसे समझा सकते हैं? इस पर ध्यान से विचार करो। कुछ समय पहले, मैंने एक ऑनलाइन वीडियो के बारे में सुना, जिसमें एक आदमी का पर्स गिर जाता है और उसे पता नहीं चलता। एक छोटा-सा कुत्ता उस पर्स को उठाकर उस आदमी के पीछे भागता है, जब वह आदमी उसे देखता है तो पर्स चुराने के लिए कुत्ते को मारने लगता है। बेहूदी बात, है ना? आदमी में कुत्ते से कम नैतिकता है! कुत्ते की हरकत मनुष्य के नैतिक मापदंडों के अनुरूप थी। कोई मनुष्य होता तो कहता, ‘आपका पर्स गिर गया है!’ पर क्योंकि कुत्ता बोल नहीं सकता, इसलिए वह चुपचाप पर्स उठाकर आदमी के पीछे दौड़ पड़ा। तो अगर कुत्ता भी पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रोत्साहित अच्छे व्यवहार दिखा सकता है तो यह मनुष्यों के बारे में क्या बताता है? मनुष्य जमीर और विवेक के साथ पैदा होते हैं, इसलिए वे यह सब करने में ज्यादा सक्षम हैं। अगर किसी में अपने जमीर की समझ है, तो वह इस तरह की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकता है। इसके लिए कोई कड़ी मेहनत करने या कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, बस थोड़े-से प्रयास की जरूरत होती है, और कुल मिलाकर कोई ऐसा काम करना होता है जिससे दूसरों की मदद हो और उनका भला हो। लेकिन क्या इस तरह के काम की प्रकृति सचमुच ‘दयालुता’ है? क्या यह दयालुता के एक कर्म के स्तर तक पहुँचती है? (नहीं पहुँचती।) तो फिर, क्या लोगों को इसका बदला चुकाने की बात करने की जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, तो चाहे वह ऐसा करने के लिए किसी की भी सेवाओं का उपयोग करे, तुम्हें पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें अपनी कृतज्ञता सिर्फ लोगों के प्रति निर्देशित नहीं करनी चाहिए, कृतज्ञता में किसी को अपना जीवन अर्पित करने की तो बात ही छोड़ दो। यह एक गंभीर भूल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का आभारी हो, और तुम इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकारो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” वाक्यांश में संदर्भित “दयालुता” की एक नई समझ और परिभाषा मिली। मैं सोचा करती थी कि अगर किसी ने मेरी मदद की हो या मेरी जान भी बचाई हो, जब मैं मुश्किलों या खतरों का सामना कर रही थी या जब मेरी जान जोखिम में थी, तो यह एक बड़ी दयालुता थी जिसे मुझे भविष्य में याद रखना चाहिए और चुकाना चाहिए। अब परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि इस सब को दयालुता नहीं कहा जा सकता; यह केवल लोगों की सहज प्रवृत्ति थी, जो कोई भी अंतरात्मा वाला व्यक्ति कर सकता है। जहाँ तक मेरे चाचा की बात है, एक चिकित्सक के रूप में जब उन्होंने देखा कि मैं खतरे में थी, तो मेरी जान बचाना बिल्कुल सामान्य बात थी और यह उनकी जिम्मेदारी थी। इसके अलावा मेरी यह साँस परमेश्वर से आती है और मेरा जीवन और मृत्यु परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। मैं सिर्फ इसलिए जीवित नहीं हूँ कि मेरे चाचा ने मुझे बचाया। जब मेरे पिता की मृत्यु के बाद मेरी माँ कई बच्चों के पालन-पोषण का खर्च उठाने के लिए संघर्ष कर रही थी, तो मेरे चाचा ने मुझे चिकित्सा की शिक्षा दिलवाई और मुझे अपने घर पर रहने और खाने-पीने की अनुमति दी और यह देखकर कि मेरी सेहत खराब रहती है, उन्होंने मुझे पौष्टिक भोजन दिया। कई साल बाद जब मैं अस्पताल में भर्ती थी, तब भी उन्होंने मेरी देखभाल की। यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी और मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। साथ ही मेरे चाचा ने हमारे लिए परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार का प्रचार किया जो परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था भी थी। मुझे परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए! यह समझकर मैं आखिरकार अपने चाचा के प्रति महसूस किए जाने वाले अपराध-बोध से मुक्त हो गई।
इस अनुभव के जरिए मैं “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की पारंपरिक नैतिक सोच की भ्रांति को स्पष्ट रूप से देख पाई हूँ और पाया कि कैसे यह लोगों को बाँधती और नुकसान पहुँचाती है। इसके बिना मैं सिद्धांतहीन या नैतिकताविहीन होकर अंधाधुंध दयालुता लौटाती रहती, यहाँ तक कि इसका एहसास किए बिना परमेश्वर का प्रतिरोध करती। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे इसका एहसास कराया। परमेश्वर का धन्यवाद!