5. एक अमिट दर्द

वू फैन, चीन

साल 2002 के उत्तरार्ध में एक दिन मुझे अपने कर्तव्य निभाते समय अचानक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। वे मुझे एक गेस्टहाउस में ले गए और मुझे मेरे बैंक लेन-देन के वीडियो फुटेज दिखाए, मुझसे लगातार सवाल पूछने लगे कि मुझे पैसे कहाँ से मिले, मैं कहाँ रहता हूँ, कलीसिया का अगुआ कौन है, इत्यादि। जब मैंने जवाब देने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने मुझे अलग-अलग तरीकों से प्रताड़ित किया—मुझे उकडूँ बैठने के लिए मजबूर किया, चमड़े के जूतों से मेरे चेहरे पर क्रूरता से ठोकर मारी और एक दर्जन से अधिक पुलिसकर्मी मुझसे पूछताछ करने लगे, मुझ पर “नींद से वंचित” करने की रणनीति का इस्तेमाल किया गया। इसका मतलब था कि वे मुझे सोने नहीं देंगे। जब भी मैं अपनी आँखें बंद करता, तो पुलिसवाले मेरे चेहरे पर जोरदार तमाचा लगाते या मुझे बुरी तरह से लातें मारते या अचानक मेरे कान में जोर से चिल्ला देते। लंबे समय तक नींद की कमी के कारण मुझे भ्रम, तेज बुखार, चक्कर आना और मेरे कानों में बजने की आवाज महसूस होने लगी। यहाँ तक कि मुझे हर चीज दो-दो दिखने लगी।

पुलिस की यातना के चलते बीसवें दिन तक मेरे शरीर के लिए बस हो गई थी। मैं जमीन पर ढह गया और उठने की ताकत नहीं जुटा पाया। मेरी आँखें नहीं खुल रही थीं और मेरी चेतना धुँधली होने लगी थी। यहाँ तक कि मेरा साँस लेना भी दूभर हो गया और मुझे लगा कि मैं किसी भी क्षण मर सकता हूँ। मैं बुरी तरह डर गया था, मुझे अपनी माँ, पत्नी और बच्चों का खयाल आ रहा था। मुझे चिंता थी कि अगर मैं मर गया, तो वे इसका सामना नहीं कर पाएँगे और उन्हें नर्वस ब्रेकडाउन हो सकता है—उसके बाद वे कैसे जिएँगे? अपनी इस मानसिक अस्पष्टता में मैंने पुलिस को यह कहते हुए सुना, “अगर तुम्हारे जैसे जिद्दी लोग मर भी जाएँ, तो तुम्हारी मौत व्यर्थ ही जाएगी! हम तुम्हें किसी भी जगह पर दफना देंगे और किसी को पता नहीं चलेगा!” उन्होंने यह भी कहा, “बस हमें बता दो कि तुम कहाँ रहते हो और हम मामला बंद कर देंगे! हम नहीं चाहते कि तुम सारी रात पीड़ा सहो और हम तुम्हारे साथ रहें।” मैंने मन ही मन सोचा, “अगर आज रात मैंने जबान नहीं खोली, तो शायद मैं बच नहीं पाऊँगा। बेहतर होगा मैं उन्हें कुछ महत्वहीन चीजें बता दूँ।” मैंने उस बुजुर्ग बहन के बारे में सोचा जिसने मेरी मेजबानी की थी—उसे कलीसिया के मामलों के बारे में बहुत कम जानकारी थी। अगर मैं उसके घर पर रहना स्वीकार कर लूँ, तो इससे कलीसिया को कोई नुकसान नहीं होगा, है न? मुझे गिरफ्तार हुए बीस दिन हो चुके थे और उसके घर से परमेश्वर के वचनों की किताबें बहुत पहले ही हटा दी गई होंगी। अगर उन्हें कोई सबूत न मिला, तो शायद पुलिस बहन के साथ कुछ नहीं कर पाएगी। यह खयाल आने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करने की नहीं सोची और जब पुलिस ने मुझे इस बहन का घर दिखाया, तो मैंने स्वीकार कर लिया कि यह उसी का घर है और यह तक बता दिया कि उसके परिवार में कितने लोग हैं। जैसे ही मेरे होठों से शब्द निकले, मेरा मन तुरंत साफ हो गया और मुझे एहसास हुआ कि मैं यहूदा बन गया हूँ। मैं खासतौर पर भयभीत हो गया और मेरा पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। मैं खुद को दोषी ठहराने और बुरी तरह पछताने लगा, मुझे नफरत हुई कि मैं यहूदा बनकर बहन को धोखा कैसे दे सकता हूँ। मेरी इच्छा हुई कि समय पलट जाए और जो कुछ मैंने कहा है उसे वापस ले सकूँ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मैंने सोचा कि कैसे बहन ने अपनी निजी सुरक्षा की परवाह किए बिना मेरी मेजबानी की थी, फिर भी मैंने खुद को बचाने के लिए उसे धोखा दे दिया—मेरी अंतरात्मा और अधिक पीड़ित हो गई और कोई मानवता न होने के कारण मुझे खुद से नफरत हो गई, खासकर जब मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा, जिन्होंने गहरी पीड़ा के समय में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी दूर तक ही है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं, जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, और ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं, जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे जो भी व्यक्ति हो, मेरा यही स्वभाव है। मुझे तुम लोगों को बता देना चाहिए : जो कोई मेरा दिल तोड़ता है, उसे दूसरी बार मुझसे क्षमा प्राप्त नहीं होगी, और जो कोई मेरे प्रति निष्ठावान रहा है, वह सदैव मेरे हृदय में बना रहेगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। ये वचन मेरे दिल में चाकू की तरह घुस गए और मेरी अंतरात्मा और अधिक दोषी और निंदित महसूस करने लगी। मैं अपने दिल में जानता था कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, मानव के अपराध के प्रति असहिष्णु है। परमेश्वर उनसे घृणा करता है जो उसके साथ विश्वासघात करते हैं और जो खुद को बचाने के लिए भाई-बहनों को धोखा देते हैं। मैं उस बहन को धोखा देकर एक शर्मनाक यहूदा बन गया था और मैंने परमेश्वर के दिल को चोट पहुँचाई थी। परमेश्वर अब मुझे संभवतः नहीं बचा सकता था; मैंने ही खुद परमेश्वर पर अपनी आस्था के मार्ग को काट दिया था। यह सब सोचते हुए दिल में ऐसा लगा जैसे वह दर्द से फटा जा रहा हो। मैं रात-रात भर सो नहीं पाता था और पीड़ा और आत्म-दोष में रहता था। मैं परमेश्वर और उस बहन का ऋणी था। मैं खुद को माफ नहीं कर पाया। उसके बाद जब पुलिस ने देखा कि वे मुझसे और कुछ नहीं उगलवा सकते, तो उन्होंने मेरे खिलाफ मनगढ़ंत आरोप लगा दिए और मुझे डेढ़ साल की सजा सुना दी। तब मेरा शरीर बहुत कमजोर था; मैं बाहर व्यायाम करते समय कुछ कदम चलने पर ही हाँफने लगता था। पुलिस को डर था कि कहीं मैं मर न जाऊँ, तो उन्होंने मुझे पचास दिन बाद ही मेडिकल पैरोल पर रिहा कर दिया, लेकिन उन्होंने मुझे स्थानीय क्षेत्र छोड़ने की अनुमति नहीं दी। मुझे हर महीने उन्हें अपने ठिकाने की रिपोर्ट देनी थी और हर तीन महीने में पुलिस स्टेशन में वैचारिक रिपोर्टिंग करनी थी। बाद में मुझे पता चला कि उस समय पुलिस बहन के घर गई थी और अब वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाती थी।

मैं एक महीने से ज्यादा समय तक घर पर रहा, तब पुलिस मुझे फिर से गिरफ्तार करने आ गई, इसलिए मैं जल्दी से काम करने के लिए दूसरे शहर भाग गया। उसके तुरंत बाद पुलिस मुझे गिरफ्तार करने के लिए मेरा पीछा करते हुए निर्माण स्थल पर पहुँची और मैं रातों-रात वहाँ से भागा। वह दौर मेरे लिए सबसे मुश्किल समय था। मैंने कलीसिया से संपर्क खो दिया और मेरे रिश्तेदारों और दोस्तों ने मुझे अस्वीकार कर दिया। मेरे पास छिपने की कोई जगह नहीं थी और मैं हर जगह भटकता रहता था, अक्सर पुलों के नीचे सोता था। उस समय मैं विशेष रूप से असहाय महसूस करता था, मानो परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता। मुझे पता था कि मैंने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया है और मैं इस तरह के दंड का हकदार हूँ। वास्तव में मैं शारीरिक पीड़ा सह सकता था, लेकिन परमेश्वर, कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के वचन पढ़ने का मौका गँवा देने से मुझे जीवन से ज्यादा मृत्यु की कामना होने लगी। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने की हिम्मत नहीं कर पाया, न मैं खुद को प्रार्थना करने योग्य महसूस करता था। मुझे लगा कि मैं यहूदा बन गया हूँ, ऐसा व्यक्ति जिससे परमेश्वर घृणा करता है। क्या परमेश्वर अब भी मेरी प्रार्थनाएँ सुनेगा? मैं रात-रात भर सो नहीं पाता था और पछतावे से इतना भर जाता था कि मुझे पता नहीं चलता था कि मैंने कितनी बार खुद को थप्पड़ मारे और कई बार जान देकर अपना दर्द खत्म कर देना चाहता था। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा और उसके इरादे को थोड़ा और समझना शुरू किया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “आज अधिकतर लोगों के पास यह ज्ञान नहीं है। वे मानते हैं कि कष्टों का कोई मूल्य नहीं है, कष्ट उठाने वाले संसार द्वारा त्याग दिए जाते हैं, उनका पारिवारिक जीवन अशांत रहता है, वे परमेश्वर के प्रिय नहीं होते, और उनकी संभावनाएँ धूमिल होती हैं। कुछ लोगों के कष्ट चरम तक पहुँच जाते हैं, और उनके विचार मृत्यु की ओर मुड़ जाते हैं। यह परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम नहीं है; ऐसे लोग कायर होते हैं, उनमें धीरज नहीं होता, वे कमजोर और शक्तिहीन होते हैं! परमेश्वर उत्सुक है कि मनुष्य उससे प्रेम करे, परंतु मनुष्य जितना अधिक उससे प्रेम करता है, उसके कष्ट उतने अधिक बढ़ते हैं, और जितना अधिक मनुष्य उससे प्रेम करता है, उसके परीक्षण उतने अधिक बढ़ते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं जिन हालात का सामना कर रहा था, वे परमेश्वर की धार्मिकता के कारण थे—मेरे यहूदा जैसे कार्यों के लिए एक योग्य दंड। लेकिन मुझे परमेश्वर ने बनाया था और मुझे अपने लिए मृत्यु का चुनाव नहीं करना चाहिए; मुझे परमेश्वर का दंड स्वीकार करना चाहिए। भविष्य में अगर मुझे मौका मिला, तो मैं परमेश्वर का अनुसरण करना जारी रखूँगा। भले ही इसका मतलब परमेश्वर के लिए सेवा करना हो, मैं इसे खुशी-खुशी करूँगा। इसलिए मैंने मृत्यु के बारे में सभी विचार त्याग दिए और घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना में रोया, “हे परमेश्वर! मैं मर जाने लायक हूँ; मैं शापित होने के योग्य हूँ...” जब तक मेरा गला नहीं रुँध जाता और मैं कुछ न बोल पाता, लंबे समय तक मैं यही एक बात प्रार्थना में परमेश्वर से कहता था।

2008 में भाई-बहनों ने मुझे ढूँढ़ लिया और कहा कि बहन के साथ मेरा विश्वासघात मेरी देह की कमजोरी का क्षण था, जिससे कलीसिया को कोई खास नुकसान नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि मेरा लगातार कर्तव्य पालन अच्छा था और कलीसिया ने मुझे फिर से एक कर्तव्य सौंपा। उस क्षण मेरी आँखों में आँसू आ गए। मुझे विश्वास था कि मैं परमेश्वर को धोखा देने और यहूदा की भूमिका निभाने के लिए दंडित होने और नरक में भेजे जाने योग्य हूँ। लेकिन परमेश्वर ने मेरे अपराध के अनुसार मेरे साथ व्यवहार नहीं किया; उसने मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दिया। यह एहसास करके कि मैं परमेश्वर का कितना ऋणी हूँ, मुझे और अधिक पछतावा और खुद से घृणा महसूस हुई। मैंने अपने दिल में संकल्प लिया कि भले ही भविष्य में कलीसिया मुझे कोई भी कर्तव्य सौंपे, मैं उन्हें सँजोकर रखूँगा और परमेश्वर का ऋण चुकाने के लिए उन्हें पूरा करूँगा। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी ने विभिन्न स्थानों पर विश्वासियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया और हमारी कलीसिया के दो अगुआओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इसके तुरंत बाद मैंने सुना कि वे यहूदा बन गए और उन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया। उस समय मैंने सोचा, “अगर उन्हें यहूदा बनने के कारण निकाला गया और मैंने भी वही किया था, तो क्या मेरे निष्कासन में भी बस कुछ ही समय नहीं बचा है?” ये बातें सोचते हुए धीरे-धीरे मेरा दिल दुखने लगा। मुझे लगा कि मेरा अपराध बहुत बड़ा है और चाहे मैं कितना भी प्रयास करूँ, मेरे उद्धार की उम्मीद बहुत कम है। हो सकता है अगर किसी दिन मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन में कोई गलती की, तो कलीसिया मुझे निकाल दे। मुझे तब और भी अधिक पछतावा हुआ, अपनी गवाही में अडिग न रहने के लिए खुद से नफरत हुई। अगर मैं उस समय अपनी गवाही में अडिग रहा होता, तो मैं इस तरह से कष्ट न उठाता। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मैं मृत्यु से बहुत डरता था और एक घटिया जीवन जीना पसंद करता था। यह सब मेरा ही किया-धरा था और मुझे ही उसे झेलना था; मैं किसी और को दोष नहीं दे सकता था। इसलिए मैंने अपने कर्तव्य करने में और भी अधिक प्रयास किया और आस रखी कि मैं अपने अपराधों की भरपाई और अधिक अच्छे कर्मों से कर पाऊँ। जहाँ तक परमेश्वर के आशीष, वादों और लोगों को सांत्वना और प्रोत्साहन के शब्दों की बात है, मुझे लगा उनका अब मुझसे न तो कोई सरोकार है और न ही मैं उनमें शामिल हूँ। बाद में जब मैंने लोगों को बाहर निकालने के लिए सामग्री व्यवस्थित करने में सहयोग किया, तो हर बार जब मैं उन यहूदाओं के बारे में सामग्री एकत्र और व्यवस्थित करता था, तो मुझे यहूदा की भूमिका निभाकर बहन को पहुँचाए गए नुकसान की याद आती थी। यह मामला मेरे दिल में एक दाग की तरह था। जब भी मैं इस बारे में सोचता, तो मुझे अपराध-बोध होता और ऐसा दर्द होता कि जैसे किसी ने चाकू घोंप दिया हो। यह मामला मेरे दिल में एक शाश्वत दाग और दर्द बन गया था। बाद में मुझे हृदय रोग और उच्च रक्तचाप जैसी कई बीमारियाँ हो गईं और मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया। मैं सोचने लगा : क्या मैं दंड का अनुभव कर रहा था? या परमेश्वर ने मुझे छोड़ दिया था? इस वजह से मेरे दिल में और अधिक पीड़ा और कमजोरी पैदा हो गई। कभी-कभी जब मैं अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में भ्रष्टता का खुलासा करता, तो मुझे पता होता था कि मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजने की आवश्यकता है। लेकिन फिर मैं सोचता था कि मेरा अपराध कितना बड़ा है और इसकी प्रकृति कितनी गंभीर है और मैं सोचता : क्या परमेश्वर अब भी मुझे बचा सकता है? क्या वह अब भी मुझे सत्य समझने के लिए प्रबुद्ध करेगा? इस तरह मैं एक हताशा की दशा में जी रहा था।

एक दिन एक बहन को मेरी दशा के बारे में पता चला और उसने मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभवों के बारे में संगति की। उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी पढ़ा। परमेश्वर कहता है : “क्या परमेश्वर तय करता है कि किसी व्यक्ति को उसकी भ्रष्टता के स्तर के आधार पर बचाया जाएगा या नहीं? क्या वह तय करता है कि उसके अपराधों के आकार या उसकी भ्रष्टता की मात्रा के आधार पर उसका न्याय और ताड़ना की जाए या नहीं? क्या वह उसके रंग-रूप, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी काबिलियत के स्तर या इस बात के आधार पर कि उसने कितना कष्ट उठाया है, उसकी मंजिल और परिणाम निर्धारित करता है? परमेश्वर अपने निर्णयों के आधार के रूप में इन चीजों का उपयोग नहीं करता; वह तो इन चीजों की ओर देखता तक नहीं। इसलिए तुम्हें यह समझना चाहिए कि चूँकि परमेश्वर लोगों को इन चीजों के आधार पर नहीं आंकता, इसलिए तुम्हें भी लोगों को इन चीजों के आधार पर नहीं आंकना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम और गंतव्य को उसके अपराध के आकार या उसकी भ्रष्टता की सीमा के आधार पर निर्धारित नहीं करता। इसके बजाय परमेश्वर देखता है कि क्या कोई व्यक्ति अपराध करने के बाद वास्तव में पश्चात्ताप करता है या नहीं और अंततः किसी व्यक्ति के परिणाम और गंतव्य को इस आधार पर निर्धारित करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं और उसका स्वभाव बदला है या नहीं। मुझे अपनी धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए और अपने मुद्दे हल करने चाहिए। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। इन बातों को समझने से मेरे अंदर कई साल से दमित भावनाएँ निकल गईं। आँसू बहाते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! वर्षों से मैं एक नकारात्मक दशा में जी रहा हूँ, अपनी संभावनाओं और गंतव्य की चिंता कर रहा हूँ और मेरे पास सत्य का अनुसरण करने वाला दिल नहीं है। बहन के माध्यम से मेरी मदद करने के लिए धन्यवाद। मैं तुम्हारे आगे पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। हे परमेश्वर! मेरे मुद्दे हल करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोगों के हताशा में डूबने का एक और कारण यह भी है कि वयस्क होने या सयाने होने से पहले ही लोगों के साथ कुछ चीजें हो जाती हैं, यानी वे कोई अपराध करते हैं, या कुछ बेवकूफी-भरे, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण काम करते हैं। इन अपराधों, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण करतूतों के कारण वे हताशा में डूब जाते हैं। इस प्रकार की हताशा अपनी ही निंदा है और यह एक तरह से इसका निर्धारण भी है कि वे किस किस्म के इंसान हैं। ... जब भी वे सत्य पर कोई धर्मसंदेश या संगति सुनते हैं, यह हताशा धीरे-धीरे उनके दिमाग और उनके अंतरतम में पहुँच जाती है और वे खुद से कई सवाल पूछते हैं, ‘क्या मैं यह कर सकता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हूँ? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर सकता हूँ? मैं किस किस्म का इंसान हूँ? मैंने पहले वह काम किया, मैं वैसा इंसान हुआ करता था। क्या मैं बचाए जाने से परे हूँ? क्या परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा?’ कुछ लोग कभी-कभार अपनी हताशा की भावना को जाने दे सकते हैं, उसे पीछे छोड़ सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाने, दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करने में वे भरसक अपनी पूरी ईमानदारी और शक्ति लगा सकते हैं, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में तन-मन लगा सकते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों में अपने पूरे प्रयास उंडेल देते हैं। लेकिन जैसे ही कोई विशेष स्थिति या परिस्थिति सामने आती है, हताशा की भावना उन पर फिर एक बार हावी हो जाती है और उन्हें दिल की गहराई से दोषी महसूस करवाती है। वे मन-ही-मन सोचते हैं, ‘तुमने पहले वह करतूत की थी, तुम उस किस्म के इंसान थे। क्या तुम उद्धार पा सकते हो? सत्य पर अमल करने का क्या कोई तुक है? तुम्हारी करतूत के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी करतूत के लिए तुम्हें माफ कर देगा? क्या अब इस तरह कीमत चुकाने से उस अपराध की भरपाई हो सकेगी?’ वे अक्सर खुद को फटकारते हैं, भीतर गहराई से दोषी महसूस करते हैं, और हमेशा शक्की बन कर खुद से कई सवाल पूछते हैं। हताशा की इस भावना को वे कभी पीछे नहीं छोड़ पाते, त्याग नहीं पाते और अपनी शर्मनाक करतूतों के लिए वे हमेशा बेचैनी महसूस करते रहते हैं। तो, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, ऐसा लगता है मानो उन्होंने कभी परमेश्वर के वचन सुने ही नहीं या उन्हें समझा ही नहीं। मानो वे नहीं जानते कि क्या उद्धार-प्राप्ति का उनके साथ कोई लेना-देना है, क्या उन्हें दोषमुक्त कर छुड़ाया जा सकता है, या क्या वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना और उसका उद्धार प्राप्त करने योग्य हैं। उन्हें इन सब चीजों का कोई अंदाजा नहीं है। कोई जवाब न मिलने और कोई सही फैसला न मिलने के कारण, वे निरंतर भीतर गहराई से हताश महसूस करते हैं। अपने अंतरतम में वे बार-बार अपनी करतूतें याद करते रहते हैं, वे उसे अपने दिमाग में बार-बार चलाते रहते हैं, शुरुआत से अंत तक याद करते हैं कि यह सब कैसे शुरू हुआ और कैसे खत्म। वे इसे कैसे भी याद करते हों, हमेशा पापी महसूस करते हैं और इसलिए वर्षों तक इस मामले को लेकर निरंतर हताश महसूस करते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय भी, किसी कार्य के प्रभारी होने पर भी, उन्हें लगता है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रही। इसलिए, वे कभी भी सत्य का अनुसरण करने के मामले का सीधे तौर पर सामना नहीं करते, और नहीं मानते कि यह सबसे सही और अहम चीज है। वे मानते हैं कि पहले जो गलती उन्होंने की या जो करतूतें उन्होंने कीं, उन्हें ज्यादातर लोग नीची नजर से देखते हैं, या शायद लोग उनकी निंदा कर उनसे घृणा करें, या परमेश्वर भी उनकी निंदा करे। परमेश्वर का कार्य जिस भी चरण में हो, या उसने जितने भी कथनों का उच्चारण किया हो, वे सत्य का अनुसरण करने के मामले का कभी भी सही ढंग से सामना नहीं करते। ऐसा क्यों है? उनमें अपनी हताशा को पीछे छोड़ने का हौसला नहीं होता। ऐसी चीज का अनुभव करके इस किस्म का इंसान यही अंतिम निष्कर्ष निकालता है, और चूँकि वह सही निष्कर्ष नहीं निकालता, इसलिए वह अपनी हताशा को पीछे छोड़ने में असमर्थ होता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को वेध दिया और मेरी असली दशा उजागर कर दी। गिरफ्तार होने पर मैं यहूदा बन गया, परमेश्वर से विश्वासघात किया और बहन को धोखा दिया। यह बात मेरे दिल में घर कर गई थी। हालाँकि कलीसिया ने मुझे वापस ले लिया था और मुझे अपने कर्तव्य निभाने की अनुमति दे दी थी, लेकिन मैं इस रुकावट से पार नहीं पा सका था। जब भी मैं यहूदा की भूमिका निभाने और बहन को पहुँचाए गए नुकसान के बारे में सोचता था, तो मान लेता था कि मैं वह व्यक्ति हूँ जिसे उद्धार का कोई मौका नहीं मिलेगा। हर बार जब मैं भाई-बहनों को गिरफ्तार करके प्रताड़ित किए जाने लेकिन अपनी गवाही में अडिग रहने के अनुभवजन्य वीडियो देखता था, तो मुझे शर्म और अपराध-बोध होता था और मेरी अंतरात्मा मुझे दोषी ठहराती थी। हर बार जब मैं यहूदाओं को हटाने से संबंधित सामग्री एकत्रित और व्यवस्थित करता, तो दिल में ऐसा लगता था जैसे कोई छुरा घोंप रहा हो और मुझे तब अपनी गवाही में अडिग न रहने के लिए खुद से नफरत होती थी। अगर मैं अडिग रहा होता, तो मेरे दिल में इतनी पीड़ा न होती। हालाँकि बाहरी तौर पर मैं अपने कर्तव्य निभाता था, लेकिन अंदर से मैं हमेशा हताश रहता था, यह महसूस करता था कि मैं दूसरों से अलग हूँ। मैंने परमेश्वर को धोखा दिया था और यहूदा बन गया था-एक ऐसा व्यक्ति जिससे परमेश्वर घृणा करता है। क्या परमेश्वर अब भी मुझे चाहता है? क्या वह अब भी मुझे बचाएगा? इन बातों के बारे में सोचते ही मैं दर्द और बेचैनी से भर जाता था। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करने की हिम्मत भी नहीं होती थी, लगता था कि परमेश्वर मुझसे घृणा करता है और मेरी प्रार्थनाएँ नहीं सुनेगा। परमेश्वर के वचन पढ़ना भी वैसा ही था; जब भी मैं उपदेश, सांत्वना, वादे या आशीष के वचन पढ़ता, तो लगता कि वे मेरे जैसे किसी व्यक्ति के लिए नहीं हैं। मैं परमेश्वर के वादों या आशीषों का हकदार नहीं था; मैं केवल शाप और दंड के लायक ही था! मैं लंबे समय से परमेश्वर को गलत समझने की दशा में जी रहा था, जिसमें सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प नहीं था, केवल अपने अपराध का प्रायश्चित्त करने के लिए अच्छी तरह से कार्य करने से संतुष्ट था। वास्तव में परमेश्वर ने मुझे अपने वचन खाने और पीने के अधिकार से वंचित नहीं किया था और उसने मुझे अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने का मौका दिया था। यह सब परमेश्वर की कृपा थी। लेकिन मैं हताशा की दशा में जी रहा था। जब मेरे कर्तव्य निर्वहन में भ्रष्टता का खुलासा हुआ, तो मुझे पता था कि मुझे इसे दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन जब भी मैं यहूदा बन जाने पर सोचता, तो मुझे लगता कि चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ या कितना भी प्रयास कर लूँ, सब व्यर्थ है। क्या परमेश्वर अब भी उन्हें बचा सकता है जिन्होंने उसके साथ विश्वासघात किया? अगर मैं और अधिक मेहनत और सुधार करने के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता रहा, तो शायद एक दिन परमेश्वर मेरी वफादारी की मेहनत देखेगा और सजा हल्की कर देगा। मैं लगातार अपने अपराध के बोझ तले दबा रहता था, हताशा की मनोदशा में जीता था। पिछले कुछ सालों में हालाँकि कई चीजें हुईं थीं, मैं बस प्रयास करने और अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान दिए बिना काम किए जाने से संतुष्ट था, मैंने सत्य प्राप्त करने के कई अवसर गँवा दिए थे।

आत्म-चिंतन के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है। शायद अपना कर्तव्य निभाते हुए या कलीसिया का जीवन जीते हुए उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार त्यागने और खुद को खुशी-खुशी परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम हैं, और अब वे आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा को जानकर इसे दरकिनार भी कर चुके हैं, और अब उससे नियंत्रित या विवश नहीं होते। फिर वे सोचते हैं कि उनमें अब आशीष पाने की प्रेरणा नहीं रही, लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। लोग मामलों को केवल सतही तौर पर देखते हैं। परीक्षणों के बिना, वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं। अगर वे कलीसिया नहीं छोड़ते या परमेश्वर के नाम को नहीं नकारते, और परमेश्वर के लिए खपने में लगे रहते हैं, तो वे मानते हैं कि वे बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि वे अब अपने कर्तव्य-पालन में व्यक्तिगत उत्साह या क्षणिक आवेगों से प्रेरित नहीं हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार सत्य की तलाश और अभ्यास कर सकते हैं, ताकि उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो सकें और वे कुछ वास्तविक बदलाव हासिल कर सकें। लेकिन जब सीधे लोगों की मंजिल और परिणाम से संबंधित कोई बात हो जाती है तो वे किस प्रकार व्यवहार करते हैं? सच्चाई पूरी तरह से प्रकट हो जाती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर ने उजागर किया कि लोगों के उस पर विश्वास करने के पीछे छिपे हुए उद्देश्य होते हैं, जो सब उनके भाग्य और संभावनाओं के साथ-साथ निजी आशीष के लिए होते हैं। यदि किसी दिन वे आशीष प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं या उन्हें कोई भाग्य या संभावनाएँ नहीं दिखतीं, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना व्यर्थ है, जिसके नतीजे में वे हताशा की दशा में रहते हैं। मैंने पौलुस के बारे में सोचा : पहले तो उसने प्रभु यीशु का प्रतिरोध किया, प्रभु के शिष्यों को गिरफ्तार किया और सताया। फिर दमिश्क के रास्ते पर परमेश्वर ने पौलुस को एक महान प्रकाश से मार डाला और उसे प्रेरित होने के लिए बुलाया। पौलुस ने कई साल तक सुसमाचार का प्रचार किया, शुरू में अपने पापों का प्रायश्चित्त करने और सुधार करने के लिए। लेकिन उसने अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलने के लिए सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं किया। नतीजतन कई साल के कार्य के बाद परमेश्वर के प्रतिरोध की उसकी शैतानी प्रकृति नहीं बदली थी। यहाँ तक कि उसे लगता था कि उसके कई वर्षों के परिश्रम और कार्य से उसके पापों का प्रायश्चित्त पहले ही हो गया है और उसके गुण उसके दोषों से अधिक हैं और उसने खुलकर परमेश्वर से मुकुट माँगा और अंततः परमेश्वर द्वारा उसे हटा दिया गया। आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं भी पौलुस के मार्ग पर ही चल रहा था। चूँकि मैंने बहन को धोखा दिया था और यहूदा बन गया था, इसलिए मुझे आशीष पाने की उम्मीद धुँधली लगती थी। खासकर जब मैंने दो कलीसिया अगुआओं को यहूदा बनने के कारण निष्कासित होते देखा, तो मुझे चिंता हुई कि एक दिन मुझे भी कलीसिया द्वारा निष्कासित कर दिया जाएगा। मैं निराश और सुस्त हो गया, सत्य का अनुसरण करने का कोई दृढ़ संकल्प नहीं रहा और मुझे लगा कि परमेश्वर अब मुझे नहीं बचाएगा। चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ या अनुसरण कर लूँ, मेरे लिए कोई अच्छा परिणाम या गंतव्य नहीं होगा। मैंने देखा कि परमेश्वर पर विश्वास करने और कर्तव्य निभाने का मेरा उद्देश्य आशीष प्राप्त करना था, न कि सत्य प्राप्त करना और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर उसे संतुष्ट करना। पिछले कुछ वर्षों में मैं लगातार अपने अपराध से ग्रस्त रहा था, अपनी संभावनाओं और गंतव्य के बारे में व्याकुल महसूस करता रहा था। हालाँकि मुझे अपने अपराध के लिए कुछ पछतावा और घृणा महसूस हुई, पर आशीष प्राप्त करने का मेरा अंतर्निहित दृष्टिकोण हल नहीं हुआ। इससे मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर के सामने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया था, बल्कि मैं परमेश्वर के सामने अपने अपराध के लिए कीमत चुकाकर और खुद को खपाकर प्रायश्चित्त करने की कोशिश में था, ताकि मेरी अंतरात्मा मुझे और दोषी न ठहराए। मैंने देखा कि मैं इतनी बड़ी बुराई करने के बाद भी परमेश्वर के साथ लेन-देन की कोशिश कर रहा था—यह वास्तव में कुरूप, स्वार्थी और नीच बात थी। इसने मुझे और अधिक पश्चात्ताप और आत्म-घृणा महसूस कराई।

खोज करते हुए मुझे परमेश्वर के वचनों के दो और अंश मिले, जिनसे मुझे उसके धार्मिक स्वभाव को थोड़ा और समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “ज्यादातर लोगों के अपने अपराध और दाग हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने परमेश्वर का विरोध किया है और ईशनिंदा की बातें कही हैं; कुछ लोगों ने परमेश्वर का आदेश नकारकर अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, और परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिए गए हैं; कुछ लोगों ने प्रलोभन सामने आने पर परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार होने पर ‘तीन वक्तव्यों’ पर हस्ताक्षर करके परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ ने भेंटें चुरा ली हैं; कुछ ने भेंटें बरबाद कर दी हैं; कुछ ने अक्सर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाया है; कुछ ने गुट बनाकर दूसरों के साथ अशिष्ट व्यवहार किया है, जिससे कलीसिया अस्त-व्यस्त हो गई है; कुछ ने अक्सर धारणाएँ और मृत्यु फैलाकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया है; और कुछ व्यभिचार और भोग-विलास में लिप्त रहे हैं और उन लोगों का भयानक प्रभाव पड़ा है। जाहिर है, हर किसी के अपने अपराध और दाग हैं। लेकिन कुछ लोग सत्य स्वीकार कर पश्चात्ताप कर पाते हैं, जबकि दूसरे नहीं कर पाते और पश्चात्ताप करने के बजाय मरना पसंद करते हैं। इसलिए लोगों के साथ उनके प्रकृति सार और उनके निरंतर व्यवहार के अनुसार बर्ताव किया जाना चाहिए। जो पश्चात्ताप कर सकते हैं, वे वो लोग होते हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; लेकिन जो वास्तव में पश्चात्ताप न करने वाले होते हैं, जिन्हें हटाकर निकाल दिया जाना चाहिए, उन्हें हटाकर निकाल दिया जाएगा। कुछ लोग कुकर्मी हैं, कुछ अज्ञानी हैं, कुछ मूर्ख हैं और कुछ जानवर हैं। हर कोई अलग है। कुछ कुकर्मी लोगों पर बुरी आत्माओं का साया होता है, जबकि कुछ लोग शैतान और राक्षसों के अनुचर होते हैं। कुछ लोग विशेष रूप से निर्दयी प्रकृति के होते हैं, जबकि कुछ लोग खासकर धोखेबाज होते हैं, कुछ धन के मामले में बहुत लालची होते हैं, और अन्य लोग यौन मामलों में आनंद लेते हैं। हर किसी का व्यवहार अलग है, इसलिए लोगों को उनकी प्रकृति और निरंतर व्यवहार के अनुसार व्यापक रूप से देखा जाना चाहिए। ... मनुष्य के साथ परमेश्वर का व्यवहार उतना सरल नहीं है, जितना लोग कल्पना करते हैं। जब किसी व्यक्ति के प्रति उसका रवैया घृणा या अरुचि का होता है, या जब यह बात आती है कि वह व्यक्ति किसी दिए गए संदर्भ में क्या कहता है, तो परमेश्वर को उसकी अवस्थाओं की अच्छी समझ होती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के हृदय और सार की जाँच करता है। लोग हमेशा सोचते रहते हैं, ‘परमेश्वर में सिर्फ उसकी दिव्यता है। वह धार्मिक है और मनुष्य का कोई अपराध सहन नहीं करता। वह मनुष्य की कठिनाइयों पर विचार नहीं करता या खुद को लोगों के स्थान पर रखकर नहीं देखता। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर का विरोध करता है, तो वह उसे दंड देगा।’ ऐसा बिल्कुल नहीं है। अगर कोई उसकी धार्मिकता, उसके कार्य और लोगों के प्रति उसके व्यवहार को ऐसा समझता है, तो वह गंभीर रूप से गलत है। परमेश्वर द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर आधारित होता है। वह प्रत्येक इंसान को उसकी करनी के अनुसार प्रतिफल देगा। परमेश्वर धार्मिक है, और देर-सबेर वह यह सुनिश्चित करेगा कि सभी लोग हर तरह से आश्वस्त हों(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “उन सभी व्यक्तियों के पास उद्धार के लिए कई अवसर होंगे जिन्होंने परमेश्वर द्वारा जीत लिया जाना स्वीकार लिया है; इनमें से प्रत्येक व्यक्ति के उद्धार में परमेश्वर उन्हें यथासंभव अधिकतम छूट देगा। दूसरे शब्दों में, उनके प्रति परम उदारता दिखाई जाएगी। अगर लोग गलत रास्ता छोड़ दें और पश्चात्ताप करें, तो परमेश्वर उन्हें उद्धार प्राप्त करने का अवसर देगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर के इरादे को समझना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर का स्वभाव सचमुच धार्मिक है। उसकी धार्मिकता में न केवल न्याय और क्रोध है, बल्कि दया और सहनशीलता भी है। लोगों के प्रति परमेश्वर का व्यवहार विशेष रूप से सिद्धांतों पर आधारित है। वह उनके अस्थायी अपराधों के आधार पर उन पर फैसला नहीं सुनाता बल्कि उनके कार्य-कलापों की प्रकृति और पृष्ठभूमि, साथ ही उनके आध्यात्मिक कद और उनके कारण होने वाले परिणामों का व्यापक रूप से आकलन करता है। यदि कोई व्यक्ति कमजोरी के किसी क्षण में कलीसिया को महत्वपूर्ण नुकसान पहुँचाए बिना और पूरे दिल से परमेश्वर को नकारे या धोखा दिए बिना किसी को धोखा दे देता है और बाद में वास्तव में पश्चात्ताप कर लेता है, तो परमेश्वर अभी भी दया दिखाता है और उसे पश्चात्ताप का मौका देता है। कुछ लोग अपनी गिरफ्तारी के बाद खुद को पूरी तरह से बड़े लाल अजगर के साथ जोड़ लेते हैं; वे भाई-बहनों और कलीसिया के हितों को धोखा देते हैं और यहाँ तक कि बड़े लाल अजगर के साथी भी बन जाते हैं। ये सभी बुरे लोगों के तौर पर प्रकट किए जाते हैं जो उद्धार से परे होते हैं। ऐसे लोगों पर परमेश्वर दया नहीं दिखाता। मुझे अपने अनुभव याद आए जब मुझे पकड़ा गया था और प्रताड़ित किया गया था, लंबे समय तक नींद की कमी के कारण मेरी शारीरिक हदें पार हो गई थीं और फिर मैंने कलीसिया को अहम नुकसान पहुँचाए बिना बुजुर्ग बहन को धोखा दे दिया था। उसके बाद मुझे गहरा पश्चात्ताप और आत्म-घृणा महसूस हुई। मेरे कार्य-कलापों में यह एक गंभीर अपराध था और फिर भी परमेश्वर के घर ने मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दिया। जहाँ तक उन दो कलीसिया अगुआओं की बात है, पकड़े जाने के बाद और बिना यातना सहे ही वे शारीरिक पीड़ा के डर से यहूदा बन गए थे, न केवल “तीन वक्तव्यों” पर हस्ताक्षर किए बल्कि एक दर्जन से अधिक कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को धोखा दिया, जिससे कई कलीसियाओं का काम ठप हो गया और उन्हें काफी नुकसान हुआ। उनके कार्य-कलाप किसी कमजोरी के पल के कारण नहीं थे; उनका सार यहूदा का था और वे अपूरणीय तौर पर बुरे लोग थे। उन्हें निष्कासित करने का कलीसिया का निर्णय पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप था—यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरा कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास था, लेकिन मैं उसे नहीं जानता था। मैं परमेश्वर के खिलाफ गलतफहमी और सतर्कता की दशा में रहता था, मुझे विश्वास था कि परमेश्वर लोगों को उद्धार का मौका दिए बिना उनके अपराध करते ही उन्हें दंडित करेगा। मैंने देखा कि मैं कितना धोखेबाज और दुष्ट बन गया हूँ।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों से अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि लोग परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ दूर करना चाहते हैं तो एक लिहाज से उन्हें अपने ही भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना होगा और अपनी पिछली गलतियों, गलत रास्तों, अपराधों और लापरवाही का गहन-विश्लेषण कर इन्हें समझना पड़ेगा। इस तरह वे अपनी प्रकृति को साफ तौर पर समझ और देख पाएँगे। साथ ही, उन्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि लोग क्यों भटकते हैं और ऐसी बहुत-सी चीजें क्यों करते हैं जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, और इन कार्यों की प्रकृति क्या है? इसके अलावा उन्हें समझना चाहिए कि मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सही-सही इरादे और अपेक्षाएँ क्या हैं, लोग क्यों हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप काम करने में असमर्थ रहते हैं, और क्यों वे हमेशा उसके इरादों के विरुद्ध जाकर जो जी में आए वो करते हैं। इन चीजों को परमेश्वर के समक्ष लाकर प्रार्थना करो, उन्हें स्पष्ट रूप से समझो, फिर तुम अपनी दशा बदल सकते हो, अपनी मानसिकता बदल सकते हो और परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों का समाधान कर सकते हो। कुछ लोग चाहे कुछ भी करें, हमेशा अनुचित इरादे पाले रखते हैं, हमेशा बुरे विचार रखते हैं और यह जाँच नहीं कर पाते कि उनकी आंतरिक दशा सही है या नहीं, न ही वे इसे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पहचान पाते हैं। ये लोग उलझे हुए हैं। किसी उलझे हुए व्यक्ति की एक सबसे स्पष्ट पहचान यह है कि कुछ बुरा करने के बाद अपनी काट-छाँट होने पर वे नकारात्मक बने रहते हैं, यहाँ तक कि खुद को निराशा में डुबो देते हैं और तय मान लेते हैं कि वे समाप्त हो चुके हैं और उन्हें नहीं बचाया जा सकता। क्या यह किसी उलझे हुए व्यक्ति का सबसे दयनीय व्यवहार नहीं है? वे परमेश्वर के वचनों के मुताबिक आत्म-चिंतन नहीं कर पाते और कठिनाइयाँ आने पर समस्या सुलझाने के लिए सत्य को नहीं खोज पाते। क्या यह और अधिक उलझा हुआ होना नहीं है? क्या स्वयं को निराशा के हवाले कर देने से समस्याएँ हल हो सकती हैं? क्या हमेशा नकारात्मकता में जूझते रहने से समस्याओं का समाधान हो जाता है? लोगों को समझना चाहिए कि यदि वे गलती करते हैं या उनकी कोई समस्या है तो इसके समाधान के लिए उन्हें सत्य को खोजना चाहिए। उन्हें पहले चिंतन करके समझने की जरूरत है कि उन्होंने बुराई क्यों की, ऐसा करने के पीछे उनका इरादा और शुरुआती बिंदु क्या था, वे ऐसा क्यों करना चाहते थे और उनका लक्ष्य क्या था, और क्या ऐसा करने के लिए किसी ने उनका हौसला बढ़ाया, उन्हें उकसाया या गुमराह किया या उन्होंने ऐसा जानबूझकर किया। इन प्रश्नों पर विचार कर इन्हें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए और तब वे जान पाएँगे कि उन्होंने क्या गलतियाँ कीं और वे स्वयं क्या हैं। यदि तुम अपने बुरे कर्म का सार नहीं पहचान पाते या उससे कोई सबक नहीं सीख पाते तो फिर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। बहुत से लोग बुरी चीजें करते हैं और कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करते तो क्या ऐसे लोग सच में पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या उनके उद्धार की कोई आशा बची है? मानवजाति शैतान की संतान है और चाहे उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया हो या नहीं, उसका प्रकृति सार एक जैसा है। लोगों को आत्म-चिंतन कर स्वयं के बारे में और अधिक जानना चाहिए, स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि उन्होंने किस हद तक परमेश्वर से विद्रोह कर उसका विरोध किया है और क्या वे अभी भी सत्य को स्वीकार कर इसका अभ्यास कर सकते हैं। यदि वे इसे स्पष्ट रूप से देख लेंगे तो उन्हें पता चल जाएगा कि वे कितने खतरे में हैं। वास्तव में अपने प्रकृति सार के आधार पर सभी भ्रष्ट इंसान खतरे में हैं; उन्हें सत्य स्वीकार करने में बहुत ज्यादा प्रयत्न करना पड़ता है और यह उनके लिए आसान नहीं होता। कुछ लोगों ने बुराई की है और अपना प्रकृति सार प्रकट किया है, जबकि कुछ ने अभी तक बुराई नहीं की है, लेकिन जरूरी नहीं कि वे दूसरों से बेहतर हों—उनके पास बस ऐसा करने का अवसर और परिस्थिति नहीं थी। चूँकि तुमने ये अपराध किए हैं, तुम्हें अपने हृदय में स्पष्ट होना चाहिए कि तुम्हें अब क्या रवैया अपनाना है, परमेश्वर के समक्ष तुम्हें क्या हिसाब देना है और वह क्या देखना चाहता है। तुम्हें ये चीजें प्रार्थना और खोज के माध्यम से स्पष्ट करनी चाहिए; तब तुम जान पाओगे कि तुम्हें भविष्य में कैसे अनुसरण करना चाहिए और तब तुम अतीत में की गईं अपनी गलतियों से प्रभावित या बेबस नहीं होगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मेरा दिल काफी द्रवित हो गया। परमेश्वर केवल लोगों के पिछले अपराध नहीं देखता। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के सामने आता है, सत्य स्वीकार करता है, अपने कर्तव्यों को निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ करता है और वास्तविक कार्य-कलापों के माध्यम से पश्चात्ताप करता है, अगर परमेश्वर उस व्यक्ति में बदलाव देखता है, तो वह उसे उद्धार का मौका देगा। उदाहरण के लिए, पतरस को ही ले लें। जब प्रभु यीशु को पकड़ा गया, तो पतरस ने तीन बार उसे नकारा। उसे इसका बहुत पछतावा हुआ और उसके बाद उसने सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पित होने पर ध्यान केंद्रित किया। अंत में पतरस को परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटका दिया गया जो कि एक सुंदर गवाही थी। फिर दाऊद है। उसने उरीया की पत्नी को ले लिया और परमेश्वर से कठोर ताड़ना पाई। दाऊद को बहुत पछतावा था और उसने कभी अपराध नहीं दोहराया, यहाँ तक कि अपने अंतिम वर्षों में भी जब एक छोटी लड़की उसके साथ सोती थी। उसने अपना जीवन मंदिर बनाने की तैयारी में बिताया और वास्तविक कार्य-कलाप के जरिए परमेश्वर के प्रति पश्चात्ताप दिखाते हुए परमेश्वर की आराधना में इस्राएल के लोगों की अगुआई की। पतरस और दाऊद के अनुभवों पर आत्म-चिंतन करने से मुझे आगे का रास्ता मिला। मुझे अपने अपराध का सही तरीके से सामना करना था, अच्छी तरह से आत्म-चिंतन करना था, अपने अपराध दूर करने के लिए सत्य खोजना और परमेश्वर के सामने ईमानदारी से पश्चात्ताप करना था। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मैंने दो कारणों से बहन को धोखा देकर अपनी गवाही गँवा दी थी। सबसे पहले मैं स्नेह से अभिभूत हो गया था। जब पुलिस ने मुझे प्रताड़ित किया और मेरी जान को खतरा बताया, तो मैं अपनी माँ, बच्चों और पत्नी को नहीं छोड़ पाया था। मुझे डर था कि अगर मैं मर गया, तो वे यह आघात सहन नहीं कर पाएँगे, इसलिए मैंने परमेश्वर से विश्वासघात और बहन से धोखा किया, शर्मनाक यहूदा बना। वास्तव में मेरे परिवार का भाग्य परमेश्वर के हाथों में था। जीवन में उन्हें जो भी दुख या दर्द सहना था, वह परमेश्वर द्वारा पहले से ही तय था। भले ही मैं उनके साथ रहता, फिर भी उन्हें उस दुख का सामना करना पड़ता जो उन्हें झेलना था—यह ऐसी चीज थी जिसे मैं बिल्कुल नहीं बदल सकता था। लेकिन मैं इन चीजों की असलियत नहीं जान पाया, मैं अभी भी अपने स्नेह से बेबस था—यह वास्तव में मेरी मूर्खता थी। दूसरा कारण यह था कि मैं मृत्यु की असलियत नहीं जान पाया था—मुझे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं थी। जब मुझे बीस दिनों तक पुलिस ने प्रताड़ित किया था, तो मेरी शारीरिक सहन शक्ति जवाब दे गई थी। उस पल मुझे खासतौर पर मृत्यु से डर लगा और मैंने शैतान के साथ समझौता कर लिया। मुझे प्रभु यीशु के शिष्यों का खयाल आया, जिन्हें प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए पत्थरों से मारा गया, घोड़ों द्वारा घसीटा गया या सूली पर चढ़ाया गया था। उन्होंने धार्मिकता की खातिर उत्पीड़न सहा था। उनकी मृत्यु शैतान पर विजय पाने और उसे अपमानित करने की गवाही थी और उन्हें परमेश्वर ने याद रखा। प्रभु यीशु ने कहा : “जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा(मत्ती 16:25)। लेकिन मुझे जीवन का लालच था और मृत्यु से डर था और मैंने बहन को धोखा दिया और एक नीच जीवन से चिपका रहा। हालाँकि मैं अभी भी शारीरिक रूप से जीवित था, लेकिन हर दिन मैं मानसिक पीड़ा सहता था, एक चलती-फिरती लाश की जिंदगी जीता था। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि भले ही पुलिस मुझे मेरी आस्था के लिए अपंग कर दे या मार डाले, परमेश्वर इसकी प्रशंसा करेगा। इसे पहचान कर मैंने अपने दिल में संकल्प लिया कि अगर मुझे फिर से कभी बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़ा गया, भले ही इसका मतलब जीवन का बलिदान करना हो, मैं परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहूँगा और अपने पिछले अपराध में सुधार करूँगा।

कुछ ही समय बाद कलीसिया को फिर से बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा और कलीसिया ने मेरे लिए बाद का कार्य सँभालने की व्यवस्था की। विभिन्न कार्यों पर चर्चाओं के दौरान मैं सक्रिय रूप से भाग लेता था, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी क्षमता से पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करता था। अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में जब भी मेरे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा हुआ, मैंने उसे हल करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य की खोज की। मैंने अनुभवजन्य गवाही लेख लिखने का भी अभ्यास किया। मैंने अपने दिल में संकल्प लिया कि भले ही मेरे लिए भविष्य में कोई अच्छा परिणाम या गंतव्य न हो, मैं तब भी अपने कर्तव्य पूरे करने और ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करने का प्रयास करूँगा, ताकि परमेश्वर के दिल को थोड़ी सांत्वना मिले।

उन वर्षों में मैं हताशा की दशा में जी रहा था। भले ही मुझे पश्चात्ताप और आत्म-घृणा महसूस होती थी, मैंने अपनी समस्याएँ हल करने के लिए कभी भी सत्य नहीं खोजा था। इसका नतीजा यह हुआ था कि पिछले कुछ सालों में मेरी जिंदगी में कोई प्रगति नहीं हुई और मैंने सत्य हासिल करने के कई मौके गँवा दिए। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के जरिए मैंने परमेश्वर के साथ अपनी गलतफहमियों और रुकावटों को हटाया, अपने अपराध के बंधन और बेबसी से खुद को मुक्त किया, जिससे मैं अपने कर्तव्य निभाने और सामान्य रूप से सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हो पाया। मैं दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ।

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