46. मेरा अहंकारी स्वभाव कैसे बदला
अगस्त 2023 में मैंने और भाई झांग हांग ने कई कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए साझेदारी की। शुरुआत में जब भी काम में कोई समस्या होती थी तो मैं झांग हांग के साथ चर्चा करने और परामर्श करने की पहल करता था। झांग हांग को अपने कर्तव्यों में जिम्मेदारी का एहसास था और वह हमारे काम में मुद्दों और विचलनों पर चर्चा करने के लिए मेरे पास आता था। वह उन्हें सुलझाने के लिए रास्ते और समाधान भी सुझाता था और मैं उसके सुझाव स्वीकारने और अपनाने में सक्षम था। बाद में मैंने देखा कि झांग हांग में मुद्दे सुलझाने और पत्राचार के पत्र लिखने में कौशल की कमी है और मैंने मन ही मन सोचा, “झांग हांग अपने कर्तव्य में नया है, इसलिए उसमें कौशल की कमी होना सामान्य है। मुझे उसकी कमियों को सही तरीके से दूर करने और अधिक संगति के माध्यम से उसकी मदद करने की जरूरत है।” मैंने उसके पत्रों में संशोधन और सुधार करने में उसकी मदद की और अक्सर उसे प्रोत्साहित करता था।
लेकिन कुछ समय बाद मैंने देखा कि झांग हांग को अभी भी पत्राचार के पत्र लिखने में कुछ समस्याएँ हैं और अनजाने में मैंने उसे नीचा दिखाना और तिरस्कृत करना शुरू कर दिया। साथ ही, समस्याओं को लेकर मेरे कई समाधान और पत्रों के उत्तर अगुआई द्वारा स्वीकार किए जाते थे, सुसमाचार कार्य में मसले और विचलन धीरे-धीरे सुधरने लगे और हमारे काम में कुछ सकारात्मक नतीजे मिले। इससे मैं आत्म-मुग्धता की मनोदशा में जीने लगा और मुझे विश्वास होने लगा कि मुझमें कुछ कार्य क्षमताएँ हैं। धीरे-धीरे मैंने अपने कर्तव्यों में झांग हांग से सुझाव माँगने या खोजने पर ध्यान देना बंद कर दिया, सोचने लगा कि उससे पूछने पर कोई अच्छी सलाह नहीं मिलेगी और मैं वैसे भी अपने तरीके से काम करूँगा। उसके बाद मैंने उसे निर्देश देना शुरू कर दिया कि ऐसी-ऐसी समस्याओं को कैसे हल किया जाए और ऐसे-ऐसे पत्रों को कैसे सँभाला जाए, मैंने तिरस्कार से उसकी निंदा करते हुए कहा कि वह मुद्दों को बहुत संकीर्णता से देखता है और केवल सतही समाधान बताता है। समय के साथ झांग हांग मुझसे कुछ हद तक बेबस हो गया। मुझे एक बार की याद है, मैंने झांग हांग से पत्राचार का एक पत्र लिखने के लिए कहा और उसके साथ अपनी विचार प्रक्रिया साझा की कि इसे कैसे लिखा जाना चाहिए। बाद में मैंने पाया कि उसने इसे मेरे विचारों के अनुसार नहीं लिखा था और मुझे गुस्सा आ गया, मैं मन में सोचने लगा, “मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया था कि इस समस्या को कैसे सुलझाया जाए और मैंने जो विचार और योजनाएँ प्रस्तावित की हैं, वे अभ्यास के माध्यम से प्रभावी साबित हुई हैं। तुमने जो लिखा है, उससे समस्या का समाधान बिल्कुल नहीं होता!” इसलिए मैंने आरोप लगाने वाले लहजे में उससे पूछा, “तुमने इसे वैसे क्यों नहीं लिखा जैसा मैंने कहा था? तुमने इसे जिस तरह लिखा है, उससे समस्या का मूल ठीक नहीं होगा और इसका समाधान नहीं होगा।” झांग हांग ने जवाब दिया, “मैं इसे तुम्हारी विचार प्रक्रियाओं के अनुसार लिखना चाहता था, लेकिन मैंने कई बार कोशिश की और इसे अच्छी तरह से नहीं लिख सका, इसलिए मैंने इसे अपनी समझ के आधार पर लिख दिया।” मैं उसकी आलोचना करते जाना चाहता था, लेकिन मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैं गुस्से में बोल रहा हूँ, इसलिए मैं रुक गया। एक और बार, झांग हांग ने मुझे पत्राचार का एक पत्र दिया, जो उसने लिखा था। मुझे उसमें कुछ समस्याएँ नजर आईं और अनजाने में ही मेरे मन में उसके प्रति फिर से तिरस्कार पैदा हो गया। मैंने उसे फटकारते हुए कहा, “देखो, तुम इस मुद्दे को बहुत संकीर्णता से देख रहे हो! और इस हिस्से में तुम्हारी संगति मुद्दे पर नहीं पहुँचती और इससे समस्या का समाधान नहीं होगा!” मेरे यह कहने पर झांग हांग ने अपना सिर झुका लिया और एक शब्द भी नहीं बोला। झांग हांग की संतप्त अभिव्यक्ति देखकर मुझे अपराध-बोध की चुभन महसूस हुई, “मैं उसके प्रति इतना तिरस्कारपूर्ण और आलोचनात्मक कैसे हो सकता हूँ? मैं आगे से ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता।” लेकिन जब भी ऐसी परिस्थितियाँ सामने आईं, मैं फिर से खुद को उसे नीची नजरों से देखने से नहीं रोक पाया। आखिरकार झांग हांग अपने कर्तव्यों में काफी निष्क्रिय हो गया और जब भी उसे मुश्किलों या समस्याओं का सामना करना पड़ता तो वह सबसे पहले मुझसे पूछता कि उन्हें कैसे हल किया जाए। उसने खुद को कम काबिलियत वाला और कर्तव्य के लिए अक्षम बताकर खुद को सीमित कर लिया और वह इस्तीफा देना चाहता था। झांग हांग को इस मनोदशा में देखकर मुझे एहसास हुआ कि मैं ही वह व्यक्ति हूँ जिसने उसे बेबस किया है और नुकसान पहुँचाया है और तब मैंने आत्म-चिंतन करने के लिए सत्य की खोज की।
अपनी एक भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले : “मैं ऐसे कई लोगों को देखता हूँ जो अपने कर्तव्य में थोड़ी प्रतिभा क्या दिखा देते हैं, इसे अपने दिमाग पर हावी हो जाने देते हैं। अपनी कुछ योग्यताएँ दिखाकर वे सोचते हैं कि वे बहुत प्रभावशाली हैं, और फिर वे उन्हीं के सहारे जीवन गुजार देते हैं और उससे ज्यादा कोशिश नहीं करते। दूसरे चाहे जो भी कहें, वे उनकी बात यह सोचकर नहीं सुनते कि उनके पास जो छोटी-छोटी चीजें हैं, वे ही सत्य हैं और वे स्वयं सर्वोच्च हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। उनमें तर्क की बहुत कमी है। क्या अहंकारी स्वभाव होने पर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? यह तो और भी मुश्किल है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। “तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम लोग स्वयं को जानने के सत्य पर ज्यादा मेहनत करो। तुम लोगों को परमेश्वर का अनुग्रह क्यों नहीं मिला? तुम्हारा स्वभाव उसके लिए घिनौना क्यों है? तुम्हारा बोलना उसके अंदर जुगुप्सा क्यों उत्पन्न करता है? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखा देते हो, तुम अपनी तारीफ के गीत गाने लगते हो और अपने छोटे-से योगदान के लिए पुरस्कार माँगने लगते हो; जब तुम थोड़ा-सा समर्पण दिखा देते हो, तो दूसरों को नीची निगाह से देखने लगते हो; और कुछ छोटे-मोटे काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर की अवहेलना करने लगते हो। ... क्या तुम्हारे शब्दों और कार्यों में कुछ भी प्रशंसा-योग्य है? जो अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो नहीं निभाते; जो अगुआई करते हैं और जो अनुसरण करते हैं; जो परमेश्वर का स्वागत करते और जो नहीं करते; जो दान देते हैं और जो नहीं देते; जो उपदेश देते हैं और जो वचन ग्रहण करते हैं, इत्यादि : ऐसे सभी लोग अपनी तारीफ करते हैं। क्या तुम लोगों को यह हास्यास्पद नहीं लगता? यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर के साथ संगत नहीं हो सकते हो। यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम लोग बिल्कुल अयोग्य हो, तुम डींगें मारते रहते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि तुम्हारी समझ इस हद तक खराब हो गई है कि अब तुममें आत्म-नियंत्रण नहीं रहा?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक मनोदशा उजागर कर दी। मुझे लगता था कि मुझे मुद्दों की गहरी समझ है और मैंने स्पष्टता के साथ पत्राचार के पत्र लिखे हैं और मुझे अक्सर अगुआई से अनुमोदन मिलता है, जिससे अपनी नजरों में मैं बहुत ऊँचा उठ गया, इसलिए जब मैंने झांग हांग के पत्रों में कई समस्याएँ देखीं तो मुझे उसके प्रति गहरा तिरस्कार महसूस हुआ। जब उसने मेरी विचार प्रक्रियाओं के अनुसार पत्राचार के पत्र नहीं लिखे तो मैंने कारण नहीं पूछा, इसके बजाय बस उसकी आलोचना की और फटकारा, इस बात पर जोर दिया कि वह इसे मेरे तरीके से लिखे। क्योंकि मैं उसकी आलोचना करता रहा और उसे फटकारता रहा, वह मुझसे बेबस हो गया, अपनी राय व्यक्त करने से डरने लगा और अपने कर्तव्यों में निष्क्रिय हो गया। यहाँ तक कि उसने खुद को सीमित कर लिया कि उसमें इस कर्तव्य को निभाने के लिए काबिलियत की कमी है। सच यह था कि झांग हांग कई वर्षों से सुसमाचार का प्रचार कर रहा था, उसे जायजा लेने और मार्गदर्शन कार्य में कुछ अनुभव था, लेकिन क्योंकि वह मुझसे बेबस था, इसलिए उसकी मौजूदा खूबियों का उपयोग नहीं हो सका। मैंने देखा कि मेरे अहंकार ने मुझे पूरी तरह से विवेक रहित बना दिया है और मैं बस दूसरों को बेबस कर रहा हूँ और उन्हें नुकसान पहुँचा रहा हूँ। मैं किस तरह से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ? यह स्पष्ट कुकर्म है! मैंने कुछ साल पहले की बात सोची। जब मैं कलीसिया अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य कर रहा था और अपने काम से कुछ नतीजे मिलते देख रहा था तो मैं अपने सहकर्मियों को नीची नजरों से देखता था, हमेशा महसूस करता था कि मुझमें बेहतर काबिलियत है और मेरे विचार सबसे सही हैं। मुझे लगा कि चाहे मामला लोगों को चुनने या उनका उपयोग करने, काम की व्यवस्था करने या मामलों को सँभालने से जुड़ा हो, सभी को बस मेरी बात सुननी चाहिए। मैं किसी को भी अलग राय नहीं देने देता था और अगर कोई आपत्ति उठाता तो मैं बस उनके विचारों को खारिज कर देता और कभी-कभी मैं अधिकार के ओहदे से उन्हें फटकारता और आलोचना करता। इससे वे सभी मेरे कारण बेबस महसूस करने लगे। अपने अहंकार, आत्म-तुष्टता और मनमानी के कारण मैंने कलीसिया के कार्य में गंभीर रूप से गड़बड़ी और बाधा पैदा कर दी। मैंने देखा कि मैं एक बार फिर अपनी बुरी आदतों में पड़ गया हूँ और मैं कुछ हद तक नकारात्मक हो गया, सोचने लगा, “मैं अब यह कर्तव्य नहीं कर सकता। अगर मैं इसी तरह चलता रहा तो मैं अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार जीता रहूँगा। इससे न सिर्फ झांग हांग को नुकसान होगा, बल्कि कार्य में भी गड़बड़ी और बाधा पैदा होगी।” मैं नकारात्मकता और गलतफहमी में डूबा हुआ था और अपने कर्तव्यों में कुछ हद तक निष्क्रिय हो गया।
बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा गलत है, इसलिए मैंने सचेत रूप से परमेश्वर के इरादे की तलाश की। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “परमेश्वर इन चीजों की योजना क्यों बनाता है? तुम कौन हो यह उजागर करने या तुम्हें प्रकट करके हटा देने के लिए नहीं है; तुम्हें प्रकट करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारे प्रकृति-सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की दया है। तुम्हें इस अवसर का लाभ उठाना आना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ टकराना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे आसपास व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो या परमेश्वर के बारे में शिकायत मत करो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझाया कि जब परमेश्वर लोगों को बेनकाब करता है तो यह उन्हें निकालने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें बचाने के लिए होता है, ताकि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव जान सकें, सत्य का अनुसरण कर सकें और स्वभावगत परिवर्तन प्राप्त कर सकें। मैंने देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद दयनीय रूप से कितना छोटा है और जब मुझे बेनकाब किया गया तो मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए सक्रियता से सत्य की खोज नहीं की, बल्कि इसके बजाय नकारात्मक हो गया और भाग गया। यह किसी ऐसे व्यक्ति का व्यवहार नहीं था जो सत्य का अनुसरण करता है! इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया जा चुका हूँ। जब मेरा काम नतीजे देने लगता है तो मैं खुद को श्रेष्ठ समझता हूँ, अहंकारी और दंभी बन जाता हूँ, अपने साथी भाई का तिरस्कार करता हूँ, उसकी आलोचना करता हूँ, उसे बेबस करता हूँ और नुकसान पहुँचाता हूँ। परमेश्वर, मैं अपने अंहकारी स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहता। मुझे बचा लो, मेरी मदद करो कि मैं अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति की वास्तविक समझ पा सकूँ, ताकि मैं खुद से घृणा कर सकूँ और स्वभावगत परिवर्तन का अनुसरण कर सकूँ।”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो सीधे मेरी मनोदशा को संबोधित करता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसे परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह के व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे जो इतने घमंडी होते हैं कि अपना विवेक खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते, यहाँ तक कि अपनी ही बड़ाई कर गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिल्कुल भी भय नहीं होता। यदि लोग उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ उनके दिल में परमेश्वर के प्रति भय हो तो सबसे पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए उतना ही अधिक भय होगा और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे समझ आया कि लोग जब परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव किए बिना अपनी अहंकारी प्रकृति के अनुसार जीते हैं तो उनका स्वभाव नहीं बदलता और वे किसी भी क्षण बुराई करेंगे और परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। क्या मैं इसी तरह व्यवहार नहीं कर रहा था? मैं कुछ समस्याएँ सुलझाने में सक्षम था और मेरा लेखन कौशल दूसरों की तुलना में थोड़ा बेहतर था, इसलिए मैं खुद को श्रेष्ठ मानता था और हमेशा झांग हांग को नीची नजरों से देखता था। चाहे वह समस्याएँ सुलझाने का मामला हो या काम पर चर्चा करने का, मैंने शायद ही कभी झांग हांग की राय माँगी हो और जब मैंने ऐसा किया भी तो यह सिर्फ एक औपचारिकता थी। मैं हमेशा श्रेष्ठ होने का दिखावा करता था और उसे आदेश देता था। जब मैंने देखा कि झांग हांग ने पत्राचार पत्र लिखने के लिए मेरी विचार प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया, अपने दृष्टिकोण से वह जो व्यक्त करना चाहता था, उस पर विचार करने के बजाय या इस बारे में सोचने के बजाय कि उसने जो लिखा है उसमें उपयोग करने लायक कुछ है या नहीं या उसने जो लिखा है उसे बेहतर नतीजे पाने के लिए कैसे पूरक बनाया जाए और सुधारा जाए, मैंने बस उसके विचारों को सिरे से खारिज कर दिया, उसकी आलोचना की, उसे फटकारा और उसे मेरे कहे अनुसार पत्र लिखने के लिए मजबूर किया। मैंने अपने विचारों को मानक माना और झांग हांग को अपनी राय रखने की अनुमति नहीं दी। इस कारण वह मुझसे बेबस हो गया और पत्र लिखते समय वह अत्यधिक सतर्क हो गया, यहाँ तक कि खुद को कम काबिलियत वाले के रूप में सीमित करने लगा और वह इस्तीफा देना चाहता था। असल में पत्र लिखने में झांग हांग की विचार प्रक्रियाएँ कई बार मान्य थीं, लेकिन वह चीजों पर केवल आंशिक रूप से ही संगति करता था। मुझे इसमें सुधार करने के लिए उसके लिखे पर काम करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय मैंने उसके विचारों को सिरे से खारिज कर दिया और उसे अपने निर्देशों का पालन करने के लिए मजबूर किया। क्या मैं अपने विचारों को इस तरह से नहीं मान रहा था जैसे कि वे सत्य हों? मैंने देखा कि मेरी प्रकृति कितनी अहंकारी है। मैं “सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ” और “केवल मैं ही महान हूँ” के शैतानी जहर के अनुसार जी रहा था। चाहे वह झांग हांग की बात हो या उन भाई-बहनों की, जिनके साथ मैंने पहले साझेदारी की थी, मैंने बस उन्हें बेबस किया और नुकसान पहुँचाया, जिससे कलीसिया का कार्य भी अस्त-व्यस्त हो गया। अब मैंने देखा कि मैं कितना अहंकारी और दंभी हूँ, मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला या समर्पित होने वाला दिल जैसा कुछ भी नहीं था। मैं परमेश्वर के दुश्मन के रास्ते पर चल रहा था। मैंने अनुग्रह के युग में पौलुस के बारे में सोचा। उसके पास सुसमाचार का प्रचार करने में कुछ खूबियाँ और प्रतिभाएँ थीं और उसने धर्मांतरित लोगों को प्राप्त किया, कई कलीसियाओं की स्थापना की और कई पत्र लिखे। उसने इसे पूँजी के रूप में लिया और सभी को नीची नजरों से देखा। उसने यहाँ तक कहा कि वह किसी भी प्रेरित से कम नहीं है और वह अक्सर अन्य प्रेरितों को नीचा दिखाते हुए खुद की बड़ाई करता था। वह इतना अहंकारी हो गया कि उसने खुलेआम गवाही दी कि उसके लिए जीना ही मसीह है। इसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया, उसे परमेश्वर ने शापित और दंडित किया। क्या मैंने पौलुस की तरह ही व्यवहार नहीं किया था? इस एहसास ने मुझे भयभीत कर दिया। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया और स्वभाव में बदलाव का अनुसरण न किया तो मेरा परिणाम भी पौलुस जैसा ही होगा और मैं परमेश्वर द्वारा ठुकराया जाऊँगा और निकाल दिया जाऊँगा।
बाद में मैंने अपनी मनोदशा के बारे में झांग हांग से खुलकर बात की और उससे माफी माँगी और उसने भी अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर बताया। तब से मैंने धैर्यपूर्वक झांग हांग को समस्याएँ देखने और पत्र लिखने के तरीके के बारे में बताया और कभी-कभी जब उसे अच्छा लिखने में परेशानी होती तो मैं उसके मसौदे को बेहतर बनाने में मदद करता। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे अपने दिल में शांति और सुकून मिला। और अधिक आत्म-चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि मेरे अहंकार का एक और कारण यह था कि मैंने अपनी खूबियों और प्रतिभाओं को पूँजी की तरह देखा। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया, तो उसने विभिन्न प्रकार के लोगों को विभिन्न विशेषताएँ दीं। कुछ लोग साहित्य में अच्छे होते हैं, कुछ चिकित्सा में अच्छे, कुछ लोग कौशल सीखने में अच्छे होते हैं, कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान में, आदि-आदि। लोगों की विशेषताएँ उन्हें परमेश्वर द्वारा दी जाती हैं, और इसमें शेखी बघारने की कोई बात नहीं है। किसी के पास चाहे जैसी भी विशेषताएँ हों, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सत्य समझता है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है। लोगों में कुछ खास विशेषताएँ होती हैं, और यदि वे परेश्वर में विश्वास रखते हैं तो उन्हें इन विशेषताओं का उपयोग अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए करना चाहिए। यह परमेश्वर को स्वीकार्य होता है। किसी विशेषता के बारे में शेखी बघारना या परमेश्वर से सौदे करने के लिए इसका उपयोग करने की चाह रखना—यह विवेक का अत्यधिक अभाव दर्शाता है। परमेश्वर ऐसे लोगों पर कृपा नहीं करता है। कुछ लोग कोई विशेष कौशल जानते हैं, और इसलिए जब वे परमेश्वर के घर आते हैं तो उन्हें लगता है कि वे दूसरे लोगों से बेहतर हैं, वे विशेष व्यवहार का आनंद लेना चाहते हैं, और उन्हें लगता है कि उनके पास जीवन भर के लिए सुरक्षित नौकरी है। वे इस कौशल को एक प्रकार की पूँजी के रूप में लेते हैं—कैसा अहंकार है! तो तुम्हें इन गुणों और विशेषताओं को किस दृष्टि से देखना चाहिए? यदि ये चीजें परमेश्वर के घर में उपयोगी हों तो ये तुम्हारे लिए सिर्फ अपना कर्तव्य निभाने के औजार हैं। इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि चाहे हमारे पास कोई भी प्रतिभा क्यों न हो, चाहे हम गायन, नृत्य, लेखन या सुसमाचार प्रचार में अच्छे हों, ये सभी खूबियाँ और प्रतिभाएँ परमेश्वर द्वारा दी गई हैं। परमेश्वर हमें ये खूबियाँ और प्रतिभाएँ इसलिए देता है ताकि हम उनका उपयोग अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने के लिए कर सकें। उदाहरण के लिए, मेरे पास लेखन में कुछ कौशल हैं और मुझे अपनी क्षमताओं का उपयोग अपने साथी भाई-बहनों को कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से करने में मदद के लिए करना चाहिए था। लेकिन मैंने इन परमेश्वर-प्रदत्त खूबियों और प्रतिभाओं का इस्तेमाल पूँजी के रूप में किया। न केवल मैंने खुद की प्रशंसा की, बल्कि मैंने झांग हांग का लगातार तिरस्कार किया, उसे बेबस किया और उसे अपने विचारों का पालन करने के लिए मजबूर किया। मेरा स्वभाव अधिक से अधिक अहंकारी होता गया, मुझमें मानवता और विवेक की पूरी तरह से कमी थी। इस समय मुझे एहसास हुआ कि खूबियाँ और प्रतिभाएँ किसी व्यक्ति को अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में मदद करने के लिए उपकरण मात्र हैं। खूबियाँ और प्रतिभाएँ होने का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सत्य समझता है या स्वभावगत परिवर्तन प्राप्त कर चुका है और सत्य का अनुसरण किए बिना सिर्फ खूबियाँ होने पर वह अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर सकता, वह अभी भी बुराई करेगा और परमेश्वर का प्रतिरोध करेगा। मैंने परमेश्वर द्वारा मुझे दी गई खूबियों और प्रतिभाओं को पूँजी के रूप में माना, उन्हें अपने स्वयं के कौशलों और योग्यताओं की तरह देखा, अपनी पहचान या ओहदे को नहीं जाना। मैं वाकई बेशर्म था और परमेश्वर द्वारा घृणित था!
बाद में एक समय ऐसा आया जब हमें सिंचन कार्य में कुछ मुद्दे और विचलन मिले और हमें संगति के माध्यम से समाधान प्रदान करने के लिए एक पत्र लिखने की जरूरत थी। झांग हांग के साथ संगति करने के बाद मैंने उसे पहले पत्र का मसौदा तैयार करने के लिए कहा। जब उसने पत्र लिख दिया और मुझे दिखाया तो मैंने पाया कि कुछ विवरण अभी भी गायब हैं और मैं फिर से उसका तिरस्कार करने लगा। उसी पल मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अभिमानी स्वभाव प्रकट कर रहा हूँ। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमजोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी यह समझने में मदद की कि दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग पाने के लिए मुझे प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताओं और कमजोरियों से उचित तरीके से पेश आना चाहिए। जब मैं दूसरों की कमियाँ और कमजोरियाँ देखता हूँ तो मुझे उनका तिरस्कार या अपमान नहीं करना चाहिए, बल्कि हमारी क्षमताओं को एक दूसरे का पूरक बनने देना चाहिए। इस तरह हम अपने कर्तव्यों में अच्छे नतीजे प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग काबिलियत और प्रतिभाएँ दी हैं। झांग हांग पत्र-व्यवहार के लिए लिखने में अच्छा नहीं था, इसलिए मुझे उसकी कमियों से उचित तरीके से पेश आने की जरूरत थी और मैं अपनी क्षमताओं की तुलना उसकी कमजोरियों से नहीं कर सकता था। सच्चाई यह थी कि झांग हांग में अपनी क्षमताएँ थीं। वह कई वर्षों से सुसमाचार और सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार था, उसने बहुत अनुभव अर्जित किया था और अपने काम में नतीजे प्राप्त किए थे। फिर भी इन सबके बावजूद वह अहंकारी या आत्म-तुष्ट नहीं था और अभी भी वह उन मुद्दों पर मेरी मदद माँगता था, जिनकी वह पूरी तरह से असलियत नहीं जान पाता था। जब मैंने उसके काम में मुद्दों की ओर इशारा किया तो वह उन्हें स्वीकारने में भी सक्षम था। ये ऐसी क्षमताएँ हैं जो मेरे पास नहीं हैं और मुझे उससे सीखनी चाहिए। इसका एहसास होने पर मैं झांग हांग की कमजोरियों और कमियों को सही ढंग से देख पाया। इसके बाद मैंने पत्र को संशोधित किया और सुधारा। जब मैंने पत्र भेजा तो मुझे अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार जीने के बजाय खुद के खिलाफ विद्रोह करना बहुत अच्छा लगा, क्योंकि इससे मेरा दिल शांति और खुशी से भर जाता है और दूसरों को बेबस भी नहीं करता या नुकसान नहीं पहुँचाता है। ये सभी बदलाव जो मैंने हासिल किए हैं, वे सभी परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन का नतीजा हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!