45. जिम्मेदारी लेने के अपने डर पर चिंतन

ली झेन, चीन

अप्रैल 2022 में अगुआओं ने मुझे कलीसिया के सफाई कार्य में लगाने की व्यवस्था की। मैंने पहले कभी यह काम नहीं किया था और विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचानने के सिद्धांत नहीं समझ पाई थी, इसलिए मैं चिंतित थी, “क्या मैं यह कर सकती हूँ? क्या होगा अगर मैं गलती से किसी ऐसे व्यक्ति को शुद्ध कर दूँ जिसे शुद्ध नहीं किया जाना चाहिए? क्या मुझसे बहुत बड़ी बुराई नहीं हो जाएगी? यह एक गंभीर अपराध होगा!” लेकिन फिर मैंने सोचा कि मैं अपने कर्तव्य से बच नहीं सकती। मैं अकेली नहीं हूँ जो यह कर्तव्य कर रही हूँ; अन्य बहनें भी सहयोग कर रही हैं। अगर मुझे कुछ समझ नहीं आता है तो मैं उनसे सीख सकती हूँ, इसलिए मैंने यह कर्तव्य स्वीकार कर लिया। बाद में मुझे पता चला कि बहन सोंग पिंग कई साल से यह कर्तव्य कर रही है और उसे अलग-अलग तरह के लोगों का भेद पहचानने के सिद्धांतों की अच्छी समझ है। मैं उस पर बहुत निर्भर हो गई, सोचने लगी, “मैंने अभी तक सिद्धांत नहीं समझे हैं और मुझे नहीं पता कि यह काम कैसे करना है, इसलिए मैं सोंग पिंग का अनुसरण करूँगी और उसे अपना मार्गदर्शन करने दूँगी।” बाद में मैंने अलग-अलग तरह के लोगों का भेद पहचानने के सिद्धांतों से खुद को सुसज्जित करने का प्रयास किया और काम में सक्रियता से भाग लिया, इस उम्मीद में कि मैं सिद्धांत जल्दी से समझ पाऊँगी और काम का बोझ अपने कंधों पर उठा लूँगी। मुझे एहसास हुआ कि स्वच्छता कार्य दूसरे कार्यों से अलग है, क्योंकि छोटी सी भी गलती गंभीर हो सकती है और मुझे जवाबदेह ठहराया जा सकता है, इसलिए मैंने सोचा कि सावधान और सतर्क रहना सबसे अच्छा है। सफाई की सामग्री व्यवस्थित करते समय अगर मुझे कुछ जटिल या उसके चरित्र-चित्रण के बारे में विवाद वाली कोई चीज मिलती तो मैं तुरंत सोंग पिंग से पूछती और उसके द्वारा समीक्षा करने के बाद ही मैं इसे सँभालने में सहज होती। अपने काम में भी मैं सोंग पिंग पर निर्भर हो गई। मैं वही करती जो वह करने को कहती और जब भी संभव होता मैं पहल करने से परहेज करती। हमने एक साल तक इसी तरह सहयोग किया।

मई 2023 में अगुआओं ने लिखा कि उन्होंने सोंग पिंग को अन्य कामों की निगरानी करने के लिए नियुक्त करने की योजना बनाई है। यह खबर सुनकर मैंने सोचा, “सोंग पिंग का तबादला किया जा रहा है; मैं टीम में सबसे लंबे समय से इस भूमिका में हूँ, इसलिए मुझे काम को सँभालने में अगुवाई करनी होगी।” यह सोचकर मैं न चाहते हुए भी चिंतित हो गई, “हालाँकि मैंने प्रशिक्षण के इस वर्ष में लोगों का भेद पहचानने के कुछ सिद्धांत समझ लिए हैं, जब जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है तो मुझे अभी भी नहीं पता कि उन्हें कैसे सँभालना है और मुझे उनकी समीक्षा करने के लिए सोंग पिंग की मदद की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा इस पूरे समय के दौरान चाहे काम के विचलन का सारांश देना हो या लोगों को विकसित करना हो, ये कार्य मुख्य रूप से सोंग पिंग की जिम्मेदारी रहे हैं और जब काम में समस्याएँ आती हैं तो अगुआ भी सोंग पिंग से सलाह लेते हैं, अगर सोंग पिंग चली गई और मैं ये जिम्मेदारियाँ नहीं उठा पाई तो मैं क्या करूँगी? इसमें कई कलीसियाओं में स्वच्छता कार्य शामिल हैं, क्या होगा अगर काम में समस्याएँ या विचलन पैदा होते हैं, जो कलीसिया के सफाई कार्य में बाधा और गड़बड़ी डालते हैं? अगर ऐसा हुआ तो सीधे तौर पर मेरी जिम्मेदारी होगी और मुझे इसके अंजाम भुगतने होंगे। स्वच्छता कार्य दूसरे कामों से अलग है। अगर मैं कोई समस्या समझने में नाकाम रहती हूँ, कलीसिया में मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को छोड़ देती हूँ तो मैं उन्हें बचा रही होऊँगी और मैं उनकी बुराई में भागीदार बनूँगी। अगर मैं गलती से किसी ऐसे व्यक्ति को निकाल दूँ जिसे नहीं निकालना चाहिए, जिससे न्याय का हनन हो तो भी मुझसे बुराई हो जाएगी। दोनों ही मामलों में यह गंभीर अपराध होगा और अगर परमेश्वर का घर मुझे जवाबदेह ठहराता है और ज्यादा कुछ नहीं हुआ तो मुझे बरखास्त किया जा सकता है और अगर अंजाम गंभीर होते हैं तो मुझे निष्कासित भी किया जा सकता है।” यह सब सोचकर मेरा दिल बहुत भारी हो गया और दबाव बहुत ज्यादा था। लेकिन मैं सोंग पिंग को जाने से नहीं रोक सकी। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, सोंग पिंग के जाने के बारे में सोचते हुए मैं और अधिक चिंतित होती गई और मैं अपने कर्तव्य में अपना दिल शांत नहीं कर पाई। मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मेरी समस्याएँ जानने के लिए परमेश्वर को मेरा मार्गदर्शन करने को कहा।

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं लेना पड़ेगा, और यदि लेना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी सी छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार का प्रचार करते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी लेने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर ने मेरी असली मनोदशा उजागर कर दी। जब मुझे पता चला कि सोंग पिंग का तबादला हो जाएगा और मुझे यह काम अपने कंधों पर उठाना होगा, मेरा पहला विचार यह नहीं था कि यह काम करने के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहूँ, बल्कि मुझे यह ख्याल आया कि क्या परमेश्वर का घर मुझे जवाबदेह ठहराएगा और मेरे साथ निपटेगा और क्या मुझे तब भी उद्धार का मौका मिलेगा, क्या होगा अगर भविष्य के काम में कोई विचलन या समस्याएँ आती हैं। मैंने इस बात पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया कि भविष्य के काम को कैसे सँभालना है। एक स्वार्थी और घृणित व्यक्ति के रूप में, जो कुछ भी होने पर केवल अपने हित के बारे में सोचता है, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकती हूँ? मुझे याद है कि जब पहली बार मुझे यह कर्तव्य सौंपा गया था तो मैं गलतियाँ करने और जिम्मेदारी लेने से डरती थी और भले ही मैंने बाद में यह कर्तव्य स्वीकार लिया, फिर भी मैं जिम्मेदारी लेने से डरती रही, मैं अपने कर्तव्य में पहल करने और अपने कंधों पर बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं हुई और हर चीज के लिए सोंग पिंग पर निर्भर रही। जब ऐसी सामग्री का सामना करना पड़ता जिसका भेद पहचानना और निरूपण करना मुश्किल होता और जब कुछ ऐसे कार्य होते जिन्हें पूरा करने की जरूरत होती तो मैं सोंग पिंग को अगुआई करने और अंतिम निर्णय लेने देती और मैं अधीनस्थ बनकर संतुष्ट रहती। इस तरह अगर कोई विचलन या समस्या उत्पन्न होती तो मुझे मुख्य जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती या पीड़ा और कीमत नहीं चुकानी पड़ती और मेरे दोनों हाथों में लड्डू होते। इस कपटी, स्वार्थी और घृणित भ्रष्ट स्वभाव में जीते हुए मैंने एक वर्ष तक इस कर्तव्य का प्रशिक्षण लिया और कोई सार्थक प्रगति नहीं कर पाई और इस बिंदु तक भी मैं स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकती थी। क्या मैं खुद को नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? अब जब सोंग पिंग का तबादला हो रहा था और मुझे स्वतंत्र रूप से काम करने की जरूरत थी तो यह मेरे लिए प्रशिक्षण का परमेश्वर से मिला एक अवसर था, लेकिन मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाई या आभारी होना नहीं जानती थी। मैं लगातार अपने हितों के बारे में सोचती रही, बेचैन और चिंतित रही। क्या मैं खुद को यातना नहीं दे रही थी? सच तो यह है कि परमेश्वर के घर में हर काम में सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं और कोई भी कर्तव्य करने के लिए सत्य सिद्धांतों का पालन करने और जिम्मेदारी की भावना की जरूरत होती है। परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है और कलीसिया में विभिन्न प्रकार के लोग एक-एक करके बेनकाब हो रहे हैं। परमेश्वर भेद पहचानने के बारे में सत्यों की संगति करता रहा है ताकि हमें शैतान के सभी प्रकार के लोगों का भेद पहचानने में मदद मिले, ताकि हम कलीसिया से उन विभिन्न राक्षसों और शैतानों को शुद्ध करके दूर कर सकें जो परमेश्वर के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य का अनुसरण करने के लिए अच्छा परिवेश प्रदान कर सकें। अब जब मैं स्वच्छता कार्य कर रही हूँ तो मेरे पास अपने भाई-बहनों को सत्य खोजने और भेद पहचानने में प्रगति करने में अगुआई करने की जिम्मेदारी और दायित्व है, ताकि कलीसिया से उन लोगों को शुद्ध करके दूर किया जा सके, जिन्होंने बुराई की है और कलीसिया के काम में गड़बड़ी और बाधा पैदा की है। अगर मैं जिम्मेदारी लेने से डरती रही और अपना कार्य पूरा करने में नाकाम रही तो क्या मैं बेकार नहीं हो जाऊँगी? ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर कैसे बचा सकता है? इन बातों के बारे में सोचते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं अब इस गलत मनोदशा में नहीं जी सकती, वरना इससे भविष्य में अपने कर्तव्य करने की मेरी क्षमता प्रभावित होगी।

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। यदि लोग वह व्यक्त नहीं कर सकते, जो उन्हें सेवा के दौरान व्यक्त करना चाहिए या वह हासिल नहीं कर सकते, जो उनके लिए सहज रूप से संभव है, और इसके बजाय वे बेमन से काम करते हैं, तो उन्होंने अपना वह प्रयोजन खो दिया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। ऐसे लोग ‘औसत दर्जे के’ माने जाते हैं; वे बेकार का कचरा हैं। इस तरह के लोग उपयुक्त रूप से सृजित प्राणी कैसे कहे जा सकते हैं? क्या वे भ्रष्ट प्राणी नहीं हैं, जो बाहर से तो चमकते हैं, परंतु भीतर से सड़े हुए हैं? ... मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं : अपना कर्तव्य करने का आशीष पाने या दुर्भाग्य सहने से कोई लेना-देना नहीं है। सृष्टिकर्ता के समक्ष अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना एक सृजित प्राणी का स्वर्ग-प्रदत्त उद्यम और जिम्मेदारी है, इसमें कोई शर्त या पुरस्कार शामिल नहीं होने चाहिए। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत अधिक नहीं हैं। वह हमसे केवल अपना दिल और प्रयास लगाने के लिए कहता है और वही हासिल करने के लिए कहता है जो हम करने में सक्षम हैं। जहाँ तक हमारे कर्तव्यों के दौरान उत्पन्न होने वाले किसी भी विचलन, कमियों या खामियों का सवाल है, यह बिल्कुल सामान्य है। सत्य के बिना हम चीजें स्पष्टता से नहीं देख पाते और हम भ्रष्ट स्वभावों से भरे होते हैं, अक्सर शैतान के स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं, इसलिए हमारे कर्तव्यों में विचलन और गलतियाँ होना अपरिहार्य है। लेकिन जब तक हम सत्य का अनुसरण करते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए अपने कर्तव्यों के दौरान लगातार सत्य सिद्धांत खोजते हैं, हम धीरे-धीरे विचलन और अपराध कम कर सकते हैं और अपने कर्तव्यों में हमारा प्रदर्शन बेहतर और बेहतर होता जाएगा। परमेश्वर का घर लोगों से निपटने के लिए कभी भी छोटी-मोटी गलतियों या अपराधों को नहीं पकड़ता, बल्कि पश्चात्ताप के लिए अधिकतम अवसर प्रदान करता है। सिर्फ वे लोग जो लगातार बुराई करते हैं और जानबूझकर कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करते हैं, उन्हें कलीसिया से शुद्ध करके दूर किया जाना चाहिए और निकाल दिया जाना चाहिए। सच में कलीसिया की सफाई के इस क्षेत्र में मेरा सबसे गहरा अनुभव था। मैंने परमेश्वर के घर से निकाले गए मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के बारे में सोचा; किसी को भी सत्य सिद्धांत न समझने या अपने कर्तव्य करते समय होने वाली छोटी-मोटी विचलन या समस्याओं के कारण नहीं निकाला गया था। इसके बजाय उन्हें इसलिए निकाला गया क्योंकि उन्होंने लगातार बुराई की, व्यक्तिगत लाभ, प्रतिष्ठा या रुतबे के लिए जानबूझकर सिद्धांतों का उल्लंघन किया, परमेश्वर के कार्य में बुरी तरह से गड़बड़ी की और उसे नष्ट किया, सत्य स्वीकारने से इनकार किया और पश्चात्ताप नहीं किया। यह परमेश्वर के धार्मिक और पवित्र सार द्वारा निर्धारित किया गया था। मैंने बहुत सारे तथ्य देखे थे, लेकिन मैं अभी भी परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं जानती थी, परमेश्वर के घर को अविश्वासियों की दुनिया की तरह समझती थी, सोचती थी कि किसी भी छोटी-मोटी समस्या की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर आ जाएगी और मुझे बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा नहीं थी?

इसके बाद मैंने चीजों पर विचार किया और खोजा, “मैं हमेशा अपने हितों के बारे में क्यों सोचती हूँ और अपने कर्तव्यों में जिम्मेदारी लेने से क्यों डरती हूँ? किस तरह का शैतानी स्वभाव मुझे नियंत्रित कर रहा है?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि शैतानी जहर जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है” मेरे दिल में गहराई से समा चुके थे। मैं इन शैतानी जहरों के अनुसार जीती थी और मेरी प्रकृति बेहद स्वार्थी, घृणित, धूर्त और धोखेबाज थी। मैंने हमेशा अपने हितों पर पहले विचार किया, केवल वही किया जो मेरे लिए फायदेमंद हो और मैं ऐसा कुछ भी नहीं करती जो मेरे लिए फायदेमंद नहीं हो या जिसके लिए मुझे जिम्मेदारी उठानी पड़े। ठीक वैसे ही जैसे जब मैंने पहली बार स्वच्छता कार्य सँभाला था तो मैं विचलन पैदा करने और जिम्मेदारी उठाने से डरती थी क्योंकि मैंने सिद्धांत नहीं समझे थे, इसलिए मैंने बोझ उठाने से इनकार कर दिया, स्वेच्छा से सोंग पिंग के पीछे एक अधीनस्थ के रूप में चलती रही, सोचती रही कि अगर कोई समस्या या विचलन उत्पन्न हुआ तो मुख्य जिम्मेदारी मुझे नहीं उठानी पड़ेगी। अब जबकि सोंग पिंग को काम फिर से बदला जाना था, मुझे पहल करनी थी और इस बोझ को उठाना था क्योंकि मैं इतने लंबे समय से इस भूमिका में हूँ, लेकिन मुझे डर था कि काम में किसी भी विचलन के लिए मुझे जवाबदेह ठहराया जाएगा, इसलिए मैं बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं थी और भिन्न दमनकारी भावनाओं में डूबी हुई थी। मैं इन शैतानी जहरों के साथ जी रही थी, लगातार परमेश्वर के साथ चालें चलने की कोशिश कर रही थी। ऊपर से मैं चतुर लग रही थी, लगातार अपने हितों की रक्षा कर रही थी, लेकिन असल में मैं सच्ची मूर्ख थी, क्योंकि मैंने सत्य पाने के कई अवसर खो दिए थे और मेरे जीवन प्रवेश को बहुत नुकसान हुआ था। इसके बारे में सोचूँ तो क्या आज परमेश्वर में मेरी आस्था और उसका अनुसरण सत्य पाने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की आशा के लिए नहीं था? फिर भी अपने कर्तव्यों में मैं अपनी स्वार्थी, घृणित, धूर्त और धोखेबाज शैतानी प्रकृति के अनुसार जीती रही, कभी भी सत्य की खोज या अभ्यास नहीं किया और मैं परमेश्वर के साथ एक मन और एक दिल नहीं थी। मैं इस तरह से सत्य कैसे प्राप्त कर सकती हूँ और परमेश्वर द्वारा कैसे बचाई जा सकती हूँ? उसके बाद मैं इन शैतानी जहरों के अनुसार नहीं जी सकती थी। मुझे सत्य खोजना था, परमेश्वर के इरादों की तलाश करनी थी और उसकी जरूरतों के अनुसार अपने कर्तव्य करने थे।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिए तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाते हो या फिर सुझाते हो कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए। अगर तुम जानते और समझते हो कि क्या करना है, लेकिन तुम इसे करते नहीं हो, तो तुम अपने कर्तव्य में अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें निकाल देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि निष्ठावान मजदूर भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा अनमने और धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और वे सभी निकाल दिए जाएँगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं उसकी जरूरतें समझ गई। परमेश्वर आशा करता है कि हम उसके और अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार दिल से पेश आएँ, व्यक्तिगत हितों पर विचार किए बिना या अपने लिए योजनाएँ बनाए बिना वह सब करें, जो हम कर सकते हैं। इस तरह परमेश्वर संतुष्ट होगा। मैंने सोचा कि यह कर्तव्य करने वाली मैं अकेली नहीं हूँ, क्योंकि मेरे साथ सहयोग करने वाली नई बहनें और अगुआ भी हैं और अगर मैं उनके साथ ज्यादा चर्चा करूँ और अपने तरीके पर जोर दिए बिना सिद्धांतों की तलाश करूँ तो मैं समस्याओं और विचलनों से भी बच सकती हूँ। इसका एहसास होने पर मुझे अब कोई चिंता नहीं थी और मैं कार्य का बोझ अपने कंधों पर उठाने और अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छे से पूरी करने के लिए तैयार हो गई। सोंग पिंग के जाने के बाद मैंने नई बहनों को विकसित करने की पहल की और सामग्री व्यवस्थित करते समय मैंने बहनों के साथ अस्पष्ट मुद्दों पर चर्चा की, जिससे मुझे चीजों को और अधिक सटीकता से देखने, कुछ विचलनों और समस्याओं से बचने में मदद मिली। इसके तुरंत बाद उच्च अगुआओं ने एक पत्र भेजा जिसमें इस बात की जाँच करने का अनुरोध किया गया कि क्या कलीसिया में कोई झूठे अगुआ या मसीह-विरोधी हैं, हमें इस कार्य को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक कलीसिया को पत्र लिखने के लिए कहा। मुझे थोड़ी घबराहट हुई, मुझे चिंता हुई कि अगर मैंने पत्र में चीजों को स्पष्टता से व्यक्त नहीं किया और सिद्धांतों पर स्पष्ट संगति नहीं की, भाई-बहनों को भटका दिया, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा की तो मुझे निश्चित रूप से जवाबदेह ठहराया जाएगा। क्या वे मुझे तब बरखास्त कर देंगे? इसी समय मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने हितों के बारे में सोच रही हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, खुद के खिलाफ विद्रोह करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार नहीं जीने की इच्छा जताई। फिर मैंने नई बहनों के साथ संवाद किया, कार्य के विभिन्न पहलुओं को नोट किया जिन्हें क्रियान्वित करने की जरूरत थी और फिर मैंने पत्र लिखना शुरू किया। इसे पूरा करने के बाद हमने इसे अगुआओं के सुझावों के आधार पर संशोधित और परिपूर्ण किया और फिर हमने इसे भेज दिया। इस अवधि के दौरान मैंने लगातार कलीसिया द्वारा इस कार्य के क्रियान्वयन की स्थिति का जायजा लिया और जैसे ही मुझे किसी समस्या या विचलन का पता चला, मैंने तुरंत भाई-बहनों से संवाद किया, आखिरकार कुछ झूठे अगुआओं की पहचान की जो वास्तविक कार्य नहीं करते थे, कुछ जो लगातार बुराई करते थे, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करते थे और हमने फेरबदल की और उनसे निपटे।

इससे गुजरने के बाद मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश कितना अच्छा है। इस परिवेश के बिना मुझे अपनी समस्याओं के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं चलता और मैं अभी भी अपने स्वार्थी और घृणित शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही होती, सिर्फ एक अधीनस्थ होने से संतुष्ट रहती और कोई वास्तविक प्रगति नहीं कर पाती। अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया अब कुछ हद तक बदल गया है और यह सब परमेश्वर के वचनों का नतीजा है!

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23. गंभीर खतरे में होना

जांगहुई, चीन2005 में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के कुछ ही दिनों बाद, मैंने अपनी पुरानी कलीसिया के एक...

40. एक अलग प्रकार का उद्धार

हुआंग ली, चीनमैं करिश्माई ईसाई धर्म की एक साधारण विश्वासी हुआ करती थी। जब से मैंने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया, तब से मैंने हर एक सेवा...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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