47. बीमारी ने मेरी आशीष पाने की मंशा प्रकट कर दी

याओ यूशुआन, चीन

सितंबर 1999 में मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मैं समझ गई कि परमेश्वर के कार्य का यह चरण लोगों को शुद्ध और पूर्ण बनाने और आखिरकार लोगों को परमेश्वर के राज्य में लाने के लिए किया जाता है। मैं बहुत खुश थी। मैंने सोचा, “मुझे पूरी मेहनत से प्रयास करना चाहिए, सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए और अधिक अच्छे कर्म संचित करने चाहिए ताकि मैं बचाई जा सकूँ।” बाद में मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया। चाहे बारिश हो या धूप या फिर बड़ा लाल अजगर पीछा कर रहा हो और सता रहा हो, मैंने अपना कर्तव्य निभाना कभी नहीं छोड़ा। एक दिन मैं मेडिकल जाँच के लिए गई तो पता चला कि मुझे हेपेटाइटिस बी हो गया है। डॉक्टर ने कहा कि हेपेटाइटिस बी वायरस जीवन भर रहता है और इसका कोई इलाज नहीं है। उस समय तो मुझे डर नहीं लगा और मैं प्रतिदिन अपने कर्तव्य में व्यस्त रहती। अप्रत्याशित रूप से छह महीने बाद एक अन्य जाँच के दौरान मेरे शरीर में वायरस नहीं निकला। मेरा लिवर भी ठीक कार्य कर रहा था। अपनी बीमारी को चमत्कारिक ढंग से ठीक होते देख मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी महसूस कर रही थी, मैं अपने कर्तव्य के प्रति और भी अधिक उत्साही हो गई।

2019 में बीस साल बाद मुझे कमजोरी, चक्कर आना और पीठ के निचले हिस्से में दर्द महसूस होने लगा, इसलिए मैं जाँच के लिए अस्पताल गई। डॉक्टर ने गंभीर स्वर में कहा, “आपका रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ है। सिस्टॉलिक दबाव 190 एमएमएचजी से अधिक है और डायस्टॉलिक दबाव 110 एमएमएचजी है। यह बहुत खतरनाक है, यानी अचानक आपकी जान भी जा सकती है। अगर ऐसा न भी हो तो दौरा पड़ सकता है और लकवा मार सकता है।” इससे मैं सचमुच डर गई। लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैं डॉक्टरों की बातों पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकती। आखिर मैं कई वर्षों से अपने परिवार और करियर का त्याग कर सुसमाचार का प्रचार कर रही हूँ और अपनी आस्था में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मुझे विश्वास है परमेश्वर मुझ पर नजर रखेगा और मेरी रक्षा करेगा। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाती रहूँगी तो शायद किसी दिन मेरी बीमारी ठीक हो जाए।” उस समय मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जी रही थी। मैंने न तो कभी रक्तचाप की दवा ली और न ही यह खोजा कि अपनी बीमारी को किस ढंग से लूँ। इसके बजाय मैं निरंतर अपने कर्तव्य निर्वहन में जुटी रही। उस समय मैं पाठ आधारित कर्तव्य निभा रही थी। दिन में मैं भाई-बहनों के साथ संगति करके उनके कर्तव्यों से संबंधित मसलों का समाधान करती और शाम को धर्मोपदेश जाँचती और पत्रों का जवाब देती। कुछ समय बाद कार्य में कुछ प्रगति दिखने लगी। लेकिन मेरा उच्च रक्तचाप कम नहीं हुआ, हर दिन मुझे चक्कर आते और भारीपन महसूस होता, मानो मैंने स्टील का हेलमेट पहन रखा हो।

एक दिन मैंने बहन वांग लान को यह कहते हुए सुना कि उसकी माँ की मौत उच्च रक्तचाप से हुई थी। उसकी माँ जब पड़ोसी से मिलने गई थी तो अच्छी-खासी थी, लेकिन घर लौटी तो अचानक चक्कर आने लगे और उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने कहा उच्च रक्तचाप के कारण मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ है और सारे प्रयासों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। फिर मैंने मेजबान बहन को यह कहते सुना कि उसकी पड़ोसन को भी उच्च रक्तचाप के कारण मस्तिष्क रक्तस्राव हुआ था, वह गिर गई थी, उसे लकवा मार गया और दो हफ्तों के अंदर ही उसकी भी मौत हो गई। उन दिनों मैं बहुत चिंतित रहने लगी थी, मेरी सारी चिंताएँ, सरोकार और बेचैनी दिखने लगी थी। मैंने सोचा, “मेरा रक्तचाप अभी भी बहुत अधिक है और कम नहीं हो रहा। क्या एक दिन मेरे दिमाग की नसें भी फट जाएँगी और मैं भी अचानक मर जाऊँगी? क्या मैं लकवाग्रस्त हो जाऊँगी? अगर मैं बिस्तर पर पड़ गई तो अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँगी? अगर मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँ तो क्या मैं फिर भी बचाई जा सकती हूँ?” मैंने डॉक्टर की कही बात के बारे में सोचा, उच्च रक्तचाप वाले लोगों को देर तक नहीं जागना चाहिए या बहुत अधिक तनाव में नहीं रहना चाहिए, इसलिए मुझे लगा कि मुझे अपने कर्तव्य में अधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए, अगर मैं बहुत अधिक तनाव में आ गई और मेरा रक्तचाप बढ़ गया जिससे मस्तिष्क में रक्तस्राव हो गया तो मेरी अचानक मौत हो सकती है और फिर बचाए जाने का मेरे पास कोई अवसर नहीं होगा। मुझे लगा कि मुझे अपने स्वास्थ्य का अच्छे से ख्याल रखना चाहिए और यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। उसके बाद जब भी मैं उच्च रक्तचाप के उपचारों के बारे में सुनती तो उन्हें तुरंत आजमाती। अब मुझे अपने कर्तव्य के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं रहा था, हालाँकि कुछ धर्मोपदेशों की समीक्षा की आवश्यकता थी, फिर भी मैं कोई जल्दबाजी नहीं करती थी। मैं यह भी नहीं पूछती थी कि भाई-बहनों को धर्मोपदेश लिखने में कोई कठिनाई तो नहीं आ रही है। अगर शाम को मुझे थकान नहीं भी महसूस होती तो भी मैं जल्दी सो जाती। मैं तनावमुक्त और शांत रहने का भरसक प्रयास करती और अपने कर्तव्य में निष्क्रिय हो गई। नतीजतन कार्य से कोई नतीजे नहीं निकल रहे थे। बाद में दवाओं से मेरा रक्तचाप सामान्य हो गया।

फिर 2021 में एक दिन अगुआ ने मुझे मिलने बुलाया। उसने कहा कि भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया अगुआ बनने के लिए नामित किया है। मैंने सोचा, “मेरी उम्र भी बढ़ रही है और मेरा रक्तचाप भी। मेरे मस्तिष्क का रक्त-प्रवाह ठीक नहीं रहता, इसलिए मुझे अधिक आराम की आवश्यकता है। एक अगुआ का कर्तव्य निभाने का मतलब है हर दिन कई कार्य संभालना, साथ ही भारी कार्यभार और कई चिंताएँ भी होंगी। अगर थकान से बीमार पड़ गई तो? अगर मेरा रक्तचाप फिर से बढ़ गया और मुझे मस्तिष्क रक्तस्राव हो गया तो अचानक मेरी जान जा सकती है और उद्धार से वंचित हो सकती हूँ।” इसलिए मैंने अगुआ से कहा कि मुझे उच्च रक्तचाप रहता है, मैं अगुआ बनने योग्य नहीं हूँ। अगुआ ने मुझे अस्पताल में जाँच कराने को कहा। जाँच के नतीजों से पता चला कि मेरा रक्तचाप थोड़ा बढ़ा हुआ है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। मैंने सोचा, “मेरा रक्तचाप अभी तो ठीक है, लेकिन अगुआ होने के नाते बहुत सारा कार्य और तनाव शामिल हो जाएगा। अगर मैं बीमार पड़ गई तो? लेकिन स्वीकार लेना ही बेहतर होगा, क्योंकि मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखती आई हूँ और अब कलीसिया को भी सचमुच ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो कार्य में सहयोग करें। अपना कर्तव्य नकारने पर मुझे ग्लानि होगी।” इसलिए मैंने कर्तव्य स्वीकार लिया।

एक बार मैं एक सभा में खिड़की के सामने बैठी थी। उस दिन बहुत गर्मी थी, मैं थोड़ी सी खिड़की खोलकर हवा में बैठ गई। अगुआ ने मेरी मनोदशा के बारे में पूछा, लेकिन जैसे ही बात करने के लिए मैंने मुँह खोला, मेरा मुँह खुला ही नहीं। मैं यह सोचकर बहुत घबरा गई, “डॉक्टर ने कहा नहीं था कि उच्च रक्तचाप से लकवा हो सकता है? क्या यही इसका संकेत है? क्या मैं वाकई लकवाग्रस्त हो जाऊँगी? मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया है तो फिर परमेश्वर ने मेरी निगरानी और सुरक्षा क्यों नहीं की? परमेश्वर का कार्य तो लगभग पूरा हो गया है, अगर मैं अब लकवाग्रस्त होकर कोई भी कर्तव्य करने में असमर्थ हो गई तो फिर बचाई कैसे जाऊँगी और राज्य में प्रवेश कैसे करूँगी?” उस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरी सोच गलत है, मैंने तुरंत मौन प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे लगता है मेरा मुँह काम नहीं कर रहा है जो लकवा मारने की निशानी हो सकती है। हे परमेश्वर, मेरे दिल की रक्षा करो। अगर मैं लकवाग्रस्त हो भी गई तो भी मैं शिकायत नहीं करूँगी। मैं तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ।” प्रार्थना के बाद मैंने खिड़की बंद कर दी, कुछ देर बाद मुझे थोड़ा बेहतर महसूस होने लगा।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं। बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, ‘ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने अच्छे कर्म किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?’ ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?’ जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने मेरी मनोदशा को साफ उजागर कर दिया। जब मैंने पहली बार परमेश्वर को पाया तो बताया गया कि मुझे हेपेटाइटिस बी हुआ है। डॉक्टर ने कहा कि यह लाइलाज है, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी बीमारी छह महीने बाद बिना किसी इलाज के ठीक हो गई, इसलिए अपने कर्तव्य के प्रति मेरा उत्साह और अधिक बढ़ गया। बाद में पता चला कि मुझे गंभीर उच्च रक्तचाप है, मैंने सोचा, “अगर मैं अपने कर्तव्यों का पालन करती रहूँ, अधिक कष्ट सहती रहूँ और अधिक कीमत चुकाती रहूँ तो परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे स्वस्थ करेगा।” इसलिए आँधी-तूफान हो या गर्मी हो, बरसात हो, मैंने कभी भी अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं रोका। जब मैंने देखा कि मेरा रक्तचाप ज्यादा बना हुआ है तो मुझे चिंता होने लगी कि अपने कर्तव्यों का अत्यधिक निर्वहन करने से मेरी हालत और खराब हो सकती है और अचानक मेरी मौत हो सकती है, इसलिए मैंने अपने शरीर पर ध्यान देना शुरू कर दिया और जब भी मैं उच्च रक्तचाप के लिए किसी उपाय के बारे में सुनती तो उसे आजमाने का कोई न कोई तरीका ढूँढ़ लेती। मेरी बीमारी मेरे दिल को खा रही थी। हालाँकि मैंने अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा, लेकिन मैं पहले की तरह सक्रिय नहीं थी। मुझे धर्मोपदेशों के लंबित कार्यों को व्यवस्थित करने की कोई जल्दी नहीं थी और मैं कार्य में आने वाले मसलों पर भी तुरंत ध्यान नहीं दे रही थी। मैं अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन हो गई, जब भी मौका मिलता चीजों को टालने लगी और परिणामस्वरूप कार्य का कोई नतीजा नहीं निकल रहा था। जब मुझे इस बीमारी का सामना करना पड़ा तो मैंने परमेश्वर के इरादे की खोज नहीं की और न ही उसकी ओर से इसे स्वीकार किया, मुझे वाकई यह विश्वास नहीं था कि इंसान का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। मैं हमेशा अपने भविष्य और भाग्य के बारे में सोचती रहती थी, परेशानी और चिंता में जीते हुए मुक्ति का अनुभव नहीं कर पा रही थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर ही बीमारी का एहसास करो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको और अपनी गवाही में अडिग रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि जब हम पर बीमारी आती है तो परमेश्वर का इरादा यह नहीं होता कि हम इस बीमारी के कारण चिंता, दुख या व्याकुलता में डूबे रहें, बल्कि उसका इरादा यह होता है कि हम उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पित हो जाएँ, बीमारी से सबक सीखें, अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों पर चिंतन करें और उन्हें जानें, सत्य का अनुसरण करें और अपनी भ्रष्टता दूर करें। मुझे एहसास हुआ कि जब बीमार हुई तो मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाई थी और केवल यही सोचती रहती थी कि इस बीमारी से निजात कैसे पाऊँ। जब मैंने सुना कि कुछ लोग उच्च रक्तचाप के कारण मरे हैं तो मैं योजना बनाने और अपने बारे में चिंता करने लगी। अपना कर्तव्य निभाते समय मैं खुद को शारीरिक रूप से थकाना नहीं चाहती थी और मुझे धर्मोपदेशों के लंबित कार्य को निपटाने की कोई जल्दी भी महसूस नहीं होती थी। मैं लगातार अपने शरीर के बारे में सोच रही थी और योजना बना रही थी। मैंने परमेश्वर को भी गलत समझ लिया था और उसके खिलाफ शिकायत की थी। मैं कैसे दावा कर सकती हूँ कि मैं सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और उसके प्रति समर्पित हूँ? परमेश्वर ने इस बीमारी का उपयोग आशीष पाने के मेरे दूषित इरादों को प्रकट करने के लिए किया था। यह सब मुझे समय रहते आत्मचिंतन और पश्चात्ताप करने और आखिरकार उसके प्रति समर्पित होने में सहायता करने के लिए था। अब मुझे एहसास हुआ कि यह बीमारी परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है!

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा विश्वास होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने के उनके संकल्प के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है। जब लोग दूसरों का मूल्यांकन करते हैं और उनके साथ पेश आते हैं तो वे कौन हैं इसका निर्धारण केवल उनके बाहरी व्यवहार के आधार पर, वे कितना कष्ट सहते हैं और वे क्या कीमत चुकाते हैं, इन बातों के आधार पर ही करते हैं और यह बहुत बड़ी गलती है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी अक्सर परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के साधन के रूप में अपने कर्तव्यों में त्याग करते हैं और खुद को खपाते हैं, बदले में आशीष पाने का प्रयास करते हैं। किसका अनुसरण करना चाहिए, इस विषय पर मेरे विचार उन मसीह-विरोधियों के समान ही थे। मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी का प्रयास करने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो जब मैंने पहली बार परमेश्वर को पाया तो मैं अपनी शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने, बीमारी और आपदा से बचने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी ताकि अंत में बचाई जाऊँ और राज्य में प्रवेश कर पाऊँ। जब पता चला कि मुझे हेपेटाइटिस बी है और बिना उपचार के ही मेरी हालत में सुधार हो गया है तो अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा उत्साह बढ़ गया और हर दिन मेहनत करके भी मुझे थकान महसूस नहीं होती थी। बाद में जब पता चला कि मुझे उच्च रक्तचाप है तो मुझे चिंता हुई कि मेरी हालत और खराब हो जाएगी और लकवा मार जाएगा, इसलिए अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा उत्साह कम हो गया। जब मेरा रक्तचाप कम नहीं हुआ तो मैं परमेश्वर को गलत समझने लगी और उसके खिलाफ शिकायत करने लगी। मैंने सोचा कि इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्यों की खातिर अपने परिवार और करियर को त्यागने के बाद परमेश्वर को मुझे बीमारी और आपदा से सुरक्षित और मुक्त रखना चाहिए। फिर भी अप्रत्याशित रूप से मैं बीमार हो गई, मैं परमेश्वर से तर्क करने और उसका प्रतिरोध करने लगी, मैं एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य निर्वहन की इच्छा भी गँवा बैठी थी। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “मैंने पूरे समय मनुष्य के लिए बहुत कठोर मानक रखा है। अगर तुम्हारी वफादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहना चाहूँगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, वह ऐसे लोगों से घृणा करता है जो गुप्त इरादों से अपना कर्तव्य निभाते हैं। लेकिन मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के गुप्त इरादे से किया था। मैंने केवल अपनी देह पर ही विचार किया था, मुझे डर रहता था अगर मैंने खुद को थकाया तो मेरी हालत और खराब हो जाएगी, मैं मर जाऊँगी और आशीष पाने का मौका गँवा बैठूँगी। मैं सचमुच स्वार्थी थी! मुझे पौलुस का ख्याल आया जिसने प्रभु के लिए कार्य कर खुद को खपाया और कष्ट सहे। उसने परमेश्वर से पुरस्कार और धार्मिकता का मुकुट पाने के लिए इसका उपयोग पूँजी के रूप में किया। उसने बेशर्मी से यहाँ तक कहा : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस मुख्यतः आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखता था और उसी के लिए कार्य करता था, परमेश्वर का विरोध करने वाले मार्ग पर चला और आखिरकार उसे परमेश्वर द्वारा दंडित किया गया। इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मुझे उसके बारे में बहुत कम समझ थी। परमेश्वर के लिए मेरे खपने और त्याग का उद्देश्य भी उससे अनुग्रह और आशीष माँगना था। क्या मैं भी उसी मार्ग पर नहीं चल रही थी जिस पर पौलुस चला था? अगर मैंने खुद को नहीं बदला तो परमेश्वर तुच्छ समझकर मुझसे घृणा करेगा।

मैं विचार करने लगी, “मैं हमेशा यह मानती आई हूँ कि चूँकि मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग दिया है, तो परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए। क्या मेरा चीजों को इस तरह से देखना सही है?” फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि आशीष पाने या दुख झेलने से इंसान के कर्तव्य निर्वहन का कोई संबंध नहीं है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है और हर इंसान का दायित्व है। किसी को भी अपने कर्तव्य का उपयोग परमेश्वर के साथ सौदेबाजी या मोल-तोल करने के लिए नहीं करना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे जब बच्चे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करते हैं, अगर वे ऐसा सिर्फ अपने माता-पिता से विरासत प्राप्त करने के लिए कर रहे हैं तो यह संतानोचित व्यवहार नहीं है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना बच्चे की जिम्मेदारी और दायित्व है, बच्चों को इस मामले में अपने माता-पिता से सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए। मुझे लगता था चूँकि मैंने अपने कर्तव्य में इतना जी-जान लगाया है तो परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए, मेरे बीमार पड़ने पर मुझे ठीक करना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखकर और इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर, अपने मकसद हासिल करने के लिए मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी और चालबाजी करने की कोशिश कर रही थी, परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रही थी। मेरे जैसा स्वार्थी और नीच व्यक्ति परमेश्वर से आशीष पाने और उसके राज्य में प्रवेश पाने की आशा कैसे कर सकता है? क्या मैं बस सपना नहीं देख रही थी? मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मेरे परिणाम में आशीष शामिल हो या आपदा, मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। यही एक विवेकशील व्यक्ति का व्यवहार है। इन बातों का एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे लिए ऐसी परिस्थितियों का आयोजन करने और अपने वचनों से मुझे अपनी आस्था में निहित मिलावटी इरादों को समझने की खातिर मार्गदर्शन देने का धन्यवाद। मैं अब आशीष पाने के लिए अपने इरादे छोड़ने को तैयार हूँ, चाहे मेरी बीमारी कितनी भी बढ़ जाए, जब तक मेरी एक भी साँस बाकी है, मैं अपने कर्तव्य पर अडिग रहूँगी और तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। ... अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? ‘मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।’ मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि लोगों को अपनी बीमारियों के बारे में चिंतित या परेशान नहीं होना चाहिए। बीमारी का बिगड़ना या मृत्यु का कारण बनना व्यक्ति पर निर्भर नहीं करता, न ही मानवीय सरोकार से इसका समाधान किया जा सकता है। किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में होता है। परमेश्‍वर ने यह निर्धारित कर रखा है कि कोई व्यक्ति कब और किस उम्र में मरेगा। जब समय आता है तो व्यक्ति को डर लगे या न लगे, उसे मरना ही पड़ता है। लेकिन अगर समय अभी नहीं आया है तो वह चाहकर भी नहीं मर सकता। मुझे अपने पड़ोसी की एक लड़की का ख्याल आया जो केवल अठारह-उन्नीस वर्ष की थी। उसे बस बुखार था, वह इंजेक्शन लगवाने के लिए अस्पताल गई और घर लौटने के एक दिन बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। मैं अस्सी साल की एक ऐसी बुजुर्ग महिला को भी जानती थी जो एक बार गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। उसके लिए ताबूत पहले से ही तैयार कर दिया गया था और उसे दफनाने के कपड़े भी पहना दिए गए थे, फिर भी वह नहीं मरी। इन तथ्यों से मैंने देखा कि व्यक्ति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर द्वारा निर्धारित होता है, किसी बीमारी या उसकी गंभीरता से इनका कोई संबंध नहीं है। मेरी बीमारी ठीक होगी या मैं मर जाऊँगी, इन्हें मैं नियंत्रित नहीं कर सकती थी। जब मेरे मरने का समय आएगा तो भले ही मैं कष्ट में न होऊँ या खुद को न थकाऊँ, फिर भी मुझे मरना ही होगा और अगर समय नहीं आया है तो मैं नहीं मरूँगी चाहे मैं कितनी भी मशक्कत करूँ। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अच्छे से अपना कर्तव्य निर्वहन करना था।

2023 के अंत में अगुआओं ने मेरे लिए एक अन्य कलीसिया में अधिक जिम्मेदारी संभालने की व्यवस्था की। उस समय मेरा रक्तचाप काफी सामान्य था, लेकिन देर रात तक जागने पर थोड़ा बढ़ जाता था और थोड़ा आराम करने पर मैं फिर से ठीक हो जाती थी। इस कलीसिया में आने पर मैं यह देखकर चिंतित थी कि किसी भी कार्य का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है और अगर मैं देर रात तक कार्य करती तो मुझे चक्कर आने लगते और मेरा रक्तचाप बढ़ जाता। मेरे दाहिने पैर में बहुत दर्द होने लगता था और कभी-कभी तो रात को दर्द के कारण मैं सो भी नहीं पाती थी। मुझे डॉक्टर की कही बात याद आती कि अनियंत्रित उच्च रक्तचाप से दिल का दौरा पड़ सकता है, शरीर में सुन्नता, दर्द, यहाँ तक कि लकवा भी मार सकता है। मैं यह सोचकर बेचैन होती रहती, “मेरे पैर का यह दर्द कहीं आसन्न लकवे का संकेत तो नहीं है? अगर मुझे लकवा मार गया तो मैं अपना कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभा पाऊँगी और फिर मैं किस काम की रह जाऊँगी?” मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो रही हूँ, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे शिकायत करने से रोके। फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो कि ‘परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे समर्पण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—समर्पण—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अंतिम साँस लेते हुए भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए,’ तो क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, ‘परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।’ इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि ‘यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और वफादार रहूँगा। मैं बीमार होते हुए वफादार कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?’ जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारी सोच स्पष्ट है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।)” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मैं एक छोटा सा प्राणी हूँ और मुझे सृष्टिकर्ता के सामने शर्तें नहीं रखनी चाहिए, मुझे अपने सही स्थान को समझकर अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाना चाहिए। मुझमें यह विवेक होना चाहिए। परमेश्वर ने मुझे साँसें दी हैं और मुझे आज तक जीने की अनुमति दी है, मेरे सिंचन और पोषण के लिए बहुत से वचन कहे हैं जिनसे मैं कुछ सत्य समझ सकती हूँ। अब मेरी बीमारी के जरिए परमेश्वर मेरे अंदर के भ्रष्ट स्वभाव और आशीष पाने की मेरी मंशाओं को प्रकट कर रहा था, वह अपने वचनों से मेरा मार्गदर्शन कर रहा था ताकि मैं खुद को जानूँ जिससे कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव बदल जाए और शुद्ध हो जाए। यह परमेश्वर का आशीष था! मैं अब भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकती थी, इसलिए मुझे यह सोचना चाहिए था कि मैं उन्हें कैसे अच्छे से पूरा कर सकती हूँ, मेरी बीमारी चाहे जितनी भी बढ़ जाए, चाहे जितनी खराब हो जाए या मुझे लकवा मार जाए, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना होगा। मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “हे परमेश्वर, मैं अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पित करती हूँ। जब तक मेरी एक भी साँस बाकी है और मैं एक भी दिन जिंदा हूँ, मैं अपने कर्तव्यों का पालन करती रहूँगी।” जब मैंने अपनी बीमारी को लेकर चिंतित और परेशान होना बंद कर दिया तो मुझे अधिक सहजता और मुक्ति का एहसास हुआ। हालाँकि मेरा रक्तचाप अभी भी कभी-कभी बढ़ जाता है, मैं इसे नियंत्रित करने के लिए दवा ले लेती हूँ; जब मेरे पैर में दर्द होता है तो मैं कोई हर्बल टिंचर लगा लेती हूँ और जब भी समय मिलता है मैं व्यायाम कर लेती हूँ। इनमें से कोई भी चीज अब मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन से नहीं रोक पाती। परमेश्वर का धन्यवाद!

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