49. हमें पालने-पोसने के लिए अपने परिवार की दयालुता से कैसे पेश आएँ

चेन ली, चीन

मेरा जन्म एक ऐसी काउंटी में हुआ था जो काफी छोटी थी और जिसकी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत अविकसित थी। मेरे माता-पिता और दादा-दादी सभी किसान थे और हमारे परिवार की हालत इतनी अच्छी नहीं थी। लेकिन वे मुझसे बहुत प्यार करते थे और वे हमेशा मेरी इच्छाएँ पूरी करने के रास्ते निकाल लेते थे। बाद में मुझे एहसास हुआ कि यह सब उनके किफायत से खर्च करने के कारण ही संभव हुआ था। बाद में मेरे माता-पिता ने मेरा जीवन बेहतर बनाने के लिए खेती का व्यवसाय शुरू करने को पैसे उधार लिए। मैं अपने माता-पिता को हर दिन दिन-रात काम करते, बीमार होने की हद तक थकाते देखता था, इसलिए मैंने उनसे ऐसा करना बंद करने का आग्रह किया। मेरे पिता ने कहा कि वह वाकई यह सब नहीं करना चाहते, लेकिन चूँकि मुझे भविष्य में अपना जीवन जीना होगा, इसलिए वे मेरे लिए थोड़े और पैसे बचाना चाहते हैं, क्योंकि वह नहीं चाहते कि मैं उन्हीं मुश्किलों का सामना करूँ जो उन्होंने झेली हैं। अपने पिता की बातें सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ और साथ ही आभार महसूस हुआ। मेरे माता-पिता ने मेरे लिए जो बलिदान किए, उन्हें देखकर मुझे लगा कि मैं उनका बहुत ऋणी हूँ। मेरे दादा-दादी की बात करें तो वे दोनों सत्तर के दशक में थे और उनकी सेहत लगातार कमजोर होती जा रही थी, लेकिन फिर भी वे खाने-पीने और कपड़ों पर खर्च करने से कतराते थे, जब वे बीमार पड़ते तो अतिरिक्त खर्च के डर से अस्पताल जाने को तैयार नहीं होते थे। बाद में मेरी दादी ने मुझे बताया कि उन्होंने कई सालों में मेरे लिए कुछ पैसे बचाए हैं। यह सुनकर मैं बेचैन हो गया। वे इतने बूढ़े थे, फिर भी उन्होंने मेरे लिए पैसे बचाने के लिए कष्ट सहना चुना। अपने माता-पिता और दादा-दादी की मुझ पर की गई दयालुता को देखते हुए मुझे लगा कि मैं किसी भी तरह उनका ऋण नहीं चुका पाऊँगा। मैंने अपने दिल में खुद से कहा कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो मैं उनकी अच्छी देखभाल करूँगा और उनका सम्मान करूँगा।

2012 तक मेरी माँ ने मुझे अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य का उपदेश दिया और मैंने सभाओं में भाग लेना और अपने कर्तव्य करना शुरू कर दिया। अप्रत्याशित रूप से 2018 की शरद ऋतु में मेरे पिता को दौरा पड़ा और वह चल बसे। मुझे बहुत तकलीफ और अपराध बोध हुआ, यह मानते हुए कि मेरे पिता ने मेरे लिए पैसे कमाने के लिए इतनी मेहनत की थी और अगर उन्होंने दिन-रात काम नहीं किया होता तो शायद उनका शरीर इतना नहीं थकता और उन्हें दौरा नहीं पड़ता। मैंने सोचा, “मेरे पिता ने जीवन भर शारीरिक श्रम किया, फिर भी वह मुझे अपनी दयालुता का बदला चुकाते हुए देखे बिना ही चले गए। अब मेरे दादा-दादी अपनी उम्र के सत्तर के दशक में भी किफायती जीवन जी रहे हैं और अपने वंशजों से मिलने वाले लाभों का आनंद नहीं ले पाए हैं। मेरे पिता के चले जाने के बाद मुझे उनकी देखभाल की जिम्मेदारी लेनी होगी और उन्हें आखिरी वर्षों का शांति से आनंद लेने देना होगा। इस तरह मुझे कोई पछतावा नहीं रहेगा।” बाद में मेरी माँ अपने कर्तव्य करने के लिए दूसरी जगह चली गई और मैं अपने दादा-दादी की देखभाल करने के लिए घर पर ही रहा। मैं हमेशा उनके लिए अच्छा खाना बनाने और अच्छे कपड़े खरीदने की हर संभव कोशिश करता, जब वे बीमार होते तो मैं जहाँ भी संभव होता, चिकित्सा सहायता लेता, ताकि उन्हें स्वस्थ रखा जा सके। एक दिन मेरे दादा को अचानक साँस लेने में दिक्कत हुई और अस्पताल में जाँच के बाद डॉक्टर ने कहा कि उनका दिल गंभीर रूप से खराब हो गया है और उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत है। डॉक्टर ने मुझे मानसिक रूप से तैयार रहने के लिए भी कहा, बताया कि वह गंभीर दौर से गुजर रहे हैं और उनका जीवन किसी भी समय खतरे में पड़ सकता है, अगर वह इस गंभीर दौर से बच भी गए तो भी उनके दिल की क्षमता में गिरावट जारी रहेगी। अच्छी देखभाल होने पर वह अगले दो साल तक जीवित रह सकते हैं। डॉक्टर को यह कहते हुए सुनकर मुझे बहुत अपराध बोध हुआ, सोचने लगा कि अपने दादा की देखभाल करने में मेरी नाकामी के चलते ही उनकी हालत इतनी गंभीर हुई है। खासकर जब मैंने डॉक्टर को यह कहते हुए सुना कि अच्छी देखभाल होने पर भी वह सिर्फ दो साल और जीवित रह सकते हैं, मैंने इस छोटे से समय को और भी ज्यादा सँजोना शुरू कर दिया, सोचने लगा कि मुझे अब से अपने दादा की अच्छी देखभाल करनी होगी, उन्हें एक या दो साल और जीने में मदद करनी होगी। बाद में कुछ इलाज के बाद मेरे दादा की हालत में थोड़ा सुधार हुआ और हम अस्पताल से निकलकर घर लौट आए।

मई 2023 में मुझे अचानक अगुआओं से एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि एक कार्य के लिए किसी की तत्काल जरूरत है और मैं इसके लिए उपयुक्त हूँ और वे पूछ रहे थे कि क्या मैं यह कर्तव्य करने के लिए घर छोड़ सकता हूँ। यह पत्र देखकर मैं जान गया था कि मुझे अपना कर्तव्य चुनना चाहिए, लेकिन जब मैंने अपने दादा-दादी के खराब स्वास्थ्य के बारे में सोचा और इस बारे में सोचा कि उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है तो मैं सहज नहीं रह सका। आखिरकार मैंने कर्तव्य से इनकार कर दिया, लेकिन मैं अंदर से बेचैन हो गया। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “तुम लोगों की भक्ति कहाँ गई? तुम लोगों का समर्पण कहाँ गया? ... अब्राहम ने इसहाक को बलिदान किया—तुमने किसे बलिदान किया है? अय्यूब ने सब-कुछ बलिदान किया—तुमने क्या बलिदान किया है? सही राह तलाशने के क्रम में बहुत सारे लोगों ने अपना बलिदान दिया है, अपना जीवन कुर्बान किया है और अपना खून बहाया है। क्या तुम लोगों ने वह कीमत चुकाई है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मोआब के वंशजों को बचाने का अर्थ)। “अब मैं तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, तुम्हारा प्रेम और गवाही चाहता हूँ। यहाँ तक कि अगर तुम इस समय नहीं जानते कि गवाही क्या होती है या प्रेम क्या होता है, तो तुम्हें अपना सब-कुछ मेरे पास ले आना चाहिए और जो एकमात्र खजाना तुम्हारे पास है : तुम्हारी निष्ठा और समर्पण, उसे मुझे सौंप देना चाहिए। तुम्हें जानना चाहिए कि मेरे द्वारा शैतान को हराए जाने की गवाही मनुष्य की निष्ठा और समर्पण में निहित है, साथ ही मनुष्य के ऊपर मेरी संपूर्ण विजय की गवाही भी। मुझ पर तुम्हारी आस्था का कर्तव्य है मेरी गवाही देना, मेरे प्रति वफादार होना और किसी और के प्रति नहीं और अंत तक समर्पित बने रहना। इससे पहले कि मैं अपने कार्य का अगला चरण आरंभ करूँ, तुम मेरी गवाही कैसे दोगे? तुम मेरे प्रति वफादार और समर्पित कैसे बने रहोगे? तुम अपने कार्य के प्रति अपनी सारी निष्ठा समर्पित करते हो या उसे ऐसे ही छोड़ देते हो? इसके बजाय तुम मेरे प्रत्येक आयोजन (चाहे वह मृत्यु हो या विनाश) के प्रति समर्पित हो जाओगे या मेरी ताड़ना से बचने के लिए बीच रास्ते से ही भाग जाओगे?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के तिरस्कारपूर्ण प्रश्नों का सामना करते हुए मुझे बहुत पीड़ा हुई। जब अय्यूब ने परीक्षणों का सामना किया तो उसने अपनी अपार संपत्ति और अपने सभी बच्चों को गँवा दिया, उसका पूरा शरीर दर्दनाक फोड़ों से भर गया, फिर भी अय्यूब ने जरा भी शिकायत नहीं की, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर के नाम की स्तुति की। अय्यूब को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी और उसके प्रति सच्चा समर्पण था। अब्राहम भी है, जिसने परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया, अपने इकलौते बेटे इसहाक को वेदी पर चढ़ाया और चाकू उठाया। अब्राहम में भी परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण था। यह देखकर कि अय्यूब और अब्राहम परमेश्वर को सब कुछ अर्पित कर सके, मुझे शर्म आई और शर्मिंदगी हुई। मैंने दस साल से अधिक समय से परमेश्वर पर विश्वास किया था, परमेश्वर के वचनों से बहुत से सिंचन और पोषण का आनंद लिया था, फिर भी मैंने कभी परमेश्वर का प्रतिदान करने के बारे में नहीं सोचा था, केवल परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेना जानता था। जब कलीसिया ने मुझे अपना कर्तव्य करने के अवसर दिए तो मैंने इससे बचने के बहाने भी बनाए। मुझमें मानवता की वाकई कमी थी! अब कलीसिया के कार्य को तत्काल सहयोग की जरूरत थी और मैं अपने स्नेह में स्वार्थी और घृणित तरीके से जीना जारी नहीं रख सकता था। मुझे अपना कर्तव्य करना था और एक बार परमेश्वर के लिए जीना था। इसलिए मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए घर छोड़ दिया।

लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि अपना कर्तव्य करने के लिए घर छोड़ने के ठीक दो महीने बाद कलीसिया अगुआओं ने मुझे सूचित किया कि जिस व्यक्ति के साथ मैंने कर्तव्य किया था, उसे गिरफ्तार कर लिया गया है और उसने मुझे यहूदा की तरह धोखा दिया है, मेरे कई विश्वासी रिश्तेदारों को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। मुझे और मेरी माँ को गिरफ्तार करने के लिए दस से अधिक पुलिस अधिकारी मेरे घर गए, हमारा खाना और पैसा पुलिस ने छीन लिया, पुलिस ने मेरा पीछा करना शुरू कर दिया। मुझे यह भी पता चला कि मेरे जाने के कुछ ही समय बाद मेरे दादा को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। यह सुनकर मैं वाकई संतप्त हो गया। मैंने सोचा कि कैसे पुलिस ने हमारे घर पर छापा मारा था और सब कुछ तहस-नहस कर दिया था, मेरे दादा-दादी कितने भयभीत हुए होंगे। उनकी उम्र में उन्हें अपने बुढ़ापे का आनंद लेना चाहिए था और किसी के भरोसे होना चाहिए था, लेकिन मेरी वजह से वे इस मुश्किल में फँस गए थे। जितना ज्यादा मैं इसके बारे में सोचता, उतना ही ज्यादा मुझे उनके लिए अपराध बोध होता, मेरी मनोदशा और भी खराब हो जाती। मैंने यहाँ तक सोचा कि मैं चुपके से घर जाकर उनकी देखभाल करूँ। अपने दर्द में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मैं इस स्थिति में थोड़ा कमजोर पड़ गया हूँ। इस गलत मनोदशा से बाहर निकलने में मेरी मदद करो और मेरा मार्गदर्शन करो।”

प्रार्थना करने के बाद इस पर मैंने सचेत रूप से परमेश्वर के वचनों की तलाश की। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार की व्यवस्था है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए बनाई है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। यह तथ्य कि हर प्रकार के जीवित प्राणी इस व्यवस्था का पालन करते हैं, आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहज ज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहज ज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहज ज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहज ज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहज ज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, और उनमें यह सहज ज्ञान न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहज ज्ञान था। ... सभी प्रकार के जीवित प्राणियों और पशुओं में ये सहज ज्ञान और विधियाँ होती हैं, और वे उनका बढ़िया पालन कर उन्हें पूर्णता तक कार्यान्वित करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता। कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे अपनी भावनाओं से संचालित नहीं होते और वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते : ‘मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे फटकारेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!’ पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। इन चीजों से लोगों के प्रभावित हो जाने, क्षय होने और सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने एक ऐसा काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजने वाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं। लोग एक ऐसे माहौल में जीते हैं जो भ्रष्ट मानवजाति की विचारधारा से रंगा होता है, तो वे तरह-तरह के भ्रामक विचारों से अतिक्रमित और परेशान होते हैं, जिससे उनकी जिंदगी दूसरे जीवित प्राणियों से ज्यादा थकाऊ और कम सरल होती है। लेकिन फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों का सत्य बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये भ्रामक विचार और सोच तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर वे वह मार्गदर्शक भी नहीं बनेंगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता के साथ तुम्हें अपना रिश्ता कैसे सँभालना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा। सुकून-भरा जीवन जीने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का ज्ञान नहीं होगा—तुम अब भी ये चीजें जान सकोगे। यह बस इस पर निर्भर करता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से पेश आने के लिए कौन-सा नजरिया और तरीके चुनते हो। एक रास्ता भावनाओं की राह पकड़ना है और इन चीजों से भावनात्मक उपायों और शैतान द्वारा मनुष्य को दिखाए गए तरीकों, विचारों और सोच के साथ निपटना है। दूसरा रास्ता इन चीजों से परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिखाए वचनों के आधार पर निपटना है। जब लोग ये मामले शैतान के भ्रामक विचारों और सोच के अनुसार सँभालते हैं, तो वे बस अपनी भावनाओं की उलझनों में ही जी सकते हैं, और कभी भी सही-गलत में फर्क नहीं कर सकते। इन हालात में उनके पास जाल में फँसकर जीने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, वे हमेशा ऐसे मामलों में उलझे रहते हैं जैसे कि ‘तुम सही हो, मैं गलत। तुमने मुझे ज्यादा दिया है, मैंने तुम्हें कम दिया। तुम कृतघ्न हो। तुम कतार से बाहर हो।’ नतीजतन, कभी भी कोई ऐसा वक्त नहीं होता जब वे स्पष्ट बातें करते हों। लेकिन, लोगों के सत्य समझने के बाद, और जब वे उनके भ्रामक विचारों, सोच और भावनाओं के जाल से बच निकलते हैं, तो ये मामले उनके लिए सरल हो जाते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं समझ गया कि मेरे माता-पिता और दादा-दादी ने मेरा पालन-पोषण, देखभाल और ख्याल रखकर बस अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा किया था। वे परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों और कानूनों का पालन कर रहे थे और यह एक मानवीय प्रवृत्ति भी है। परमेश्वर द्वारा सृजित सभी प्राणियों की तरह वे परमेश्वर द्वारा निर्धारित कानूनों और नियमों के अनुसार जी रहे थे। चाहे कोई जानवर क्रूर हो या सौम्य, अपने बच्चों का पालन-पोषण करना उनकी प्रवृत्ति, उनकी जिम्मेदारी और दायित्व दोनों है। मनुष्य भी ऐसे ही हैं। फिर भी मैं अपने माता-पिता और दादा-दादी द्वारा पालन-पोषण और देखभाल को दयालुता मानता था और यह देखकर कि मैं उनके बलिदान और कष्टों का ऋण नहीं चुका पाया, मैं हमेशा अपराध बोध और आत्म-दोष में रहता था। अब मुझे समझ आया कि यह समाज, स्कूल और परिवार द्वारा दिए गए बहुत से भ्रामक विचारों को मेरे द्वारा स्वीकार करने के कारण था, जैसे कि “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो।” एक कहावत थी जिसने मुझे गहराई से प्रभावित किया, जो थी, “पेड़ शांति चाहता है लेकिन हवा कभी नहीं रुकती; बच्चा अपने माता-पिता की देखभाल करना चाहता है, लेकिन उसके माता-पिता अब नहीं रहे हैं।” ये भ्रामक विचार मेरे दिल में गहराई तक समा चुके थे और मेरे आचरण के लिए मानक बन गए थे। बीमारी के कारण अपने पिता के निधन के बाद मुझे हमेशा लगा कि मेरे पिता ने जीवन भर कड़ी मेहनत की, लेकिन मैं बुढ़ापे में उनकी देखभाल नहीं कर सका और उनके जीवित रहते हुए अपना संतानोचित कर्तव्य नहीं कर सका। इसलिए अपने दादा-दादी को लेकर पछतावे से बचने के लिए मैंने सोचा कि मुझे उनकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। जब मैं यह सुनिश्चित नहीं कर सका कि वे अपने बुढ़ापे का आनंद लें तो मुझे बहुत ही गैर-संतानोचित लगा और उनका ऋणी महसूस करने लगा। शैतान द्वारा मुझमें डाले गए भ्रामक विचारों ने मुझे हमेशा अपने माता-पिता और दादा-दादी की दयालुता का बदला चुकाने के बारे में सोचने पर मजबूर किया और यहाँ तक कि मैंने उनके प्रति संतानोचित होने को सृजित प्राणी के कर्तव्य करने से भी अधिक महत्वपूर्ण माना। मैंने देखा कि ये पारंपरिक सांस्कृतिक विचार ऐसे साधन हैं जिनके द्वारा शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करता है, उनके अनुसार जीना सिर्फ परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करने की तरफ ले जाता है।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला और मैंने सीखा कि संतानोचित और गैर-संतानोचित व्यवहार का आकलन कैसे किया जाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे प्रबोधन मिला। अतीत में मैं हमेशा “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो” और “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” के विचारों के अनुसार जीता था। मेरा मानना था कि चूँकि मेरे माता-पिता और दादा-दादी ने मेरा पालन-पोषण किया है, इसलिए जब वे बूढ़े हो जाएँ तो मुझे उनकी देखभाल करने और उनके प्रति संतानोचित रहने के लिए उनके साथ होना चाहिए और अगर मैं ऐसा नहीं कर सका तो इसका मतलब होगा कि मैं गैर-संतानोचित हूँ और मुझमें मानवता की कमी है। पहले की तरह जब मैं अपने दादा-दादी की देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह पाया तो मेरी अंतरात्मा हमेशा मेरी निंदा करती थी और मुझे लगता था कि मैं उनका ऋणी हूँ, दोषी हूँ और मानो मैंने उन्हें निराश किया है। असल में उनके साथ रहने, उनकी देखभाल करने और उनके प्रति संतानोचित होने में मेरी असमर्थता संतानोचित होने या अपनी जिम्मेदारी पूरी करने की मेरी इच्छा की कमी के कारण नहीं थी, बल्कि इसलिए थी क्योंकि वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों ने मेरे लिए ऐसा करना असंभव बना दिया था। एक तरफ मैं अपने कर्तव्यों में व्यस्त था, दूसरी तरफ पुलिस मुझे सता रही थी और मेरा पीछा कर रही थी, जिससे मेरे लिए अपने परिवार की देखभाल करने के लिए घर लौटना असंभव हो गया था। यह गैर-संतानोचित होना नहीं था। अगर मेरे पास साधन होते लेकिन मैं अपने दादा-दादी की देखभाल नहीं करता तो यह वाकई गैर-संतानोचित होना होता और मानवता की कमी होती।

एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले, जिन्होंने मुझे और भी स्पष्टता दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, तो तुम्हें यह मान लेना चाहिए कि उन्हें कितनी तकलीफें सहनी हैं और उन्हें अपने पूरे जीवन में कितनी खुशी मिलेगी, यह मामला भी परमेश्वर के हाथों में है। तुम्हारे संतानोचित होने या न होने से कुछ नहीं बदलेगा—तुम्हारे संतानोचित होने से तुम्हारे माता-पिता के कष्ट कम नहीं होंगे, और तुम्हारे संतानोचित न होने से वे ज्यादा कष्ट नहीं सहेंगे। परमेश्वर ने बहुत समय पहले ही उनका भाग्य पूर्वनियत कर दिया था, और उनके प्रति तुम्हारे रवैये या तुम्हारे बीच भावना की गहराई के कारण इसमें से कुछ भी नहीं बदलेगा। उनका अपना भाग्य है। वे अपनी पूरी जिंदगी चाहे गरीब हों या अमीर, सब-कुछ उनके लिए सुगम हो या नहीं, या वे जैसी भी गुणवत्ता के जीवन, भौतिक लाभों, सामाजिक हैसियत और जीवन स्थितियों का आनंद लेते हों, इनमें से किसी का भी तुम्हारे साथ ज्यादा लेना-देना नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। “लोगों का जन्म लेना, बूढ़े होना, बीमार पड़ना, मर जाना और जीवन में तरह-तरह की छोटी-बड़ी चीजों का सामना करना बड़ी सामान्य घटनाएँ हैं। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने तरीके से सोचना चाहिए, और इस मामले को शांत और सही ढंग से देखना चाहिए : ‘मेरे माता-पिता बीमार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें मेरी बहुत याद आती थी, क्या यह संभव है? वे यकीनन मुझे याद करते थे—कोई व्यक्ति अपने बच्चे को कैसे याद नहीं करेगा? मुझे भी उनकी बहुत याद आई, तो फिर मैं बीमार क्यों नहीं पड़ा?’ क्या कोई व्यक्ति अपने बच्चों की याद आने के कारण बीमार पड़ जाता है? बात ऐसी नहीं है। तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला आयोजित किया। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) उन लोगों के बारे में सोचो जो परमेश्वर में यकीन नहीं करते—क्या उनके परिवार के सभी सदस्य साल-दर-साल साथ नहीं रहते? जब उन माता-पिता का महाविपत्ति से सामना होता है, तो उनके विस्तृत परिवार के सदस्य और बच्चे सब उनके साथ होते हैं, है कि नहीं? जब माता-पिता बीमार पड़ते हैं या जब उनकी बीमारियाँ बदतर हो जाती हैं, तो क्या इसका कारण यह है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया? बात यह नहीं है, ऐसा होना ही था(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि किसी व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है। जन्म और मृत्यु, बीमारी या अच्छा स्वास्थ्य, अमीरी या गरीबी, उतार-चढ़ाव, कोई भी व्यक्ति इनमें से किसी को भी नियंत्रित नहीं कर सकता। ये सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और विधान से निर्धारित की जाती हैं। दरअसल भले ही मैं अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ रहता, हर संभव तरीके से उनकी देखभाल करता और उनके प्रति संतानोचित रहता तो भी इससे उनका भाग्य नहीं बदलता। अगर उनका समय आ गया होगा तो वे फिर भी बीमार पड़ेंगे और जब उनका समय आएगा तब वे मर जाएँगे। ठीक वैसे ही जैसे जब मेरे पिता को दौरा पड़ा, मैं उन्हें दस मिनट से भी कम समय में अस्पताल ले गया, लेकिन डॉक्टर कुछ नहीं कर सके और आखिरकार मेरी आँखों के सामने मेरे पिता चल बसे। सोचने पर मुझे हमेशा लगता था कि मेरे पिता की मृत्यु मेरे लिए पैसे कमाने के लिए उनकी कड़ी मेहनत के कारण हुई और मेरा मानना था कि मेरे दादा-दादी के खराब स्वास्थ्य की वजह उनकी मितव्ययिता के चलते हुआ कुपोषण है। ये विचार परमेश्वर की संप्रभुता और विधान में मेरे विश्वास की कमी से आए थे। मैं अक्सर यह कहता था कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है, लेकिन जब वाकई ऐसा हुआ तो मैंने छद्म-विश्वासी की तरह व्यवहार किया। मैं बस यह नहीं माना कि परमेश्वर लोगों के भाग्य पर संप्रभुता रखता है, उनके जीवन और भाग्य का फैसला करता है। किस तरह से मुझे परमेश्वर में सच्ची आस्था थी? इन बातों को समझने के बाद मुझे अपने दिल में अधिक शांति महसूस हुई और मैं अपने दादा-दादी को परमेश्वर के हाथों में सौंपने के लिए तैयार हो गया, परमेश्वर को उनसे संबंधित हर चीज की जिम्मेदारी लेने दी।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले : “परमेश्वर ने लोगों को पहले अपने माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहा, और उसके बाद, परमेश्वर ने लोगों के लिए सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के संबंध में उच्चतर अपेक्षाएँ सामने रखीं—तुम्हें इनमें से किसका पालन करना चाहिए? (उच्चतर अपेक्षाओं का।) क्या उच्चतर अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना सही है? क्या सत्य को उच्च और निम्न सत्य या पुराने और नए सत्य में विभाजित किया जा सकता है? (नहीं।) तो जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तब तुम्हें किसके अनुसार अभ्यास करना चाहिए? सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ है? (मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना।) मामले सिद्धांतों के अनुसार सँभालना सबसे महत्वपूर्ण बात है। सत्य का अभ्यास करने का अर्थ है विभिन्न समयों, स्थानों, परिवेशों और संदर्भों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना; यह चीजों पर हठपूर्वक नियम लागू करने के बारे में नहीं है, यह सत्य सिद्धांत कायम रखने के बारे में है। सत्य का अभ्यास करने का यही अर्थ है। इसलिए, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और परमेश्वर द्वारा रखी गई अपेक्षाओं का पालन करने के बीच कोई विरोध नहीं है। इसे और ज्यादा ठोस रूप से कहें तो, अपने माता-पिता का सम्मान करने और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश और कर्तव्य दिया है उसे पूरा करने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। इनमें से कौन-से परमेश्वर के वर्तमान वचन और अपेक्षाएँ हैं? तुम्हें पहले इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए। परमेश्वर अलग-अलग लोगों से अलग-अलग चीजों की माँग करता है; उनके लिए उसकी विशिष्ट अपेक्षाएँ हैं। जो लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करते हैं, उन्हें परमेश्वर ने बुलाया है, इसलिए उन्हें त्याग करना ही होगा, वे अपने माता-पिता का सम्मान करते हुए उनके साथ नहीं रह सकते। उन्हें परमेश्वर का आदेश स्वीकारना चाहिए और उसका अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए। यह एक तरह की स्थिति है। आम अनुयायी परमेश्वर द्वारा नहीं बुलाए गए, इसलिए वे अपने माता-पिता के साथ रहकर उनका सम्मान कर सकते हैं। ऐसा करने का कोई पुरस्कार नहीं है और इसके परिणामस्वरूप उन्हें कोई आशीष नहीं मिलेगा, लेकिन अगर वे संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाते, तो उनमें मानवता की कमी है। असल में, अपने माता-पिता का सम्मान करना सिर्फ एक तरह की जिम्मेदारी है और यह सत्य के अभ्यास से कम है। परमेश्वर के प्रति समर्पण ही सत्य का अभ्यास है, परमेश्वर का आदेश स्वीकारना ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की निशानी है, और परमेश्वर के अनुयायी वे होते हैं जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ त्याग देते हैं। संक्षेप में, सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे सामने है, वह है अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना। यही सत्य का अभ्यास है और यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक निशानी है। तो वह कौन-सा सत्य है, जिसका लोगों को अब मुख्य रूप से अभ्यास करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाना।) सही कहा, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना सत्य का अभ्यास करना है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाता, तो वह सिर्फ मजदूरी कर रहा है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। “सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें इस जीवन में जो करना चाहिए वह सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना भी है। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर पूरी कर सकते हो, अपनी भावनाओं या अपने जमीर की जरूरतों के आधार पर काम करके नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि माता-पिता के प्रति संतानोचित होना केवल एक जिम्मेदारी है जिसे लोगों को पूरा करना चाहिए और इसे सत्य का अभ्यास नहीं माना जाता है। केवल परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्यागना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना ही वह है जिसे परमेश्वर वाकई याद रखता है। मैंने प्रभु यीशु के शिष्यों के बारे में सोचा, जैसे कि पतरस, यूहन्ना और याकूब, जिन्होंने प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपने परिवारों को त्याग दिया और अपने माता-पिता को छोड़ दिया। हालाँकि उन्होंने अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने की जिम्मेदारी पूरी नहीं की, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी किया, उसने परमेश्वर के लिए गवाही के रूप में कार्य किया और परमेश्वर की स्वीकृति पाई। आज मैं भाग्यशाली हूँ कि परमेश्वर का अनुसरण करता हूँ, परमेश्वर के वचन खाता-पीता हूँ और सत्य समझता हूँ, इसलिए मुझे सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। केवल यही मेरा मिशन है।

हालाँकि मैं अभी तक कभी-कभी अपने दादा-दादी के बारे में सोचता हूँ, लेकिन अब इससे मेरी मनोदशा प्रभावित नहीं होती, क्योंकि मैं जानता हूँ कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। मेरे दादा-दादी का अपना भाग्य है और मेरा अपना मिशन है। मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए और केवल इसी तरह मैं मूल्यवान और सार्थक जीवन जी सकता हूँ।

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