52. अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए घटियापन का समाधान करना

ली जिंगशिन

मैं अक्सर फोटो खींचने और वीडियो सामग्री फिल्माने के लिए अन्य स्थानों की यात्रा करता हूँ, जिनका उपयोग कलीसिया के वीडियो निर्माण में किया जाता है। जब मैंने पहली बार शुरुआत की तो मैं सिद्धांतों के आधार पर इन सामग्रियों का सावधानीपूर्वक चयन करने में सक्षम था, लेकिन बाद में सामग्री की मात्रा बढ़ गई। कभी-कभी मैं पूरे दिन शूटिंग करता और घर पहुँचने तक थक कर चूर हो जाता था और जब मैं देखता कि बहुत सारी सामग्री की छँटाई करनी है तो मैं ऐसा करने के लिए ज्यादा इच्छुक नहीं होता। क्योंकि सामग्रियाँ चुनने के लिए सिद्धांतों के अनुसार उनका मूल्यांकन करने की जरूरत होती है और प्रत्येक व्यक्ति के इस्तेमाल की अहमियत पर भी विचार करना होता है; खासकर फोटो में हर शॉट की एक-एक करके समीक्षा करनी होती है, मैं इस पर इतना समय और ऊर्जा खर्च नहीं करना चाहता था, क्योंकि मुझे लगता था कि यह बहुत थकाऊ काम है। इसलिए बाद में सामग्री छाँटते वक्त मैं इसे बस सरसरी तौर पर देखता। जब तक पृष्ठभूमि बहुत अधिक अव्यवस्थित नहीं होती और सही लगती, मैं कहता कि यह ठीक-ठाक है। जब मैं कुछ सामग्रियों के बारे में अनिश्चित होता तो उन्हें बस पर्यवेक्षक को सौंप देता। इस तरह मुझे सिद्धांतों के आधार पर उनका मूल्यांकन या बहुत अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता। मुझे याद है कि एक बार शूटिंग खत्म करने के बाद मैंने जल्दी से सरसरी तौर पर सामग्री देखी और बेहतर सामग्री छाँटकर पर्यवेक्षक को सौंप दी। पर्यवेक्षक ने उसकी समीक्षा की और कहा कि मेरी एक तिहाई प्रस्तुतियाँ मानक के अनुरूप नहीं हैं। या तो फ्रेम गड़बड़ है, फोकस से बाहर है या बनावट खराब है और उसने यह भी कहा कि मेरी प्रस्तुतियों की समीक्षा करने में अन्य लोगों की तुलना में लगभग दोगुना समय लगा। यह सुनकर मुझे शर्मिंदगी और अपराध बोध हुआ। लेकिन मुझे अपने मसलों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी और जब ऐसी सामग्री की शूटिंग की जाती थी जो उच्च मानक की होनी चाहिए, मैं न चाहते हुए भी अनमना हो जाता था। इस तरह की सामग्रियों की शूटिंग के लिए हर कोण पर सटीक नियंत्रण और शूटिंग निर्देशन में लगातार बदलाव करने की जरूरत होती है। मुझे लगा कि यह सब मानसिक रूप से बहुत थकाऊ है और जब तक यह लगभग सही दिख रहा है, इससे काम चल जाएगा। क्योंकि मैं अपने काम में ईमानदार नहीं था, कुछ सामग्रियाँ सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थीं और उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था और कुछ शॉट फोकस से भी बाहर थे। जो काम एक बार में किया जा सकता था, उसे फिर से करने की जरूरत पड़ गई। कुछ ही समय बाद मेरी सख्ती से काट-छाँट की गई। पर्यवेक्षक ने मेरे कर्तव्य में मेरे हालिया व्यवहार के बारे में बताया और उसने अपना कर्तव्य मनमर्जी से और अनमने ढंग से करने के लिए मेरी काट-छाँट की। मैं जो सामग्री शूट करता, उस पर हमेशा फिर से काम करने की जरूरत पड़ती, जिससे बहुत सारी जनशक्ति और संसाधन बर्बाद हो रहे थे। उसने कहा कि मैं फोटोग्राफी के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रहा हूँ और मुझे अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये पर गहराई से चिंतन करने के लिए कहा। पर्यवेक्षक के जाने के बाद मैंने बहुत परेशान और दोषी महसूस किया। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर से खुद को जानने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने और अपने कर्तव्य में इस लापरवाह मनोदशा को दूर करने के लिए कहा।

बाद में मैंने खासकर अपने मुद्दे से संबंधित परमेश्वर के वचनों की खोज की। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “यदि तुम अपने कर्तव्य में अपना दिल नहीं लगाते हो, न ही सत्य सिद्धांतों की खोज करते हो, यदि तुम भ्रमित या उलझन में रहते हो, चीजों को हरसंभव सबसे आसान तरीके से करते हो, तो यह किस प्रकार की मानसिकता है? यह काम को अनमने तरीके से करना है। यदि तुम अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो, यदि तुममें इसके प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं है या लक्ष्य की कोई समझ नहीं है, तो क्या तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे? क्या तुम स्वीकार्य मानक पर अपना कर्तव्य निभा पाओगे? और यदि तुम स्वीकार्य मानक पर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते तो क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? बिल्कुल नहीं। यदि हर बार अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम परिश्रम नहीं करते हो, कोई प्रयास नहीं करना चाहते और जैसे-तैसे काम करते हो, मानो यह कोई खेल हो, तो क्या यह समस्या नहीं है? इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर तुम क्या प्राप्त कर लोगे? अंततः लोगों को पता चल जाएगा कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुममें कोई जिम्मेदारी का बोध नहीं होता, तुम अनमने रहते हो और आधे-अधूरे मन से काम करते हो—तो इस स्थिति में तुम पर निकाले जाने का खतरा मँडरा रहा होगा। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो परमेश्वर पूरी प्रक्रिया के दौरान तुम्हारी पड़ताल करता है, तो फिर परमेश्वर क्या कहेगा? (यह व्यक्ति उसके आदेश या उसके भरोसे के लायक नहीं है।) परमेश्वर कहेगा कि तुम भरोसेमंद नहीं हो और तुम्हें निकाल दिया जाना चाहिए। इसलिए तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाते हो, चाहे वह महत्वपूर्ण कर्तव्य हो या सामान्य, यदि तुम खुद को मिले कर्तव्य में दिल लगाकर काम नहीं करते या अपनी जिम्मेदारी नहीं उठाते, और यदि तुम इसे परमेश्वर के आदेश के रूप में नहीं देखते या इसे अपने कर्तव्य और दायित्व के रूप में नहीं लेते हो, हमेशा चीजों को अनमने ढंग से करते हो, तो यह एक समस्या होने वाली है। ‘भरोसेमंद नहीं’—ये दो शब्द परिभाषित करेंगे कि तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो। इनका यह अर्थ है कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है, और तुम्हें निकाल दिया गया है, और परमेश्वर कहता है कि तुम्हारा चरित्र मानक के अनुरूप नहीं है। अगर तुम्हें कोई काम सौंपा गया है, फिर भी तुम उसके प्रति यही रवैया अपनाते हो और तुम इसे इसी तरह से संभालते हो, तो क्या तुम्हें भविष्य में कोई और कर्तव्य सौंपा जाएगा? क्या तुम्हें कोई महत्वपूर्ण काम सौंपा जा सकता है? तब तक तो बिल्कुल नहीं, जब तक तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं कर लेते। हालाँकि, अंदर-ही-अंदर परमेश्वर के मन में तुम्हारे प्रति थोड़ा अविश्वास और असंतोष बना रहेगा। यह एक समस्या होगी, है न? तुम अपना कर्तव्य निभाने का कोई भी अवसर खो सकते हो, और शायद तुम्हें बचाया न जाए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक मनोदशा उजागर कर दी। मैंने अपना कर्तव्य निभाने में केवल आधे-अधूरे मन से प्रयास किया, मैंने कभी भी दिल लगाकर चीजें नहीं कीं, अनमने ढंग से काम किया और गैर-जिम्मेदारी से पेश आया। इस तरह के लोगों का चरित्र खराब होता है, वे भरोसेमंद नहीं होते और उन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। आज मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार मिला और मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा पाया। यह परमेश्वर द्वारा मुझे बहुत ऊपर उठाना है। लेकिन अपने कर्तव्य में मैंने कन्नी काट ली और आधे-अधूरे मन से काम किया। मैं कभी भी कीमत चुकाना या सिद्धांतों के अनुसार काम करना नहीं चाहता था। सामग्रियाँ चुनते समय मैं बस खानापूर्ति करता और अनिश्चित होने पर मैं उनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने के लिए सिद्धांतों की खोज नहीं करता और इसके बजाय मैं उन्हें सीधे पर्यवेक्षक को सौंप देता। इससे पर्यवेक्षक को मेरे द्वारा शूट की गई सामग्रियों की समीक्षा और छँटाई करने और इन सामग्रियों में समस्याएँ बताने में बहुत समय और प्रयास लगाना पड़ता। इससे उस पर अनावश्यक बोझ पड़ गया। जब पर्यवेक्षक ने मुझसे सवाल पूछे तो मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ, लेकिन उसके बाद मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। उच्च मानकों को पूरा करने के लिए जरूरी सामग्रियों की शूटिंग करते समय मैं शॉर्टकट लेता रहा और परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों का पालन नहीं किया। हर बार मैंने बस “ठीक-ठाक” करने का लक्ष्य रखा। इससे कई सामग्रियाँ सिद्धांतों के अनुरूप नहीं बनीं। इससे न सिर्फ उस काम में इजाफा हुआ जिसकी पर्यवेक्षक को जाँच करनी थी, बल्कि मुझे काम फिर से करना पड़ा और कुछ तत्काल आवश्यक सामग्रियों की प्रगति में फिर से काम करने के कारण देरी हुई। मैं सच में अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभा रहा था, मैं बुराई कर रहा था, बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रहा था। कलीसिया ने मुझे यह कार्य सौंपा था, लेकिन मैं कन्नी काट रहा था और अनमना हो रहा था। मैंने काम की प्रभावशीलता पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं है और मैं भरोसे या विश्वास के लायक नहीं हूँ।

बाद में जब मैंने परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह के रवैये पर परमेश्वर की संगति पढ़ी, मुझे अपने बारे में कुछ और समझ मिली। परमेश्वर कहता है : “नूह ने केवल कुछ ही संदेश सुने थे, और उस समय परमेश्वर ने ज्यादा वचन व्यक्त नहीं किए थे, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि नूह ने बहुत-से सत्य नहीं समझे थे। उसे न आधुनिक विज्ञान की समझ थी, न आधुनिक ज्ञान की। वह एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति था, मानवजाति का एक मामूली सदस्य। फिर भी एक मायने में वह सबसे अलग था : वह परमेश्वर के वचनों का पालन करना जानता था, वह जानता था कि परमेश्वर के वचनों का अनुसरण और पालन कैसे करना है, वह जानता था कि मनुष्य का उचित स्थान क्या है, और वह परमेश्वर के वचनों पर वास्तव में विश्वास कर उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम था—इससे अधिक कुछ नहीं। नूह को परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को क्रियान्वित करने देने के लिए ये कुछ सरल सिद्धांत पर्याप्त थे, और वह इसमें केवल कुछ महीनों, कुछ वर्षों या कुछ दशकों तक नहीं, बल्कि एक शताब्दी से भी अधिक समय तक दृढ़ता से जुटा रहा। क्या यह संख्या आश्चर्यजनक नहीं है? नूह के अलावा इसे और कौन कर सकता था? (कोई नहीं।) और क्यों नहीं कर सकता था? कुछ लोग कहते हैं कि इसका कारण सत्य को न समझना है—लेकिन यह तथ्य के अनुरूप नहीं है! नूह ने कितने सत्य समझे थे? नूह यह सब करने में सक्षम क्यों था? आज के विश्वासियों ने परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े हैं, वे कुछ सत्य समझते हैं—तो ऐसा क्यों है कि वे ऐसा करने में असमर्थ हैं? अन्य लोग कहते हैं कि यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण है—लेकिन क्या नूह का स्वभाव भ्रष्ट नहीं था? क्यों नूह इसे हासिल करने में सक्षम था, लेकिन आज के लोग नहीं हैं? (क्योंकि आज के लोग परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करते, वे न तो उन्हें सत्य मानते हैं और न ही उनका पालन करते हैं।) और वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में असमर्थ क्यों हैं? वे परमेश्वर के वचनों का पालन करने में असमर्थ क्यों हैं? (उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है।) तो जब लोगों में सत्य की समझ नहीं होती और उन्होंने बहुत-से सत्य नहीं सुने होते, तो उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कैसे उत्पन्न होता है? (उनमें मानवता और जमीर होना चाहिए।) यह सही है। लोगों की मानवता में दो सबसे कीमती चीजें मौजूद होनी चाहिए : पहली चीज है जमीर और दूसरी है सामान्य मानवता का विवेक। इंसान होने के लिए जमीर और सामान्य मानवता का विवेक होना न्यूनतम मानक है; यह किसी व्यक्ति को मापने के लिए न्यूनतम, सबसे बुनियादी मानक है। लेकिन यह आज के लोगों में नदारद है, और इसलिए चाहे वे कितने ही सत्य सुन और समझ लें, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना उनकी क्षमता से परे है। तो आज के लोगों और नूह के बीच मूलभूत अंतर क्या है? (उनमें मानवता नहीं है।) और मानवता की इस कमी का सार क्या है? (वे जानवर और राक्षस हैं।) ‘जानवर और राक्षस’ कहना बहुत अच्छा नहीं लगता, लेकिन यह तथ्यों के अनुरूप है; इसे कहने का एक और विनम्र तरीका यह होगा कि उनमें कोई मानवता नहीं होती। बिना मानवता और विवेक के लोग, लोग नहीं होते, वे जानवरों से भी नीचे होते हैं। नूह परमेश्वर की आज्ञा पूरी करने में सक्षम इसलिए था, क्योंकि जब नूह ने परमेश्वर के वचन सुने, तो वह उन्हें दृढ़ता से अपने दिल में बसाए रखने में सक्षम था; उसके लिए परमेश्वर की आज्ञा एक जीवन भर की जिम्मेदारी थी, उसकी आस्था अटूट थी, उसकी इच्छा सौ वर्षों तक अपरिवर्तित रही। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था, वह एक वास्तविक व्यक्ति था, और उसमें इस बात का अत्यधिक विवेक था कि परमेश्वर ने उसे जहाज के निर्माण का काम सौंपा है। नूह जितनी मानवता और विवेक रखने वाले लोग बहुत दुर्लभ हैं, दूसरा नूह खोजना बहुत मुश्किल होगा(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। नूह ने प्रयास में कोई कोताही बरते बिना और कोई कसर छोड़े बिना परमेश्वर का आदेश पूरा किया, 120 वर्षों तक अपने प्रयासों में दृढ़ रहा और आखिरकार उसने जहाज बनाकर परमेश्वर का आदेश पूरा किया। नूह के पास अंतरात्मा और विवेक था। वह मानवता वाला व्यक्ति था। लेकिन फिर मैंने अपने बारे में सोचा। सामग्रियाँ चुनते समय मैंने बस उन्हें सरसरी तौर पर देखा और खानापूर्ति की। मैं यह नहीं सोच रहा था कि अपना कर्तव्य कैसे अच्छी तरह से निभाऊँ, यानी कैसे यह जाँच करूँ कि सामग्री कहाँ सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है या कैसे यह पता लगाऊँ कि मुझमें कहाँ कमी है और कहाँ सुधार की जरूरत है या यह सोचूँ कि मैं अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करूँ। इसके बजाय मैंने अपने कर्तव्य को बोझ समझा और अधिक जटिल कार्यों को पर्यवेक्षक पर थोप दिया। इस बीच मैंने इसे आसान बनाने के तरीके खोजे। मुझमें किस तरह कोई मानवता थी? मैंने यथासंभव न्यूनतम प्रयास करके अपना कर्तव्य किया, यह नहीं सोचा कि परमेश्वर के घर की क्या जरूरतें हैं या मेरे व्यवहार का कार्य पर क्या असर पड़ेगा। अपने काम के प्रति मेरा यह रवैया किसी गैर-विश्वासी के उसके बॉस के लिए काम करने से भी बदतर था। मैंने सोचा कि परमेश्वर के वचनों से मैंने सिंचन और पोषण का कितना आनंद उठाया है और कैसे परमेश्वर ने हमें जीवित रहने के लिए आवश्यक सब कुछ दिया है, लेकिन मैं अभी भी सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहा हूँ। मैंने कलीसिया के काम में सिर्फ बाधा और गड़बड़ी डाली। मुझे अपने दिल में गहरा पछतावा हुआ और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपना लापरवाह रवैया बदलने और अपना कर्तव्य ठीक से करने की इच्छा व्यक्त की। इसके बाद मैं अपने कर्तव्य में सामान्य समस्याओं से बचने के प्रति अधिक सचेत हो गया। मैं सामग्रियाँ चुनते समय भी अधिक सावधानी बरतने लगा।

कुछ समय बाद पर्यवेक्षक ने मुझे एक वीडियो शूट करने के काम में लगाया। जब मुझे पहली बार काम मिला तो मैं बहुत खुश था और मैंने मन ही मन सोचा, “इस बार मुझे ठीक से तैयारी करनी होगी और अच्छा काम करना होगा।” लेकिन कौशल के मामले में मुझमें अभी भी थोड़ी कमी थी और मुझे शोध और अध्ययन करने में समय बिताने की जरूरत थी। पहले तो मैं सक्रियता से अध्ययन करने और प्रशिक्षण लेने में सक्षम था, लेकिन कुछ दिनों के बाद मेरा शूट किया गया वीडियो अभी भी आदर्श नहीं निकला और मुझे अध्ययन और शोध में अधिक समय और प्रयास लगाने की जरूरत पड़ी। मुझे लगने लगा कि यह सब बहुत परेशानी भरा है, इसलिए मैंने मूल काम में कुछ मामूली बदलाव किए और इसे “ठीक-ठीक” कहा। इसे पूरा करने के बाद मैंने इसे अपने साथी भाई को दिखाया। उसने देखा कि वीडियो सहज नहीं है और उसमें कुछ ट्रांजिशन संबंधी समस्याएँ हैं और उसने सुझाव दिया कि मैं इन हिस्सों को फिर से शूट करूँ। मुझे लगा कि यह बहुत परेशानी भरा होगा, इसलिए मैंने उससे कहा, “इस वीडियो की समयसीमा वाकई बहुत कम है, चलो इसे ऐसे ही जमा कर देते हैं। वैसे भी अपने कौशल से मैं इतना ही कर सकता हूँ।” मुझे इस मामले पर अड़ा हुआ देखकर भाई ने इसे आगे नहीं बढ़ाया। बाद में पर्यवेक्षक ने मुझसे कहा, “तुम अपने कर्तव्य में लापरवाह हो, तुम्हारा रवैया बहुत घटिया है और तुम्हारा काम वाकई बहुत खराब है। अब इस काम के लिए तुम्हारी जरूरत नहीं है!” भले ही यह सिर्फ एक संक्षिप्त टिप्पणी थी, लेकिन ऐसा लगा जैसे कोई चाकू मेरे दिल को चीर रहा हो। मुझे लगा कि लापरवाह होने का तमगा अभी भी मुझ पर मजबूती से चिपका हुआ है। मुझे समझ नहीं आया—मैं सचेत होकर अपने लापरवाह रवैये को दूर करने की कोशिश कर रहा था तो फिर कोई बदलाव क्यों नहीं हुआ और मैं अभी भी अपने कर्तव्य में लापरवाह क्यों रहा? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा ताकि मैं समस्या की जड़ को समझ सकूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और आखिरकार मुझे अपनी समस्याओं पर कुछ स्पष्टता मिली। परमेश्वर कहता है : “चीजों को इतनी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी से सँभालना एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज है : इसे लोग नीचता कहते हैं। वे अपने सारे काम ‘लगभग ठीक’ और ‘काफी ठीक’ की हद तक ही करते हैं; यह ‘शायद,’ ‘संभवतः,’ और ‘पाँच में से चार’ का रवैया है; वे चीजों को अनमनेपन से करते हैं, यथासंभव कम से कम और झाँसा देकर काम चलाने से संतुष्ट रहते हैं; उन्हें चीजों को गंभीरता से लेने या सजग होने में कोई मतलब नहीं दिखता, और सत्य-सिद्धांतों की तलाश करने का तो उनके लिए कोई मतलब ही नहीं। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज नहीं है? क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? नहीं। इसे अहंकार कहना सही है, और इसे जिद्दी कहना भी पूरी तरह से उपयुक्त है—लेकिन इसका अर्थ पूरी तरह से ग्रहण करना हो तो, एक ही शब्द उपयुक्त होगा और वह है ‘नीच।’ अधिकांश लोगों के भीतर नीचता होती है, बस उसकी मात्रा ही भिन्न होती है। सभी मामलों में, वे बेमन और लापरवाह ढंग से चीजें करना चाहते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें छल झलकता है। वे जब भी संभव हो दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी संभव हो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं, जब भी संभव हो समय बचाते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, ‘अगर मैं उजागर होने से बच सकता हूँ, और कोई समस्या पैदा नहीं करता, और मुझसे जवाब तलब नहीं किया जाता, तो मैं इसे जैसे-तैसे निपटा सकता हूँ। मुझे बहुत बढ़िया काम करने की जरूरत नहीं है, इसमें बड़ी तकलीफ है!’ ऐसे लोग महारत हासिल करने के लिए कुछ नहीं सीखते, और वे अपनी पढ़ाई में कड़ी मेहनत नहीं करते या कष्ट नहीं उठाते और कीमत नहीं चुकाते। वे किसी विषय की सिर्फ सतह को खुरचना चाहते हैं और फिर यह मानते हुए कि उन्होंने जानने योग्य सब-कुछ सीख लिया है, खुद को उसमें प्रवीण कह देते हैं, और फिर जैसे-तैसे काम निपटाने के लिए वे उस पर भरोसा करते हैं। क्या दूसरे लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति लोगों का यही रवैया नहीं होता? क्या यह ठीक रवैया है? नहीं। सीधे शब्दों में कहें तो, यह ‘काम चलाना’ है। ऐसी नीचता तमाम भ्रष्ट मनुष्यों में मौजूद है। जिन लोगों की मानवता में नीचता होती है, वे अपने हर चीज में ‘काम चलाने’ का दृष्टिकोण और रवैया अपनाते हैं। क्या ऐसे लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में सक्षम होते हैं? नहीं। तो क्या वे चीजों को सिद्धांत के साथ कर पाने में सक्षम होते हैं? इसकी संभावना और भी कम है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। इससे पता चलता है कि क्यों अपने कर्तव्य में मैं अक्सर चीजों को गंभीरता से नहीं लेता था या सिद्धांतों का पालन नहीं करता था, और चीजों को आधे-अधूरे मन से करता था, बस “ठीक-ठाक” या “लगभग ठीक” होने का लक्ष्य रखता था, इसका कारण यह था कि मेरा घटियापन बहुत गंभीर है। जब मैं पीछे मुड़कर सोचता हूँ तो एहसास होता है कि मैं हमेशा अपने कर्तव्य में लापरवाही करता था, जहाँ भी संभव हो काम में कोताही बरतता था। मेरे काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं था। मैं कभी भी चीजों के बारे में सोचने या सर्वोत्तम नतीजे पाने का प्रयास नहीं करना चाहता था, सोचता था कि जब तक मैं कोई बड़ी समस्या का कारण नहीं बनता या मुझे बर्खास्त नहीं किया जाता है, तब तक सब ठीक है। मैं बस परमेश्वर के घर में जैसे-तैसे काम करता, बेपरवाही में समय बिताता था। उदाहरण के लिए, जब मैं सामग्रियाँ फिल्मा रहा था, अगर मैंने अधिक प्रयास किया होता और सिद्धांतों पर अधिक विचार किया होता तो मैं अच्छा काम कर सकता था, लेकिन इसके बजाय, मैं बस “कामचलाऊ” या “ठीक-ठाक” काम से ही संतुष्ट था। मैंने सिद्धांतों की अपनी समझ की कमी का बहाना बनाकर ऐसी सामग्री का जिम्मा पर्यवेक्षक पर थोप दिया जिसका मूल्यांकन करने में मुझे कठिनाई हो रही थी। जब पर्यवेक्षक ने मुझसे एक वीडियो फिल्माने के लिए कहा, मुझे स्पष्ट पता था कि वीडियो में कुछ समस्याएँ हैं और मेरे साथी भाई ने फिर से शूट करने का सुझाव दिया है, लेकिन मैं फिर भी अतिरिक्त प्रयास करना या कीमत चुकाना नहीं चाहता था और मैंने सोचा कि मैंने जो बनाया है वह ठीक-ठाक है। मैं बस खानापूर्ति करके अपना काम निपटाना चाहता था। मुझे एहसास हुआ कि मेरा घटियापन वाकई गंभीर है और मैं हमेशा अपने काम में कोताही बरतरने की कोशिश करता हूँ। इसका नतीजा यह हुआ कि ऐसी सामग्री बनी जो मानक के अनुरूप नहीं थी और काम की प्रगति में देरी हुई। ऐसे घटियापन के साथ अपना काम करना वाकई खुद के साथ ही दूसरों को भी नुकसान पहुँचा रहा था!

इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है, वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, और वे सबसे शानदार चीजें हैं। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर का आदेश पूरा करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्यों के निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुलेआम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्यों के निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक छद्म-विश्वासी के रूप में बेनकाब हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच करके समस्या देख लेता है। वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में हमेशा लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित्त नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से बेनकाब हो जाते हैं। प्रायश्चित्त न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपने कर्तव्य निभाए हैं, लेकिन उनके प्रति उनका रवैया हमेशा गलत होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, पूरे दिल से अपने कर्तव्य निभाने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे अनमने ढंग से काम करते हैं। वे पूरे दिल से अपने कर्तव्य नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित्त नहीं किया; वे हमेशा अनमने रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्चात्ताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के आदेशों के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनका अनमनापन एक अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई कृतज्ञता का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें कोई खेद का भाव आता है, अपराध-बोध आने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि इस तरह का व्यक्ति लाइलाज है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की बात की परवाह नहीं करता, वह चाहे जितने भी उपदेश सुन ले या उसे सत्य की कितनी भी समझ हो, उसका दिल प्रेरित नहीं होता और उसके रवैये में न कोई बदलाव आता है, न ही यह पूरी तरह परिवर्तित होता है। परमेश्वर इसे देखता है और कहता है : ‘इस व्यक्ति से अब कोई आशा नहीं है। मेरी कोई भी बात उसके दिल को छूती नहीं है, मेरी किसी भी बात से उसके अंदर बदलाव नहीं आता है। उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने के लिए अयोग्य है और मेरे घर में मजदूरी करने योग्य नहीं है।’ और परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और काम करते हैं, तो वे लगातार अनमने रहते हैं। चाहे उनकी कितनी भी काट-छाँट की जाए, और चाहे उनके प्रति कितनी भी सहनशीलता और धैर्य दिखाया जाए, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और यह उन्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने या बदलने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। यह उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम नहीं बना सकता, और न ही उन्हें सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने दे सकता है। ऐसा व्यक्ति लाइलाज होता है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर लेता है कि कोई व्यक्ति लाइलाज है, तो क्या वह तब भी उस व्यक्ति को मजबूती से पकड़े रहेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करता। परमेश्वर उसे जाने देगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि सृजित प्राणी के रूप में हमारे लिए परमेश्वर का आदेश स्वीकार करना और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है और हमें इसे पूरे दिल और लगन से पूरा करना चाहिए। अगर हम अपने कर्तव्य को लापरवाह या गैर-जिम्मेदार रवैये से करते हैं तो यह परमेश्वर से विश्वासघात है और हमें दंड का भागी बनाता है। भले ही मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहा था, लेकिन वास्तव में मैं इसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं था। मैं हमेशा अनमना रहता था, काम करने का सबसे छोटा और सबसे आसान तरीका चुनता था। यहाँ तक कि जब मुझे पता था कि समस्याएँ हैं तो मैंने उन्हें अनदेखा कर दिया और ध्यान न देने का नाटक किया। इससे आखिरकार काम में बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा हुईं और मैं तो मानक के अनुसार काम भी नहीं कर रहा था। पर्यवेक्षक ने मेरी काट-छाँट की और मुझे अपना कर्तव्य ठीक से करने की याद दिलाई, लेकिन मैं जिद्दी बना रहा, अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम करता रहा। मेरा दिल वाकई अड़ियल था! मैंने हमेशा अपने कर्तव्य को लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना रवैये से निभाया। अगर मैंने सुधार नहीं किया तो परमेश्वर यकीनन मुझे हटा देगा। मैंने सोचा कि कैसे मेरा साथी भाई अपने कर्तव्य में बहुत मेहनती है और सिद्धांतों पर ध्यानपूर्वक विचार करता है। वह हमेशा अपनी सामग्रियों की बार-बार जाँच करता है, उन्हें जमा करने से पहले यह सुनिश्चित करता है कि उनमें कोई समस्या न हो। नतीजतन उसके कर्तव्य में बहुत कम गलतियाँ या भटकाव हुए और अच्छे नतीजे मिले। लेकिन जब मैंने अपना कर्तव्य किया तो मुझे लगातार चीजों को फिर से करना पड़ा और समस्याएँ आती रहीं। मैंने देखा कि मैं भरोसेमंद नहीं हूँ, मुझमें ईमानदारी और गरिमा की कमी है।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने का एक मार्ग मिला। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी या तुम मतलबी, धूर्त हो या धीमे पड़ते हो, तो तुम निश्चित ही एक खराब काम करोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। “जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें ‘दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना’ को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो और बिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें विचार करना चाहिए : ‘इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं गैर-भरोसेमंद बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं परमेश्वर के सौंपे आदेश पर खरा उतरने में विफल हो रहा हूँ?’ तुम्हें इसी तरह आत्म-चिंतन करना चाहिए। अगर तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा अनमने रहते हो, कि तुम विश्वासघाती हो और यह भी कि तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘जिस क्षण मुझे लगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में अनमना रहता था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा था। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!’ तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह अनमने रहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने और ताड़ना देने देना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारी ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी तुम सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हो। जब तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया बदल गया होगा, तभी तुम खुद को बदल पाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्यों को परमेश्वर के समक्ष किया जाना चाहिए और इसे अच्छी तरह से करने के लिए ईमानदार रवैये की जरूरत है। जब हम कन्नी काटना या लापरवाह होना चाहते हैं तो हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या हम अपने कर्तव्यों में मेहनती और जिम्मेदार हैं और क्या हमारे क्रियाकलाप परमेश्वर के भरोसे के लायक हैं। अधिक आत्म-चिंतन करके हम अपने लापरवाह क्रियाकलापों को कम कर सकते हैं। इससे काम में होने वाले नुकसान भी कम होंगे। संक्षेप में, हमें हर संभव प्रयास करके अपनी क्षमताओं का पूरा उपयोग करना चाहिए। इस तरह हम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकते हैं।

मई 2023 में मैं किसी तकनीकी कार्य का पर्यवेक्षण कर रहा था। चूँकि मैं इस कर्तव्य के लिए नया था, इसलिए मुझमें कुछ तकनीकी कौशल की कमी थी और जब भाई-बहनों द्वारा रिपोर्ट की गई समस्याओं की बात आई तो मुझे सिर्फ मोटी समझ थी कि क्या चल रहा है और इनकी बारीकियों के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं था। इसके लिए मुझे एक-एक करके समस्याएँ हल करने और उनके कारणों का पता लगाने की जरूरत थी। कभी-कभी जब कई मसले आते तो मुझे फिर से लापरवाह होने का प्रलोभन होता, लेकिन मैं सचेत होकर उन आवेगों के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम रहता। मुझे याद है कि एक बार एक बहन के उपकरण में खराबी आ गई और उसने मुझसे पूछा कि ऐसा क्यों हुआ। मैं इस उपकरण से बहुत परिचित नहीं था, इसलिए समस्या का पता लगाने और उसे हल करने में वाकई समय और प्रयास लगते, तो मैंने जो कुछ भी समझा था उसके आधार पर गोल-मोल जवाब देने के बारे में सोचा। लेकिन जवाब लिखने के बाद मैं असहज हो गया क्योंकि मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से लापरवाह हो रहा हूँ। मुझे याद आया कि कैसे अपने कर्तव्य के प्रति मेरे पिछले लापरवाह रवैये ने काम को नुकसान पहुँचाया था और मुझे पता था कि अगर मैं लापरवाह बना रहा तो इससे वास्तविक समस्या का समाधान नहीं होगा और आखिरकार इसके कारण इसे कई बार इधर से उधर भेजना पड़ेगा और बहन के उपकरण के इस्तेमाल पर भी असर पड़ेगा, जिससे काम में देरी होगी। बहन को जवाब देने से पहले मुझे समस्या को पूरी तरह से स्पष्ट करने की पूरी कोशिश करनी थी। इसके बाद मैं समस्या सुलझाने की प्रक्रिया से गुजरा और समस्या का कारण जाना। इस तरह से अभ्यास करने से मैं सहज हो गया। बाद में जब मेरे सामने ऐसी समस्याएँ आईं जिन्हें मैं सुलझा नहीं सकता था, मैंने भाई-बहनों से सलाह माँगी और समाधान की पुष्टि करने के बाद ही जवाब दिया। कुछ समय तक इस तरह से अभ्यास करने के बाद अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बदल गया और मैंने अपने तकनीकी कौशल में महत्वपूर्ण प्रगति की। भले ही अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में मेरी समझ अभी गहरी नहीं है, मैं अपना घटियापन दूर करने और अपना कर्तव्य मानक के अनुसार पूरा करने के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहने को तैयार हूँ।

पिछला:  51. मैंने अपनी उलझन क्यों छिपाई

अगला:  53. परिवार की कैद से बच निकलना

संबंधित सामग्री

4. छली गयी आत्‍मा का जागृत होना

युआन्‍झ़ी, ब्राज़ीलमेरा जन्‍म उत्‍तरी चीन में हुआ था जहाँ से 2010 में मैं अपने रिश्‍तेदारों के साथ ब्राज़ील आ गया था। ब्राज़ील में मेरा...

34. ईसाई आध्यात्मिक जागृति

लिंग वू, जापानमैं अस्सी के दशक का हूँ, और मैं एक साधारण से किसान परिवार में जन्मा था। मेरा बड़ा भाई बचपन से ही हमेशा अस्वस्थ और बीमार रहता...

48. मौत के कगार से जीवन में वापसी

यांग मेई, चीन2007 में मैं अचानक गुर्दे फेल होने की लंबी बीमारी से ग्रस्त हो गई। जब मेरी ईसाई माँ और भाभी तथा कुछ कैथोलिक दोस्तों ने यह खबर...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

Connect with us on Messenger