61. परिवार के उत्पीड़न के बीच एक फैसला

किन फेंग, चीन

एक समय मेरा परिवार सामंजस्यपूर्ण था। हम भोजन और कपड़ों की चिंता किए बिना जीवन जीते थे। हालाँकि मेरी दूसरी गर्भावस्था के शुरुआती चरणों में मैंने अनजाने ही एक पारंपरिक चीनी दवा पी ली थी जिसने रक्त संचार बढ़ा दिया और लगभग गर्भपात हो ही गया था, लेकिन बाद में चिकित्सा साधनों के जरिए मैं अपने बेटे को जन्म दे पाई। हालाँकि मेरा बच्चा और मैं दोनों सुरक्षित थे, मैंने ऑनलाइन पढ़ा कि गर्भावस्था के दौरान दवा लेने से बच्चे में बौनापन आ सकता है। इसने मेरे दिल को बोझिल कर दिया। जब भी मैं देखती कि कम उम्र होने के बावजूद दूसरे बच्चे मेरे बच्चे से लंबे हैं, तो मुझे दिल में गहरी पीड़ा महसूस होती थी और मैं अक्सर खुद को दोष देने की दशा में रहती थी। मुझे याद नहीं कि इसे लेकर मैंने कितने आँसू बहाए होंगे। अक्टूबर 2013 में मेरे एक रिश्तेदार ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की गवाही दी और उसने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन का एक अंश दिखाया जिसका शीर्षक था “परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है।” इसके एक खास हिस्से ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। परमेश्वर कहता है : “जिस क्षण तुम रोते हुए इस दुनिया में आते हो उसी पल से तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना शुरू कर देते हो। परमेश्वर की योजना और उसके विधान की खातिर तुम अपनी भूमिका निभाते हो और अपनी जीवन यात्रा शुरू करते हो। तुम्हारी पृष्ठभूमि जो भी हो और तुम्हारी आगे की यात्रा जैसी भी हो, किसी भी स्थिति में कोई भी स्वर्ग के आयोजनों और व्यवस्थाओं से बच नहीं सकता और कोई भी अपनी नियति को नियंत्रित नहीं कर सकता, क्योंकि जो सभी चीजों का संप्रभु है सिर्फ वही ऐसा करने में सक्षम है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। मुझे पता चला कि मानव जीवन परमेश्वर से आता है, किसी के बच्चे किस तरह के होंगे, यह किसी व्यक्ति पर निर्भर नहीं होता और यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का हिस्सा है। उस पल मुझे बरबस रोना आ गया और मैंने परमेश्वर के सामने अपना सारा दर्द और चिंताएँ उड़ेल दीं। मुझे अपने दिल में मुक्ति का एहसास हुआ जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी। बाद में परमेश्वर के वचन पढ़ने के माध्यम से मुझे यह भी समझ आया कि इस दुनिया में किसी व्यक्ति का लिंग, रूप-रंग और ऊँचाई सभी परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं और ये बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते। अगर परमेश्वर ने तय कर दिया था कि मेरा बच्चा स्वस्थ होगा, तो भले ही मैंने दवा ली थी, इससे उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मुझे लगा कि परमेश्वर के वचन एक उपचारक दवा थे जिन्होंने मेरी आंतरिक परेशानियाँ दूर कर दीं और मैंने अपने दिल में बहुत सहज और मुक्त महसूस किया।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के छह महीने बाद मैंने कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाने शुरू कर दिए। पहले तो मेरे पति ने इसका विरोध नहीं किया। लेकिन मई 2014 में उसने टीवी और इंटरनेट पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया पर लांछन लगाने, ईशनिंदा करने और उसे बदनाम करने के लिए सीसीपी का फैलाया सारा नकारात्मक प्रचार देखा तो उसने मेरी आस्था में रुकावट डालनी शुरू कर दी। उसने मेरा एमपी-5 प्लेयर भी तोड़ दिया, जिसका उपयोग मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए करती थी और कहा, “देखो वो ऑनलाइन क्या कहते हैं। राज्य सर्वशक्तिमान परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के खिलाफ है और पुलिस तुम्हें गिरफ्तार कर लेगी। यदि तुम गिरफ्तार हो गई तो यह बेहद अपमानजनक बात होगी! इंटरनेट पर यह भी कहा जा रहा है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले अपने परिवार छोड़ देते हैं और सामान्य जीवन नहीं जीते।” मैंने पलटकर कहा, “जब से मैंने परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है, क्या मैंने अपने परिवार को त्यागा है या सामान्य तरीके से जीना बंद किया है? हमारी सभाएँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों को एक साथ पढ़ने तक ही सीमित होती हैं और तुमने इसे अपनी आँखों से देखा है। हमने कोई अवैध काम नहीं किया है, तो क्या पुलिस द्वारा हमारी गिरफ्तारी वैध है? जो लोग चोरी करते हैं, लूटते हैं, जुआ खेलते और वेश्यावृत्ति करते हैं, उनसे तो वो नहीं निपटते, बल्कि विशेष रूप से विश्वासियों को गिरफ्तार करते हैं। क्या यह सही और गलत को उलट-पुलट करना नहीं है?” लेकिन मैंने चाहे जो भी कहा, मेरे पति ने मेरी एक नहीं सुनी। बाद में वह लगातार मुझे परमेश्वर में मेरी आस्था के लिए सताता और जब भी दुखी होता, तो परमेश्वर में मेरी आस्था का जिक्र करता। जब भी वह काम से घर आता और देखता कि मैं वहाँ नहीं हूँ, तो गुस्से में भड़क जाता और चिल्लाता, “हम इस तरह कैसे जी सकते हैं? अगर तुम इसी तरह विश्वास करती रहोगी, तो मैं पुलिस बुला लूँगा!” वह अक्सर रात को नशे में घर आता और मुझ पर चिल्लाता, मेरी चीजों में से परमेश्वर के वचनों की मेरी किताबें ढूँढ़ता, दावा करता कि वह उन्हें नष्ट कर देगा। उसने मेरे बाल भी खींचे और मुझे घसीटते हुए जमीन पर गिरा दिया और जोर देकर कहा कि मैं आधी रात को ही वहाँ से निकल जाऊँ। मैं गुस्से में थी, सोच रही थी, “परमेश्वर में मेरी आस्था सिर्फ मेरे भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के लिए इकट्ठा होने तक सीमित है, फिर भी मेरा पति मेरे साथ इस तरह पेश आता है—वह सरासर दानव है!” गुस्से में मैंने घर छोड़ने के बारे में भी सोचा, लेकिन जब मैंने अपने दो छोटे बच्चों के बारे में सोचा और यह खयाल आया कि मैं अपनी कड़ी मेहनत से हुई शादी को ऐसे नहीं टूटने देना चाहती, तो मैं सहन कर गई। मगर अप्रत्याशित रूप से मेरे पति का मुझ पर अत्याचार और भी तेज हो गया।

16 फरवरी 2016 को दोपहर के भोजन के बाद मैं एक सभा में जाने के लिए तैयार हुई तो मेरे पति ने चिल्लाते हुए कहा, “तुम फिर से बाहर जा रही हो? तुम सामान्य जीवन नहीं जी रही हो!” मैंने जवाब दिया, “तुम्हारा क्या मतलब है कि मैं सामान्य जीवन नहीं जी रही हूँ? मैंने घर के कामों में कोई देरी नहीं की है। मैंने खाना बनाया है और घर को साफ-सुथरा किया है और मुझे अपना समय भी चाहिए।” जैसे ही मैं दरवाजा खोलने वाली थी, उसने अचानक उसे बंद कर दिया और मुझे बाहर जाने से रोक दिया, अपने फोन से मुझे धमकाते हुए बोला, “अगर तुम फिर से बाहर गई, तो मैं पुलिस बुला लूँगा!” ऐसा कहते हुए उसने आपातकालीन नंबर 110 डायल कर दिया। मैं बहुत घबरा गई। जैसे ही वह हरे रंग की डायल कुंजी दबाने वाला था, मैं जल्दी से बोली, “अगर तुमने आज यह कॉल कर दी, तो तुम्हें पता है कि फिर क्या होगा? बुरे काम करने का बदला मिलता है!” फोन पकड़े हुए उसका हाथ एक पल के लिए काँपा, फिर उसने डायल करना बंद कर दिया और गुस्से में बोला, “मैं अब इस तरह नहीं रह सकता! मैं आज काम पर नहीं जाऊँगा। तुम्हें आज फैसला करना ही पड़ेगा! मैं तुम्हारे पिता और अपनी माँ को हमारे तलाक पर चर्चा करने के लिए बुला रहा हूँ!” फिर उसने मेरे माता-पिता और अपनी माँ को फोन किया। मुझे नहीं पता था कि क्या करना है और मैं वास्तव में कमजोर महसूस कर रही थी। दीवार पर लगी परिवार की तस्वीर देखते हुए मैं बरबस सोचने लगी, “हमारे लिए यहाँ तक पहुँचना आसान नहीं रहा है। जीवन कठिन रहा है और अतीत में पति के काम के कारण हम दोनों को साथ बिताने को बहुत कम समय मिला। लेकिन अब उसके पास एक स्थिर नौकरी है, हम एक बड़े घर में चले गए हैं, हमारा जीवन चिंताओं से मुक्त है और हमारा बेटा और बेटी दोनों ही होशियार और स्वस्थ हैं। हमने अपने परिवार और करियर दोनों के मामले में वास्तव में अच्छा प्रदर्शन किया है। अगर हमने तलाक लिया, तो मैं यह सब खो दूँगी। भले ही मुझे परमेश्वर में विश्वास करने के कारण कुछ उत्पीड़न झेलना पड़ता है, कम से कम मेरा परिवार तो पूरा है और बच्चों के पास पिता और माँ दोनों हैं। हम तलाक कैसे ले सकते हैं? वास्तव में मैं नहीं चाहती कि यह उस बिंदु तक पहुँचे।” मुझे पछतावा हुआ कि मैंने मेरे माता-पिता को फोन करने से उसे क्यों नहीं रोका। अगर मैंने बस कुछ सुलह करने वाली बात कह दी होती और कुछ समय के लिए बाहर न जाने को सहमत हो गई होती, तो शायद वह तलाक की बात न उठाता। मुझे नहीं पता था कि इन सब से कैसे पार पाया जाए, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उम्मीद जताई कि वह मेरा मार्गदर्शन करेगा। तभी मुझे याद आया कि प्रभु यीशु ने क्या कहा था : “जो कोई अपना हाथ हल पर रखकर पीछे देखता है, वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं(लूका 9:62)। ऐसा लगा जैसे प्रकाश की किरण मेरे दिल को चीर कर निकल गई हो और वह तुरंत उज्ज्वल हो उठा हो, मैंने सोचा, “क्या मैं सिर्फ अपनी देह के बारे में नहीं सोच रही हूँ? अपने परिवार और आस्था के बीच मुझे अपने परिवार को खोने का डर है और अपने पति से सुलह करने के लिए कुछ न कहने का पछतावा है। मैं उसके साथ समझौता कर रही हूँ और परमेश्वर से विश्वासघात की कीमत पर अपने परिवार को बचाने की कोशिश कर रही हूँ। मैं किस तरह से परमेश्वर की गवाही दे रही हूँ?” मुझे वे दिन याद आए जब मैंने अपने बेटे से जुड़ी समस्याओं के कारण बहुत कष्ट उठाया था और मैंने सोचा, “अगर परमेश्वर ने मुझे न बचाया होता, तो मैं अब इतनी आजादी से कैसे जी पाती? मैं इतनी कृतघ्न या विवेकहीन नहीं हो सकती।” इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे आस्था दो। आगे चाहे जो भी हो, भले ही हम वास्तव में तलाक ले लें, मैं फिर भी तुम पर विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने का रास्ता चुनूँगी।” प्रार्थना के बाद मुझे अपने दिल में मुक्ति का एहसास हुआ।

उस दोपहर मेरे पिता, मेरी दो छोटी बहनें और मेरे ससुराल वाले सभी आ गए। उन सभी ने मेरे पति का विश्वास कर लिया और उसके साथ मिलकर मुझे सताया। आखिर में मेरे पिता और मेरी बहनों ने मुझे जबरन कार में घसीटा और वापस मुझे मेरे गृहनगर ले गए। घर आने के बाद माता-पिता मुझे हर दिन परेशान करते थे। मेरे पिता ने देखा कि मैं परमेश्वर में विश्वास करने पर जोर देती हूँ तो एक दिन दोपहर के भोजन पर उन्होंने कहा, “राज्य उन लोगों पर कठोर कार्रवाई कर रहा है और उन्हें गिरफ्तार कर रहा है जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करते हैं। यदि तुम्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ साल जेल की सजा सुना दी गई, तो क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारा पति तब भी तुम्हें चाहेगा? तुम अपना घर गँवा दोगी। इस तरह कष्ट क्यों झेलना चाहती हो? हमारी सुनो, बस अपनी यह आस्था छोड़ दो। वे टीवी पर कहते हैं कि तुम लोग राज्य-विरोधी हो, तो राज्य का विरोध करने से क्या फायदा होगा? अब अपने परिवार को देखो, तुम्हारे पास घर और कार है, तुम्हारे दो बच्चे होशियार और अच्छे व्यवहार वाले हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास करने के एवज में इतना अच्छा जीवन क्यों छोड़ रही हो? तुम वास्तव में नहीं जानती कि तुम कितनी धन्य हो!” जितना अधिक मैंने सुना, उतना ही मुझे गुस्सा आया। वे किस बारे में बात कर रहे थे, मुझे राज्य-विरोधी कह रहे थे? राज्य के विरोध का क्या मतलब है? परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से कहते हैं : “परमेश्वर मनुष्य की राजनीति में भाग नहीं लेता, फिर भी वह हर देश और राष्ट्र का भाग्य नियंत्रित करता है, वह इस संसार को और संपूर्ण ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। मैंने सख्त लहजे में गंभीरता से कहा, “पिताजी, परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब बस इतना है कि हम परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और सत्य की संगति के लिए इकट्ठे होते हैं। परमेश्वर हमें सही मार्ग पर चलने और सामान्य मानवता जीने के लिए मार्गदर्शन करता है। हम राज्य-विरोधी कैसे हो गए? आप निराधार अफवाहों पर विश्वास नहीं कर सकते!” लेकिन यह देखकर कि मैं नहीं सुनूँगी, मेरी माँ मुझ पर चिल्लाईं, “यदि तुम ऐसे ही करती रही, तो तुम्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा और तुम सब कुछ गँवा दोगी। तब तुम्हारा जीवन कैसा होगा? यदि तुम आस्था चाहती हो, तो बस मेरे साथ गिरजाघर चलो और थ्री-सेल्फ में परमेश्वर पर विश्वास करो!” मैंने कहा, “सीसीपी गिरजाघर के लोगों को गिरफ्तार नहीं करती क्योंकि गिरजाघर के लोग सीसीपी की आज्ञा का पालन करते हैं। वे प्रभु यीशु में विश्वास करने का दावा करते हैं, लेकिन असल में वे मनुष्य की सुनते हैं और मनुष्य पर विश्वास करते हैं, परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। सच्चे मार्ग को हमेशा सताया गया है। जब प्रभु यीशु ने यहूदिया में कार्य किया, तो रोमन सरकार और फरीसियों ने उसे बुरा-भला कहा और उसकी निंदा की। प्रभु का अनुसरण करने वाले शिष्यों को सुसमाचार का प्रचार करने के कारण रोमन सरकार ने गिरफ्तार किया और सताया। क्या तुम कह सकती हो कि प्रभु यीशु सच्चा परमेश्वर नहीं है और सच्चा मार्ग नहीं है? आज हम सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और निश्चित ही हमें सीसीपी की शैतानी सरकार की गिरफ्तारियाँ और उत्पीड़न झेलना पड़ेगा। माँ, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है और वह अनुग्रह के युग की नींव के आधार पर कार्य का नया चरण पूरा करने वाला परमेश्वर है। वह मानवता को पूरी तरह से बचाने के लिए आया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब है कि हम परमेश्वर के नए कार्य का अनुसरण कर रहे हैं। क्या तुम इसलिए प्रभु यीशु में विश्वास करने में सक्षम नहीं हो पाई कि कई मिशनरी सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपने परिवारों और करियर को त्याग कर चीन आए?” मेरे पिता ने मेरा दृढ़ निश्चय देखकर मुझे बीच में टोका और मुझसे तीखे सवाल किए, “तो तुम कह रही हो कि तुम्हारे पास पीछे मुड़ने का कोई रास्ता नहीं है और तुम अपनी आस्था पर अटल रहना चाहती हो? तुम्हारे माता-पिता के रूप में हम यह तुम्हारे भले के लिए ही कर रहे हैं। अगर तुम्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है, तो हमें दोष न देना कि हमने तुम्हें चेतावनी नहीं दी! अगर तुम हमारी बात नहीं सुनती और अपनी इस आस्था पर चलती रहती हो, तो मैं तुम्हारा परित्याग कर दूँगा। तलाक के बाद तुम जहाँ चाहो वहाँ जा सकती हो। यह परिवार अब तुम्हें नहीं चाहता!” यह बोलने के बाद मेरे पिता रोने लगे। उन्हें इतना टूटा हुआ देखकर मैं भी रो पड़ी। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मेरे दिल को अपने सामने शांत रखो। मुझे नहीं पता कि इस तरह की स्थिति को कैसे सँभालना है। मुझे आस्था दो और मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक कदम में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक कदम, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब का परीक्षण हुआ : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ शर्त लगा रहा था और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे और मनुष्यों के विघ्न थे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मुझे अचानक एहसास हुआ कि भले ही ऐसा लग रहा था कि मेरे पिता मुझे मनाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन असल में शैतान मेरे स्नेह का इस्तेमाल करके मुझे अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहा था, मुझे परमेश्वर को छोड़ने और उससे विश्वासघात के लिए मजबूर करना चाहता था। अगर मैं अपने पिता के पक्ष में चली गई, तो क्या मैं शैतान की साजिशों में नहीं फँस जाऊँगी? अचानक मुझे प्रभु यीशु के वचन याद आ गए : “जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं(मत्ती 10:37)। मेरे पास जो कुछ है, वह सब परमेश्वर से आता है और मेरा जीवन भी उसी से आता है। परमेश्वर पर विश्वास करना और उसकी आराधना करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है, इसलिए मैं सिर्फ अपने पिता की भावनाओं की सोचकर परमेश्वर पर अपनी आस्था नहीं छोड़ सकती थी। मैंने पतरस के अनुभव के बारे में भी सोचा। पतरस के माता-पिता को उम्मीद थी कि वह एक अधिकारी के रूप में अपना करियर बनाएगा और सफलता और प्रसिद्धि पाएगा, उन्होंने पतरस को परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके लिए खुद को खपाने का विरोध किया और रोका। लेकिन पतरस ने दृढ़तापूर्वक अपने माता-पिता को छोड़कर परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का फैसला किया। इसका खयाल आने पर मुझे आस्था प्राप्त हुई और परमेश्वर का अनुसरण करने का मेरा संकल्प मजबूत हुआ। मेरे पिता चाहे जो कहें, मुझे शैतान की साजिशों की असलियत जाननी थी और उससे धोखा नहीं खाना था। मेरे पिता ने देखा कि मैं कुछ नहीं कह रही हूँ तो उन्होंने मुझे फिर से जोर देकर कहा, “तो तुम इस पर अड़ी हुई हो; तुम किसी भी तरह से नहीं मानोगी?” मैंने दृढ़ता से उत्तर दिया, “बिल्कुल नहीं। मैं परमेश्वर में अपनी आस्था पर कायम रहूँगी; मैं कृतघ्न होने से इनकार करती हूँ। पहले मुझे हमेशा चिंता रहती थी कि मेरा बेटा बौना बन जाएगा। मैं हर दिन डर, दर्द और अपराध-बोध में जीती थी। उस समय आप सभी ने मुझे सलाह दी थी कि चीजों को ऐसे ही चलने दो, लेकिन अपने दिल का दर्द सिर्फ मैं ही समझती थी। बाद में मैंने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार किया, उसके वचन पढ़े, सत्य को समझा और तब जाकर मेरे दिल का दर्द कम हुआ। अगर परमेश्वर ने मुझे न बचाया होता, तो कौन जाने, एक दिन मैं इसे और बरदाश्त न कर पाती और मरने का फैसला कर लेती, फिर आप अपनी बेटी को खो देते। क्या आप मेरे लिए सबसे अच्छा नहीं चाहते?” मेरे पिता ने मेरा दृढ़ संकल्प देखकर चुपचाप नाराजगी जताई।

बाद में मेरे पिता ने मुझे फिर से चुपके से परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए देख लिया और गुस्से से बोले, “अगर तुम इसी तरह अपने परमेश्वर पर विश्वास करती रही, तो मैं पुलिस बुला लूँगा, तुम्हें गिरफ्तार करवा दूँगा और मैं उनसे तुम्हें जमकर पिटवाऊँगा! मुझे नहीं लगता कि तुम बदलोगी!” मैंने देखा कि मेरे पिता की आँखें गुस्से से लाल थीं और उनके चेहरे पर दुख झलक रहा था। मुझे परमेश्वर पर विश्वास करने से रोकने के लिए वे मुझे सीसीपी की यातना झेलने के लिए जेल भिजवाने को भी तैयार थे। वे इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं? क्या ये वास्तव में वही पिता हैं जिन्हें मैं हमेशा से जानती थी? क्या वे सीसीपी के साथी और शैतान के सेवक नहीं बन गए थे? मैंने देखा कि मेरे पिता का सार परमेश्वर के प्रति घृणा और विरोध का था। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक वाक्य के बारे में सोचा : “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। जो लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वही वे लोग हैं जिनसे मुझे प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर से नफरत करते हैं और उसका विरोध करते हैं, वे सभी परमेश्वर के दुश्मन हैं। वे दानव हैं। परमेश्वर उनसे बेहद घृणा करता है, इसलिए मुझे भी उन्हें ठुकरा देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना था, अपने माता-पिता से बेबस नहीं होना था और दृढ़ता के साथ परमेश्वर का अनुसरण करना था!

मैं अपने माता-पिता के घर पर ढाई महीने तक रही। घर लौटने पर मेरे पति ने सोचा कि मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करती, इसलिए मेरे प्रति उसका रवैया बहुत नरम हो गया। कुछ हफ्ते बाद उसे पता चला कि मैं अभी भी परमेश्वर में विश्वास करती हूँ तो उसने गुस्से से कहा, “तुम अभी भी सभाओं में भाग ले रही हो और परमेश्वर में विश्वास करती हो? यहाँ से निकल जाओ!” यह कहते हुए वह दरवाजे की ओर बढ़ा, उसे खोला और मुझ पर चिल्लाया, “बाहर निकल जाओ! यह परिवार अब तुम्हें नहीं चाहता। तुम जहाँ चाहो, चली जाओ!” सच तो यह था कि मैं घर नहीं छोड़ना चाहती थी और मैं बस दिखावा करना चाहती थी। मैं बेडरूम में गई, अलमारी से एक सूटकेस निकाला और अपने कपड़े व्यवस्थित करके उसमें रखने शुरू कर दिए। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर वह मुझे अपने कपड़े रखते हुए देख लेगा, तो शायद उसे हमारे वैवाहिक बंधन की याद आ जाएगी। अगर वह देखेगा कि मैं वाकई जा रही हूँ, तो शायद वह समझौता कर ले।” अप्रत्याशित रूप से मेरा पति बैठक से अंदर आया और मुझसे सूटकेस छीन लिया। उसने सारे कपड़े बिस्तर पर फेंक दिए और उन्हें खंगालना शुरू कर दिया, मुझे कोसते हुए कहा, “मुझे देखने दो कि कहीं तुम मेरे घर से कीमती सामान तो नहीं ले जा रही हो!” मैं अपने पति को मेरे कपड़े अस्त-व्यस्त करते देखकर क्रोधित हो गई। दस साल तक साथ रहने के बाद वह मुझसे ऐसी बातें कैसे कह सकता है? वह मेरे साथ एक चोर की तरह पेश आ रहा था और मेरा दिल पूरी तरह से कड़ा हो गया। मैंने कपड़ों को वापस सूटकेस में रखा और दरवाजे से निकल गई। जो कुछ हुआ था उस पर विचार करते हुए मेरा दिल दुखने लगा और मैं यह सोचकर बरबस रोने लगी, “मेरा पति सचमुच हृदयहीन है! मैं परमेश्वर पर विश्वास करके जीवन में सही रास्ते पर चल रही हूँ, फिर भी वह मुझे फिर से घर छोड़ने को मजबूर कर रहा है। क्या वास्तव में मेरा परिवार इसी तरह टूट जाएगा?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे तुम पर विश्वास करना बहुत मुश्किल लग रहा है। मेरा दिल बहुत कमजोर है। मुझे नहीं पता कि आगे की राह कैसे तय करूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।” यह सब होने के बाद मैं एक बहन के घर रहने चली गई।

अगली दोपहर मैं शांत नहीं हो पा रही थी। मुझे अपने बेटे का खयाल आया, जो केवल पाँच साल का था और कभी मुझसे दूर नहीं रहा था। क्या वह वास्तव में मेरे बिना रह सकता था? अपने बच्चे का कोमल चेहरा और उसके भविष्य के बारे में सोचकर ही मेरा दिल टूटकर चूर हो गया। मुझे चिंता हुई कि अगर वह अपनी माँ को ढूँढ़ेगा तो क्या होगा? क्या मेरा पति गुस्से में कुछ करेगा? क्या इससे कलीसिया या भाई-बहन सब फँस जाएँगे? उस रात मैं वापस घर गई। वहाँ मेरे सास-ससुर थे और मेरा पति बच्चों को खाना खिलाने बाहर ले गया था। मेरी सास ने कहा, “तुम्हारे जाने के बाद हम सभी तुम्हारे बारे में बहुत चिंतित थे। बस एक सामान्य जीवन जियो और अपनी यह आस्था छोड़ दो! क्या तुम्हें वाकई इतना हंगामा करना है और आखिर में तलाक लेना है?” मैंने शांति से जवाब दिया, “माँ, ऐसा नहीं है कि मैं सामान्य जीवन नहीं जीना चाहती, बल्कि आपका बेटा ही मुझे स्वीकार नहीं कर पाता।” मेरी सास ने चिंतित होकर कहा, “वयस्कों के लिए तलाक कोई मायने नहीं रखता, लेकिन समस्या यह है कि बच्चों को तकलीफ होगी। वे अभी बहुत छोटे हैं। तुम्हें बच्चों के बारे में सोचना चाहिए।” अपनी सास को यह कहते हुए सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई और मेरी आँखों में आँसू आ गए। सच तो यही था कि मुझे सबसे ज्यादा चिंता बच्चों की ही थी। अगर मैं चली गई तो उनका जीवन कैसा होगा? कुछ ही देर बाद मेरा पति बच्चों के साथ लौट आया। जैसे ही वह अंदर आया, बच्चों ने मुझे देखा और मेरी तरफ बढ़े। लेकिन मेरे पति ने चिल्लाकर उन्हें मेरे पास आने से मना कर दिया और उसने हमारी बेटी से कहा कि वह जाकर बेटे को बिस्तर पर सुला दे। जिस क्षण मैंने बच्चों को आज्ञाकारी ढंग से बेडरूम की ओर जाते देखा, मुझे लगा कि मेरी चिंताएँ और सरोकार बेकार ही थे। परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है और वह हर चीज पर शासन करता है और संप्रभुता रखता है। भविष्य में मेरे बच्चों का भाग्य भी परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अधीन होगा। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “किसी भी स्थिति में कोई भी स्वर्ग के आयोजनों और व्यवस्थाओं से बच नहीं सकता और कोई भी अपनी नियति को नियंत्रित नहीं कर सकता, क्योंकि जो सभी चीजों का संप्रभु है सिर्फ वही ऐसा करने में सक्षम है। मनुष्य के अस्तित्व में आने की शुरुआत से ही परमेश्वर अपने कार्य को हमेशा से इसी ढंग से करता आ रहा है, ब्रह्मांड को सँभाल रहा है और सभी चीजों के लिए परिवर्तन के नियमों और उनकी गतिविधियों के पथ को संचालित कर रहा है। सभी चीजों की तरह मनुष्य भी चुपचाप और अनजाने में परमेश्वर से मिठास और बारिश और ओस से पोषित हो रहा है; सभी चीजों की तरह मनुष्य भी अनजाने में परमेश्वर के हाथ के आयोजन के अधीन रहता है। मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर की मुट्ठी में होते हैं और उसके जीवन की हर चीज परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह सब मानो या न मानो, एक-एक चीज चाहे वह सजीव हो या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही उसकी दशा, बदलेगी, नवीनीकृत और गायब होगी। परमेश्वर इसी तरह सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। हममें से हर कोई उस जीवन पथ के अनुसार जीता है जिसे परमेश्वर ने हमारे जन्म से ही निर्धारित कर रखा है, हम सब बस अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभाते हैं। जीवन में हम जिस तरह की परिस्थितियों का अनुभव करते हैं, वे सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का हिस्सा होती हैं। लोगों के पास इनमें से कुछ भी बदलने की शक्ति नहीं होती। मेरे बच्चे बड़े होकर क्या-क्या कष्ट सहेंगे और क्या-क्या आशीष पाएँगे, लोग उनके साथ कैसा व्यवहार करेंगे और उनकी शारीरिक स्थिति कैसी होगी— यह सब परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के अधीन है। मेरी देखभाल और परिपोषण से मेरे बच्चों का भाग्य नहीं बदलेगा, न मेरे जाने से उनके विकास पर कोई असर पड़ेगा। परमेश्वर ने बहुत पहले ही व्यवस्थित कर दिया था कि मेरे बच्चों का भाग्य कैसा होगा। उस दिन मेरी बेटी मेरे बेटे की देखभाल कर रही थी, मानो मुझे बता रही हो कि कोई भी व्यक्ति दूसरे के बिना रह सकता है और हर किसी का जीने का अपना तरीका होता है। उम्र चाहे जो भी हो, परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन और व्यवस्था करेगा और प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए उपयुक्त परिवेश तैयार करेगा। यह ध्यान आने से मुझे अधिक सहजता महसूस हुई और मैं अपने बच्चे परमेश्वर को सौंपने के लिए तैयार हो गई। मुझे आश्चर्य हुआ कि बच्चों के सो जाने के बाद मेरे पति ने फिर से दरवाजा खोला और मुझे खदेड़ने की कोशिश की और मेरे ससुराल वालों के समझाने-बुझाने के बाद ही उसने हंगामा करना बंद किया।

उस रात मैं बिस्तर पर लेटी हुई उन घटनाओं पर विचार कर रही थी जो घटित हुई थीं। चूँकि मेरे पति ने सीसीपी की फैलाई गई निराधार अफवाहों और शैतानी बातों पर यकीन कर लिया था, इसलिए उसे डर था कि इससे उसके हितों पर असर पड़ेगा, इसलिए वह नाराज था। हमारे वैवाहिक बंधन की परवाह किए बिना उसने मुझे बार-बार सताया और मुझे अपनी आस्था छोड़ने को मजबूर किया, चाहे यह मुझे घर से निकालने की कोशिश करके किया हो या तलाक की धमकी देकर। उसने मेरे माता-पिता से भी मुझे काबू कराने और मेरी निगरानी कराने की कोशिश की और उसने मुझे कई बार घर से बाहर भी निकाला। परमेश्वर को पाने के बाद से मैंने अपने परिवार या बच्चों की उपेक्षा नहीं की, फिर भी वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहा था। लोगों के बीच कोई सच्चा स्नेह कैसे हो सकता है? मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार की इच्छाएँ पालते हैं? क्या उनकी मंशा उनकी खुद की योजनाओं और स्वार्थी आकांक्षाओं को पूरा करने की नहीं है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सही हैं। लोगों के बीच सभी संबंध हितों पर आधारित होते हैं और वे सभी अपनी स्वार्थी इच्छाएँ पूरी करने के लिए एक-दूसरे का उपयोग करने के बारे में होते हैं। पहले मेरा पति मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता था क्योंकि मैंने उसके हितों का अतिक्रमण नहीं किया, मैंने हर संभव तरीके से परिवार का ख्याल रखा, मैं उसके प्रति विशेष रूप से विचारशील थी और उसकी बात हमेशा ऊपर रखती थी। लेकिन अब जब मैं परमेश्वर में विश्वास कर रही थी और अपना कर्तव्य निभा रही थी और मुझे किसी भी समय सीसीपी द्वारा गिरफ्तार किए जाने का खतरा था, जिससे वह फँस सकता था, तो वह पूरी तरह से एक अलग व्यक्ति में बदल गया था। सत्य प्रकट होते देख मैंने सोचा कि लोगों के बीच कोई प्यार या स्नेह कैसे मुमकिन हो सकता है। मेरे पति ने मुझे कई बार घर से निकाला था, फिर भी मैं अपनी शादी बचाना चाहती थी, क्योंकि मेरा मानना था कि “एक बार जब पुरुष और महिला का विवाह हो जाता है तो उनका प्रेम-बंधन गहरा होता है।” मुझे एहसास नहीं हुआ कि यह सब सिर्फ मेरे एकतरफा खयाली पुलाव थे। जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी मूर्ख थी! मैंने हमेशा इस परिवार को बचाने की कोशिश की थी और अपने पति द्वारा सताए जाने के कारण मैं शायद ही कभी परमेश्वर के वचन खाती-पीती थी, मेरी सभाएँ सीमित थीं और मैं कोई कर्तव्य नहीं कर पाती थी। यह किस तरह से परमेश्वर में सच्ची आस्था थी? इसके अलावा अगर मैं अपना कर्तव्य न निभा पाती, तो मैं परमेश्वर के वचनों का अनुभव नहीं कर पाती और अगर मैं सत्य प्राप्त नहीं कर पाती, तो मैं परमेश्वर द्वारा कैसे बचाई जा सकती थी? परमेश्वर कहता है कि अपना कर्तव्य निभाना ही बचाए जाने का एकमात्र रास्ता है, क्योंकि अपने कर्तव्य के दौरान सत्य प्राप्त करने के कई अवसर मिलते हैं और ऐसे कई क्षण होते हैं जब व्यक्ति पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन प्राप्त करता है। अपने कर्तव्य के दौरान सत्य का अनुसरण करने से व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग सकता है और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के अधिक अवसर पा सकता है। परमेश्वर में विश्वास करना और अपना कर्तव्य निभाना सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज है जो कोई व्यक्ति कर सकता है! मुझे अपने परिवार और अपनी आस्था के बीच चुनाव करना था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मुझे रास्ता दिखाओ। मैं खुद को पूरी तरह से तुम्हें समर्पित करने को तैयार हूँ।”

बाद में एक और घटना ने घर छोड़ने और अपना कर्तव्य निभाने के मेरे संकल्प को मजबूत किया। दो हफ्ते बाद एक दिन मैं एक सभा से घर लौटी और खाना बना रही थी, तभी मेरा पति मेरे पीछे से आया और मेरे बाल खींचते हुए मुझसे पूछा, “क्या तुम फिर से परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए सभा में गई थी?” जब उसने देखा कि मैं जवाब नहीं दे रही हूँ, तो उसने मेरे बालों को फिर जोर से खींचा, जिससे मेरे सिर में दर्द होने लगा। मैंने कहा, “जब तक मेरे फेफड़ों में साँस है, मैं परमेश्वर में विश्वास करूँगी!” मेरा पति गुस्से में आ गया और चिल्लाया, “क्या तुम्हें पता है कि मैं आज तुम्हें मार डालूँगा?” फिर उसने मुझे जोर से धक्का दिया, अलमारी से एक फल काटने वाला चाकू निकाला और अपनी दाहिनी बाँह से मेरी गर्दन को दबोच लिया, जबकि बाएँ हाथ में उसने चाकू पकड़ रखा था। उसने चाकू के पिछले हिस्से को मेरी गर्दन पर दबाया और चिल्लाया, “मैं सच में तुम्हें मार डालना चाहता हूँ!” हताश होकर मैंने जल्दी से अपनी बेटी को बुलाया और उससे अपनी दादी को बुलाने के लिए कहा। इस पर मेरे पति ने चाकू खाने की मेज पर पटक दिया। इन सब बातों ने मुझे एक बार फिर मेरे पति के परमेश्वर से नफरत करने वाले सार को दिखा दिया और यह भी कि वह मुझे परमेश्वर में विश्वास करने से रोकने के लिए वास्तव में मुझे मारने को तैयार हो सकता है। वह सचमुच एक बुरा व्यक्ति और दानव था! ऐसे दानव के साथ रहकर कोई खुश कैसे रह सकता है? मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “एक विश्वासी पति और अविश्वासी पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वासी बच्चों और अविश्वासी माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश करने से पहले, लोगों में दैहिक, पारिवारिक स्नेह होता है, लेकिन एक बार जब वे विश्राम में प्रवेश कर जाते हैं, फिर दैहिक, पारिवारिक स्नेह जैसी कोई बात नहीं रह जाती। जो अपना कर्तव्य निभाते हैं वे उनके शत्रु हैं जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, वे एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, वे बेमेल किस्म के अलग-अलग सृजित प्राणी हैं। जो सृजित प्राणी अपने कर्तव्य अच्छे से निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तुएँ बनेंगे; यही नहीं, यह सब अनंत काल तक चलेगा। क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने पति से प्रेम करती हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपनी पत्नी से प्रेम करते हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपने अविश्वासी माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो? परमेश्वर पर विश्वास करने के मामले में मनुष्य का दृष्टिकोण सही या ग़लत है? तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम क्या पाना चाहते हो? तुम परमेश्वर से कैसे प्रेम करते हो? जो लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा सकते और जो भरपूर प्रयास नहीं कर सकते, वे विनाश की वस्तु बनेंगे। आज लोगों में एक दूसरे के बीच भौतिक संबंध होते हैं, उनके बीच खून के रिश्ते होते हैं, किंतु भविष्य में, यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी आपस में मेल नहीं खाते हैं, बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वे जो विश्राम में हैं, विश्वास करेंगे कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति समर्पित होंगे, जबकि वे जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं, वे सब नष्ट कर दिए गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; तो माता-पिता या संतानों या पति-पत्नियों के बीच के रिश्ते कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये संबंध पूरी तरह टूट चुके होंगे!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। विश्वासी और अविश्वासी मूल रूप से असंगत होते हैं और वे जिन मार्गों पर चलते हैं वे पूरी तरह से अलग होते हैं। मेरे पति को परमेश्वर में विश्वास नहीं था और उससे नफरत भी करता था; वह मूल रूप से एक दानव था। उसके साथ रहकर कोई खुशी नहीं मिली क्योंकि मैं न केवल उसका उत्पीड़न झेल रही थी, बल्कि सत्य के अनुसरण और जीवन की प्रगति में भी बाधा आ रही थी। मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ थी और अंत में मैं भी उसकी तरह ही आपदा में पड़ जाती। जुलाई 2016 में एक दिन मैंने अपने पति के लिए एक नोट छोड़ा, जिसमें लिखा था, “मैं जा रही हूँ। मुझे फिर कभी मत ढूँढ़ना!” जिस क्षण मैंने दरवाजे से बाहर कदम रखा, मुझे अपने दिल में मुक्ति की भावना महसूस हुई और मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाने का संकल्प लिया।

इन सबके बीच परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी, मुझे मेरे परिवार के अंधकारमय प्रभाव से बाहर निकलने में कदम-दर-कदम मार्गदर्शन दिया और मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम बनाया। यह सब परमेश्वर के वचनों का नतीजा था। परमेश्वर का धन्यवाद!

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