62. एक छोटे से मामले से सीखे गए सबक
मैं अपनी कलीसिया में सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार हूँ। फरवरी 2023 में अगुआ ने मुझे बताया कि सिंचन उपयाजक भाई वाँग ताओ ने सुसमाचार कार्य में कुछ समस्याओं की रिपोर्ट की है। कुछ सुसमाचार प्रचारक अपने काम में लापरवाही बरतते हुए परमेश्वर के कार्य के बारे में सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति किए बिना या उनकी धारणाओं का समाधान किए बिना नए लोगों को सिंचन के लिए सिंचनकर्ताओं को सौंप रहे थे जिससे सिंचाई कार्य में काफी कठिनाइयाँ हो रही थीं। इसके अलावा, सुसमाचार प्रचारकों ने नए लोगों के लिए सभाओं में भाग लेने का समय स्पष्ट रूप से नहीं लिखा था, जिससे समय पर व्यवस्थाएँ करना मुश्किल हो रहा था और नए लोगों की सभाओं में देरी हो रही थी। अगुआ से यह सुनने के बाद, मैंने स्वीकार किया कि ये समस्याएँ हो रही हैं, लेकिन यह देख कर कि वाँग ताओ ने समस्याओं की रिपोर्ट सीधे अगुआ को कर दी, मैं इसे नहीं स्वीकार पाई। भले ही ये सुसमाचार प्रचारकों की समस्याएँ हैं पर सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी मेरी है, इसलिए अगर इस तरह की समस्याएँ सामने आएँगी तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने काम की जाँच के दौरान लापरवाही बरत रही थी और सुसमाचार प्रचारक किस प्रकार संगति कर रहे हैं और गवाही दे रहे हैं या नए लोग परमेश्वर के कार्य संबंधी सत्य को कितना समझ पा रहे हैं, कार्य की इन बारीकियों के बारे में मैंने सावधानी से पूछताछ नहीं की थी। लेकिन अगर मैंने इन समस्याओं को स्वीकार किया तो क्या अगुआ यह नहीं कहेंगे कि मैं अपने कर्तव्यों में अक्षम, गैर-जिम्मेदार और गैर-भरोसेमंद हूँ? मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहती थी कि यह मेरी समस्या है, लेकिन मैं जानती थी कि यह मनोदशा गलत है और मैं उस परिस्थिति का प्रतिरोध कर रही हूँ जिसे परमेश्वर ने व्यवस्थित और निर्धारित किया है, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरे हृदय की रक्षा करे ताकि मैं बहस न करूँ और अपने भाई की बात को ठीक से स्वीकार सकूँ। प्रार्थना करने के बाद मेरा हृदय थोड़ा शाँत हुआ और मैंने इन समस्याओं को कैसे सुलझाया जाए इस बारे में सुसमाचार प्रचारकों से बात की।
जल्दी ही अगुआ ने फिर से मुझसे बात की, “वाँग ताओ ने फिर से सुसमाचार प्रचारकों की समस्याओं की रिपोर्ट की है और अन्य भाई-बहन भी समस्याएँ बता रहे हैं। सुसमाचार प्रचारक अब अपना कर्तव्य कैसे निभा रहे हैं? क्या इन समस्याओं का समाधान हो गया है?” एक के बाद एक अगुआ के सवालों को सुनकर मैं सचमुच परेशान हो गई और मैंने सोचा, “अगुआ जरूर सोच रहे होंगे कि मुझमें जिम्मेदारी के एहसास और कार्य क्षमताओं की कमी है, वरना इन समस्याओं का समाधान अब तक क्यों नहीं हुआ होता? सब के मन में मेरी खराब छवि होगी।” वाँग ताओ द्वारा अपने पत्र में बताई गई समस्याओं को देखकर मैं उनका जायजा लेने और उन पर विचार करने के लिए शाँत नहीं हो पा रही थी। मैं मन ही मन बहाने बनाती रही और वाँग ताओ को भी दोष देती रही, “तुम अपनी प्रतिक्रिया सीधे मुझे क्यों नहीं देते? तुम्हें अगुआ से बात क्यों करनी पड़ी? इसके अलावा, अगर नए लोगों में अनसुलझी धार्मिक धारणाएँ हैं तो क्या सिंचनकर्ता उन्हें सुलझाने के लिए संगति नहीं कर सकते? कुछ नए लोगों के एकत्र होने का समय स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है, लेकिन अगर सिंचनकर्ताओं को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होता तो क्या वे नए लोगों को बेहतर ढंग से समझने के लिए उनसे संपर्क नहीं कर सकते थे? केवल सुसमाचार प्रचारकों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय तुम सिंचनकर्ताओं की समस्याओं को क्यों नहीं सुलझाते?” जितना ज्यादा मैंने सोचा उतना ही ज्यादा मुझे क्रोध और प्रतिरोध महसूस हुआ और मुझे आश्चर्य हुआ कि वाँग ताओ हमारे ऊपर ही इतना ध्यान क्यों दे रहा था। मैं वास्तव में उसकी समस्याएँ बताने और अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए पत्र लिखना चाहती थी, लेकिन मुझे पता था कि इससे उसे दुख होगा। इसलिए मैंने अपनी भावनाओं को दबा दिया और पत्र नहीं लिखा। जब यह मनोदशा प्रकट हुई तो मैं थोड़ी डर गई और मुझे लगा कि मेरा रवैया ठीक नहीं है। इसलिए मैंने झिझकते हुए अपनी कमियाँ स्वीकार कर लीं। ऐसा करके मैं अगुआ की नजरों में अपनी छवि सुरक्षित रखना चाहती थी। इसके बाद मुझे हमेशा उदासी महसूस होती रही। मैं जानती थी कि मैंने इससे कुछ नहीं सीखा और ऐसा करके मैं अगुआ को धोखा देने की कोशिश कर रही हूँ। और फिर भी मैंने अपनी सहभागी बहनों के सामने वाँग ताओ के प्रति अपना पूर्वाग्रह व्यक्त करते हुए अपने मन की भड़ास बाहर निकाल दी। इससे मेरी सहभागी बहनों ने भी अपने अंदर वाँग ताओ के प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लिया और कहा कि वह उग्र स्वभाव का है। बहनों को मेरे समर्थन में बोलते हुए सुनकर मुझे और ज्यादा प्रेरणा मिली और मैं वाँग ताओ की समस्याओं को सामने लाती रही। मेरा मकसद सब को यह दिखाना था कि ये भटकाव और गलतियाँ केवल सुसमाचार प्रचारकों की नहीं बल्कि वाँग ताओ की भी समस्या है और सभी को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ऐसा कहने के बाद, मुझे सचमुच दोषी महसूस हुआ—मैं लोगों और चीजों के बारे में बहुत ज्यादा ही सोच रही थी! मैं इस बर्ताव को छोड़ना चाहती थी लेकिन इस बाधा को पार नहीं कर पा रही थी। फिर मैंने सोचा कि कैसे वाँग ताओ ने काम को बेहतर बनाने के लिए सुसमाचार प्रचारकों की समस्याओं की रिपोर्ट की, लेकिन मैंने प्रतिरोध किया और बहस की जो परमेश्वर के इरादे के खिलाफ था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, भाई वाँग ताओ के लिए अपने पत्र में समस्याएँ बताना उचित था, लेकिन मैं इसका प्रतिरोध करती रही, चीजों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुई और यहाँ तक कि अपने भाई पर ही ध्यान केंद्रित रखा। परमेश्वर, मैं इस मनोदशा को बदलना चाहती हूँ; मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कोई ऐसा मामला जो ऊपरी तौर पर संयोग से घटित हुआ लगता है, उसे तुम्हें अपने दिल में इस तरह से देखना चाहिए : ‘यह संयोग से नहीं हुआ—यह परमेश्वर द्वारा तय किया गया था। यह मामला एक कारण से हुआ और इसका एक मूल कारण है; यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे लोग तय कर सकते थे—यह परमेश्वर से आता है।’ तो तुम्हें इसका सामना कैसे करना चाहिए? क्या इसके बारे में कोई शिकायत न होना, औचित्य न देना और बस समर्पण करना पर्याप्त है? तुम्हें इस मामले में परमेश्वर का इरादा खोजना चाहिए, तुम्हें जिस सत्य का अभ्यास करना चाहिए उसके साथ-साथ यह भी खोजना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षा क्या है और ऐसे किस तरीके से कार्य करना है जो परमेश्वर के इरादे के अनुरूप हो” (परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि रोज जो कुछ भी होता है वह परमेश्वर द्वारा आयोजित और व्यवस्थित किया जाता है और इसके पीछे परमेश्वर के इरादे होते हैं। चाहे कोई सुझाव दे रहा हो या मेरी काट-छाँट की जा रही हो, परमेश्वर इन परिस्थितियों को यह देखने के मकसद से व्यवस्थित करता है कि मेरे साथ कुछ घटित होने पर मैं समर्पण का भाव रख सकती हूँ और सत्य की तलाश कर सकती हूँ। अगर मैं इन चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने के बजाय लोगों और चीजों की आलोचना करती रहूँगी तो मैं कोई सबक नहीं सीखूँगी और मेरी मनोदशा आशाहीन और प्रभावित ही रहेगी। जब वाँग ताओ ने मेरी समस्याओं के बारे में बताया तो मैंने उसकी बात को अस्वीकार करते हुए उसका प्रतिरोध किया और यह शिकायत करते हुए बहस की कि वह हमारे ऊपर ही उँगली क्यों उठा रहा है। सच तो यह था कि मैं किसी व्यक्ति विशेष का प्रतिरोध नहीं कर रही थी, बल्कि इन परिस्थितियों के आगे समर्पण करने और सबक सीखने के लिए तैयार न होकर वास्तव में परमेश्वर से विवाद और अनुचित व्यवहार कर रही थी। यह एहसास होने के बाद मुझे थोड़ा शाँत महसूस हुआ और मैं गंभीरता से आत्म-चिंतन करने और सत्य की तलाश करने को तैयार हो गई।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सत्य से विमुख होने का इस तरह का स्वभाव मुख्य रूप से कैसे प्रकट होता है? अपनी काट-छाँट न स्वीकारने के रूप में। अपनी काट-छाँट न स्वीकारना इस प्रकार के स्वभाव से अभिव्यक्त होने वाली एक तरह की मनोदशा है। अपनी काट-छाँट होने पर ये लोग मन ही मन विशेष रूप से प्रतिरोधी होते हैं। वे सोचते हैं, ‘मैं यह नहीं सुनना चाहता! नहीं सुनना चाहता!’ या ‘दूसरे लोगों की काट-छाँट क्यों नहीं करते? मुझे ही काट-छाँट के लिए क्यों चुना?’ सत्य से विमुख होने का क्या अर्थ है? सत्य विमुख होना उसे कहते हैं जब कोई व्यक्ति किसी भी सकारात्मक चीज में, सत्य में, परमेश्वर जो कहता है उसमें, या परमेश्वर के इरादों से जुड़ी किसी भी चीज में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखता। कभी-कभी उसे इन चीजों से घृणा होती है, कभी-कभी वह उन्हें पूरी तरह से नजरंदाज कर देता है, कभी-कभी वह इनके प्रति अनादर और उदासीनता का रवैया अपनाता है और उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, उनके साथ लापरवाही और उपेक्षापूर्ण व्यवहार करता है; या वह उनके साथ ऐसे रवैये से निपटता है जो पूरी तरह से जिम्मेदारी से रहित होता है। सत्य सुनने पर घृणा होना ही सत्य से विमुख रहने की मुख्य अभिव्यक्ति नहीं होती है। इसमें सत्य का अभ्यास के प्रति अनिच्छा और सत्य के अभ्यास का समय आने पर पीछे हटना भी शामिल है, मानो सत्य का उससे कोई लेना-देना न हो। ... अपने दिल में ये लोग खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, कि वे सकारात्मक हैं, कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभावों में बदलाव आ सकता है और वह उन्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने में सक्षम बना सकता है, लेकिन वे उन्हें स्वीकारते नहीं या उनका अभ्यास नहीं करते। यही सत्य से विमुख होना है। तुम लोगों ने किनमें सत्य से विमुख रहने का स्वभाव देखा है? (छद्म-विश्वासियों में।) छद्म-विश्वासी सत्य से विमुख रहते हैं, यह बहुत स्पष्ट है। परमेश्वर के पास ऐसे लोगों को बचाने का कोई उपाय नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि चाहे व्यक्ति कैसी भी परिस्थितियों का सामना करे या उसे जो भी समस्याएँ बताई जाएँ, अगर वह हमेशा प्रतिरोधी और विरोधी बने रहकर समस्याएँ होने पर भी उन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं होता है तो इससे सत्य से विमुख होने का स्वभाव उजागर होता है। यह छद्म-विश्वासी होने की अभिव्यक्ति है। मैं खुद को यह सोचने से नहीं रोक पाई कि परमेश्वर सत्य से विमुख होने को छद्म-विश्वासी की अभिव्यक्ति क्यों कहेगा। अगर कोई सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखता है और उसके हृदय में परमेश्वर है तो वह इस बात को मानेगा कि जो कुछ भी होता है वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का हिस्सा है, फिर वह समर्पण कर सकता है और सबक सीख सकता है। लेकिन छद्म-विश्वासी लोग परमेश्वर या उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं में विश्वास नहीं रखते हैं; जब उनके साथ कुछ होता है तो वे या तो बहस करते हैं या बहाने ढूँढते हैं, वे जो कुछ प्रकट करते हैं वह अविश्वासियों के परिप्रेक्ष्य होते हैं और वे सत्य की खोज बिल्कुल भी नहीं करते हैं। यह सोचकर मुझे काफी डर लगा। हालाँकि मैं हर रोज परमेश्वर के वचनों को पढ़ती और प्रार्थना करती थी, पर जब चीजें घटित हुईं तो मैंने उन्हें परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं किया या सत्य की खोज नहीं की। मैं कहने के लिए तो परमेश्वर में विश्वास रख रही थी, पर क्या मैं उसके बिना कार्य नहीं कर रही थी? इस प्रकार के विश्वास का परमेश्वर या उसके वचनों से कोई लेना-देना नहीं है। क्या मैं एक छद्म-विश्वासी की तरह व्यवहार नहीं कर रही थी? यह मनोदशा भयावह थी! मैंने सोचा कि कैसे जब वाँग ताओ ने समस्याओं की ओर इशारा किया तो मैंने आत्म-चिंतन करने या अपने कर्तव्यों में भटकावों का विश्लेषण करने के लिए इसे स्वीकार करके शुरुआत नहीं की। बल्कि मैं यह कहते हुए बहाने ढूँढती रही कि जिस सिंचन कार्य के लिए वह जिम्मेदार था उसमें भी तो समस्याएँ थीं। यहाँ तक कि मैंने शिकायत भी की कि वाँग ताओ मेरे लिए चीजें मुश्किल बनाने और मुझे अपमानित करने के लिए अगुआ को समस्याओं की रिपोर्ट करने की हद से ज्यादा कोशिश कर रहा है। इन परिस्थितियों में मैंने इन बातों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं किया और बाहरी कारण तलाशती रही। यह रवैया बिल्कुल भी वैसा नहीं था जो एक विश्वासी का होना चाहिए। यह वही रवैया था जो परिस्थितियों का सामना करते समय एक छद्म-विश्वासी और अविश्वासी का होता है। मुझे याद आया कि वाँग ताओ ने मुझे पहले भी इन समस्याओं के बारे में बताया था, लेकिन उन्हें समय पर हल करने में मेरी नाकामी के कारण ही उसे अगुआ को इन बातों की रिपोर्ट करनी पड़ी, फिर भी मैं प्रतिरोध करती रही और इसे स्वीकार नहीं किया और यहाँ तक कि यह भी कहा कि वह मेरा जीवन मुश्किल बनाने की कोशिश कर रहा है। मुझे एहसास हुआ कि मेरा व्यवहार कितना अनुचित था और मुझे यह पता था कि अगर मैं ऐसे ही चलती रही तो अंत में परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा और हटा देगा। भयभीत होकर मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि वह इस मनोदशा को जल्द सुधारने, ईमानदारी से इस परिस्थिति के प्रति समर्पण करने, इसे स्वीकारने और सबक सीखने में मेरी मदद करे।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे वे कितनी भी बुराई करें, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिल्कुल नहीं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य को क्षति पहुँचाते हैं—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं और मसीह-विरोधियों के कुकर्मों का अनुक्रम देख सकते हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते; वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलत हैं या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से विमुख हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक विमुख रहते हैं कि वे चाहे कितनी भी बुरी चीजें कर लें, फिर भी अड़ियल बनकर उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह साबित करने के लिए काफी है कि मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते या सत्य स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं; वे शैतान के सेवक हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और रुतबा होता है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी और तब उनका रुतबा और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप वे ‘मरने तक नकारते रहो’ के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे उन्हें कैसे भी उजागर करें या उनका कैसे भी गहन-विश्लेषण करें, वे इसे नकारने के लिए जो बन पड़े, वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में एक ओर ये व्यवहार मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर करते हैं। दूसरी ओर यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपने रुतबे, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और गैर-जिम्मेदारी का रवैया होता है। उनमें अंतरात्मा और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर जिम्मेदारी से बचना सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने के उनके प्रकृति सार को साबित करता है तो दूसरी ओर यह उनमें जमीर, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनकी गड़बड़ी और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई ग्लानि महसूस नहीं होती और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और विवेक का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? सारतः, मसीह-विरोधी लोग दानव हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधियों के दिलों में केवल अपनी ही प्रतिष्ठा और रुतबा होता है और वे दूसरों के मार्गदर्शन और प्रकाशन को लेकर प्रतिरोध और विरोध का रवैया रखते हैं। यह जानते हुए भी कि दूसरों के द्वारा बताई गई समस्याएँ तथ्यात्मक हैं और वे वास्तव में कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को प्रभावित करने के साथ ही नुकसान पहुँचा रही हैं, वे फिर भी इसे स्वीकारने से इनकार करते हैं। वे न तो दोषी महसूस करते हैं और न ही बदलाव करने पर विचार करते हैं। परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग शैतान के सेवक और दानव हैं! इस दौरान मैंने जो भी प्रकट किया था उस पर मैंने विचार किया। जब मैंने देखा कि वाँग ताओ ने मेरे और सुसमाचार प्रचारकों के कार्य में भटकावों की रिपोर्ट अगुआ को कर दी तो मुझे लगा कि वह मुझे अपमानित करने की कोशिश में हद से आगे जा रहा है। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के लिए मैं बहस करती रही और खुद को सही ठहराने की कोशिश करती रही, लेकिन मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया या काम में आने वाली समस्याओं का समाधान नहीं किया। बाद में जब मैंने देखा कि अगुआ ने वाँग ताओ द्वारा बताई गई समस्याओं और भटकावों को बहुत गंभीरता से लिया और मुझे लगा कि मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँच रहा है तो मैंने वाँग ताओ को सबक सिखाने और अपनी व्यक्तिगत शिकायतें दूर करने के लिए उसे लिखने के बारे में सोचा ताकि वह दोबारा मेरी समस्याओं की रिपोर्ट करने से डरे। मैंने अपनी सहभागी बहनों के सामने भी वाँग ताओ को दोषी ठहराया और उसकी आलोचना की, अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए दिखावटी बातें कहीं और बहनों को अपने पक्ष में करने के प्रयास में उनमें वाँग ताओ के प्रति पूर्वाग्रह विकसित किया। जब अगुआ ने मुझे याद दिलाने के लिए लिखा तो अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने की आवश्यकता समझते हुए मैंने अगुआ को धोखा देने के लिए कुछ बातें कहीं। मैंने देखा कि सत्य से विमुख होने का मेरा स्वभाव कितना गंभीर था! जब वाँग ताओ ने मेरे कर्तव्य में भटकावों के बारे में बताया तो इसका मतलब यह था कि वह परमेश्वर के इरादों पर विचार कर रहा था, जिम्मेदार था और उसमें न्याय की भावना थी। मगर क्योंकि इसने मेरे आत्मसम्मान और रुतबे पर आघात किया, इसलिए मैंने न केवल उसके सुझावों को अस्वीकार किया, बल्कि सही और गलत के बीच उलझते हुए मेरी सहभागी बहनों के सामने उसकी आलोचना की और उसे नीचा दिखाया। मैंने किसी को भी मेरे काम में हुए भटकावों के बारे में बताने की अनुमति देने से इनकार किया और अगर किसी ने मेरे व्यक्तिगत हितों पर आघात करके ऐसा किया तो मैंने न केवल इसे अस्वीकार किया बल्कि उसे दुश्मन समझकर उसकी आलोचना की, जिससे एक ऐसे स्वभाव का खुलासा हुआ जो दुष्ट और सत्य से विमुख था। परमेश्वर उजागर करता है कि कैसे जब मसीह-विरोधी जिम्मेदारी से भागते हैं तो यह केवल सत्य की स्वीकृति की कमी को ही नहीं बल्कि कलीसिया के कार्य के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये और मानवता की कमी को भी दर्शाता है। मैंने सोचा कि कैसे इस पूरे समय के दौरान मैंने केवल अपने निजी हितों पर ही विचार किया और कलीसिया के काम पर नहीं। सिंचन कार्य पर असर पड़ने या नए लोगों की सभाओं में देरी होने से मैंने परेशान या दोषी महसूस नहीं किया और मैंने देखा कि निजी हितों की खातिर मैं वास्तव में एक स्वार्थी और बेफिक्र इंसान बन गई, जिसमें रत्ती भर भी मानवता नहीं थी। एक सुसमाचार उपयाजक के रूप में, सुसमाचार कार्य को बेहतर ढंग से बढ़ावा देने के लिए मुझे भाई-बहनों का पर्यवेक्षण स्वीकारना चाहिए था। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने की खातिर न केवल मैंने मार्गदर्शन या सहायता स्वीकार नहीं की, बल्कि अपनी सहभागी बहनों को भी वाँग ताओ के प्रति पूर्वाग्रह विकसित करने के लिए उकसाया। मैं एक नकारात्मक भूमिका निभा रही थी और कलीसिया की भलाई के लिए काम नहीं कर रही थी! अगर मैंने यह रवैया नहीं बदला तो अंत में परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा। इन बातों पर विचार करते हुए मुझे वास्तव में संताप महसूस हुआ और मुझे एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्य में भाई-बहनों का पर्यवेक्षण मेरे लिए अच्छी बात थी, क्योंकि यह मेरे कर्तव्य में भटकावों को तुरंत ठीक करने और कलीसिया का काम अच्छी तरह से करने में मेरी मदद करने के लिए किया गया था। अगर मैंने वाँग ताओ के सुझावों को पहले ही स्वीकार कर लिया होता तो कार्य में वे समस्याएँ निश्चित रूप से बहुत पहले ही हल हो गई होतीं।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “सत्य की खोज करते समय, तुम्हें बहुत-से लोगों से पूछना चाहिए। अगर किसी के पास कुछ कहने को है, तो तुम्हें सुनना चाहिए और उसके सभी कथनों को गंभीरता से लेना चाहिए। उनकी अनदेखी न करो, न ही उन्हें झिड़को, क्योंकि यह तुम्हारे कर्तव्य के दायरे के भीतर के मामलों से संबंधित है और तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। यही सही रवैया और सही दशा है। जब तुम्हारी दशा सही हो, और तुम सत्य से विमुख और घृणा करने वाला स्वभाव प्रदर्शित न करो, तो इस प्रकार अभ्यास करने से यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेगा। यही है सत्य का अभ्यास। अगर तुम सत्य पर इस तरह अमल करोगे, तो इसका फल क्या होगा? (पवित्र आत्मा हमारा मार्गदर्शन करेगा।) पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाना एक पहलू है। कभी-कभी मामला बहुत आसान होगा और इसे तुम अपने दिमाग से पूरा कर लोगे; दूसरे लोगों के सुझाव देने और तुम्हारे उन्हें समझ लेने के बाद तुम चीजों को सुधार सकोगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे। लोगों को लग सकता है कि यह बहुत छोटी बात है, मगर परमेश्वर के लिए यह बड़ी बात है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम ऐसा अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के लिए तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान बन जाते हो, एक इंसान जो सत्य से प्रेम करता है, और एक ऐसा इंसान जो सत्य से विमुख नहीं है—जब परमेश्वर तुम्हारे दिल में झांकता है, तो वह तुम्हारा स्वभाव भी देखता है, और यह एक बहुत बड़ी बात है। दूसरे शब्दों में, जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, परमेश्वर की मौजूदगी में कर्म करते हो, और तुम जो जीते और दर्शाते हो, वे सब सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, जो लोगों में होनी चाहिए। तुम्हारे हर काम में जो रवैये, सोच-विचार और दशाएँ होती हैं, वे परमेश्वर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं, और परमेश्वर इन्हीं की जाँच करता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश के माध्यम से मैं समझ गई कि जब भाई-बहन मुझे सुझाव देते हैं या मेरी काट-छाँट करते हैं तो मुझे पहले खोजने के भाव के साथ सुनना चाहिए और मैं बस उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकती या सिर्फ अपनी बात पर बहस नहीं कर सकती या खुद को सही नहीं ठहरा सकती। अगर मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो मैं सत्य स्वीकारने के रवैये के साथ अपने भाई-बहनों से मदद माँग सकती हूँ। सत्य से प्रेम करने का यही अर्थ है। हर रोज जो कुछ भी होता है उसमें परमेश्वर का इरादा होता है और परमेश्वर सिर्फ मैं जो करती हूँ उसमें सही-गलत या मेरे कर्तव्य में भटकाव ही नहीं देखता, बल्कि सत्य और अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया भी देखता है। ये वही चीजें हैं जो परमेश्वर देखना चाहता है। इसे महसूस करते हुए, मैंने चुपचाप अपने आप से कहा कि अब से चाहे मुझे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े या दूसरे मुझे कोई भी सुझाव दें, मैं सबसे पहले उन्हें स्वीकारूँगी और सत्य की खोज करूँगी। मैं अब और बहस नहीं कर सकती थी या ऐसे स्वभाव के साथ नहीं जी सकती थी जो सत्य से विमुख हो।
अगले कुछ दिनों के दौरान, मैं इस बारे में सोचती रही कि कैसे मैं सुसमाचार कार्य के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हूँ और फिर भी मैंने वाँग ताओ द्वारा बताई गई इस कार्य की समस्याओं का कभी समाधान नहीं किया। इसका मुख्य कारण यह था कि मैं वास्तव में अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह और गैर-जिम्मेदार थी। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “अगर लोग अपना कर्तव्य निभाने को लेकर लापरवाह या हमेशा भ्रमित रहते हैं तो तुम्हें यह किस प्रकार का रवैया लगता है? क्या यह महज बेपरवाह होना नहीं है? क्या अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा यही रवैया है? यह काबिलियत की समस्या है या स्वभाव की? इस बारे में सबको स्पष्ट समझ होनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाते समय लोग निपट लापरवाह क्यों होते हैं? परमेश्वर के लिए कार्य करते समय वे निष्ठावान क्यों नहीं होते हैं? उनमें विवेक या अंतरात्मा होती भी है या नहीं? अगर, तुममें सच में अंतरात्मा और विवेक हो, तो कार्यों को करते समय तुम उनमें थोड़ा ज्यादा मन लगाओगे और थोड़ी अधिक सद्भावना, जिम्मेदारी और सोच-विचार का उपयोग करोगे, और तुम ज्यादा प्रयास कर पाने में सक्षम होगे। जब तुम अधिक प्रयास कर पाते हो, तब तुम्हारे कर्तव्यों के निर्वहन के परिणामों में अवश्य सुधार होगा। तुम्हारे परिणाम बेहतर होंगे, और यह परमेश्वर के साथ-साथ लोगों को भी संतुष्ट करेगा। तुम्हें इसे जी-जान से करना होगा! तुम अपने दिमाग को ताक पर रखकर इस तरह काम नहीं कर सकते कि मानो यह एक आम सांसारिक जगह है और इसमें तुम्हें अपने समय के बदले सिर्फ पैसा कमाना है। अगर तुम्हारा रवैया ऐसा है तो तुम मुसीबत में हो। फिर तुम ठीक से कर्तव्य नहीं निभा पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात है जिम्मेदारी की भावना और जमीर होना, जो व्यक्ति की मानवता से जुड़ा है। जब मानवता वाले लोग संकेतों और सुझावों का सामना करते हैं—भले ही वे किसी से भी आते हों—अगर उनमें कलीसिया के हित शामिल हों, वे उन्हें गंभीरता से लेंगे और समस्याओं को कुशलतापूर्वक हल करेंगे। लेकिन मानवता से रहित लोगों के दिलों में ऐसी कोई जागरूकता नहीं होती है, वे चीजों को दंभी रवैये से देखते हैं, किसी भी चीज के प्रति कभी गंभीर नहीं होते और समस्याओं को जल्दी सुलझाने के बारे में नहीं सोचते। अगुआ और वाँग ताओ ने कई बार सुसमाचार कार्य में समस्याओं का जिक्र किया और वे सिंचन कार्य में देरी से बचने के लिए इन चीजों को जल्दी से हल करना चाहते थे। लेकिन मैंने इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचा। मैं घमंडी और दंभी थी और मुझे लगता था कि इन समस्याओं को हल करना आसान है और मैंने उन्हें पूरी तरह से हल करने का प्रयास किए बिना बस सामान्य तौर पर सुसमाचार प्रचारकों के साथ उन पर चर्चा की। इससे समस्याएँ बनी रहीं और काम में देरी हुई। मैंने देखा कि मैं न केवल अपने कर्तव्य की उपेक्षा कर रही थी बल्कि मुझमें अपने कर्तव्य में भटकावों का सामना करने के लिए आवश्यक रवैये का अभाव भी था। मुझमें रत्ती भर भी मानवता नहीं थी! उस समय से भाई-बहन चाहे जो भी सुझाव सामने रखते, मैं उन्हें स्वीकारना और समय पर उनका समाधान करने के लिए सत्य की तलाश करना सीखने लगी। मैंने वाँग ताओ को पत्र लिखकर मेरे द्वारा प्रकट की गई मनोदशा और इस दौरान सीखे गए सबक के बारे में बताने से शुरुआत की और उसके साथ इस बात की सहमति पर पहुँची कि सिंचनकर्ताओं के साथ सहयोग करने की समस्या को कैसे हल किया जाए। फिर मैंने सुसमाचार प्रचारकों के साथ इन भटकावों का विश्लेषण करते हुए कर्तव्य निर्वहन के दौरान उन सभी के रवैये से संबंधित समस्याएँ बताईं। इस प्रकार के अभ्यास के बाद, कार्य की कुछ समस्याएँ हल हुईं और सिंचनकर्ताओं के साथ हमारे सहयोग में पहले की तुलना में काफी सुधार हुआ।
एक बार, जब अगुआ ने बताया कि जिस काम का मैं जायजा ले रही थी उसे तात्कालिकता के आधार पर प्राथमिकता नहीं दे रही हूँ तो मेरा दिल बैठ गया। जिस काम का मैं जायजा ले रही थी उसमें अक्सर ऐसी समस्याएँ होती थीं जिनके बारे में बताना पड़ता था, इसलिए मैंने अपमानित महसूस किया और मुझे चिंता हुई कि अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैं उलझन में भी थी क्योंकि मैंने सोचा कि एक ही समय में सभी कामों का जायजा लेकर मैं काम में देरी से बच रही थी, तब भी मेरा मुद्दा क्यों उठाया जा रहा था? इस पल मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से बहस करना शुरू करने वाली हूँ, इसलिए मैंने चुपचाप अपने दिल में प्रार्थना करते हुए परमेश्वर से मेरे दिल की रक्षा करने के लिए कहा ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम करने से बच सकूँ। प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हारे सत्य न समझ पाने पर, कोई तुम्हें सुझाव दे, और सत्य के अनुसार कुछ करने का तरीका बताए, तो तुम्हें पहले उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, सबको उस पर संगति करने देना चाहिए, और देखना चाहिए कि यह रास्ता सही है या नहीं, यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर तुम इस बात की पुष्टि कर लो कि यह सत्य के अनुरूप है, तो उस पर अमल करो; अगर तुम तय कर लो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो उस पर अमल मत करो। यह इतना ही आसान है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। यह परिस्थिति परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित की गई थी; मुझे इससे सबक सीखना था और मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य नहीं कर सकती थी। अगुआ ने मेरे कर्तव्य में भटकावों के बारे में बताया था जो कार्य के लिए लाभदायक है, इसलिए मुझे सबसे पहले इसे स्वीकार करके विचार करना होगा और सत्य की खोज करनी होगी। इन मामलों पर विचार करने पर, मैंने पाया कि अगुआ द्वारा उठाए गए मुद्दे उचित थे और यह कि सभी कार्यों का एक साथ जायजा लेने से भाई-बहन अपने काम की प्राथमिकताओं में अंतर नहीं कर पाएँगे और इससे प्रमुख कार्यों में आसानी से देरी होगी। अगर मैंने कार्य को प्राथमिकता देने, उचित तरीके से उसका जायजा लेने और कार्यान्वित करने के संबंध में अगुआ के सुझावों का पालन किया तो यह कार्य के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा। उसके बाद मैंने कार्य का जायजा लेने के लिए अगुआ के सुझावों का पालन किया। इस तरह अभ्यास करने के बाद मुझे काफी सुकून महसूस हुआ और कार्य में भी प्रगति हुई और मैंने सच में परमेश्वर का आभार माना! बाद में जब अन्य भाई-बहनों ने मेरे कर्तव्यों में समस्याएँ बताईं तो मैं उनके साथ सही तरीके से पेश आई।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे वास्तव में एहसास हुआ कि भले ही मेरे भाई-बहनों के मार्गदर्शन और प्रकाशन की वजह से मुझे शर्मिंदा होना पड़ा, पर मैं देख पाई कि मेरे कर्तव्य में अभी भी कई कमियाँ और खामियाँ हैं। इस परिस्थिति ने सत्य से विमुख होने और सकारात्मक चीजों का प्रतिरोध करने के मेरे शैतानी स्वभाव का भी खुलासा किया, जिससे मुझे अपने बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करने में मदद मिली। मुझे लगा कि मेरे भाई-बहनों का मार्गदर्शन और सहायता पाना वास्तव में एक अच्छी बात है और मुझे एहसास हुआ कि यह कार्य और मेरे जीवन प्रवेश के लिए कितना फायदेमंद है।