66. अपनी हीनता की भावनाओं को पहचानना

लिन जिंग, चीन

मेरा स्वभाव जन्म से ही बहुत अंतर्मुखी है, और बचपन से ही मैं ज्यादा बात नहीं करती थी। खासकर लोगों के सामने मैं इतनी घबरा जाती थी कि कुछ कह नहीं पाती थी। अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तुलना में मेरी प्रतिक्रियाएँ धीमी थीं और मेरा दिमाग भी उतना तेज नहीं था। मेरे माता-पिता, रिश्तेदार और दोस्त हमेशा मुझे डांटते थे, कहते थे कि मैं दूसरों के सामने बोलती नहीं थी। वे यह भी कहते थे कि आज के समाज में अगर तुम अच्छी तरह से बोल नहीं सकती तो कोई तुम्हें नहीं पूछेगा। मजबूत हाथ और स्थिर पैर भी वाक्पटुता का मुकाबला नहीं कर सकते। मेरी चचेरी बहन मुझसे ज्यादा मीठा बोलती थी। सब उसकी वाक्पटुता की तारीफ करते थे और उसे पसंद भी करते थे। मुझे बहुत हीन भावना महसूस होती थी, जैसे मैं हर मामले में दूसरों से कम थी और मैं हाजिरजवाब भी नहीं थी। मुझे खुद से नफरत हुई—मैं दूसरों की तरह अच्छी तरह से बात क्यों नहीं कर सकती थी? मैं बहुत मूर्ख थी और खुद को व्यक्त करने की मेरी क्षमता बहुत खराब थी! मुझे हमेशा लगता था कि मैं दूसरों से कमतर थी और मैं और भी ज्यादा अंतर्मुखी होती गई। मई 2012 में मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, और अपने भाई-बहनों के संपर्क में आकर और उन्हें अपने अनुभव के बारे में खुलकर बात करने की उनकी क्षमता देख, मैंने भी धीरे-धीरे खुलकर अपने विचारों के बारे में बात करने की कोशिश की। मैं थोड़ा ज्यादा बोलने लगी।

जनवरी 2018 में मैं पाठ-आधारित कर्तव्य करने का प्रशिक्षण ले रही थी। शुरुआत में जब मैं अपनी बहनों के कर्तव्य निर्वहन में कोई समस्या देखती, तो मुझमें सीधे तौर पर उन्हें बताने का साहस था, और जब मैं बोलती थी तो मैं ज्यादा बेबस महसूस नहीं करती थी। हालाँकि, जैसे-जैसे मैंने उनके साथ ज्यादा समय बिताया, मैंने पाया कि मेरी सभी बहनों की अपनी-अपनी खूबियाँ थीं और सभी के पास कुछ व्यावहारिक अनुभव थे। खासकर बहन चेन शी, वह काम पर चर्चा करते समय या अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में संगति करते समय खुद को बहुत स्पष्ट रूप से व्यक्त करती थी। मेरे दिल में ईर्ष्या हुई। मुझे लगा कि चेन शी की काबिलियत अच्छी है और उसकी तुलना में मैं हर मामले में कमतर थी। बाद में जब हम सभा कर रहे थे या काम पर चर्चा कर रहे थे, तो मैं थोड़ी बेबस महसूस करती थी और अपने मन की बात आसानी से कहने की हिम्मत नहीं करती थी। मुझे डर था कि मैं दूसरों की तरह अच्छी तरह से नहीं बोल पाऊँगी और नतीजतन मेरा मजाक उड़ाया जाएगा। मार्च में एक दिन, चेन शी ने कहा कि मैं अपनी संगति के दौरान थोड़ा बेतरतीब ढंग से बात कर रही थी। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई और मेरे दिल में बहुत दुख हुआ। बाद में जब मैं संगति करने या राय व्यक्त करने के लिए सभाओं में जाती, तो मैं अनजाने में चेन शी की अपनी आलोचना के बारे में सोचने लगती थी। मुझे लगता था कि मैं वाक्पटु नहीं हूँ और मुझे कुछ गलत कहने और सबके सामने मूर्ख दिखने से डर लगता था, इसलिए मैं अपनी राय आसानी से बताने की हिम्मत नहीं करती थी। क्योंकि मैंने अपनी राय व्यक्त नहीं की, मेरी सहयोगी बहनों को मेरी दशा के बारे में पूछने के लिए अपना काम छोड़ना पड़ा। इससे कार्य की प्रगति में बाधा आई। एक बार, पर्यवेक्षक हमारे साथ काम पर चर्चा कर रहे थे और मेरे पास अपनी राय और सुझाव थे। लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैं ठीक से बोल नहीं पाती, अगर मैं खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाई तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” शब्द मेरी जुबान पर आ गए, लेकिन मैंने उन्हें निगल लिया। जब मैंने सुना कि चेन शी द्वारा व्यक्त की गई राय मेरे विचारों से बहुत मिलती-जुलती थी, तो मुझे दिल से बहुत दुख हुआ, “उसे देखो! वह बहुत वाक्पटु है और मंच पर घबराती नहीं है। मैं अच्छे से बोल क्यों नहीं पाती? मैं अपने मन की बात भी नहीं कह सकती!” बाद में मैं हताशा की दशा में जीती रही, और खुद को अच्छे से न बोल पाने वाली, बात करने में खराब और खराब काबिलियत वाली के रूप में सीमित कर लिया। मैंने यह भी शिकायत की—परमेश्वर ने मुझे सुवक्ता क्यों नहीं बनाया, जबकि चेन शी की काबिलियत इतनी अच्छी थी? धीरे-धीरे मैं कम से कम बोलने लगी, और सभा करते या काम पर चर्चा करते समय मुझे अक्सर नींद आने लगती थी। मैं अपनी किसी भी तरह की दशा के बारे में बात करने की हिम्मत नहीं करती थी। दरअसल, जब मैंने देखा कि मैं अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रही थी और अपनी बहनों को मेरी भावनाओं का ध्यान रखने पर मजबूर कर रही थी, तो मुझे दिल में दुख हुआ, लेकिन मुझे नहीं पता था कि इस दशा से कैसे बाहर निकलूँ। अंत में मैं अब और पाठ-आधारित कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी, मुझे बहुत दमित महसूस हुआ और मैं पीड़ा में थी। क्योंकि मैं अपनी दशा कभी नहीं बदल पाई, मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया और मेरा कर्तव्य बदल दिया गया।

मेरा कर्तव्य बदले जाने के बाद मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने इस पर विचार करना शुरू कर दिया कि मैं अपना कर्तव्य करने में इतनी नकारात्मक और निष्क्रिय क्यों थी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सभी लोगों के भीतर कुछ गलत अवस्थाएँ होती हैं, जैसे नकारात्मकता, कमजोरी, निराशा और भंगुरता; या उनकी कुछ नीचतापूर्ण मंशाएँ होती हैं; या वे लगातार अपने घमंड, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और निजी हितों से परेशान रहते हैं; या वे स्‍वयं को कम क्षमता वाला समझते हैं, और कुछ नकारात्मक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। यदि तुम हमेशा इन अवस्‍थाओं में रहते हो तो तुम्‍हारे लिए पवित्र आत्‍मा के कार्य को प्राप्‍त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम्‍हारे लिए पवित्र आत्‍मा के कार्य को प्राप्‍त करना कठिन हो जाता है, तो तुम्‍हारे भीतर सक्रिय तत्‍व कम होंगे और नकारात्मक तत्‍व बाहर आकर तुम्‍हें परेशान करेंगे। इन नकारात्‍मक और प्रतिकूल अवस्‍थाओं के दमन के लिए लोग हमेशा अपनी इच्‍छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन वे इनका कैसे भी दमन क्‍यों न करें, इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इसका मुख्‍य कारण यह है कि लोग इन नकारात्‍मक और प्रतिकूल चीजों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते; वे अपने सार को स्‍पष्‍ट रूप से नहीं देख पाते। इस कारण उनके लिए देह और शैतान के खिलाफ विद्रोह करना बहुत कठिन हो जाता है। साथ ही, लोग हमेशा इन नकारात्मक, विषादपूर्ण और पतनशील अवस्थाओं में फँस जाते हैं और वे परमेश्वर से प्रार्थना या उसकी सराहना नहीं करते, बल्कि इन्‍हीं सब से जूझते रहते हैं। परिणामस्‍वरूप, पवित्र आत्‍मा उनमें कार्य नहीं करता, और अंततः वे सत्‍य को समझने में अक्षम रहते हैं, वे जो भी करते हैं उसमें उन्‍हें रास्‍ता नहीं मिलता, और वे किसी भी मामले को स्‍पष्‍टता से नहीं देख पाते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने से मुझे अपनी नकारात्मकता का कारण समझ आया : मैं मानती थी कि मैं दूसरों जितनी अच्छी संगति नहीं कर सकती, इसलिए मैंने खुद को खराब काबिलियत वाली के रूप में सीमित कर लिया था। मैं लगातार इसी बात पर अटकी रहती थी कि दूसरे मुझे कैसे देखते हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि मैं अपनी राय जाहिर करने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। मैं दिन भर सहमी रहती थी, दमित महसूस करती थी और मुक्त होने का कोई रास्ता नहीं था। अपना कर्तव्य करते समय मैं पवित्र आत्मा का कार्य हासिल नहीं कर सकी और जो कुछ मेरे पास पहले था, उसे भी इस्तेमाल नहीं कर पा रही थी। इससे न केवल मेरी सहयोगी बहनें बाधित हुईं, बल्कि हमारे समग्र कार्य की प्रगति में भी देरी हुई। असल में मेरी काबिलियत इतनी भी खराब नहीं थी कि मुझे कोई समस्या ही नजर न आए, क्योंकि जब मैंने पहली बार शुरुआत की थी, तो मैं कुछ काम कर सकती थी और कुछ राय भी दे सकती थी, लेकिन बाद में, जब मैंने देखा कि चेन शी मुझसे बेहतर थी और उसने कहा कि मेरी संगति स्पष्ट नहीं थी, तो मुझे लगातार यह चिंता होने लगी कि वह मुझे नीची नजर से देखेगी। शर्मिंदगी के डर से मैंने अब अपनी राय व्यक्त करने की हिम्मत नहीं की। इतने लंबे समय तक नकारात्मक दशा में रहने के कारण मेरी आत्मा अंधकारमय और उदास हो गई और मेरे कर्तव्यों का कोई नतीजा नहीं निकला, इसलिए मेरा कर्तव्य बदलना पड़ा। मैंने इस पर सोचा और महसूस किया कि भले ही मैं बोलने में अच्छी नहीं थी, मुझे अपनी कमियों और खामियों को सही ढंग से लेना चाहिए, और वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकती हूँ। जो चीजें मैं नहीं कर सकती थी, उनके लिए मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, और अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए अपने भाई-बहनों की खूबियों को अपनाना चाहिए। इस तरह से अपना कर्तव्य करके ही मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन पा सकती थी। आगे बढ़ते हुए मैंने अपनी दशा बदली और अपना दिल अपने कर्तव्य में लगाया। जब मुझे कुछ समझ नहीं आता था, तो मैं अपनी बहनों के साथ सिद्धांतों की खोज करती थी और साथ में संबंधित पेशेवर ज्ञान का अध्ययन करती थी। जब मैंने देखा कि मेरी बहनें मुझसे बेहतर संगति करती थीं, तो मैंने अपनी कमियों को दूर करने के लिए उनकी इन खूबियों को अपनाने की कोशिश की। धीरे-धीरे मेरी दशा में सुधार हुआ और मुझे अपने कर्तव्य में कुछ रास्ते मिलने लगे, जिससे कुछ नतीजे निकलने लगे।

जून 2021 में मुझे कलीसिया में अगुआ बनाया गया और मैंने भाई ली यांग के साथ मिलकर कलीसिया के सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी संभाली। ली यांग कई सालों से सुसमाचार का कर्तव्य निभा रहा था, बोलने में बहुत अच्छा था और तेज दिमाग वाला था। उसके साथ काम करने में मैं थोड़ा बाधित महसूस करती थी। एक बार हम इस पर चर्चा कर रहे थे कि संभावित प्राप्तकर्ताओं को सुसमाचार का प्रचार कैसे किया जाए। मेरे पास कुछ विचार थे, लेकिन जब मैंने सोचा कि ली यांग को सुसमाचार का प्रचार करने में मुझसे ज्यादा अनुभव है, तो मुझे चिंता हुई कि अगर मैं अच्छी तरह से संगति नहीं कर पाई तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा, और इसलिए मैं चुप रही। फिर मुझे एहसास हुआ कि काम के बारे में संवाद करते समय दोनों पक्षों को अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए और एक-दूसरे की कमी पूरी करनी चाहिए, और इसलिए मैंने वही कहा जो मैं सोच रही थी। लेकिन जब मैं बोली, तो मैं बहुत घबराई हुई थी और खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाई। ली यांग ने सुना और फिर मेरी कुछ कमियों को बताया। उस समय मैं बस चाहती थी कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के बारे में भी स्पष्ट रूप से बात नहीं कर सकी, मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यह बहुत शर्मनाक है!” उसके बाद जब मैं फिर से ली यांग के संपर्क में आई, तो ऐसा लगा जैसे मेरा दिल पत्थरों के ढेर के नीचे कुचल जा रहा हो। मुझे बहुत भारीपन महसूस हुआ, फिर बहुत कम ही ऐसा होता जब मैं अपनी राय सामने रखती, बस एक तरफ दर्शक बनकर बैठी रहती। बाद में मैंने देखा कि ली यांग सुसमाचार का प्रचार करते समय सिद्धांतों की खोज करने के बजाय अनुभव पर भरोसा करता था और वह दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं करता था। इससे हमारे सुसमाचार कार्य में बाधा आई और मैं उसे यह बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने मन ही मन सोचा, “ली यांग मुझसे कहीं ज्यादा वाक्पटु है। अगर वह कोई अलग नजरिया रखता है और मैं स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाती, तो क्या मेरी और भी ज्यादा बेइज्जती नहीं होगी?” इसलिए मैंने उसकी समस्याओं को उजागर नहीं किया, जिससे सुसमाचार कार्य की प्रगति में देरी हुई। बाद में मुझे अपने सुसमाचार कार्य में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कार्य का कोई फल नहीं मिल रहा था। मुझे बहुत तनाव महसूस हुआ, और फिर मैंने सोचा कि मैं कितनी खराब वक्ता हूँ और मुझे खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त करना कितना मुश्किल लगता है। इससे मुझे और लगने लगा कि मैं एक अगुआ का कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर सकती और मैंने इस्तीफा देने के बारे में भी सोचा। मेरी दशा बद से बदतर होती गई और अंत में मुझे बर्खास्त कर दिया गया।

बर्खास्त होने के बाद मुझे बहुत दुख हुआ और मैंने आत्म-चिंतन किया, “मैं वाक्पटु और हाजिरजवाब लोगों के साथ होने पर हमेशा बाधित क्यों महसूस करती हूँ?” एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो में परमेश्वर के वचनों के दो अंश देखे, और मैं सचमुच द्रवित हो गई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : ‘यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।’ माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, ‘मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!’ ... ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद, हीनभावना की यह मानसिकता धीरे-धीरे हावी हो जाती है। यह एक प्रकार की स्थाई भावना में बदल जाती है, जो उनके दिलों में उलझकर दिमाग में भर जाती है। तुम भले ही बड़े हो चुके हो, दुनिया में अपना रास्ता बना रहे हो, शादी कर चुके हो, अपना करियर स्थापित कर चुके हो, और तुम्हारा सामाजिक स्तर चाहे जो हो गया हो, बड़े होते समय यह जो हीनभावना तुम्हारे परिवेश में रोप दी गयी थी, उससे मुक्त हो पाना असंभव हो जाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करके कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद भी, तुम सोचते रहते हो कि तुम्हारा रंग-रूप मामूली है, तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कमजोर है, तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाते, और कुछ भी नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, ‘मैं बस उतना ही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने की जरूरत नहीं, मुझे गूढ़ सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं सबसे मामूली बनकर संतुष्ट हूँ, और दूसरे मुझसे जैसा भी बर्ताव करना चाहें, करें।’ ... यह हीनभावना शायद तुममें पैदाइशी न हो, लेकिन एक दूसरे स्तर पर, तुम्हारे पारिवारिक माहौल, और जिस माहौल में तुम बड़े हुए हो, उसके कारण तुम्हें मध्यम आघातों या अनुचित फैसलों का पात्र बनाया गया और इस कारण से तुममें हीनभावना पैदा हुई(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “जब हीनभावना तुम्हारे दिल में गहरे बिठा दी जाती है, तो इसका न सिर्फ तुम पर गहरा असर होता है, यह लोगों और चीजों पर तुम्हारे विचारों, और तुम्हारे स्व-आचरण और कार्यों पर भी हावी हो जाती है। तो वो लोग जिन पर हीनभावना हावी होती है, लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं? वे दूसरों को खुद से बेहतर मानते हैं, मसीह-विरोधियों को भी खुद से बेहतर समझते हैं। यूँ तो मसीह-विरोधियों का बुरा स्वभाव और नीच मानवता होती है, फिर भी हीनभावना वाले उनसे ऐसे पेश आते हैं कि वे अनुकरणीय हों और ऐसे आदर्श उदाहरण हों जिनसे सीखा जा सके। वे अपने आपसे यह भी कहते हैं, ‘देखो, यूँ तो मसीह-विरोधी बुरे स्वभावों और नीच मानवता वाले हैं, फिर भी वे गुणवान हैं और उनमें मुझसे बेहतर कार्य क्षमता है। वे दूसरों के सामने आराम से अपनी क्षमताएँ प्रदर्शित कर सकते हैं, और शरमाए या घबराए बिना इतने सारे लोगों के सामने बोल सकते हैं। उनमें सचमुच हिम्मत है। मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकता। मैं बिल्कुल भी बहादुर नहीं हूँ।’ ऐसा किस कारण से हुआ? यह कहना होगा कि इसका एक कारण यह है कि तुम्हारी हीनभावना ने लोगों के सार की तुम्हारी परख, और साथ ही दूसरे लोगों को देखने के तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को प्रभावित कर दिया है। क्या यही बात नहीं है? (यही है।) तो हीनभावना का एहसास तुम्हारे आचरण को कैसे प्रभावित करता है? तुम खुद से कहते हो : ‘मैं मूर्ख पैदा हुआ था, बिना गुणों या खूबियों के, मैं हर चीज सीखने में धीमा हूँ। उस व्यक्ति को देखो : हालाँकि वह कभी-कभी गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करता है, मनमानी और उतावलेपन से कार्य करता है, फिर भी वह कम-से-कम गुणवान और खूबियों वाला तो है। जहाँ भी जाओ, लोग ऐसे ही लोगों से काम लेना चाहते हैं, और मैं वैसा नहीं हूँ।’ जब कभी कुछ होता है तो तुम पहली चीज यह करते हो कि खुद पर एक फैसला सुनाकर स्वयं को सबसे अलग कर लेते हो। मसला जो भी हो, तुम पीछे हटकर पहल करने से बचते हो, तुम्हें कोई भी जिम्मेदारी लेने से डर लगता है। तुम खुद से कहते हो, ‘मैं मूर्ख पैदा हुआ था। जहाँ भी जाता हूँ, मुझे कोई पसंद नहीं करता। मैं ओखली में सिर नहीं दे सकता, मुझे अपनी मामूली क्षमताएँ नहीं दिखानी चाहिए। अगर कोई मेरी सिफारिश करे, तो उससे साबित होता है कि मैं ठीक हूँ। लेकिन अगर कोई भी मेरी सिफारिश न करे, तो पहल करके कहना कि मैं यह काम हाथ में लेकर उसे अच्छे ढंग से कर सकता हूँ, मेरे बस की बात नहीं है। अगर मैं इस बारे में आश्वस्त नहीं हूँ, तो मैं ऐसा नहीं कह सकता—मैंने गड़बड़ कर दी तो क्या होगा, तब मैं क्या करूँगा? मेरी काट-छाँट हुई तो क्या होगा? मैं बेहद शर्मसार हो जाऊँगा! क्या यह अपमानजनक नहीं होगा? मैं अपने साथ ऐसा नहीं होने दे सकता।’ गौर करो—क्या इसने तुम्हारे स्व-आचरण को प्रभावित नहीं किया है? एक हद तक तुम कैसे आचरण करते हो इसमें तुम्हारा रवैया तुम्हारी हीनभावना से प्रभावित और नियंत्रित होता है। एक हद तक इसे तुम्हारी हीनभावना का परिणाम माना जा सकता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर ने उजागर किया कि कुछ लोग बचपन से ही बोलने में अनाड़ी होते हैं और दूसरों की तरह हाजिरजवाब नहीं होते और उन्हें घर और समाज में उन्हें कम आंकते हैं। इससे उनमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है। सोचती थी कि बचपन में मैं बात करना पसंद नहीं करती थी, धीमी समझ वाली थी और मेरा स्वभाव अंतर्मुखी था, रिश्तेदार, दोस्त, शिक्षक, सहपाठी और यहाँ तक कि मेरी माँ भी कहती थीं कि मैं वाक्पटु नहीं हूँ, तो मुझे बहुत हीन भावना महसूस हुई, और हमेशा लगता था कि मैं दूसरों से कमतर थी। हालाँकि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं अपने भाई-बहनों से अपने मन की बात खुलकर कर पाती थी, लेकिन जब मेरा सामना चेन शी जैसी प्रतिभाशाली, वाक्पटु और हाजिरजवाब व्यक्ति से हुआ, तो अनजाने में ही मुझे हीन भावना महसूस हुई। अपने काम पर चर्चा करते समय मैं अपनी राय व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करती थी, और जब परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करने के लिए सभा होती, तो मैं अपनी समझ और ज्ञान को साझा करने की हिम्मत नहीं करती थी। जब ली यांग और मैं एक साथ काम कर रहे थे और संयुक्त रूप से सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार थे, मैंने देखा कि वह भ्रष्ट स्वभाव से अपना कर्तव्य निभाता था और सुसमाचार कार्य में बाधा डाल रहा था, मैं जानती थी कि मुझे उसे उजागर करना चाहिए। लेकिन मुझे चिंता थी कि मैं स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाऊँगी, और अगर उसने कोई अलग राय रखी और मैं उसका खंडन नहीं कर पाई, तो मेरी बेइज्जती होगी। इसलिए मैं अपनी आँखों के सामने सुसमाचार कार्य में बाधा पड़ते हुए देखती रही, और ली यांग के साथ संगति करने की हिम्मत नहीं कर पाई। बाद में सुसमाचार कार्य में कई कठिनाइयाँ आईं और मुझे लगा कि चूँकि मैं वाक्पटु नहीं हूँ, खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकती, इसलिए मैं एक अगुआ का कर्तव्य निभाने में असमर्थ थी। मैंने इस्तीफा देने और अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ने के बारे में भी सोचा। हीनता की भावनाओं में जीते हुए मैं न सामान्य रूप से अपना कर्तव्य कर पा रही थी, न सत्य का अभ्यास। इससे न केवल मेरे जीवन को नुकसान हुआ, बल्कि मेरे काम का कोई फल भी नहीं निकला और अंत में मुझे बर्खास्त कर दिया गया। अगर मैं इस दशा को बदले बिना इसी में जीती रहती, तो मैं कोई भी कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाऊँगी, और अंत में परमेश्वर द्वारा हटा दी जाऊँगी। यह समझने पर मुझे बहुत दुख हुआ। मैं अब और हीनता की भावनाओं में नहीं जीना चाहती थी, और मुझे अपनी कमियों और खामियों को सही ढंग से लेना था।

एक बार मैंने एक बहन से अपनी दशा और कठिनाइयों के बारे में खुलकर बात की। उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ा। परमेश्वर ने कहा था : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, ये कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि एक मसीह-विरोधी की तरह ही मैंने भी प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत ज्यादा महत्व दिया था। छोटी उम्र से ही मुझे लगता था कि मैं बोलने में अनाड़ी थी और दूसरों की तरह अच्छी तरह से बात नहीं कर सकती थी। अपना कर्तव्य करते समय जब मेरा सामना वाक्पटु लोगों से हुआ, तो मुझे बहुत हीन भावना महसूस हुई। खासकर जब मेरी कमियाँ और खामियाँ उजागर होतीं और मुझे शर्मिंदा होना पड़ता, तो मैं और भी हताश हो जाती थी, खुद को खराब काबिलियत वाली के रूप में सीमित कर लेती थी, लेकिन अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करती थी। मैं केवल अपना मान बचाने में लगी रहती थी, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाती थी। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने मुझे कलीसिया में एक अगुआ बनने का प्रशिक्षण पाने का अवसर देकर आशीष दी थी, और मेरे साथ काम करने के लिए वाक्पटु, अनुभवी भाई-बहनों की व्यवस्था की थी। परमेश्वर का इरादा यह था कि मैं अपनी कमियों और खामियों को दूर करने के लिए दूसरों की खूबियों को अपनाऊँ। यह मेरे लिए सत्य को समझने और अपने पेशेवर ज्ञान को बेहतर बनाने में बहुत फायदेमंद था। हालाँकि, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने के लिए सत्य की खोज करने की कोशिश नहीं कर रही थी, बल्कि केवल दूसरे लोगों के दिलों में अपनी छवि को लेकर चिंतित थी। जब मैंने देखा कि मैं दूसरों की तरह अच्छी नहीं थी, तो मैंने हीन और बाधित महसूस किया, नकारात्मक दशा में जीती रही, ऊपर उठने की कोशिश करने के बारे में नहीं सोचा। जब मैंने ली यांग को कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करते और बाधा डालते देखा, तो उसे टोकने की हिम्मत नहीं की, और जो जिम्मेदारियाँ मुझे निभानी चाहिए थीं, वे भी नहीं निभाईं। मैं एक मसीह-विरोधी की तरह ही थी, अपनी इज्जत और रुतबे को बहुत महत्व देती थी, जबकि कलीसिया के कार्य को बिल्कुल भी बनाए नहीं रखती थी। सचमुच, मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी! मेरा दो बार बर्खास्त किया जाना परमेश्वर की धार्मिकता का नतीजा था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े, और महसूस किया कि मेरी हीनता की दशा में जीने का एक और कारण था। वह यह कि मैं अच्छी काबिलियत और खराब काबिलियत के बीच अंतर नहीं कर पाती थी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को सँभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। “सत्य का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है, चाहे तुम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखो। तुम मानवता की खराबियों और कमियों से बच सकते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण करने के मार्ग से कभी नहीं बच सकते। चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी पूर्ण या महान क्यों न हो या चाहे दूसरे लोगों की तुलना में तुममें कम खामियाँ और खराबियाँ हों और तुम्हारे पास ज्यादा शक्तियाँ हों, इससे यह प्रकट नहीं होता है कि तुम सत्य समझते हो और न ही यह सत्य की तुम्हारी तलाश की जगह ले सकता है। इसके विपरीत, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, बहुत सारा सत्य समझते हो और तुम्हें इसकी पर्याप्त रूप से गहरी और व्यावहारिक समझ है, तो इससे तुम्हारी मानवता की कई खराबियों और समस्याओं की भरपाई हो जाएगी। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम दब्बू और अंतर्मुखी हो, तुम हकलाते हो और तुम ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हो—यानी, तुममें बहुत सारी कमियाँ और अपर्याप्तताएँ हैं—लेकिन तुम्हारे पास व्यावहारिक अनुभव है और वैसे तो तुम बात करते समय हकलाते हो, फिर भी तुम स्पष्टता से सत्य की संगति कर सकते हो और यह संगति हर सुनने वाले को उन्नत करती है, समस्याएँ हल करती है, लोगों को नकारात्मकता से उबरने में सक्षम बनाती है और परमेश्वर के बारे में उनकी शिकायतें और गलतफहमियाँ दूर करती है। देखो, वैसे तो तुम अपने शब्दों को हकलाकर बोलते हो, फिर भी वे समस्याएँ हल कर सकते हैं—ये शब्द कितने महत्वपूर्ण हैं! जब आम लोग उन्हें सुनते हैं तो वे कहते हैं कि तुम एक गँवार व्यक्ति हो और जब तुम बोलते हो तो व्याकरण के नियमों का पालन नहीं करते हो और कभी-कभी तुम जिन शब्दों का उपयोग करते हो, वे वाकई उपयुक्त नहीं होते हैं। हो सकता है कि तुम क्षेत्रीय भाषा या रोजमर्रा की भाषा का उपयोग करते हो और तुम्हारे शब्दों में वह उत्कृष्टता और शैली नहीं होती है जो वाक्पटुता से बोलने वाले उच्च-शिक्षित लोगों में होती है। लेकिन तुम्हारी संगति में सत्य वास्तविकता होती है, यह लोगों की कठिनाइयाँ हल कर सकती है और जब लोग इसे सुनते हैं तो उसके बाद उनके चारों तरफ के सारे काले बादल छँट जाते हैं और उनकी सभी समस्याएँ सुलझ जाती हैं। तुम क्या सोचते हो, क्या सत्य को समझना महत्वपूर्ण नहीं है? (है।)” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि अच्छी काबिलियत का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति में किसी खास क्षेत्र में कोई खूबी हो; न ही यह कि कोई व्यक्ति जो वाक्पटु, हाजिरजवाब और दूसरों के साथ व्यवहार करने में कुशल है, वह अच्छी काबिलियत वाला है। ये तो बस लोगों के जन्मजात गुण हैं। वास्तव में अच्छी काबिलियत का मतलब है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को समझ सकता है। अच्छी काबिलियत वाला व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को बूझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में सक्षम होता है; जब वह परमेश्वर के वचनों की संगति करता है, तो वह उन्हें लोगों की दशाओं और कठिनाइयों के साथ जोड़ सकता है और अभ्यास का मार्ग बता सकता है। भले ही ऊपरी तौर पर उसमें कुछ कमियाँ हों और खुद को व्यक्त करने की उसकी क्षमता बहुत अच्छी न हो, वह फिर भी लोगों की वास्तविक समस्याओं को हल कर सकता है और उन्हें शिक्षा दे सकता है। अतीत में मैं हमेशा चीजों को तौलने के लिए अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करती थी। जब मैंने देखा कि मैं बोलने में अच्छी नहीं थी, तो मैं हीनता की दशा में जीती रही, खुद को खराब काबिलियत वाली के रूप में सीमित कर हर मोड़ पर इज्जत और रुतबे से बाधित रही। जो काम मैं कर सकती थी, वह भी मैंने नहीं किया, और अंत में मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया और मुझे बर्खास्त कर दिया गया। मैंने कुछ ऐसे भाई-बहनों के बारे में सोचा जो बोलने में अच्छे न होने के बावजूद, अपना कर्तव्य करते समय परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी ओर देखने में सक्षम हैं। जब उन्हें कोई समस्या समझ नहीं आती, तो वे दूसरों से खोज और संगति करते हैं, और कुछ समय बाद उनमें कुछ सुधार भी दिखाई देता है। इससे मैंने देखा कि कोई व्यक्ति बोलने में अच्छा है या नहीं, यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। मुख्य बात सत्य को समझना और उसका अभ्यास करना है। मैंने सोचा कि मैं कैसे बोलने में अनाड़ी और कुछ हद तक धीमी समझ वाली थी, और जब मैंने मुझसे बेहतर बोलने वाले लोगों को देखा तो मैं घबरा गई और मंच पर जाने से डरने लगी। हालाँकि, मुझमें परमेश्वर के वचनों को समझने की कुछ क्षमता थी, और मेरे कर्तव्य में समस्याओं के बारे में कुछ विचार और सोच थी; मैं कुछ समस्याओं को हल कर सकती थी। ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि मेरी काबिलियत इतनी खराब थी कि मेरे अपने कोई विचार या राय ही नहीं थे। लेकिन, जैसे ही मैंने अपने से बेहतर बोलने वाले को देखा, मैं हीनता की भावनाओं में जीने लगी। मैं अपना कर्तव्य करते समय अपने खोल में सिमट गई और बोलने की भी हिम्मत नहीं कर पाई। मैं लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार बिल्कुल भी नहीं देख रही थी। मुझे अपनी गलत राय बदलनी थी, और बाहरी तौर पर वाक्पटु लोगों से ईर्ष्या करना और उनका अत्यधिक आदर करना बंद करना था।

जनवरी 2024 में मुझे सुसमाचार टीम की अगुआ वांग लिंग को एक कंप्यूटर तकनीक सिखानी थी। जब मैंने सोचा कि वांग लिंग बोलने में कितनी अच्छी है, तो उसे सिखाते समय मेरा दिल थोड़ा घबरा गया, मैंने सोचा कि खुद को कैसे व्यक्त करूँ ताकि वह समझ जाए, लेकिन जब मैं सबसे महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुँची, तो उसने कहा कि वह मुझे समझ नहीं पा रही है। इस समय मुझे थोड़ा दुख हुआ और लगा कि मैं अच्छी नहीं हूँ, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे एहसास हुआ कि मैंने फिर से हीनता की दशा प्रकट की है, और जब मैंने देखा कि वांग लिंग मुझसे बेहतर बोलती है तो मैं बाधित महसूस करने लगी। मैंने पहले के बारे में सोचा, जब मैं हमेशा हीनता की दशा में जीती थी और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य नहीं कर पाती थी, सत्य का अभ्यास करने के कई अवसर हाथ से जाने दिए। इस बार मैं पहले की तरह हमेशा अपनी इज्जत और रुतबे के बारे में नहीं सोच सकती थी। जब मैंने इस तरह सोचा, तो मेरा दिल शांत हो गया, और मैंने वांग लिंग से पूछा कि उसे कौन सी बातें समझ नहीं आईं और तकनीक सीखने में उसे क्या कठिनाइयाँ हुईं। वांग लिंग के साथ संवाद करने और धैर्यपूर्वक उसका मार्गदर्शन करने से, अंत में उसने वह कौशल सीख लिया। हम दोनों बहुत खुश थे। अब मैं हीनता की भावनाओं से बाधित हुए बिना सामान्य रूप से अपना कर्तव्य कर सकती हूँ और मैं अपने दिल में परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ! इन अनुभवों के बाद मैंने देखा कि समस्याओं का सामना करते समय सत्य की खोज करना और सत्य को समझना बिल्कुल महत्वपूर्ण है। केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने से ही हम नकारात्मक भावनाओं को त्याग सकते हैं और मुक्ति और स्वतंत्रता में जी सकते हैं।

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