68. दूसरों से अपनी तुलना करने से होने वाली पीड़ा
2023 में मैं कलीसिया में नए लोगों को सींच रही थी। प्रशिक्षण द्वारा मैं विभिन्न पहलुओं में कुछ सिद्धांत समझने में सक्षम हो गई थी। मेरी साथी बहनों का लंबे समय तक प्रशिक्षण नहीं हुआ था और अपने कर्तव्यों या व्यक्तिगत जीवन प्रवेश में आने वाली कठिनाइयों के मामले में वे उन्हें हल करने में मदद के लिए मेरे पास आती थीं। मुझे टीम में अपनी उपस्थिति का कुछ एहसास होता था और मुझे दूसरों के मुझ पर भरोसा करने और मेरी प्रशंसा करने में आनंद मिलता था। एक दिन मुझे अचानक पर्यवेक्षक से एक संदेश मिला, जिसमें मुझसे सुसमाचार के धर्मोपदेशों का मूल्यांकन करने के लिए कहा गया था। मैं कुछ अशांत महसूस किए बिना नहीं रह सकी, “मैंने नवागंतुकों को सींचने में पहले ही कुछ सिद्धांत समझ लिए हैं और मुझे लगता है कि मैं वास्तव में इस कर्तव्य को समझ गई हूँ, लेकिन अगर मैं एक नया कर्तव्य निभाती हूँ, तो मुझे फिर से प्रशिक्षण लेना होगा और काम सीखना होगा और अगर मैं यह कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाती और फिर बरखास्त कर दी जाती हूँ, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या मैं पूरी तरह से अपमानित नहीं हो जाऊँगी?” इस पर विचार करने के बाद मुझे लगा कि मैं अपने वर्तमान कर्तव्य में अधिक सुरक्षित रहूँगी। लेकिन जब मैंने सोचा कि कलीसिया ने कैसे यह व्यवस्था की है, तो मुझे लगा कि इनकार करने से मैं पूरी तरह से विवेक की कमी वाली लगूँगी, इसलिए मैंने अनिच्छा से समर्पण कर दिया।
पहले तो बहन यू शिन ने मेरा सिद्धांत सीखने में मार्गदर्शन किया। जब कुछ ऐसा होता जो मुझे समझ में नहीं आता तो हम एक साथ जानकारी ढूँढ़ते थे और धीरे-धीरे मैं धर्मोपदेशों का मूल्यांकन करने के कुछ सिद्धांत समझने लगी। मैंने मन ही मन सोचा, “लगता है मैं इस कर्तव्य के लिए सक्षम हूँ।” कुछ दिन बाद बहन किंग मिंग टीम में शामिल हुई। पहले तो किंग मिंग अपनी राय ज्यादा नहीं देती थी, लेकिन एक हफ्ते बाद मैंने देखा कि किंग मिंग तेजी से सुधार कर रही थी। एक तरफ धर्मोपदेश पढ़ने के बाद मैं उसमें तब भी कोई समस्या नहीं ढूँढ़ पाती थी जबकि वह पहले ही मुद्दे पहचान चुकी होती थी। लगातार कई धर्मोपदेशों में वह समस्याएँ पहचानने वाली पहली व्यक्ति होती थी। मैं संकट का एहसास महसूस किए बिना नहीं रह सकी, “किंग मिंग मुझसे बाद में शामिल हुई लेकिन तेजी से प्रगति कर रही है। यदि यह जारी रहता है, तो क्या मैं उससे और भी पीछे नहीं रह जाऊँगी? क्या इससे मैं टीम में सबसे कमजोर नहीं बन जाऊँगी?” इस विचार ने मुझे काफी परेशान कर दिया। बाद में, जब हमने एक साथ धर्मोपदेशों का मूल्यांकन किया, मुझे चिंता हुई कि मैं समस्याएँ नहीं ढूँढ़ पाऊँगी या मेरी राय गलत हो सकती है। कभी-कभी जब हम धर्मोपदेश पढ़ना समाप्त करते, जबकि मैं अभी चीजों पर विचार कर ही रही होती थी, किंग मिंग अपनी तर्कसंगत अंतर्दृष्टि साझा करना शुरू कर देती थी। यू शिन उसके विश्लेषणों से सहमत होती, और जब मैं यू शिन और किंग मिंग को हँसते हुए और इन चीजों पर एक साथ चर्चा करते देखती, मुझे लगता था कि मैं पृष्ठभूमि में ओझल हो गई हूँ, और मैं दमन की भावनाओं से भर जाती और वहाँ से चली जाना चाहती थी। यहाँ तक कि मैंने संदेह करना शुरू कर दिया, “यदि पर्यवेक्षक किसी दिन सभा में आती है और मेरी प्रगति की कमी देखती है, तो क्या वह सोचेगी कि मुझमें काबिलियत की कमी है और उसने मुझे यह कर्तव्य सौंपकर गलती की है? यदि मुझे मेरी खराब काबिलियत के कारण बरखास्त कर दिया जाता है, तो मैं पूरी तरह से अपमानित हो जाऊँगी!” मैं नवागंतुकों के सिंचन का कर्तव्य निभाने का अपना समय याद किए बिना नहीं रह सकी। उस समय मैं टीम में एक मुख्य व्यक्ति होती थी, और मेरी साथी बहनें काम के मुद्दों में मेरी मदद लेती थीं, और ज्यादातर समय चर्चाओं के दौरान मेरे सुझाव अपनाए जाते थे। लेकिन अब मैं टीम में सबसे कमजोर बन गई थी! मुझे बस इस तरह अपर्याप्त होना स्वीकार नहीं था। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे पछतावा महसूस हुआ, मुझे खयाल आया, “यदि मुझे पता होता कि चीजें इस तरह से होंगी, तो मैंने यह कर्तव्य नहीं लिया होता और खुद को शर्मिंदा नहीं किया होता!” लगातार कई दिनों तक मैंने खुद को हताशा की अवस्था में फँसा हुआ पाया। मैं अपने कर्तव्य में और अधिक निष्क्रिय हो गई और धर्मोपदेशों का मूल्यांकन करते समय समस्याओं का भेद नहीं पहचान पाती थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था ठीक नहीं थी, इसलिए मैं प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आई, “परमेश्वर, मैं वास्तव में नकारात्मक महसूस कर रही हूँ, और मेरी खराब काबिलियत के कारण मेरे कर्तव्य में दूसरा काम सौंपे जाने का विचार भी मुझे अपमानित महसूस कराता है। मैं इस अवस्था में नहीं जीना चाहती और शैतान द्वारा हेरफेर नहीं किया जाना चाहती। मुझे इस दशा से बाहर निकालो।”
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सभी लोगों के भीतर कुछ गलत अवस्थाएँ होती हैं, जैसे नकारात्मकता, कमजोरी, निराशा और भंगुरता; या उनकी कुछ नीचतापूर्ण मंशाएँ होती हैं; या वे लगातार अपने घमंड, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और निजी हितों से परेशान रहते हैं; या वे स्वयं को कम क्षमता वाला समझते हैं, और कुछ नकारात्मक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। यदि तुम हमेशा इन अवस्थाओं में रहते हो तो तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना कठिन हो जाता है, तो तुम्हारे भीतर सक्रिय तत्व कम होंगे और नकारात्मक तत्व बाहर आकर तुम्हें परेशान करेंगे। इन नकारात्मक और प्रतिकूल अवस्थाओं के दमन के लिए लोग हमेशा अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन वे इनका कैसे भी दमन क्यों न करें, इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग इन नकारात्मक और प्रतिकूल चीजों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते; वे अपने सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। इस कारण उनके लिए देह और शैतान के खिलाफ विद्रोह करना बहुत कठिन हो जाता है। साथ ही, लोग हमेशा इन नकारात्मक, विषादपूर्ण और पतनशील अवस्थाओं में फँस जाते हैं और वे परमेश्वर से प्रार्थना या उसकी सराहना नहीं करते, बल्कि इन्हीं सब से जूझते रहते हैं। परिणामस्वरूप, पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करता, और अंततः वे सत्य को समझने में अक्षम रहते हैं, वे जो भी करते हैं उसमें उन्हें रास्ता नहीं मिलता, और वे किसी भी मामले को स्पष्टता से नहीं देख पाते। तुम्हारे भीतर बहुत-सी नकारात्मक और प्रतिकूल चीजें हैं और वे तुम्हारे हृदय में समा गई हैं, इसलिए तुम अक्सर नकारात्मक, विषादपूर्ण चित्त वाले और परमेश्वर से दूर, और दूर और पहले से भी अधिक कमजोर होते जाते हो। यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रबोधन और कार्य को प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम इन अवस्थाओं से बच नहीं पाओगे, और तुम्हारी नकारात्मक अवस्था नहीं बदलेगी, क्योंकि यदि तुम्हारे भीतर पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा है, तो तुम रास्ता नहीं खोज पाओगे। इन दो कारणों के चलते, तुम्हारे लिए अपनी नकारात्मक अवस्था को त्यागकर सामान्य अवस्था में प्रवेश करना बहुत कठिन है। ... लोगों के हृदय पूरी तरह से शैतानी चीजों से भरे हुए हैं। यह सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यदि तुम इन चीजों को अपने भीतर से नहीं निकाल फेंकते, यदि तुम इन नकारात्मक अवस्थाओं का त्याग नहीं करोगे, तो तुम स्वयं को रूपांतरित करके एक बच्चे के समान नहीं बन पाओगे और जीवंत, प्यारे, मासूम, सरल, सत्यपूर्ण और निश्छल रूप में परमेश्वर के सामने नहीं आ पाओगे। तब तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा का कार्य या सत्य प्राप्त करना कठिन हो जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे समझ आ गया कि यदि कोई व्यक्ति शुद्ध और ईमानदार दिल के बिना अपना कर्तव्य निभाता है और अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय लगातार अपने अभिमान और रुतबे की खातिर हिसाब-किताब लगाता रहता है, तो पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना बहुत कठिन है। पीछे मुड़कर देखते हुए मैंने सोचा कि पिछले कुछ दिनों में मेरा दिमाग अक्सर खाली क्यों रहा था, मैं यह भेद क्यों नहीं पहचान पाई कि धर्मोपदेशों में मुद्दे थे या नहीं और मैं पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन क्यों महसूस नहीं कर पाई। पता चला कि परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता असामान्य हो गया था। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मैंने पहली बार धर्मोपदेशों का मूल्यांकन शुरू किया था और मुझे एहसास हुआ कि मैं यह नहीं सोच रही थी कि अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए खुद को सत्य सिद्धांतों से कैसे लैस करूँ, इसके बजाय मैं अपने अभिमान, रुतबे और टीम में उपस्थिति के एहसास में व्यस्त थी। जब हम एक साथ धर्मोपदेशों का मूल्यांकन करते थे और मैं किंग मिंग को तेजी से प्रगति करते देखती थी, तो मुझे संकट का एहसास होता था। मैं लगातार डरती थी कि किंग मिंग मुझसे आगे निकल जाएगी और मुझे सबसे नीचे छोड़ देगी। जब मैंने देखा कि मैं अभी भी चीजों पर विचार कर रही थी जबकि किंग मिंग पहले से ही अपनी राय व्यक्त कर रही थी और यू शिन की स्वीकृति प्राप्त कर रही थी, मैंने इतना हीन महसूस किया कि मैं इस स्थिति से बचना चाहती थी और यहाँ तक कि मुझे पाठ आधारित कर्तव्य लेने पर पछतावा भी हुआ। मेरे सभी विचार केवल अभिमान और रुतबे के बारे में थे और मुझमें परमेश्वर के प्रति लेशमात्र ईमानदारी नहीं थी। परमेश्वर ने इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य की जिम्मेदारी के लिए मुझे उठाया था और मुझे परमेश्वर की गवाही देने के लिए मूल्यवान धर्मोपदेशों के चुनाव हेतु जितना जल्दी हो सके, लगन से सिद्धांतों का अध्ययन और उन पर पकड़ बनानी चाहिए। केवल तभी मैं परमेश्वर को संतुष्ट कर पाती। लेकिन चूँकि मेरे कर्तव्य में मेरी मंशा गलत थी और मैंने अपना दिल सही जगह पर नहीं लगाया, मैं परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन प्राप्त नहीं कर सकी। लंबे समय तक मैंने कोई प्रगति नहीं की। न केवल मुझे अपने जीवन में नुकसान उठाना पड़ा बल्कि कलीसिया के कार्य में भी देरी हुई। यदि मैं अपनी उचित जिम्मेदारियों पर ध्यान दिए बिना अभिमान और रुतबे पर ध्यान केंद्रित करती रहती, तो मैं अपना कर्तव्य गँवा देती। इस पर चिंतन करते हुए मुझे डर का एहसास हुआ, और इसलिए मैं पश्चात्ताप की प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “परमेश्वर, मैंने अपनी उचित जिम्मेदारियों पर ध्यान नहीं दिया है और मैं लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती रही हूँ, जिससे तुम्हें घृणा है। परमेश्वर, मैं अब और इस गलत रास्ते पर चलते रहना नहीं चाहती, मैं भविष्य में व्यावहारिक रूप से अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ और मैं चाहती हूँ कि तुम मेरे हृदय की पड़ताल करो।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जब किसी के पास कोई राय या कुछ प्रबुद्धता होती है और वह संगति में उसे तुम्हारे साथ साझा करता है, या उसके सिद्धांतों के अनुसार कोई चीज अभ्यास में लाई जाती है, और तुम देखते हो कि परिणाम बुरा नहीं है, तो क्या यह कुछ हासिल करना नहीं है? यह कुछ कृपा करना ही है। भाई-बहनों के बीच सहयोग एक की कमजोरियों की भरपाई दूसरे की खूबियों से करने की प्रक्रिया है। तुम दूसरों की कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हो और दूसरे तुम्हारी कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हैं। दूसरों की खूबियों से अपनी कमजोरियों की भरपाई करने और सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने का यही अर्थ है। अगर लोग सामंजस्यपूर्वक सहयोग करेंगे, केवल तभी वे परमेश्वर के समक्ष धन्य हो सकते हैं, और वे चीजों का जितना अधिक अनुभव करते हैं उनके पास उतनी ही अधिक वास्तविकता होती है, और वे अपने मार्ग पर जितना अधिक चलते हैं यह उतना ही अधिक रोशन होता जाता है और वे और भी अधिक सहज महसूस करते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल रोशन हो गया। मैं समझ गई कि किंग मिंग और मेरे सहयोग की परमेश्वर की व्यवस्था में उसका इरादा दिखता था। किंग मिंग ने पहले सुसमाचार का प्रचार किया था और उसे आम धार्मिक धारणाओं की अच्छी समझ थी, इसलिए जब उसने वे मुद्दे बताए जो उसने देखे, तो इसने मेरी कमियों की अच्छी तरह पूर्ति कर दी, मुझे जल्दी से धार्मिक लोगों की धारणाएँ और दशाएँ समझने और बूझने में मदद मिली। क्या इससे मुझे बड़ा लाभ प्राप्त नहीं हो रहा था? परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मुझे कुछ राहत महसूस हुई। हमारे बाद के धर्मोपदेश मूल्यांकनों के दौरान मैंने लगातार खुद की तुलना किंग मिंग से करना बंद कर दिया और इसके बजाय मैं उन मुद्दों पर पहले उसकी राय सुनती थी जिनकी असलियत मैं खुद नहीं जान पाती थी और इस तरह अभ्यास करके मैं अब अपने अभिमान की चिंताओं से बाधित नहीं थी। अभ्यास की एक अवधि के दौरान मैंने कुछ प्रगति की और अपने कर्तव्य में अधिक आराम और मुक्त महसूस किया।
कुछ समय बाद हमारी टीम में एक और बहन फांग हुआ शामिल हुई। फांग हुआ काफी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करती थी और हमारे एक साथ धर्मोपदेश मूल्यांकनों के दौरान फांग हुआ धर्मोपदेशों में मुद्दों को जल्दी से पहचानने और उन्हें तर्कसंगत और विश्वासप्रद रूप से व्यक्त करने में सक्षम थी। इस बीच मैं बस निष्क्रिय बनी रहती, लगता कि मैं योगदान नहीं दे सकती। मेरे दिल में उथल-पुथल मची रहती थी और मैं बेचैन महसूस करती थी। धीरे-धीरे मैंने देखा कि मेरी साथी बहनें फांग हुआ का बहुत आदर करने लगीं। जब भी उन्हें कुछ समझ नहीं आता, तो वे उससे मार्गदर्शन माँगती थीं, जैसे ही मैंने मन में सोचा तो मुझे अपने दिल में हल्की सी बेचैनी महसूस हुई, “फांग हुआ हर तरह से मुझसे बेहतर है। क्या इससे मैं फिर से टीम में सबसे निचले पायदान पर नहीं चली गई हूँ?” मेरी दो बहनों ने मेरी गलत दशा देखी और मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल किया, लेकिन मैं सुन नहीं सकी और मैं नकारात्मकता और प्रतिरोध की दशा में जीती रही। धर्मोपदेश मूल्यांकनों के दौरान मैं समस्याओं का भेद नहीं पहचान पाती थी। मैं मन ही मन सोचती थी, “मेरी काबिलियत खराब है और मैं टीम में ज्यादा योगदान नहीं दे सकती। सबसे अच्छा यही है कि मैं बस कोने में रहूँ और खुद को शर्मिंदगी से बचाने के लिए किसी से भी संपर्क से बचूँ।” रात को मैं करवटें बदलती रहती थी, सो नहीं पाती थी और दर्द और पीड़ा महसूस करती थी। उस क्षण मुझे अंततः एहसास हुआ कि जिस अभिमान और रुतबे और लोगों की प्रशंसा को मैं सँजोती थी, वे सब बेकार और खोखले थे और यह कि वे मेरी आत्मा में पीड़ा को जरा भी कम नहीं कर सकते थे। मुझे वास्तव में वे दिन याद आए जब मेरे पास परमेश्वर की उपस्थिति थी, क्योंकि मुझे अपनी आत्मा में एक ऐसी शांति और आनंद महसूस होता था जिसे मैं किसी और चीज के बदले नहीं पा सकती थी। मेरे पास अपनी विद्रोहशीलता और अपनी देह के विरुद्ध विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थता के लिए नफरत के सिवा कुछ नहीं था। परमेश्वर द्वारा मुझसे घृणा करना और अंधेरे में छोड़ दिया जाना अकेले मेरा ही दोष था। अपनी पीड़ा में मैं परमेश्वर के सामने आई और प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि जिस रास्ते पर मैं चलती रही हूँ वह गलत है। मैं दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा करती रही हूँ। मैं अब और इस तरह शैतान द्वारा छली जाना नहीं चाहती। मेरे भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करने में मेरी मदद करो।” अगली सुबह मैंने अपनी एक साथी बहन से अपनी दशा के बारे में खुलकर बात की। उसने मुझसे कहा, “तुम्हारा मुद्दा तुम्हारी खराब काबिलियत नहीं है। यह है कि जिस रास्ते पर तुम चल रही हो वह गलत है। तुम हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा कर रही हो और खुद की तुलना दूसरों से कर रही हो।” बहन ने अपने अनुभवों की भी संगति की और मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ा। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना और परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से अंततः मुझे समझ आ गया कि क्यों हर बार जब मैं खुद से बेहतर काबिलियत वाले लोगों के साथ बातचीत करती थी, तो नकारात्मक दशा में डूब जाती थी और यहाँ तक कि अपना कर्तव्य त्यागकर परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना चाहती थी। ऐसा मेरी अत्यधिक अहंकारी प्रकृति और दूसरों के बीच उपस्थिति का एहसास बनाए रखने के पीछे निरंतर भागने के कारण होता था। एक बार जब मैंने दूसरों को देखा जो मुझसे ज्यादा मजबूत थे या जिनकी काबिलियत मुझसे बेहतर थी और मुझे लगा कि मैं अब उनके बीच अलग नहीं दिख सकती, तो मैं अपर्याप्त महसूस करती, नकारात्मक दशा में रहती और खुद को सीमित कर लेती थी। वास्तव में हर किसी की काबिलियत, चाहे अच्छी हो या खराब, परमेश्वर द्वारा निर्धारित होती है। मेरी खुद की दूसरों के साथ निरंतर तुलनाओं में और कमतर रह जाने पर मैं जो नकारात्मकता महसूस करती थी, उसमें क्या मैं परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रही थी और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में विफल नहीं हो रही थी? मैंने देखा कि मैं सचमुच कितनी अहंकारी रही थी!
बाद में मैंने और आत्म-चिंतन किया, खुद से पूछा, “यद्यपि मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हूँ, फिर भी मैं क्यों लगातार अभिमान और रुतबे को खोजे बिना नहीं रह पाती?” मैंने इसे हल करने के लिए सत्य खोजना जारी रखा। अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं है; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते हैं। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। यूँ तो मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के समकक्ष देखते हैं और दोनों चीजों को समान पायदान पर रखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर पर उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण ही प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है तो प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है; प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करना सत्य और जीवन हासिल करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रसिद्धि, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनका आदर नहीं करता, सम्मान नहीं करता या उनका अनुसरण नहीं करता है तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने की कोई तुक नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था एक असफलता है? क्या मैं बिना आशा के नहीं हूँ?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी चीजों का हिसाब-किताब लगाते हैं। वे यह हिसाब-किताब लगाते हैं कि वे कैसे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, वे कैसे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, जब वे बात करें तो वे कैसे खुद को सुनने के लिए लोगों को जुटा सकते हैं और जब वे कार्य करें तो वे कैसे अपने सहारे के लिए लोगों को जुटा सकते हैं, वे जहाँ कहीं भी हों वे कैसे अपना अनुसरण करने के लिए लोगों को जुटा सकते हैं और उनके पास कैसे कलीसिया में एक प्रभावी आवाज हो सकती है और उनके पास कैसे शोहरत, लाभ और रुतबा हो सकता है—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी वास्तव में प्रतिष्ठा और रुतबे को सँजोते हैं। चाहे वे किसी के भी साथ हों या परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे हमेशा अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोच रहे होते हैं। वे प्रतिष्ठा और रुतबे को अपने अनुसरण का लक्ष्य और यहाँ तक कि अपना जीवन मानते हैं। एक बार जब उन्हें दूसरों से प्रशंसा या सम्मान नहीं मिलता और वे दूसरों के दिलों में अपनी जगह गँवा देते हैं तो वे अपने कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो देते हैं। इसकी रोशनी में खुद को देखने पर मैंने पाया कि मेरा व्यवहार और मेरे द्वारा अपनाया गया रास्ता बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा था। मैंने देखा कि अतीत में मैं चाहे किसी के भी साथ थी, मेरे विचार कभी भी इस बारे में नहीं थे कि पूरे दिल से अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाऊँ और मैं केवल इस बात की परवाह करती थी कि क्या मैं लोगों से प्रशंसा पा सकती हूँ और क्या दूसरों के दिलों में मेरी अच्छी छवि और उपस्थिति है। एक बार जब अभिमान और रुतबे की मेरी इच्छा संतुष्ट नहीं होती और मुझे लगता कि समूह में मेरा अंतिम निर्णय या उपस्थिति नहीं है तो मैं नकारात्मक और निष्क्रिय हो जाती, अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो देती, मैं अपना कर्तव्य छोड़ने और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने पर भी विचार करती थी। जब मैं सिंचन कर्तव्य कर रही थी तो चाहे जिन मुद्दों पर चर्चा होती हो, ज्यादातर समय हर कोई मेरे नजरिए और सुझाव अपना लेता था, मुझे लगता था कि मेरी उपस्थिति है, अंतिम निर्णय मेरा है और मेरा मिथ्याभिमान संतुष्ट हो जाता था। इसलिए मैं अपने कर्तव्य में बहुत सक्रिय हो गई और काम का चाहे जितना दबाव क्यों न हो, कभी शिकायत नहीं करती थी। लेकिन जब से धर्मोपदेश मूल्यांकन शुरू किया, मैंने देखा कि मेरी सभी साथी बहनें मुझसे बेहतर थीं और मुझे लगा कि मैं टीम में सबसे खराब बन गई हूँ। नतीजतन अभिमान और रुतबे की मेरी इच्छा संतुष्ट नहीं हुई, इसलिए मैंने अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो दी और मैं यह कर्तव्य छोड़ना चाहती थी। मैंने हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा किया था और मैं गलत रास्ते पर चल रही थी। “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।” “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” “बड़ी पोखर में बड़ी मछली बनना बेहतर है।” जीवित रहने के ये शैतानी सिद्धांत मेरे दिल में गहराई से जड़ जमा चुके थे मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को अनुसरण में अपना लक्ष्य माना और इन चीजों को अपने जीवन की तरह सँजोया। लोगों की प्रशंसा के बिना मुझे लगता था मानो मेरा जीवन छीन लिया गया हो। मैं अपने दिल में स्पष्ट रूप से जानती थी कि धर्मोपदेश मूल्यांकन कलीसिया में एक महत्वपूर्ण कार्य था, लेकिन मैंने इस कर्तव्य में अपना दिल नहीं लगाया। मेरे सारे विचार अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में होते थे और नतीजतन धर्मोपदेशों का मूल्यांकन करते समय मैं समस्याओं की असलियत नहीं जान पाती थी और मेरे कर्तव्य से कोई नतीजे नहीं निकलते थे। इस तरह मेरे कर्तव्य निभाने से निश्चित रूप से परमेश्वर को घृणा होती थी। इन बातों पर चिंतन करने पर मेरे सुन्न दिल ने कुछ महसूस करना शुरू कर दिया, मुझे अपने दिल में कुछ डर लगा और इसके अलावा मुझे अपराध-बोध हुआ और ऋणी होने का एहसास हुआ। मैं परमेश्वर के सामने आई और प्रार्थना की, “परमेश्वर, अपने वचनों के माध्यम से मुझे उजागर करने और मेरा न्याय करने के लिए तुम्हारा धन्यवाद ताकि मैं उस गलत रास्ते को पहचान सकूँ जिस पर मैं चलती रही हूँ। यह मेरे लिए तुम्हारा उद्धार है। परमेश्वर, मैं अब और इन बेकार चीजों के पीछे नहीं भागना चाहती। मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ, और अब से मैं अपने अपराधों की भरपाई के लिए व्यावहारिक रूप से अपना कर्तव्य निभाऊँगी।”
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, लोगों के लिए उसके इरादे और अपेक्षाएँ समझीं। परमेश्वर कहता है : “अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है तो तुम्हारी मूर्खता अर्थवान है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है तो तुम्हारा तेज होना अर्थवान है। परमेश्वर तुम्हें जो भी प्रतिभा दे, तुम्हारे जो भी ताकत हो, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। अपने जीवन में तुम जो भूमिका और कर्तव्य निभाते हो—उन्हें परमेश्वर ने बहुत पहले ही नियत कर दिया था। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास ऐसी क्षमताएँ हैं जो उनके पास नहीं हैं और असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, वह व्यर्थ है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस भी चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के लिए उपयुक्त हो, तुम्हें वही कर्तव्य निभाना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या मत करो। हरेक का अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। अगर ऐसी बात है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मुझमें जो काबिलियत है वह परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित है, मुझे अपनी काबिलियत के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए और यह परमेश्वर के इरादे पूरे करता है। लेकिन क्योंकि मुझे जिसका अनुसरण करना था उस पर मेरे विचार गलत थे, मुझमें हमेशा अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती थीं। जब भी मैं खुद से बेहतर काबिलियत वाले दूसरों को देखती तो असंतुष्ट हो जाती, लगातार उनसे अपनी तुलना करती, मैं लगातार उनसे आगे निकलना और लोगों से प्रशंसा पाना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के निर्धारण के प्रति समर्पण नहीं किया और मैं हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता से परे जाना चाहती थी। क्या मैं इसमें परमेश्वर का विरोध नहीं कर रही थी? उसी समय मैंने यह भी समझा कि परमेश्वर यह नहीं देखता कि किसी की काबिलियत अच्छी है या खराब और इसके बजाय वह व्यक्ति के अपने कर्तव्यों के प्रति रवैये को देखता है, कि क्या उसमें जिम्मेदारी का एहसास है और क्या वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की काबिलियत खराब है, लेकिन वह सुन सकता है, समर्पण कर सकता है और सिद्धांतों के अनुसार व्यावहारिक रूप से अपने कर्तव्य निभा सकता है तो वह फिर भी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है। कुछ लोगों की काबिलियत अच्छी होती है और वे चीजों को जल्दी समझते हैं, लेकिन अपने कर्तव्य निभाते हुए वे हमेशा धूर्त होते हैं, लापरवाही से काम करते हैं और कामचोरी करते हैं। वे अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का कोई एहसास नहीं दिखाते और परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है। आगे बढ़ते हुए, चाहे मेरे आसपास के लोगों की काबिलियत कैसी भी हो, मैं खुद की तुलना दूसरों से नहीं कर सकती थी, क्योंकि परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को एक अलग काबिलियत दी है और उनसे उसकी अलग-अलग अपेक्षाएँ हैं। मेरी काबिलियत थोड़ी कम हो सकती है, लेकिन मैं अपनी काबिलियत के अनुसार अपना कर्तव्य यथासंभव अच्छे से निभा सकती थी और सभी के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग कर सकती थी। केवल तभी मैं शांति और आश्वासन के साथ अपने कर्तव्य निभा सकती थी। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के माध्यम से मेरी दशा धीरे-धीरे सुधरी और मैंने अधिक सहज और मुक्त महसूस किया। तब से मैंने अपना दिल अपने कर्तव्यों में लगा दिया और कुछ ही समय बाद मेरे कर्तव्यों से कुछ नतीजे मिलने लगे। मैंने अपने दिल में परमेश्वर का धन्यवाद किया।
बाद में, मुझे एक प्रचारक चुना गया। जब मैंने देखा कि मेरी साथी बहनें मुझसे छोटी थीं और उनकी काबिलियत मुझसे बेहतर थी, मैं कुछ दबाव महसूस किए बिना नहीं रह सकी। विशेष रूप से जब हम एक साथ संगति और काम कर रहे होते थे, मैं देखती थी कि मेरी साथी बहनें सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करती थीं, जिससे लोग इसे आसानी से समझ पाते थे। तुलनात्मक रूप से, मेरी अभिव्यक्ति उतनी स्पष्ट या व्यापक नहीं थी और मैंने यह सोचकर खुद को सीमित करना शुरू कर दिया, “अपनी काबिलियत के साथ क्या मैं यह कर्तव्य अच्छे से निभा पाऊँगी?” इस बिंदु पर मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा फिर से गलत थी और मैंने चुपचाप अपने दिल में प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अब दूसरों से अपनी तुलना नहीं करना चाहती, अपने भ्रष्ट स्वभाव में नहीं जीना चाहती और खुद को शैतान द्वारा नहीं छलने देना चाहती। मेरी रक्षा करो।” मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब लोग अपनी काबिलियत के प्रति तर्कसंगत रुख अपना पाते हैं और फिर अपनी स्थिति को सटीकता से पहचान पाते हैं, ऐसे सृजित प्राणियों के रूप में व्यावहारिक तरीके से कार्य करते हैं जिन्हें परमेश्वर चाहता है, अपनी अंतर्निहित काबिलियत के आधार पर उन्हें जो करना चाहिए वह उचित रूप से करते हैं और अपनी निष्ठा और अपना सारा प्रयास समर्पित करते हैं तो वे परमेश्वर की संतुष्टि प्राप्त करते हैं” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल रोशन हो गया। मुझमें जो काबिलियत है वह परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित है और मुझे इसे ठीक से देखना था और अपनी स्थिति पहचाननी थी। परमेश्वर ने हममें से प्रत्येक को अलग-अलग काबिलियत प्रदान की है और हमारे लिए उसकी अपेक्षाएँ भी अलग-अलग हैं। जब हम अपने कर्तव्यों में सहयोग करते हैं, तो हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम एक-दूसरे की क्षमताओं के पूरक बनें और एक-दूसरे की कमजोरियों की भरपाई करें। हर व्यक्ति के पास इस्तेमाल करने के लिए अपनी क्षमताएँ होती हैं, और केवल सहयोग करने की सर्वोत्तम कोशिश करके ही मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कर सकती हूँ। बाद में अपने कर्तव्यों में सहयोग करते समय जब मैंने अपनी बहनों को मुझसे बेहतर करते देखा, मैंने अपनी कमियों की भरपाई करने के लिए उनकी शक्तियों से सीखने की कोशिश की और जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो मैंने बहुत अधिक सहज और मुक्त महसूस किया। मेरा यह समझ और प्रवेश प्राप्त कर पाना पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के कारण हुआ है।