69. बीमारी की चिंताओं को पीछे छोड़ना

यांग जुन, चीन

2023 की शुरुआत में मेरे सिर में अजीब सी भनभनाहट महसूस हुई। मेरा रक्तचाप वैसे भी अक्सर ज्यादा रहता था तो मैंने मापकर देखा। मैं तो देखकर सन्न रह गया कि मेरा डायस्टोलिक रक्तचाप 110 और सिस्टोलिक 160 mmHg था! मैं एकदम चौंक गया और सोचने लगा “यह इतना ज़्यादा कैसे हो गया? ऐसे ही चलता रहा तो देर-सवेर कुछ न कुछ अनहोनी हो ही जाएगी!” मुझे याद आया मेरे पिता को भी इसी उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) की वजह से ब्रेन हैमरेज हुआ था और एक घंटे से भी ज्यादा की कोशिशों के बावजूद वे नहीं बच पाए थे। मेरी बुआ की भी उच्च रक्तचाप से ब्रेन हैमरेज के कारण दो दिन बाद ही मौत हो गई थी। बाद में मेरे बड़े भाई, बड़ी बहन और मुझे भी उच्च रक्तचाप की समस्या हो गई। डॉक्टर ने कहा था कि यह शायद हमारी खानदानी बीमारी है और हमें आगे से ज्यादा सावधानी बरतने की सलाह दी थी। मैं थोड़ा डर गया था, मुझे यह चिंता सताने लगी कि कहीं मैं भी अपने पिता और बुआ की तरह अचानक ही न चल बसूँ। पहले मैं सोचता था कि परमेश्वर में मेरा विश्वास है तो वह मेरी रक्षा करेगा और यह मामूली-सा उच्च रक्तचाप मेरा क्या बिगाड़ लेगा, यह कोई गंभीर समस्या नहीं बनेगी। लेकिन अब जब रक्तचाप इतना बढ़ा हुआ देखा तो मेरे मन में कहीं न कहीं शिकायत उभर आई और मैं सोचने लगा, “मैं इतने सालों से कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाता आ रहा हूँ, परमेश्वर ने मेरी इस मामूली-सी बीमारी को ठीक क्यों नहीं किया? अगर किसी दिन मेरा रक्तचाप अचानक बढ़ गया और मैं गिर पड़ा तो भले ही मैं न मरूँ पर अपाहिज तो हो ही जाऊँगा, तब मैं कैसे बचाया जा सकूँगा? मुझे खुद ही इसे काबू में करने का कोई उपाय ढूँढ़ना होगा, वरना अगर यह बीमारी और बढ़ गई तो मेरी जान पर बन आएगी।” उस दिन के बाद से मैंने अपनी सेहत का विशेष रूप से ध्यान रखना शुरू कर दिया। मैं जहाँ कहीं भी अपने कर्तव्य निभाने जाता, उच्च रक्तचाप के इलाज के बारे में पूछना कभी नहीं भूलता था और जब भी फुर्सत मिलती इंटरनेट पर इसके बारे में खोजता रहता था। अपने सिंचन के कर्तव्य के लिए जिन सिद्धांतों के अध्ययन की जरूरत थी मैंने उनकी भी उपेक्षा कर दी और जिन समस्याओं का जायजा लेकर उन्हें समय पर सुलझाने की जरूरत थी उन पर भी मैंने ध्यान नहीं दिया। मेरा सारा ध्यान बस अपनी बीमारी के इलाज पर ही टिका रहता था। मैं जानता था कि अपने कर्तव्यों के प्रति ऐसा रवैया ठीक नहीं है लेकिन जैसे ही मुझे नए विश्वासियों के सिंचन में लगने वाले समय और मेहनत का खयाल आता मुझे डर सताने लगता कि मेरा रक्तचाप और बढ़ जाएगा और मुझे लगता कि फिलहाल बीमारी का इलाज करवाना ज्यादा जरूरी है। जब मैं ऐसा सोचता तो मेरे मन का थोड़ा-बहुत अपराध-बोध भी हवा हो जाता था।

एक बार मुझे उच्च रक्तचाप के इलाज का एक देसी नुस्खा पता चला। मैंने सुना था कि बहुत से लोगों को इससे फायदा हुआ है तो मैं खुशी से उसे आजमाने चला गया। कुछ समय बाद हैरानी की बात यह हुई कि मेरा रक्तचाप कम होने के बजाय और भी बढ़ गया, सिस्टोलिक रक्तचाप 180 mmHg तक जा पहुँचा! यह देखकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया और खुद से पूछने लगा “मेरा रक्तचाप इतना कैसे बढ़ गया?” मैं बुरी तरह डर गया था और मुझे यह चिंता खाए जा रही थी कि कहीं मैं भी अपने पिता और बुआ की तरह अचानक ही न मर जाऊँ। मुझे उन लोगों का भी खयाल आया जिन्हें उच्च रक्तचाप की वजह से स्ट्रोक हुआ था, उनमें से कुछ लोग तो व्हीलचेयर पर थे, उनके चेहरे भावशून्य हो गए थे, वे अपनी देखभाल खुद नहीं कर पाते थे और कुछ तो एक तरफ से पूरी तरह लकवाग्रस्त हो गए थे। मुझे यह डर सताने लगा कि कहीं एक दिन मेरी भी हालत उन जैसी ही न हो जाए। मैंने जितना ज्यादा इस बारे में सोचा उतना ही मेरा डर बढ़ता गया, मैं दुख और गहरी चिंता में डूबता चला गया, मेरा ध्यान अपने कर्तव्यों से पूरी तरह हट चुका था। मैंने सोचा “शायद मुझे पहले घर जाकर आराम करना चाहिए और बीमारी ठीक होने के बाद ही अपने कर्तव्य दोबारा शुरू करने चाहिए।” लेकिन चूँकि सीसीपी की पुलिस मेरे पीछे पड़ी हुई थी और मैं घर नहीं जा सकता था, इसलिए मुझे इलाज करवाने के साथ-साथ अपने कर्तव्य भी निभाते रहने पड़े। उसके बाद मैं अपनी शारीरिक स्थिति पर और भी ज्यादा ध्यान देने लगा। जब भी मुझे चक्कर आते या सिर में दर्द होता तो मैं अनायास ही सोचने लगता था कि कहीं मेरा रक्तचाप फिर से तो नहीं बढ़ गया और क्या मैं चलते-चलते गिर पड़ूँगा और फिर कभी उठ नहीं पाऊँगा? मैं हर दिन खौफ में जीता था और इसका असर मेरे कर्तव्य निभाने पर भी साफ पड़ रहा था। बाद में मैंने सुना कि उच्च रक्तचाप के मरीजों को देर रात तक नहीं जागना चाहिए तो मैं शाम को जल्दी सोने लगा और मैंने जरूरी कामों को तुरंत निपटाने की आदत भी छोड़ दी। लेकिन जब अगले दिन मैं देखता कि कितना सारा काम इकट्ठा हो गया है तो मैं बहुत दबाव और घबराहट महसूस करने लगता। उस दौरान मैं पूरी तरह अपनी बीमारी के ख्यालों में खोया रहता था। अपने कर्तव्यों में मेरी कार्यकुशलता बहुत कम हो गई थी और इससे सिंचन कार्य में भी देरी हो रही थी। मुझे अपराध-बोध भी होता था लेकिन अपनी बीमारी के बारे में सोचते ही वह अपराध-बोध की भावना न जाने कहाँ गायब हो जाती थी। हर दिन मेरा ध्यान बस इसी पर रहता था कि मैं क्या खा सकता हूँ और क्या नहीं और अपनी बीमारी की देखभाल कैसे करूँ। मेरा अपने कर्तव्य करने का तो बिल्कुल भी मन नहीं करता था। मेरे मन में कुछ शिकायतें भी घर करने लगी थीं और मैं सोचने लगा “मैं इतने समय से कलीसिया में अपने कर्तव्यों के लिए कष्ट उठा रहा हूँ और खुद को खपा रहा हूँ, फिर परमेश्वर ने मेरी सुरक्षा क्यों नहीं की? मेरी हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ती ही जा रही है। अब मैं अपने कर्तव्य ठीक से कैसे निभा पाऊँगा?” मेरा दिल परमेश्वर से लगातार दूर होता जा रहा था और मेरा प्रार्थना करने का भी मन नहीं करता था। मैं सचमुच बहुत हताश और उदास महसूस कर रहा था और मुझे हर पल यह खौफ सताता रहता था कि न जाने कब मौत मुझे आ दबोचे। अपनी इस पीड़ा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसका इरादा समझने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की।

बाद में मुझे परमेश्वर के ये वचन पढ़ने को मिले : “ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?’ जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो हालाँकि सचमुच बीमार महसूस नहीं करते और जिनमें किसी भी बीमारी का निदान नहीं हुआ होता, फिर भी वे जानते हैं कि उनमें कोई बीमारी छिपी हुई है। कौन-सी छिपी हुई बीमारी? मिसाल के तौर पर, हो सकता है यह वंशानुगत बीमारी हो, जैसे दिल की बीमारी, मधुमेह या उच्च रक्तचाप, या हो सकता है अल्जाइमर्स या पार्किन्सन की बीमारी, या किसी किस्म का कैंसर—ये सभी छिपी हुई बीमारियाँ हैं। ... हालाँकि वे अपनी छिपी हुई बीमारी के बारे में कुछ भी न करने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी वे कभी-कभी अवचेतन रूप से किसी दिन, किसी पल, अनजाने ही एकाएक इस छिपी हुई बीमारी से ग्रस्त हो जाने से बचने के लिए तरह-तरह के देसी नुस्खे ढूँढ़ने में लग जाते हैं। कुछ लोग समय-समय पर लेने के लिए कुछ चीनी औषधीय जड़ी-बूटियाँ तैयार कर सकते हैं, कुछ लोग कभी-कभी जरूरत पड़ने पर लेने के लिए देसी नुस्खों के बारे में यहाँ-वहाँ पूछते हैं, और कुछ लोग कभी-कभी ऑनलाइन जाकर कसरतों के नुस्खे ढूँढ़ते हैं, ताकि वे कसरत कर के आजमा सकें। भले ही यह सिर्फ एक छिपी हुई बीमारी हो, फिर भी उनके दिमाग में यह सबसे ऊपर होती है; भले ही ये लोग बीमार महसूस न करें या उनमें कोई लक्षण न हों, फिर भी वे इसे लेकर चिंता और व्याकुलता से भरे होते हैं, और वे इसे लेकर गहराई से संतप्त और अवसाद-ग्रस्त अनुभव करते हैं, और प्रार्थना या अपने कर्तव्य-निर्वहन के जरिए अपने भीतर से इन नकारात्मक भावनाओं को ठीक करने या दूर करने की हमेशा उम्मीद करते हैं। ... हालाँकि जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु मानवजाति के लिए शाश्वत हैं और जीवन में इनसे बचा नहीं जा सकता, फिर भी एक विशेष शारीरिक गठन या खास बीमारी वाले कुछ लोग होते हैं, जो अपना कर्तव्य निभाएँ या नहीं, देह की मुश्किलों और बीमारियों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं; वे अपनी बीमारियों के बारे में चिंता करते हैं, उन तमाम मुश्किलों के बारे में चिंता करते हैं जो उनकी बीमारी उन्हें दे सकती है, कहीं उनकी बीमारी गंभीर न हो जाए, गंभीर हो गई तो उसके दुष्परिणाम क्या होंगे, और क्या इससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। खास हालात और कुछ संदर्भों में सवालों के इस सिलसिले से वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं और खुद को बाहर नहीं निकाल पाते; कुछ लोग तो पहले से जानते हुए कि उन्हें यह गंभीर बीमारी है या ऐसी छिपी हुई बीमारी है जिससे बचने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते, संताप, व्याकुलता और चिंता की दशा में ही जीते हैं, और वे इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं, चोट खाते हैं और नियंत्रित होते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी मनोदशा एकदम उजागर कर दी। जब से मुझे पता चला कि मुझे उच्च रक्तचाप है और यह हमारी खानदानी बीमारी है मैं इसी फिक्र में रहता था कि कहीं किसी दिन मैं भी अपने पिता और बुआ की तरह अचानक ही न चल बसूँ। परमेश्वर को जानने के बाद मैंने अपनी बीमारी उसी पर छोड़ दी थी, इस उम्मीद में कि वह मुझे ठीक कर देगा। लेकिन कई साल अपने कर्तव्य निभाने के बाद भी मेरा रक्तचाप कम होने के बजाय लगातार बढ़ता ही गया। इसलिए मुझे यह खौफ सताने लगा कि कहीं किसी दिन मैं अचानक ही न मर जाऊँ। खासकर जब मैंने कुछ लोगों को उच्च रक्तचाप की वजह से इतना बेबस देखा कि वे अपनी देखभाल भी खुद नहीं कर पाते थे तो मेरा डर और भी बढ़ गया कि कहीं एक दिन मेरा भी वही हश्र न हो। मैं दुख और चिंता में डूबा रहता, लगातार इलाज के नुस्खे आजमाता रहता, अपने कर्तव्य निभाने का तो मेरा बिल्कुल भी मन नहीं करता था। मैंने अपनी सारी ऊर्जा अपनी बीमारी के इलाज में ही लगा दी थी और अपने कर्तव्यों से जुड़े सिद्धांत सीखने में मेरा जरा भी ध्यान नहीं था। नए विश्वासियों की समस्याओं पर संगति करके उन्हें सुलझाने में भी मैं कोई जल्दबाजी नहीं दिखाता था, जिसका सीधा असर सिंचन कार्य पर पड़ रहा था। इस मोड़ पर आकर आखिरकार मुझे यह बात समझ आई कि दुख और चिंता में जीने से तो बस घबराहट और अँधेरा ही हाथ लगता है और मौत के साये में लगातार डरकर जीने से मेरा दिल परमेश्वर से और भी दूर होता जा रहा था। मैं अब इस तरह विद्रोही बनकर जिंदगी नहीं जीना चाहता था, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे कहा की कि वह मुझे दुख और चिंता की इन नकारात्मक भावनाओं से बाहर निकलने में मेरा मार्गदर्शन करे।

इसके बाद मुझे परमेश्वर के ये वचन पढ़ने को मिले : “हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक हो सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी जारी रहना चाहिए और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का कोई आदेश है और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है तो तुम नहीं मरोगे, फिर भले ही तुम्हें ऐसी कोई बीमारी क्यों न लग जाए जिसे प्राणघातक माना जाता है—परमेश्वर अभी तुम्हें नहीं ले जाएगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य न खोजो और अपनी बीमारी का इलाज न कराओ या भले ही तुम अपने इलाज में देरी कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। ... बेशक, भले ही लोग बीमार हों या नहीं, उन्हें अपने जीवनकाल में अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के बारे में कुछ सामान्य समझ होनी चाहिए। यह वह सहज प्रवृत्ति है जो परमेश्वर ने मनुष्य को दी है। यही वह तर्क और सामान्य समझ है जो उस स्वतंत्र इच्छा के अंतर्गत व्यक्ति के पास होनी चाहिए जो परमेश्वर ने उसे दी है। जब तुम बीमार पड़ जाते हो, तो इस बीमारी से निपटने के लिए देखभाल और उपचार के बारे में कुछ सामान्य समझ तुममें होनी चाहिए—तुम्हें यही करना चाहिए। परंतु, इस तरह से बीमारी का इलाज करने का मतलब परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित जीवनकाल को चुनौती देना नहीं है, न ही इसका मतलब यह वादा है कि तुम उस जीवनकाल को पूरा जी सकते हो जो उसने तुम्हारे लिए निर्धारित किया है। इसका अर्थ क्या है? इसे इस तरह से समझाया जा सकता है : निष्क्रिय दृष्टि से, यदि तुम अपनी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते हो, यदि तुम अपना कर्तव्य जिस तरह से भी निभाना चाहिए वैसा निभाते हो, और दूसरों की तुलना में थोड़ा अधिक आराम करते हो, यदि तुमने अपना कर्तव्य निभाने में देरी नहीं की है, तो तुम्हारी बीमारी और नहीं बढ़ेगी, और यह तुम्हें मार नहीं पाएगी। सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि परमेश्वर क्या करता है। दूसरे शब्दों में, यदि परमेश्वर की दृष्टि में तुम्हारा पूर्व-नियत जीवनकाल अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो भले ही तुम बीमार पड़ जाओ, वह तुम्हें मरने नहीं देगा। यदि तुम्हारी बीमारी लाइलाज नहीं है, लेकिन तुम्हारा समय आ गया है, तो परमेश्वर जब चाहे तुम्हें ले जाएगा। क्या यह पूरी तरह से परमेश्वर की दया पर निर्भर नहीं है? यह उसके पूर्वनिर्धारण पर ही निर्भर है!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं यह समझ गया कि किसी इंसान की उम्र कितनी होगी यह परमेश्वर पहले से निर्धारित कर देता है। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि वह बीमार है या नहीं या उसकी बीमारी मामूली है या गंभीर। ठीक मेरी माँ की तरह, जब से मैंने होश सँभाला वह हमेशा बीमार ही रहीं, सालों तक अस्पताल के चक्कर काटती रहीं और दवाइयाँ खाती रहीं। परिवार में हर कोई यही कहता था कि मेरी माँ मेरे पिता से पहले चली जाएँगी क्योंकि मेरे पिता की सेहत बहुत अच्छी थी और हमने उन्हें दशकों से कोई दवा लेते नहीं देखा था। लेकिन हम सब तब हैरान रह गए जब मेरे पिता को अचानक ब्रेन हैमरेज हुआ और उनकी मौत हो गई जबकि मेरी माँ जो लगातार डॉक्टर के पास जाती रहती हैं आज भी हमारे बीच हैं। इन उदाहरणों से मैंने देखा कि कोई इंसान कब मरेगा यह उसके अपने हाथ में नहीं होता। भले ही कोई इंसान बीमार न हो अगर उसकी उम्र पूरी हो गई है तो उसे मरना ही होगा और अगर उसकी उम्र अभी बाकी है तो वह नहीं मरेगा चाहे उसे कितनी भी जानलेवा बीमारी क्यों न लगी हो। सब कुछ परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण पर ही निर्भर है। लेकिन मैं तो हमेशा अपनी जिंदगी और मौत की बागडोर अपने ही हाथों में रखना चाहता था अपनी किस्मत खुद लिखना चाहता था। मैं परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता को समझ ही नहीं पाया था, मैं कितना नासमझ और घमंडी था! यह समझते ही मुझे खुद से गहरी नफरत सी होने लगी और मैं अपनी बीमारी परमेश्वर के हाथों सौंपने को तैयार हो गया। उस पल मुझे बड़ा सुकून मिला और मैं पहले की तरह उतना बेचैन और फिक्रमंद नहीं रहा।

बाद में भाई-बहनों ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा और परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद आखिरकार मैं यह समझ पाया कि बीमारी का आना भी परमेश्वर के बहुत गहरे इरादे से होता है। परमेश्वर कहता है : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैं यह समझ गया कि बीमार पड़ने का मतलब यह नहीं है कि हम बाहरी वजहें ढूँढ़ते फिरें, न ही यह कि डर में जिएँ, उससे जूझते रहें या उससे बचने की कोशिश करते रहें। इनमें से कोई भी परमेश्वर का इरादा नहीं है। परमेश्वर का इरादा तो यह है कि लोग बीमारियों के जरिए सबक सीखें, परमेश्वर का इरादा समझें, आत्म-चिंतन करके अपनी भ्रष्टता को पहचानें और अपने जीवन स्वभाव में कुछ बदलाव लाएँ। मैंने विचार किया कि कैसे अपनी बीमारी के दौरान मैंने परमेश्वर का इरादा न तो समझा था और न ही उसे जानने की कोशिश की थी, बल्कि मैं तो बस दुख और चिंता में ही डूबा रहा, यहाँ तक कि परमेश्वर से यह शिकायत भी की कि उसने मेरी रक्षा नहीं की मेरी बीमारी ठीक नहीं की। यह तो सरासर परमेश्वर के इरादे के खिलाफ था। इस तरह भला मैं खुद को कैसे समझ पाता और सबक कैसे सीख पाता? यह सोचते-सोचते मैंने गहराई से चिंतन करना शुरू किया “जब मेरी बीमारी ठीक नहीं हो रही थी तो मैंने परमेश्वर से शिकायत क्यों की?” इसी चिंतन के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मुझे अपने बारे में कुछ और समझ मिली। परमेश्वर कहता है : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे खुद पर बड़ी शर्म आई। परमेश्वर ने जिस मनोदशा को उजागर किया वह बिल्कुल मेरी ही थी। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो शुरू में मैंने परमेश्वर पर विश्वास सिर्फ आशीषें और अनुग्रह पाने के लिए ही किया था। मैं यही सोचता था कि जब तक मैं परमेश्वर में विश्वास रखूँगा और अपने कर्तव्य निभाता रहूँगा, वह मेरी देखभाल और सुरक्षा करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि मैं बिना किसी बीमारी या मुसीबत के सुकून और आराम से जी सकूँ। इसलिए जब मेरी हालत बिगड़ी तो मेरा व्यवहार एकदम बदल गया। मैं परमेश्वर से शिकायतें करने लगा, उससे बहस करने लगा, अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हो गया, यहाँ तक कि उन्हें छोड़ने तक का मन बना लिया। मैंने देखा कि मैं परमेश्वर में अपनी आस्था के जरिए बस आशीषें पाने की कोशिश में लगा था, अपने कर्तव्यों, त्याग और खुद को खपाने के बदले में परमेश्वर की सुरक्षा और आशीषें पाना चाहता था और उम्मीद लगाए बैठा था कि मेरी बीमारी ठीक हो जाए। यह सरासर धोखा था और परमेश्वर के साथ खुल्लमखुल्ला सौदेबाजी करने की कोशिश थी। मैं तो पौलुस की राह पर चल रहा था। पौलुस ने सालों तक काम किया और खुद को खपाया लेकिन इसलिए नहीं कि एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करे बल्कि इसलिए कि उसे इनाम और मुकुट हासिल हों। आखिरकार उसने यह कहकर अपनी असली भावनाएँ जाहिर कर ही दीं : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस ने प्रभु के लिए इसलिए काम किया ताकि वह धार्मिकता का मुकुट माँग सके और आशीषें पा सके। अपनी आस्था और कर्तव्यों में भी मैं आशीषें और शांति ही ढूँढ़ रहा था और जब मुझे ये चीजें नहीं मिलीं तो मैंने परमेश्वर से बहस की और उसका प्रतिरोध किया। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। मैंने देखा कि मैं कितना जमीर से विहीन, विवेकहीन और नीच बन गया था! उस पल मैं पछतावे और अपराध-बोध से भर गया। मैं अब परमेश्वर को धोखा देने या उससे सौदेबाजी की कोशिश नहीं करना चाहता था। मैं तो बस अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाना और परमेश्वर के दिल को सुकून पहुँचाना चाहता था। बाद में अपने कर्तव्य निभाते समय मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करता और उससे विनती करता कि वह मुझे प्रबुद्ध करे और मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं बीमारी के जरिए आत्म-चिंतन करना और खुद को समझना सीख सकूँ। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरी मनोदशा में काफी सुधार हो गया और मैं अपने कर्तव्यों के प्रति प्रेरित भी हो गया।

बाद में जब मैं जाँच के लिए अस्पताल गया तो मैंने पाया कि मेरा रक्तचाप अभी भी काफी ज्यादा था और मैं एक बार फिर चिंता किए बिना न रह सका और सोचने लगा “अगर मेरा रक्तचाप इतना ही ज्यादा बना रहा तो क्या मैं किसी दिन अचानक मर जाऊँगा?” मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से चिंता और बेचैनी में जी रहा था, इसलिए मैंने परमेश्वर के वचनों का सहारा लिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। अगर जीवित रहते हुए मृत्यु और हर तरह के रोगों का सामना करने पर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया विद्रोह, विरोध करने और सत्य से विमुख होने का हो, तो तुम्हारे दैहिक जीवन की समाप्ति का वक्त आने पर मृत्यु के बाद तुम किस रूप में अस्तित्व में रहोगे? तुम पक्के तौर पर किसी दूसरे रूप में रहोगे, और तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से जारी नहीं रहेगा। इसके विपरीत, अगर जीवित रहते हुए, तुम्हारे शरीर में जागरूकता होने पर, सत्य और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया समर्पण और वफादारी का हो और तुम सच्ची आस्था रखते हो, तो भले ही तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाए, तुम्हारा जीवन किसी और संसार में एक अलग रूप धारण कर अस्तित्व में बना रहेगा। मृत्यु का यह एक स्पष्टीकरण है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गया कि किसी इंसान की जिंदगी और मौत परमेश्वर पहले से निर्धारित कर देता है और हर किसी को एक न एक दिन मरना ही है। लेकिन मौत की प्रकृति और मरने के बाद का परिणाम हर इंसान के लिए अलग होता है। यह परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि इंसान ने जीते-जी सत्य और अपने कर्तव्यों के प्रति कैसा रवैया अपनाया था। मुझे पतरस का खयाल आया। प्रभु यीशु ने उसे अपनी भेड़ों की देखभाल करने और उन्हें चराने की अहम जिम्मेदारी सौंपी थी और पतरस ने प्रभु यीशु के इस आदेश को अपनी जिंदगी का एकमात्र मिशन मान लिया था। चाहे उसे कितना भी उत्पीड़न सहना पड़ा, क्लेश झेलने पड़े या बीमारी के शोधन से जूझना पड़ा, उसने कभी अपने कर्तव्य नहीं छोड़े। पतरस ने विश्वासियों का सिंचन किया और उनकी आस्था को मजबूत बनाया, यहाँ तक कि जब उसे उल्टा सूली पर चढ़ाकर उसकी जिंदगी खत्म कर दी गई उस पल तक वह अपने विश्वास पर डटा रहा। पतरस ने निडर होकर मौत का सामना किया और उसने अपनी पूरी जिंदगी की कीमत पर परमेश्वर का दिया हुआ मिशन पूरा किया और परमेश्वर की स्वीकृति पाई। मुझे पौलुस का भी खयाल आया। परमेश्वर की चकाचौंध वाली रोशनी से ठोकर खाने के बाद उसने प्रभु का सुसमाचार सुनाने में बहुत कष्ट उठाए। लेकिन उसने अपने कष्टों को आशीषें पाने की एक शर्त और परमेश्वर से मुकुट हासिल करने का एक जरिया मात्र समझा। उसकी सारी कोशिशें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की थीं, उसका इरादा बस अपने लिए आशीषें बटोरना था, न कि एक सृजित प्राणी का मिशन पूरा करना। वह तो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर रहा था। उसे न सिर्फ परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिली बल्कि उसकी निंदा भी की गई। पतरस और पौलुस के इन उदाहरणों से मैं समझ गया कि बिना किसी निजी अनुरोधों या माँगों के अपने कर्तव्य पूरे करने में खुद को पूरी तरह समर्पित कर देना ही सबसे कीमती और सबसे सार्थक है। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए और इसी से परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। गौर करने पर मैंने देखा कि अपने कर्तव्यों के प्रति मेरा रवैया ठीक पौलुस जैसा ही था। मैंने त्याग और खुद को खपाने को आशीषें पाने का एक जरिया माना, इस उम्मीद में कि परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा और जब मुझे वह नहीं मिला जो मैं चाहता था तो मैंने परमेश्वर से शिकायत की। अगर मैं इसी तरह सिर्फ अपनी देह को संतुष्ट करने के लिए जीता रहा तो भले ही मैं कितना भी सेहतमंद रहूँ और बीमारी या मुसीबत से कितना भी दूर रहूँ, अगर मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला और मैं फिर भी परमेश्वर का प्रतिरोध करता रहा तो क्या मैं बस एक चलती-फिरती लाश की तरह नहीं जी रहा होऊँगा? फिर ऐसे जीवन का क्या मतलब रह जाएगा? मुझे पतरस के जैसा बनना था। भले ही मेरे पास पतरस जैसी काबिलियत या उसकी जैसी मानवता नहीं थी, लेकिन मुझे अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने की भरसक कोशिश करनी थी, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी का कार्य करना करना था ताकि अगर मैं किसी दिन मर भी जाऊँ तो मुझे कोई पछतावा न रहे और कम से कम मेरी आत्मा को तो सुकून और शांति मिले। उस दिन के बाद से जब मैं अपने कर्तव्य निभाता तो मुझे बहुत ज्यादा सुकून महसूस होता और मैं अब अपनी बीमारी से बेबस महसूस नहीं करता था। कभी-कभी जब मैं अपने कर्तव्य निभाते समय चक्कर महसूस करता तो मैं थोड़ा आराम कर लेता, डॉक्टर की बताई दवा समय पर लेता और अगर ज्यादा देर तक बैठने से मुझे बेचैनी होती तो मैं उठकर थोड़ी कसरत कर लेता। मैंने पूरी कोशिश की कि मेरे कर्तव्यों में कोई देरी न हो। जब भाई-बहन काम में आने वाली समस्याओं के हल के लिए मदद माँगते तो अब मुझे उसमें कोई दिक्कत नहीं होती थी और मैंने संगति करके समस्याओं को सुलझाने की पूरी कोशिश की। जब मैंने अपने कर्तव्यों में अपना पूरा दिल लगाया तो कभी-कभी अनजाने में ही मैं देर रात तक काम करता रहता और मुझे चक्कर भी नहीं आते थे और आखिरकार मैंने दवा लेना भी बंद कर दिया। न सिर्फ मेरी हालत नहीं बिगड़ी बल्कि मैं और भी ज्यादा आराम महसूस करने लगा। तब जाकर पता चला कि उच्च रक्तचाप उतना खौफनाक नहीं था जितना मैंने सोच रखा था। यह परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने बीमारी के दुख, चिंता और परेशानी से उबरने में मेरी मदद की और मुझे उस नकारात्मक मनोदशा से बाहर निकाला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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