7. जिन आशंकाओं ने मुझे दूसरों की समस्याएँ उजागर करने से रोका

डेव, फिलीपींस

जुलाई 2023 के शुरू में मुझे जिला अगुआ चुना गया और मुख्य रूप से सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी दी गई। मैं जानती हूँ कि एक अगुआ के रूप में मेरी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले सभी भाई-बहनों के काम की निगरानी करना और उसका जायजा लेना मेरा कर्तव्य है। लेकिन कार्य का जायजा लेने और क्रियान्वयन करने में मेरी प्रगति बहुत धीमी रही क्योंकि कार्य को क्रियान्वित करते समय मैं एक समय में एक ही कार्य का जायजा लेती थी और अगले कार्य पर जाने से पहले भाई-बहनों का काम खत्म होने का इंतजार करती थी। मैं ऐसा इसलिए करती ताकि वे काम के बोझ से परेशान या निराश न हों। मैं चाहती थी कि हर कोई महसूस करे कि मैं संवेदनशील इंसान हूँ जो उन्हें समझ सकती है और उनके साथ सहानुभूति रख सकती है, इसलिए मैं काम की निगरानी और उसका जायजा लेते समय बहुत सतर्क रहती थी, क्योंकि मुझे डर था कि भाई-बहन कहेंगे कि मैं बहुत सख्त और असंवेदनशील हूँ और एक अच्छी अगुआ नहीं हूँ।

एक बार जब मैं क्रिसांता नाम की एक सुसमाचार पर्यवेक्षक के काम का जायजा ले रही थी, मैंने शुरू में योजना बनाई कि मैं उसकी जिम्मेदारी वाले हर सुसमाचार कार्यकर्ता के काम का जायजा लूँगी और प्रत्येक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता की स्थिति पर भी नजर रखूँगी, लेकिन वह अभी-अभी एक सभा समाप्त करके आई थी और मैंने मन ही मन सोचा, “वह अभी-अभी एक सभा समाप्त करके आई है, इसलिए शायद उसे आराम की जरूरत है। अगर मैं बस आगे बढ़ जाऊँगी और उसके काम का जायजा लूँगी तो क्या वह सोचेगी कि मुझमें समझ की पूरी तरह से कमी है?” मैं नहीं चाहती थी कि मेरे द्वारा उसका जायजा लेने से वह दबाव महसूस करे। “चूँकि शायद उसने पहले ही सभा के दौरान सुसमाचार कार्यकर्ताओं का काम देख लिया होगा, इसलिए उसके लिए इस बारे में सवालों के जवाब देना आसान हो सकता है, इसलिए मैं अभी उससे अन्य मामलों के बारे में नहीं पूछूँगी। इस तरह वह शिकायत नहीं करेगी कि मैं उससे बहुत सारे सवाल पूछ रही हूँ और उसे लगेगा कि मैं उसकी स्थिति पर विचार कर रही हूँ और मैं समझदार और सहानुभूतिपूर्ण हूँ।” मेरा मानना था कि एक अच्छे अगुआ को अपने भाई-बहनों को समझना चाहिए और उनकी भावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए, इसलिए उस समय मैंने क्रिसांता से सिर्फ सुसमाचार कार्यकर्ताओं के काम और योजनाओं के बारे में पूछा और मैंने इस बारे में पूछताछ नहीं कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता कैसा कर रहे हैं। बाद में अपना कर्तव्य निभाते हुए उसने सिर्फ सुसमाचार कार्यकर्ताओं के काम का जायजा लिया, जबकि उसने अन्य कार्यों की प्रगति का जायजा नहीं लिया या यह नहीं देखा कि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता कैसा कर रहे हैं। उसने समय पर इन चीजों के विवरण पर ध्यान नहीं दिया, नतीजतन उसके कर्तव्य की प्रभावशीलता कम हो गई। जब मैंने एक अन्य सुसमाचार पर्यवेक्षक बेला का जायजा लिया तो भी मुझे भी यही मसला दिखा। बेला अभी-अभी मेरी जिम्मेदारी के दायरे में आई थी और एक बार जब मैंने उससे कुछ सुसमाचार कार्यकर्ताओं के बारे में पूछा तो उसने जवाब दिया, “मैंने अभी तक इन चीजों का जायजा नहीं लिया है। मैं इन लोगों से बहुत परिचित नहीं हूँ और मैं अभी भी उन्हें जान रही हूँ।” मैंने सोचा, “पाँच दिन हो गए हैं, क्या इन चीजों को देखने में वाकई इतना समय लगता है?” मैं उसे याद दिलाना चाहती थी कि यह तरीका कारगर नहीं है और इससे काम में देरी होगी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर उसके आते ही मैं उसकी समस्याएँ बता दूँगी तो उसे लग सकता है कि मैं उसे समझ नहीं पा रही हूँ या सहानुभूति नहीं दिखा रही हूँ और उसकी मुश्किलों को ध्यान में नहीं रख रही हूँ। मैं उसके मन में कोई गलत छाप नहीं छोड़ना चाहती और अगर मैं ये बातें कहती हूँ तो मुझे चिंता है कि जब मुझे उसकी मदद की जरूरत होगी या कार्य क्रियान्वित करना होगा तो वह बाद में मेरे साथ सक्रियता से सहयोग नहीं करेगी और मुझे डर है कि वह बाद में मेरी समस्याएँ और कमियाँ भी बता सकती है।” मन में इन बातों को रखकर मैंने बेला के मसले नहीं बताए और नतीजा यह हुआ कि उसकी जिम्मेदारी वाले सुसमाचार कार्य की प्रगति बहुत धीमी हो गई। चूँकि मैंने सुसमाचार कार्य की निगरानी करने और उसका जायजा लेने का अपना अगुआई का कर्तव्य नहीं निभाया, मेरी जिम्मेदारी के दायरे में सुसमाचार कार्य की प्रगति कछुए की गति से चलने लगी।

जब हमने साथ मिलकर काम की समीक्षा की तो बेला ने खुलकर कहा, “मैं यह इंतजार कर रही हूँ कि अगुआ मेरे कार्य में कमियाँ बताए।” उसे यह कहते हुए सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छे से पूरी नहीं की हैं, मैंने उसके काम का जायजा नहीं लिया या उसके कर्तव्य में समस्याएँ नहीं बताईं। मुझे बहुत अपराध बोध हुआ, इसलिए मैंने अपनी मनोदशा के बारे में खुलकर संगति की। मेरी संगति के बाद पर्यवेक्षक लीना ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश साझा किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं? सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखना चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बँधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगी, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। फिर लीना ने मुझसे संगति की, “तुम दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखने के लिए काम का जायजा लेने को नजरअंदाज करती हो, और भले ही तुमने उन संबंधों को बनाए रखा, नतीजतन काम में देरी हुई। बेला ने अभी जो कहा, उसके अनुसार, वह वाकई तुम से काम का जायजा लेने की उम्मीद कर रही थी, ताकि उसे अपने कर्तव्यों में कुछ दिशा और मार्ग मिल सके। लेकिन तुम खुशामदी मानसिकता के साथ काम करती हो और तुम उसकी समस्याएँ न बताकर केवल अपनी छवि बचाने और संबंध बनाए रखने की कोशिश कर रही थी। अंत में तुमने अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं किए और तुम्हारे जायजा नहीं लेने और मार्गदर्शन की कमी के कारण बेला के काम को कोई दिशा नहीं मिली, नतीजतन सुसमाचार कार्य सीधे अप्रभावी हो गया। तुम्हें खुशामदी होने की अपनी समस्या पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है!” बहन की बात सुनने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। वाकई दूसरों के साथ मेरी बातचीत में “खुशामदी” मानसिकता थी। मैं किसी को नाराज नहीं करना चाहती थी, मैं अपने भाई-बहनों के साथ अपने रिश्तों को प्रभावित नहीं करना चाहती थी और मैं नहीं चाहती थी कि वे मुझे बेरुखा समझें। मैं शुरू में क्रिसांता के बहुत सारे कामों का जायजा लेना चाहती थी, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने बहुत ज्यादा जायजा लिया और चीजों पर ध्यान दिया तो उसे लगेगा कि मैं समझ नहीं पा रही हूँ, इसलिए मैंने सिर्फ उसके लिए आसान कामों का जायजा लेना और उनके बारे में पूछताछ करना चुना और मैंने उन ज्यादा परेशानी वाले कामों का जायजा नहीं लिया या उनके बारे में नहीं पूछा जो उसे शारीरिक रूप से बोझिल बनाते। मैंने सोचा कि इस तरह से वह मेरे बारे में शिकायत नहीं करेगी या बुरी राय नहीं बनाएगी। नतीजतन उसकी जिम्मेदारी वाला सुसमाचार कार्य अप्रभावी हो गया। मैंने बेला के काम का भी उसी तरह जायजा लिया। मैंने देखा कि अपने कर्तव्यों में उसकी दक्षता कम है और काम में देरी हो रही है, लेकिन मैं उसे नाराज करने के डर से यह बताना नहीं चाहती थी। मैंने जो किया और जिस तरह से पेश आई, उसे परमेश्वर ने उजागर कर दिया जब उसने कहा : “... हर किसी के साथ बनाए रखना, दूसरों को अपमानित नहीं करना और किसी को नाराज नहीं करना।” मैं सोचती थी कि इस तरह से काम करके मैं अच्छा कर रही हूँ और मैं अपने भाई-बहनों के साथ टकराव से बच रही हूँ। मुझे लगता था कि मैं हमेशा दूसरों की भावनाओं और मुश्किलों पर विचारशील रहती हूँ और मैं अच्छी इंसान हूँ, लेकिन परमेश्वर कहता है कि यह मानवीय व्यवहार के सिद्धांतों के खिलाफ है। बहनों को बार-बार सिर चढ़ाने से सुसमाचार के काम में प्रगति धीमी हो गई और इससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा। मैं अच्छी इंसान तो बिल्कुल भी नहीं थी, बल्कि खुशामदी, धोखेबाज इंसान थी। अगर मैंने अपनी चापलूसी वाली मानसिकता न बदली तो मैंने जो कुछ भी किया वह बेकार चला जाएगा, क्योंकि मैं सत्य का अभ्यास या परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर रही थी तो परमेश्वर मुझे स्वीकार नहीं करेगा। इस एहसास ने मुझे बदलने के लिए प्रेरित किया। मुझे अपने भाई-बहनों के कर्तव्यों के प्रदर्शन में जो भी समस्याएँ या कमियाँ दिखीं, उन्हें बताने की जरूरत थी और मुझे संगति और मदद की पेशकश करनी थी और अपने आत्मसम्मान पर विचारशील होना बंद करना था। मैं अब दूसरों के साथ अपने रिश्ते बनाए रखना नहीं चाहती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं देखती हूँ कि मैं सिर्फ अपने भाई-बहनों के साथ अपना रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रही थी, परमेश्वर के घर के हितों को प्राथमिकता नहीं दे रही थी। अब मुझे खुद के बारे में कुछ समझ है और मैं पश्चात्ताप करने, सत्य का अभ्यास करने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य अच्छे से पूरे करने के लिए तैयार हूँ।” प्रार्थना करने के बाद मुझमें साहस की लहर उठी। बाद में जब मैंने अपने भाई-बहनों के काम का जायजा लिया, मैंने उन्हें उन समस्याओं के बारे में बताया जो मैंने देखीं। जब मैंने सत्य के अनुसार अभ्यास किया, मेरे भाई और बहन मुझसे नाराज नहीं हुए जैसा कि मैंने सोचा था और हमारे रिश्तों में कोई परेशानी नहीं आई। बल्कि वे मार्गदर्शन स्वीकारने के लिए तैयार थे। मैं ईमानदार इंसान बनने के लिए भरसक कोशिश करना चाहती थी और भाई-बहनों को समस्याएँ बताना या सुझाव देना चाहती थी। लेकिन सत्य का अभ्यास करना आसान नहीं है और सिर्फ सत्य जानने का मतलब यह नहीं है कि कोई इसका अभ्यास कर सकता है। परमेश्वर ने मेरी भ्रष्टता उजागर करने के लिए एक और परिवेश की व्यवस्था की।

13 जुलाई को कलीसिया में चुनाव हुआ और बहन अवुआ को कलीसिया का अगुआ चुन लिया गया। लगभग एक सप्ताह बाद उसने अचानक मुझे बताया कि उसकी नौकरी लग गई है, क्योंकि उसे कुछ कर्ज चुकाना है। उसके काम के घंटे सुबह 5 बजे से रात 9 बजे तक थे। मुझे बहुत हैरानी हुई, क्योंकि उसे अगुआ बने कुछ ही दिन हुए थे और फिर भी वह नौकरी करने लगी थी और उसके काम के घंटे इतने ज्यादा थे जिसके बाद उसे अपने कर्तव्य करने के लिए जरा भी समय नहीं बचता। मैंने उसके साथ संगति की, लेकिन उसने कहा, “मुझे वाकई काम करने की जरूरत है ताकि मैं अपने कर्ज चुका सकूँ।” मैंने सोचा, “यह बहन वाकई मुश्किल में है और वह अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकती, इसलिए वह अब कलीसिया अगुआ बने रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मुझे उसका कर्तव्य बदलने पर चर्चा करने के लिए पर्यवेक्षक को इसकी रिपोर्ट करनी होगी।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं ऐसा करती हूँ और उसका कर्तव्य बदल दिया जाता है तो उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँच सकती है और वह सोच सकती है कि मैं उसकी मुश्किलें नहीं समझती हूँ और उसे कोई मौका नहीं दे रही हूँ और वह मुझसे दूरी बना लेगी।” मैं उसके साथ अपना रिश्ता बनाए रखना चाहती थी, इसलिए मैंने पर्यवेक्षक को उसकी स्थिति के बारे में नहीं बताया। मैंने सोचा कि उस पर ज्यादा कर्ज नहीं है और शायद अगर वह एक महीने तक काम करे तो वह अपना बकाया चुका सकती है और फिर उसके पास अपने कर्तव्य करने के लिए समय होगा। उसके काम के घंटों के दौरान मैं उसके कुछ कामों का जायजा लेने में उसकी मदद कर सकती हूँ। उसके बाद अवुआ पूरा दिन नौकरी करती और कलीसिया का कोई कार्य नहीं करती, जिससे बहुत सारे काम में देरी हो गई।

एक हफ्ते बाद पर्यवेक्षक लीना ने देखा कि अवुआ अपना कर्तव्य नहीं कर रही है और उसने मुझसे उसकी स्थिति के बारे में पूछा और तब जाकर मैंने उसे अवुआ की नौकरी के बारे में बताया। लीना ने मेरे साथ संगति की, “अवुआ के व्यवहार के आधार पर वह अब अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य नहीं कर सकती। कलीसिया में अगुवाई में समग्र कलीसियाई कार्य की प्रगति शामिल है। एक अच्छा अगुआ कलीसिया का काम सँभाल सकता है और एक गैर-जिम्मेदार अगुआ कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा सकता है। सच्चाई यह है कि तुमने भी इस कलीसिया की स्थिति देखी है, इसलिए तुम जानती हो कि अवुआ अगुआई कार्य करने में असमर्थ है। तुम्हें इस मुद्दे का पता लगते ही तुरंत रिपोर्ट करनी चाहिए थी और इसे सुलझाना चाहिए था, लेकिन तुमने कोई कार्रवाई नहीं की। तुमने समय पर उसका कर्तव्य नहीं बदला, न ही तुमने उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की; तुमने उसे जस का तस रहने दिया। इस तरह के कार्यकलापों से कलीसिया के काम में देरी होती है।” बहन की संगति सुनने के बाद मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने समस्या देखी थी लेकिन सत्य का अभ्यास करने के बजाय मनमर्जी से काम किया और मैंने इस बात पर विचार नहीं किया कि क्या इससे कलीसिया के काम में देरी होगी। मैं बहुत मूर्ख थी। बहन लीना ने मेरे लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “जब कोई कलीसियाई अगुआ भाई-बहनों को अनमने ढंग से अपने कर्तव्य करते हुए देखता है तो उन्हें डाँटता नहीं, हालाँकि उसे डाँटना चाहिए। स्पष्ट रूप से यह देखने पर भी कि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँच रहा है, वह इस बारे में कोई चिंता नहीं करता है और न ही कोई पूछताछ करता है और वह दूसरों को जरा भी नाराज नहीं करता है। दरअसल, वह लोगों की कमजोरियों के प्रति सचमुच विचारशील नहीं है; बल्कि, उसका इरादा और लक्ष्य लोगों के दिल जीतना है। उसे पूरी तरह से मालूम है कि : ‘जब तक मैं ऐसा करता रहूँगा और किसी को नाराज नहीं करूँगा, तब तक वे यही सोचेंगे कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ। वे मेरे बारे में अच्छी, ऊँची राय रखेंगे। वे मुझे स्वीकार करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।’ वह इसकी परवाह नहीं करता है कि परमेश्वर के घर के हितों को कितनी हानि पहुँच रही है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को कितने बड़े-बड़े नुकसान हो रहे हैं या उनके कलीसियाई जीवन को कितनी ज्यादा बाधा पहुँच रही है, वह बस अपने शैतानी फलसफे पर कायम रहता है और किसी को नाराज नहीं करता है। उसके दिल में कभी कोई आत्म-निंदा का भाव नहीं होता है। जब वह किसी को गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न करते देखता है तो ज्यादा से ज्यादा वह उससे इस बारे में कुछ बात कर लेता है, मुद्दे को मामूली बनाकर पेश करता है और फिर मामले को समाप्त कर देता है। वह सत्य पर संगति नहीं करेगा या उस व्यक्ति को समस्या का सार नहीं बताएगा, उसकी स्थिति का गहन-विश्लेषण तो और भी कम करेगा और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति तो कभी नहीं करेगा। नकली अगुआ कभी भी लोगों द्वारा बार-बार की जाने वाली गलतियों या प्रायः प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों को उजागर या गहन विश्लेषित नहीं करते। वह किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं करता है, बल्कि हमेशा लोगों के गलत अभ्यासों और भ्रष्टाचार के खुलासों में शामिल रहता है और भले ही लोग कितने भी निराश या कमजोर क्यों ना हों, वह इस चीज को गंभीरता से नहीं लेता है। वह सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का ही प्रचार करता है और मेल-मिलाप बनाए रखने का प्रयास करते हुए बेपरवाह तरीके से स्थिति से निपटने के लिए प्रोत्साहन के कुछ शब्द बोल देता है। फलस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह मालूम नहीं होता है कि उन्हें कैसे आत्मचिंतन करना है और आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त करना है, वे जो भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनका कोई समाधान नहीं निकलता है और वे जीवन प्रवेश के बिना ही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं के बीच जीवन जीते रहते हैं। वे अपने दिलों में भी यह मानते हैं, ‘हमारी कमजोरियों के बारे में हमारे अगुआ को परमेश्वर से भी ज्यादा समझ है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए हमारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। हमें बस अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की जरूरत है; अपने अगुआ के प्रति समर्पण करके हम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब ऊपरवाला हमारे अगुआ को बर्खास्त कर देता है तो हम अपनी आवाज उठाएँगे; अपने अगुआ को बनाए रखने और उसे बर्खास्त किए जाने से रोकने के लिए हम ऊपरवाले से बातचीत करेंगे और उसे हमारी माँगें मानने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह से हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।’ जब लोगों के दिलों में ऐसे विचार होते हैं, जब वे अपने अगुआ के साथ ऐसा रिश्ता बना लेते हैं और उनके दिलों में अपने अगुआ के लिए इस तरह की निर्भरता, ईर्ष्या और आराधना की भावना जन्म ले लेती है तो ऐसे अगुआ में उनकी आस्था और बढ़ जाती है और वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में सत्य तलाशने के बजाय अगुआ के शब्दों को सुनना चाहते हैं। ऐसे अगुआ ने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह लगभग ले ली है। अगर कोई अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसा रिश्ता बनाए रखने के लिए राजी है, अगर इससे उसे अपने दिल में खुशी का एहसास होता है और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए तो इस अगुआ और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं है, वह पहले से ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर अपने कदम रख चुका है...। मसीह-विरोधी वास्तविक कार्य नहीं करता है, वह समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं करता है, वह परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों का मार्गदर्शन नहीं करता है। वह सिर्फ रुतबे, शोहरत और फायदों के लिए कार्य करता है, उसे सिर्फ खुद को स्थापित करने, लोगों के दिलों में अपनी जगह सुरक्षित रखने और हर किसी से अपनी आराधना करवाने, अपना सम्मान करवाने और हर समय अपना अनुसरण करवाने की परवाह रहती है; वह इन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है। इसी तरह से मसीह-विरोधी लोगों के दिल जीतने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है—क्या कार्य करने का यह तरीका दुष्ट नहीं है? यह बहुत ही घिनौना है!(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि जब अगुआ और कार्यकर्ता काम में आने वाली समस्याओं पर आँखें मूंद लेते हैं, केवल अपनी छवि और अपने भाई-बहनों के साथ संबंध बनाए रखते हैं तो ऐसे लोग नकली अगुआ होते हैं और वे मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहे होते हैं। मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान थी जिसे परमेश्वर ने उजागर किया। मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि बेला अपने कर्तव्यों में अक्षम है, लेकिन मुझमें उसकी समस्याएँ बताने का साहस नहीं था। मैं बस उसे यह महसूस कराना चाहती थी कि मैं उसकी मुश्किलें समझती हूँ, ताकि हमारे बीच कोई टकराव न हो और हमारा रिश्ता अच्छा बना रहे। अवुआ अपनी नौकरी के कारण अगुआई की अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में असमर्थ थी, इसलिए मुझे उसके कर्तव्य बदलने के लिए उच्च अगुआओं को उसकी स्थिति की सूचना देनी चाहिए थी, लेकिन मुझे डर था कि अगर उसे इस बारे में पता चला तो वह मेरे बारे में नकारात्मक राय बनाएगी, इसलिए मैंने उच्च अगुआओं को सूचित नहीं किया। मुझे इस बात की परवाह नहीं थी कि इससे कलीसिया के काम में देरी हो जाएगी। मैं सिर्फ अपने भाई-बहनों से मान्यता और समर्थन चाहती थी, ताकि वे मेरे बारे में अच्छी धारणा बनाएँ, इसलिए मैंने परमेश्वर के घर के हित हमेशा दरकिनार कर दिए। मेरा व्यवहार वाकई दुष्ट था और परमेश्वर को इससे घृणा है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे एहसास है कि मैं अपने कर्तव्यों में कलीसिया के हितों पर विचारशील नहीं थी और मैं हमेशा अपने भाई-बहनों के साथ अपने रिश्तों के बारे में सोचती रही, चाहती रही कि वे मुझे एक अच्छी अगुआ मानें और मेरा सम्मान करें। मेरे कार्यकलाप सत्य के अनुरूप नहीं हैं और कलीसिया के काम पर असर डालते हैं। मैंने अगुआ के अपने कर्तव्य नहीं निभाए हैं और मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही हूँ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर, बहन लीना को मेरे विचलन दिखाने और मेरी कमियाँ बताने की व्यवस्था करने के लिए धन्यवाद। आगे बढ़ते हुए मैं सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार हूँ और अब अवुआ के साथ अपना रिश्ता कायम नहीं रखूँगी और मैं कलीसिया के हितों पर विचारशील रहूँगी।” उसी दोपहर को मैंने अवुआ के साथ संगति की और उसने स्वीकारा कि उसने अपने कर्तव्य ठीक से नहीं किए थे और कलीसिया के काम में देरी की थी। लेकिन वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकती थी, इसलिए मैंने उसके कर्तव्य बदल दिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सांसारिक आचरण के फलसफों का एक सिद्धांत कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं और एक दूसरे को मात दे रहे हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को नाराज नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं, तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं आखिरकार समझ गई कि “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों में से एक है। ज्यादातर लोग दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए इस फलसफे का इस्तेमाल करते हैं और दूसरों के साथ बातचीत करने का मेरा तरीका यही था। एक विचारशील और समझदार दोस्त दिखने के लिए मैं दूसरों के साथ बहुत सतर्क रहती थी और दूसरों की समस्याएँ देखकर भी मैं कुछ नहीं कहती थी, मैं यह सोचती थी कि इस तरह से काम करने से मेरा कोई दुश्मन नहीं बनेगा या मैं किसी को नाराज नहीं करूँगी। असल में अगर हम दूसरों की समस्याएँ खोज लेते हैं, लेकिन अपने हितों के लिए उन्हें बताते नहीं हैं और अगर हम सच न बोलकर एक-दूसरे को बचाते हैं और ईमानदार लोगों की तरह व्यवहार नहीं करते हैं तो इसे सच्ची दोस्ती नहीं कहा जा सकता। दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए इस शैतानी फलसफे का इस्तेमाल करने से केवल आपसी सतर्कता ही बढ़ती है। यह धोखेबाज और विश्वासघाती व्यवहार के अलावा और कुछ नहीं है। मुझे एहसास हुआ कि मैंने कलीसिया में क्रिसांता, बेला और अवुआ को अपनी बहनें नहीं माना और मैंने उनकी समस्याएँ पहचानने में उनकी मदद करने के लिए कुछ भी नहीं किया। मैं बस उनकी स्वीकृति चाहती थी और नहीं चाहती थी कि वे मेरे बारे में नकारात्मक राय बनाएँ। अपने हितों की रक्षा के लिए मैंने उन्हें अपने कर्तव्य ठीक से न निभाते और काम में देरी करते देखकर भी इस बारे में नहीं बताया या इसे सुलझाने के लिए संगति नहीं की। मेरे मन में भाई-बहनों के लिए सच्चा प्यार नहीं था। मैं हमेशा यह सोचती थी कि अगर मैं उनकी समस्याएँ नहीं बताती हूँ तो हम सहयोग करना जारी रख सकते हैं और हमारे संबंध भी अच्छे हो सकते हैं। लेकिन असल में “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” के सांसारिक आचरण के फलसफे से चिपके रहने से अच्छे नतीजे नहीं मिले—न केवल मैंने कलीसिया के काम में देरी की, बल्कि मैं उनके मसले सुलझाने में भी नाकाम रही और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने में उनकी मदद नहीं की। तब मुझे समझ आया कि अगुआ होने के नाते मुझे भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों में आने वाली समस्याओं की ओर ध्यान दिलाना है और खुद को जानने और अपनी गलतियाँ सुधारने के लिए उनका मार्गदर्शन करना है। यही सच्चे भाई-बहनों को करना चाहिए।

बाद में मैंने देखा कि परमेश्वर की संगति में अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों का उल्लेख है :

1. परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और समझने, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करो।

2. हर तरह के व्यक्ति की दशाओं से परिचित होओ और जीवन प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करो।

3. उन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति करो जिन्हें प्रत्येक कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए समझा जाना चाहिए।

4. विभिन्न कार्यों के पर्यवेक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनके कर्तव्यों में बदलाव करो या उन्हें बर्खास्त करो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके।

5. कार्य के प्रत्येक मद की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखो, और कार्य में आने वाली समस्याएँ ठीक करने, विचलन सही करने और त्रुटियों को तुरंत सुधारने में सक्षम रहो, ताकि वह सुचारु रूप से आगे बढ़े।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (1)

परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने और अधिक स्पष्टता से देखा कि मेरे कार्यकलाप अगुआ के उन मानकों को पूरा नहीं करते हैं जिनकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, क्योंकि मैंने अगुआ के रूप में अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को नहीं निभाया था। एक कलीसिया अगुआ होने का मतलब है कि उसे परमेश्वर के वचन खाने-पीने और समझने के लिए भाई-बहनों को प्रेरित करना चाहिए, उन्हें सत्य का अभ्यास करने और जीवन प्रवेश पाने में सक्षम बनाना चाहिए। एक अगुआ होने के नाते मेरी जिम्मेदारियों में कलीसिया के काम के सभी पहलुओं की देखरेख करना शामिल है, इनमें कर्मियाें की दशाओं से लेकर कार्य की प्रगति तक शामिल है। अगर कार्य का एक भी पहलू कलीसिया के समग्र काम में रुकावट डाल रहा है तो उसे तुरंत सुलझाना चाहिए। यह कुछ ऐसा है जो मैं पहले नहीं कर रही थी। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मैं समझ गई कि एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य कैसे अच्छी तरह से करने हैं।

फरवरी 2024 में एक दिन भाई एर्वेन ने मुझे बताया कि एक कलीसिया अगुआ बहन स्टेसी सुसमाचार का प्रचार करते समय बिना सोचे-समझे बोलती है। उदाहरण के लिए जैसे ही वह संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से जुड़ी, उसने धर्म, पादरियों और एल्डरों को उजागर कर दिया, जिसके चलते संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं में धारणाएँ बन गईं और वे सभाओं में आना नहीं चाहते हैं। मैंने यह भी देखा कि स्टेसी बिना बुद्धि के बोलती है और मैं जानती थी कि मुझे उसके साथ इस मुद्दे पर संगति करने की जरूरत है, लेकिन मन ही मन सोचा, “यह सच है कि स्टेसी बहुत मुँहफट है, लेकिन वह कुछ ही समय से सुसमाचार प्रचार कर रही है, क्या वह मेरा मार्गदर्शन स्वीकारेगी? अगर वह इसे नहीं स्वीकारती है तो क्या वह मेरे बारे में नकारात्मक राय बनाएगी?” लेकिन मैंने यह भी सोचा कि अगर मैंने उसकी समस्याएँ नहीं बताईं तो उसके कर्तव्य निर्वहन में अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, इसलिए मुझे अभी भी उसके मसले बताने चाहिए। कुछ दिनों बाद मैंने स्टेसी के साथ सुसमाचार का प्रचार किया और अंत में मैंने मन ही मन प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मुझे स्टेसी की समस्याएँ बताने की हिम्मत दो। मुझे थोड़ा डर है कि वह मेरी बात नहीं स्वीकारेगी और मेरे बारे में उसकी खराब राय बनेगी, लेकिन मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से बंधी नहीं रहना चाहती, न ही मैं दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सुसमाचार कार्य को प्रभावित करना चाहती हूँ। परमेश्वर, मुझे हिम्मत दो।” इसके बाद मैंने सुसमाचार कार्य के दौरान सामने आए मसलों की समीक्षा की और मैंने स्टेसी के कुछ मसलों की ओर इशारा किया। स्टेसी ने कहा, “मेरी कमियाँ और समस्याएँ बताने के लिए धन्यवाद, यह मेरे लिए बहुत बड़ी मदद है।” इसके बाद उसने धीरे-धीरे इन मुद्दों को ठीक करने का अभ्यास किया।

परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित इन परिवेशों का व्यावहारिक अनुभव करके मैं समझ गई कि “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” सांसारिक आचरण का शैतानी फलसफा है, जो लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करता है और यह वाकई सत्य के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य बहुत ही व्यावहारिक है और यह हमें बचाने और अपने धारण किए गए शैतानी विचारों और फलसफों को उतार फेंकने में मदद करने के लिए किया जाता है। अगर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य अनुभव नहीं किया होता तो मैं अभी भी इस शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही होती और अनजाने में झूठे दिखावे से दूसरों को धोखा देने की कोशिश कर रही होती। यह परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन है जिसने मुझे मानवीय आचरण के इन सिद्धांतों को समझाया। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के लिए सच में धन्य हूँ, क्योंकि इसने मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलने का अवसर दिया है। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की सच में आभारी हूँ!

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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