71. दिखावा करने के दर्दनाक सबक

वु शि, चीन

मैं अगस्त 2016 में कलीसिया में सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार थी। क्योंकि मेरे पास अनुभव की कमी थी और सत्य की उथली समझ थी, जब मैंने पहली बार यह कर्तव्य करना शुरू किया तो मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ, इसलिए मैं अक्सर अपनी मुश्किलों के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना करती थी और सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्य और सिद्धांतों का अध्ययन करती थी। जब मुझे कुछ समझ नहीं आता तो मैं भाई-बहनों से मदद माँगती थी। धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली और मैं काम में समस्याएँ पहचानने और उचित सुझाव देने में सक्षम हो गई। सुसमाचार कार्य ने कुछ नतीजे दिखाने शुरू कर दिए और मैं वाकई परमेश्वर के प्रति आभारी थी। बाद में हमारी कलीसिया में सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता में सुधार हुआ और कुछ सुसमाचार कार्यकर्ताओं को पर्यवेक्षकों के रूप में पदोन्नत किया गया। मैं बहुत खुश थी, सोच रही थी, “कार्य में ये नतीजे मिलने से ऐसा लगता है कि मैं काफी अच्छी हूँ और मेरे पास कुछ काबिलियत और कार्य क्षमता है।” इन विचारों ने मेरे दिल में शहद की तरह मिठास भर दी। उसके बाद मैं भाई-बहनों के साथ सभा करने पर पहले की तरह विनम्र नहीं रही। जब मैंने देखा कि सुसमाचार कार्य में मुश्किलों का सामना करने के बाद कुछ भाई-बहन नकारात्मक हो गए हैं तो मैंने संगति की कि कैसे जब मैंने पहली बार यह कर्तव्य शुरू किया तो मैंने चुनौतियों पर काबू पाने और काम में नतीजे हासिल करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया। मेरे मुँह से यह बात सुनकर सभी भाई-बहनों ने मेरी ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखा, वे अपने कर्तव्यों में सहयोग करते रहने के लिए प्रेरित और तैयार हो गए। उसके बाद भाई-बहन अपने किसी भी प्रश्न या मुश्किल को लेकर मेरे पास आते थे और जिन भाई-बहनों के साथ मैं सहयोग करती थी, वे अक्सर मुश्किलों का सामना होने पर मेरी राय पूछते थे। मुझे सभी से सम्मान और समर्थन पाकर खुशी हुई और मुझे लगा कि मैं काफी सक्षम हूँ और मेरा पर्यवेक्षक बनना पूरी तरह से उचित है।

दिसंबर 2017 तक हमारी कलीसिया में बहुत से नए लोग आए और एक के बाद एक कई नई कलीसियाएँ स्थापित की गईं और कुछ नवागंतुकों को उनके कर्तव्य सँभालने के तुरंत बाद ही पदोन्नत और विकसित किया गया। यह सब देखकर मुझे उपलब्धि का एक मजबूत एहसास हुआ। भले ही मैंने अपने मुँह से कहा कि मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ, लेकिन अपने दिल में मैं खुद की तारीफ कर रही थी। मुझे लगा कि मैं सत्य समझती हूँ और मेरे पास लोगों का भेद पहचानने वाली नजर है। मैंने सोचा कि जब मैंने पहली बार यह कर्तव्य सँभाला था, तब सिर्फ एक कलीसिया थी और अब कई कलीसिया स्थापित हो चुकी हैं, जब से मैंने काम सँभाला है, मैंने कलीसिया को वाकई कुछ प्रतिभाशाली व्यक्ति प्रदान किए हैं। मेरा दिल खुशी से भर गया और मुझे और भी ज्यादा दृढ़ता से लगा कि मैं सक्षम हूँ, असली प्रतिभा हूँ और मैं कलीसिया की रीढ़ हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर की महिमा चुरा रही हूँ और मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, लेकिन फिर मैंने सोचा, “परमेश्वर का कार्य अलौकिक नहीं है, इसके लिए अभी भी मानवीय सहयोग की जरूरत है और मेरे सहयोग के बिना काम सफल नहीं होता, चूँकि मैं सबसे लंबे समय से यह कर्तव्य निभाती आ रही हूँ, इसलिए मैं कुछ श्रेय की हकदार तो हूँ।” जब मैंने ऐसा सोचा तो मेरे दिल से अपराध-बोध गायब हो गया। उसके बाद मैं अक्सर सुसमाचार कार्यकर्ताओं के सामने दिखावा करने से खुद को रोक नहीं पाती थी, कहती थी, “मैं अभी-अभी इस-इस कलीसिया से आई हूँ। उनकी कुछ समस्याएँ थीं, लेकिन मैंने उन्हें हल कर दिया। कल मैं दूसरी कलीसिया में जाऊँगी...।” सभी भाई-बहन मुझे सराहना से देखते थे। एक बहन ने तो यहाँ तक कहा, “तुम इतनी सारी कलीसियाओं के काम के लिए जिम्मेदार हो। हम निश्चित रूप से इसे सँभाल नहीं सकते, हमारे सिर घूम जाएँगे। तुम सच में सत्य समझती हो और तुममें कार्य क्षमता है!” बहन से प्रशंसा सुनकर मुझे बहुत गर्व हुआ। मैंने मन ही मन सोचा, “बेशक! मैं निश्चित रूप से तुम सभी से बेहतर हूँ, वरना, मैं पर्यवेक्षक कैसे बन पाती?” उस दौरान मैं अपना सिर उठाकर चलती थी और जब चीजें घटित होती थीं तो मैं सत्य सिद्धांत नहीं खोजती थी, मैं बस सीधे कार्य करती थी। मुझे हमेशा लगता था कि मैं सत्य समझती हूँ और कुछ कार्य कर सकती हूँ और मुझे विश्वास था कि मैं सुसमाचार कार्य सँभालने में सर्वश्रेष्ठ हूँ। बाद में जब भाई-बहन अपने कर्तव्यों में समस्याओं का सामना करते थे तो वे खोजने में प्रयास नहीं करते थे और वे मुश्किलों पर विजय पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते थे या सत्य नहीं खोजते थे। बल्कि वे संगति करने और चीजों का समाधान करने के लिए मेरा इंतजार करते थे। कुछ ऐसे मुद्दे थे जिनके लिए मैं समाधान उपलब्ध नहीं कर सकी, जिससे वे और भी अधिक हतोत्साहित हो गए। नतीजतन सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता महीने दर महीने कम होती गई। जब ये चीजें हुईं तो मैंने ठीक से आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को नहीं जाना। फिर एक दिन मेरा सामना परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन से हुआ।

अप्रैल 2018 में एक दिन मैं जिस बहन के साथ सहयोग कर रही थी, मूल रूप से उसे कलीसिया की सभा में जाना था, लेकिन आखिरी समय में उसे कुछ काम आ गया, इसलिए उसकी जगह मैं चली गई। जैसे ही मैं सभा स्थल पर पहुँची, मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और तीन साल की जेल की सजा सुनाई। पहले हिरासत गृह में रहते हुए मुझे लगा कि चीन में परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सताया जाना और गिरफ्तार किया जाना सामान्य बात है, इसलिए मैंने वाकई आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को नहीं जाना। ऐसा तब तक था जब तक मुझे एक साल और सात महीने तक हिरासत में नहीं रखा गया और जेल में स्थानांतरित नहीं कर दिया गया, जब अपनी जान के डर से मुझे “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया। उस पल मैं पछतावे, शर्मिंदगी और आत्म-ग्लानि से भर गई और मैं पूरी तरह से टूट गई। देर रात अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरे चेहरे पर पछतावे के आँसू बह रहे थे। अपने दर्द में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, इस परिस्थिति ने मेरे बारे में कुछ प्रकट किया है, लेकिन मैं नहीं समझ पा रही हूँ कि तुम्हारा इरादा क्या है या मुझे क्या सबक सीखना चाहिए। परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं तुम्हारा इरादा समझ लूँ।” उसके बाद अपनी गिरफ्तारी से पहले अपने कर्तव्य निभाने के दृश्य मेरे दिमाग में कौंध गए : मैं भाई-बहनों के सामने दिखावा करती और शेखी बघारती थी, मैं हमेशा सोचती थी कि कुछ काम करने में सक्षम होने का मतलब है कि मैंने सत्य समझ लिया है और कुछ वास्तविकताएँ हासिल कर ली हैं और मैं खुद को दुर्लभ प्रतिभा और कलीसिया की रीढ़ मानती थी। मैं अभिमान और अहंकार से भरपूर दिन बिताती थी। इसकी तुलना उस समय से करूँ जब मैंने “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर किए और परमेश्वर को धोखा दिया—मैं कमजोर, कायर और दयनीय थी, मृत्यु के भय से प्रेरित थी—तो मैं चाहती थी कि काश काश धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाती। उस पल से मैंने यह समझना शुरू कर दिया कि क्यों मुझे अचानक गिरफ्तार किया गया। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था : “जब तुम थोड़ी-सी सख्ती या कठिनाई सहते हो, तो ये तुम लोगों के लिए अच्छा है; यदि तुम्हारे लिए सब आसान होता, तो तुम बर्बाद हो जाते, फिर तुम्हारी रक्षा कैसे होती? आज तुम लोगों को इसलिए सुरक्षा दी जाती है क्योंकि तुम लोगों को ताड़ना और शाप दिया जाता है, तुम लोगों का न्याय किया जाता है। क्योंकि तुम लोगों ने काफी कष्ट उठाया है इसलिए तुम्हें संरक्षण दिया जाता है। नहीं तो, तुम लोग बहुत समय पहले ही दुराचार में गिर गए होते। यह जानबूझ कर तुम लोगों के लिए चीजों को मुश्किल बनाना नहीं है—मनुष्य की प्रकृति को बदलना मुश्किल है, और उसके स्वभावों को बदलने के लिए ऐसा करना जरूरी है। आज, तुम लोगों के पास वो समझ भी नहीं है जो पौलुस के पास थी, और न ही तुम लोगों के पास उसका आत्म-बोध है। तुम लोगों की आत्माओं को जगाने के लिए तुम लोगों पर हमेशा दबाव डालना पड़ता है, और तुम लोगों को हमेशा ताड़ना देनी पड़ती है और तुम्हारा न्याय करना पड़ता है। ताड़ना और न्याय ही वह चीज हैं जो तुम लोगों के जीवन के लिए सर्वोत्तम हैं। और जब आवश्यक हो, तो तुम पर आ पड़ने वाले तथ्यों की ताड़ना भी होनी ही चाहिए; केवल तभी तुम लोग पूरी तरह से समर्पण करोगे। तुम लोगों की प्रकृतियाँ ऐसी हैं कि ताड़ना और शाप के बिना तुम लोग अपने सिर झुकाने को अनिच्छुक होगे, झुकने को अनिच्छुक होगे। तुम लोगों की आँखों के सामने तथ्यों के बिना, तुम पर कोई प्रभाव नहीं होगा। तुम लोग चरित्र से बहुत नीच और बेकार हो। ताड़ना और न्याय के बिना, तुम लोगों पर विजय प्राप्त करना कठिन होगा, और तुम लोगों की अधार्मिकता और अवज्ञा को जीतना मुश्किल होगा। तुम लोगों का पुराना स्वभाव बहुत गहरी जड़ें जमाए हुए है। यदि तुम लोगों को सिंहासन पर बिठा दिया जाए, तो तुम्हें नहीं पता होगा कि ब्रह्मांड में तुम्हारी जगह कहाँ है, तुम लोग किस ओर जा रहे हो इसके बारे में तो बिल्कुल भी अंदाजा न होगा। यहाँ तक कि तुम लोगों को यह भी नहीं पता कि तुम सब कहाँ से आए हो, तो तुम लोग सृष्टिकर्ता को कैसे जान सकते हो? आज की समयोचित ताड़ना और शापों के बिना तुम्हारा अंतिम दिन बहुत पहले ही आ चुका होता। तुम लोगों के भाग्य की तो बात ही क्या—क्या यह खतरे के और भी निकट नहीं होता? इस समयोचित ताड़ना और न्याय के बिना, कौन जाने कि तुम लोग कितने घमंडी हो गए होते, और कौन जाने तुम लोग कितने पथभ्रष्ट हो जाते। इस ताड़ना और न्याय ने तुम लोगों को आज के दिन तक पहुँचाया है, और इन्होंने तुम लोगों के अस्तित्व को संरक्षित रखा है। जिन तरीकों से तुम लोगों के ‘पिता’ ने तुम्हें ‘शिक्षित’ किया था, यदि उन्हीं तरीकों से तुम लोगों को अब भी ‘शिक्षित’ किया जाता, तो कौन जाने तुम लोग किस क्षेत्र में प्रवेश करते! तुम लोगों के पास स्वयं को नियंत्रित करने और आत्मचिंतन करने की बिल्कुल कोई योग्यता नहीं है। तुम जैसे लोग अगर कोई गड़बड़ी या विघ्न पैदा किए बगैर मात्र अनुसरण और समर्पण करें, तो मेरे उद्देश्य पूरे हो जाएंगे। क्या तुम लोगों को आज की ताड़ना और न्याय को स्वीकारने में बेहतर नहीं करना चाहिए? तुम लोगों के पास और क्या विकल्प हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (6))। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए मुझे समझ में आ गया कि मेरी गिरफ्तारी और कैद परमेश्वर का अनुशासन थीं। पर्यवेक्षक के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मैं वाकई अहंकारी थी। जब भी काम में कुछ नतीजे दिखते तो मैं भाई-बहनों के सामने दिखावा करती। जब सुसमाचार कार्यकर्ता मुश्किलों का सामना करते थे और नकारात्मक हो जाते थे तो मैं अपने अनुभव साझा करके जानबूझकर अपनी कार्य क्षमता का दिखावा करती थी और मैं भाई-बहनों को यह बताने का खास ध्यान रखती थी कि जिस कलीसिया के सुसमाचार कार्य के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, उसने अच्छे नतीजे प्राप्त किए हैं, जिससे हर कोई मेरे बारे में बहुत ऊँचा सोचता। बाद में कुछ नई कलीसियाएँ स्थापित की गईं और मैं अपनी कार्यक्षमता का दिखावा करती रही, जिससे दूसरे लोग मेरे बारे में और भी अधिक ऊँचा सोचने लगे। क्योंकि मैं लगातार इस तरह दिखावा करती थी, सभी भाई-बहनों को लगता था कि मेरे पास अपने कर्तव्य में बोझ की भावना है और मैं अपने काम में नतीजे हासिल कर सकती हूँ और उन्हें लगता था कि मैं सक्षम पर्यवेक्षक हूँ। मैं जहाँ भी जाती, सभी लोग मुझसे विनम्रता और सम्मानपूर्वक बात करते और जब भी उन्हें कोई समस्या होती तो वे मुझसे सलाह लेना पसंद करते और ज्यादातर समय वे मेरे सुझावों को अपनाते। यहाँ तक कि जिस बहन के साथ मैं सहयोग करती थी, वह भी अक्सर मेरी राय पूछती थी। सभी से समर्थन और आदर पाकर मैं बहुत संतुष्ट महसूस करती थी और मुझे ऐसा भी लगता था कि मैं गर्व से फूली नहीं समा रही हूँ। मुझे लगता कि मैं कलीसिया में अपरिहार्य व्यक्ति हूँ, कलीसिया का काम मेरे बिना नहीं चल सकता और मैं बाकी सभी से बेहतर और अधिक महत्वपूर्ण हूँ। इस तरह दिखावा करके मैं लोगों को अपने सामने लाती थी। मैंने अनजाने में ही परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया था। परमेश्वर मुझे गिरते हुए देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता था। पुलिस से गिरफ्तार करवाकर उसने मुझे बुराई के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक दिया और मुझे रुकने और चिंतन करने के लिए मजबूर किया, ताकि मैं गलत रास्ते से वापस लौट सकूँ और समय रहते जाग जाऊँ और गलत रास्ते पर आगे न चलूँ। जब मुझे यह एहसास हुआ तो मेरी आँखें भर आईं। मैं परमेश्वर के प्रेम और उसके श्रमसाध्य इरादों से बहुत प्रभावित हुई। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे लिए यह स्थिति व्यवस्थित करने के लिए धन्यवाद। मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। परमेश्वर, मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करो ताकि मेरे पास अपनी एक सच्ची समझ हो सके।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जान-बूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर उजागर करता है कि मनुष्य के परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध का मूल उसकी अहंकारी और दंभी प्रकृति है। जब किसी व्यक्ति का स्वभाव अहंकारी होता है तो वह खुद को श्रेष्ठ समझता है, सोचता है कि वह बाकी सभी से बेहतर है। दूसरों के बीच वह अनियंत्रित रूप से खुद की गवाही देगा और दिखावा करेगा, जिससे लोग उसका आदर करेंगे और उसकी पूजा करेंगे। पर्यवेक्षक के रूप में अपने समय के दौरान जब मैंने काम में कुछ नतीजे हासिल किए तो मुझे लगा कि मेरे पास काबिलियत है, मैं सत्य समझती हूँ और समस्याएँ सुलझा सकती हूँ और मैं प्रतिभाशाली लोगों की खोज कर सकती हूँ और मुझे लगा कि मैं अपूरणीय प्रतिभा और कलीसिया की रीढ़ हूँ। यह सब मेरी अहंकारी प्रकृति से प्रेरित था। स्पष्ट है कि सुसमाचार कार्य के कुछ नतीजे मिलने का सारा श्रेय पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन और भाई-बहनों के सहयोग को जाता है, लेकिन मैंने सारा श्रेय खुद को दिया। मैंने जानबूझकर भाई-बहनों के सामने दिखावा किया, उन्हें यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं सत्य को समझती हूँ और मेरे पास काम करने की क्षमता है, इसी कारण काम में नतीजे मिले। आखिरकार वे सभी मेरा आदर करने लगे और मेरी पूजा करने लगे। मैं कितनी बेशर्म थी! मुझे परमेश्वर के सबसे पहले प्रशासनिक आदेश का ख्याल आया : “मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। परमेश्वर लोगों को नसीहत देता है कि वे उसका उन्नयन करें और उसे महान मानते हुए सम्मान दें। मनुष्य के हृदय में सिर्फ परमेश्वर के लिए ही स्थान होना चाहिए, क्योंकि केवल परमेश्वर ही मनुष्य के लिए आराधना के योग्य है। लेकिन मैंने खुद को महान मानकर सम्मान दिया और दिखावा किया, मैं चाहती थी कि भाई-बहन मेरे लिए अपने हृदय में जगह रखें। मैंने जो कुछ भी किया वह मेरी अहंकारी प्रकृति से प्रेरित था और परमेश्वर के खिलाफ प्रतिरोध था। मैं परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का पहले ही उल्लंघन कर चुकी थी, फिर भी मुझे कोई डर नहीं था और यहाँ तक कि मैं मजे में थी। मैं वाकई जड़ थी! मैंने सोचा कि कैसे कलीसिया ने मुझे पर्यवेक्षक बनने के लिए विकसित किया। एक ओर, इसका यह उद्देश्य था कि मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अनुसरण कर सकूँ और स्वभावगत परिवर्तन लाने की कोशिश कर सकूँ और दूसरी तरफ, यह मुझे अगुवाई की भूमिका सँभालने में सक्षम बनाता था। जब काम में मुश्किलें आती थीं तो मैं भाई-बहनों को परमेश्वर की ओर देखने और उस पर भरोसा करने, सत्य की खोज करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती थी, भाई-बहनों को अपने दिलों में परमेश्वर को महान मानने और उसके लिए एक स्थान रखने की अनुमति दे सकती थी, जिससे लोगों को परमेश्वर के सामने लाया जा सके। यह मेरी जिम्मेदारी और कर्तव्य था। फिर भी मैंने वे जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कीं जो एक पर्यवेक्षक को पूरी करनी चाहिए, बल्कि मैंने अपना दिखावा करने और अपनी गवाही देने के लिए अपने काम में हर अवसर का फायदा उठाया, भाई-बहनों को प्रेरित किया कि वे मेरी सराहना और आराधना करें और मुश्किलों का सामना करने पर परमेश्वर पर भरोसा करने या सत्य सिद्धांत खोजने के बजाय मेरे पास आएँ। मैं लोगों को अपने सामने लाती थी और इसमें मैं परमेश्वर के साथ रुतबे के लिए होड़ कर रही थी। मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी और पहले ही परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर चुकी थी। अगर मैं इसी तरह से अपना कर्तव्य निभाना जारी रखती तो मुझे आखिरकार परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए दंडित कर दिया जाता। यह एहसास होने पर मेरे पसीने छूट गए, मुझे लगा कि यह गिरफ्तारी परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है जो मुझ पर आ रहा है और यह मेरे लिए परमेश्वर की महान सुरक्षा और उद्धार भी है। मैंने ईमानदारी से परमेश्वर को धन्यवाद दिया और मैं इस परिवेश के आगे समर्पण करने और सबक सीखने के लिए तैयार थी। 2021 में मैं सजा काटकर रिहा हो गई और धरती के उस नरक से बाहर निकल आई जो सीसीपी की जेल है।

घर लौटने के तुरंत बाद भाई-बहन मेरे लिए परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें ले आए और मैं बहुत भावुक हो गई। एक दिन मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “क्‍या तुम अपना कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो, फिर भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यह क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो हम सोचते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को असीम रूप से बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं था, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव नहीं होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है? (यह हमारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) जब तुम मानते हो कि यह तुम्‍हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो तुम सही मनःस्थिति में होते हो, और तब तुम इसका श्रेय लेने की कोशिश करने के बारे में नहीं सोचोगे। अगर तुम हमेशा यह सोचते हो, ‘यह मेरा योगदान है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? इस कार्य के लिए इंसान के सहयोग की जरूरत है; यह उपलब्धि मुख्य रूप से हमारे सहयोग की बदौलत होती है,’ तो तुम गलत हो। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर किसी ने तुम्हारे साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? तुम्हें पता ही नहीं होता कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, न ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग पता होता। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह ‘सहयोग’ केवल खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक के अनुरूप हो सकता है? बिल्कुल नहीं, और यह विचाराधीन मुद्दे की ओर संकेत करता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, उसमें क्या वह परिणाम प्राप्त करता है, क्या मानक के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाता है और परमेश्वर का अनुमोदन पाता है या नहीं, यह परमेश्वर के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। भले ही तुम अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे कर दो, लेकिन अगर परमेश्वर कार्य न करे, अगर वह तुम्हें प्रबुद्ध न करे और तुम्हारा मार्गदर्शन न करे, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंततः इसका क्या परिणाम होता है? लगातार परिश्रम करने के बाद, तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया होगा, न ही तुमने सत्य और जीवन प्राप्त किया होगा—यह सब व्यर्थ हो गया होगा। इसलिए, तुम्हारे कर्तव्य का मानक अनुरूप होना, इससे तुम्हारे भाई-बहनों को लाभ मिलना, और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना, ये सब परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंततः प्रभावशाली ढंग से कर्तव्य निभाना परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और अगुआई पर निर्भर करता है; केवल तभी तुम सत्य को समझ सकते हो और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग और उसके द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो। ये परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष हैं, अगर लोग यह नहीं देख पाते, तो वे अंधे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। इस अंश को पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि मैं परमेश्वर की महिमा चुरा सकी, क्योंकि मेरे अंदर एक भ्रामक दृष्टिकोण था। मेरा मानना था कि यह मेरा सहयोग ही था जिसके कारण पवित्र आत्मा ने कार्य किया और कार्य को नतीजे देने में अनुमति दी। मैंने मानवीय सहयोग को बहुत अधिक महत्व दिया। सत्य यह है कि मानवीय सहयोग भी सत्य सिद्धांत समझने पर आधारित है। परमेश्वर सत्य व्यक्त न करे तो मानवीय सहयोग की कोई दिशा नहीं होती है। मानवीय सहयोग केवल अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को पूरा करना है और क्या कार्य नतीजे हासिल करता है, यह अनिवार्य रूप से पवित्र आत्मा के कार्य पर निर्भर करता है। जब मैं पहली बार यह कर्तव्य निभाना शुरू करने के दिनों का ध्यान करती हूँ तो बहुत से सिद्धांतों पर मेरी पकड़ नहीं थी, इसलिए मैं अधिक प्रार्थना करती थी और सिद्धांतों का अध्ययन करती थी और भाई-बहनों से खोजती थी। धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांतों पर पकड़ बना ली और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन के साथ मैं कुछ मसले खोजने और हल करने में सक्षम हो गई। तभी सुसमाचार के कार्य ने अच्छे नतीजे हासिल किए। बाद में मैं आत्म-संतुष्टि की मनोदशा में रहने लगी और मैं प्रार्थना कम करती थी और सत्य सिद्धांत खोजने बंद कर दिए, इसलिए मैं अब पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं रही और मैं नहीं जानती थी कि बहुत सी समस्याओं को कैसे हल करना है, जिससे सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ। खासकर जब मुझे गिरफ्तार और कैद कर लिया गया तो मेरी गिरफ्तारी के कारण कलीसिया का सुसमाचार कार्य नहीं रुका, बल्कि लगातार आगे बढ़ता गया और यहाँ तक कि अधिक फलदायी भी हो गया। फिर भी मैंने मूर्खतापूर्वक और आँख मूंदकर अपने सहयोग को असाधारण महत्व का माना, मानती रही कि मेरे बिना कलीसिया का कार्य अच्छे नतीजे हासिल नहीं करेगा। अब पीछे मुड़कर देखने पर मुझे शर्म आती है। साथ ही, जहाँ तक यह बात है कि मैंने कुछ प्रतिभाशाली लोग मुहैया कराए तो इसका कारण यह नहीं है कि मैं सत्य को समझती थी और सही लोगों को चुनने में सक्षम थी, बल्कि इसका कारण यह है कि परमेश्वर ने अपने कार्य के लिए बहुत पहले से ही विभिन्न प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को तैयार करना शुरू कर दिया था। साथ ही लोगों को चुनने की प्रक्रिया के दौरान बहुत से मसलों पर मैं स्पष्ट नहीं थी, जिन्हें मैं अपनी सहयोगी बहन से सत्य सिद्धांत खोज कर ही स्पष्ट रूप से देख पाई थी। अगर परमेश्वर ने सत्य व्यक्त नहीं किया होता, कर्तव्यों के प्रदर्शन से संबंधित सिद्धांतों पर इतनी स्पष्ट संगति नहीं की होती तो मैं इन सिद्धांतों को कैसे समझ पाती या इन पर पकड़ बना पाती, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा पाती? वास्तविकता में परमेश्वर अपना कार्य कर रहा था और मैं केवल अपने कर्तव्य का एक छोटा सा हिस्सा कर रही थी जो मुझे एक इंसान के रूप में करना चाहिए। मेरे पास घमंड करने के लिए कुछ भी नहीं था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मुझे और भी अधिक शर्म, शर्मिंदगी और अपमान महसूस हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर ने मनुष्यों पर काफी मात्रा में कार्य किया है, लेकिन क्या उसने कभी इसके बारे में बात की है? क्या उसने कभी इसका वर्णन किया है? क्या उसने कभी इसकी घोषणा की है? नहीं, उसने ऐसा नहीं किया है। लोग परमेश्वर को चाहे कितना भी गलत समझें, वह वर्णन नहीं करता। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, तुम चाहे 60 साल के हो या 80 के, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सीमित है, और इस आधार पर कि तुम कितना कम जानते हो, तुम अभी बच्चे ही हो। परमेश्वर इसे तुम्हारे खिलाफ नहीं रखता; तुम अब तक अपरिपक्व बच्चे हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कुछ लोग कई सालों तक जीवित रहे हैं और उनके शरीर पर उम्र के लक्षण दिखाई देते हैं; परमेश्वर के बारे में उनकी समझ अभी भी बहुत बचकानी और सतही है। परमेश्वर इसे तुम्हारे खिलाफ नहीं रखता—अगर तुम नहीं समझते, तो नहीं समझते। यह तुम्हारी काबिलियत और क्षमता है, और इसे बदला नहीं जा सकता। परमेश्वर तुम पर कुछ भी थोपेगा नहीं। परमेश्वर चाहता है कि लोग उसकी गवाही दें, पर क्या उसने अपनी गवाही खुद दी है? (नहीं।) दूसरी ओर शैतान को डर लगा रहता है कि लोग उसके किसी धेले-भर के काम के बारे में भी नहीं जान पाएँगे। मसीह-विरोधी इससे अलग नहीं हैं : वे स्वयं द्वारा किए गए हर छोटे-मोटे काम के बारे में सबके सामने शेखी बघारते हैं। उनकी बात सुनकर लगता है कि वे परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं—लेकिन अगर तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें पता चलेगा कि वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहे, बल्कि अपनी शान बघार रहे हैं, खुद को स्थापित कर रहे हैं। उनकी बातों के पीछे का इरादा और सार परमेश्वर के चुने हुए लोगों और दर्जे के लिए परमेश्वर के साथ होड़ करना है। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, जबकि शैतान अपना दिखावा करता है। क्या इनमें कोई अंतर है? दिखावा बनाम विनम्रता और अप्रत्यक्षता : इनमें से कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं? (विनम्रता और अप्रत्यक्षता।) क्या शैतान को विनम्र कहा जा सकता है? (नहीं।) क्यों? उसके दुष्ट प्रकृति-सार को देखते हुए, वह रद्दी का एक बेकार टुकड़ा है; शैतान के लिए अपना दिखावा न करना एक असामान्य बात होगी। शैतान को ‘विनम्र’ कैसे कहा जा सकता है? ‘विनम्रता’ परमेश्वर का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, इसलिए लोगों को नहीं दिखता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह ऐसी गुमनामी में कार्य करता है, तो लोगों को निरंतर समर्थन, पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर करता है। क्या यह अप्रत्यक्षता और विनम्रता नहीं है कि परमेश्वर इन बातों को कभी घोषित नहीं करता, कभी इनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र ठीक इसलिए है, क्योंकि वह ये चीजें करने में सक्षम है लेकिन कभी इनका उल्लेख या घोषणा नहीं करता, और लोगों के साथ इनके बारे में बहस नहीं करता। तुम्हें विनम्रता के बारे में बोलने का क्या अधिकार है, जब तुम ऐसी चीजें करने में असमर्थ हो? तुमने इनमें से कोई चीज नहीं की है, फिर भी इनका श्रेय लेने पर जोर देते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है। मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत व्यापक है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, ‘मेरा सामर्थ्य असाधारण है।’ वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और धूप को या पृथ्वी पर मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी भौतिक वस्तुओं को लो—ये सब अनवरत बहती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह असंदिग्ध है। अगर शैतान कुछ अच्छा करे, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। वह वैसा ही है, जैसे कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधी हैं, जिन्होंने पहले जोखिम भरा काम किया, जिन्होंने चीजें त्याग दीं और कष्ट सहे, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे ये चीजें कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने तुच्छ हैं! लोग सच में तुच्छ हैं और शैतान बेशर्म है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर का सार विनम्र, सुंदर और अच्छा है, जबकि शैतान का सार बुरा, कुरूप और बेशर्म है। मैंने सोचा कि कैसे बाइबल शैतान द्वारा प्रभु यीशु को लुभाने के बारे में बताती है। स्पष्ट रूप से दुनिया में सब कुछ परमेश्वर द्वारा सृजित किया गया है, फिर भी शैतान ने दावा किया कि सब कुछ उसने सृजित किया है और अपनी आराधना कराने के लिए प्रभु यीशु को लुभाने की कोशिश की। मैंने सीसीपी के बारे में भी सोचा। मानवता जो कुछ भी आनंद लेती है वह स्पष्ट रूप से परमेश्वर से आता है और परमेश्वर मानवता की सभी दैनिक जरूरतें पूरी करता है, फिर भी सीसीपी दावा करती है कि उसने लोगों को एक अच्छे जीवन की ओर अग्रसर किया है, जिसके कारण लोग इन चीजों का श्रेय उसे देते हैं। मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में भी सोचा जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। वे लगातार दिखावा करते थे और अपनी बड़ाई करते थे, इस बारे में बात करते थे कि उन्होंने परमेश्वर के घर के लिए कितना काम किया है और उन्होंने कितने कष्ट सहे हैं, इसका इस्तेमाल लोगों को उनका अनुसरण करने और उनकी पूजा करने को गुमराह करने के लिए करते थे। इन चीजों को देखकर मुझे एहसास हुआ कि दानव और शैतान वाकई कितने बेशर्म हैं! अपने बारे में सोचूँ तो स्पष्ट रूप से पवित्र आत्मा के कार्य के कारण ही कलीसियाई कार्य ने नतीजे हासिल किए, फिर भी मैं चुपके से अपनी उपलब्धियाँ गिनती थी और अक्सर भाई-बहनों के सामने उनका दिखावा करती थी, जिससे सभी को लगता था कि ये मेरी उपलब्धियाँ हैं, ऐसे में वे मुझे उच्च सम्मान देते और मुझे अपने दिलों में जगह देते थे। क्या मेरा व्यवहार उन मसीह-विरोधियों की तरह नहीं था जो खुद की बड़ाई और दिखावा करते हैं? मैं कैसे इतनी बेशर्म और पूरी तरह अंतरात्मा और विवेक से रहित हो सकती थी! परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए एक इंसान बनकर विनम्रता दिखाई; वह अपना जीवन जोखिम में डालने, बहुत अपमान और पीड़ा सहने के लिए तैयार है, काम करने और हमें बचाने के लिए लोगों के बीच आ रहा है। परमेश्वर ने मानवता के लिए सब कुछ दिया है, फिर भी वह कभी अपने कर्मों की घोषणा नहीं करता। वह बस चुपचाप वह काम करता है जो करने का इरादा रखता है। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, एक छोटे से सृजित प्राणी के रूप में मैंने बस अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी अच्छे से पूरी की, लेकिन मैंने शेखी बघारने और दिखावा करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए। मैं वाकई नीच और बेकार थी! मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की और विनती की कि वह मेरे अपराध क्षमा कर दे। मैं नए सिरे से शुरुआत करने और अपने अहंकारी स्वभाव को बदलने के लिए तैयार थी और परमेश्वर को ऊँचा उठाना और सभी चीजों में उसकी गवाही देना सीखना चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर की बड़ाई करने और उसकी गवाही देने का अभ्यास करने के तरीके के बारे में एक अंश पढ़ा : “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊँचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा। तुम लोग परमेश्वर के सबसे कट्टर विरोधी थे, और उनके प्रति समर्पित होने के लिए तैयार ही नहीं थे, लेकिन अब तुम जीत लिए गए हो, इस बात को कभी नहीं भूलो। इन बातों पर तुम्हें और अधिक विचार करना और सोचना चाहिए। एक बार जब लोग इसे साफ तौर पर समझ जाएँगे, तो उन्हें गवाही देने का तरीका पता चल जाएगा; अन्यथा वे और अधिक बेशर्मी भरे, मूर्खतापूर्ण कृत्य करने लगेंगे, जो कि परमेश्वर के लिए गवाही देना नहीं, बल्कि उसे शर्मिंदा करना है। सच्चे अनुभवों और सत्य की समझ के बिना, परमेश्वर के लिए गवाही देना संभव नहीं है; परमेश्वर में जिन लोगों की आस्था संभ्रमित और उलझन भरी होती है, वे कभी भी परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि लोगों के बीच परमेश्वर की कैसे बड़ाई की जाए और उसकी गवाही कैसे दी जाए। एक ओर हमें भाई-बहनों के साथ यह और अधिक साझा करने की जरूरत है कि हमने परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षण और शोधन का अनुभव कैसे किया है, परमेश्वर के कार्य की सार्थकता और उसके इरादे क्या हैं और वह हम में किस प्रकार के प्रभाव प्राप्त करना चाहता है, ताकि दूसरे लोग परमेश्वर को जान सकें और मानवता को बचाने के उसके श्रमसाध्य इरादे समझ सकें। दूसरी ओर हमें अपने अनुभवों में प्रकट हुई भ्रष्टता और परमेश्वर के खिलाफ किए गए विद्रोही और उद्दंड कार्यों को भी सामने लाने और खोलने की जरूरत है, ताकि दूसरे लोग हमारे कार्यकलापों की प्रकृति समझ सकें और इससे भेद पहचान सकें। इस तरह वे इन चीजों की रोशनी में खुद को देख सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभावों को जान सकते हैं और उनसे घृणा कर सकते हैं। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही हम वाकई परमेश्वर का उत्कर्ष कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं। लेकिन मैंने केवल अच्छी चीजों के बारे में बात करना चुना। मैंने केवल इस बारे में बात की कि मैं काम में नतीजे हासिल करने के लिए परमेश्वर पर कैसे निर्भर थी, मैंने कितने लोगों को प्राप्त किया और मैंने कितनी कलीसियाएँ स्थापित कीं, जबकि इस प्रक्रिया के दौरान मैंने जो विद्रोहीपन, भ्रष्टता और कमजोरी प्रकट की थी, उसका उल्लेख नहीं किया। मैंने भाई-बहनों के सामने ये बातें नहीं कीं। नतीजतन वे मेरे अच्छे लगते व्यवहार से गुमराह हो गए। मैंने जो किया था और जिस तरह से मैं पेश आई थी, वह सब परमेश्वर के वचनों के विपरीत था और मुझे परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना था और उसके बाद से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना था।

जेल से रिहा होने के पाँच महीने बाद कलीसिया ने मेरे लिए यह व्यवस्था की कि मैं सुसमाचार प्रचार करना जारी रखूँ। मैं बहुत भावुक हो गई और संकल्प लिया कि मैं अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभाऊँगी और परमेश्वर के प्रति अपने पिछले ऋण की भरपाई करूँगी। एक सभा के दौरान एक नवागंतुक ने कुछ धारणाएँ उठाईं, इसलिए मैंने धैर्यपूर्वक उसके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति की और अंत में उसकी धारणाएँ हल हो गईं। उसने कहा कि उसे इस सभा से बहुत कुछ मिला है और उसने भाई-बहनों को अपने साथ संगति में लाने के लिए परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति बहुत धन्यवाद व्यक्त किया। वह बोलते समय बहुत उत्साहित थी और जब मैं बगल में उसे सुन रही थी तो चुपके से आनंद लेती रही, मैं मन ही मन सोच रही थी, “बहन की धारणाओं का समाधान मुख्य रूप से उसके साथ मेरी संगति से हुआ है। ऐसा लगता है कि मैं काफी अच्छी हूँ और कुछ समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति कर सकती हूँ।” जब मेरे मन में ऐसे विचार आए तो मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर परमेश्वर की महिमा चुरा रही हूँ। मैंने देखा कि मेरे आस-पास के भाई-बहन परमेश्वर को उसके मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद दे रहे थे, जबकि मैं बेशर्मी से खुद की प्रशंसा कर रही थी और मुझे खुद से वाकई घिन हो गई। मैं कितनी बेशर्म थी! मैंने जल्दी से अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, उसके वचनों के बारे में सोचने लगी : “जब तुम्हें परमेश्वर की कुछ समझ होगी, जब तुम अपनी भ्रष्टता को देख सकोगे, अहंकार और दंभ की कुरूपता और घिनौनेपन को पहचान सकोगे, तब तुम नफरत, घृणा और व्यथा को महसूस करोगे। तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपनी इच्छा से कुछ काम करने में सक्षम होगे और ऐसा करने में तुम्हें सुकून महसूस होगा। तुम अपनी इच्छा से परमेश्वर के वचन पढ़ने, उसका उत्कर्ष करने, परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम होगे और अपने दिल में, तुम खुशी महसूस करोगे। तुम अपनी इच्छा से अपने आपको बेनकाब करोगे, अपनी खुद की कुरूपता को उजागर करोगे और ऐसा करके तुम अंदर से अच्छा महसूस करोगे और तुम अपने आपको बेहतर मानसिक स्थिति में महसूस करोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। मैंने अपने घृणित विचारों के बारे में भाई-बहनों के सामने खुलकर बात की। मैंने यह उल्लेख भी किया कि आज की सभा में कुछ मुद्दे मुझे पहले पूरी तरह समझ में नहीं आए, लेकिन संगति की प्रक्रिया में मैंने परमेश्वर के प्रबोधन के माध्यम से धीरे-धीरे स्पष्टता प्राप्त की और यह कि यह मेरा मूल आध्यात्मिक कद नहीं है, बल्कि पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन है। साझा करने के बाद मुझे अपने दिल में शांति की गहरी अनुभूति हुई और मुझे लगा कि इस तरह से जीना वाकई अच्छा है! मुझमें यह जो परिवर्तन आ पाया, वह सब परमेश्वर के वचनों के मेरे न्याय और मेरी ताड़ना का नतीजा है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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