72. मेरी गलतफहमी और परमेश्वर के प्रति सतर्कता हट गई
2023 में मेरे पास कलीसिया में सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी थी, लेकिन कुछ समय बाद खराब कार्य क्षमताओं और टीम अगुआ के कर्तव्य सँभालने में असमर्थता के कारण मुझे बरखास्त कर दिया गया। अगुआओं ने मेरी काबिलियत के आधार पर सुसमाचार का प्रचार करने के लिए व्यवस्था कर दी। मैंने सोचा, “हालाँकि मैं अभी भी सुसमाचार का प्रचार कर सकती हूँ, मेरी काबिलियत औसत है और मैं समूह में अहम भूमिका नहीं निभा सकती। अगर मैं यह कर्तव्य निभाती हूँ और फिर भी कोई नतीजा नहीं मिलता, तो मुझे अपना कर्तव्य गँवाने और हटाए जाने का खतरा हो सकता है।” इसलिए मैंने अधिक लोगों को प्राप्त करने की उम्मीद में सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अथक परिश्रम किया।
एक बार मेरी सहयोगी बहन ली शियाओ ने पाया कि मैं अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का उल्लंघन कर रही हूँ और मैंने कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को छोड़ दिया है जो सिद्धांतों के अनुरूप हैं। मुझे अंदर से बेचैनी महसूस हुई, मैंने सोचा, “मैं इतने लंबे समय से प्रशिक्षण ले रही हूँ, लेकिन फिर भी मुझसे इतना बड़ा विचलन हो गया। अगर अगुआओं को पता चला, तो उन्हें लगेगा कि मुझे अपने कर्तव्य के सिद्धांतों की समझ नहीं है और वे मुझे इस भूमिका के अयोग्य मानकर कोई अन्य कार्य सौंप सकते हैं। अब जब परमेश्वर का कार्य पूरा होने को है, अगर मैं इस अहम क्षण में अपना कर्तव्य निभाने में विफल रही, तो क्या यह मुझे ऐसी खरपतवार के रूप में बेनकाब नहीं करेगा जिसे परमेश्वर हटा सकता है?” मैंने इस बारे में जितना अधिक सोचा, उतना ही मुझे संताप महसूस हुआ। यह देखकर कि ली शियाओ सिद्धांतों को मुझसे बेहतर समझती है, मैंने अक्सर उसके सुझाव सुनने का फैसला किया ताकि गलतियाँ कम करने में मदद मिले और अगर गलतियाँ हों, तो मैं उनके लिए कम जिम्मेदार रहूँ। उसके बाद किसी भी अस्पष्ट मुद्दे को लेकर मैं चीजों पर ध्यान से विचार नहीं करती थी, सोचती थी कि मेरी खराब काबिलियत के कारण मामलों पर विचार करने से नतीजे नहीं मिलेंगे और मैं उन पर हर एक के साथ चर्चा करने का इंतजार करती थी। चर्चाओं के दौरान मैं केवल संक्षेप में अपने विचार साझा करती थी और फिर ली शियाओ के विचार रखने का इंतजार करती थी। कभी-कभी मेरी राय अलग होती थीं, पर मैं उन्हें जाहिर करने की हिम्मत नहीं करती थी, मुझे डर रहता था कि अगर मैंने कोई गलती की, तो मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और इससे मेरे भविष्य की संभावनाओं और गंतव्य पर असर पड़ सकता है। इसलिए अधिकांश समय मैं दूसरों के पीछे-पीछे चलती थी और मेरे विचार कम होते चले गए।
एक बार हमने चर्चा की कि क्या कोई धार्मिक व्यक्ति ऐसा संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता है जिसे उपदेश दिया जा सकता है। मुझे लगा कि वह सुसमाचार प्रचार के सिद्धांत पूरे करता है, लेकिन ली शियाओ ने कहा कि वह सत्य नहीं समझ सकता और इसलिए उसे उपदेश नहीं दिया जाना चाहिए। मैं शुरू में अपने नजरिए पर और संगति करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मेरा नजरिया गलत हुआ और गलतियाँ हुईं तो क्या होगा? चलो छोड़ो, मैं कुछ नहीं बोलूँगी। ली शियाओ सिद्धांतों को अच्छी तरह समझती है और उसे सुसमाचार प्रचार का अधिक भी अनुभव है, इसलिए मैं उसकी बात सुनूँगी।” इसलिए हमने इस संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता को त्यागने का फैसला किया। बाद में पर्यवेक्षक को इस स्थिति के बारे में पता चला और उसने कहा कि इस संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता में बहुत सारी धार्मिक धारणाएँ तो हैं, लेकिन वह सत्य स्वीकार करने में असमर्थ नहीं है और उसे आसानी से त्याग देना सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। कार्य में ऐसा विचलन देखकर मुझे उस समय आगे की खोज के लिए यह मुद्दा न उठाने का गहरा अफसोस हुआ। लेकिन फिर मैंने सोचा, “यह ली शियाओ का सुझाव था, इसलिए अकेले मेरी जिम्मेदारी नहीं है।” इसलिए मुझे कम अपराध-बोध हुआ।
चूँकि मैं दूसरों से हर चीज के बारे में पूछती थी और मेरे अपने कोई विचार नहीं थे, मैं धीरे-धीरे अपने हर काम में काफी सुस्त होती चली गई, सुसमाचार का प्रचार करना मुझे निरंतर बहुत मुश्किल लगने लगा और नतीजे बदतर होते गए। अतीत के बारे में सोचूँ, तो मैं सुसमाचार प्रचार करते समय धार्मिक लोगों के कुछ सवाल हल करने और संगति करने में सक्षम थी, लेकिन ऐसा क्यों था कि अब मेरे पास कहने के लिए इतना कम था? मुझे लगा कि कुछ तो गलत है लेकिन मुझे इसका कारण नहीं पता था, इसलिए मैंने असहाय होकर सोचा कि हो सकता है कि ऐसा मेरी खराब काबिलियत और सत्य की उथली समझ की वजह से हो। इस तरह सोचने पर मैं कुछ हद तक नकारात्मक हो गई। मुझे पता था कि मेरी दशा गलत है लेकिन मुझमें इसे बदलने की ताकत नहीं थी। बाद में पर्यवेक्षक ने हमारे साथ बैठक कर मेरी कई समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया, जैसे अपने कर्तव्य में निष्क्रिय रहना, हमेशा दूसरों पर निर्भर रहना और वास्तविक कार्य न करना, आदि। जब एक-एक करके ये मूल्यांकन मेरे सामने रखे गए, तो मैं यह सोचकर अचंभित रह गई, “मेरे कर्तव्य में इतनी सारी समस्याएँ कैसे हो सकती हैं? मैंने समूह में क्या भूमिका निभाई है?”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीष प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ निकटता से जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और रुतबा खो गया तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी और उन्हें यह अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उनका भेद पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी केवल आशीष के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, आशीष के पीछे भागने को अपनी जीवनरेखा मानते हैं, वे परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के प्रति संदेह और सतर्कता से भरे हुए रहते हैं, उन्हें डर रहता है कि अगर वे बुराई करते हैं, गड़बड़ी पैदा करते हैं और उजागर हो जाते हैं, तो उन्हें बरखास्त कर हटा दिया जाएगा और वे अपनी अच्छी संभावनाएँ और गंतव्य गँवा देंगे। मैंने देखा कि मेरा अनुसरण और दृष्टिकोण एक मसीह-विरोधी के समान ही हैं। जब से मुझे टीम अगुआ के रूप में बरखास्त किया गया था, मुझे डर था कि अगर मेरे धर्म प्रचार से अच्छे नतीजे न आए, तो मुझे दूसरा काम सौंप दिया जाएगा और मेरे पास करने के लिए कोई कर्तव्य नहीं होगा, इसलिए मैंने अपना कर्तव्य निभाने और एक अच्छी संभावना और गंतव्य को सुरक्षित करने के लिए अपने कर्तव्य की प्रभावशीलता में सुधार करने का लक्ष्य रखा। जिस बहन के साथ मैं सहयोग कर रही थी, उसने मेरे काम में विचलन देखे, लेकिन मैंने जल्दी से कारण का पता लगाकर उन्हें ठीक नहीं किया। इसके बजाय मुझे डर था कि अगुआओं को पता चल जाएगा, वे मुझे अपर्याप्त मानेंगे और दूसरा काम सौंप देंगे, इसलिए मैंने अपनी कमियाँ छिपाने की कोशिश की, सिद्धांतों की समझ की कमी को ढाल के रूप में इस्तेमाल किया और मैंने उन मुद्दों को नहीं खोजा जिन पर मैं स्पष्ट नहीं थी, न ही मैंने अलग राय व्यक्त की। मैंने बस उस बहन पर भरोसा किया जिसके साथ मैं सहयोग कर रही थी, यह माना कि अगर गलतियाँ भी हुईं, तो मैं कम जिम्मेदार होऊँगी और मुझे दूसरा कार्य नहीं सौंपा जाएगा। कर्तव्य करने के लिए मूल रूप से सामंजस्यपूर्ण सहयोग की आवश्यकता होती है और हमें एक-दूसरे की क्षमताओं का पूरक होना चाहिए, लेकिन मैं केवल खुद की सुरक्षा के बारे में ही चिंतित थी और कलीसिया के कार्य पर बिल्कुल भी विचार नहीं करती थी। मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ भी पूरी नहीं कीं। मैं वास्तव में स्वार्थी, नीच, धूर्त और धोखेबाज थी! मैंने सोचा कि अतीत में मुझे क्यों बरखास्त किया गया था, एक तो यह इसलिए हुआ था क्योंकि मेरे अंदर चापलूसी का गंभीर स्वभाव था और मैं कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं कर रही थी और दूसरी तरफ यह मेरी खराब काबिलियत और टीम अगुआ का काम सँभालने में असमर्थता के कारण था। मुझे चापलूसी का अपना भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए था और जल्दी से खुद को सुसमाचार प्रचार के सत्य और सिद्धांतों से युक्त करना चाहिए था। इस तरह अभ्यास करके ही मैं अपने कर्तव्य में प्रगति कर सकती थी। लेकिन मैंने सत्य नहीं खोजा और अपनी कमियाँ छिपाने के लिए चालाकी का इस्तेमाल करने की कोशिश की, जिसने न केवल मेरे जीवन को नुकसान पहुँचाया, बल्कि मेरे कर्तव्य की प्रभावशीलता पर भी असर डाला। मेरे कार्य-कलापों के कारण बहुत पहले ही परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा था। अब मैं पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन गँवा कर अंधेरे में जी रही थी। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव था जो मुझ पर उतर रहा था और अगर मैं अपने होशो-हवास में न आती, तो मैं बस परमेश्वर द्वारा घृणा करके हटा दी जाती! इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, पश्चात्ताप करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने की अपनी इच्छा जताई।
कुछ समय बाद ली शियाओ को दूसरा काम सौंप दिया गया और समूह का काम बहन शिन्यू और मैंने सँभाल लिया। मैं यह सोचकर चिंता में पड़ गई, “ली शियाओ ही वह व्यक्ति थी जो उन मुद्दों की जाँच करती थी जिनके बारे में मैं स्पष्ट नहीं होती थी, इसलिए यदि मसले पैदा होते थे, तो मैं कम जिम्मेदार होती थी। अब शिन्यू ने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया है, इसलिए यदि भविष्य में मसले पैदा हुए, तो यह स्वाभाविक रूप से मेरी जिम्मेदारी होगी—यह पानी की तरह एकदम साफ है। और फिर काट-छाँट किया जाना तो छोटी सी बात होगी; गंभीर मामलों में मुझे बरखास्त करके हटाया जा सकता है।” मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत है, इसलिए मैंने खुद के खिलाफ विद्रोह करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीजें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। ... यदि सत्य का मार्ग खोजना तुम्हें पसंद है तो तुम सदैव प्रकाश में रहने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम परमेश्वर के घर में सेवाकर्मी बने रहकर बहुत प्रसन्न हो, गुमनाम बनकर कर्मठतापूर्वक और कर्तव्यनिष्ठता से काम करते हो, हमेशा देते हो, और कभी लेते नहीं, तो मैं कहता हूँ कि तुम एक वफादार संत हो, क्योंकि तुम्हें किसी इनाम की अपेक्षा नहीं है, तुम बस ईमानदार बनने का प्रयास करते हो। यदि तुम स्पष्टवादी बनने को तैयार हो, अपना सर्वस्व खपाने को तैयार हो, यदि तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन दे सकते हो और दृढ़ता से अपनी गवाही दे सकते हो, यदि तुम इस स्तर तक ईमानदार हो जहाँ तुम्हें केवल परमेश्वर को संतुष्ट करना आता है, और अपने बारे में विचार नहीं करते हो या अपने लिए कुछ नहीं लेते हो, तो मैं कहता हूँ कि ऐसे लोग प्रकाश में पोषित किए जाते हैं और वे सदा राज्य में रहेंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि ईमानदार लोग परमेश्वर के सामने पूरी तरह से आत्म-समर्पण कर सकते हैं और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को समर्पित हो सकते हैं, अपने कर्तव्य बिना किसी योजना के या खुद के बारे में सोचे बिना करते हैं, केवल परमेश्वर की संतुष्टि के लिए अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने के बारे में सोचते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने जाना कि अपनी कमियाँ उजागर करने से बचना एक अच्छी संभावना और नियति की ओर नहीं ले जाएगा। इसके विपरीत जितना अधिक मैं अपनी कमियाँ छिपाऊँगी और परमेश्वर से छल करने के लिए धोखे का उपयोग करूँगी, उतना ही अधिक परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और उतनी ही अधिक आशंका होगी कि मैं पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा दूँ। यह कर्तव्य करने के लिए मेरे पास परमेश्वर की अनुमति थी, परमेश्वर मेरी सभी कमियों और दोषों को जानता था, लेकिन मैं हमेशा उन्हें छिपाना और ढँकना चाहती थी। मैं खुद को और अपने आसपास के लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रही थी! मैं कितनी मूर्ख थी! मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना चाहिए, उन चीजों पर भाई-बहनों से स्पष्टीकरण माँगना चाहिए जो मुझे समझ में नहीं आतीं, गलतियों का साहसपूर्वक सामना करना और उन्हें स्वीकार करना चाहिए, कमियाँ होने पर भी सुधार करने का प्रयास करना चाहिए और जो जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकूँ उन्हें पूरा करना चाहिए। यह समझने के बाद मुझे अपने दिल में शांति महसूस हुई। शिन्यू के साथ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के मुद्दों पर चर्चा करते समय यदि हमें ऐसी चीजों का सामना करना पड़ता था जो हमें समझ नहीं आती थीं, तो हम परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजते थे और आपसी संगति के माध्यम से कुछ मसले जो शुरू में समझ नहीं आते थे, वे स्वाभाविक रूप से स्पष्ट हो जाते थे। जिन कुछ मसलों को हम चर्चा के माध्यम से स्पष्ट नहीं कर पाते थे, हम पर्यवेक्षकों से मदद माँगते थे और उनकी संगति के माध्यम से हमें अधिक स्पष्टता मिलती थी। इस अवधि के दौरान मेरी कई कमियाँ बेनकाब हुईं, लेकिन मैं अब बेबस महसूस नहीं करती थी। जब समस्याएँ आती थीं, तो मैं उनका समय रहते विश्लेषण करती और हमें पता भी न चलता और हमारे धर्म प्रचार की प्रभावशीलता में सुधार हो जाता था। मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद देती थी।
कुछ समय बाद अगुआओं ने हमारे प्रचार की प्रभावशीलता के बारे में पूछने के लिए लिखा और मुझे फिर से कुछ दबाव महसूस हुआ। हालाँकि प्रभावशीलता पहले से बेहतर थी, लेकिन इसमें अभी भी कोई अहम सुधार नहीं हुआ था और मैं फिर से चिंता करने से नहीं बच पाई, “अगर समूह में प्रभावशीलता में उल्लेखनीय सुधार न हुआ, तो क्या अगुआ सोचेंगे कि मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ और फिर मुझे दूसरा काम सौंप देंगे?” इन विचारों ने मुझे थोड़ा हताश महसूस कराया। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो रही थी। अपनी एक भक्ति के दौरान मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो बिल्कुल वही था जिसकी मुझे जरूरत थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ... अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर का घर लोगों को सिद्धांतों के आधार पर हटाता है, किसी व्यक्ति की अस्थायी गलतियों या उसकी काबिलियत के आधार पर नहीं, बल्कि सत्य और कर्तव्यों के प्रति उसके रवैये के आधार पर हटाता है और वह सत्य स्वीकार करता है और गलतियों के बाद परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करता है या नहीं, इसके आधार पर हटाता है। जो लोग गलतियाँ करते हैं लेकिन पश्चात्ताप करने से इनकार कर देते हैं और जो अपने प्रकृति सार से ही सत्य से विमुख हैं, वही हटाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त मैं हमेशा सोचती थी कि किसी को उसके कर्तव्य में दूसरा काम सौंपने का मतलब हटाया जाना है, लेकिन यह नजरिया परमेश्वर के वचनों के बिल्कुल अनुरूप नहीं है। कुछ लोगों को उनके गंभीर भ्रष्ट स्वभाव के कारण बरखास्त किया जाता है जिसके कारण वे कार्य में गड़बड़ी करते और बाधा डालते हैं, लेकिन अगर वे बरखास्त किए जाने के बाद आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप करते हैं, तो कलीसिया उन्हें अपने कर्तव्य करने का अवसर देती है। अगर किसी को इसलिए दूसरा कार्य सौंपा जाता है क्योंकि उसकी काबिलियत खराब है और वह अपना काम नहीं सँभाल सकता, तो कलीसिया उसकी काबिलियत और क्षमताओं के आधार पर उपयुक्त कर्तव्यों की व्यवस्था करती है जिससे कलीसिया के कार्य और व्यक्ति के जीवन प्रवेश दोनों को लाभ होता है। बरखास्तगी और दूसरा काम सौंपा जाना किसी व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य करने के अवसर से वंचित करना नहीं है और न ही उनका मतलब हटाया जाना है। उदाहरण के लिए, बहन हान यू मेरे साथ सहयोग किया करती थी, उसे बरखास्त कर दिया गया क्योंकि उसके अहंकारी स्वभाव के कारण वह अपना रुतबा दिखाती थी और दूसरों को बेबस करती थी जिससे भाई-बहन बेबस महसूस करते थे और वह कार्य में गड़बड़ी और बाधा डालती थी। हालाँकि हान यू के आत्म-चिंतन करने और अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करने के बाद कलीसिया ने उसके लिए फिर से कर्तव्य निभाने की व्यवस्था की। अतीत में मुझे भी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागने के लिए बरखास्त किया गया था, लेकिन एक बार जब मैं पश्चात्ताप के लिए तैयार हो गई, तो कलीसिया ने मुझे फिर से अपने कर्तव्य निभाने के लिए व्यवस्थित किया। इससे मैंने देखा कि परमेश्वर द्वारा लोगों को हटाया जाना इस पर आधारित नहीं है कि उन्होंने गलतियाँ की हैं या नहीं या उनमें काबिलियत है या नहीं, बल्कि इस पर आधारित है कि वे सत्य स्वीकार कर सकते हैं या नहीं और सचमुच पश्चात्ताप कर सकते हैं या नहीं। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है।
फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करता है और अपना कर्तव्य निभाने और जो वह कर सकता है उसे करने में सृष्टिकर्ता के साथ सहयोग करता है तो यह कोई लेन-देन या व्यापार नहीं होता है; लोगों को परमेश्वर से कोई वादा या आशीष पाने के लिए रवैयों की अभिव्यक्तियों या क्रियाकलापों और व्यवहारों का सौदा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जब सृष्टिकर्ता तुम लोगों को यह काम सौंपता है तो यह सही और उचित है कि सृजित प्राणियों के रूप में, तुम इस कर्तव्य और आदेश को स्वीकार करो। क्या इसमें कोई लेन-देन शामिल है? (नहीं।) सृष्टिकर्ता की ओर से, वह तुम लोगों में से हर एक को वे कर्तव्य सौंपने के लिए तैयार है जो लोगों को निभाने चाहिए; और सृजित मानवजाति की ओर से, लोगों को यह कर्तव्य सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, इसे अपने जीवन का दायित्व मानना चाहिए, वह मूल्य मानना चाहिए जिसे उन्हें इस जीवन में जीना है। यहाँ कोई लेन-देन नहीं है, यह एक समकक्ष विनिमय नहीं है, इसमें ऐसा कोई भी इनाम या अन्य कथन तो और भी शामिल नहीं हैं जिनकी लोग कल्पना करते हैं। यह किसी भी तरह से एक व्यापार नहीं है; यह लोगों द्वारा अपने कर्तव्य निभाते हुए चुकाई गई कीमत या उनकी कड़ी मेहनत के बदले में कुछ और पाना भी नहीं है। परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा है, न ही लोगों को इसे इस तरीके से समझना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। “‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ ये शब्द बहुत वास्तविक लगते हैं, और उस अपेक्षा के बारे में बताते हैं जो परमेश्वर लोगों से चाहता है। कैसी अपेक्षा? यही कि यदि लोगों में योग्यता की कमी है, तो यह दुनिया का अंत नहीं है, लेकिन उनके पास ईमानदार हृदय होना चाहिए, और यदि उनके पास यह है, तो वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी स्थिति या पृष्ठभूमि क्या है, तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए, ईमानदारी से कार्य करना चाहिए, पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, चालाकी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, धूर्त या कपटी व्यक्ति मत बनो, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, और घुमा-फिरा कर बात मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करते हुए मैंने जाना कि परमेश्वर लोगों को अपने कर्तव्य करने का अवसर इसलिए नहीं देता कि वे पुरस्कार के लिए मेहनत करें और खुद को खपाएँ, बल्कि इसलिए देता है क्योंकि कर्तव्य करना सृजित प्राणियों की जिम्मेदारी और दायित्व है और लोगों को इसे पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा दिया गया अवसर भी है ताकि हम सत्य का अनुसरण करें और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग दें। परमेश्वर किसी व्यक्ति की काबिलियत नहीं देखता, बल्कि यह देखता है कि क्या उसके पास अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार दिल है, क्या वह अपने निजी हितों को अलग रख सकता है, अपना दिल और प्रयास लगा सकता है और जो कुछ भी वह करे, क्या उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकता है। यही वह रवैया है जो हमें अपने कर्तव्यों के प्रति रखना चाहिए। आगे अपने कर्तव्य निभाते समय मुझे अब इतना बोझ महसूस नहीं होता था। हालाँकि मेरी काबिलियत कम है, मैं जो कुछ कर सकती हूँ, उसमें अभी भी मुझे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की जरूरत है। अगर ऐसी समस्याएँ होतीं जो मुझे समझ में न आतीं, तो मैं प्रार्थना करती और परमेश्वर पर भरोसा करती या पर्यवेक्षकों से मदद माँगती थी। कभी-कभी जब समस्याएँ आती थीं, तो मुझे चिंता होती थी कि पर्यवेक्षक मेरी असलियत जान सकते हैं और कह सकते हैं कि इतने लंबे समय तक प्रशिक्षण के बावजूद मैंने प्रगति नहीं की है। लेकिन जब मैं सोचती कि परमेश्वर कैसे सब चीजों की पड़ताल करता है, तो मुझे एहसास होता था कि परमेश्वर को मेरी कमियाँ पता हैं और उन्हें छिपाना व्यर्थ है। परमेश्वर ने मेरे आध्यात्मिक कद और काबिलियत के आधार पर मेरे कर्तव्य करने की उपयुक्त व्यवस्थाएँ की हैं। इन चीजों को लेकर मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए या परेशान नहीं होना चाहिए। मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, अपने हित अलग रखने चाहिए और अपने वर्तमान कर्तव्य अच्छी तरह से करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अगर मैं अपना सब कुछ दे दूँ और फिर भी यह कर्तव्य न सँभाल पाऊँ, तो दूसरे कर्तव्य सौंपे जाने पर भी मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर दूँगी। इसे ध्यान में रखकर मैंने मसलों के बारे में पर्यवेक्षकों से खुलकर मार्गदर्शन माँगा और पर्यवेक्षकों द्वारा कुछ समस्याओं की ओर इशारा करने के बाद मैंने उन विचलनों का विश्लेषण किया और उन्हें तुरंत ठीक किया। कुछ अवधि तक इसी तरह अभ्यास करने के बाद हमारे धर्म प्रचार की प्रभावशीलता पहले की तुलना में काफी बेहतर हो गई। मैं अपने दिल में परमेश्वर की आभारी हूँ। यह नतीजा पूरी तरह से परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण है।