75. क्या दूसरों के सौंपे गए कामों के प्रति निष्ठावान होना सही तरीका है?

यिन एन, चीन

मेरे दादाजी हमारे गाँव के बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और वे हमेशा दूसरों की मदद करके खुश रहते थे। जब मैं छोटी थी तो वह और मेरी दादी शहर आ गए, लेकिन जब भी गाँव में किसी को किसी चीज की जरूरत होती, तो दादाजी अपना काम छोड़कर मदद करने गाँव लौट आते थे। सभी कहते थे कि मेरे दादाजी एक अच्छे इंसान हैं और वे उनका बहुत सम्मान करते थे और जब भी उनका जिक्र होता तो लोग उन्हें बहुत सम्मान देते थे। मुझे गर्व महसूस होता था कि मेरे दादा ऐसे हैं। दादा के निधन के बाद मैं अक्सर लोगों को उनके बारे में बात करते सुनती थी, कि वे नैतिक स्तर पर अच्छे और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। यह सुनकर मुझे एहसास होता था कि मेरे दादा का आचरण अच्छा और भरोसे के लायक था और मृत्यु के बाद भी वे सुप्रतिष्ठित थे। बाद में जब भी कोई मुझसे मदद माँगता, तो मैं सक्रिय रूप से उनकी मदद करती, मुझे महसूस होता था कि इस तरह से दूसरों की मदद करना अच्छा है और इससे मैं एक अच्छी इंसान बनती हूँ।

परमेश्वर को पाने के बाद मैं कलीसिया में वीडियो बनाती थी। चूँकि मैं कंप्यूटर तकनीक के बारे में कुछ बातें जानती थी, इसलिए भाई-बहन अपनी कंप्यूटर समस्याओं में मदद के लिए मेरे पास आते थे। मुझे लगता था कि भाई-बहनों की कंप्यूटर समस्याएँ ठीक करने में मदद करना एक अच्छा काम है। इसके अलावा जब भाई-बहन मेरी मदद माँगते थे, तो इसका मतलब था कि उन्हें मुझ पर भरोसा था और मैं सोचती थी “अगर मैं मदद न करूँ, तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वे सोचेंगे कि मैं वास्तव में स्वार्थी हूँ और मुझमें मानवता की कमी है?” इसलिए जब तक मैं कोई समस्या सुलझा पाती थी, मना नहीं करती थी। कभी-कभी जब मैं समस्या हल नहीं कर पाती थी, तो जानकारी खोजने के लिए अपना दिमाग लगाती थी और फिर कोई समाधान खोजने की कोशिश करती थी। लेकिन भले ही इसमें मेरा बहुत समय लगता था और मेरे मुख्य काम में देरी हो जाती थी, फिर भी मैं भाई-बहनों की कंप्यूटर समस्याएँ हल करने में मदद को प्राथमिकता देती थी। मुझे लगता था कि चूँकि मैं उनका अनुरोध स्वीकार कर लेती थी, तो मुझे अच्छा काम करना चाहिए। आखिर में अगर मैं इसे अच्छी तरह से नहीं करती, तो क्या मैं अपनी प्रतिष्ठा नहीं गँवा दूँगी? अगर ऐसा हुआ तो भविष्य में कौन मुझ पर भरोसा करेगा? धीरे-धीरे मुझे भाई-बहनों से प्रशंसा मिलती थी और सभी सोचते थे कि मेरे पास अच्छी मानवता है और मैं दूसरों की मदद के लिए तैयार हूँ। इसलिए मुझे लगता था कि मैं जो कीमत चुका रही हूँ, वह इसके योग्य है।

बाद में काम की जरूरतों के चलते मैंने एक नई तरह की तकनीक का अध्ययन करना शुरू किया। अगुआ ने मुझे विशेष रूप से निर्देश दिया, “तुम्हें इसे जल्दी ही उपयोग करना सीखना है और फिर सभी को सिखाना है। अन्यथा इससे भाई-बहनों द्वारा इसके उपयोग में देरी होगी और कार्य कुशलता प्रभावित होगी।” जब मैं ध्यान से नई तकनीक का अध्ययन कर रही थी, तभी बहन शाओशू के कंप्यूटर की स्क्रीन अचानक नीली हो गई और वह चालू नहीं हुआ और उसने मुझसे समस्या का पता लगाने में मदद माँगी। जब मैंने ब्लू स्क्रीन कोड देखा, तो पाया कि यह कुछ ऐसा था जिसे मैंने पहले नहीं देखा था और मुझे नहीं पता था कि इसे कैसे सँभालना है, इसलिए मैंने उसे इसे मरम्मत के लिए भेजने के लिए कहा। लेकिन उसे चिंता थी कि मरम्मत में बहुत अधिक समय लगेगा और उसने जोर देकर कहा कि मैं इसे ठीक करने में उसकी मदद कर दूँ, उसने कहा, “मैं कंप्यूटर तुम्हारे हवाले छोड़ रही हूँ; मुझे यकीन है कि तुम इसे ठीक कर पाओगी।” मैंने देखा कि उसे मुझ पर कितना भरोसा था और मैंने सोचा, “अगर मैंने फिर मना कर दिया, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी?” मैं मना नहीं कर सकती थी, इसलिए मैंने हामी भर दी। अगले दो दिन तक मैं घर पर रहकर ऑनलाइन जानकारी खोजती रही, कंप्यूटर ठीक करने का तरीका जानने के लिए अपने दिमाग को खपाती रही। मैंने कई तरीके आजमाए और आखिरकार उसे ठीक करने में कामयाब रही। अपना कंप्यूटर ठीक देखकर बहन बहुत खुश हुई और मुझे यह सोचकर खुशी हुई कि इन दो दिनों की कड़ी मेहनत आखिरकार रंग लाई, लेकिन मुझे यह सोचकर थोड़ी उदासी भी महसूस हुई, “मैंने दूसरों की समस्याएँ हल करने में मदद की है, लेकिन मैं पढ़ाई के लिए जरूरी तकनीक नहीं समझ पाई हूँ। लेकिन मुझे दूसरों से ये वादे करने को किसने कहा था? मैं बस थोड़ी ज्यादा कीमत चुकाऊँगी और पढ़ाई के लिए देर तक जागूँगी।” उसके बाद जब भी भाई-बहनों को कंप्यूटर की समस्या होती, तो वे मुझे उसे हल करने के लिए बुलाते और मुझे मना करने में बहुत शर्म आती। मैं उस पर बहुत समय लगाती, जिससे मेरा मुख्य काम विलंबित हो जाता। मैंने सोचा कि भाई-बहनों को सुझाव दूँ कि अगर उनके उपकरणों में कोई समस्या है, तो उन्हें पहले उसे मरम्मत के लिए कहीं और भेजना चाहिए और मैं अपनी व्यस्तता की अवधि से निकलकर इन चीजों को फिर सँभाल लूँगी। लेकिन जब भाई-बहनों ने मुझे फिर से मदद के लिए बुलाया, तो मैंने पाया कि मैं अनजाने में ही मदद करने जा रही हूँ। हालाँकि दिन में मैं भारी व्यस्त रहती थी, लेकिन बाद में सभी की प्रशंसा सुनकर मुझे लगता था कि यह प्रयास सार्थक रहा। क्योंकि मैं रोज दूसरों के कंप्यूटर उपकरणों की मरम्मत के लिए मदद करने में जुटी थी, इसलिए मेरी अध्ययन योजनाएँ रुक गईं। पर्यवेक्षक ने मुझसे पूछा कि मेरी पढ़ाई कैसी चल रही है और मेरे साथ संगति की, मुझे तकनीक के बारे में और अधिक जानने और इसे जल्द से जल्द भाई-बहनों को सिखाने का आग्रह किया। मुझे पता था कि यह काम जरूरी था और इसे न सीखने से वीडियो कार्य की प्रभावशीलता और प्रगति प्रभावित होगी। लेकिन फिर मैंने सोचा, “जब भाई-बहन मदद करने को कहते हैं अगर मैं तब इनकार कर दूँ, तो क्या वे मुझे स्वार्थी और प्रेमहीन समझेंगे?” उस दौरान मैं तकनीकी कौशल सीखने की बहुत कोशिश कर रही थी, साथ ही भाई-बहनों को कंप्यूटर की समस्याएँ सुलझाने में मदद भी कर रही थी मुझे लगता था कि मुझे दिन का वक्त कभी पूरा नहीं पड़ता और मैं बहुत थक जाती हूँ, लेकिन मुझे नहीं पता था कि अभ्यास कैसे करूँ।

बाद में जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, तो किसका अनुसरण करना चाहिए, इसे लेकर अपने भीतर के गलत दृष्टिकोणों का एहसास हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जिस पल से लोग बोलना शुरू करते हैं, वे अन्य लोगों, छद्म-विश्वासियों, शैतान और दुनिया से सभी प्रकार के कथन सीखते हैं। इसकी शुरुआत प्रारंभिक शिक्षा से होती है जहाँ उन्हें उनके माता-पिता और परिवार सिखाते हैं कि उन्हें किस प्रकार का इंसान होना होना चाहिए, वे क्या कहें, उनके पास कौन से नैतिक मूल्य होने चाहिए, उनके विचार और सत्यनिष्ठा कैसी होनी चाहिए इत्यादि। समाज में प्रवेश करने के बाद भी, लोग अचेतन रूप से शैतान द्वारा स्वयं में विभिन्न सिद्धांतों और मतों का आरोपण स्वीकार करते हैं। ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो’ इसे परिवार या समाज द्वारा हर व्यक्ति में नैतिक आचरण के एक रूप में स्थापित किया जाता है जो लोगों में आचरण के तरीके के रूप में अवश्य होना चाहिए। यदि तुम्हारा नैतिक आचरण ऐसा है, तो लोग कहते हैं कि तुम उत्तम, सम्माननीय, सत्यनिष्ठ हो और समाज में तुम्हारा बहुत आदर और सम्मान किया जाता है। चूँकि यह वाक्यांश ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो’ लोगों और शैतान से आता है, इसलिए यह हमारे लिए गहन-विश्लेषण और समझने की वस्तु बन जाता है और एक ऐसी वस्तु जिसका हम त्याग कर देते हैं। हम इस वाक्यांश को समझते और फिर त्याग क्यों देते हैं? आओ, पहले जाँच करते हैं कि क्या यह वाक्यांश और इसका पालन करने वाला व्यक्ति सही है। क्या एक ऐसा व्यक्ति होना वास्तव में उत्तमता है जिसके पास ‘अन्य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करने’ का नैतिक चरित्र हो? क्या ऐसे व्यक्ति के पास सत्य वास्तविकता होती है? क्या उसमें वह मानवता होती है जो एक सृजित प्राणी में होनी चाहिए और उस स्व-आचरण के सिद्धांत होते हैं जिसका उन्हें पालन करना चाहिए और जिसकी बात परमेश्वर करता है? क्या तुम सभी, ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो’ इस वाक्यांश को समझते हो? पहले अपने शब्दों में समझाओ कि इस वाक्यांश का क्या अर्थ है। (इसका मतलब यह है कि जब कोई तुम्हें कोई काम सौंपे, तो तुम्हें उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए।) क्या ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर कोई तुम्हें कुछ काम सौंपता है, तो क्या वह तुम्हारे बारे में ऊँची राय नहीं रखता? वह तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखता है, तुम पर विश्वास करता है और तुम्हें भरोसेमंद मानता है। इसलिए, दूसरे लोग तुमसे कुछ भी करने के लिए क्यों न कहें, तुम्हें सहमत होना चाहिए और उसे उनकी आवश्यकताओं के अनुसार अच्छी तरह से करना चाहिए, ताकि वे खुश और संतुष्ट रहें। ऐसा करने पर, तुम एक अच्छे इंसान होगे। निहितार्थ यह है कि जिस व्यक्ति ने तुम्हें कार्य सौंपा है उसका संतुष्ट होना यह निर्धारित करने का मानक है कि क्या तुम एक अच्छे इंसान हो। क्या इसे इस प्रकार समझाया जा सकता है? (हाँ।) तो क्या दूसरों की नजरों में एक अच्छे इंसान के रूप में देखा जाना और समाज द्वारा मान्यता पाना आसान नहीं है? (हाँ।) इसका क्या मतलब है कि यह ‘आसान’ है? इसका मतलब है कि मानक अत्‍यंत निम्न है और बिल्कुल भी उत्तम नहीं है। यदि तुम ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो’ के नैतिक मानक को पूरा करते हो तो तुम्‍हें ऐसे मामलों में अच्छे नैतिक आचरण वाला व्यक्ति माना जाता है। निःसंदेह, इसका मतलब है कि तुम लोगों के भरोसे के, उनके द्वारा कार्य सौंपे जाने के लायक हो, तुम एक प्रतिष्ठित और अच्छे व्यक्ति हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14))। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए मुझे समझ आया कि मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण या कार्य-कलाप नहीं कर रही थी, बल्कि शैतान द्वारा मन में बैठाए गए पारंपरिक विचारों के अनुसार आचरण कर रही थी, जैसे “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो।” हालाँकि मेरे माता-पिता ने स्पष्ट रूप से मेरे अंदर यह विचार नहीं डाला था, लेकिन मैंने छोटी उम्र से ही देखा कि कैसे मेरे दादा दूसरों के सौंपे गए मामले बहुत ध्यान से सँभालते थे और चाहे वे कितने भी कठिन या समय खाने वाले क्यों न हों, उन्हें पूरा करते थे, अंततः उन्होंने अपने आसपास के लोगों का सम्मान पाया, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के बाद भी उन्हें प्यार से याद किया जाता था। मुझे लगता था कि आचरण करने का यह सही तरीका है, मैं इस तरह लोगों की प्रशंसा अर्जित कर सकती हूँ और मैं गरिमा और सत्यनिष्ठा वाली इंसान बन सकती हूँ। अवचेतन रूप से इस विचार के निरंतर संपर्क में रहने के जरिए मैं खुद को ऐसा व्यक्ति बनाने का प्रयास करने लगी। जब से भाई-बहनों को पता चला था कि मेरे पास कंप्यूटर की मरम्मत करने का कुछ कौशल है, वे कभी भी समस्या होने पर मदद के लिए मेरे पास आ जाते थे। मैंने कभी किसी को मना नहीं किया और नतीजतन मुझे कुछ सकारात्मक मूल्यांकन मिले। इससे मुझे और भी दृढ़ता से महसूस हुआ कि मेरे आचरण का यह सही तरीका था। जब भाई-बहन फिर से समस्याओं के साथ मेरे पास आते थे तो भले ही मैंने अपने कर्तव्य पूरे न किए हों, फिर भी मैं उनकी मदद करती थी। मुझे लगता था कि वे मेरी मदद इसलिए माँग रहे हैं क्योंकि उन्हें मुझ पर भरोसा है और मुझे लगता था कि अगर मैंने उनके कंप्यूटर ठीक न किए, तो क्या मैं उन्हें निराश नहीं करूँगी? यह सुनिश्चित करने के लिए कि भाई-बहन मेरे बारे में अच्छी बातें कहें और ऐसा व्यक्ति बनने के लिए जो उनकी नजर में प्रेमपूर्ण और अच्छी मानवता वाला हो, मैं सभी के अनुरोध पूरे करती, चाहे वे कितने भी कठिन क्यों न हों, दूसरों द्वारा सौंपे गए कार्य पूरे करने के लिए थोड़ा आराम छोड़ देना या अपना मुख्य कार्य टाल देना पसंद करती। मैं “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” के तथाकथित गुण के अनुसार जी रही थी, सिद्धांतों के बिना काम कर रही थी और कार्यों को प्राथमिकता देने में विफल थी। मैं सिर्फ लोगों की नजरों में एक भरोसेमंद और अच्छे इंसान के रूप में दिखने की कोशिश करती रही, नतीजतन मैं वीडियो बनाने का वह हुनर नहीं सीख पाई जो मुझे सीखना चाहिए था और अपने मुख्य काम में देरी कर दी। मैंने देखा कि शैतान ने मेरी सोच और नजरिए को भ्रष्ट और विकृत कर दिया था और मैं यह भी नहीं जानती थी कि एक वाकई अच्छा इंसान क्या होता है।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और समझा कि एक सृजित प्राणी को कौन-सी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। परमेश्वर कहता है : “‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे ईमानदारी से संभालने की पूरी कोशिश करो,’ इस नैतिक कथन का एक और पहलू है जिसे समझने की जरूरत है। यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य तुम्‍हारा बहुत ज्‍यादा समय और ऊर्जा नहीं लेता, और तुम्‍हारी क्षमता में है, या यदि तुम्‍हारे पास सही माहौल और परिस्थितियाँ हैं, तो मानवीय विवेक और तर्क से, जहाँ तक तुम्हारी क्षमता है, उतना तुम दूसरों के लिए कुछ चीजें कर सकते हो और उनकी तार्किक और उचित माँगों को पूरा कर सकते हो। लेकिन, यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य तुम्‍हारा अत्‍यधिक समय और ऊर्जा लेता है, और उसमें तुम्‍हारा बहुत सारा समय खप जाता है, इस हद तक कि तुम्‍हें अपने जीवन का और इस जीवन में अपने कर्तव्‍यों और दायित्‍वों का बलिदान देना पड़ता है और एक सृजित प्राणी के रूप में तुम अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभा पाते और उन्हें तुम्हारे बदले किसी और को दे दिया जाता है तो तुम क्‍या करोगे? तुम्‍हें मना कर देना चाहिए क्योंकि वह तुम्‍हारी जि‍म्मेदारी या दायित्व नहीं है। जहाँ तक किसी व्यक्ति के जीवन की जिम्मेदारियों और दायित्वों का सवाल है, तो माता-पिता की देखभाल, बच्चों के पालन-पोषण और समाज में कानून के दायरे में रहते हुए सामाजिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी व्यक्ति की ऊर्जा, समय और जीवन, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य करने में खर्च होनी चाहिए, न कि किसी अन्य व्‍यक्ति द्वारा सौंपे गए ऐसे कार्य में जो उसका समय और ऊर्जा ले लेता हो। ऐसा इसलिए कि परमेश्वर व्यक्ति का सृजन करता है, उसे जीवन प्रदान करता है, और उसे इस दुनिया में लाता है, इसलिए नहीं कि वह दूसरों के लिए काम करे और उनकी जिम्मेदारियों को पूरा करे। लोगों को जो सर्वाधिक स्वीकारना चाहिए वह है परमेश्वर का आदेश। केवल परमेश्वर का आदेश ही सच्चा आदेश होता है और मनुष्य द्वारा सौंपा काम स्वीकारना अपने समुचित कर्तव्यों का पालन न करना है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि भाई-बहनों की मदद करना गलत नहीं है और यही वह प्रेम है जो एक सामान्य मानवता वाले व्यक्ति में होना चाहिए। हालाँकि दूसरों की मदद करने के लिए समय और ऊर्जा को सिद्धांतहीन तरीके से खर्च करना, कलीसिया के कार्य पर विचार न करना और अपने कर्तव्यों में देरी करना, इस तरह की मदद अनुचित है और मुझे इसमें शामिल होने से इनकार करना चाहिए। परमेश्वर ने अंत के दिनों में मेरा जन्म निर्धारित किया है और मुझे अपने मिशन और कर्तव्य पूरे करने हैं। अगर मैं दूसरों द्वारा सौंपे गए कार्य पूरे करने के लिए अपने कर्तव्यों में देरी करती हूँ, तो मैं अपने उचित काम की उपेक्षा करूँगी। यह देखते हुए कि अगुआ ने मेरे लिए नई तकनीक का अध्ययन करने की व्यवस्था की है, मुझे इसे कम से कम समय में सीख लेना चाहिए था, जिससे सभी की वीडियो उत्पादन की दक्षता में सुधार होता। हालाँकि जब दूसरों को उपकरण में समस्या होती थी और वे मुझसे मदद माँगते थे, भले ही मुझे पता होता था कि उपकरण की मरम्मत में बहुत समय और ऊर्जा खर्च होगी और मेरे मुख्य काम में देरी होगी, फिर भी मैं उनकी मदद करने के लिए अपना खुद का काम अलग रख देती थी, बस इसलिए कि उन पर मेरी अच्छी छाप पड़े जिससे वीडियो उत्पादन तकनीक में मेरे शोध में देरी हुई। मुझे एहसास हुआ कि मेरे दृष्टिकोण में सिद्धांतों की कमी थी, मुझे नहीं पता था कि किन कार्यों को मना करना है और किन कार्यों में मदद करनी है और मैं शैतान के फलसफे का आँख मूंदकर अनुसरण कर रही थी। नतीजतन, मैं खुद को व्यस्त और थकाने में अपने दिन बिता रही थी, यहाँ तक कि भक्ति और परमेश्वर के वचन खाने-पीने के लिए समय का त्याग कर रही थी और मेरा प्राथमिक कार्य भी विलंबित हो रहा था। अब मुझे समझ आया कि मुझे हर समय अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए। परमेश्वर मुझसे यही चाहता है। अगर मैं दूसरों की प्रशंसा पाने या दूसरों द्वारा मुझे सौंपे गए कार्य पूरे करने के लिए अपने कर्तव्यों में देरी करती हूँ, तो यह मेरे उचित कार्य की उपेक्षा करना होगा और परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं होगा।

बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े और “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” के गुण का कुछ भेद पहचाना। परमेश्वर कहता है : “इस मानव समाज में, हर इंसान की मानसिकता लेन-देन की होती है, और हर कोई लेन-देन में संलग्न रहता है। हर कोई दूसरों से माँगें करता है और सभी खुद कोई नुकसान उठाए बिना दूसरों की कीमत पर लाभ कमाना चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं, ‘उन लोगों में से जो “अन्य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करते हैं,” ऐसे भी अनेक लोग हैं जो दूसरे लोगों की कीमत पर लाभ नहीं कमाना चाहते। उनका लक्ष्य बस चीजों को अच्छी तरह से संभालने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना होता है, इन लोगों में वास्तव में नैतिक आचरण होता है।’ यह कथन गलत है। भले ही वे धन, भौतिक चीजें या किसी भी प्रकार का लाभ न चाहते हों, वे प्रसिद्धि अवश्य चाहते हैं। यह ‘प्रसिद्धि’ क्या है? इसका अर्थ है, ‘मैंने वह काम स्वीकार लिया है जो उस व्यक्ति ने मुझे सौंपा था। वह व्यक्ति चाहे उपस्थित हो या नहीं, अगर मैं इसे ठीक से करने के लिए भरसक कोशिश करता हूँ और उसने मुझे जो सौंपा है उसे वफादारी से सँभालता हूँ तो मेरी अच्छी प्रतिष्ठा होगी। कम-से-कम कुछ लोग जान लेंगे कि मैं एक अच्छा, उच्च चरित्र वाला और अनुकरणीय व्यक्ति हूँ। मैं लोगों के बीच एक जगह बना सकता हूँ और लोगों के समूह में एक अच्छी प्रतिष्ठा रख सकता हूँ। यह सार्थक है!’ दूसरे लोग कहते हैं, ‘“अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” और चूँकि लोगों ने हमें कार्य सौंपा है, तो चाहे वे मौजूद हों या नहीं, हमें उनके कार्यों को अच्छी तरह से संभालना चाहिए और अंत तक निभाना चाहिए। भले ही हम एक स्थायी विरासत न छोड़ पाएँ, कम-से-कम वे यह कहकर पीठ पीछे हमारी आलोचना तो नहीं कर सकते कि हमारी कोई विश्वसनीयता नहीं है। हम आने वाली पीढ़ियों के साथ भेदभाव नहीं होने देंगे और उन्हें ऐसा घोर अन्याय नहीं सहने देंगे।’ वे क्या चाह रहे हैं? वे अभी भी प्रसिद्धि खोज रहे हैं। कुछ लोग धन और संपत्ति को बहुत महत्व देते हैं, जबकि अन्य प्रसिद्धि और लाभ को महत्व देते हैं। ‘प्रसिद्धि’ का क्या मतलब है? लोगों में ‘प्रसिद्धि’ के लिए विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? इसका अर्थ है, एक अच्छा और उच्च चरित्र वाला व्यक्ति, एक आदर्श, सदाचारी व्यक्ति या संत कहलाना। बल्कि‍ कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो एक तो ‘अन्य लोगों ने उन्हें जो कुछ भी सौंपा उसे निष्ठापूर्वक सँभालने के लिए अपनी पूरी कोशि‍श करने’ में सफल रहे और ऐसा चरित्र भी रखते हैं, इसलिए उनकी हमेशा प्रशंसा की जाती है, और उनके वंशजों को उनकी प्रसिद्धि से लाभ मिलता है। तुम देख लो, यह उन छोटे से लाभों से कहीं अधिक मूल्यवान है जो वे वर्तमान में प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए तथाकथित नैतिक मानक का पालन करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने के लिए अपनी पूरी कोशि‍श करो’ का शुरुआती बिंदु इतना आसान नहीं है। वह एक व्यक्ति के रूप में अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा करने की कोशिश मात्र नहीं कर रहा है, बल्कि इस जीवन में या अगले जन्म में व्यक्तिगत लाभ या प्रतिष्ठा पाने के लिए इसका अनुसरण कर रहा है। बेशक, ऐसे लोग भी हैं जो पीठ पीछे आलोचना और बदनामी से बचना चाहते हैं। संक्षेप में, लोगों के लिए इस तरह का काम करने का शुरुआती बिंदु सरल नहीं होता है, यह मानवता के दृष्ट‍िकोण का शुरुआती बिंदु नहीं है, न ही यह मानवजाति की सामाजिक जिम्मेदारी वाला शुरुआती बिंदु है। ऐसे काम करने वाले लोगों के इरादे और शुरुआती बिंदु से देखें, तो जो लोग इस वाक्यांश पर कायम रहते हैं कि ‘अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो,’ उनका कोई सरल उद्देश्य बिल्कुल नहीं होता(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि लोग पारंपरिक विचार “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” के अनुसार जीते हैं, लेकिन अपनी पीठ पीछे लोग निजी इरादे छिपाते हैं। उदाहरण के लिए जब मैं भाई-बहनों को कंप्यूटर ठीक करने में मदद कर रही थी, भले ही मुझे उनसे कोई भौतिक लाभ मिलने की उम्मीद नहीं होती थी, मैं उनसे अच्छे मूल्यांकन प्राप्त करना चाहती थी और उनके दिलों में अच्छी छवि बनाना चाहती थी। इसलिए मैं उनके द्वारा मुझे सौंपे गए कार्य पूरे करने के लिए अपना समय और ऊर्जा बलिदान करने को तैयार रहती थी, ताकि वे मुझे भरोसेमंद और विश्वसनीय व्यक्ति के रूप में देखें। मैंने अपने दादा के बारे में सोचा। उन्होंने अपना जीवन “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” के गुण के आधार पर जिया। उन्हें डर था कि शहर जाने के बाद दूसरे उनकी आलोचना करेंगे कि वे ग्रामीणों को नीचा समझते हैं, इसलिए चाहे ग्रामीणों की कोई भी समस्या हो, वह हमेशा उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करते थे। इससे उनका काफी नाम हुआ और हर कोई उन्हें दयालु और अच्छा व्यक्ति मानता था। मैं अपने दादा से बहुत प्रभावित थी और मैं भी “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” के पारंपरिक विचार से जी रही थी। जब मेरे आसपास के लोग कठिनाइयों में होते, जब तक वे मेरे पास आते रहते, मैं उनकी मदद करने का हर संभव प्रयास करती, इस डर से कि कहीं वे मेरे बारे में बुरा न बोलने लगें। जब भाई-बहनों को कंप्यूटर की समस्याएँ होती थीं और वे मेरी मदद माँगते थे, तो मैं ये नहीं सोचती थी कि इनकी तुलना मेरे अपने कर्तव्य या काम कितने ज्यादा जरूरी हैं और उनका भरोसा खोने से बचने के लिए अपने कर्तव्य अलग रख देती थी और सिद्धांतहीन तरीके से उनकी मदद करती थी, जिससे कलीसिया के कार्य में देरी हुई। अब मैं समझ गई कि “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक सँभालने की पूरी कोशिश करो” में सक्षम होने का मतलब सच्ची मानवता या महान चरित्र वाला व्यक्ति होना नहीं है। यह सिर्फ लोगों को अपने पक्ष में करने का एक साधन है, दूसरों की मदद करके प्रशंसा पाने और अच्छी प्रतिष्ठा बनाने का तरीका है। मेरा यह प्रयास वास्तव में गुमराह करने वाला और पाखंडी था! मैं अब और इस पारंपरिक विचार के अनुसार नहीं रह सकती थी। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य व आचरण करना था। व्यक्ति को परमेश्वर और अपने कर्तव्यों के प्रति वफादार होना चाहिए। एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरा करना मेरा मिशन और जिम्मेदारी है। बाद में जब इसी तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, तो मैंने सचेत रूप से परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया।

एक बार एक बहन ने नया कंप्यूटर खरीदा और चाहती थी कि मैं सिस्टम को फिर से इंस्टॉल करने में उसकी मदद करूँ। जब मैंने देखा कि कंप्यूटर नवीनतम मॉडल था और मैंने इसे पहले इंस्टॉल नहीं किया था और इसमें कुछ ड्राइवर नहीं थे, तो मुझे एहसास हुआ कि मदद करने के लिए सहमत होने का मतलब जानकारी खोजने में समय और प्रयास खर्च करना होगा। मुझे यह सोचकर उलझन महसूस हुई, “अगर मैं बहन की मदद करने से इनकार कर दूँ, तो क्या वह सोचेगी कि मैं उसकी मदद के लिए तैयार नहीं हूँ और उसके मन में मेरी अच्छी छवि खराब हो जाएगी?” लेकिन फिर मैंने सोचा कि मुझे कुछ जरूरी काम निपटाना था, जिसके लिए शोध पर समय और प्रयास खर्च करने की जरूरत थी और बहन को कंप्यूटर चलाने में मदद करने से मेरा काम विलंबित हो जाएगा। इस बिंदु पर मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपने बारे में दूसरों के नजरियों पर सोच रही थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की क्योंकि मैं प्रसिद्धि और लाभ के लिए काम में देरी नहीं करना चाहती थी। इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “यदि कोई तुम्‍हें कोई काम सौंपता है तो तुम्‍हें किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए? यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य कुछ ऐसा है जिसके लिए बहुत ही कम प्रयास की आवश्यकता है, जहाँ तुम्‍हें केवल बोलने या कोई छोटा-सा कार्य करने की आवश्यकता है, और तुम्‍हारे पास अपेक्षित काबिलियत है, तो तुम अपनी मानवता और करुणा के नाते मदद कर सकते हो; तो इसे गलत नहीं माना जाता। यह एक सिद्धांत है। हालाँकि, यदि तुम्‍हें सौंपा गया कार्य तुम्‍हारा बहुत-सा समय और ऊर्जा ले लेता है, या तुम्‍हारा काफी सारा समय भी बरबाद कर देता है, तो तुम्‍हारे पास इनकार करने का अधिकार है। भले ही वे तुम्‍हारे माता-पिता हों, तुम्‍हें अस्वीकार करने का अधिकार है। उनके प्रति वफादार रहने या उनके द्वारा सौंपा गया काम करने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह तुम्‍हारा अधिकार है। यह अधिकार कहाँ से आता है? यह तुम्‍हें परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया है। यह दूसरा सिद्धांत है। तीसरा सिद्धांत यह है कि यदि कोई तुम्‍हें कुछ कार्य सौंपता है, तो भले ही उसमें ज्यादा मात्रा में समय और ऊर्जा की खपत न हो, लेकिन वह तुम्‍हारे कर्तव्य पालन को बाधित या प्रभावित कर सकता हो, या अपना कर्तव्‍य निभाने की तुम्‍हारी इच्‍छा और साथ ही परमेश्वर के प्रति तुम्‍हारी वफादारी को खत्‍म कर सकता हो तो तुम्‍हें उसे भी अस्वीकार कर देना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति तुम्‍हें कोई ऐसा काम सौंपता है जो तुम्‍हारे सत्‍य के अनुसरण को प्रभावित कर सकता हो, सत्‍य का अनुसरण करने के तुम्हारे संकल्प और गति में गड़बड़ी और बाधा पैदा कर सकता हो और तुम्‍हें आधे रास्‍ते ही हार मान लेने को मजबूर करता हो, तो तुम्‍हें उसके लिए तो और भी इनकार कर देना चाहिए। तुम्‍हें ऐसी किसी भी चीज से इनकार कर देना चाहिए जो तुम्‍हारे कर्तव्य पालन या सत्य के अनुसरण को प्रभावित करती हो। यह तुम्‍हारा अधिकार है; तुम्‍हें ‘नहीं’ कहने का अधिकार है। तुम्‍हें अपना समय और ऊर्जा निवेश करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम उन सभी चीजों के लिए इनकार कर सकते हो जिनका तुम्‍हारे कर्तव्य पालन, सत्य की खोज या तुम्‍हारे उद्धार के लिए कोई अर्थ, मोल, सीख, सहायता या लाभ नहीं है। क्या इसे एक सिद्धांत माना जा सकता है? हाँ, यह एक सिद्धांत है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (14))। परमेश्वर ने तीन सिद्धांतों पर संगति की है कि हमें दूसरों द्वारा सौंपे गए कार्य कैसे सँभालने चाहिए, जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग प्रदान किया। अगर बहन की कंप्यूटर समस्या जटिल नहीं थी और यह एक सरल कार्य था, तो मैं उसकी मदद कर सकती थी क्योंकि यह वह प्रेम है जो भाई-बहनों के बीच होना चाहिए। लेकिन अगर उसकी समस्या को जल्दी हल नहीं किया जा सकता और मुझे अपने कर्तव्य अलग रखने पड़ते और हल करने के लिए समय और प्रयास खपाना होता, तो मुझे पक्ष और विपक्ष को तोलना होगा और पहले अपने कर्तव्यों पर विचार करना होगा और अगर इससे मेरे काम की प्रगति में देरी होती है, तो मैं मदद करने के लिए सहमत नहीं हो सकती। मैं पहले की तरह लोगों की प्रशंसा पाने के लिए, अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों पर विचार किए बिना, इसके महत्व की परवाह किए बिना हर अनुरोध स्वीकार नहीं कर सकती थी। इससे कलीसिया के कार्य में देरी होती। परमेश्वर के आदेश के प्रति वफादार रहना और अपने कर्तव्य पूरे करना सबसे महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के वचनों के अनुसार बहन को उसका कंप्यूटर ठीक करने में मदद करने से मेरा समय और ऊर्जा खर्च होती और मेरे कर्तव्यों में देरी होती और साथ ही बहन को आवश्यकता नहीं थी कि यह कार्य तुरंत हो जाए, इसलिए मैंने उसे मना कर दिया और उससे कहा कि जब मेरे पास समय होगा तो मैं कंप्यूटर सेट-अप करने में मदद करूँगी। जब मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया, अपने हितों की या दूसरों की नजरों में अपनी छवि बचाने की चिंता नहीं की तो मुझे मुक्त, सहज और उदार हृदय महसूस हुआ।

इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि सत्य की खोज और हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना ही सही रास्ता है। मुझे अपने कर्तव्यों को बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार करना चाहिए और उन्हें पूरा करने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए क्योंकि यह मेरी जिम्मेदारी और दायित्व है। हालाँकि दूसरों द्वारा मुझे सौंपे गए कार्यों के लिए मुझे यह मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या वे सिद्धांतों के अनुरूप हैं और क्या उनसे मेरे कर्तव्यों में देरी होगी। मुझे अपने हितों में मिलावट नहीं करनी चाहिए और शैतान के फलसफे के अनुसार नहीं जीना चाहिए। यह परमेश्वर के इन वचनों के अनुरूप है : “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2))

पिछला:  74. खतरनाक परिवेशों में कर्तव्य पालन

अगला:  76. क्या अपने माता-पिता की देखभाल करना परमेश्वर द्वारा सौंपा गया मिशन है?

संबंधित सामग्री

18. परमेश्वर का वचन जालों से निकलने में मेरी अगुवाई करता है

टिआँ'ना, हांगकांगपरमेश्वर के वचनों के लेख "क्या तुम जानते हो? परमेश्वर ने मनुष्यों के बीच एक बहुत बड़ा काम किया है" के पन्ने पलटते हुए, मुझे...

27. प्रभु से फिर से मिलना

जियांदिंग, यू.एस.ए.मेरा जन्म एक कैथलिक परिवार में हुआ था। छोटी उम्र से ही मेरी माँ ने मुझे बाइबल पढ़ना सिखाया था। उस समय, चीनी कम्युनिस्ट...

48. मौत के कगार से जीवन में वापसी

यांग मेई, चीन2007 में मैं अचानक गुर्दे फेल होने की लंबी बीमारी से ग्रस्त हो गई। जब मेरी ईसाई माँ और भाभी तथा कुछ कैथोलिक दोस्तों ने यह खबर...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

Connect with us on Messenger