80. बीमारी से सीखे सबक
2022 के अंत में एक सुबह जब मैं उठी तो मुझे अचानक चक्कर आने लगा। मैंने सोचा कि यह बहुत तेजी से उठने की वजह से हुआ है, इसलिए मैंने तुरंत आँखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद यह ठीक हो गया। लेकिन शाम को मुझे फिर से चक्कर आने लगा, जो चार-पाँच बार आता-जाता रहा और मुझे चिंता होने लगी कि कहीं मुझे कोई बीमारी तो नहीं हो गई है। अस्पताल में जाँच करने पर पता चला कि मेरा ब्लड प्रेशर 195 mmHg तक पहुँच गया था। मैं हैरान रह गई, मैंने सोचा, “इन वर्षों के दौरान अपनी आस्था में मैंने हमेशा त्याग किया और खुद को खपाया है, बहुत सारी पीड़ी सही है और परमेश्वर ने मुझे खूब सेहतमंद रखा है। मेरा ब्लड प्रेशर अचानक इतना ज्यादा कैसे हो सकता है?” घर लौटते हुए मैंने अपने दिल में भारीपन महसूस किया, मैं सोचने लगी कि कैसे मेरे पिता को उच्च रक्तचाप के कारण मस्तिष्क आघात हुआ और आधे शरीर में लकवे के कारण वह दस साल से अधिक समय तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद चल बसे। मैंने सोचा, “मेरा ब्लड प्रेशर इतना ज्यादा है, अगर किसी दिन मैं भी अपने पिताजी की तरह मर गई तो क्या होगा? मुझे अपने स्वास्थ्य का अच्छी तरह से ध्यान रखना होगा। मैं पहले की तरह इतनी कड़ी मेहनत नहीं कर सकती। अगर मेरी सेहत और बिगड़ गई और मैं अपना कर्तव्य न निभा पाऊँ तो क्या इससे मैं बेकार नहीं हो जाऊँगी? अगर मैं मर गई और उद्धार पाने का मौका खो बैठी तो क्या होगा?” मैं घबराहट और चिंता की दशा में जी रही थी। बाद में सभाओं में जब भी मैं भाई-बहनों से उच्च रक्तचाप के नुस्खों के बारे में सुनती थी तो घर जाकर उन्हें तुरंत आजमाती थी। मैं हर सुबह-शाम अपना रक्तचाप मापती थी और इसकी दवाई लेना नहीं भूलती थी। मैं अपनी खुराक पर भी विशेष ध्यान देती थी और लगातार यह सोचती रहती थी कि अपनी सेहत कैसे सुधारूँ। कुछ समय बाद मेरा ब्लड प्रेशर थोड़ा स्थिर हो गया और मुझे चक्कर आना बंद हो गया। मैंने सोचा, “मुझे अपनी सेहत सुधारते रहने और पहले जैसी कड़ी मेहनत न करने की जरूरत है ताकि मेरी हालत और न बिगड़े। जब तक मैं स्वस्थ रहती हूँ और अपना कर्तव्य कर सकती हूँ, तब तक मेरे पास उद्धार का मौका रहेगा।” बाद में यूँ तो मैं अपना कर्तव्य निभाते दिखती थी, लेकिन अंदर से प्रेरणाविहीन महसूस करती थी और मुसीबत के समय मेरी पहली चिंता मेरी सेहत होती थी। दिन में सभाओं के दौरान मैं कलीसिया में मसलों का पता लगाती थी और उनके समाधान के लिए शाम को सत्य खोजने के बारे में सोचती थी। लेकिन जब भी मैंने देखा कि देर हो रही है तो मुझे चिंता होती थी कि जागते रहने से मेरा रक्तचाप बढ़ सकता है, इसलिए मैं जल्दी से आराम करने चली जाती थी। मेरे पास जिस कलीसिया की जिम्मेदारी थी उसमें कुछ नवागंतुकों ने तीन महीने से संगति में भाग नहीं लिया था। मैं जाकर उन्हें सींचना और सहारा देना चाहती थी, लेकिन चूँकि वे दिन में काम करते थे, इसलिए मैं उनका सिंचन करने के लिए केवल रात में जा सकती थी और अगर मैं गई तो इससे मेरे आराम पर असर पड़ेगा। इसके अलावा, नवागंतुकों को सहारा देना केवल एक या दो बार की संगति से प्रभावी नहीं होगा और इसमें काफी समय और ऊर्जा लगेगी। मैंने सोचा कि क्या मेरा शरीर इसे सँभाल पाएगा। अगर मैं बहुत ज्यादा थक गई और मेरा रक्तचाप बढ़ गया और मुझे अपने पिता की तरह मस्तिष्क आघात पड़ गया और लकवा हो गया तो मैं क्या करूँगी? यह सोचकर मैंने इन नवागंतुकों को सहारा देने के लिए अन्य भाई-बहनों को सौंप दिया। उस दौरान मैं यूँ तो अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन मैं लगातार व्यथा और चिंता में जी रही थी।
एक बार एक सभा में एक अगुआ ने पूछा कि क्या मैं सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण कर सकती हूँ। मैंने सोचा, “मेरा रक्तचाप अभी भी थोड़ा सा ज्यादा है और मैं सुसमाचार प्रचार तो कर सकती हूँ, लेकिन एक पर्यवेक्षक की जिम्मेदारियाँ सँभालने में इतना ज्यादा काम शामिल होता है। मेरा शरीर इसे कैसे सँभाल पाएगा?” मैंने जल्दी से अगुआ से कहा, “मेरा ब्लड प्रेशर बहुत ज्यादा है और मेरा शरीर इसे सँभाल नहीं सकता, इसलिए मैं यह कर्तव्य नहीं कर सकती।” अगुआ ने मुझसे और खोजने के लिए कहा। उस रात बिस्तर पर लेटे हुए मैं करवटें बदलती रही और सो नहीं पाई। मैं जानती थी कि सुसमाचार के प्रसार के लिए तत्काल सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन मैं एक पर्यवेक्षक होने के बहुत बड़े काम के बोझ और अनगिनत चिंताओं के बारे में चिंतित थी। मुझे डर था कि बहुत ज्यादा काम करने से मेरी हालत और खराब हो सकती है और मुझे मस्तिष्क आघात पड़ सकता है और भले ही मैं मरूँ नहीं मगर लकवे की शिकार तो हो ही सकती हूँ, इसलिए मैंने सोचा कि अगर मैं भविष्य में अपना कर्तव्य न निभा पाई तो किस काम की रहूँगी। भली-भाँति सोच-विचार करने के बाद मैंने तय किया कि अपनी सेहत का ध्यान रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है और जब मैं दोबारा अगुआ से मिली तो मैंने जिम्मेदारी से बचने के लिए बहाने बनाए। एक दिन मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। परमेश्वर कहता है : “एक और किस्म है : वे जो अपने कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर का घर उनसे चाहे जो अनुरोध करे, उनसे जिस भी तरह का काम करने को कहे, कोई भी कर्तव्य निभाने को कहे, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, यहाँ तक कि कभी-कभार कोई संदेश पहुँचाने वाला सरल-सा काम ही क्यों न हो—वे उस काम को नहीं करना चाहते। यहाँ तक कि जिन कामों में मदद के लिए किसी अविश्वासी की मदद ली जा सकती है, ये परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करने वाले नहीं कर सकते; यह सत्य स्वीकारने और कर्तव्य निभाने से इनकार करना है। भाई-बहन उन्हें चाहे कैसे भी प्रोत्साहित करें, वे इससे इनकार कर इसे स्वीकार नहीं करते; जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करती है, तो वे उसे अनदेखा कर देते हैं और उससे इनकार करने के लिए ढेरों बहाने बनाते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे लोग पहले ही पीछे हट चुके होते हैं। उनके पीछे हटने का संबंध इस बात से नहीं है कि परमेश्वर के घर ने उन्हें बाहर निकाल दिया है या उन्हें अपनी सूची से हटा दिया है; बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि अब खुद उन्हीं में सच्ची आस्था नहीं रह गई है—वे खुद को परमेश्वर का विश्वासी स्वीकार नहीं करते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा दिल धक से रह गया और मैंने सोचा, “मुझे एहसास नहीं था कि अपना कर्तव्य करने से इनकार करना इतना गंभीर मामला है कि यह परमेश्वर द्वारा मुझे निकाले जाने का कारण बन सकता है। अब जब सुसमाचार कार्य को लोगों के सहयोग की जरूरत है तो मुझे परमेश्वर के हृदय पर विचार करना चाहिए और एक पर्यवेक्षक का कर्तव्य सँभालना चाहिए और वह करना चाहिए जिसकी मुझसे अपेक्षा की जा रही है, लेकिन मैं इस चिंता के कारण अपने कर्तव्य से बचती जा रही हूँ कि मेरी सेहत चौपट हो सकती है। क्या यह भी अपना कर्तव्य करने से इनकार करना नहीं है? तो फिर क्या यह भी मुझे परमेश्वर द्वारा हटवा नहीं देगा?” यह सोचकर मैं बहुत डर गई। मुझे लगा कि मेरे लिए सब खत्म हो गया है और उद्धार का कोई मौका नहीं बचा है और मुझे शुरुआत से ही अपना कर्तव्य अस्वीकार करने पर पछतावा हुआ। लेकिन जो हो चुका था वह हो चुका था, ठीक उस बिखरे हुए दूध की तरह जिसे बटोरा नहीं जा सकता। मेरा दिल तुरंत बैठ गया और मैं पूरी तरह से हताश हो गई। उन दिनों मेरा दिल भारी महसूस हो रहा था, जैसे किसी पत्थर से दबा हो। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे अपना कर्तव्य अस्वीकार नहीं करना चाहिए था। मैं समर्पण करने और तेरा इरादा खोजने की इच्छुक हूँ।”
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब किसी व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा उजागर किया जाता है, तो उसे इस स्थिति को कैसे संभालना चाहिए और उसे क्या विकल्प चुनना चाहिए? ऐसे लोगों को सत्य की खोज करनी चाहिए और किसी भी हाल में भ्रमित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करना और अपनी भ्रष्टता को हू-ब-हू देखना तुम्हारे लिए अच्छा है, फिर तुम नकारात्मक मनोदशा में क्यों हो? परमेश्वर तुम्हें उजागर करता है ताकि तुम अपने आप को समझ सको और तुम्हें बचाया जा सके। वास्तव में, तुम जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हो वह तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें उजागर करना चाहता है, लेकिन यदि वह तुम्हें उजागर न करे, तो क्या तुम वैसे स्वभाव दिखाना जारी नहीं रखोगे? परमेश्वर में विश्वास करने से पहले तक उसने तुम्हें उजागर नहीं किया था, तो क्या तुम जिन चीजों को जी रहे थे वह सब शैतानी भ्रष्ट स्वभाव नहीं था? तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो। तुमको इन बातों से इतना हैरान नहीं होना चाहिए। जब तुम थोड़ी सी भ्रष्टता दिखाते हो तो वह तुम्हें ऐसे डरा देता है मानो जान ही निकल जाएगी, और तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए सब खत्म हो गया है, कि परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता है और तुमने जो कुछ भी किया है वह व्यर्थ है। तिल का ताड़ न बनाओ। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्यों को ही बचाता है, रोबोटों को नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार का भेद कैसे पहचानें)। परमेश्वर के वचनों के अनुस्मारक ने मुझे यह समझा दिया कि परिवेशों की व्यवस्था करके और मेरा खुलासा करके परमेश्वर मेरी निंदा नहीं कर रहा था या मुझे हटाने की मंशा नहीं रख रहा था, बल्कि वह अपने वचनों के कठोर न्याय का उपयोग इसलिए कर रहा था कि वह मुझसे सत्य की खोज करवा ले, यह पहचान करवा ले कि मेरे अंदर कौन से गलत विचारों, दृष्टिकोणों और इरादों की मिलावट है और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध कर दे और बदल दे। यह मेरे जीवन के प्रति जिम्मेदार होना था। लेकिन मैंने परमेश्वर का इरादा नहीं खोजा था और परमेश्वर के कठोर न्याय के वचनों का सामना करने पर मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया या सबक नहीं सीखे थे। मैंने परमेश्वर को लेकर अटकलें लगाई थीं और उसे गलत समझा था, यह सोचा था कि परमेश्वर मुझे हटाना चाहता है, जो मेरे नकारात्मक महसूस करने और खुद पर फैसला सुनाने का कारण बना। मैंने यह एहसास किया कि मैं आखिर कितनी ज्यादा विद्रोही थी! मैं इस तरह और जारी नहीं रखना चाहती थी। मैं सत्य खोजने और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित इस परिवेश में सबक सीखने की इच्छुक थी।
मैंने खोज के दौरान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि कोई व्यक्ति मूल्यवान और सार्थक जीवन जीना चाहता है, तो उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए। सबसे पहले, जीवन के प्रति उसका नजरिया सही होना चाहिए, साथ ही, अपने जीवन में और जीवन पथ में सामने आने वाले विभिन्न बड़े-छोटे मसलों पर उसके विचार और दृष्टिकोण भी सही होने चाहिए। उसे अपने जीवनकाल के दौरान या अपने दैनिक जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं को एकपक्षीय या कट्टरपंथी विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके देखने के बजाय इन सभी मसलों को सही परिप्रेक्ष्य और रुख से देखना चाहिए। बेशक, उसे इन चीजों को सांसारिक परिप्रेक्ष्य से भी नहीं देखना चाहिए, बल्कि ऐसे नकारात्मक और गलत विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए। ... उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी व्यक्ति को कैंसर हो गया है और वह मरने से डरता है। वह मृत्यु को स्वीकारने से इनकार करता है और लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे मृत्यु से बचाए और उसका जीवन कुछ और वर्षों के लिए बढ़ा दे। वह हर गुजरते दिन के साथ, संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं को साथ लेकर चलता है; भले ही वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहने, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने और मृत्यु को टालने से मिलने वाली खुशी का अनुभव करने में कामयाब होता है। ... दूसरों की तरह वह भी परमेश्वर में विश्वास रखता था और अपना कर्तव्य निभाता था, बाहरी तौर पर, उसके और किसी अन्य के बीच कोई अंतर नहीं मालूम पड़ता था। जब उसने बीमारी और मृत्यु का अनुभव किया, तो उसने परमेश्वर से प्रार्थना की और तब भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। वह उसी स्तर पर काम करता रहा, जिस पर पहले करता था। लेकिन एक बात लोगों को समझनी चाहिए और उसकी असलियत देखनी चाहिए : इस व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण लगातार नकारात्मक और गलत बने रहे। उसके कष्टों की सीमा चाहे जो भी रही हो या अपना कर्तव्य निभाते हुए उसने जो भी कीमत चुकाई हो, उसने अपने अनुसरण में इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को बरकरार रखा। वह लगातार उनके काबू में रहा और अपनी नकारात्मक भावनाओं को अपने कर्तव्य में लाता रहा, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, जीवित रहने के बदले उसने परमेश्वर के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन का सौदा करना चाहा। उसके अनुसरण का लक्ष्य सत्य समझना या उसे प्राप्त करना नहीं था, न ही उसका लक्ष्य परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। उसके अनुसरण का लक्ष्य इसके ठीक विपरीत था। वह अपनी इच्छा और माँगों के अनुसार जीना चाहता था, जिसका वह अनुसरण कर रहा था उसे पाना चाहता था। वह अपने भाग्य और यहाँ तक कि अपने जीवन और मृत्यु को भी खुद ही व्यवस्थित और आयोजित करना चाहता था। और इसलिए, रास्ता खत्म होने पर उसका परिणाम यह हुआ कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसे सत्य प्राप्त नहीं हुआ और आखिर में उसने परमेश्वर को नकार दिया और उसमें विश्वास खो दिया। यहाँ तक कि जब मृत्यु निकट आ गई, तब भी वो यह समझने में असफल रहा कि लोगों को कैसे जीना चाहिए और एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही ऐसे लोगों की सबसे दयनीय और दुखद बात है। मृत्यु की कगार पर भी, वो इस बात को समझने में असफल रहा कि व्यक्ति के पूरे जीवन में, सब-कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है। यदि सृष्टिकर्ता चाहता है कि तुम जीवित रहो, तो भले ही तुम किसी घातक बीमारी से पीड़ित हो, तब भी तुम नहीं मरोगे। यदि सृष्टिकर्ता तुम्हारी मृत्यु चाहता है, तो भले ही तुम जवान, स्वस्थ और मजबूत हो, जब तुम्हारा समय आएगा, तो तुम्हें मरना ही होगा। सब-कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है, यह परमेश्वर का अधिकार है, और कोई भी इससे ऊपर नहीं उठ सकता। वह इतने सरल तथ्य को समझने में असफल रहा—क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में विश्वास रखने, सभाओं में भाग लेने, धर्मोपदेश सुनने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखने के बावजूद उसने बार-बार इस बात को नकारा कि जीवन, मृत्यु और मनुष्य का भाग्य उसकी इच्छा के अनुसार नहीं चलता, बल्कि यह परमेश्वर के हाथों में है। कोई भी केवल इसलिए नहीं मरता क्योंकि वह मरना चाहता है, और कोई भी केवल इसलिए जीवित नहीं रहता क्योंकि वह जीना चाहता है और मृत्यु से डरता है। वह इतने सरल तथ्य को समझने में विफल रहा, आसन्न मृत्यु का सामना करने पर भी वह इसे नहीं समझ पाया और यह भी नहीं जान पाया कि किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु उसके हिसाब से निर्धारित नहीं होते, बल्कि सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं। क्या यह दुखद नहीं है? (दुखद है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। मुझे लगता था कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैंने कुछ सत्य वास्तविकताएँ हासिल कर ली हैं, लेकिन मुझे यह एहसास नहीं हुआ कि मैंने परमेश्वर की संप्रभुता को बिल्कुल भी नहीं समझा था और मैं यह नहीं जानती थी कि उसके कार्य का अनुभव कैसे करना है। जब बीमारी बरपी तो मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं किया था, न ही सत्य खोजा था या इससे सबक सीखे थे। इसके बजाय, मैं अविश्वासियों के दृष्टिकोण के अनुसार जी रही थी, सोच रही थी कि बीमारी थकावट के कारण हुई है और मुझे अपने शरीर का ख्याल रखने पर ध्यान देना चाहिए, यह मान रही थी कि अपने शरीर का ख्याल रखकर ही मैं ठीक होऊँगी, वरना मेरा हश्र अपने पिता जैसा हो जाएगा और हो सकता है किसी दिन मैं इस बीमारी से मर भी जाऊँ। बीमारी से जल्द से जल्द छुटकारा पाने के लिए मैंने जिस किसी घरेलू उपचार के बारे में सुना उसे तुरंत आजमाया। मुझे डर था कि चिंता और थकावट से मेरी हालत और बिगड़ जाएगी, इसलिए मैंने अपने काम में समस्याओं को हल करने से परहेज किया था और मुझे जिन नवागंतुकों को सहारा देना था उन्हें मैंने दूसरों को सौंप दिया। मैंने अपने कर्तव्य के प्रति कम से कम बोझ की भावना रखी थी। जब अगुआ मुझे कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए पदोन्नत करना चाहता था तो मैंने उस कर्तव्य को इस डर से अस्वीकार कर दिया कि चिंता और थकावट से मेरा रक्तचाप बढ़ जाएगा और मुझे मस्तिष्क आघात हो जाएगा। यूँ तो मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी, लेकिन मैंने उसकी सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता पर भरोसा नहीं किया था या मुझमें यह आस्था नहीं थी कि मेरा जीवन उसके हाथ में है। मेरे विचार पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित थे कि अपने स्वास्थ्य को कैसे बनाए रखा जाए, मानो लोगों का अच्छा स्वास्थ्य केवल उनके अपने प्रयासों का नतीजा हो और इसका परमेश्वर की संप्रभुता से कोई लेना-देना न हो। मैंने बिल्कुल भी एक विश्वासी की तरह व्यवहार नहीं किया था! मैंने सोचा कि परमेश्वर लगातार किस बारे में संगति करता है, वह हमें लोगों और चीजों को उसके वचनों के आधार पर और सत्य को कसौटी मानकर देखना सिखाता है। जहाँ तक मेरे स्वास्थ्य की बात है, मुझे कौन सी बीमारी हो सकती है, मैं कब बीमार पड़ सकती हूँ और मैं कब मर सकती हूँ, यह सब परमेश्वर ने पहले से ही निर्धारित कर रखा है। अगर परमेश्वर चाहता है कि मैं मर जाऊँ तो मैं अपना कितना भी अच्छा ख्याल रखूँ, मैं जी नहीं सकती और अगर परमेश्वर चाहता है कि मैं जीती रहूँ तो भले ही मुझे कोई गंभीर बीमारी हो, मैं नहीं मरूँगी। यह उन अमीर लोगों की तरह है जो अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए दिन-प्रतिदिन बेहतरीन भोजन खाते हैं, फिर भी जब उनका समय आता है तो वे मृत्यु से नहीं बच सकते, जबकि सादा, मिताहार खाकर गुजारा भर कर पाने वाले बहुत से साधारण लोगों में से काफी सारे लोग लंबा जीवन जीते हैं। यहाँ तक कि अविश्वासी भी मानते हैं कि लोगों का जीवन स्वर्ग द्वारा पूर्व निर्धारित है। परमेश्वर में बहुत सारे साल विश्वास करने और उसके इतने सारे वचन खाने-पीने के बावजूद मुझे अभी यह बुनियादी समझ नहीं थी। मेरी आस्था बेहद दयनीय थी! मैंने चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखा था, न ही सत्य खोजा था। मैं लगातार अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के तरीकों के बारे में सोच रही थी, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मुझमें और अविश्वासियों में क्या अंतर था? परमेश्वर का मुझे इस बीमारी से पीड़ित होने देने का उद्देश्य यह था कि मैं सत्य खोजूँ और इससे सबक सीखूँ, अपने अंदर के गलत इरादों और दृष्टिकोणों को शुद्ध करूँ, बदल दूँ और अपने गलत रास्ते को दुरुस्त करूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। अगर मैंने सबक न सीखना जारी रखा तो भले ही मेरी बीमारी दब जाए, मैं कोई सत्य हासिल नहीं करूँगी और यह एक व्यर्थ अनुभव होगा। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मुझे अपनी बीमारी के कारण अब पहले जैसी बाधा महसूस नहीं हुई। मैंने अपने नियमित काम-आराम की चर्या को उचित रूप से समायोजित किया और मेरा मन अपने कर्तव्य पर केंद्रित होने लगा, ताकि जब भी मैं बहुत व्यस्त हो जाऊँ तो यह भूल जाऊँ कि मैं अभी भी बीमार हूँ। कभी-कभी मैं अपनी दवाई लेना या अपना रक्तचाप मापना तक भूल जाती थी तो असहज महसूस नहीं करती थी। मैंने गहराई से एहसास किया कि किसी व्यक्ति को चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, यह परमेश्वर के हाथ में है और व्यक्ति की चिंताएँ और परेशानियाँ अनावश्यक हैं। ये चीजें न केवल कुछ नहीं बदलतीं, बल्कि वे शैतान द्वारा मूर्ख बनाए जाने और सताए जाने और अधिक पीड़ा में जीने का कारण भी बनती हैं।
बाद में एक बहन ने मुझे याद दिलाया कि बीमारी से सामना होने पर अगर हम महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक होते हैं और हम दुख और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जीते हैं तो इसका संबंध हमारे इन दृष्टिकोणों से है कि क्या अनुसरण करें और आशीष पाने के हमारे इरादे से है। बहन के याद दिलाने से मैंने इस संबंध में खोजा और चिंतन किया। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा विश्वास होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने के उनके संकल्प के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों ने ठीक मेरी दशा उजागर की। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद कलीसिया ने मेरे लिए चाहे जिस कर्तव्य की व्यवस्था की मैंने उसे कभी नहीं टाला और अपने अविश्वासी परिवार से बाधा, कम्युनिस्ट पार्टी से उत्पीड़न और दुनिया से उपहास और बदनामी का सामना करने के बावजूद, यह चाहे कितना भी मुश्किल या दुखदायी क्यों न रहा हो, अपना कर्तव्य निभाने का मेरा संकल्प कभी नहीं डगमगाया। इसलिए मुझे विश्वास था कि परमेश्वर मेरे सभी बलिदानों को निश्चित रूप से याद रखेगा, लेकिन उच्च रक्तचाप होने से आशीष पाने की मेरी इच्छा पूरी तरह से प्रकट हो गई। मैंने सोचा कि जब तक मेरा स्वास्थ्य अच्छा है और मैं अपना कर्तव्य करना जारी रख सकती हूँ, तब तक उद्धार की आशा है। लेकिन जब मेरे कर्तव्य निर्वहन को कष्ट सहने और कीमत चुकाने की जरूरत पड़ी तो मुझे चिंता हुई कि इससे मेरा स्वास्थ्य और खराब हो जाएगा और मैं आशीष पाए बिना मर जाऊँगी, इसलिए मैं अपने कर्तव्य के साथ खानापूरी करने के ढंग से पेश आई, इसमें कोई वास्तविक वफादारी नहीं थी। इसका कारण पूरी तरह से ऐसे शैतानी विचारों और दृष्टिकोणों का नियंत्रण था, जैसे, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है”। जब मुझे एक ऐसी बीमारी का सामना करना पड़ा जो मेरे जीवन को खतरे में डाल सकती थी तो मैं कष्ट सहने और खुद को खपाने की इच्छुक नहीं थी, मैं अपना सारा समय अपने परिणाम और गंतव्य के बारे में चिंता करने में बिता रही थी और अपने कर्तव्य को खानापूरी के तरीके से और बोझ की भावना के बिना सँभाल रही थी, यहाँ तक कि कभी-कभी इसे अस्वीकार कर रही थी। मैंने बार-बार कहा था कि मैं अपना कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए निभा रही हूँ, लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्य का निर्वहन आशीष पाने की इच्छा से प्रेरित था। यूँ तो मैं कुछ त्याग करते और खपते हुए नजर आती थी, मानो मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ, लेकिन हकीकत में मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई सच्ची नेकनीयती नहीं थी। यह सब एक लेन-देन और धोखे का मामला था। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव वास्तव में धोखेबाज और दुष्ट था और मेरा कष्ट सहना और खपना केवल परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के प्रयास थे। मैं एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रही थी! मैंने ख्याल किया कि कैसे प्रचुर सत्य कहने और हमें प्रदान करने के लिए परमेश्वर ने देहधारण किया, कैसे परमेश्वर ने बदले में कुछ भी माँगे बिना हमारे लिए इतना अधिक दिया है और कैसे परमेश्वर का प्रेम और उद्धार सच्चा और वास्तविक है, जबकि मैं अपना कर्तव्य पूरी तरह से अपने लाभ और आशीष के लिए निभाती थी और यहाँ तक कि मेरा मामूली खपना भी परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने का एक प्रयास होता था, मुझे एहसास हुआ कि मैं भला कितनी स्वार्थी और अंतरात्मा विहीन थी! मैं इस तरह नहीं चल सकती थी। मुझे तुरंत पश्चात्ताप करना था। चाहे मुझे आशीष मिले या मुसीबत सहनी पड़े, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। अगर जीवित रहते हुए मृत्यु और हर तरह के रोगों का सामना करने पर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया विद्रोह, विरोध करने और सत्य से विमुख होने का हो, तो तुम्हारे दैहिक जीवन की समाप्ति का वक्त आने पर मृत्यु के बाद तुम किस रूप में अस्तित्व में रहोगे? तुम पक्के तौर पर किसी दूसरे रूप में रहोगे, और तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से जारी नहीं रहेगा। इसके विपरीत, अगर जीवित रहते हुए, तुम्हारे शरीर में जागरूकता होने पर, सत्य और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया समर्पण और वफादारी का हो और तुम सच्ची आस्था रखते हो, तो भले ही तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाए, तुम्हारा जीवन किसी और संसार में एक अलग रूप धारण कर अस्तित्व में बना रहेगा। मृत्यु का यह एक स्पष्टीकरण है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा हृदय इतना अधिक रोशन हो गया! परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि हर किसी को मृत्यु का सामना करना पड़ेगा, लेकिन हर मृत्यु की प्रकृति अलग होती है। कुछ लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और अपने कर्तव्य वफादारी से निभाते हैं और भले ही वे मर जाएँ और उनका जीवन समाप्त हो जाए, इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें बचाया नहीं गया है। वे अपने जीवन का मिशन पूरा कर चुके हैं और परमेश्वर के पास लौट चुके हैं। यह एक अन्य रूप में जीना है। मैं यह भी समझ गई कि उद्धार का संबंध जीवन या मृत्यु से नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर और सत्य के प्रति व्यक्ति के रवैये पर निर्भर करता है। व्यक्ति का सत्य का अनुसरण, सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामलों को सँभालने पर ध्यान देना और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण और वास्तविक भय रखना ही उद्धार का मानक है। लेकिन अपनी बीमारी का सामना करते समय मैं अपनी बीमारी में लोटती रही, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर पा रही थी अपने कर्तव्य को हल्के में ले रही थी या अस्वीकार तक कर रही थी। भले ही मैं अपनी देह का अच्छा ध्यान रख लूँ, फिर भी सत्य का अनुसरण किए बिना और अपना स्वभाव बदले बिना मैं बचाई नहीं जा सकती थी। मैं अपनी बीमारी के बारे में लगातार चिंतित थी और मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में परेशान होना या खुद को थकाना नहीं चाहती थी, महत्वपूर्ण आदेश स्वीकार करना तो दूर रहा। हालाँकि मैंने बहुत ज्यादा चिंता नहीं की या बड़ी कीमत नहीं चुकाई, मैंने एक सृजित प्राणी से अपेक्षित जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया था, जिससे अपूरणीय पछतावा और कर्ज रह गया। जब भी मैं इस बारे में सोचती, मेरा जमीर बेचैन हो जाता। सिर्फ इस क्षण मुझे वास्तव में एहसास हुआ कि व्यक्ति के जीवनकाल के दौरान उसकी शारीरिक स्थिति चाहे कैसी भी हो, सत्य का अनुसरण करने और कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए भरसक कोशिश करने से ही जीवन को मूल्य और अर्थ मिलता है और बीमार या थके होने पर भी यह अपना पूरा जीवन खालीपन में बिताने से कहीं बेहतर है। यह एहसास होने पर मुझे अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा मिली और मैंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि सत्य का अनुसरण करूँगी और लगन से अपना कर्तव्य निभाऊँगी और अगर परमेश्वर ने मुझे एक और मौका दिया तो मैं अब अपनी देह पर ध्यान नहीं दूँगी।
तीन महीने बाद अगुआ ने एक बार फिर यह व्यवस्था की कि मैं सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करूँ। मैं जानती थी कि यह मुझे परमेश्वर द्वारा पश्चात्ताप करने का अवसर देना है और मैं अपनी बीमारी के बारे में चिंता करना जारी नहीं रख सकती, इसलिए मैंने यह कर्तव्य स्वीकार कर लिया। अपना कर्तव्य वास्तव में निभाते समय मैंने बहुत सी कठिनाइयों का सामना किया और कभी-कभी थोड़ी सी थकान भी महसूस की और मुझे अभी भी चिंता थी कि मेरा शरीर शायद साथ न दे पाए, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी बीमारी उसके हाथ में सौंप दी। चाहे मेरी बीमारी और बिगड़ जाए, मैं अपने कर्तव्य में अब और देर नहीं करना चाहती थी। प्रार्थना करने के बाद मेरा दिल अब बाधित महसूस नहीं करता था। मैंने अपने काम-आराम की चर्या को विवेकपूर्ण ढंग से व्यवस्थित किया और काम में कठिनाइयों का सामना होने पर मैं अपनी सहयोगी बहनों के साथ समाधानों पर चर्चा करती थी। इस तरह से अभ्यास करना उतना थकाऊ नहीं था जितना मैंने सोचा था और मैंने पाया कि परमेश्वर ने मुझे जो बोझ दिए थे वे सब मेरी सहन करने की क्षमता के भीतर थे। एक दिन मैंने मेजबान बहन को अपना रक्तचाप मापते देखा तो मैंने भी अपना माप लिया और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, मेरा ब्लड प्रेशर सामान्य था। मैंने तहे दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया!
ये परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने इस बारे में मेरे भ्रामक दृष्टिकोणों को दुरुस्त किया कि किस चीज का अनुसरण करें और मैंने परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति की कुछ समझ और अनुभव हासिल किया। मैं यह भी समझ गई कि परमेश्वर में विश्वास करना केवल आशीष पाने के बारे में नहीं होना चाहिए और केवल सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह से करने से ही जीवन मूल्यवान और सार्थक हो सकता है। परमेश्वर का धन्यवाद!