83. अपने बेटे के प्रति ऋणी होने की भावना से मुक्त होना
जब मैं छोटी थी, तो मेरी माँ न केवल हमारे खाने-पीने और कपड़े-लत्ते के लिए जिम्मेदार थी, बल्कि उसे खेतों में भी काम करने जाना पड़ता था। जब वह काम खत्म कर लेती, तो उसे वापस आकर घर के काम करने पड़ते थे। इसलिए मुझे लगता था कि अच्छी पत्नी और प्यारी माँ बनने के लिए महिलाओं को इसी तरह जीना चाहिए। शादी के बाद बिल्कुल अपनी माँ की तरह मैं अपने पति और बेटे के लिए दिन में तीन बार खाना बनाती थी, उनकी बुनियादी जरूरतों का ख्याल रखती थी और घर के सारे काम सँभालती थी। लेकिन जब मेरा बेटा एक साल का था, तो मेरे पति की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई। मैं उस समय बहुत पीड़ा में थी और मुझे लगता था कि अब जीवन का कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं अपने बेटे के लिए जीती रही। अपने बेटे को पूरा परिवार देने के लिए मैंने दूसरे पति से शादी की। यह देखकर कि वह मेरे बेटे का काफी देखभाल करता था, मेरे दिल को कुछ सुकून मिलता था। अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद मैं अक्सर भाई-बहनों के साथ सभाएँ करती और परमेश्वर के वचन खाती-पीती थी। मुझे कुछ सत्य समझ में आए और मैंने अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया। बाद में जब से गांव में यह बात फैली कि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, पुलिस ने मुझ पर नजर रखनी शुरू कर दी और मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ना पड़ा। मैंने अपने बेटे को अपने पति और उसके माता-पिता की देखभाल में सौंप दिया। जब मैं अपना कर्तव्य निभा रही होती थी, तो मुझे अपने बेटे की बहुत याद आती थी और मुझे हमेशा लगता था कि मैं एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर रही हूँ। मैं उस समय का इंतजार कर रही थी जब हालात इजाजत देंगे और मैं घर जाकर अपने बेटे का कर्ज चुका सकूँगी।
जुलाई 2023 में मैं चुपके से घर गई और मुझे पता चला कि मेरे पति ने पहले ही तलाक के लिए अर्जी दे दी है। उसने यह भी कहा कि मेरा बेटा कड़ी मेहनत नहीं कर रहा है और लंबे समय तक कोई नौकरी नहीं कर सकता और अगर मैंने उसकी देखभाल करना जारी नहीं रखा, तो वह बरबाद हो जाएगा। मेरे माता-पिता ने मुझे अपने बेटे की देखभाल न करने और उसके भविष्य की संभावनाओं में देरी करने के लिए दोषी ठहराया। यह सुनकर मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं घर पर रहूँ और उसके पीछे पड़ूँ, तो क्या वह उचित मामलों पर ध्यान नहीं देगा और सही रास्ते पर नहीं चल पाएगा?” अपने बेटे की स्थिति देखते हुए और अपने आसपास के लोगों की आलोचना का सामना करते हुए मुझे अपने बेटे के लिए और अधिक अपराध-बोध हुआ। एक दिन मेरी मौसी मेरे घर आईं और बोलीं कि मेरे चचेरे भाई ने उनके बेटे के लिए एक दुकान खोली है जो रोस्ट चिकन बेचती है। मगर उनके बेटे को लगता था कि यह काम बहुत गंदा है और वह सारे दिन घर पर ही खेलता रहता है। मेरे चचेरे भाई ने चाहे जितना कहा, उसने बात नहीं सुनी। अपनी मौसी की कहानी सुनकर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आ गया : “‘बच्चों का सही मार्ग पर न चलने का संबंध उनके माता-पिता से है,’ यह कहना गलत है। चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी निश्चित तरह का व्यक्ति है तो वह एक निश्चित मार्ग पर चलेगा। क्या यह तय नहीं है? (है।) व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है उससे निर्धारित होता है कि वह क्या है। वह जिस मार्ग को अपनाता है और जिस तरह का व्यक्ति बनता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। ये ऐसी चीजें हैं जो पूर्व-नियत, जन्मजात हैं और जिनका संबंध व्यक्ति की प्रकृति से है। तो माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा की क्या उपयोगिता है? क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को नियंत्रित कर सकती है? (नहीं।) माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा मानव प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकती और न ही इस समस्या को हल कर सकती है कि व्यक्ति किस मार्ग पर जाएगा। वह एकमात्र शिक्षा क्या है जो माता-पिता दे सकते हैं? अपने बच्चों के दैनिक जीवन में कुछ सरल व्यवहार, कुछ एकदम सतही विचार और स्व-आचरण के नियम—ये ऐसी चीजें हैं जिनका माता-पिता से कुछ लेना-देना है। बच्चों के बालिग होने से पहले माता-पिता को अपनी उचित जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, यानी अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे सही मार्ग पर चलें, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करें और बड़े होने पर बाकी लोगों से ऊपर उठने में सक्षम होने का प्रयास करें, बुरे काम न करें या बुरे इंसान न बनें। माता-पिता को अपने बच्चों के व्यवहार को भी नियंत्रित करना चाहिए, उन्हें विनम्र होना और अपने से बड़ों से मिलने पर उनका अभिवादन करना सिखाना चाहिए, और उन्हें व्यवहार से संबंधित अन्य बातें सिखानी चाहिए—यही वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। अपने बच्चे के जीवन का ख्याल रखना और उसे स्व-आचरण के कुछ बुनियादी नियमों की शिक्षा देना—माता-पिता का प्रभाव इतना ही है। जहाँ तक उनके बच्चे के व्यक्तित्व का सवाल है, माता-पिता यह नहीं सिखा सकते। कुछ माता-पिता शांत स्वभाव के होते हैं और हर काम आराम से करते हैं, जबकि उनके बच्चे बहुत अधीर होते हैं और थोड़ी देर के लिए भी शांत नहीं रह पाते। वे 14-15 साल की उम्र में अपने से ही जीविकोपार्जन करने के लिए निकल पड़ते हैं, वे हर चीज में अपने फैसले खुद लेते हैं, उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत नहीं होती और वे बहुत स्वतंत्र होते हैं। क्या यह उन्हें उनके माता-पिता सिखाते हैं? नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव और यहाँ तक कि उसके सार, और साथ ही भविष्य में वह जो मार्ग चुनता है, इन सबका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। ... ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,’ इस अभिव्यक्ति में एक समस्या है। भले ही अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है मगर एक बच्चे का भाग्य उसके माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि बच्चे की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या शिक्षा बच्चे की प्रकृति की समस्या हल कर सकती है? यह इसे बिल्कुल भी हल नहीं कर सकती। कोई व्यक्ति जीवन में जो मार्ग अपनाता है, वह उसके माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित होता है। ऐसा कहा जाता है कि ‘मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है,’ और यह कहावत मानवीय अनुभव से निकली है। व्यक्ति के बालिग होने से पहले तुम यह नहीं बता सकते कि वह कौन-सा मार्ग अपनाएगा। जब वह बालिग हो जाएगा, और उसके पास विचार होंगे और वह समस्याओं पर चिंतन कर सकेगा तब वह चुनेगा कि इस विस्तृत समुदाय में उसे क्या करना है। कुछ लोग कहते हैं कि वे वरिष्ठ अधिकारी बनना चाहते हैं, दूसरे कहते हैं कि वे वकील बनना चाहते हैं और फिर कुछ और कहते हैं कि वे लेखक बनना चाहते हैं। हर किसी की अपनी पसंद और अपने विचार होते हैं। कोई भी यह नहीं कहता, ‘मैं बस अपने माता-पिता द्वारा मेरी शिक्षा पूरी किए जाने का इंतजार करूँगा। मैं वही बनूँगा जो मेरे माता-पिता मुझे बनने के लिए शिक्षित करेंगे।’ कोई भी व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं है। बालिग होने के बाद लोगों के विचार उमड़ने और धीरे-धीरे परिपक्व होने लगते हैं, और इस तरह उनके आगे का मार्ग और लक्ष्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। इस समय धीरे-धीरे यह जाहिर और स्पष्ट हो जाता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और किस समूह का हिस्सा है। यहाँ से हरेक इंसान का व्यक्तित्व, साथ ही उसका स्वभाव और वह किस मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जीवन में उसकी दिशा और वह किस समूह से संबंधित है, सब धीरे-धीरे स्पष्ट परिभाषित होने लगता है। यह सब किस पर आधारित है? आखिरकार, यह उसी चीज पर आधारित है जो परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है—इसका व्यक्ति के माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर बहुत स्पष्ट रूप से बोलता है। कोई बच्चा सही रास्ते पर चलता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि उसके माता-पिता उसे कैसे शिक्षित करते हैं; यह बच्चे की प्रकृति से निर्धारित होता है। माता-पिता बच्चे का ऊपरी व्यवहार सिखा सकते हैं और उसे नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन वे अपने बच्चे का भाग्य नहीं बदल सकते। उनका बच्चा कौन-सा पेशा अपनाता है और कौन-से रास्ते पर चलता है, यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे माता-पिता बदल या निर्धारित कर सकें। उदाहरण के लिए, मेरी चचेरी बहन हर दिन अपने बेटे पर नजर रखती थी और उसे खूब अनुशासित करती थी, लेकिन उसका बेटा बिल्कुल नहीं बदला, सारा दिन खेलता रहता और स्कूल भी नहीं जाता था। मेरे चचेरे भाई ने उसके लिए एक दुकान खोल दी ताकि वह कुछ उचित कामों में लगे, लेकिन उसके बाद भी वह इधर-उधर घूमता रहता था, बस अपने माता-पिता से पैसे माँगता रहता था। मैंने अपनी भाभी के बारे में भी सोचा, जो अक्सर अपने पति से झगड़ती थी। जब वह गुस्सा होती, तो अपनी माँ के घर चली जाती और उसे अपने बच्चे को पढ़ाने का मन नहीं करता था। मगर उसके बेटे के ग्रेड हमेशा काफी अच्छे होते थे और वह अपनी उम्र से कहीं अधिक बुद्धिमान था। ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि मेरी भाभी ने उसे खास तौर पर अच्छी तरह पढ़ाया था; उसमें बस पढ़ने की एक सहज इच्छा थी। वह इसमें प्रयास करने और मेहनत करने में सक्षम था। जब मेरा बेटा छोटा था, तो मैं अक्सर उसे कड़ी मेहनत से पढ़ाई करने और सही रास्ते पर चलने के लिए सिखाती थी, लेकिन वह ऐसा बच्चा था जो ठीक से अनुशासन नहीं अपना पाते हैं। स्कूल से घर आने के बाद वह बस कंप्यूटर पर गेम खेलना शुरू कर देता था और मेरी कोई भी बात नहीं सुनता था और अगर मैं उसके साथ सख्ती करने की कोशिश करती तो वह गुस्सा हो जाता। अब वह सही रास्ते पर नहीं चल रहा था या उचित मामलों पर ध्यान नहीं दे रहा था और यह उसका चुनाव था, जो उसकी प्रकृति से निर्धारित होता था। मैंने उसे जो सिखाया, उससे उसका चुनाव नहीं बदलेगा, न ही इससे उसके भविष्य की संभावनाएँ निर्धारित होंगी। यह समझकर मैं अब अपने बेटे के साथ न होने और उसे शिक्षित न करने के लिए खुद को दोषी नहीं ठहराती थी और मैंने अपने अहंकार और अज्ञानता को भी देखा। मैं हमेशा अपने बेटे का भविष्य और उसका जीवन बदलने के लिए उसे शिक्षित करने पर भरोसा करना चाहती थी; मेरे पास किसी तरह का कोई विवेक नहीं था!
नवंबर 2023 में मैंने अपने बेटे से संपर्क किया। उस समय मेरा बेटा हमारे पुराने घर में अकेला रह रहा था और मेरे पति और उसके माता-पिता के साथ नहीं था। वह खाना नहीं बनाता था, केवल खाना खरीदने बाहर जाता था और वह अपना कमरा साफ नहीं करता था, बस अपने बिस्तर पर गंदे कपड़े जमा होने देता था। यह देखकर मेरा दिल दुखी हो गया। जब मैंने उससे बात की तो वह भावशून्य और उदासीन था, मेरे देखभाल न करने के कारण वह मुझे अपनी माँ के रूप में नहीं पहचानता था और मुझसे नाराज था। मैंने उसके प्रति और भी अधिक ऋणी महसूस किया, मैंने सोचा कि उसकी माँ होने के नाते मैंने उसकी अच्छी तरह से देखभाल नहीं की थी या उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की थी। मैंने उसके कमरे के अंदर और बाहर दोनों जगह सफाई की और उसके सारे कपड़े धोए। वह अक्सर काम पर नहीं जाता था और घर पर ही गेम खेलता रहता था, इसलिए मैंने उसे बताया, “तुम्हें कुछ उचित काम करने चाहिए; हमेशा अपने परिवार को अपने बारे में चिंता मत कराओ।” लेकिन उसने मेरी बात बिल्कुल नहीं सुनी; उसके बाद भी वह नहीं बदला। बाद में मेरे पति ने मेरे बेटे का उचित मामलों में शामिल न होने के लिए तिरस्कार किया और वह अब उसे पालना नहीं चाहता था। मैंने मन में सोचा, “शायद मुझे नौकरी ढूँढ़ लेनी चाहिए और फिर अपने बेटे की देखभाल करते हुए काम करना चाहिए, एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए।” लेकिन मुझे अभी भी नवागंतुकों का सिंचन करना था और अगर मुझे पैसे कमाने और अपने बेटे की देखभाल करने के लिए नौकरी मिल जाती, तो इससे सिंचन कार्य में देरी होती। मैं बहुत उलझन में थी। यह सोचकर कि मेरा कर्तव्य परमेश्वर से आया है और मैं बिना अंतरात्मा के काम नहीं कर सकती और इसे नहीं त्याग सकती, मैंने काम न ढूँढ़ने का फैसला किया। लेकिन मैं अपने बेटे को नहीं छोड़ सकती थी; जब मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त नहीं होती तो मैं घर जाकर उसकी देखभाल करती और अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उसके बारे में सोचती रहती। कुछ नवागंतुक नियमित रूप से सभाएँ नहीं कर पाते थे, इसलिए मैं शांत होकर यह समस्या हल करने के बारे में खोज और चिंतन-मनन करना चाहती थी। लेकिन मैं हमेशा अपने बेटे के बारे में चिंता और तनाव में रहती थी और नवागंतुकों का मुद्दा हल करने के लिए सही मानसिकता में नहीं थी। जब नवागंतुक इतने नकारात्मक हो गए कि वे छोड़ना चाहते थे, तब मैं जल्दी से उनके पास गई और उन्हें सहारा दिया। बाद में कार्य की जरूरतों के कारण मुझे देश के दूसरे हिस्से में अपना कर्तव्य निभाने जाना था और मैं अपने बेटे को और भी ज्यादा छोड़ने को तैयार नहीं हो पाई, मुझे चिंता थी कि अगर मैं घर से दूर रहूँगी तो उसकी देखभाल नहीं कर पाऊँगी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि राज्य के सुसमाचार के विस्तार के लिए लोगों के सहयोग की जरूरत है। मैं कई सालों से अपना कर्तव्य निभा रही थी, कुछ प्रशिक्षण प्राप्त कर रही थी और कुछ सत्यों को समझ रही थी और परमेश्वर के अनुग्रह से सामना होने पर मैं अंतरात्मा विहीन नहीं हो सकती थी, इसलिए मैं दूसरी जगह अपना कर्तव्य निभाने के लिए सहमत हो गई। लेकिन जिस चीज की मुझे उम्मीद नहीं थी, वह यह थी कि लगभग उसी समय मेरे बेटे को एक ऐसी नौकरी मिल गई जो उसे पसंद थी। वह काम पर जा रहा था और पैसे कमा रहा था, वह अपने जीवन के खर्चे खुद उठा सकता था और मेरे पति ने उसे फिर से स्वीकार कर लिया। यह वाकई अप्रत्याशित था।
बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया और सोचा, “मेरा अपने बेटे को न छोड़ पाने का मूल कारण क्या है?” मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है, और अंतरात्मा का और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर चुकी है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और नेक औरत नहीं रहीं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, ‘मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।’ इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आती है? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पातीं तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझीं? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में ‘अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ’ की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी वफादारी रख लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य करने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने पति और बच्चों की देखभाल करने के मौके ढूँढ़ोगी, उन्हें और भी अधिक समय देना चाहोगी, और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है तो भी यह ठीक है, बशर्ते अपने मन को सुकून मिलता रहे। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है? अब तुम दो नावों पर सवार हो, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हो लेकिन नेक पत्नी और प्यारी माँ भी बनना चाहती हो। लेकिन परमेश्वर के सामने हमारे पास सिर्फ एक जिम्मेदारी और दायित्व होता है, एक ही मिशन होता है : सृजित प्राणी का अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। क्या तुमने यह कर्तव्य अच्छे से निभाया? तुम फिर से रास्ते से क्यों भटक गईं? क्या तुम्हें वास्तव में कोई अपराध बोध नहीं है, क्या तुम्हारा दिल तुम्हें धिक्कारता नहीं है? चूँकि अभी तक तुम्हारे दिल में सत्य की बुनियाद नहीं पड़ी है, तुम्हारे दिल पर सत्य का शासन नहीं है, इसलिए अपना कर्तव्य करते हुए तुम रास्ते से भटक सकती हो। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य कर पा रही हो, तुम वास्तव में अभी भी सत्य के मानकों और परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर हो। ... हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही व्यक्ति के जीवन का प्राथमिक कार्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा नहीं करतीं, तो तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ हो सकती हो, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान रहोगी जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर इसे पूरा नहीं किया, जिसने इसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि जब मैंने अपने आसपास की सभी महिलाओं को अच्छी पत्नियाँ और माँ बनने का प्रयास करते हुए देखा, तो मैंने भी इसे एक अच्छी महिला होने का मानक माना। मेरा मानना था कि एक अच्छी महिला अपने बच्चे और पति की अच्छी देखभाल करती है, घर के सभी कामों को व्यवस्थित रखती है। शादी के बाद मैंने घर का सारा काम अपने ऊपर ले लिया, सोचा कि यह ऐसा काम है जो मुझे करना ही चाहिए, चाहे यह कितना भी थका देने वाला क्यों न हो। जब मैं अपना कर्तव्य निभाने गई और अपने बेटे के लिए दिन में तीन बार खाना नहीं बना सकी या उसके दैनिक जीवन में उसकी देखभाल नहीं कर सकी, तो मुझे लगा कि मैं एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रही हूँ और मुझे खुद पर खेद हुआ और मैं परेशान हो गई, मैंने अपने बेटे के प्रति ऋणी महसूस किया। जब दुनिया के लोगों ने मेरी आलोचना की और मुझे आंका गया, तो मुझे और भी अधिक लगा कि मैं लापरवाह रही हूँ और मैं इसके अलावा और कुछ नहीं सोच पाई कि मैं अपने बेटे की देखभाल कैसे करूँ, उसका कष्ट कैसे कम करूँ और कैसे उसके प्रति अपना ऋण चुकाने की पूरी कोशिश करूँ। जब मैंने देखा कि नवागंतुक सामान्य रूप से सभाएँ नहीं कर पा रहे हैं, तो मैंने उनकी समस्याएँ हल करने के लिए प्रासंगिक सत्यों को जल्दी से नहीं खोजा और केवल तभी उन्हें सहारा दिया जब वे इतने नकारात्मक हो गए कि छोड़कर जाना चाहते थे। नवागंतुकों के जीवन को नुकसान उठाना पड़ा। मैंने दुनिया के लोगों से प्रशंसा पाने और अपने बेटे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को प्राथमिकता दी, कलीसिया के कार्य पर विचार नहीं किया और अपने कर्तव्य में लापरवाही बरती। भले ही मैंने एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी की और अपने बेटे के लिए दिन में तीन बार भोजन तैयार किया, मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रही। मैंने बीते युगों के सभी संतों और पैगंबरों के बारे में सोचा, साथ ही कई भाई-बहनों के बारे में भी सोचा, जिन्होंने सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग दिया था और जो अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने लाए थे ताकि वे उसका उद्धार स्वीकार कर सकें। यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर स्वीकृत करता है, जो एक अच्छा और न्यायोचित कर्म है और इस तरह जीने का मूल्य और अर्थ है। मेरा जीवन और मेरे पास जो कुछ भी था, वह मुझे परमेश्वर ने दिया था। मैंने परमेश्वर के वचनों से बहुत सारे सिंचन और प्रावधान का आनंद लिया था और यह सब उसका प्रेम और अनुग्रह था। इसका मतलब था कि मुझे विशेष रूप से अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। मगर जब मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया, तो मैंने इसके कारण परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस नहीं किया, इसके बजाय मैं अपने बेटे के प्रति ऋणी महसूस करने लगी। क्या मेरे पास बिल्कुल भी कोई अंतरात्मा या मानवता थी? मैंने देखा कि दूसरों की नजर में एक अच्छी माँ बनने का प्रयास लोगों को संतुष्ट कर सकता है और उनसे आपकी प्रशंसा करवा सकता है, लेकिन ऐसा करने का मतलब केवल अपने परिवार और देह के लिए जीना था; यह सब समय की बरबादी थी और इससे मुझे ऐसा जीवन जीने की अनुमति नहीं मिलती थी जिसका कोई अर्थ हो।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े और बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना है, इस बारे में अभ्यास करने का मार्ग प्राप्त किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चाहे उनके बच्चे बालिग हों या नहीं, माँ-बाप का जीवन सिर्फ और सिर्फ माँ-बाप का ही होता है, यह उनके बच्चों का नहीं होता। जाहिर है कि माँ-बाप अपने बच्चों के लिए मुफ्त की आया या गुलाम नहीं हैं। माँ-बाप की अपने बच्चों से चाहे जो भी अपेक्षाएँ हों, उनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वे अपने बच्चों को मनमाने ढंग से उन्हें आदेश देने दें और बदले में मुआवजा भी न पाएँ, न ही यह जरूरी है कि वे अपने बच्चों के नौकर, आया या गुलाम बन जाएँ। तुम्हारे मन में अपने बच्चों के लिए चाहे जैसी भी भावनाएँ हों, तुम अभी भी एक स्वतंत्र व्यक्ति हो। तुम्हें उनके बालिग जीवन की जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए मानो कि सिर्फ इसलिए ऐसा करना बिल्कुल सही है क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। वे बालिग हैं; तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की अपनी जिम्मेदारी पहले ही पूरी कर चुके हो। जहाँ तक बात है कि वे भविष्य में अच्छा जीवन जिएँगे या बुरा, वे अमीर होंगे या गरीब, और खुशहाल जीवन जिएँगे या दुखी रहेंगे, यह उनका अपना मामला है। इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते, तुम्हारे ऊपर उन चीजों को बदलने का कोई दायित्व नहीं है। अगर उनका जीवन दुखी है, तो तुम यह कहने के लिए बाध्य नहीं हो : ‘तुम दुखी हो—मगर मैं सब कुछ ठीक कर दूँगा, मैं अपनी सारी संपत्ति बेच दूँगा, मैं तुम्हें खुश रखने के लिए अपने जीवन की सारी ऊर्जा लगा दूँगा।’ ऐसा करना जरूरी नहीं है। तुम्हें बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, इससे ज्यादा और कुछ नहीं करना। अगर तुम उनकी मदद करना चाहते हो, तो उनसे पूछ सकते हो कि वे दुखी क्यों हैं, और सैद्धांतिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर समस्या को समझने में उनकी सहायता कर सकते हो। अगर वे तुम्हारी मदद स्वीकारते हैं, तो यह और भी बढ़िया बात है। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो तुम्हें बस एक माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, और कुछ नहीं करना। अगर तुम्हारे बच्चे कष्ट उठाना चाहते हैं, तो यह उनका अपना मामला है। तुम्हें इसके बारे में चिंता करने या परेशान होने, या अपनी भूख और नींद मारकर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा करना अति हो जाएगा। यह अति क्यों होगा? क्योंकि वे अब बालिग हैं। उन्हें अपने जीवन में आने वाली हर समस्या से खुद ही निपटना सीखना चाहिए। अगर तुम्हें उनकी चिंता सताती है, तो यह सिर्फ तुम्हारा स्नेह है; अगर तुम्हें उनकी चिंता नहीं होती, तो इसका यह मतलब नहीं कि तुम निष्ठुर हो, या तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं। वे बालिग हैं, और बालिग लोगों को बालिगों वाली समस्याओं का सामना करना चाहिए और उन सभी चीजों से निपटना चाहिए जिनसे बालिग लोग निपटते हैं। उन्हें हर चीज के लिए अपने माँ-बाप पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। बेशक, माँ-बाप को इस बात की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेनी चाहिए कि उनके बच्चों के बालिग होने के बाद उनकी नौकरी, उनके करियर, परिवार या शादी में सब कुछ ठीक रहेगा या नहीं। तुम इन चीजों के बारे में चिंता कर सकते हो, और उनके बारे में पूछताछ कर सकते हो, पर तुम्हें उनका पूरा जिम्मा लेने, अपने बच्चों को अपने साथ बाँधकर रखने, जहाँ भी जाओ उन्हें अपने साथ लेकर जाने, जहाँ भी जाओ वहाँ उन पर नजर रखने, और उनके बारे में यह सोचते रहने की जरूरत नहीं है : ‘क्या उन्होंने आज ठीक से खाना खाया होगा? क्या वे खुश हैं? क्या उनका काम अच्छा चल रहा है? क्या उनका बॉस उनकी सराहना करता है? क्या उनका जीवनसाथी उनसे प्यार करता है? क्या उनके बच्चे आज्ञाकारी हैं? क्या उनके बच्चों को अच्छे ग्रेड मिलते हैं?’ इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? तुम्हारे बच्चे अपनी समस्याएँ खुद हल कर सकते हैं, तुम्हें इसमें शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यह क्यों पूछा कि इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? क्योंकि इससे मेरा अभिप्राय यह है कि इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुमने अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, तुमने उन्हें पाल-पोसकर बालिग बना दिया है, तो तुम्हें अब पीछे हट जाना चाहिए। ऐसा करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास करने के लिए कुछ नहीं होगा। अभी भी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। जब उन मकसदों की बात आती है जिन्हें तुम्हें इस जीवन में पूरा करना चाहिए, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर बालिग बनाने के अलावा, तुम्हारे पास पूरे करने के लिए और भी कई मकसद हैं। अपने बच्चों के माँ-बाप होने के अलावा, तुम एक सृजित प्राणी भी हो। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, और उससे मिला अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य क्या है? क्या तुमने इसे पूरा कर लिया है? क्या तुमने खुद को इसके प्रति समर्पित कर दिया है? क्या तुम उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हो? तुम्हें पहले इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए। जहाँ तक बात है कि तुम्हारे बच्चे बालिग होने के बाद कहाँ जाएँगे, उनका जीवन कैसा होगा, उनकी परिस्थितियाँ कैसी होंगी, वे खुशहाल और प्रसन्न महसूस करेंगे या नहीं, इन बातों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे बच्चे व्यावहारिक संदर्भ में और मानसिक रूप से पहले से ही स्वतंत्र हैं। तुम्हें उन्हें स्वतंत्र होने देना चाहिए, उन्हें जाने देना चाहिए, और उन्हें काबू में करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। चाहे चीजों के व्यावहारिक संदर्भ में हो या स्नेह या खून के रिश्ते के संदर्भ में, तुम पहले ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुके हो, और अब तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच कोई रिश्ता नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। “परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और सत्य और उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में, तुम्हारे जीवन में जो ऊर्जा और समय शेष है, उसे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निभाने में खर्च करना चाहिए; तुम्हें अपने बच्चों पर कोई समय नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बच्चों का नहीं है, और यह उनके जीवन या जीवित रहने और उनसे अपनी अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में नहीं लगाना चाहिए। इसके बजाय, इसे तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य और कार्य को समर्पित करना चाहिए, और साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उद्देश्य पूरा करने में लगाना चाहिए। इसी में तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ निहित है। अगर तुम अपनी प्रतिष्ठा खोने, अपने बच्चों का गुलाम बनने, उनकी फिक्र करने, और उनसे अपनी अपेक्षाएँ संतुष्ट करने हेतु उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो, तो ये सब निरर्थक हैं, मूल्यहीन हैं, और इन्हें याद नहीं रखा जाएगा। अगर तुम ऐसा ही करते रहोगे और इन विचारों और कर्मों को जाने नहीं दोगे, तो इसका बस एक ही अर्थ हो सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम एक ऐसे सृजित प्राणी नहीं हो जो मानक स्तर का है और तुम अत्यंत विद्रोही हो। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए जीवन या समय को नहीं संजोते हो। अगर तुम्हारा जीवन और समय सिर्फ तुम्हारी देह और वात्सल्य पर खर्च होते हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए कर्तव्य पर नहीं, तो तुम्हारा जीवन गैर-जरूरी है, मूल्यहीन है। तुम जीने के योग्य नहीं हो, तुम उस जीवन और हर उस चीज का आनंद लेने के योग्य नहीं हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))।
परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि माता-पिता की जिम्मेदारी और दायित्व है कि वे अपने बच्चों को वयस्क होने तक पालें, उन्हें सिखाएँ कि उन्हें कैसे व्यवहार करना चाहिए। एक बार जब बच्चा वयस्क हो जाए और उसमें स्वतंत्र रूप से जीने और समस्याएँ हल करने की क्षमता आ जाए, तो उसके माता-पिता को उसे स्वतंत्र होने देना चाहिए। यदि कोई एक अच्छी पत्नी और माँ बनने का प्रयास करती है और अपना पूरा जीवन केवल अपने परिवार और बच्चों के लिए जीती है, बिना सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य पूरा किए जीती है, तो उसके जीवन का कोई भी मूल्य या अर्थ नहीं है। मेरे बेटे के प्रति मेरी एकमात्र जिम्मेदारी है कि मैं उसे वयस्क होने तक पालूँ, उसके मन को प्रबुद्ध करूँ और उसे सही रास्ते पर चलने और उचित मामलों पर ध्यान देने के लिए शिक्षित करूँ। मैंने सोचा कि कैसे जब मेरा बेटा छोटा था, तो वह अक्सर देर रात तक गेम खेलता रहता था। मैंने उससे बात की कि कैसे ऑनलाइन गेम खेलने से लोगों को नुकसान हो सकता है और उसे एक व्यावहारिक व्यक्ति बनना सिखाया, यहाँ तक कि उसे बताया कि कैसे परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों का निर्माण किया है, जो परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व की गवाही देता है। मगर उसने मेरी बात नहीं सुनी और सिर्फ मौज-मस्ती में लगा रहा, इसलिए मेरे पति ने उचित मामलों में ध्यान न देने के लिए उसका तिरस्कार किया और वह उसे पालना नहीं चाहता था। यह उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग का परिणाम था और यह ऐसी पीड़ा थी जो उसे ही सहनी थी। मैंने पहले ही उसकी माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी और मैं उसके प्रति ऋणी नहीं थी। अगर मैं सिर्फ उसके जीवन के बारे में सोचती और उसकी देखभाल करने के लिए अपना कर्तव्य छोड़ देती, उसे अपना सारा समय और ऊर्जा दे देती और उसके भविष्य के जीवन की पूरी जिम्मेदारी ले लेती, यहाँ तक कि अपने जीवन के बाकी हिस्से का त्याग कर देती, तो मैं वास्तव में बहुत मूर्ख होती! मुझे यह एहसास हुआ : मेरा बेटा अब एक वयस्क है। उसके अपने फैसले हैं और उसका अपना जीवन पथ है जिस पर उसे चलना है, साथ ही उसमें स्वतंत्र रूप से जीने और समस्याओं से निपटने की क्षमता भी है। मैं हमेशा उसकी देखभाल नहीं कर सकती, उसकी किस्मत बदलने की तो बात ही छोड़ दें। मैं न केवल अपने बेटे की माँ हूँ, बल्कि मैं एक सृजित प्राणी भी हूँ। मुझे अपना मिशन पूरा करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए जीना चाहिए। अभी भी बहुत से लोग हैं जो अभी तक परमेश्वर के सामने नहीं आए हैं, साथ ही बहुत से नवागंतुक हैं जो अभी तक जड़ें नहीं जमा पाए हैं और उन्हें जल्द से जल्द सिंचन की जरूरत है। यह मेरी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और मुझे इसे करने में अधिक समय और ऊर्जा लगानी चाहिए। जहाँ तक मेरे बेटे की बात है, मैं बस इतना कर सकती हूँ कि सब कुछ परमेश्वर को सौंप दूँ और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दूँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “हर इंसान की नियति परमेश्वर द्वारा नियत है; इसलिए वे जीवन में कितने आशीष या कष्ट अनुभव करेंगे, उनका परिवार, शादी और बच्चे कैसे होंगे, वे समाज में कैसे अनुभवों से गुजरेंगे, जीवन में वे कैसी घटनाओं का अनुभव करेंगे, वे खुद ये चीजें पहले से भाँप नहीं सकते, न बदल सकते हैं, और इन्हें बदलने की क्षमता माता-पिता में तो और भी कम होती है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि जीवन में व्यक्ति जो पीड़ा सहता है, जिस खुशी का वह आनंद लेता है और जिन चीजों का वह अनुभव करता है, वे सभी परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं और उन्हें कोई भी नहीं बदल सकता। यहाँ तक कि माता-पिता अपने भाग्य को भी नहीं बदल सकते, तो वे अपने बच्चे के भाग्य को कैसे बदल सकते हैं? जीवन में एक बच्चे का भाग्य, साथ ही साथ उतार-चढ़ाव और क्लेश जिनका उसे अनुभव करना है, वे सभी परमेश्वर द्वारा बहुत पहले ही पूर्वनिर्धारित कर दिए गए थे। यह उसका जीवन पथ है और कुछ ऐसा है जिसका उसे खुद ही अनुभव करना है। बड़े लाल अजगर की गिरफ्तारियों और उत्पीड़न के कारण मैं अब अपने बेटे की देखभाल करने में असमर्थ हूँ और मैं उसे कोई वित्तीय सहायता नहीं दे सकती। लेकिन अब वह बड़ा हो गया है और उसे स्वतंत्र रूप से जीने, खुद का भरण-पोषण करने और अपने भविष्य के मार्ग पर चलने की जरूरत है। अब जब मुझे अभ्यास करने का मार्ग मिल गया है, तो मैं राहत महसूस करती हूँ। अगर परिस्थितियाँ इसकी अनुमति देती हैं और मुझे कोई अच्छा अवसर मिला, तो मैं घर जाकर उससे मिलूँगी, लेकिन मैंने अधिक समय और ऊर्जा अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में बिताया। केवल इसी तरह जीने से ही मेरे दिल को सुरक्षा और शांति महसूस हुई।