84. निपटान के बाद चिंतन

यांग फू, चीन

एक दिन मुझे एक भाई का पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि उसे अपने कर्तव्यों में कुछ समस्याएँ हैं और वह नहीं जानता कि क्या करे, इसलिए वह मेरी राय चाहता है। पत्र पढ़ने के बाद मैं खुद को सराहे बिना नहीं रह पाया। मुझे उस कलीसिया को छोड़े हुए लगभग दो साल हो चुके थे, लेकिन मेरे भाई-बहन ऐसी समस्याएँ सामने आने पर, जिन्हें वे हल नहीं कर पाते थे, अभी भी मुझसे पूछते थे। ऐसा लगता था कि मुझमें वास्तव में सत्य की कुछ वास्तविकता है और मैं उनसे ज्यादा समझता हूँ। हालाँकि परमेश्वर में विश्वास रखते मुझे ज्यादा समय नहीं हुआ था, फिर भी जब मैं उस कलीसिया में अगुआ था, तो भाई-बहनों को समस्याएँ या कठिनाइयाँ होने पर मैं हमेशा उनकी मदद के लिए परमेश्वर के वचनों के संगत अंश खोजने में सक्षम रहता था। समस्या होने पर उनमें से अधिकतर खोज और संगति करने के लिए मेरे पास आते थे, और मेरी अगुआई स्‍वीकार करते थे। समस्याएँ होने पर गलत तरीके से अभ्यास करने के भय से उस भाई का मेरी राय माँगना उचित था, क्योंकि उसका आध्यात्मिक कद सीमित था। इस बारे में सोचकर मैं बहुत खुश हुआ, और मैं गर्व से मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। तभी भाई वांग का ध्यान मेरी मुस्कान पर गया, तो वह बोला, "तुम्हें किस बात से इतनी खुशी हो रही है, जो तुम इस तरह मुस्कुरा रहे हो?" इस पर मैंने उसे अपने भाई के उस पत्र के बारे में बताया, और यह भी बताया कि मैं किस तरह उसका उत्तर देना चाहता हूँ। मैंने सोचा था कि वह इसका अनुमोदन करेगा, लेकिन अप्रत्याशित रूप से, उसने मुझसे बहुत गंभीरता से कहा, "उस कलीसिया में तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारे बारे में बहुत ऊँची राय रखते हैं! मैंने देखा है कि उस कलीसिया में हर कोई तुम पर बहुत निर्भर है। वे हर चीज के लिए तुम्हारे पास आते हैं, तुम्हारी राय माँगते हैं, और तुम उनका समर्थन पाने का विशेष रूप से आनंद लेते हो, और कोई भी अनुरोध स्वीकार कर लेते हो। क्या तुमने चीजों को इस तरह से करने की प्रकृति और परिणामों पर विचार किया है? तुम इस स्थिति में आत्मचिंतन नहीं करते, भाई-बहनों के साथ इस बात पर संगति नहीं करते कि कठिनाइयाँ सामने आने पर परमेश्वर से कैसे प्रार्थना करें और कैसे उस पर भरोसा करें, न उन्हें यह बताते हो कि सत्य के सिद्धांतों की खोज कैसे करें। तुम बस अपने भाई-बहनों को अपने समाधान दे देते हो, ताकि वे तुम्हारा सम्मान करें, तुम्हारी आराधना करें, और अपने दिलों में परमेश्वर के लिए कोई स्थान न रखें। तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर हो!" भाई वांग के शब्द एक भारी आघात की तरह थे। मैं स्तब्ध रह गया। उसने जो कहा, वह विशेष रूप से तीखा और चुभने वाला लगा, और मुझे उथल-पुथल में डाल गया। मैंने सोचा, "यह इतना बुरा नहीं हो सकता। क्या मैं अपने भाई-बहनों की समस्याएँ हल करने की कोशिश नहीं कर रहा? और ऐसा करने में मुझे कुछ सफलता भी मिली है। उस कलीसिया में काम मूल रूप से बहुत अच्छा नहीं था। मेरे अगुआ के रूप में चुने जाने के बाद अधिकतर भाई-बहनों ने, जो अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहे थे, ऐसा करना शुरू कर दिया, सुसमाचार फैलाने में उनके नतीजे बेहतर हो गए, और काम के हर पहलू में सुधार आया। इसके अलावा, मैंने कार्य-व्यवस्थाओं के खिलाफ जाकर कुछ नहीं किया, न ही मैंने अपना राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना कैसे हो सकता है? छोटे आध्यात्मिक कद के अपने भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों में आने वाली समस्याएँ हल करने में मदद करना एक अच्छा कर्म होना चाहिए। तुम कैसे कह सकते हो कि मैं खुद को ऊपर उठा रहा हूँ और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा हूँ? क्या तुम बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बोल रहे और मुझे गलत तरीके से पेश नहीं कर रहे?" जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतनी ही मुझे निराशा हुई। मैं अपने भाई की सलाह या उसके द्वारा निपटा जाना स्वीकार नहीं कर सका। लेकिन मैंने सोचा कि कैसे अतीत में जब मैं काट-छाँट और निपटा जाना स्वीकार नहीं कर पाया था तो मैंने खुद को केवल अपमानित ही किया था, और मैं थोड़ा शांत हो गया था। मैंने परमेश्वर के वचन के इस अंश के बारे में सोचा, "जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सत्य को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III')। मैंने महसूस किया कि इस काट-छाँट और निपटे जाने में परमेश्वर की इच्छा निहित है। चाहे मैं समझूँ या नहीं, मुझे पहले इसे स्वीकार करना और इसका पालन करना होगा। अगर भाई वांग ने जो कहा वह सच था, कि मैं अपने भाई-बहनों को अपने सामने ला रहा था और मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रहा था, तो मैं बड़े खतरे में था। जब मैंने इस बारे में सोचा, तो अब मैंने अपने दिल में इसका विरोध नहीं किया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसे स्वीकार कर लिया। मैंने भाई वांग से कहा, "हालाँकि मुझे पता नहीं था कि मेरी समस्या कितनी गंभीर है, लेकिन चूँकि तुमने इस तरफ इशारा किया है, तो मैं इस मामले में पड़ताल करूँगा।"

उसके बाद मैं शांत होने लगा और अपने बारे में सोचने लगा। परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के कुछ ही समय बाद मैं उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं से बहुत ईर्ष्या करने लगा था, जो समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति कर सकते थे। यह देखकर कि कैसे भाई-बहन उनके साथ सभा करने और अपनी समस्याएँ हल करवाने के लिए उनकी तलाश करने के इच्छुक रहते हैं, मुझे बहुत जलन होती थी। मुझे आशा थी कि मैं उनके जैसा बन सकूँगा, अपने भाई-बहनों की कठिनाइयाँ हल करने के लिए सत्य पर संगति कर सकूँगा, ताकि वे मेरे बारे में अच्छी राय रखें। इसलिए, इस इरादे और इच्छा से मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने पर ध्यान देना शुरू किया, सक्रिय रूप से सभाओं में भाग लिया, और जब मेरे भाई-बहनों को समस्याएँ या कठिनाइयाँ होतीं, तो मैं उन्हें हल करने में मदद करने के लिए सत्य की खोज करता। मेरी उत्साही खोज ने उनका अनुमोदन प्राप्त किया, और सभी ने कहा कि मैं कष्ट उठा सकता हूँ, अपने कर्तव्यों में कीमत चुका सकता हूँ, और सत्य का अभ्यास कर सकता हूँ। बाद में मुझे कलीसिया का अगुआ चुन लिया गया, तो मैंने अपने कर्तव्य और भी अधिक उत्साह और परिश्रम के साथ निभाए। चाहे सामूहिक सभाओं में जाना हो या भाई-बहनों से मिलना और उनका समर्थन करना, मैं हमेशा प्रथम रहता था, कभी पीछे नहीं रहता था। भले ही कभी-कभी मैं नकारात्मक और कमजोर महसूस करता, लेकिन मैं हमेशा जल्दी से अपनी स्थिति ठीक कर लेता और सक्रिय रूप से कलीसिया का काम करता, ताकि मेरे भाई-बहन कहें कि मैं एक योग्य अगुआ हूँ। मुझे याद है, एक बार एक बहन थी जिस पर उसका पति रोक लगाता था। वह सभाओं में शामिल नहीं हो पा रही थी, न ही नियमित रूप से अपने कर्तव्यों का पालन कर पा रही थी, और वह नकारात्मक और कमजोर महसूस करती थी। इस बारे में जानने के बाद मैंने सोचा, “मुझे भी ऐसा ही अनुभव होता है। मैं नकारात्मकता से बचने में उसकी मदद करने के लिए अपने व्यावहारिक अनुभव का उपयोग कर सकता हूँ, और यह मेरे भाई-बहनों को दिखाएगा कि मैं समस्याओं का समाधान कर सकता हूँ और सत्य की वास्तविकताएँ पा सकता हूँ।” इसलिए मैंने उसकी अवस्था पर लक्षित परमेश्वर के वचन के अंश खोजे और उसके साथ संगति करने के लिए उन्हें अपने अनुभव के साथ जोड़ दिया। अपनी संगति में मैंने केवल अभ्यास के सकारात्मक पहलुओं के बारे में बात की और अपने भीतर उजागर हुई भ्रष्टता, अपनी नकारात्मकता या कमजोरी के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। मेरी संगति ने उसे प्रेरित किया। उसके बाद उसने एक सभा के दौरान सभी से कहा, "भाई यांग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और उनका आध्यात्मिक कद है। अपने बेटे के उत्पीड़न के बावजूद वे अपनी गवाही में दृढ़ रहे और सुसमाचार का प्रचार करते रहे। उनकी संगति ने मुझे प्रेरित किया।" जब मैंने यह सुना, तो मैं बहुत खुश हुआ, और मैंने महसूस किया कि मेरे पास वास्तव में आध्यात्मिक कद और सत्य की वास्तविकता है। बाद में मैंने अपना सारा समय अपने भाई-बहनों के बीच आने-जाने में बिताया। जब मैं किसी समूह-अगुआ को मुश्किल में या किसी भाई या बहन को खराब स्थिति में देखता, तो संगति करने जरूर जाता। मैंने हवा और बारिश, चिलचिलाती गर्मी और कड़ाके की ठंड का सामना किया, लेकिन कभी किसी चीज की उपेक्षा नहीं की, और जब तक उनकी समस्याओं का समाधान और और निपटारा न हो जाता, तब तक मुझे चैन न मिलता।

मुझे याद है, एक बार मैंने सुना कि कोई कलीसिया में गुट बना रहा है और नकारात्मकता फैला रहा है। कुछ भाई-बहनों में विवेक की कमी थी, उनके बीच पूर्वाग्रह उत्पन्न हो गए थे और वे मिलजुलकर काम नहीं कर पा रहे थे। मैं तुरंत उनके साथ संगति करने गया। मैंने नकारात्मकता फैलाने वाले व्यक्ति के बरताव को उजागर कर उसका विश्लेषण किया, और उसकी दुष्टता पर रोक लगा दी। भाई-बहनों ने समझ हासिल की और फिर उसके द्वारा छले और परेशान नहीं किए गए। इस तरह मेरे बारे में मेरे भाई-बहनों की धारणा में सुधार होता रहा, उनमें से कुछ ने तो यहाँ तक कहा, "भाई यांग सत्य को समझते हैं, लोगों और चीजों को हमसे बेहतर देखते हैं, और अंतर्दृष्टि के साथ बोलते हैं। ऐसा लगता है कि वे किसी भी समस्या का समाधान कर सकते हैं। तुम्हें यह मानना होगा!" यह सुनकर मैं बहुत खुश हुआ, और अनजाने ही आत्म-प्रशंसा की स्थिति में पहुँच गया। बाद में मैंने भी जानबूझकर अपने भाई-बहनों के सामने यह कहते हुए दिखावा किया, "वह व्यक्ति बहुत चालाक और धोखेबाज प्रकृति का है और कलीसिया में ऊपर से आकर्षक लगने वाली भ्रांतियाँ फैला रहा है। सत्य को समझे बिना इसे पहचानना असंभव है, लेकिन सौभाग्य से मैंने उसकी असलियत देख ली और उसके बरताव पर संगति कर उसे उजागर करने में सक्षम रहा। अगर किसी और ने इसे सँभाला होता, तो शायद वह धोखा खा जाता।" मेरी संगति सुनने के बाद एक भाई ने मेरे बारे में बहुत अच्छी राय बनाई। बाद में जब भी उसे कोई समस्या होती, तो वह उसे हल करवाने मेरे पास आता।

एक बार भाई झांग और मैं नए सदस्यों का सिंचन करने गए, और मैंने अपने मन में सोचा, "जब मैं धर्म में ही था, तब मैं एक अगुआ हुआ करता था, और मैं कुछ धार्मिक लोगों की स्थिति समझता हूँ, इसलिए मैं इस कर्तव्य के लिए सही हूँ।" जब मैंने देखा कि नए सदस्य कुछ प्रश्न पूछते हैं, तो मैंने और अधिक सक्रिय रूप से बात की और अपनी धारणाएँ बदलने के अपने अनुभव पर उनसे संवाद किया। लेकिन अपनी संगति में मैंने केवल इस बारे में बात की कि मैंने कैसे सत्य खोजा और स्वीकारा, और इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि कैसे मैंने कलीसिया बंद कर दी और अपनी धारणाओं के कारण परमेश्वर का विरोध किया। मैंने देखा कि ये नए सदस्य मेरी संगति सुनकर अनुमोदन के तौर पर सिर हिलाते हैं, और मुझे लगा कि अपने कर्तव्य निभाने का मेरा तरीका योग्य और परमेश्वर को स्वीकार्य था। कुछ नए सदस्यों ने मुझसे ईर्ष्या से कहा, "संपर्क की इस अवधि के बाद, मुझे लगता है कि आप भाई झांग की तुलना में अधिक दायित्व उठाते हैं, आप अधिक विस्तार से, अधिक समझदारी से और अधिक जोश के साथ संगति करते हैं।" जब मैंने नए सदस्यों को यह कहते सुना, तो मुझे और भी विश्वास हो गया कि मुझमें सत्य की वास्तविकताएँ हैं। बाद में, काम की जरूरतों के कारण, अपने कर्तव्य निभाने के लिए मेरा तबादला एक अलग कलीसिया में कर दिया गया, लेकिन कुछ नए सदस्य समय-समय पर अभी भी मेरे बारे में बात करते थे : "भाई यांग यहाँ क्यों नहीं हैं? उनकी संगति हमारे लिए बहुत मददगार है।" उस समय मैंने अपने मार्ग पर चिंतन करने के बारे में बिलकुल नहीं सोचा था। मुझे ऐसा लगता था कि सचमुच मेरा आध्यात्मिक कद है और मैं सत्य को समझता हूँ। मैं न केवल जीवन-प्रवेश में भाई-बहनों की समस्याएँ हल कर सकता था, बल्कि नए सदस्यों में मौजूद धार्मिक धारणाओं का समाधान भी सकता था। मैं अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान था, यही वजह थी कि मेरे भाई-बहन मेरा आदर करते थे और मुझे सराहते थे। मैं बिना किसी आत्म-बोध के आत्म-प्रशंसा की स्थिति में जीता था। केवल भाई वांग द्वारा इंगित किए जाने और अपने बरताव पर विचार करने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत अहंकारी और विवेकहीन हूँ। मैं हमेशा अपना उत्कर्ष और दिखावा कर रहा था। मैं खुद को बिलकुल नहीं जानता था!

उसके बाद मैंने परमेश्वर का वह वचन पढ़ा, जिसमें अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने वालों को उजागर किया गया है, और उसका इस्तेमाल आत्म-चिंतन करने और खुद को समझने के लिए किया। मैंने परमेश्वर का यह वचन पढ़ा, "स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? एक तरीक़ा इस बात की गवाही देना है कि उन्‍होंने कितना अधिक दुःख भोगा है, कितना अधिक काम किया है, और स्वयं को कितना अधिक खपाया है। वे इन बातों की चर्चा निजी पूँजी के रूप में करते हैं। अर्थात, वे इन चीज़ों का उपयोग उस पूँजी की तरह करते हैं जिसके द्वारा वे अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्‍हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह परम प्रभाव है। इस लक्ष्‍य—पूर्णतया अपना उत्कर्ष करना और स्वयं अपनी गवाही देना—को प्राप्त करने के लिए वे जो चीज़ें करते हैं, क्‍या वे तर्कसंगत हैं? वे नहीं है। वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, और विशेष दक्षताओं तक पर, या अपने आचरण की चतुर तकनीकों और लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों तक पर इतराते हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ, और नाकामियाँ छिपाते हैं ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने परमेश्‍वर के घर को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है? क्‍या स्वयं अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना सामान्‍य मानवता की तर्कसंगत सीमाओं में आता है? यह नहीं आता है। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रगट होता है? अहंकारी स्वभाव मुख्‍य अभिव्यंजनाओं में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनकी कहानियाँ पूरी तरह अकाट्य होती हैं; उनके शब्‍दों में अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, और उन्‍होंने इस तथ्‍य को छिपाने का तरीक़ा ढूँढ़ निकाला होता है कि वे दिखावा कर रहे हैं, लेकिन वे जो कुछ कहते हैं उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को अब भी यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव ही है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़ना वास्तव में मेरी कुछ भावनाएँ उद्वेलित कर गया। मैंने देखा कि मैं आदतन अपना उत्कर्ष और अपने कर्तव्यों में दिखावा करता था और निस्संदेह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर था। मैंने उस समय के बारे में सोचा, जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू ही किया था। जब मैं भाई-बहनों को समस्याएँ होने पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को खोजते देखता था, तो मुझे जलन होती थी। मैं सोचता कि अगर मैं भाई-बहनों की समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति कर पाऊँ, तो मुझे उनका अनुमोदन और प्रशंसा मिलेगी। इसलिए मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने का प्रयास किया। मैंने ईमानदारी से खोज की, और मैं कड़ी मेहनत करने और खपने के लिए तैयार था। जब मेरे काम ने कुछ नतीजे दिखाए, तो मैंने अक्सर अपने भाई-बहनों के सामने अपनी गवाही दी, कि मैंने किस तरह कष्ट सहे और कीमत चुकाई, किस तरह अपने कर्तव्य निभाने का प्रयास किया, और किस तरह मैंने सत्य का अभ्यास किया, लेकिन मैंने कभी अपनी नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में बात नहीं की, न अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया। ऐसा इसलिए था, क्योंकि मैं डरता था कि लोग मेरी असलियत जान जाएँगे और मुझे एक अयोग्य अगुआ कहेंगे। मैंने केवल अपने भाई-बहनों के मन में एक अच्छी छवि स्थापित करने के बारे में सोचा, और अपने कर्तव्य का उपयोग अपना उत्कर्ष और दिखावा करने के लिए, भाई-बहनों को अपने सामने लाने के लिए किया। क्या मैं मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चल रहा था? लेकिन मैं सुन्न हो गया था और मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी। मैं फिर भी बेशर्मी से खुद को सराहता रहा और यह सोचकर दिखावा करता रहा कि मुझमें सत्य की वास्तविकताएँ हैं। मुझमें कोई मानवता या विवेक नहीं था। मैंने जो किया, वह परमेश्वर के लिए घृणित और वीभत्स था। मैं वास्तव में परमेश्वर के सामने जीने योग्य नहीं था!

इन बातों का एहसास होने के बाद मैंने सोचना शुरू किया : “मैं हमेशा अनजाने ही क्यों अपना उत्कर्ष करता और अपनी गवाही देता हूँ? मैं क्यों मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा हूँ, बुराई कर रहा हूँ और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहा हूँ? इसका क्या कारण है?" खोज करते हुए मैंने परमेश्वर के वचन के ये अंश देखे : "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी हैसियत में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुम्हें दिखावे में रखवाएँगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हें खुद को अन्य लोगों और परमेश्वर से श्रेष्ठ समझने के लिए मजबूर करेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? अगर वे वास्तव में इस तरह से बरताव करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिलकुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचन ने जो प्रकट किया, उससे मैं समझ गया कि मैं हर चीज में सराहा जाना और लोगों के दिलों में ऊँची हैसियत पाना चाहता था, क्योंकि मैं अपनी अभिमानी और दंभी शैतानी प्रकृति से नियंत्रित था। मेरा स्वभाव अहंकारी था, इसलिए मैं हमेशा महत्वाकांक्षी रहता था, और हमेशा सराहा और पूजा जाना चाहता था। मैंने बेशर्मी से अपने भाई-बहनों के सामने दिखावा किया कि कैसे मैंने अपने कर्तव्य में कष्ट सहा और कीमत चुकाई, कैसे मैंने समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज की, मेरा लक्ष्य यह दिखाना होता था कि मैं आम लोगों से ऊपर हूँ और अपने हर काम में दूसरों से बेहतर हूँ। मेरी यह उत्कट इच्छा थी कि लोग मेरा सम्मान करें ओर मुझे सराहें। क्या मैं इस प्रयास में पौलुस की तरह ही नहीं था? उसने अपने प्रचार और कार्य का उपयोग अपने गुण और ज्ञान प्रदर्शित करने के लिए किया था, दूसरों से अपना आदर करवाने के लिए दिखावा किया था, और यह गवाही देने के लिए विभिन्न कलीसियाओं में गया कि उसने प्रभु के लिए कितना काम किया और कितना कष्ट सहा, ताकि लोगों के दिल जीत सके। अपने काम और पत्रियों में उसने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त सत्य की गवाही नहीं दी, न ही उसने प्रभु यीशु की मनोहरता की गवाही दी, न विश्वासियों को प्रभु के वचनों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बजाय, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने के लिए उसने अपने काम में अपने अहंकारी और दंभी शैतानी स्वभाव पर भरोसा किया, ताकि दूसरे उसकी आराधना करें और उसके पास आएँ। अंत में उसने बेशर्मी से गवाही दी कि वह मसीह के रूप में रहता है, यहाँ तक कि दो हजार साल बाद भी लोग पौलुस की आराधना करते हैं और उसके वचनों का परमेश्वर के वचनों की तरह पालन करते हैं हैं। उसने प्रभु के विश्वासियों की पीढ़ियों को बहकाया और फँसाया; नतीजतन सभी लोगों ने उसके वचन सुने, प्रभु के वचनों पर अमल करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, और परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चल पड़े। मैंने देखा कि मेरे कार्य पौलुस के समान ही थे। अपनी अहंकारी और दंभी शैतानी प्रकृति के काबू में आकर मैंने अपना उत्कर्ष किया और हर मोड़ पर दिखावा किया, और लोगों से अपना आदर और आराधना करवाई। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरे भाई-बहनों के हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं रहा, और जब चीजें घटित हुईं, तो वे परमेश्वर पर भरोसा करना नहीं जानते थे, और उन्होंने सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने मुझ पर भरोसा किया, मानो मेरे पास सत्य हो। यह मेरा कर्तव्य निभाना कैसे था? क्या यह बस लोगों को अपने सामने लाना नहीं था? यह बुराई करना और परमेश्वर का प्रतिरोध करना था! मैंने अपना उत्कर्ष किया था और दूसरों से अपना आदर और आराधना करवाई थी, जिसने बहुत पहले परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचा दी थी। जब मुझे यह एहसास हुआ, तो मेरे दिल में डर बैठ गया। मैंने वास्तव में कभी कल्पना नहीं की थी कि अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के साथ अपने कर्तव्य निभाकर मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने जैसी बुराई कर सकता हूँ!

फिर मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश देखा : "यहाँ तक कि कुछ लोग भेंटों की चोरी भी करते हैं या उसे लुटा देते हैं या एकांत में परमेश्वर को कोसते हैं, जबकि अन्य लोग बार-बार अपने बारे में गवाही देने, अपनी शक्ति बढ़ाने और लोगों एवं हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने हेतु अपने पदों का उपयोग कर सकते हैं। वे लोगों से अपनी आराधना करवाने के लिए विभिन्न तरीकों एवं साधनों का उपयोग करते हैं और लोगों को जीतने एवं उनको नियंत्रित करने की लगातार कोशिश करते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग जानबूझकर लोगों को यह सोचने के लिए गुमराह करते हैं कि वे परमेश्वर हैं ताकि उनके साथ परमेश्वर की तरह बरताव किया जाए। वे किसी को कभी नहीं बताएँगे कि उन्हें भ्रष्ट कर दिया गया है-कि वे भी भ्रष्ट एवं अहंकारी हैं, उनकी आराधना नहीं करनी है और चाहे वे कितना भी अच्छा करते हों, यह सब परमेश्वर द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने के कारण है और वे वही कर रहे हैं जो उन्हें वैसे भी करना ही चाहिए। वे ऐसी बातें क्यों नहीं कहते? क्योंकि वे लोगों के हृदय में अपना स्थान खोने से बहुत डरते हैं। इसीलिए ऐसे लोग परमेश्वर को कभी ऊँचा नहीं उठाते हैं और परमेश्वर के लिए कभी गवाही नहीं देते हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर को समझने की कभी कोशिश नहीं की है" ('परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा हृदय छिद गया। परमेश्वर के घर ने मुझे अपने भाई-बहनों के जीवन में प्रवेश की समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के लिए सत्य पर संगति का अभ्यास करने और उन्हें सत्य को समझने और उसमें प्रवेश करने की दिशा में मार्गदर्शन करने के लिए अगुआ बनने का मौका दिया था। लेकिन परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उसकी गवाही देने के बजाय मैंने अपने कर्तव्यों का उपयोग दिखावा करने और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने के लिए किया। मेरी अगुआई में मेरे सभी भाई-बहनों ने मेरी आराधना की और मेरा सम्मान किया; जब चीजें घटित हुईं, तो उन्होंने परमेश्वर के बजाय मुझ पर भरोसा किया और सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं की। मैं लोगों को अपने सामने लाया था। क्या मैं लोगों के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहा था? परमेश्वर सर्वोच्च, पवित्र और महान है, फिर भी उसने मानवजाति को बचाने के लिए देहधारण करके आने का बड़ा अपमान सहा। उसने लोगों के बीच विनम्र और छिपे हुए तरीके से काम किया, और लोगों को आपूर्ति और उनका मार्गदर्शन करने के लिए सत्य को गुमनामी में व्यक्त किया, और मानवजाति के लिए सब-कुछ दे दिया। परमेश्वर ने कभी दिखावा नहीं किया। उसका सार वास्तव में सुंदर है! मैं किसी कीड़े से भी कम महत्व रखता हूँ, और मैं शैतान द्वारा इतना भ्रष्ट कर दिया गया हूँ कि मुझमें इंसानियत नहीं है, फिर भी मैं चाहता था कि दूसरे मेरी सराहना और आराधना करें। मैं अति आत्मविश्वासी और बेशर्म था! जब मैंने देखा कि मैंने क्या किया है, तो मुझे ऐसा पछतावा हुआ। मैं पिछले कुछ वर्षों में परमेश्वर के अनुग्रह और उत्कर्ष पर खरा उतरने में असफल रहा था। इन दुष्ट कर्मों के लिए मैं शापित और दंडित होने का पात्र था!

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। मैं समझ गया कि परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उसकी गवाही देने का क्या अर्थ है, और मैंने अपना उत्कर्ष करने और मसीह-विरोधियों का मार्ग अपनाने की समस्या हल करने के लिए अभ्यास के तरीके पा लिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुम्हें मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम्हें इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टता को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम्हें जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने तुम्हें बहुत ऊँचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "किस प्रकार का बरताव अपना उत्कर्ष न करना और अपनी गवाही न देना है? उसी मामले में, अगर तुम दिखावा करते हो, तो तुम अपने तुम्हें ऊँचा उठाने, अपनी गवाही देने और दूसरों से आदर पाने के अपने उद्देश्य में सफल हो जाओगे—लेकिन अगर तुम खुलकर अपनी सत्य उजागर कर देते हो, तो सार अलग होता है। यहाँ विवरण की बात आ जाती है, है न? उदाहरण के लिए, जब तुम अपनी अभिप्रेरणाएँ और विचार प्रकट करते हो, तो तुम्हें स्वयं को व्यक्त करने के वाक्यांशों और तरीकों, जो कि आत्म-ज्ञान हैं, और दिखावा करने के तरीकों, जिनसे दूसरे तुम्हें आदर दें, जो तुम्हारी प्रशंसा और गवाही का गठन करते हैं, के बीच अंतर करना आना चाहिए। अगर तुम याद करो कि तुमने कैसे प्रार्थना की है और कैसे सत्य की खोज की है, परीक्षणों के दौरान कैसे गवाही दी है, तो यह परमेश्वर की बड़ाई करना और उसके लिए गवाही देना है। इस तरह का अभ्यास दिखावा करना और अपनी गवाही देना बिलकुल नहीं है। तुम दिखावा कर रहे हो या नहीं और अपनी गवाही दे रहे हो या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम जो कहते हो, उसका तुमने वास्तव में अनुभव किया है या नहीं, और क्या परमेश्वर की गवाही का प्रभाव प्राप्त हुआ है या नहीं; इसलिए, यह देखना भी आवश्यक है कि जब तुम अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात करते हो, तो तुम्हारे इरादे और लक्ष्य क्या होते हैं। ये सब चीजें अंतर बताना आसान कर देती हैं। जब तुम अपने तुम्हें उजागर और अपना विश्लेषण करते हो, तो उसमें तुम्हारा इरादा भी शामिल होता है। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाने का होता है कि तुम्हारी भ्रष्टता कैसे उजागर हुई, तुम कैसे बदल गए हो, और तुम उससे दूसरों को लाभ उठाने देते हो, तो तुम्हारे शब्द ईमानदार, सच्चे और तथ्यों के अनुरूप होते हैं। इस तरह के इरादे सही होते हैं, और तुम दिखावा नहीं कर रहे होते या अपनी गवाही नहीं दे रहे होते। अगर तुम्हारा इरादा हर किसी को यह दिखाना है कि तुमने वास्तव में क्या अनुभव किया है, और तुम बदल गए हो और तुममें सत्य की वास्तविकता आ गई है, और इस तरह तुम लोगों की प्रशंसा और सम्मान अर्जित कर लेते हो, तो ये इरादे झूठे हैं—और उन्हें भी प्रकाश में लाया जाना चाहिए। अगर तुम्हारे बताए अनुभव और गवाही झूठी हैं, अगर उन्हें लोगों को गुमराह करने के लिए संशोधित किया और रचा गया है, ताकि उन्हें तुम्हारा वास्तविक पक्ष देखने से रोका जा सके, तुम्हारे इरादे, तुम्हारी भ्रष्टता, कमजोरी या नकारात्मकता दूसरों के सामने प्रकट न हो पाए, तो ऐसे शब्द कपटपूर्ण और नकली हैं; यह झूठी गवाही है, यह परमेश्वर को धोखा देना है, यह परमेश्वर को लज्जित करता है, और परमेश्वर इसी से सबसे अधिक घृणा करता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उसकी गवाही देने के लिए हमें सही इरादे रखने और सच बोलने की आवश्यकता है। हमें अपनी विद्रोहशीलता और कमजोरियों पर, उन भ्रष्ट स्वभावों पर जो हम अपने अनुभव में उजागर करते हैं, इस बात पर कि हम कैसे आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के लिए परमेश्वर के वचन लागू करते हैं, हम कैसे परमेश्वर के वचन का न्याय और ताड़ना स्वीकार करते हैं, और हमने परमेश्वर के बारे में कितना वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया है, खुलकर संगति करने में सक्षम होना चाहिए। हमें भाई-बहनों को अपने अनुभव और ज्ञान से लाभ उठाने देना चाहिए, बजाय यह दिखावा करने के कि हम कैसे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं और कैसे सत्य की वास्तविकता रखते हैं, ताकि उनसे अपना आदर और आराधना करवा सकें। इसके अलावा, हमें हमेशा अपने कार्यों, विचारों और मतों पर चिंतन करना चाहिए। जब हमें अपना उत्कर्ष और दिखावा करने की इच्छा हो, तो हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और अपने गलत इरादे छोड़ देने चाहिए, अपनी हद में रहना चाहिए, अपनी भ्रष्टता उजागर करने के लिए भाई-बहनों के साथ अधिक खुलना चाहिए, और परमेश्वर का उत्कर्ष करने और उसकी गवाही देने के लिए परमेश्वर के वचन के अपने अनुभव और ज्ञान का उपयोग करना चाहिए। यही वह समझ और कर्तव्य है, जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए।

जब मुझे इस बात का एहसास हुआ, तो मैंने भाई वांग से कहा, "तुम्हारे याद दिलाने से मुझे आत्मचिंतन करने और खुद को जानने में मदद मिली। यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम है। अब मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ समझ है, मैं परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और अपने भाई-बहनों के सामने अपना विश्लेषण करने के लिए तैयार हूँ।" बाद में, जब मैंने उस भाई के पत्र का उत्तर दिया, जो किसी समस्या का हल माँग रहा था, तो मैंने प्रकट किया कि कैसे मैंने पिछले कुछ वर्षों में अपना उत्कर्ष और दिखावा किया था, गलत इरादे रखे थे, और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चला था। मैंने अपने उस भाई के साथ खुलकर संगति की और इन बातों का खुलासा किया, ताकि वह मेरी भ्रष्टता और दुष्टता समझ सके और आगे से मेरी प्रशंसा न करे या मुझसे धोखा न खाए। मैंने उसे हर चीज में परमेश्वर पर भरोसा करने और परमेश्वर के वचन में अभ्यास के मार्ग तलाशने के लिए भी कहा, और यह भी कि जब वह दूसरों के साथ संगति करे, तो उसके इरादे सही होने चाहिए, वह केवल वही संगति स्वीकार करे जो परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुरूप हो, और अब किसी की आराधना या अनुसरण न करे। अपना पत्र समाप्त करने के बाद मुझे सुकून और सुरक्षा की भावना महसूस हुई, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी।

इसके बाद मैंने अपने कर्तव्यों में सजगतापूर्वक परमेश्वर के वचन की अपेक्षानुसार अभ्यास किया। जब मेरे काम ने नतीजे दिए और मैंने अपना उत्कर्ष और दिखावा करना चाहा, तो मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं जिस मसीह-विरोधी स्वभाव को उजागर कर रहा था, उस पर चिंतन कर उसे समझने के लिए परमेश्वर के वचन का उपयोग किया, तुरंत अपने गलत इरादे त्याग दिए, और परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास किया। धीरे-धीरे मेरा अहंकारी और दंभी शैतानी स्वभाव कुछ हद तक नियंत्रित हो गया, और मैंने पहले की तरह अपना उत्कर्ष या दिखावा नहीं किया। एक बार मैं एक सभा में गया, तो एक भाई ने कहा, "आपके साथी की संगति आपकी संगति जितना मार्ग प्रदान नहीं करती...।" जब मैंने यह सुना, तो मुझे गर्व होने लगा, लेकिन मुझे तुरंत एहसास हो गया कि मेरी स्थिति गलत है और मुझे थोड़ा डर लगा, इसलिए मैंने फिर सभी के साथ संगति की और उन्हें बताया कि मैं दूसरों से बेहतर नहीं हूँ, और मेरे काम के परिणाम पवित्र आत्मा के कार्य के परिणाम हैं। मैंने प्रकट किया कि कैसे मैंने अतीत में अपना उत्कर्ष और दिखावा किया और उसके क्या नतीजे निकले, और कैसे बाद में मैंने परमेश्वर के वचन में न्याय और ताड़ना स्वीकार की और आत्मज्ञान प्राप्त किया। मैंने अपने भाई-बहनों को अपना असली आध्यात्मिक कद और अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखाने के लिए इन सभी चीजों का विश्लेषण किया और खुलकर संगति की। मेरी संगति के बाद मेरे भाई-बहन मेरे साथ ठीक से बरताव कर पाए, उन्होंने अब मेरा आदर या आराधना नहीं की, जिससे मुझे बड़ा सुकून महसूस हुआ। हालाँकि मुझमें अभी भी कई भ्रष्ट स्वभाव हैं, लेकिन मेरा मानना ​​है कि अगर मैं परमेश्वर की काट-छाँट और निपटान, और उसकी ताड़ना और अनुशासन का अनुभव करने पर ध्यान केंद्रित करूँगा, अक्सर अपने इरादों पर विचार करूँगा, सभी चीजों में सत्य की तलाश करूँगा, और अपने बरताव में परमेश्वर के वचन को मानदंड के रूप में उपयोग करूँगा, तो मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिलेगा, मैं धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टताओं से छुटकारा पा लूँगा, और उद्धार के मार्ग पर चल पडूँगा।

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