86. मूल्यांकन लिखने से सीखे गए सबक

मा यी, चीन

नवंबर 2022 में उच्च अगुआई ने मुझे एक पत्र भेजा, जिसमें मुझे वांग क्यू का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा गया था। पत्र पाने के बाद मैं न चाहते हुए भी सोचने लगी, “मुझे वांग क्यू का मूल्यांकन लिखने की क्या जरूरत है? अभी दो महीने पहले ही उसे दूसरी कलीसिया में स्थानांतरित किया गया था। क्या ऐसा हो सकता है कि उच्च अगुआई उसे तरक्की देना चाहती है? या वे उसके प्रदर्शन का मूल्यांकन करना चाहते हैं और मुमकिन है कि उसे बरखास्त करना चाहते हों? अगुआओं का वाकई इससे क्या आशय है?” मैंने सुना था कि वांग क्यू अपना कर्तव्य करने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग रही थी और दो साल पहले जब कलीसिया को एक बड़ी कार्रवाई का सामना करना पड़ा था तो उसने कुछ कार्य क्षमताएँ दिखाते हुए तुरंत इसके बाद की स्थिति को सँभाला था। लेकिन उसके साथ घुलना-मिलना काफी मुश्किल था और उसके साथ मेरी बातचीत से मैंने पाया कि उसका रवैया अक्सर संकीर्ण होता था, जिससे दूसरे बेबस महसूस करते थे और वह लोगों की आलोचना करने की प्रवृत्ति रखती थी। यह सोचकर कि उसका रवैया कैसा है और उसने मुझे कैसे बेबस किया था, मैं दुखी और परेशान हो गई। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगुआ उसे अपनी मनोदशा पर गौर करने और खुद को जानने के लिए मार्गदर्शन देने को पत्र लिख रहे हैं, इसलिए शायद वे उसे पदोन्नत करने की योजना बना रहे होंगे। अगर ऐसा है तो मुझे मूल्यांकन में उसके अच्छे गुणों के बारे में लिखना चाहिए। अगर मैं लिखूँगी कि वह लोगों को कैसे बेबस करती है तो अगुआ मुझे कैसे देखेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दे रही हूँ और सबक नहीं सीख रही हूँ या कि मैंने उसके साथ अच्छे से सहयोग नहीं किया? उसके पास अच्छी काबिलियत और कार्य क्षमताएँ हैं और उसने अपना कर्तव्य करने के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग दिया है, जब उसे बरखास्त किया गया था तो उसने चिंतन किया और कुछ समझ हासिल की थी। अगर अगुआ उसे पदोन्नत करना चाहते हैं लेकिन मैं उसके बुरे व्यवहार के बारे में लिखती हूँ तो अगुआ मुझे कैसे देखेंगे?” इस पर विचार करने के बाद मैंने निष्कर्ष निकाला कि अगुआ उसे तरक्की देने जा रहे हैं, इसलिए मैंने लिखा कि वांग क्यू सत्य का अनुसरण करती है, परमेश्वर के वचनों को शुद्ध रूप से समझती है और उसके पास कार्य क्षमताएँ हैं और वह अपने परिवार और करियर को त्याग सकती है। अगुआओं पर अच्छी छाप छोड़ने के लिए मैंने लोगों को बेबस करने के उसके व्यवहार की अनदेखी करते हुए कहा कि उसके पास न्याय की भावना थी, उसने मुझे मार्गदर्शन और मदद की पेशकश की थी। मूल्यांकन लिखने के बाद मैंने इसे अगुआओं को सौंप दिया।

कुछ दिनों बाद मुझे अगुआओं से एक और पत्र मिला, जिसमें मुझसे पूछा गया था कि क्या वांग क्यू ने मेरे साथ मेलजोल के दौरान दूसरों को दबाने, उनकी आलोचना करने या उन्हें बेबस करने का कोई संकेत दिखाया था। मैंने उन मौकों के बारे में सोचा जब मैंने उसके साथ सहयोग किया था और कैसे उसने दूसरों को बेबस किया था और मैंने सोचा, “क्या ऐसा हो सकता है कि इस क्षेत्र में उसकी समस्याएँ गंभीर हैं और अगुआ उसके व्यवहार पर गौर करना चाहते हैं? पिछली बार मैंने सिर्फ उसके अच्छे गुणों के बारे में लिखा था और मैंने यह उल्लेख नहीं किया था कि कैसे उसने दूसरों को बेबस किया या उनकी आलोचना की। क्या मुझे इस बार इन व्यवहारों के बारे में लिखना चाहिए?” तब मैंने फिर से सोचा, “अगर मैं अब इन व्यवहारों के बारे में लिखूँ तो अगुआ मुझे कैसे देखेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं पहले ईमानदार नहीं थी और मैं उन्हें धोखा दे रही थी? शायद मुझे बस इतना कहना चाहिए कि मुझे इन चीजों के बारे में नहीं पता। लेकिन अगर मैं कहूँ कि मुझे इन चीजों के बारे में नहीं पता तो क्या अगुआ सोचेंगे कि मुझमें भेद पहचानने की कमी है?” मैं इसी में उलझी रही, समझ नहीं पाई कि आगे कैसे बढ़ना है। मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने उसके साथ एक महीने से भी कम समय तक सहयोग किया था, इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मुझे इन चीजों के बारे में जानकारी नहीं है। और अगुआ शायद इसके बारे में कुछ न कहें।” उस पल मुझे बेचैनी महसूस हुई और एहसास हुआ कि मैं धोखेबाज बन रही हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे प्रभु यीशु के वचन याद आए : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है(मत्ती 5:37)। मुझे यह भी याद आया कि परमेश्वर ने कहा था : “तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है।” मैंने जल्दी से परमेश्वर के वचन खोलकर पढ़े। परमेश्वर कहता है : “तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अतः उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीजें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। मैं जो कहता हूँ वह बहुत सरल है, किंतु तुम लोगों के लिए दुगुना मुश्किल है। बहुत-से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की बजाय नरक में दंडित होना पसंद करेंगे। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि जो बेईमान हैं उनके लिए मेरे भंडार में अन्य उपचार भी है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। “अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनके खिलाफ विद्रोह करो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में न्यायपूर्ण होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के माध्यम से मैं समझ गई कि परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा करता है। परमेश्वर विश्वसनीय है। वह ईमानदार लोगों से प्रेम करता है और धोखेबाज लोगों से नफरत करता है। परमेश्वर चाहता है कि लोग बिना किसी कपट या छिपाव के सच बोलें। यह परमेश्वर का स्वभाव है। मूल्यांकन लिखने के लिए ईमानदार व्यक्ति होने के सत्य में प्रवेश करना और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारना भी जरूरी है। वांग क्यू का मूल्यांकन लिखने के दौरान के बारे में आत्म-चिंतन करती हूँ तो मैंने वह नहीं लिखा जो मैं जानती थी या सच नहीं बोला। इसके बजाय मैंने पहले अगुआओं के इरादों के बारे में अनुमान लगाया, सोचती रही कि अगुआ वांग क्यू को तरक्की देना चाहते होंगे, इसलिए मैंने उसके खराब बर्तावों पर पर्दा डाला और उन्हें छिपाया, यहाँ तक कि वह कैसे मुझे बेबस करती थी, इस बात को उसकी न्याय की भावना के रूप में अनदेखा कर दिया। यह प्रकृति वास्तव में धोखे की थी। जब अगुआओं ने मुझे वांग क्यू का एक और मूल्यांकन लिखने के लिए कहा, झूठ पकड़े जाने से बचने के लिए मैंने मूल्यांकन लिखना छोड़ देने पर विचार किया। यह धोखेबाजी का एक और उदाहरण था। परमेश्वर विश्वसनीय है। वह मनुष्य के अंतरतम हिस्सों की जाँच करता है। मैं शायद लोगों को धोखा दे सकती हूँ, लेकिन परमेश्वर को नहीं। अगर मैं अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए झूठ बोलती रही और धोखा देती रही तो परमेश्वर मुझसे घिन और घृणा करेगा। मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार व्यक्ति बनना था और अगुआओं के इरादों का अनुमान लगाना बंद करना था। चाहे अगुआ मुझे कैसे भी देखें, मुझे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारना था। इसके बाद मैंने सच्चाई से लिखा कि कैसे वांग क्यू ने लोगों को बेबस किया और उनकी आलोचना की और इसे अगुआओं के सामने प्रस्तुत कर दिया। तभी मैं सहज हो पाई। कुछ ही समय बाद अगुआओं ने एक पत्र भेजा जिसमें वांग क्यू के दूसरी कलीसिया में व्यवहार का वर्णन किया गया था, जिसमें कहा गया था कि वह लगातार लोगों को बेबस करती रही है, अपने सहकर्मियों की गलतियों का फायदा उठाती रही है और अक्सर दूसरों को गुस्से में अनुशासित करती रही है। वह गुट भी बनाती रही है और अपने सहकर्मियों की पीठ पीछे आलोचना करती रही है, जिससे वे नकारात्मक महसूस करते हैं और खुद को सीमित कर लेते हैं। उसने अपने से ऊपर और नीचे वालों को धोखा दिया और वास्तविक काम नहीं किया और जब भाई-बहन उसके साथ संगति करते थे तो वह इसे नहीं स्वीकारती थी। उसके निरंतर व्यवहार के आधार पर उसे बरखास्त कर दिया गया। यह खबर सुनकर मुझे और भी अधिक पछतावा हुआ कि मैंने पहले सत्य का अभ्यास क्यों नहीं किया और मुझे खुद से इतनी धोखेबाजी के लिए घृणा हो गई।

बाद में मैंने इस बात पर चिंतन किया कि एक ही व्यक्ति का एक ही मूल्यांकन इतने कम समय में दो अलग-अलग तरीकों से क्यों लिखा गया। कौन सी प्रकृति मुझे इस तरह से कार्य करने के लिए प्रेरित कर रही थी? मैंने बोझ की भावना के साथ परमेश्वर से प्रार्थना की, खोजने लगी, “हे परमेश्वर, जब अगुआओं ने मुझे वांग क्यू का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा, मैंने अगुआओं के इरादों के बारे में अटकलें लगाईं और उसी के अनुसार मूल्यांकन लिखना चाहा, बजाय इसके कि मैं सभी तथ्यों को लिखूँ। मुझे इससे क्या सबक सीखना चाहिए? हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं खुद को जानूँ।”

मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े व्यावहारिक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं होता। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक बात कहने तक में सक्षम नहीं होते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा खरबूजे की उस बेल की तरह है जो किसी खंभे पर उसके अनुरूप चढ़ती है। उदाहरण के लिए, जब तुम कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और प्रकट होता है; और अगर तुम कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते रहते हैं। जब तुम किसी वास्तविक स्थिति के बारे में पूछते हो तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकाल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि अपने शब्दों को तुम्हारे विचारों के अनुरूप ढाल सकें। वे जो कुछ भी कहते हैं वे सिर्फ सुनने में अच्छे लगने वाले शब्द होते हैं, चापलूसी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुँह से एक भी ईमानदार शब्द नहीं निकलता। वे इसी तरह लोगों के साथ बातचीत करते हैं और परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं—वे इतने धूर्त होते हैं। यही एक मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो))। “मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं वह मिलावटी होता है, उसमें उनके इरादे और मकसद शामिल होते हैं और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी घृणित और अकथनीय चालें और षड्यंत्र। इसलिए मसीह-विरोधियों के शब्द और क्रियाकलाप अत्यधिक दूषित और झूठ से भरे होते हैं। चाहे वे कितना भी बोलें, यह जानना असंभव होता है कि उनकी कौन सी बात सच्ची है और कौन सी झूठी, कौन सी सही है और कौन सी गलत। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे बेईमान होते हैं और उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, कपटी साजिशों से भरे और चालों से ओतप्रोत होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय वे सभी मामलों में गोलमोल बातें करते हैं और चीजों के बारे में अपने दिमाग में कई बार सोचते हैं, परिणामों के बारे में सोच-विचार करते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे भाषा का उपयोग करके बदल देते हैं, जिससे वे जो कुछ कहते हैं वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, जो भी ऐसे लोगों से बोलता और बात करता है उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है और उनके क्रियाकलापों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। अगर सच बाहर आ जाता है—अगर दूसरे लोग उनकी असलियत जान जाते हैं और उन्हें समझ लेते हैं—तो वे इससे निपटने के लिए तुरंत एक और झूठ गढ़ लेते हैं। ... जिस सिद्धांत और तरीके से ये लोग आचरण करते हैं और दुनिया से निपटते हैं, वह झूठ बोलकर लोगों को बरगलाना है। वे दोमुँहे होते हैं और अपने श्रोताओं के अनुरूप बोलते हैं; स्थिति जिस भी भूमिका की माँग करती है, वे उसे निभाते हैं। वे मधुरभाषी और चालाक होते हैं, उनके मुँह झूठ से भरे होते हैं और वे भरोसे के लायक नहीं होते। जो भी कुछ समय के लिए उनके संपर्क में आता है, वह गुमराह या परेशान हो जाता है और उसे पोषण, सहायता या सीख नहीं मिल पाती(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी बहुत धोखेबाज और दुष्ट हैं, वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसमें दूसरों की प्रतिक्रियाओं पर लगातार नजर रखते हैं, वे लहजे पर पूरा ध्यान देते हैं और छिपे हुए अर्थों की जाँच करते हैं और वे स्थिति के अनुसार अपने व्यवहार को समायोजित करते हैं। वे वही कहते और करते हैं जो उनके लिए फायदेमंद होता है और उनका स्वभाव धूर्त और धोखेबाज होता है, जिसमें कोई विश्वसनीयता नहीं होती। जब मैंने वांग क्यू का मूल्यांकन लिखते समय अपने व्यवहार पर चिंतन किया तो मैंने पाया कि मेरा स्वभाव बिल्कुल किसी मसीह-विरोधी जैसा था। मूल्यांकन लिखने से पहले मैंने अगुआओं के इरादों के बारे में अनुमान लगाया और यह अंदाजा लगाते हुए कि अगुआ उसे तरक्की देना चाहते हैं, मैंने सिर्फ सकारात्मक बातें लिखीं। जब अगुआओं ने मुझसे पूछा कि क्या वांग क्यू ने लोगों को बेबस किया है या उनकी आलोचना की है, मुझे चिंता हुई कि अगर मैंने सच लिख दिया तो पहले मूल्यांकन में मैंने जो झूठ बोला था, वह उजागर हो जाएगा और इस डर से कि अगुआ मुझ पर धोखेबाजी का आरोप लगाएँगे, मैंने यह कहने के बारे में सोचा कि मैं उनके बारे में नहीं जानती, लेकिन मुझे यह भी डर था कि अगर मैंने इन चीजों के बारे में नहीं लिखा तो अगुआ कहेंगे कि मुझमें भेद पहचानने की कमी है। अगुआओं की नजर में अच्छी छवि बनाए रखने के लिए मैंने खुद को साजिश रचने और धोखेबाजी करने में थका दिया, मेरे दिल में ईमानदारी का एक भी अंश नहीं था। अंतरात्मा और मानवता वाला व्यक्ति परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय से मूल्यांकन लिखने के लिए आगे आएगा और सच्चाई से चीजें लिखेगा। लेकिन अपने आत्मसम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए मेरे विचार अत्यधिक जटिल हो गए और मैंने जो कुछ भी कहा और किया वह मेरे व्यक्तिगत इरादों और लक्ष्यों के इर्द-गिर्द घूमता रहा। मैंने शैतान के आचरण के इस सिद्धांत का पालन किया, “लोगों को वही बताओ जो वे सुनना चाहते हैं,” मैंन लोगों के हाव-भाव तौलती रही, चिकनी-चुपड़ी बातें करती रही, अपनी आँखें खोलकर झूठ बोलती रही और धोखेबाजी करती रही। मैं सच में बहुत धूर्त और धोखेबाज थी और पूरी तरह से अविश्वसनीय थी। मैंने सिर्फ अपने बारे में सोचा और कलीसिया के कार्य को अनदेखा कर दिया। मैंने इस बात पर विचार नहीं किया कि कैसे किसी ऐसे व्यक्ति को तरक्की देना जिसे पदोन्नत नहीं किया जाना चाहिए, कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को कितना ज्यादा नुकसान पहुँचाएगा। मैं सच में स्वार्थी थी! इसका एहसास होने पर मेरी अंतरात्मा ने मेरी निंदा की, मुझे अपराध बोध और पछतावा हुआ। मैं परमेश्वर से पश्चात्ताप करने और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “जब मैं कहता हूँ ‘परमेश्वर के मार्ग पर चलना,’ तो ‘परमेश्वर के मार्ग’ का क्या अर्थ है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, ‘उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?’ और तुम उत्तर देते हो, ‘वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।’ लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि ‘मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,’ इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य है, यह वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं उन सिद्धांतों को समझ गई जिनमें मुझे मूल्यांकन लिखते समय प्रवेश करना चाहिए। किसी का मूल्यांकन करते समय मूल्यांकन तथ्यों पर आधारित होना चाहिए, न कि उसकी खूबियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाना चाहिए या उसकी कमजोरियों को छिपाया जाना चाहिए। यह सटीक और वस्तुनिष्ठ होना चाहिए और इसमें हमें उतना ही लिखना चाहिए, जितना हम जानते हैं। मूल्यांकन एक विश्वसनीय संदर्भ के रूप में काम आना चाहिए और भरोसेमंद होना चाहिए। इसके अलावा चाहे किसी को तरक्की देनी हो, विकसित करना हो या बरखास्त करना हो, मूल्यांकन सिद्धांतों और तथ्यों के आधार पर लिखा जाना चाहिए, इसमें प्रत्येक व्यक्ति की खूबियों और कमजोरियों दोनों को निष्पक्ष रूप से दर्शाया जाना चाहिए। एक निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को लोगों को उचित रूप से व्यवस्थित करने और सँभालने में मदद कर सकता है, जिससे जिन लोगों को पदोन्नत और विकसित किया जा सकता है, उन्हें तुरंत प्रशिक्षित करने के लिए उचित भूमिकाओं में व्यवस्थित किया जा सकता है, और जिन लोगों को बरखास्त करने या कलीसिया से बाहर निकालने की जरूरत है, उनके साथ तुरंत निपटा जा सकता है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी अच्छे व्यक्ति के साथ अन्याय न हो और किसी बुरे व्यक्ति को नजरअंदाज न किया जाए। अगर गलत मूल्यांकन के कारण कोई बुरा व्यक्ति या मसीह-विरोधी कलीसिया में बना रहता है तो यह कलीसियाई जीवन व्यवस्था को प्रभावित करेगा और कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त करेगा, जो एक बुरा कर्म है। यह एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया, “परमेश्वर, तुम्हारे प्रकाशन के माध्यम से मैं अपने अंदर धूर्त और धोखेबाज शैतानी स्वभाव देखती हूँ। अपना आत्मसम्मान और रुतबा कायम रखने के लिए मैंने तुम्हें और अगुआओं दोनों को धोखा देने की कोशिश की, कलीसिया के हिताें की उपेक्षा की। मैं शापित होने के लायक हूँ। परमेश्वर, तुमने मेरे साथ मेरे अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं किया, बल्कि मुझे पश्चात्ताप करने का मौका दिया और मैं पश्चात्ताप करने और बदलने के लिए तैयार हूँ। जब फिर से मूल्यांकन लिखने की बात आती है, मैं परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के साथ सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के लिए तैयार हूँ और मैं तथ्यों के आधार पर सारी जानकारी उपलब्ध कराऊँगी।”

बाद में अगुआओं ने मुझे मूल्यांकन के लिए कुछ और नाम भेजे। मैंने देखा कि ये वे लोग हैं जिन्हें अगुआ अन्य स्थानों पर कर्तव्यों के लिए अनुशंसित करना चाहते हैं और मुझे फिर से कुछ चिंताएँ हुईं, “ये वे लोग हैं जिन्हें अगुआ अनुकूल दृष्टि से देखते हैं, इसलिए अगर मैं जो जानती हूँ वह और अपनी राय लिखती हूँ और वह अगुआओं के विचारों से भिन्न हुई तो अगुआ मुझे कैसे देखेंगे? क्या वे कहेंगे कि मुझमें भेद पहचानने की कमी है? शायद मुझे सिर्फ उनकी खूबियों का उल्लेख करना चाहिए और उनकी कमजोरियों को अनदेखा करना चाहिए। मैं बस इतना कह सकती हूँ कि मैं उन्हें अच्छी तरह से नहीं जानती और ऐसा कुछ लिखने से बच सकती हूँ जो अगुआओं के विचारों के अनुरूप न हो और जिससे मेरे बारे में उनकी नकारात्मक राय न बने।” उस पल मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने आत्मसम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए फिर से धोखेबाज बनने की कोशिश कर रही हूँ, इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि वह मेरी गलत मनोदशा सुधारने में मेरा मार्गदर्शन करे और एक ईमानदार व्यक्ति होने और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने के सिद्धांतों में प्रवेश करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करे। फिर मैंने वह सब विस्तार से लिख दिया जो मैं इन लोगों के बारे में समझती थी। मैं जितना जानती थी उतना लिखा। ऐसा करने से मुझे मानसिक शांति मिली।

मूल्यांकन लिखने के माध्यम से मैंने अपने अंदर के धूर्त और धोखेबाज शैतानी स्वभाव को स्पष्ट देखा और मुझे यह भी एहसास हुआ कि आत्मसम्मान और रुतबे के लिए जीना वाकई थकाऊ और दर्दनाक है, ईमानदार होने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार सच बोलने का अभ्यास करने से सहजता और खुशी मिलती है। इस परिवर्तन के लिए मेरा मार्गदर्शन करने के लिए मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ!

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2. शुद्धिकरण का मार्ग

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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