89. बीमारी से संघर्ष पर चिंतन

चेन जी, चीन

अंत के दिनों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद से चाहे धूप हो या बारिश, मैं बिना देरी किए हमेशा सुसमाचार का प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए उत्साहित रहा हूँ। बाद में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और जब भी मैंने भाई-बहनों को समस्याओं या कठिनाइयों में देखा तो मैंने उन्हें सुलझाने में मदद करने की पूरी कोशिश की। वीडियो कार्य का जिम्मा संभालने के बाद मैंने कार्य का जायजा लेते और मार्गदर्शन करते हुए नियमित समय से ज्यादा काम किया। प्रगति धीमी होने या काम में कोई भटकाव होने पर मैंने तुरंत संगति कर उनका समाधान किया। कुछ समय बाद मैंने देखा कि भाई-बहनों के कौशल में सुधार हुआ है और वीडियो कार्य में कुछ प्रगति देखी गई है। मुझे काफी खुशी महसूस हुई और मैंने सोचा, “अगर मैं ऐसे ही कठिनाइयाँ सहकर और कीमत चुकाते हुए अपने कर्तव्य से कुछ नतीजे प्राप्त करता रहा तो मुझे भविष्य में निश्चित रूप से परमेश्वर से स्वीकृति प्राप्त होगी और मेरी उद्धार पाने की उम्मीद ज्यादा होगी।” लेकिन जब मैं पूरी तरह से अपने कर्तव्य में व्यस्त था तब एक दिन मुझे बहुत थकान महसूस हुई और भूख भी नहीं लगी, मगर मैंने यह सोचकर इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि शायद ऐसा सिर्फ इसलिए था क्योंकि मैं कुछ समय से ठीक से आराम नहीं कर पाया था और मैंने मान लिया कि यह कोई गंभीर समस्या नहीं होगी। लेकिन मेरी भूख लगातार कम होती गई और मेरा चेहरा मुरझाया सा दिखने लगा। मेरा सहयोग कर रहे भाई गुआन मिंग ने मुझे जाँच के लिए अस्पताल जाने की सलाह दी। मुझे आश्चर्य हुआ जब डॉक्टर ने कहा कि मुझे हेपेटाइटिस बी है और मेरे लीवर में एक छोटी सी सख्त गांठ है और अगर यह लगातार बिगड़ता रहा तो यह लीवर कैंसर में बदल सकता है। मेरा सिर चकराने लगा, “यह नहीं हो सकता! मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ; मुझे ऐसी बीमारी कैसे हो सकती है? इस बीमारी का इलाज आसान नहीं है ...” ऐसा लगा जैसे कोई पत्थर मेरी छाती को दबाए जा रहा हो और मेरा हृदय दर्द और कमजोरी से भर गया। मैंने सोचा कि कैसे इतने सालों मैंने अपने परिवार और करियर को त्याग कर कष्ट सहे और खुद को खपाया। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पीछा किए और प्रताड़ित किए जाने पर भी मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया। तो परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? अपने कष्ट में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन याद आया : “बीमारी का आना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसकी सदिच्छा निहित होती है। भले ही तुम्हारे शरीर को थोड़ी पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, अपनी खोज निरंतर जारी रखो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें रोशन और प्रबुद्ध करेगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। परमेश्वर के वचनों से मेरे दिल को कुछ शांति मिली। हाँ, यह बीमारी बढ़ेगी या नहीं यह परमेश्वर के हाथ में है और भले ही मैं इस वक्त परमेश्वर के इरादों को समझ नहीं पा रहा था, पर मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकता था। मुझे उसके इरादों को खोजना, अपने कर्तव्य पर कायम और अपनी गवाही में अडिग रहना था। यह सोचकर मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ।

आगे वीडियो कार्य की व्यस्तता को देखते हुए अगुआओं को चिंता थी कि मेरा शरीर इसे सँभाल नहीं पाएगा, इसलिए उन्होंने भाई ली चेंग और मेरे लिए सुसमाचार प्रचार में सहयोग करने की व्यवस्था की। इलाज के दौरान भी मैं अपना कर्तव्य निभाने में डटा रहा और अपने काम में कठिनाइयों से सामना होने पर हम संगति करते और उन्हें हल करने के लिए प्रासंगिक सत्य की खोज करते। हालाँकि मैंने कुछ शारीरिक कठिनाइयाँ सहन कीं और कुछ कीमत भी चुकाई, पर ज्यादा से ज्यादा लोगों को अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारते देख मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने सोचा, “जब तक मैं अपने कर्तव्य पर कायम रहूँगा और ज्यादा कठिनाइयाँ सहता हुआ ज्यादा कीमत चुकाता रहूँगा, तब तक शायद परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मेरी हालत सुधर जाएगी।” लेकिन कुछ समय बाद मुझे लगा कि मेरी हालत खराब हो रही है। मुझे हर रोज थकान और शरीर में कमजोरी महसूस होने लगी और मेरी भूख पहले से भी ज्यादा कम हो गई तो मैं दोबारा चेक-अप के लिए गया। डॉक्टर ने कहा कि मेरा हेपेटाइटिस बी और बिगड़ गया है और मुझे इलाज के लिए तुरंत अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत है; वरना यह बढ़ता रहेगा और इलाज करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी मेरा पीछा करने में लगी हुई थी, इसलिए अस्पताल में भर्ती होने से मेरी पहचान उजागर हो जाती और मैं खतरे में पड़ जाता, इसलिए मुझे दवा और इंट्रावेनस उपचार पर निर्भर रहना पड़ा, लेकिन मेरी हालत में फिर भी ज्यादा सुधार नहीं हुआ। समय के साथ मैं काफी कमजोर हो गया और मैंने सोचा, “यह हेपेटाइटिस बी पहले भी कई बार बढ़ चुका है; अगर यह और बिगड़ कर सिरोसिस या लिवर कैंसर में बदल गया तो मेरा जीवन किसी भी समय खतरे में पड़ सकता है। अगर मैं इस तरह मर गया तो क्या मैं तब भी बचाया जा सकूँगा? निश्चय ही परमेश्वर में आस्था का मेरा जीवन इस तरह समाप्त नहीं हो सकता?” यह सोचते ही मुझे कमजोरी महसूस हुई और मेरा पूरा शरीर ढीला पड़ गया और मैं पूरी तरह से उलझन और शिकायत से भर गया : “जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया है, मैं अपने कर्तव्य और सुसमाचार का प्रचार करने में उत्साही रहा हूँ। चाहे हवा हो या बारिश, चिलचिलाती गर्मी हो या कड़कड़ाती ठंड और कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पीछा किए और सताए जाने और घर लौटने में असमर्थ होने के बावजूद मैंने अपने कर्तव्य में कभी देरी नहीं की। बीमारी के इन वर्षों के दौरान भी, मैं हर वक्त अपना कर्तव्य निभाने के लिए डटा रहा, कभी भी हार नहीं मानी और भले ही मैंने कोई योग्यता हासिल नहीं की, लेकिन मैंने कष्ट उठाया और मेहनत की है। फिर क्यों मेरी बीमारी में सुधार आने के बजाय यह वास्तव में बदतर हो गई है?” मैंने भाई-बहनों को अच्छे स्वास्थ्य में और सक्रिय रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करते देखा, जबकि मैं एक गंभीर बीमारी से पीड़ित हूँ। जितना ज्यादा मैंने इसके बारे में सोचा उतना ही ज्यादा मुझे शिकायत की भावना महसूस हुई; बमुश्किल अपने आँसू रोककर मैं मेजबान के घर लौट आया। मुझे अपना कर्तव्य निभाने की कोई प्रेरणा न होने के साथ ही वास्तव में दुख और नकारात्मकता महसूस हुई। इस समय भाई ली चेंग ने मुझे याद दिलाया, “जब बीमारी से सामना हो तो हमें परमेश्वर के इरादों को खोजना चाहिए और उसे गलत नहीं समझना चाहिए या उसके खिलाफ शिकायत नहीं करनी चाहिए।” भाई ली चेंग के शब्दों ने मुझे शांत होने में मदद की। जो कुछ भी होता है उसकी इजाजत परमेश्वर देता है और मुझे सत्य खोजने और आत्म-चिंतन के लिए समर्पण करने से शुरुआत करनी थी। इसलिए मैंने यह आशा करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की और मदद माँगी कि वह मुझे अपने इरादों को समझने में मेरी अगुआई करेगा।

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने से शांति और आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए और अगर वे मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो उन्हें सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की जरूरत है और परमेश्वर उन पर ध्यान देगा, उन्हें अनुग्रह और आशीषें देगा और यह सुनिश्चित करेगा कि उनके लिए सब कुछ शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चले। परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका उद्देश्य अनुग्रह माँगना, आशीषें प्राप्त करना और शांति और खुशी का आनंद लेना है। इन दृष्टिकोणों के कारण ही वे परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों का त्याग कर देते हैं या अपनी नौकरी छोड़ देते हैं और कष्ट सहन कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं। उनका मानना है कि जब तक वे चीजों का त्याग करेंगे, परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँगे, कष्ट सहन करेंगे और लगन से कार्य करेंगे, असाधारण व्यवहार प्रदर्शित करेंगे, तब तक वे परमेश्वर के आशीष और अनुग्रह प्राप्त करेंगे और कि चाहे वे कैसी भी मुश्किलों का सामना क्यों न करें, जब तक वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, वह उन्हें सुलझाएगा और हर चीज में उनके लिए एक मार्ग खोल देगा। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले अधिकांश लोगों का यही नजरिया होता है। लोगों को लगता है कि यह नजरिया जायज और सही है। कई लोगों की वर्षों तक बिना अपनी आस्था छोड़े परमेश्वर में अपनी आस्था बनाए रखने की क्षमता सीधे इस नजरिये से संबंधित है। वे सोचते हैं, ‘मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ खपाया है, मेरा व्यवहार इतना अच्छा रहा है और मैंने कोई बुरे कर्म नहीं किए हैं; परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा। चूँकि मैंने बहुत कष्ट सहे हैं और हर कार्य के लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, बिना कोई गलती किए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार सब कुछ किया है, इसलिए परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए; उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मेरे लिए सब कुछ सुचारू रूप से चले और यह कि मैं अक्सर अपने दिल में शांति और खुशी का अनुभव करूँ और परमेश्वर की मौजूदगी का आनंद लूँ।’ क्या यह एक मानवीय धारणा और कल्पना नहीं है? मानवीय परिप्रेक्ष्य से देखें, तो लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं और फायदे प्राप्त करते हैं, इसलिए इसके लिए थोड़ा कष्ट सहना समझ में आता है और इस कष्ट के बदले में परमेश्वर की आशीषें प्राप्त करना सार्थक है। यह परमेश्वर के साथ सौदा करने की मानसिकता है। लेकिन सत्य के परिप्रेक्ष्य से और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से यह मूल रूप से न तो परमेश्वर के कार्य के सिद्धांतों के और न ही उन मानकों के अनुरूप है जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। यह पूरी तरह से ख्याली पुलाव है, परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में सिर्फ एक मानवीय धारणा और कल्पना है। चाहे इसमें परमेश्वर से सौदे करना या उससे चीजों की माँग करना शामिल हो या नहीं हो, या इसमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ शामिल हों या नहीं हों, किसी भी हालत में इनमें से कुछ भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, न ही यह लोगों को आशीष देने के लिए परमेश्वर के सिद्धांतों और मानकों को पूरा करता है। खास तौर से यह लेन-देन वाला विचार और नजरिया परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है, लेकिन लोगों को इसका एहसास नहीं होता है। जब परमेश्वर जो करता है वह लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, तो जल्द ही उनके दिलों में उसके बारे में शिकायतें और गलतफहमियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और फिर वे परमेश्वर से बहस करना शुरू कर देते हैं और यहाँ तक कि वे उसकी आलोचना और निंदा भी कर सकते हैं। ... जब परमेश्वर लोगों के लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के पूरी तरह विपरीत होता है, तो वे अपने दिलों में परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ, राय और निंदाएँ बना लेते हैं और यहाँ तक कि उसे अस्वीकार भी कर सकते हैं। फिर क्या परमेश्वर उनकी जरूरतों को पूरा कर सकता है? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर कभी भी मानवीय धारणाओं के अनुसार अपने कार्य करने के तरीके और अपनी इच्छाओं को नहीं बदलेगा। तो फिर किसे बदलने की जरूरत है? लोगों को बदलने की जरूरत है। लोगों को अपनी धारणाएँ छोड़ देनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश स्वीकारने चाहिए, उनके प्रति समर्पण करना चाहिए और उनका अनुभव करना चाहिए और अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, न कि परमेश्वर जो करता है उसे अपनी धारणाओं की कसौटी पर मापना चाहिए ताकि देख सकें कि क्या वह सही है। जब लोग अपनी धारणाओं से जकड़े रहते हैं, तो उनमें परमेश्वर के खिलाफ प्रतिरोध उत्पन्न होता है—यह स्वाभाविक रूप से होता है। प्रतिरोध की जड़ें कहाँ होती हैं? यह इस तथ्य में निहित है कि आम तौर पर लोगों के दिलों में जो कुछ होता है, वह निस्संदेह उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, सत्य नहीं होता है। इसलिए जब लोग देखते हैं कि परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो वे परमेश्वर की अवहेलना कर सकते हैं और उसके खिलाफ राय बना सकते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16))। “उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। ... उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के न्याय के वचनों ने उस पर मेरी आस्था के पीछे छिपे गलत इरादों और दृष्टिकोण को विस्तार से उजागर कर दिया जिससे मुझे अपमान और शर्मिंदगी महसूस हुई। मेरा हमेशा से मानना था कि ज्यादा कीमत चुकाकर और खुद को ज्यादा खपाकर मैं परमेश्वर की सुरक्षा और आशीष प्राप्त करने में सक्षम हो जाऊँगा और मेरी उद्धार प्राप्त करने की उम्मीद ज्यादा होगी। जब मुझे अचानक हेपेटाइटिस बी होने का पता चला तो मेरे दिल में परमेश्वर के प्रति यह सोच कर शिकायतें पैदा हो गईं कि इतने वर्षों तक मैंने उसके लिए कष्ट उठाया और खुद को खपाया है, इसलिए परमेश्वर को मुझे इतनी गंभीर बीमारी से पीड़ित नहीं होने देना चाहिए था। भले ही आखिरकार मैंने समर्पण किया पर फिर भी मैंने सोचा कि अगर मैं अपने कर्तव्य पर कायम रहूँगा और ज्यादा कठिनाइयाँ सहता हुआ और भी ज्यादा कीमत चुकाता रहूँगा तो शायद परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मेरी हालत सुधर जाएगी। लेकिन जब मेरी हालत बहुत खराब हो गई और मुझे कैंसर होने और मेरे मरने तक की नौबत आ गई तो मुझे लगा कि आशीष प्राप्त करने की मेरी इच्छा ध्वस्त हो गई। इसलिए मैं नकारात्मक हो गया और मुझमें गलतफहमी पैदा हो गई, मैंने मन ही मन यह मानते हुए परमेश्वर से बहस की कि भले ही मुझमें कोई गुण नहीं थे फिर भी मैंने कष्ट उठाया और मेहनत की और परमेश्वर को मेरे साथ इस तरह से पेश नहीं आना चाहिए; मैंने मेरी रक्षा न करने के लिए भी परमेश्वर से शिकायत की। तथ्यों के खुलासे में, मैंने देखा कि मेरे प्रयास और खुद को खपाना एक घिनौने इरादे से प्रेरित थे, इसमें मैं एक अच्छा भविष्य और मंजिल पाने के बदले में अपनी कड़ी मेहनत, त्याग और खुद को खपाने को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करना चाहता था, जो परमेश्वर के साथ लेन-देन करने जैसा था। जैसे ही मैं आशीष पाने में असफल हुआ, मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उसके खिलाफ शिकायत की। मैं जो प्रकट कर रहा था वह सब मेरा शैतानी स्वभाव था। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और वह चाहे जैसे भी चीजों को आयोजित और व्यवस्थित करे, मेरे पास उससे माँग करने की कोई वजह नहीं है और मुझे उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। लेकिन मैं लगातार चाहता रहा कि परमेश्वर मेरी धारणाओं के अनुसार कार्य करे और जब चीजें मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं हुईं तो मैंने उससे बहस की। मैंने परमेश्वर के वचनों से भरपूर सिंचन और पोषण का खुलकर आनंद लिया था, फिर भी मैंने परमेश्वर के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाया, बल्कि मैंने उसे गलत समझा और उसके खिलाफ शिकायत की। मैं परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने वाला व्यक्ति कैसे हो सकता था?

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मुझे परमेश्वर के साथ अपने लेन-देन की वजह की कुछ समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैं समझ गया कि क्योंकि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” के शैतानी विचार मेरे दिल में जड़ें जमा चुके थे और मेरे अस्तित्व की नींव बन गए थे, इसलिए मैंने जो कुछ भी किया वह मेरे ही फायदे के लिए था। यहाँ तक कि मेरे त्याग और खुद को खपाना भी आशीष प्राप्त करने और आपदा आने पर मृत्यु से सुरक्षित रहने के लिए थे। अपना कर्तव्य निभाने के इन वर्षों में चाहे मैंने कितनी भी शारीरिक कठिनाइयाँ सहन की हों या मुझे कितनी भी कीमत चुकानी पड़ी हो, जब तक मुझे विश्वास था कि इससे मुझे आशीष और उद्धार पाने के संदर्भ में लाभ होगा तब तक मैं कितना भी कष्ट सहने को तैयार था। लेकिन जैसे ही मेरी बीमारी बिगड़ी और आशीष प्राप्त करने की इच्छा ध्वस्त हुई, वैसे ही कर्तव्य निभाने की मेरी प्रेरणा खत्म हो गई और यहाँ तक कि मैंने अपने दिल में परमेश्वर से बहस और शिकायत भी की। जो कुछ भी मैंने किया उसमें व्यक्तिगत लाभ को सबसे ऊपर रख कर अपने कर्तव्य को पुरस्कार और आशीष के बदले सौदेबाजी की वस्तु की तरह माना और यहाँ तक सोचा कि यह पूरी तरह उचित है। ऐसे शैतानी जहर के सहारे जीते हुए मैंने अपना जमीर और विवेक खो दिया और परमेश्वर के खिलाफ शिकायत और विद्रोह किया। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया तो देर-सबेर परमेश्वर मुझे ठुकराकर हटा देगा। इस विचार ने मुझे डर और पछतावे से भर दिया। मेरे जैसा स्वार्थी, घिनौना और अपरिवर्तित स्वभाव वाला व्यक्ति अभी भी आशीष प्राप्त करने की भ्रामक उम्मीद में था। कितनी बेशर्मी की बात है! परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। चाहे कोई कितना भी काम करे, कितनी भी कठिनाई सहे या कीमत चुकाए, अगर स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है तो यह सब व्यर्थ है। परमेश्वर किसी अपवाद स्वरूप हमें अपने राज्य में सिर्फ इसलिए नहीं लाएगा क्योंकि हमने ज्यादा कठिनाइयों का सामना किया है। परमेश्वर कहता है : “तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए तैयार रहते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर लोगों को इस आधार पर नहीं आँकता कि वे प्रत्यक्ष रूप से खुद को कितना खपाते या कष्ट सहते हैं, बल्कि इस आधार पर आँकता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं, क्या उन्होंने सत्य प्राप्त किया और क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव बदल गया है। भले ही मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा था, लेकिन मेरा ध्यान केवल मेहनत और काम करने पर था और मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा था, मेरा भ्रष्ट स्वभाव बदला नहीं था और फिर भी मैंने आशीष पाने के लिए परमेश्वर से मोलभाव करने की कोशिश की। मेरे जैसा स्वार्थी और घिनौना व्यक्ति उद्धार प्राप्त करने के योग्य कैसे हो सकता है? मैंने पौलुस के बारे में सोचा। उसने सुसमाचार का प्रचार किया, बहुत काम किया और बहुत कष्ट सहे, लेकिन उसका कष्ट और मेहनत न तो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए थी न ही एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए, बल्कि आशीष और मुकुट पाने के लिए थी। जैसे कि उसने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। उसका मतलब यह था कि अगर परमेश्वर ने उसे कोई मुकुट या पुरस्कार नहीं दिया तो इसका मतलब है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यह परमेश्वर से मुकुट की खुली माँग थी जो उसे मजबूर करने का एक प्रयास था। भले ही पौलुस ने परिश्रम किया, कष्ट सहा और खुद को खपाया, पर उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया, केवल आशीष माँगी और परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चला। आखिरकार परमेश्वर ने उसे दंडित किया। अगर मैं पौलुस के मार्ग पर चलता रहा तो अंत में परमेश्वर मुझे भी हटा देगा। मैं अब परमेश्वर से न तो कोई माँग या अनुरोध कर सकता था न ही स्वार्थी और घृणित ढंग से खुद के लिए जी सकता था। चाहे मेरी स्थिति कैसी भी हो मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हो गया।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे एक मार्ग प्रदान किया। परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गया कि अपना कर्तव्य निभाने का आशीष प्राप्त करने या दुर्भाग्य सहने से कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर ने मुझे जीवन और वह सब कुछ दिया जो मेरे पास है और एक विश्वासी के रूप में खुद को परमेश्वर के लिए खपाना स्वाभाविक और सही है। यही वह जिम्मेदारी और कर्तव्य है जिसे एक व्यक्ति को निभाना चाहिए और यह वही है जो ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिसमें थोड़ा जमीर और विवेक हो। मुझे खुद को खपाए जाने का उपयोग परमेश्वर से आशीष की माँग करने के लिए सौदेबाजी के साधन के रूप में नहीं करना चाहिए, न ही मुझे अपनी गंभीर बीमारी के लिए परमेश्वर से शिकायत करनी चाहिए। ठीक अय्यूब की तरह, जिसने इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर ने उसे चीजें प्रदान कीं या उनसे वंचित किया, यहाँ तक कि सब कुछ खो देने और घावों से पीड़ित होने के बावजूद भी उसने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं की या उससे अपना कष्ट कम करने के लिए नहीं कहा, बल्कि उसने परमेश्वर के नाम की प्रशंसा की और उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहा। अय्यूब के अनुभव पर विचार करते हुए मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। चाहे मेरी बीमारी कितने समय तक बनी रहे या कितनी भी गंभीर हो जाए, भले ही मेरी जान खतरे में पड़ जाए, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए और उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहना चाहिए। मुझमे ऐसा ही जमीर और विवेक होना चाहिए। बाद में जब भी मेरे मन में आशीष पाने के विचार आए, मैंने उन इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की और मैंने हर रोज परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित किया और ऐसा करने से मेरे दिल को बहुत ज्यादा सुकून मिला।

बाद में दवा के माध्यम से मेरी हालत में धीरे-धीरे सुधार हुआ और मैं बहुत खुश था। लेकिन कुछ समय बाद, मुझे फिर से थकान और कमजोरी महसूस हुई, तो मैं जाँच के लिए अस्पताल गया। डॉक्टर ने कहा कि मेरे शरीर में हेपेटाइटिस बी वायरस का स्तर बढ़कर 10 करोड़ से ज्यादा हो गया है और लीवर की कार्यप्रणाली के कई अन्य संकेतक भी बढ़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि अगर यह बढ़ता रहा तो इससे समस्या हो सकती है। यह सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया और चिंतित होकर सोचने लगा, “यह बीमारी पलट कर कई बार आ चुकी है; क्या यह सचमुच बिगड़ कर कैंसर में बदल सकती है? क्या मेरी बीमारी कभी ठीक होगी?” इन विचारों ने मुझे थोड़ा उदास कर दिया। तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तुम्हें अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या माँगें नहीं करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु के प्रति समर्पण करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर कोई स्वाभाविक प्रभुत्व नहीं है, और तुममें स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। ... सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश करनी चाहिए और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढ़ने चाहिए या वह नहीं ढूँढ़ना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं परमेश्वर के इरादों को समझ गया और मुझे एहसास हुआ कि जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथ में है। मैं अब परमेश्वर से अनुचित माँगें नहीं कर सकता और चाहे मेरी बीमारी बिगड़ती क्यों न जाए, भले ही इसका मतलब मरना हो या कोई अंतिम परिणाम या मंजिल प्राप्त न करना हो, मैं फिर भी परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगा। इसे ध्यान में रखते हुए मैं अब अपनी बीमारी की दशा से बेबस नहीं था, हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभाता रहा और काफी मुक्त महसूस किया। बाद में मैंने पारम्परिक चीनी दवाएँ जारी रखीं और मुझे लगा कि हालत में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। अंतिम जाँच के बाद लीवर की कार्यप्रणाली के कई संकेतक काफी हद तक सामान्य हो गए थे।

इस बीमारी से हुए खुलासे के इस अनुभव से भले ही मुझे थोड़ा कष्ट हुआ, मगर मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ। इस परिवेश के बिना मैं खुद को जान नहीं पाता और यह सोचता रहता कि मैं ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपा रहा हूँ। लेकिन अब मैं परमेश्वर में विश्वास के माध्यम से आशीष प्राप्त करने के अपने गलत विचारों को स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ और मुझे अपने स्वार्थी, घिनौने और लाभ से प्रेरित शैतानी स्वभाव की कुछ समझ प्राप्त हुई है। इस बीमारी का सामना करके मुझे ये लाभ प्राप्त हुए।

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