1. मैंने अपने कर्तव्य से सही से पेश आना सीख लिया

लियु कियांग, चीन

मेरा जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था और बचपन से ही, मैंने हमेशा अपनी माँ को खाना बनाते और साफ-सफाई करते देखा और मैंने अपने पिता को कभी खाना बनाते या कोई घर का काम करते नहीं देखा। मेरे नानाजी भी ऐसे ही थे। कभी-कभी जब मेरी नानी दिन भर घर पर नहीं होती थीं, तो मेरे नानाजी भूखे रहना पसंद करते थे लेकिन खाना नहीं बनाते थे, क्योंकि उनका मानना था कि खाना बनाना महिलाओं का काम है। मैंने देखा कि ज्यादातर परिवारों में पुरुष बाहर काम करते थे और महिलाएँ घर का काम सँभालती थीं : महिलाएँ घर पर खाना बनाती थीं, जबकि पुरुष बाहर काम में व्यस्त रहते थे। शादी के बाद, मेरी पत्नी ने स्वाभाविक रूप से घर के सारे काम सँभाल लिए। कभी-कभी वह मुझसे कुछ घर का काम करने को कहती, लेकिन मैं हमेशा अनिच्छुक और अनमना रहता था। मैं हमेशा सोचता था कि खाना बनाना और घर का काम करना महिलाओं का काम है।

2020 की गर्मियों में, अगुआ ने मुझसे कहा कि एक टीम को मेजबानों की तत्काल आवश्यकता है और पूछा कि क्या मैं जाकर मेजबानी करने को तैयार हूँ। मैंने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन मन ही मन सोचा, “मैंने कभी मेजबानी का कर्तव्य नहीं किया है और मुझे खाना बनाना भी नहीं आता।” लेकिन लोगों की तत्काल आवश्यकता को देखते हुए, मैं फिर भी सहमत हो गया। मेजबानी का कर्तव्य करते समय, मैं हर दिन धुलाई और सफाई करते हुए रसोई के आसपास बिताता था, मन ही मन सोचता था, “यह बहनों का कर्तव्य है; मुझसे यह क्यों करवाया जा रहा है? और फिर, एक वयस्क आदमी अक्सर बाजार जाकर सब्जियाँ खरीदे और कभी-कभी सब्जीवालों से मोल-भाव भी करे, यह कितनी शर्मिंदगी की बात है!” हर बार जब मैं सब्जियाँ खरीदने बाजार जाता तो मुझे चिंता होती, क्योंकि मुझे डर था कि दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे। मैं हमेशा जल्दी से अंदर जाता और जल्दी से बाहर आ जाता, ज्यादा देर रुकना नहीं चाहता था। कभी-कभी कुछ भाई कहते कि सब्जियाँ बहुत नमकीन या फीकी हैं, तो मुझे शर्मिंदगी महसूस होती और मैं मन ही मन तर्क करता, “घर पर, हमेशा मेरी पत्नी घर का काम करती और खाना बनाती है, मैं नहीं! इसके अलावा, मैं एक पुरुष हूँ, और ये महिलाओं के काम हैं, इसलिए यह सामान्य है कि मैं इनमें अच्छा नहीं हूँ। तुम लोग मेरे नजरिए से चीजों को क्यों नहीं देखते?” न चाहते हुए भी मेरे मन में थोड़ी कड़वाहट आ गई, सोचता था कि यह कर्तव्य कब खत्म होगा। मैं अक्सर भाइयों को काम के बारे में बातें करते और हँसते हुए देखता था, लेकिन मैं खुश हो ही नहीं पाता था। ऐसा लगता था जैसे मैंने अपनी पीठ पर कोई भारी पत्थर उठा रखा हो, और मैं बस उस दिन का इंतजार करता था जब मुझे यह कर्तव्य और नहीं करना पड़ेगा। उन दिनों मैंने खाना बनाने में मन नहीं लगाता था और मैं रोज सुबह बस नूडल्स बना देता था। मैंने देखा कि वे ज्यादा नहीं खा रहे थे, लेकिन मैंने कभी नहीं पूछा कि क्या उन्हें खाना पसंद नहीं आ रहा है। उस समय पत्तागोभी बहुत थी तो मैं बस उसे उबाल देता था, और भले ही भाई बहुत कम खाते थे, मुझे कोई परवाह नहीं थी। मैं बस सोचता था, “पत्तागोभी कैसे भी बनाओ, वह बहुत स्वादिष्ट तो नहीं लगेगी।” बाद में, भाइयों के कर्तव्य बदल दिए गए और वे चले गए, लेकिन पर्यवेक्षक ने मुझसे मेजबानी का कर्तव्य जारी रखने को कहा। मैं समझ नहीं पा रहा था, “मैं एक वयस्क आदमी हूँ, मुझसे हमेशा मेजबानी का कर्तव्य क्यों करवाया जा रहा है? खाना बनाना, धोना और साफ-सफाई करना आमतौर पर बहनें करती हैं। क्या दूसरे सोचेंगे ‘एक भाई यह कर्तव्य क्यों कर रहा है?’ मैं यह शर्मिंदगी कैसे झेलूँगा?” यह सोचकर मुझे हीन भावना महसूस हुई। उस दौरान मेरी हालत बहुत खराब थी और मुझे लगा कि मैंने सचमुच अपना सम्मान खो दिया है। अगर मैं मेजबानी का कर्तव्य छोड़ दूँ तो लगेगा कि मैं अविवेकी काम कर रहा हूँ, लेकिन अगर मैं इसे जारी रखूँ तो मुझे नहीं पता कि मैं इसे पूरा कैसे करूँगा। मैं ऊपर से तो अपना कर्तव्य कर रहा था, लेकिन अंदर से घुटन महसूस कर रहा था और मैं जो कुछ भी करता था उसमें सक्रिय या चौकस नहीं था। मैं देखता था कि सफाई की जरूरत है, लेकिन मैं नहीं करता था और कई बार, बात यहाँ तक पहुँच गई कि दूसरे लोग इसे बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने सफाई में मदद की। कलीसिया से भेजा गया खाना भी मैंने समय पर नहीं सुखाया और नतीजतन, खाना खराब हो गया और उसे फेंकना पड़ा। अगुआ को इस बारे में पता चलने के बाद, उसने मुझसे कहा, “सारे खाने पर फफूंद लग गई। अगर तुमने ध्यान दिया होता तो तुमने इसे सुखा लिया होता, यह सुनिश्चित किया होता कि खराब होने वाला खाना समय पर खा लिया जाए, और यह बर्बाद नहीं होता। ऐसी समस्याएँ होने पर, तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये पर विचार करना चाहिए।” अगुआ को ऐसा कहते सुनकर, मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। वास्तव में मेरी लापरवाही के कारण ही खाना खराब हुआ था, लेकिन फिर मैंने अपने लिए बहाने बनाने शुरू कर दिए, “घर पर, हमेशा मेरी माँ और पत्नी ही खाना सुखाती थीं, और मैं कभी इसमें शामिल नहीं हुआ। मुझसे ये काम करने की अपेक्षा करना बहुत शर्मनाक है!” मुझे हमेशा ऐसा लगता था जैसे मेरा अपमान किया जा रहा हो, और मैं इस स्थिति का सामना नहीं करना चाहता था, इसलिए मैं बस उम्मीद करता था कि अगुआ मुझे दूसरे कर्तव्य सौंप देंगे। मैं इतना नकारात्मक हो गया था कि मुझे नहीं पता था कि परमेश्वर से प्रार्थना करते समय क्या कहूँ और जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, तो मुझे कोई प्रकाश नहीं मिला। मैं हर दिन थका हुआ रहता था, और मुझे घुटन महसूस होती थी।

एक सभा के दौरान, एक बहन ने देखा कि मेरी मनोदशा खराब है और उसने मुझे आत्मचिंतन करने और सबक सीखने की याद दिलाई। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कर्तव्य क्या है? परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिया गया आदेश वह कर्तव्य है जिसे मनुष्य को निभाना चाहिए। वह तुम्हें जो कुछ भी सौंपे वही वह कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए। ... व्यक्ति को अपनी भूमिका और स्थान ढूंढ़ना और निर्धारित करना चाहिए—सूझ-बूझ वाला व्यक्ति यही करता है। फिर उसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने और उसे संतुष्ट करने के लिए दृढ़ रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यदि अपना कर्तव्य निभाते समय व्यक्ति का रवैया ऐसा होगा, तो उसका हृदय स्थिर और शांत रहेगा, वह अपने कर्तव्य में सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो पाएगा, और धीरे-धीरे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने लगेगा। वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने, परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने और अपने कर्तव्य का पर्याप्त रूप से निर्वहन करने में समर्थ हो पाएगा। परमेश्वर की स्वीकृति पाने का यही तरीका है। यदि तुम स्वयं को परमेश्वर के लिए सचमुच खपा सकते हो और सही मानसिकता, उसे प्यार करने और संतुष्ट करने की मानसिकता के साथ अपना कर्तव्य निभा सकते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा के कार्य से नेतृत्व एवं मार्गदर्शन मिलेगा, तुम सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार हो जाओगे और ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इस तरह, तुम पूरी तरह से सच्चे मनुष्य जैसा जीवन जियोगे। अपने कर्तव्यों के निर्वहन के साथ-साथ लोगों का जीवन धीरे-धीरे उन्नत होता जाता है। जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते, वे चाहे जितने भी वर्षों तक विश्वास रख लें, सत्य और जीवन नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि उन्हें परमेश्वर का आशीष नहीं मिला होता। परमेश्वर केवल उन्हीं को आशीष देता है जो खुद को उसके लिए सचमुच खपा देते हैं और अपनी पूरी काबिलियत से कर्तव्यों का पालन करते हैं। तुम जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम जो भी कर सकते हो, उसे अपनी जिम्मेदारी और अपना कर्तव्य समझो, उसे स्वीकारो और अच्छे ढंग से पूरा करो। तुम अपना काम अच्छे से कैसे करोगे? ठीक उसी तरह से करके जैसे कि परमेश्वर चाहता है—अपने पूरे दिलो-दिमाग और अपनी पूरी ताकत से। तुम्हें इन शब्दों पर गहन विचार करना चाहिए और सोचना चाहिए कि तुम अपना कर्तव्य दिल लगा कर कैसे निभा सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि लोगों को चाहे जो भी आदेश सौंपा जाए, उन्हें उसे अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य मानना चाहिए और उन्हें इसे पूरे दिल और पूरे मन से करना चाहिए। केवल जब उनकी मानसिकता अपने कर्तव्यों में परमेश्वर को संतुष्ट करने पर केंद्रित होती है, तभी वे परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। लेकिन मैंने सोचा कि मेजबानी का कर्तव्य बहनों के लिए है, और चूँकि मैं एक भाई हूँ, मुझे यह कर्तव्य नहीं करना चाहिए। मुझे लगा कि मेजबानी का कर्तव्य करने के लिए कहकर मुझे अपमानित किया और नीचा दिखाया जा रहा था। ऐसे गलत नजरिए के कारण, मेरे अंदर अपने कर्तव्य के प्रति कोई गंभीरता या जिम्मेदारी की भावना नहीं थी, और भाइयों की मेजबानी करते समय, मैं हमेशा बस नूडल्स या उबली हुई पत्तागोभी बनाता था। मैंने देखा कि भाइयों को यह पसंद नहीं आया, लेकिन मैंने रेसिपी बदलने के बारे में नहीं सोचा ताकि यह सुनिश्चित कर सकूँ कि भाई अच्छी तरह से खाएँ और उनका पेट भर जाए। मैंने समय पर सफाई नहीं की और कलीसिया से भेजा गया खाना भी मैंने समय पर नहीं सँभाला, जिसके परिणामस्वरूप वह खराब हो गया। मैं किस तरह से अपने कर्तव्य को पूरे दिल और पूरी ताकत से कर रहा था? मैं स्पष्ट रूप से उपेक्षापूर्ण और लापरवाह था! कलीसिया ने मुझे कर्तव्य करने का जो अवसर दिया, मैंने उसे नहीं सँजोया और मैं शिकायत करता रहा, प्रतिरोधी महसूस करता रहा और बस बेमन से काम करता रहा। इससे परमेश्वर सचमुच दुखी और निराश हुआ! अगर मैं नहीं बदला तो अंततः मैं अपने कर्तव्य करने का मौका खो दूँगा। यह महसूस करते हुए, मैंने संकल्प लिया कि अब से, मैं परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने और अपने मेजबानी के कर्तव्य को ईमानदारी से करने को तैयार रहूँगा। तो मैंने खाना बनाना सीखना शुरू कर दिया, मैं सफाई में अधिक सक्रिय हो गया, और मैंने अपने मेजबानी के कर्तव्य से जुड़े हर काम को अच्छी तरह से सँभालने की पूरी कोशिश की।

बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और मेजबानी के प्रति मेरे निरंतर प्रतिरोध के मूल कारण के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम्हें कोई कर्तव्य निभाने के लिए दिया गया था और तुम मूल रूप से समर्पण करने में असमर्थ थे, तो अब तुम किस हद तक समर्पण करने में सक्षम हो? उदाहरण के लिए, तुम एक भाई हो और अगर तुमसे रोजाना अन्य भाई-बहनों के लिए भोजन बनाने और बर्तन धोने के लिए कहा जाता है तो क्या तुम समर्पण करोगे? (मुझे ऐसा लगता है।) शायद तुम अल्पावधि के लिए ऐसा कर सको लेकिन अगर तुमसे यह कर्तव्य लंबे समय तक निभाने के लिए कहा जाए तो क्या तुम समर्पण करोगे? (मैं कभी-कभी समर्पण कर सकता हूँ लेकिन समय बीतने के साथ शायद मैं ऐसा न कर पाऊँ।) इसका मतलब है कि तुमने समर्पण नहीं किया है। लोगों के समर्पण न करने का क्या कारण है? (ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोगों के दिलों में परंपरागत धारणाएँ हैं। वे सोचते हैं कि पुरुषों को घर से बाहर काम करना चाहिए और महिलाओं को घर का काम सँभालना चाहिए, कि खाना बनाना महिलाओं का काम है और खाना बनाने से पुरुष का सम्मान घट जाता है। इसलिए समर्पण करना आसान नहीं है।) यह सही है। जब श्रम-विभाजन की बात आती है तो लैंगिक भेदभाव होता है। पुरुष सोचते हैं, ‘हम पुरुषों को आजीविका कमाने के लिए बाहर जाना चाहिए। खाना बनाने और कपड़े धोने जैसी चीजें महिलाओं को करनी चाहिए। हमें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।’ लेकिन अब ये विशेष परिस्थितियाँ हैं और तुमसे ऐसा करने के लिए कहा जा रहा है तो तुम क्या करोगे? समर्पण करने से पहले तुम्हें किन मुश्किलों से पार पाना होगा? यही समस्या की जड़ है। तुम्हें इस लैंगिक भेदभाव से उबरना होगा। ऐसा कोई काम नहीं है जो पुरुषों द्वारा ही किया जाना चाहिए और ऐसा भी कोई काम नहीं है जो महिलाओं द्वारा ही किया जाना चाहिए। श्रम को इस तरह मत बाँटो। लोगों द्वारा निभाया जाने वाला कर्तव्य उनके लिंग के अनुसार निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए। तुम अपने घर और दैनिक जीवन में तो इस तरह से श्रम को विभाजित कर सकते हो लेकिन अब इसका संबंध तुम्हारे कर्तव्य से है तो तुम्हें इसकी व्याख्या कैसे करनी चाहिए? तुम्हें यह कर्तव्य परमेश्वर से प्राप्त कर स्वीकारना चाहिए और अपने अंदर के गलत विचार बदलने चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए, ‘यह सच है कि मैं एक पुरुष हूँ लेकिन मैं कलीसिया का सदस्य हूँ और परमेश्वर की नजर में एक सृजित प्राणी हूँ। कलीसिया मुझे जो भी काम करने के लिए सौंपेगी, मैं उसे करूँगा; चीजें लिंग के अनुसार विभाजित नहीं हैं।’ पहले तुम्हें अपने गलत विचार त्यागने चाहिए, फिर अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहिए। क्या अपना कर्तव्य स्वीकारना सच्चा समर्पण है? (नहीं।) आने वाले दिनों में, अगर कोई कहता है कि तुम्हारे भोजन में बहुत नमक है, या उसमें पर्याप्त स्वाद नहीं है, या कहता है कि तुमने कोई चीज अच्छी नहीं बनाई और वे उसे खाना नहीं चाहते, या तुमसे कुछ नया बनाने के लिए कहता है तो क्या तुम इसे स्वीकार पाओगे? उस समय तुम असहज महसूस करोगे और सोचोगे, ‘मैं एक स्वाभिमानी व्यक्ति हूँ और पहले ही इन तमाम भाई-बहनों के लिए भोजन बनाने हेतु अपना स्तर गिरा चुका हूँ, फिर भी ये लोग ये तमाम कमियाँ निकालते हैं। मेरा स्वाभिमान बिल्कुल नहीं बचा है।’ इस समय तुम समर्पण नहीं करना चाहते, क्या तुम चाहते हो? (नहीं।) यह एक कठिनाई है। जब भी तुम समर्पण नहीं कर पाते तो ऐसा भ्रष्ट स्वभाव के स्वयं के प्रकट करने और परेशानी पैदा करने के कारण होता है और यह तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर का समर्पण करने में असमर्थ बनाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। “पुरुषों में ये पुरुष-प्रधान विचार होते हैं, और वे बच्चों की देखभाल, घर की साफ-सफाई, कपड़ों की धुलाई और सफाई जैसे कामों को नीची नजर से देखते हैं। कुछ लोग तीव्र पुरुष-प्रधान प्रवृत्ति के होते हैं और इन कामों से घृणा करते हैं, इन्हें नहीं करना चाहते, और अगर करें भी तो बड़े अनमने ढंग से और इस डर से करते हैं कि दूसरे उन्हें कम समझेंगे। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं हमेशा ऐसे काम करता रहा, तो क्या मैं स्त्री जैसा नहीं हो जाऊँगा?’ यह कैसी सोच और नजरिये से शासित है? क्या उनकी सोच में कोई समस्या है? (हाँ, बिल्कुल है।) उनकी सोच में दिक्कत है। उन कुछ इलाकों पर गौर करो जहाँ पुरुष हमेशा एप्रन पहन कर खाना पकाते हैं। जब महिला काम से घर लौटती है, तो पुरुष उसे यह कहकर भोजन परोसता है, ‘लो ये जरा चखो। सच में स्वादिष्ट है; आज मैंने तुम्हारी सारी पसंदीदा चीजें बनाई हैं।’ महिला साधिकार पका-पकाया खाना खाती है, और पुरुष साधिकार खाना बनाता है, उसे कभी नहीं लगता कि वह गृहिणी जैसा है। बाहर निकलकर एप्रन उतार देने पर भी क्या वह पुरुष नहीं है? कुछ इलाकों में जहाँ पुरुष-प्रधानता बहुत प्रबल है, वे बेशक परिवार द्वारा दी गई शिक्षा और प्रभाव से बिगड़ जाते हैं। इस शिक्षा ने उन्हें बचाया है या नुकसान पहुँचाया है? (इसने उन्हें नुकसान पहुँचाया है।) यह उनके लिए हानिकारक रहा है। ... जो विचार और नजरिये माता-पिता बैठाते हैं, वे जीने के सबसे बुनियादी और सरलतम नियमों के साथ-साथ लोगों के बारे में कुछ गलत सोच को छूते हैं। सारांश में कहें, तो ये सब परिवार द्वारा लोगों की सोच की शिक्षा में शामिल हैं। परमेश्वर और अस्तित्व में आस्था के दौरान किसी व्यक्ति के जीवन पर इनका जितना भी प्रभाव हो या ये जितनी भी मुसीबत और असुविधा लाएँ, यथार्थ में इनका एक विशेष संबंध माता-पिता की वैचारिक शिक्षा से होता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (14))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे समझ आया कि मेजबानी का कर्तव्य करते समय मेरा दबा हुआ और दर्द महसूस करना, और मेरे समर्पण की कमी मुख्य रूप से “पुरुषों को घर के बाहर काम करना चाहिए और महिलाओं को घर का काम सँभालना चाहिए” इस भ्रामक दृष्टिकोण के कारण थी। हम पहले घर पर खेतों में काम करते थे और मेरी माँ और पत्नी, बाहर काम करने के बाद, घर आकर भी कपड़े धोतीं, खाना बनातीं और जानवरों को चारा खिलाती थीं। वे इतनी व्यस्त रहती थीं कि मुश्किल से ही काम पूरा कर पाती थीं। मैंने यह देखा लेकिन कभी मदद नहीं की। मैंने सोचा कि कपड़े धोना, खाना बनाना और घर का काम करना सब महिलाओं का काम है और पुरुषों को केवल परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पैसा कमाना और बाहर का काम करना होता है। मैंने सोचा कि अगर पुरुष घर का काम करते हैं, तो उन्हें बेकार समझा जाता है और नीची नजर से देखा जाता है। इस दृष्टिकोण के साथ जीते हुए, मैंने शायद ही कभी घर के कामों में हाथ बँटाया हो, मैं अपने परिवार की परवाह और चिंता नहीं करता था। परमेश्वर को पाने के बाद, जब मुझसे मेजबानी का कर्तव्य करने के लिए कहा गया, तो मैंने सोचा कि सफाई करना, सब्जियाँ खरीदना और खाना बनाना बहनों का कर्तव्य है, और भाइयों को ये काम नहीं करने चाहिए। इस पुरुषवादी मानसिकता से प्रभावित होकर, मैंने प्रतिरोधी महसूस किया और अपने कर्तव्य में मन नहीं लगाया। बाजार जाकर सब्जियाँ खरीदना, सब्जीवालों से मोल-भाव करना, और सस्ती, अच्छी गुणवत्ता वाली सब्जियाँ खरीदना पूरी तरह से सामान्य बात है। लेकिन मुझे हमेशा यह शर्मनाक लगता था और मुझे नीची नजर से देखे जाने का डर था। खाना बनाते समय, मैं बस अपनी मर्जी से जैसे चाहता था वैसे बनाता था, भाइयों को यह पसंद आएगा या नहीं, इस पर बिल्कुल भी विचार नहीं करता था। मेजबानी के कर्तव्य के प्रति प्रतिरोधी होने के कारण, मैंने जरूरत पड़ने पर भी सफाई नहीं की। मुझमें सचमुच मानवता और विवेक की इतनी कमी थी! इस पुरुषवादी मानसिकता ने मेरे विचारों को पूरी तरह से विकृत कर दिया था। मैंने सोचा कि कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं, उनमें पद, लिंग या उम्र का कोई भेद नहीं होता, और मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए, इसे सँजोने और प्यार करने की जिम्मेदारी के रूप में लेना चाहिए, और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होकर परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए। लेकिन मैं “पुरुषों को घर के बाहर काम करना चाहिए और महिलाओं को घर का काम सँभालना चाहिए” इस मानसिकता के अनुसार जीता था। मैंने केवल अपनी भावनाओं पर विचार किया, और कभी यह नहीं सोचा कि मेरी जिम्मेदारी और कर्तव्य वास्तव में क्या हैं। मुझमें बिल्कुल भी समर्पण नहीं था। क्या मैं इसमें परमेश्वर का विरोध नहीं कर रहा था? यह महसूस करते हुए, मुझे गहरा अफसोस और अपराध-बोध हुआ, और इसलिए मैं परमेश्वर के सामने आया और प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं ‘पुरुषों को घर के बाहर काम करना चाहिए और महिलाओं को घर का काम सँभालना चाहिए’ इस मानसिकता से नियंत्रित रहा हूँ, मेजबानी का कर्तव्य करते समय मुझमें कोई समर्पण नहीं था, और मैं लगातार तुम्हारा विरोध करता रहा हूँ। मैं कितना अविवेकी रहा हूँ! परमेश्वर, मैं गलत था, लेकिन मैं तुम्हारे आगे पश्चाताप करने को तैयार हूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मुझे लोगों को आँकने के परमेश्वर के मानक समझ में आ गए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मानवजाति के लैंगिक संबंध को लेकर परमेश्वर ने कुछ नहीं कहा है, क्योंकि महिला-पुरुष दोनों ही परमेश्वर की रचनाएँ हैं और परमेश्वर से आते हैं। जैसी एक कहावत भी है, ‘हाथ की हथेली और पीछे का हिस्सा, दोनों ही हाड़-माँस से बने होते हैं’—परमेश्वर का पुरुषों या महिलाओं के प्रति कोई विशेष पूर्वाग्रह नहीं है, और न ही वह दोनों में से किसी से अलग-अलग अपेक्षाएँ करता है, दोनों ही बराबर हैं। इसलिए, चाहे तुम पुरुष हो या महिला, परमेश्वर तुम्हें आँकने के लिए एक जैसे चंद मानकों का उपयोग करता है—वह यह देखता है कि तुम्हारी मानवता का सार कैसा है, तुम किस मार्ग पर चलते हो, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और क्या तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो। किसी व्यक्ति को कोई विशेष कर्तव्य या विशेष जिम्मेदारी निभाने के लिए चुनते और तैयार करते समय परमेश्वर यह नहीं देखता कि वह महिला है या पुरुष। वह चाहे पुरुष हो या महिला, परमेश्वर यह देखकर उसे आगे बढ़ाता और उपयोग करता है कि उसके पास अंतरात्मा और विवेक है या नहीं, स्वीकार्य क्षमता है या नहीं, क्या वह सत्य को स्वीकारता है या नहीं और वह किस मार्ग पर चलता है। मानवजाति को बचाते और पूर्ण बनाते समय परमेश्वर उसकी लैंगिक स्थिति पर विचार करने के लिए नहीं रुकता। अगर तुम एक महिला हो, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करता है कि तुम सच्चरित्र, दयालु, सौम्य या नैतिकतायुक्त हो या नहीं, या तुम्हारा व्यवहार अच्छा है या नहीं, और न ही वह पुरुषों को उनके साहस और पुरुषत्व के आधार पर आँकता है—परमेश्वर महिला-पुरुषों को इन मानकों के आधार पर नहीं आँकता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है और वह लोगों के साथ उनके लिंग के आधार पर अलग तरह से व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर ने आदम और हव्वा को बनाया, तो उसने उनके प्रति कोई लैंगिक भेदभाव नहीं किया, और उनके प्रति परमेश्वर का प्यार और देखभाल एक समान था, किसी के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। अंत के दिनों में परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए जो वचन कहता है, वे सभी लोगों के लिए हैं, राष्ट्रीयता, जाति या लिंग का कोई भेद नहीं है। अपने अनुभव में, मैंने यह भी देखा कि परमेश्वर का घर लोगों को बढ़ावा देने और उनका उपयोग करने में लिंग पर विचार नहीं करता, बल्कि इस आधार पर विचार करता है कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं और उसमें जमीर और विवेक है या नहीं, और इस पर कि वह किस मार्ग पर चलता है। ऐसा कोई नियम नहीं है कि अगुआ और कार्यकर्ता भाई ही होने चाहिए, और मेजबानी का कर्तव्य बहनों द्वारा ही किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मैं एक भाई को जानता था जो मेजबानी का कर्तव्य भी कर रहा था, और जब भी उसके पास समय होता, वह परमेश्वर के वचन पढ़ने पर ध्यान केंद्रित करता था। सभाओं के दौरान, वह अपनी मनोदशा और कठिनाइयों के बारे में खुलकर संगति करता था, और कठिनाइयों का सामना करते समय, वह सत्य की खोज करता और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करता था। यह भाई लिंग से बाधित हुए बिना अपना कर्तव्य करता था। तब मुझे एहसास हुआ कि इस पुरुषवादी बेतुके दृष्टिकोण के अनुसार जीना गलत और अतिवादी था, और यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के विरुद्ध है। इन सत्यों को समझने के बाद, मैं इस पुरुषवादी मानसिकता का भेद पहचान सका और इसे अपने दिल से अस्वीकार करने को तैयार था। मैं अपने मेजबानी के कर्तव्य को भी पूरी तरह से स्वीकार करने में सक्षम हो गया।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और मुझे यह मेजबानी का कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना है, इस बारे में और स्पष्टता मिली। परमेश्वर कहता है : “तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें जो सिद्धांत समझने चाहिए और जिन सत्यों को तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए वे एक समान हैं। तुमसे चाहे अगुआ बनने को कहा जाए या कार्यकर्ता, या तुम चाहे मेजबान के रूप में खाना बना रहे हो, या तुमसे चाहे किन्हीं बाहरी कार्यों की देखरेख करने या कोई शारीरिक मेहनत करने को कहा जाए, ये विभिन्न कर्तव्य निभाते हुए जिन सत्य सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए वे इस रूप में एक समान हैं कि ये सत्य और परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। तो फिर इनमें सबसे बड़ा और मुख्य सिद्धांत कौन-सा है? यही कि अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने में अपने दिल, दिमाग और प्रयास समर्पित किए जाएँ, और इसे अपेक्षित मानक के स्तर तक पूरा किया जाए। ... उदाहरण के लिए, अगर तुम भाई-बहनों के लिए खाना बनाने के प्रभारी हो तो यह तुम्हारा कर्तव्य है। तुम्हें इस कार्य को किस रूप में लेना चाहिए? (मुझे सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए।) तुम सत्य सिद्धांत कैसे खोजते हो? इसका संबंध वास्तविकता और सत्य से है। तुम्हें यह सोचना चाहिए कि सत्य को अभ्यास में कैसे लाएँ, इस कर्तव्य को किस प्रकार अच्छे से निभाएँ, और इस कर्तव्य से सत्य के कौन से पहलू जुड़े हुए हैं। पहला कदम यह है कि तुम्हें सबसे पहले यह जानना चाहिए, ‘मैं खाना अपने लिए नहीं बना रहा हूँ। यह तो मेरा कर्तव्य है जिसे मैं निभा रहा हूँ।’ यहाँ पहलू दृष्टि का है। दूसरा कदम क्या है? (मुझे सोचना चाहिए कि खाना अच्छे से कैसे बनाएँ।) खाना अच्छे से बनाने का मानदंड क्या है? (मुझे परमेश्वर की अपेक्षाएँ खोजनी चाहिए।) सही है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ ही सत्य, मानक और सिद्धांत हैं। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार खाना बनाना सत्य का एक पहलू है। तुम्हें सबसे पहले सत्य के इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए और फिर यह चिंतन करना चाहिए, ‘परमेश्वर ने मुझे निर्वहन के लिए यह कर्तव्य दिया है। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या है?’ यह नींव अनिवार्य है। तो फिर परमेश्वर के मानक पर खरे उतरने के लिए तुम्हें कैसे खाना बनाना चाहिए? तुम जो खाना बनाओ वह पौष्टिक, स्वादिष्ट, स्वच्छ होना चाहिए और शरीर के लिए नुकसानदेह नहीं होना चाहिए—इससे ये बातें जुड़ी हुई हैं। अगर तुम इस सिद्धांत के अनुसार खाना बनाते हो, तो यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार बना होगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुमने इस कर्तव्य के सिद्धांत खोजे और परमेश्वर द्वारा निर्धारित दायरे के बाहर नहीं गए। खाना बनाने का यही सही तरीका है। तुमने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया और इसे संतोषजनक ढंग से पूरा किया(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि हम चाहे जो भी कर्तव्य करें, हमें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसे अच्छी तरह से करने के लिए अपना दिल और प्रयास समर्पित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपने मेजबानी के कर्तव्य को करते समय, अगर खाना अच्छी तरह से तैयार नहीं किया गया है, जिससे दूसरे लोग इसे खाना नहीं चाहते या उनके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं, तो मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं किया है। भोजन के मामले में, मुझे जो सुखाना है उसे सुखाना चाहिए और जो जल्दी खाया जाना चाहिए उसे परोसना चाहिए ताकि बर्बादी न हो। इसके अतिरिक्त, चीन में, जो देश परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करता है, वहाँ हमें अपने मेजबानी के कर्तव्य में हमेशा सतर्क रहना चाहिए, अपने आस-पास के माहौल पर ध्यान देना चाहिए, और अपने भाइयों और बहनों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए। यह समझने के बाद, जब मैं फिर से सब्जियाँ खरीदने बाजार गया तो मैंने सोचा कि अच्छी गुणवत्ता वाली और सस्ती उपज कैसे खरीदी जाए, और मुझे इस बात की परवाह नहीं थी कि दूसरे क्या सोचते हैं। मैंने यह सिद्धांत बना लिया कि स्वादिष्ट, पौष्टिक और स्वस्थ खाना तैयार करूँ, और जिन व्यंजनों को मैं बनाना नहीं जानता था, उनके लिए मैं अपने भाइयों और बहनों से पूछता या वीडियो ट्यूटोरियल से सीखता था। कुछ समय बाद, घर में खाना पकाने और सफाई दोनों की स्थिति में काफी सुधार हुआ। बाद में, मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत के लिए एक भाई के साथ सहयोग किया, और मैं खाना पकाने और घर के काम करने की पहल करता था। कभी-कभी, जब भाई-बहन हमारे घर आते, तो वे हमारी तारीफ किए बिना नहीं रह पाते थे, जैसे कि, “तुम्हारा घर कितना साफ है!” और “यह खाना कितना स्वादिष्ट लग रहा है।” ये बातें सुनकर, मैंने तहे दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया।

मुझे समझ आया कि कर्तव्य मानवजाति के लिए परमेश्वर का आदेश हैं, और हमारी जिम्मेदारी और दायित्व हैं जिन्हें हमें लिंग की परवाह किए बिना पूरा करना चाहिए, और हमें उन्हें बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए और उन्हें पूरा करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। मुझे यह भी समझ आया कि हम कौन सा कर्तव्य करते हैं, यह मायने नहीं रखता, और महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने कर्तव्यों में सत्य की खोज करें और अपने भ्रष्ट स्वभावों को हल करें। सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की कोशिश करना सबसे महत्वपूर्ण है। मेरे ये सभी बदलाव और लाभ परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन का परिणाम थे। परमेश्वर का धन्यवाद!

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