2. किस तरह के स्वभाव के कारण व्यक्ति बहस और बहानेबाजी करना चाहता है?
अप्रैल 2024 में एक दिन मुझे उच्च अगुआओं से एक पत्र मिला। पत्र में जिक्र था कि कई बहनों ने मेरे बारे में कुछ मसले उठाए थे। उन्होंने कहा कि मैंने उनके लिए किसी सभा की व्यवस्था नहीं की थी, यह भी कि मैं काम का जायजा लेने और पत्रों का जवाब देने में धीमी थी और इससे काम में देरी होगी। उनके बताए मसलों को पढ़ने के बाद मैं काफी देर तक शांत नहीं हो सकी, मन ही मन दलीलें देकर खुद को सही ठहराने लगी : “इन बातों के पीछे स्पष्ट कारण हैं। इन बहनों ने सभा की जगह असुरक्षित होने के कारण अस्थायी रूप से सभाओं में जाना बंद कर दिया था। मैंने उनसे सभा करने के लिए जल्दी से एक घर खोजने को कहा था, लेकिन उन्होंने कभी जवाब नहीं दिया। जहाँ तक दूसरे कुछ भाई-बहनों की बात है, उनकी सुरक्षा को खतरा है, इसलिए मैंने फिलहाल उनके लिए सभाओं की व्यवस्था नहीं की है। इसमें मेरी कोई गलती नहीं है कि वे सभा नहीं कर सके, तो फिर हर कोई मुझ पर दोष क्यों डाल रहा है? इस दौरान जब उनकी सभाएँ नहीं हुईं, मैं उनकी दशाओं के बारे में पूछने और उनके साथ संगति करने के लिए पत्र लिखती रही हूँ। मैं उन्हें नजरअंदाज नहीं कर रही थी। वे कहते हैं कि मैं काम का जायजा लेने और पत्रों का जवाब देने में धीमी हूँ, लेकिन यह सीसीपी के उत्पीड़न और गिरफ्तारियों के कारण है। भाई-बहन पहले की तरह बार-बार मिल नहीं पा रहे हैं, तो जाहिर है कि उन्हें पहले की तरह जल्दी पत्र नहीं मिल रहे हैं। यह भी मेरे हाथ में नहीं है। मुझसे उनकी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हैं। मैं हर दिन सभी तरह के कामों का जायजा लेती हूँ और मुझे भाई-बहनों के सवालों के जवाब में पत्र भी लिखने पड़ते हैं। कभी-कभी मैं इतनी व्यस्त रहती हूँ कि सुबह दो बजे तक काम करती हूँ। इस तरह कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर मैं वास्तविक कार्य कैसे नहीं कर रही हूँ?” उस समय मैं इसे स्वीकार ही नहीं कर पाई। अगले दिन उच्च अगुआओं ने भाई-बहनों से मेरे बारे में मूल्यांकन लिखने को कहा। मैंने अनुमान लगाया कि अगुआओं को लगा होगा कि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर रही हूँ और वे मुझे बरखास्त करने वाले हैं। जब मैंने चुकाई गई कीमत और खुद को खपाने के बारे में सोचा, तो मैं मन ही मन अपनी सफाई देने से खुद को रोक नहीं सकी : “एक नकली अगुआ बिल्कुल भी कोई वास्तविक कार्य नहीं करता, लेकिन मैं हमेशा काम करती रही हूँ, समय लगाती रही हूँ और इतनी बड़ी कीमत चुकाती रही हूँ। आप मुझसे और क्या करवाना चाहते हैं?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतनी ही हताश होती गई। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा में कुछ गड़बड़ है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, आज जो स्थिति मुझ पर आयी है, उसमें मैं समर्पण नहीं कर पा रही हूँ। मुझे नहीं पता कि मुझे क्या सबक सीखना चाहिए और मैं तुम्हारा इरादा नहीं समझती। मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो।”
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “यह फैसला कैसे किया जाना चाहिए कि क्या कोई अगुआ अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहा है, या वह एक नकली अगुआ है? सबसे बुनियादी स्तर पर, यह देखना चाहिए कि वे वास्तविक कार्य करने में सक्षम हैं या नहीं, कि उनमें यह काबिलियत है या नहीं। फिर, यह देखना चाहिए कि क्या वे इस काम को अच्छे तरीके से करने का भार उठाते हैं या नहीं। इसकी अनदेखी करो कि वे जो बातें बोलते हैं वे कितनी अच्छी लगती हैं और वे धर्म-सिद्धांतों की कितनी समझ रखने वाले लगते हैं, इस पर भी ध्यान मत दो कि बाहरी मामलों से निपटने में वे कितने प्रतिभाशाली और गुणी हैं—ये बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे कलीसिया के काम की सबसे बुनियादी मदों का काम ठीक तरीके से करने की योग्यता रखते हैं या नहीं, वे सत्य का उपयोग कर समस्याओं को हल कर सकते हैं या नहीं और कि वे लोगों को सत्य वास्तविकता में ले जा सकते हैं या नहीं। यह सबसे मूलभूत और आवश्यक कार्य है। यदि वे वास्तविक कार्य की इन मदों पर काम करने में अक्षम हैं, तो फिर चाहे उनमें कितनी भी काबिलियत हो, वे कितने भी प्रतिभावान हों, या कितनी भी कठिनाइयाँ सह सकते हों और कीमत चुका सकते हों, वे नकली अगुआ ही रहेंगे। कुछ लोग कहते हैं, ‘भूल जाओ कि वे अभी कोई वास्तविक काम नहीं करते हैं। उनकी क्षमता अच्छी है और वे काबिल हैं। अगर वे कुछ समय तक प्रशिक्षण लें, तो वे अवश्य ही वास्तविक कार्य करने के काबिल बन जाएँगे। इसके अलावा उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया है और उन्होंने कोई कुकर्म नहीं किया है और विघ्न-बाधाएँ नहीं डाली हैं—तुम कैसे कह सकते हो कि वे नकली अगुआ हैं?’ हम इसकी व्याख्या कैसे कर सकते हैं? कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने प्रतिभाशाली हो, तुम्हारे पास किस स्तर की काबिलियत और शिक्षा है, तुम कितने नारे लगा सकते हो, या कितने शब्द और धर्म-सिद्धांतों पर तुम्हारी पकड़ है; इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने व्यस्त हो, या दिन भर में कितने थके हो, या तुमने कितनी दूर की यात्रा की है, कितनी कलीसियाओं में जाते हो, या तुम कितने जोखिम उठाते हो और कितना कष्ट सहते हो—इनमें से कोई भी बात मायने नहीं रखती। जो बात मायने रखती है वह यह है कि क्या तुम अपना काम दी गई कार्य व्यवस्थाओं के आधार पर कर रहे हो, क्या तुम उन व्यवस्थाओं को सही ढंग से कार्यान्वित कर रहे हो; क्या तुम अपनी अगुआई के दौरान हर उस विशिष्ट कार्य में भाग ले रहे हो जिसके लिए तुम जिम्मेदार हो, और तुमने वास्तव में कितने वास्तविक मुद्दों का समाधान किया है; तुम्हारी अगुआई और मार्गदर्शन के कारण कितने लोग सत्य सिद्धांतों को समझ पाए हैं, और कलीसिया का काम कितना आगे बढ़ा और विकसित हुआ है—जो मायने रखता है वह यह है कि तुमने ये परिणाम हासिल किए हैं या नहीं। तुम जिस भी विशिष्ट कार्य में लगे हो, उसके बावजूद जो मायने रखता है वह यह है कि क्या तुम उच्चपदस्थ और शक्तिशाली बन कर आदेश जारी करने के बजाय लगातार कार्य का अनुसरण और निर्देशन कर रहे हो या नहीं। इसके अलावा यह भी मायने रखता है कि तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए जीवन प्रवेश करते हो या नहीं, क्या तुम सिद्धांतों के अनुसार मामलों से निपट सकते हो, क्या तुम्हारे पास सत्य को अभ्यास में लाने की गवाही है, और क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने आने वाले वास्तविक मुद्दों को सँभाल सकते हो और उनका समाधान कर सकते हो। ये और इसी तरह की दूसरी चीजें यह आकलन करने की कसौटियाँ हैं कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किया है या नहीं। क्या तुम लोग कहोगे कि ये कसौटियाँ व्यावहारिक हैं? और लोगों के प्रति निष्पक्ष हैं? (हाँ।) वे सभी के लिए निष्पक्ष हैं। तुम्हारी शिक्षा का स्तर जो भी हो, तुम युवा हो या बूढ़े, तुमने कितने ही वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम्हारी वरिष्ठता जो भी हो, या तुमने परमेश्वर के वचनों को कितना भी पढ़ा हो, इनमें से कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जो महत्व रखता है वह यह है कि अगुआ के रूप में चुने जाने के बाद तुम कलीसिया का काम कितनी अच्छी तरह से करते हो, तुम अपने कार्य में कितने प्रभावी और कुशल हो, और क्या काम की हर एक मद सुसंगठित और प्रभावी तरीके से आगे बढ़ रही है, और उसमें देरी तो नहीं हो रही है। ये मुख्य चीजें हैं जिनका मूल्यांकन तब किया जाता है जब यह मापा जाता है कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किया है या नहीं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (9))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि यह आँकने के लिए कि किसी अगुआ ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, यह नहीं देखा जाता कि वह बाहरी तौर पर कितना कष्ट सह रहा है या उसने कितने त्याग किए हैं, बल्कि यह देखा जाता है कि क्या उसने वास्तविक कार्य किया है, क्या वह समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की संगति कर सकता है और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकता है और क्या कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदें सामान्य और व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ सकती हैं। यदि कलीसिया की विभिन्न मदों पर कोई वास्तविक कार्य नहीं किया गया है और कोई नतीजा नहीं निकला है, तो चाहे कोई कितना भी कष्ट सहता दिखे या उसने कितनी भी कीमत चुकाई हो, वह फिर भी एक नकली अगुआ है। फिर मैंने आत्म-चिंतन किया। मैंने देखा कि मैं परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों पर खरी नहीं उतरी थी, मैंने केवल बाहरी तौर पर थोड़ी कीमत चुकाई थी और सतही काम किया था, लेकिन जब काम में समस्याएँ आईं तो मैं उन्हें हल करने के लिए कठिनाई झेलना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। उदाहरण के लिए, यह सुनिश्चित करना कि भाई-बहनों का सामान्य कलीसियाई जीवन हो, यह सबसे बुनियादी कार्य है, लेकिन कुछ भाई-बहनों के पास सभा करने के लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं थी। मैंने उनसे सभा करने के लिए खुद ही एक घर खोजने को कहा, लेकिन बाद में मैंने इसका जायजा नहीं लिया; दूसरे भाई-बहनों की सुरक्षा को खतरा था, लेकिन मैंने इस बात पर कोई वास्तविक विचार नहीं किया कि चीजों की विशेष रूप से व्यवस्था कैसे की जाए, न तो मैंने अपनी साझीदार के साथ इस मामले पर चर्चा की और न ही उचित व्यवस्थाएँ करने के लिए उच्च अगुआओं से मार्गदर्शन माँगा। मैंने बस यही सोचा कि कुछ भी करने से पहले मैं माहौल सुधरने का इंतजार करूँगी। मैं सच में कोई वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी और मुझमें अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए कोई दायित्व-बोध नहीं था। भाई-बहनों ने बताया कि मैं काम का जायजा लेने और पत्रों का जवाब देने में धीमी थी और मुझे पता था कि पत्र अग्रेषित करने में कोई समस्या थी। कुछ मौकों पर काम में इसलिए देरी हुई क्योंकि सामान्य मामलों के कार्यकर्ता पत्र अग्रेषित करने में धीमे थे और यह एक ऐसा मसला था जिसे तुरंत हल किया जाना चाहिए था। लेकिन जब मैंने सोचा कि इस मसले को हल करने का मतलब यह होगा कि मुझे सामान्य मामलों के कार्यकर्ताओं के पास जाना होगा और उनकी वास्तविक कठिनाइयों को हल करने के लिए उन्हें समझाना होगा और उनके साथ संगति करनी होगी, तो मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहती थी, इसलिए मैंने खराब माहौल का बहाना बनाया और मैं इस मसले को हल किए बिना बस टालमटोल करती रही। तथ्यों के प्रकाशन का सामना करते हुए और परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अब मेरे पास खुद को सही ठहराने का कोई आधार या बहाना नहीं बचा था, मैंने सचमुच अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की थीं और भाई-बहनों ने मेरी जिन समस्याओं की रिपोर्ट की थी, वे गलत नहीं थीं। अगर मुझे बरखास्त किया जाता, तो मैं इसे पूरी इच्छा से स्वीकार लेती।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। “बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने की कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने, अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देने और अपने से नीचे के लोगों से चीजें छिपाए रखने या कार्य-व्यवस्थाओं के खिलाफ जाने जैसे स्पष्ट क्रियाकलाप करते हैं और यहाँ तक कि उनके क्रियाकलाप कलीसियाई कार्य को बहुत नुकसान भी पहुँचाते हैं। फिर भी वे न सिर्फ चिंतन नहीं करते हैं और अपनी समस्याओं को जानने नहीं लगते हैं या कलीसियाई कार्य में बाधा डालने के अपने कुकर्म स्वीकार नहीं करते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे यह भी मानते हैं कि उन्होंने अच्छी तरह से कार्य किया है और वे श्रेय और पुरस्कार चाहते हैं, हर जगह इस बात की डींग हाँकते हैं और गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, उन्होंने कितना कष्ट सहा है, उन्होंने अपने कार्य के दौरान कितने योगदान दिए हैं, कार्य करते हुए सुसमाचार का प्रचार करके उन्होंने कितने लोग प्राप्त किए हैं, वगैरह-वगैरह। वे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं कि उन्होंने कितना बुरा कर्म किया है या कलीसियाई कार्य को कितना बड़ा नुकसान पहुँचाया है। यकीनन वे पश्चात्ताप भी नहीं करते हैं और अपना रास्ता तो बिल्कुल नहीं बदलते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले नहीं हैं? (वे हैं।) अगर तुम उनसे पूछते हो, ‘क्या तुमने कलीसियाई कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार पूरा किया? क्या तुम्हारा कार्य परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुरूप था?’ तो वे इस विषय को टाल देते हैं। ... मुझे बताओ, क्या इस किस्म के लोगों में शर्म की कोई भावना होती है? क्या वे ‘शर्म की भावना’ शब्द बोल भी सकते हैं? अगर उनमें सही मायने में शर्म की कोई भावना नहीं है तो यह समस्यात्मक है। अगर वे अपने दिलों में स्पष्ट रूप से जानते हैं कि उन्होंने बुरा कर्म किया है, लेकिन वे अड़ियलपन से इसे जबानी तौर पर स्वीकारने से इनकार कर देते हैं तो क्या ऐसे लोग बहुत जिद्दी नहीं हैं? अगर वे अपने दिलों में यह पहचानते हैं कि उन्होंने बुरा कर्म किया है और इसे जबानी तौर पर स्वीकार भी सकते हैं तो वे अभी भी जमीर वाले व्यक्ति माने जाते हैं—उनमें अभी भी शर्म की भावना है। अगर वे न सिर्फ इसे जबानी तौर पर स्वीकारने से इनकार कर देते हैं, बल्कि अपने दिलों में उद्दंड भी हैं, लगातार प्रतिरोध करते रहते हैं और यहाँ तक कि हर जगह ये दावे फैलाते रहते हैं कि परमेश्वर का घर उनके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहा है और वे बदकिस्मती के शिकार हैं, तो उनकी समस्या गंभीर है। कितनी गंभीर? उनमें बिल्कुल भी जमीर या विवेक नहीं है। जमीर में न्याय और दया दोनों की भावना शामिल होनी चाहिए। न्याय की भावना का एक पहलू यह है कि लोगों में शर्म की भावना होनी चाहिए। जब लोग शर्म को जानते हैं, सिर्फ तभी वे ईमानदार हो सकते हैं, उनमें न्याय की भावना हो सकती है और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम कर सकते हैं और उन्हें पकड़कर रख सकते हैं। लेकिन अगर तुम्हारे जमीर में और न्याय की भावना में शर्म की भावना नहीं है और तुम शर्म नहीं जानते हो—और अगर कुछ गलत करने के बाद भी तुम इस बारे में शर्मिंदा महसूस नहीं करते हो और आत्म-चिंतन करना या खुद से नफरत करना नहीं जानते हो और तुम्हें कोई पछतावा नहीं होता है और इस बात की परवाह नहीं होती है कि दूसरे तुम्हें कैसे उजागर करते हैं और तुम झेंपते नहीं हो और तुममें कोई शर्म नहीं है—तो एक व्यक्ति के रूप में तुम्हारा जमीर समस्यात्मक है और यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारा कोई जमीर है ही नहीं। ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि तुम्हारा दिल खराब है या बुरा है—यह मुमकिन है कि तुम्हारा दिल बुरा हो, यह भेड़िये का दिल हो; सकारात्मक नहीं बल्कि नकारात्मक हो। बिना जमीर और बिना मानवता वाले लोग राक्षस होते हैं। अगर तुम कुछ गलत करते हो और तुम्हें बिल्कुल भी शर्म महसूस नहीं होती है और तुम्हें पश्चात्ताप या अपराधबोध नहीं होता है और तुम सिर्फ आत्म-चिंतन ही नहीं करते हो बल्कि बहस करते हो, विरोध करते हो और खुद को बचाने और सही ठहराने का प्रयास भी करते हो, एक अच्छा दिखने वाला मुखौटा पहनते हो, तो अगर मानक मानवता के आधार पर मापा जाए, तो तुम्हारी मानवता समस्यात्मक है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (9))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। क्या मैं वैसी ही बेशर्म इंसान नहीं थी जिसके बारे में परमेश्वर ने उजागर किया था? जब भाई-बहनों ने मेरी समस्याओं की रिपोर्ट की, तो मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि इसके बजाय, मैंने तुरंत खुद का बचाव करने की कोशिश की, यह बताती रही कि मैंने कितना त्याग किया है और कितना कष्ट सहा है। कुछ भाई-बहन महीनों से सभाओं में शामिल नहीं हो पाए थे और कलीसिया के कार्य का समय पर जायजा नहीं लिया गया था। यह सब मेरी समय पर वास्तविक मसलों को हल करने में विफलता से सीधे तौर पर संबंधित था। कलीसिया अगुआ के रूप में, मैं भाई-बहनों के लिए सामान्य कलीसियाई जीवन की ठीक से व्यवस्था भी नहीं कर सकी। मैंने सबसे बुनियादी चीजें भी पूरी नहीं कीं, फिर भी मैं लगातार अपनी बेगुनाही की दुहाई देती रही और स्पष्ट कारणों का बहाना बनाकर खुद को सही ठहराने की कोशिश करती रही, यह सोचती रही कि मैं पहले ही बहुत कुछ दे चुकी हूँ और मैं उन नकली अगुआओं से बहुत बेहतर हूँ जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। मुझमें सचमुच बिल्कुल भी विवेक नहीं था! भले ही ऐसा लगता था कि मैंने कुछ काम किया है और कुछ हद तक कीमत चुकाई है, मैं बस सतही काम कर रही थी और मैंने कलीसिया की वास्तविक समस्याओं को हल करने में कोई प्रयास नहीं किया था। मैंने बिल्कुल भी कोई वास्तविक कार्य नहीं किया था, फिर भी मैं बहस करती रही और बहाने बनाती रही। मुझे सचमुच कोई शर्म नहीं थी!
मैंने उस समय के बारे में सोचा जब अगुआओं ने कहा था कि मैं सत्य स्वीकार नहीं करती थी, मुझे लगा कि इस बार चूँकि उन्होंने भाई-बहनों से मेरे बारे में मूल्यांकन लिखने को कहा है, तो हो सकता है कि वे मुझे बरखास्त करने वाले हों। परमेश्वर उन्हें बचाता है जो सत्य स्वीकार सकते हैं और मुझ जैसी किसी इंसान के लिए बचाया जाना बहुत मुश्किल लग रहा था। मैंने अगले कुछ दिन निराशा में डूबे हुए और कुछ भी करने की प्रेरणा के बिना बिताए। बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसने मुझे गहराई से प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, लेकिन वह लोगों का सर्वाधिक हित चाहता है। वह तुम्हारे लिए चाहे जिस परिस्थिति का निर्माण करे या वह तुमसे कुछ भी करने के लिए कहे, वह हमेशा सर्वोत्तम परिणाम देखना चाहता है। मान लो, तुम्हारे ऊपर कुछ बीतता है और तुम बाधाओं तथा विफलताओं का सामना करते हो। परमेश्वर यह नहीं देखना चाहता कि विफल होने पर तुम निराश हो जाओ और सोचो कि तुम समाप्त हो गए हो और तुम्हें शैतान ने झपट लिया है और तुम हिम्मत हार जाओ, दोबारा कभी आत्मविश्वास से खड़े न हो पाओ और गहरी निराशा में डूब जाओ—परमेश्वर यह परिणाम नहीं देखना चाहता। परमेश्वर क्या देखना चाहता है? वह देखना चाहता है कि इस मामले में तुम भले ही विफल हो गए हो पर तुम सत्य को तलाशने और आत्मचिंतन करने एवं अपनी विफलता का कारण पता करने में समर्थ हो, तुम इस विफलता से मिली सीख को स्वीकारते हो, भविष्य में इसे याद रखते हो, जानते हो कि इस तरह से कार्य करना गलत है और केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना ही सही है और महसूस करते हो कि ‘मैं बुरा व्यक्ति हूँ। मेरा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है। मुझमें विद्रोहीपन है। परमेश्वर जिन धार्मिक लोगों की बात करता है, मैं उनसे दूर हूँ और मेरे अंदर परमेश्वर से डरने वाला हृदय नहीं है।’ तुमने इस तथ्य को साफ-साफ देखा है; तुम इस मामले के सत्य को पहचान गए हो और इस रुकावट, इस विफलता के माध्यम से तुम थोड़े समझदार बन गए हो और परिपक्व हो गए हो। परमेश्वर यही देखना चाहता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें)। परमेश्वर के वचन एक जोश की लहर की तरह थे, जो मेरे दिल को सुकून दे रहे थे। परमेश्वर चाहे जैसे भी कार्य करे, वह हमेशा अच्छा होता है। यहाँ तक कि जब परमेश्वर लोगों में भ्रष्टता प्रकट करता है, तो यह इस उम्मीद के साथ होता है कि वे खुद को जानेंगे, पश्चात्ताप करेंगे और बदलेंगे, अंततः अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देंगे और परमेश्वर द्वारा बचाए जाएँगे। परमेश्वर मुझे इतना नकारात्मक नहीं देखना चाहता था, उसने इन परिस्थितियों की व्यवस्था इस उम्मीद में की थी कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों को हल करने के लिए सत्य खोजूँगी। परमेश्वर मुझे बचाना चाहता था, हटाना नहीं। परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा था, इसलिए मैं खुद को नहीं छोड़ सकती थी। भले ही मुझमें भ्रष्ट स्वभाव थे, लेकिन जब तक मैं सत्य का अनुसरण करना नहीं छोड़ती, तब तक मेरे लिए परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की उम्मीद थी। यह सोचकर मैंने नकारात्मक होना छोड़ दिया, मैं सत्य खोजना और अपनी समस्याएँ हल करना चाहती थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और रुतबा होता है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी और तब उनका रुतबा और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप वे ‘मरने तक नकारते रहो’ के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे उन्हें कैसे भी उजागर करें या उनका कैसे भी गहन-विश्लेषण करें, वे इसे नकारने के लिए जो बन पड़े, वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में एक ओर ये व्यवहार मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर करते हैं। दूसरी ओर यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपने रुतबे, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और गैर-जिम्मेदारी का रवैया होता है। उनमें अंतरात्मा और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर जिम्मेदारी से बचना सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने के उनके प्रकृति सार को साबित करता है तो दूसरी ओर यह उनमें जमीर, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनकी गड़बड़ी और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई ग्लानि महसूस नहीं होती और उन्हें इस बारे में कभी बुरा नहीं लग सकता। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी जरा-सी भी गलती मान लेते हैं तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और विवेक का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? सारतः, मसीह-विरोधी लोग दानव हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाते हों, वे उसे नहीं देखते। वे अपने दिलों में इससे जरा भी दुखी नहीं होते, न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिल्कुल भी महसूस नहीं करते। यह वह बिल्कुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। वे दानव हैं और दानवों में कोई जमीर या विवेक नहीं होता है। चाहे वे कितने भी बुरे काम करें और उनके कारण कलीसिया के काम को कितने भी बड़े नुकसान उठाने पड़ें, वे अपनी गलती स्वीकारने से पूरी तरह इनकार करते हैं। उनका मानना है कि इसे स्वीकारने का मतलब यह होगा कि उन्होंने कुछ गलत किया है। वे सोचते हैं, ‘क्या मैं कुछ गलत कर सकता हूँ? मैं कभी कुछ गलत नहीं करूँगा! अगर मुझसे मेरी गलती स्वीकार करवाई जाती है तो क्या यह मेरे चरित्र का अपमान नहीं होगा? भले ही मैं उस घटना में शामिल था, मगर वह घटना मेरे कारण नहीं हुई और वहाँ का मुख्य प्रभारी मैं नहीं था। तुम्हें जिसे भी ढूँढ़ना है ढूँढ़ो, मगर मुझे ढूँढ़ते हुए मत आ जाना। चाहे जो भी हो, मैं यह गलती नहीं स्वीकार सकता। मैं यह जिम्मेदारी नहीं ले सकता!’ वे सोचते हैं कि अगर उन्होंने अपनी गलती स्वीकार ली तो उनकी निंदा की जाएगी, मौत की सजा सुनाई जाएगी; साथ ही उन्हें नरक में और आग और गंधक की झील में डाल दिया जाएगा। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोग सत्य स्वीकार सकते हैं? क्या कोई उनसे सच्चे पश्चात्ताप की उम्मीद कर सकता है? दूसरे लोग चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करें, मसीह-विरोधी फिर भी इसका प्रतिरोध करेंगे, इसके विरुद्ध खड़े रहेंगे और अपने दिल की गहराई से इसका खंडन करेंगे। बर्खास्त किए जाने के बाद भी वे अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते और न ही वे पश्चात्ताप का कोई भी लक्षण दिखाते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी चाहे परमेश्वर के घर के हितों को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे न केवल अपनी गलतियाँ मानने से इनकार करते हैं बल्कि प्रतिरोधी और पराजित भी महसूस करते हैं, वे लगातार बहस करने, खुद को सही ठहराने और यहाँ तक कि दूसरों पर जिम्मेदारी की भी कोशिश करते रहते हैं, उनमें बिल्कुल भी अपराध-बोध या ऋणग्रस्तता की भावना नहीं होती। इससे हम देख सकते हैं कि मसीह-विरोधी प्रकृति से ही सत्य से वाकई विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं। अपने व्यवहार को फिर से देखने पर मैंने पाया कि यह बिल्कुल एक मसीह-विरोधी जैसा था। मैंने स्पष्ट रूप से वास्तविक कार्य नहीं किया था, लेकिन जब बहनों ने यह बात उठाई, तो मैंने प्रतिरोधी महसूस किया और बहस की, यहाँ तक कि मैंने जरा भी आज्ञाकारिता या स्वीकृति का भाव नहीं दिखाया। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैं वास्तविक कार्य न करने के बहाने के तौर पर सीसीपी की गिरफ्तारियों और उत्पीड़न के स्पष्ट कारण पर जोर देती रही और पूरी आत्मतुष्टता के साथ अपने लिए दलीलें देने की कोशिश करती रही। मुझमें कोई विवेक कैसे था? वास्तव में, भाई-बहनों ने पहले भी मुझे इन समस्याओं की रिपोर्ट की थी, लेकिन मैंने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया, इसलिए बहनों ने उच्च अगुआओं को इस मामले की रिपोर्ट कर दी। लेकिन मुझे लगा कि बहनों की मुझसे अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा थीं। क्या मैं पूरी तरह से अविवेकी नहीं हो रही थी? मैंने अपने हितों को बहुत अधिक महत्व दिया और मैंने कलीसिया के कार्य या अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की बिल्कुल भी परवाह नहीं की। मैं सचमुच इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य के लायक नहीं थी।
फिर, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे सत्य को स्वीकारने से इनकार करने और उससे विमुख होने की प्रकृति और परिणामों की और अधिक समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “वे जो भी सोचें या कहें, चीजों को कैसे भी देखें, लोग हमेशा सोचते हैं कि उनका नजरिया और उनका रवैया ही सही है, और दूसरों का कहा उनके जैसा ठीक या उतना सही नहीं है। वे हमेशा अपनी ही राय से चिपके रहते हैं, और बोलने वाला इंसान जो भी हो, वे उसकी बात नहीं सुनते। किसी और की बात सही हो, या सत्य के अनुरूप हो, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे सुनने का सिर्फ दिखावा करेंगे, मगर वे उस विचार को सच में नहीं अपनाएँगे, और कार्य करने का समय आने पर भी वे अपने ही ढंग से काम करेंगे, हमेशा यह सोचते हुए कि जो वे कहते हैं वही सही और वाजिब है। ... तुम्हारा यह व्यवहार देखकर परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा : ‘तुम दुराग्रही हो! जब यह न पता हो कि तुम गलत हो तो तुम्हारा अपने विचारों से चिपके रहना तो समझ आता है, मगर जब तुम्हें साफ पता है कि तुम गलत हो फिर भी तुम अपने विचारों से चिपके रहते हो और प्रायश्चित्त करने से पहले मरना पसंद करोगे, तो तुम निरे जिद्दी बेवकूफ हो, और मुसीबत में हो। सुझाव कोई भी दे, अगर तुम इसके प्रति हमेशा नकारात्मक, प्रतिरोधी रवैया अपनाकर सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रतिरोधी, बंद और चीजों को नकारने के भाव से भरा है, तो तुम हँसी के पात्र हो, बेहूदा हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।’ तुमसे निपटना मुश्किल क्यों है? तुमसे निपटना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि तुम जो प्रदर्शित कर रहे हो वह एक त्रुटिपूर्ण रवैया या त्रुटिपूर्ण व्यवहार नहीं है, बल्कि तुम्हारे स्वभाव का खुलासा है। किस स्वभाव का खुलासा? उस स्वभाव का जिसमें तुम सत्य से विमुख हो, सत्य से घृणा करते हो। जब एक बार तुम्हें उस व्यक्ति के रूप में पहचान लिया गया जो सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम मुसीबत में हो, और वह तुम्हें ठुकरा देगा और अनदेखा करेगा। लोगों के नजरिये से देखें, तो ज्यादा-से-ज्यादा वे कहेंगे : ‘इस व्यक्ति का स्वभाव बुरा है। यह बेहद जिद्दी, दुराग्रही और अहंकारी है! इसके साथ निभाना बहुत मुश्किल है, यह सत्य से प्रेम नहीं करता। इसने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया, और यह सत्य पर अमल नहीं करता।’ ज्यादा-से-ज्यादा, सब लोग तुम्हारा यही आकलन करेंगे, मगर क्या यह आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला कर सकता है? लोग तुम्हारा जो आकलन करते हैं, वह तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर सकता, मगर एक चीज है जो तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए : परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच करता है, और साथ ही साथ वह उनकी हर कथनी और करनी का निरीक्षण करता है। अगर परमेश्वर तुम्हें इस तरह परिभाषित करता है, और अगर वह मात्र इतना नहीं कहता कि तुम्हारा स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है, या तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, बल्कि कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, तो क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? (यह गंभीर है।) इससे मुसीबत होगी, और यह मुसीबत इसमें नहीं है कि लोग तुम्हें किस नजर से देखते हैं, या तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, यह इस बात में है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो परमेश्वर इसे किस नजर से देखता है? क्या परमेश्वर ने सिर्फ यह तय कर दिया है कि तुम सत्य से घृणा करते हो, इससे प्रेम नहीं करते, और कुछ नहीं? क्या यह इतना सरल है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतिनिधित्व करता है? (यह परमेश्वर को दर्शाता है।) इस पर विचार करो : अगर एक इंसान सत्य से घृणा करता है, तो परमेश्वर अपने नजरिए से उसे कैसे देखेगा? (अपने शत्रु के रूप में।) क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है, तो वह परमेश्वर से घृणा करता है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि दूसरों की सलाह और मार्गदर्शन को कभी न स्वीकारने का मतलब वास्तव में यह है कि व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता। सत्य परमेश्वर से आता है और इसलिए सत्य को स्वीकार न करने का सार सत्य से विमुख होना और उससे घृणा करना है! मैंने कलीसिया से निष्कासित किए गए कुछ मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा। चाहे उन्होंने कलीसिया के कार्य को कितना भी नुकसान पहुँचाया हो या भाई-बहनों ने कैसे भी सत्य की संगति की हो या उनकी काट-छाँट की हो, उन्होंने अपनी गलतियाँ मानने से बिल्कुल इनकार कर दिया और यहाँ तक कि वे सलाह देने वाले भाई-बहनों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते थे। क्योंकि वे सत्य स्वीकार नहीं करते थे, इसलिए वे हमेशा अपने कर्तव्यों के निर्वहन में गड़बड़ी और बाधाएँ पैदा करते थे, अंत में उन्होंने कई बुरे कर्म किए और उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। फिर मैंने अपने बारे में सोचा। भाई-बहनों ने मेरी समस्याओं के बारे में जो रिपोर्टें दी थीं वे तथ्यात्मक थीं, उनकी रिपोर्टों का उद्देश्य इन समस्याओं को जल्दी हल करने में मेरी मदद करना था ताकि भाई-बहन सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकें और कलीसिया का कार्य सुचारु रूप से आगे बढ़ सके। यह सब कलीसिया के हितों की रक्षा के लिए था और यह एक सकारात्मक चीज है। लेकिन मैंने न केवल इसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि हठपूर्वक बहस करने और बहाने बनाने की कोशिश की। भले ही ऐसा लगता था कि मैं भाई-बहनों की सलाह स्वीकार नहीं कर सकती, वास्तव में, मैं सकारात्मक चीजों या सत्य को स्वीकार नहीं कर सकती थी। यह प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली है! मुझे एहसास हुआ कि सत्य के प्रति मेरा रवैया बहुत अनादरपूर्ण था और अगर मैंने इसे नहीं बदला, तो पता नहीं कब मैं फिर से परमेश्वर का प्रतिरोध कर बैठूँगी, मैं और अधिक अपराध करूँगी और अंत में, मुझे एक मसीह-विरोधी की तरह हटा दिया जाएगा। जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैं डर गई। मैं कई सालों से परमेश्वर में विश्वास रखती आई थी और परमेश्वर के इतने सारे वचन खाए और पिए थे, लेकिन मैं अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही थी और दूसरों की सलाह मानने से इनकार कर रही थी। इस रवैये के साथ अपना कर्तव्य करने के कारण परमेश्वर मुझसे घृणा करता है, अगर मैं अपना पूरा जीवन इसी तरह परमेश्वर में विश्वास रखते हुए बिता दूँ, तो भी मुझे कभी सत्य प्राप्त नहीं होगा और मेरे भ्रष्ट स्वभाव कभी शुद्ध नहीं होंगे। उस समय मैंने तहे दिल से महसूस किया कि बेनकाब किए जाने का मतलब हटाया जाना नहीं, बल्कि मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है। कलीसिया ने मुझे बरखास्त नहीं किया था बल्कि एक और मौका दिया था और मुझे जल्दी से पश्चात्ताप करना था।
मैंने अभ्यास का मार्ग खोजना शुरू किया और मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया, इसलिए मैंने उसे पढ़ने के लिए खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो पहली बात यह कि अगर चीजें तुम्हारे अनुसार न हों, तो आवेश में आने से बचना चाहिए। पहले मन को शांत करो और परमेश्वर के सामने मौन रहो, मन ही मन उससे प्रार्थना करो और उससे खोजो। हठी मत बनो; पहले समर्पित हो जाओ। ऐसी मानसिकता से ही तुम समस्याओं का बेहतर समाधान कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीने में दृढ़ रह सको, और तुम पर चाहे जो भी मुसीबत आए, उसमें उससे प्रार्थना करने और रास्ता दिखाने के लिए कहने में समर्थ हो, और तुम समर्पण की मानसिकता से उसका सामना कर सकते हो, तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के कितने खुलासे हो चुके हैं, या तुमने पहले क्या-क्या अपराध किए हैं—अगर तुम सत्य की खोज करो, तो उन सभी समस्याओं को हल कर पाओगे। तुम्हारे सामने कैसी भी परीक्षाएँ आएँ, तुम दृढ़ रह पाओगे। अगर तुम्हारी मानसिकता सही है, तुम सत्य स्वीकार पाते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसके प्रति समर्पण करते हो तो तुम सत्य पर अमल करने में पूरी तरह सक्षम हो। भले ही तुम कभी-कभी थोड़े विद्रोही और प्रतिरोधी हो सकते हो और कभी-कभी रक्षात्मक समझ दिखाते हो और समर्पण नहीं कर पाते हो, पर यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी विद्रोही प्रवृत्ति को बदल सको, तो तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो। ऐसा करने के बाद, इस पर विचार करो कि तुम्हारे अंदर विद्रोह और प्रतिरोध क्यों पैदा हुआ। कारण का पता लगाओ, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो, और तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के उस पहलू को शुद्ध किया जा सकता है। ऐसी कई ठोकरों और गिरने के अनुभव के बाद, उस मुकाम तक जब तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा। और फिर, तुम्हारे अंदर सत्य का राज हो जाएगा और वह तुम्हारा जीवन बन जाएगा। उसके बाद, तुम्हारे सत्य के अभ्यास में कोई और बाधा नहीं आएगी। तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर पाओगे और तुम सत्य वास्तविकता को जिओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन अभ्यास का मार्ग बहुत स्पष्ट कर देते हैं। मुख्य बात यह है कि परिस्थितियों का सामना करते समय सत्य को स्वीकारने वाला दिल होना चाहिए। चाहे उस समय हमें अपनी बात कितनी भी जायज क्यों न लगे, हमें खुद का बचाव करने की दलीलों पर जोर नहीं देना चाहिए। इसके बजाय, हमें परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत करना चाहिए, उससे प्रार्थना करनी चाहिए और खोजना चाहिए। केवल तभी हम पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पा सकते हैं। साथ ही, हमें अपनी समस्याओं पर चिंतन करना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए संबंधित सत्यों की खोज करनी चाहिए, फिर जब हमें अपने भ्रष्ट स्वभावों की समझ हो जाती है, तो हमारे दिल सत्य को स्वीकार सकते हैं और समर्पण कर सकते हैं। मुझे परमेश्वर द्वारा दिए गए मार्ग के अनुसार अभ्यास करना चाहिए।
जून में एक दिन, सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार बहन लिन वेई ने पत्र लिखकर कहा कि कुछ हफ्ते पहले, उसने मुझसे कलीसिया के सुसमाचार कार्य के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन मैंने उसे कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। लिन वेई द्वारा बताई गई समस्याओं को देखकर मुझे कुछ प्रतिरोध महसूस हुआ और पत्र पूरा पढ़ने से पहले ही मैं मन ही मन बहस करने से खुद को नहीं रोक सकी, मैंने सोचा, “मैंने सुसमाचार कार्य का जायजा लिया है, लेकिन सुसमाचार प्रचारकों ने अपने जवाब में विवरण नहीं दिया, इसलिए मैं तुम्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकी। तुमने जिस तरह से कहा है, उससे ऐसा लगता है जैसे मैंने काम का जायजा ही नहीं लिया है!” पत्र के अंत में लिन वेई ने मेरे कर्तव्यों में भटकावों का सारांश तैयार करने और सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित करने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए अपने अनुभव साझा किए ताकि मैं अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकूँ। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मैंने जो स्वभाव अभी-अभी प्रकट किया है, वह अभी भी बहस करने, बहाने बनाने और सत्य को स्वीकार न करने वाला है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, आज जब बहन ने मेरी समस्याएँ बताईं, तो मैं अभी भी बहस करने और खुद को सही ठहराने की कोशिश करना चाहती थी। मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं स्वीकृति के बिंदु से शुरुआत करूँ और फिर इसके माध्यम से आत्म-चिंतन करूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “जब घटनाएँ घटती हैं तो व्यक्ति में सबसे पहले सत्य को स्वीकारने का रवैया होना चाहिए। ऐसे रवैये का न होना उसी प्रकार है जैसे खजाने को रखने के लिए किसी बर्तन का न होना, इसी तरह तुम सत्य पाने में असमर्थ हो जाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मुझे एहसास हुआ कि इस स्थिति का सामना करते समय पहले समर्पण करके ही मैं सबक सीख सकती हूँ। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तो फिर समर्पित रवैया आखिर क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारे पास एक सकारात्मक रवैया होना चाहिए : जब तुम्हारी काट-छाँट हो तो सबसे पहले सही-गलत का विश्लेषण करने मत बैठ जाओ—इसे समर्पित मन से स्वीकारो। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है कि तुमने कुछ गलत किया है। यद्यपि तुम्हारा दिल नहीं मानता, तुम यह भी नहीं जानते कि क्या गलत किया, फिर भी तुम इसे स्वीकारते हो। स्वीकार करना मूल रूप से एक सकारात्मक रवैया है। इसके अलावा ऐसा रवैया भी है जो इससे थोड़ा ज्यादा नकारात्मक है, वह है चुप रहना और कोई प्रतिरोध न करना। इसमें किस तरह का व्यवहार शामिल है? तुम अपनी समझ पर बहस नहीं करते, अपना बचाव नहीं करते, या अपने लिए वस्तुनिष्ठ बहाने नहीं बनाते। अगर तुम हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हो और तर्क-वितर्क करते हो, और जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर ठेलते हो तो क्या यह प्रतिरोध है? यह विद्रोह का स्वभाव है। तुम्हें अस्वीकार, प्रतिरोध या समझ को लेकर तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। भले ही तुम्हारी समझ मजबूत हो, लेकिन क्या यही सत्य है? यह मनुष्य का वस्तुनिष्ठ बहाना है, सत्य नहीं। तुमसे वस्तुनिष्ठ बहानों के बारे में नहीं पूछा जा रहा है—यह चीज क्यों हुई, या कैसे हुई—बल्कि, तुम्हें यह बताया जा रहा है कि उस कार्यकलाप की प्रकृति सत्य के अनुरूप नहीं थी। यदि तुम्हारे पास इस स्तर का ज्ञान है, तो तुम वास्तव में स्वीकार करने और प्रतिरोध न करने में सक्षम होओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन अभ्यास का मार्ग स्पष्ट रूप से बताते हैं। किसी स्थिति का सामना करते समय मुझे सही या गलत का विश्लेषण करके शुरुआत नहीं करनी चाहिए। भले ही मैं अभी भी यह नहीं देख पा रही थी कि मैंने कहाँ गलती की, मुझे पहले बहन द्वारा बताई गई समस्याओं को स्वीकारना चाहिए और आत्म-चिंतन करना चाहिए। मुझे स्पष्ट कारणों का हवाला देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भले ही मेरे तर्क सही थे, पर वे सत्य नहीं थे। जब मुझमें समर्पण की मानसिकता आ गई, तो मेरा दिल शांत हो गया। फिर मैंने यह देखने के लिए सुसमाचार प्रचारकों के साथ अपने हाल के पत्राचार की समीक्षा शुरू की कि समस्या वास्तव में कहाँ थी। मैंने पाया कि कुछ लोगों से मैंने केवल एक बार विवरण माँगा था और अगर उन्होंने जवाब नहीं दिया, तो मैंने दोबारा उनका जायजा नहीं लिया; कुछ ने जवाब तो दिया, लेकिन विवरण के बिना। वास्तव में, इन मसलों के संबंध में मुझे विशिष्ट विवरण माँगने के लिए फिर से पत्र लिखना चाहिए था और जल्द से जल्द लिन वेई को प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी, लेकिन क्योंकि मैंने काम का जायजा नहीं लिया था और मुझे नहीं पता था कि चीजें कैसी चल रही हैं, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर सकी; नतीजतन लिन वेई समय पर भटकावों को ठीक करने या समस्याएँ हल करने में हमारी मदद नहीं कर सकी। सुसमाचार कार्य की धीमी प्रगति वास्तव में मेरी जिम्मेदारी थी। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे मेरी समस्याओं का एहसास कराया और मैं सचमुच पूरे दिल से लिन वेई के मार्गदर्शन और मदद को स्वीकार कर सकी। उसके बाद, मैंने सुसमाचार प्रचारकों के साथ संगति की, उनसे सुसमाचार कार्य के बारे में विशिष्ट प्रतिक्रिया देने को कहा, ताकि हम तुरंत भटकावों को ठीक कर सकें और अपने कर्तव्यों में अच्छे नतीजे सुनिश्चित कर सकें। जब सुसमाचार कार्य में समस्याएँ और कठिनाइयाँ आईं, तो मैंने तुरंत लिन वेई को प्रतिक्रिया दी और उसके साथ मिलकर समाधान खोजा। साथ ही, मैंने सचेत होकर नियमित रूप से काम का जायजा लेना और यह सुनिश्चित करना भी शुरू कर दिया कि यह ठीक से लागू हो। परमेश्वर का धन्यवाद! मुझमें यह बदलाव परमेश्वर के वचनों से आया।