10. एक कॉलेज छात्रा की आस्था का कठिन मार्ग

नैन्सी, भारत

सितंबर 2021 में, मैं कॉलेज के पहले साल में थी। महामारी के कारण हम सिर्फ ऑनलाइन क्लास ही कर पा रहे थे, लेकिन इसी वजह से, ऑनलाइन मेरी एक बहन से जान-पहचान हुई, जिसने मुझे ऑनलाइन सभाओं में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। जब उस बहन ने मुझे गवाही दी कि प्रभु यीशु लौट आया है और वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, तो मैं बहुत उत्साहित हुई। अपनी छानबीन के दौरान, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बहुत से वचन पढ़े और परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की पुष्टि कर ली। मैं और भी लोगों को सुसमाचार का प्रचार करने के लिए बहुत उत्सुक थी और मैंने अपने परिवार के बारे में सोचा। मैंने सोचा, “वे यह सुनकर निश्चित रूप से बहुत खुश होंगे कि प्रभु लौट आया है।” मैंने अपने माता-पिता और अपनी दादी को एक साथ सभा में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने ऑनलाइन निराधार अफवाहों पर विश्वास कर लिया था, इसलिए उनमें से कोई भी खोजने और छानबीन करने को तैयार नहीं था। उन्होंने मुझसे यह भी कहा, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की सभाओं में शामिल मत हो। धार्मिक कलीसिया जाना ही काफी है।” उन्होंने मुझसे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने को भी कहा। क्योंकि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने पर अड़ी रही, इसलिए मेरे माता-पिता बहुत नाराज हो गए। वे अक्सर मेरा सेल फोन छीन लेते थे और मुझे ऑनलाइन सभाओं में शामिल होने की इजाजत नहीं देते थे। कई बार, मैंने अपना फोन वापस लेना चाहा, लेकिन मेरे पिता बहुत गुस्सैल थे और वे अक्सर मुझ पर चिल्लाते थे और यहाँ तक कि मुझे मारते भी थे। एक बार, उन्होंने मेरे बाल पकड़कर मुझे घर से बाहर धकेल दिया। मेरी माँ ने यह देखा लेकिन उन्हें रोका नहीं। उल्टा, उन्होंने मुझे यह कहते हुए कोसा कि मैं इसी लायक हूँ और एक झूठे मसीह द्वारा गुमराह की गई हूँ। मैं जानती थी कि मुझे गुमराह नहीं किया गया है। प्रभु यीशु ने कहा था : “उस समय यदि कोई तुम से कहे, ‘देखो, मसीह यहाँ है!’ या ‘वहाँ है!’ तो विश्‍वास न करना। क्योंकि झूठे मसीह और झूठे भविष्यद्वक्ता उत्पन्न हो जाएंगे, और बड़े संकेत और आश्चर्यजनक कार्य दिखाएंगे; ताकि अगर संभव हो, तो वे चुने हुए लोगों को ही गुमराह कर दें(मत्ती 24:23-24)। झूठे मसीह केवल परमेश्वर के पिछले कार्य की नकल कर सकते हैं और लोगों को गुमराह करने के लिए बड़े संकेत और चमत्कार दिखा सकते हैं। लेकिन, परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं होता। वह अपने पहले किए गए कार्य को नहीं दोहराता। परमेश्वर मानवजाति की जरूरतों के अनुसार कार्य करता है। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर न्याय का कार्य करने, मानवजाति को उसकी भ्रष्टता से स्वच्छ करने के लिए सत्य व्यक्त करता है। लेकिन, झूठे मसीह सत्य व्यक्त नहीं कर सकते; वे लोगों को स्वच्छ करने या बचाने का कार्य तो बिल्कुल भी नहीं कर सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि झूठे मसीहों के पास सत्य नहीं होता। इसके अलावा, उस दौरान सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं ऐसे कई सत्य और रहस्य समझ गई जो मैं पहले नहीं समझती थी : मुझे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना और उसके देहधारण के रहस्यों के बारे में पता चला। मुझे यह भी पता चला कि परमेश्वर लोगों की अगुआई करने के लिए कैसे कार्य करता है, वह लोगों को कैसे शुद्ध करता है, वह उनके भ्रष्ट स्वभावों को कैसे बदलता है, वह उन्हें उनकी किस्म के अनुसार कैसे छाँटता है, वगैरह-वगैरह। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचनों से, मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि प्रभु यीशु लौट आया है; वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। मैंने अपने माता-पिता से कहा, “चाहे कुछ भी हो जाए, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखना नहीं छोड़ूँगी।” जब मेरी माँ ने देखा कि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने पर अड़ी हुई हूँ, तो उसने मेरे मुँह पर एक थप्पड़ मारा। मेरी माँ ने मुझे पहले कभी नहीं मारा था, मुझे बहुत दुख हुआ और मैं रोने लगी।

अगले चार दिनों तक, मेरे माता-पिता ने फिर भी मेरा फोन वापस नहीं दिया। उन्होंने मुझसे कॉलेज न जाने और घर पर रहकर घर का काम करने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहा। उन्होंने मुझे अपने छोटे भाई-बहनों से परमेश्वर में विश्वास से जुड़ी कोई भी बात न करने की चेतावनी भी दी। इस परिवेश का सामना करते हुए, मैं थोड़ी कमजोर पड़ गई। मुझे लगा कि कोई मुझे नहीं समझता। मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाई : परमेश्वर मेरे लिए ऐसे परिवेश की व्यवस्था क्यों करेगा? यहाँ तक कि मैं सभाओं में शामिल होना और अपना कर्तव्य निभाना भी बंद करना चाहती थी। मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश याद आए : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक कदम में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक कदम, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब का परीक्षण हुआ : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ शर्त लगा रहा था और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे और मनुष्यों के विघ्न थे। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक लड़ाई होती है। ... हर चीज जो लोग करते हैं, उसमें उन्हें अपने प्रयासों के लिए एक निश्चित कीमत चुकाने की आवश्यकता होती है। बिना वास्तविक कठिनाई के वे परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकते; वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के करीब तक भी नहीं पहुँचते और केवल खोखले नारे लगा रहे होते हैं!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। “निराश न हो, कमजोर न बनो, मैं तुम्हारे लिए चीजें स्पष्ट कर दूँगा। राज्य की राह इतनी आसान नहीं है; कुछ भी इतना सरल नहीं है! तुम चाहते हो कि तुम्हें आशीष आसानी से मिल जाएँ, है ना? आज हर किसी को कठोर परीक्षणों का सामना करना होगा। बिना इन परीक्षणों के मुझे प्यार करने वाला तुम लोगों का दिल और मजबूत नहीं होगा और तुम्हें मुझसे सच्चा प्यार नहीं होगा। भले ही ये परीक्षण केवल मामूली परिस्थितियों से युक्त हों, तो भी सभी को इनसे गुजरना होगा; अंतर केवल इतना है कि परीक्षणों की तीव्रता अलग-अलग होगी। परीक्षण मेरे आशीष हैं, और तुममें से कितने मेरे सामने आकर घुटनों के बल गिड़गिड़ाकर मेरे आशीष माँगते हैं? बेवकूफ बच्चे! तुम्हें हमेशा लगता है कि कुछ मांगलिक वचन ही मेरे आशीष होते हैं, किंतु तुम्हें यह नहीं लगता कि कड़वाहट मेरे आशीषों में से एक है। जो लोग मेरी कड़वाहट में हिस्सा बँटाते हैं, वे निश्चित रूप से मेरी मिठास में भी हिस्सा बँटाएँगे। यह मेरा वादा है और तुम लोगों को मेरा आशीष है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे शक्ति दी, मैं समझ गई कि भले ही देखने में ऐसा लग रहा था कि मेरे माता-पिता मुझे मार रहे हैं, कोस रहे हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकने के लिए मेरा फोन छीन रहे हैं, लेकिन असल में इसके पीछे शैतान की चालें थीं। ठीक अय्यूब की तरह, शैतान ने अय्यूब को कई तरीकों से ललचाया, उसे अपने बच्चे और संपत्ति खोने पर मजबूर किया और उसका शरीर पीड़ादायक फोड़ों से भर गया। शैतान इसका इस्तेमाल कर यही चाहता था कि अय्यूब परमेश्वर को नकार दे, लेकिन अय्यूब ने परमेश्वर के नाम से इनकार नहीं किया; इसके बजाय, उसने फिर भी परमेश्वर के नाम की स्तुति की और परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहा। मुझ पर जो कुछ भी बीता, उसके पीछे शैतान की साजिशें थीं और यह परमेश्वर की अनुमति से भी हुआ था। भले ही मैं कमजोर थी, लेकिन मैं परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहना चाहती थी। चाहे मेरे माता-पिता मुझे कैसे भी मारें या मुझे रोकने के लिए कोई भी तरीका अपनाएँ, मुझे परमेश्वर में विश्वास रखना और अपना कर्तव्य निभाना ही होगा। मैं शैतान की साजिशों को सफल नहीं होने दे सकती थी। मुझे लगा कि घर पर रहकर परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत मुश्किल है और मैं अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी। इसलिए मैंने घर छोड़ने का फैसला किया।

इसके बाद जो हुआ वह उतना सरल नहीं था जितना मैंने सोचा था। मेरे जाने के बाद, मेरे परिवार ने पुलिस में मेरी गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई और कहा कि अगर कोई मुझे देखे तो पुलिस को बुलाए। मुझे चिंता थी कि अगर यह जारी रहा, तो इससे मेरे भाई-बहनों और कलीसिया के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी। इसलिए मैंने उन्हें फोन करके कहा कि मैं एक दिन वापस आऊँगी। उन्होंने रुकने से इनकार कर दिया। वे एक बहन के घर गए और उससे पूछा कि मैं कहाँ हूँ। उन्होंने उस बहन को धमकी भी दी। उस बहन को मुसीबत में न डालने के लिए, मेरे पास घर जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। जब मैं घर पहुँची, तो मैंने देखा कि बहुत से गाँव वाले और रिश्तेदार मेरे घर के चारों ओर भीड़ लगाए हुए हैं। मेरे माता-पिता ने मीडिया को बुला लिया था। मीडिया ने पूछा, “तुम कहाँ थी? तुमने अपने माता-पिता को क्यों छोड़ा? तुम घर क्यों नहीं आई?” उन्होंने बहुत सी अप्रिय बातें भी कहीं, यह दावा करते हुए कि मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित नहीं हूँ, आज्ञा न मानने वाली बच्ची हूँ और यह भी कहा कि मुझे पढ़ाई की परवाह नहीं है। उस समय, मेरे चारों ओर सभी अविश्वासी थे। कोई मुझे नहीं समझता था। मैं खुद को बहुत अकेली महसूस कर रही थी, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, चाहे आगे कुछ भी हो, मुझे इन सब का सामना करने का साहस देना।” मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था : “तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए खुद को बलिदान करना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा और तुम्हें और अधिक सत्य प्राप्त करने की खातिर और अधिक कष्ट सहना होगा। यही तुम्हें करना चाहिए। पारिवारिक सामंजस्य का आनंद लेने के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए और तुम्हें अस्थायी आनन्द के लिए जीवन भर की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है और तुम्हें जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मुझे सत्य के लिए कष्ट सहना होगा और सत्य पाने के लिए अपमान सहना होगा, मुझे परमेश्वर में विश्वास रखना होगा और मैं किसी भी समय सर्वशक्तिमान परमेश्वर में अपना विश्वास नहीं छोड़ सकती। परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए बहुत कष्ट सहे हैं : सीसीपी सरकार ने उसकी निंदा की, उस पर अत्याचार किए और पूरी पीढ़ी ने उसे ठुकरा दिया। परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बहुत अधिक त्याग किया है। मैंने परमेश्वर के इतने सारे वचनों के सिंचन और प्रावधान का आनंद लिया है; यह थोड़ा-सा कष्ट क्या मायने रखता है? इसके अलावा, जब मैं यह पीड़ा सह रही थी, तो परमेश्वर मेरे साथ था। वह मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करेगा। जब मैं यह समझ गई, तो मेरे दिल में आस्था और शक्ति आ गई और अब मैं अकेलापन महसूस नहीं कर रही थी। मुझे अब इस बात की भी परवाह नहीं थी कि ये लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मेरे चाचा और मेरे परिवार ने मुझे एक इंटरव्यू देने के लिए मजबूर किया। चाहे मैंने कुछ भी कहा, वे मेरा विश्वास नहीं कर रहे थे। बाद में, मेरे परिवार ने मुझ पर निगरानी रखनी शुरू कर दी। यहाँ तक कि जब मैं सो रही होती थी, तब भी वे बाहर से दरवाजा बंद कर देते थे। मैं बहुत दुखी थी। मैंने कुछ भी बुरा नहीं किया था। मैंने केवल परमेश्वर में विश्वास किया था और अपना कर्तव्य निभाया था, लेकिन वे मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे थे।

जब मैं दुखी और पीड़ा में थी, मेरा छोटा भाई अचानक मेरे कमरे में आया और कहने लगा कि वह मेरा साथ देना चाहता है। उसने मुझे एक पुराना सेल फोन दिया और ऑनलाइन होने में भी मेरी मदद की। मैंने “पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो” शीर्षक वाला परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “आज तुम परमेश्वर से कितना प्रेम करते हो? और जो कुछ भी परमेश्वर ने तुम्हारे भीतर किया है, उस सबके बारे में तुम कितना जानते हो? ये वे बातें हैं, जो तुम्हें सीखनी चाहिए। जब परमेश्वर पृथ्वी पर आया, तो जो कुछ उसने मनुष्य में किया और जो कुछ उसने मनुष्य को देखने दिया, वह इसलिए था कि मनुष्य उससे प्रेम करे और वास्तव में उसे जाने। मनुष्य यदि परमेश्वर के लिए कष्ट सहने में सक्षम है और यहाँ तक आ पाया है, तो यह एक ओर परमेश्वर के प्रेम के कारण है, तो दूसरी ओर परमेश्वर के उद्धार के कारण; इससे भी बढ़कर, यह उस न्याय और ताड़ना के कार्य के कारण है, जो परमेश्वर ने मनुष्य में किया हैं। यदि तुम परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और परीक्षण से रहित हो, और यदि परमेश्वर ने तुम लोगों को कष्ट नहीं दिया है, तो सच यह है कि तुम लोग परमेश्वर से सच में प्रेम नहीं करते। मनुष्य में परमेश्वर का काम जितना बड़ा होता है, और जितने अधिक मनुष्य के कष्ट होते हैं, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होता है कि परमेश्वर का कार्य कितना अर्थपूर्ण है, और उतना ही अधिक उस मनुष्य का हृदय परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर पाता है। तुम परमेश्वर से प्रेम करना कैसे सीखते हो? यातना और शोधन के बिना, पीड़ादायक परीक्षणों के बिना—और इसके अलावा, यदि परमेश्वर ने मनुष्य को अनुग्रह, प्रेम और दया ही प्रदान की होती—तो क्या तुम परमेश्वर से सच्चा प्रेम करने के मुकाम तक पहुँच पाते? एक ओर, परमेश्वर द्वारा लिए जाने वाले परीक्षणों के दौरान मनुष्य अपनी कमियाँ जान पाता है और देख पाता है कि वह तुच्छ, घृणित और निकृष्ट है, कि उसके पास कुछ नहीं है और वह कुछ नहीं है; तो दूसरी ओर, अपने परीक्षणों के दौरान परमेश्वर मनुष्य के लिए भिन्न परिवेशों की रचना करता है, जो मनुष्य को परमेश्वर की मनोहरता का अनुभव करने के अधिक योग्य बनाता है। यद्यपि पीड़ा अधिक होती है और कभी-कभी तो असहनीय हो जाती है—मिटाकर रख देने वाले कष्ट तक भी पहुँच जाती है—परंतु इसका अनुभव करने के बाद मनुष्य देखता है कि उसमें परमेश्वर का कार्य कितना मनोहर है, और केवल इसी नींव पर मनुष्य में परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम का जन्म होता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। भले ही इस कठिन परिस्थिति में मैं कमजोर महसूस कर रही थी, लेकिन परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रेरित किया। मैं समझ गई कि अगर मुझ पर आने वाली हर चीज सुचारु रूप से चलती और मुझे कोई कठिनाई न होती और मुझे केवल परमेश्वर का अनुग्रह, दया और प्रेम मिलता, तो परमेश्वर के कार्य के बारे में मेरी समझ बहुत सीमित होती। कष्ट और परीक्षण परमेश्वर में मेरी आस्था को पूर्ण बनाने के लिए थे। मुझे लगा कि मैं अपने परिवार द्वारा रोके और सताए जाने और अपने आस-पास के लोगों द्वारा तुच्छ समझे जाने और नीची नजर से देखे जाने को सहन नहीं कर सकती। यह ऐसा था मानो मैं किसी ऐसी जेल में रह रही हूँ जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। लेकिन इस परिवेश के जरिए मुझे अपनी कमियों का एहसास हुआ। मैंने देखा कि मैं बहुत कमजोर हूँ और मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। जब मैंने पहली बार सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तो मुझे लगा कि परमेश्वर में मेरी बहुत आस्था है और मैं अपने ऊपर आने वाले किसी भी परिवेश का सामना कर सकती हूँ। लेकिन जब मैंने सचमुच कष्ट और कठिनाई का सामना किया, तो मुझे लगा कि यह बहुत कठिन है, यहाँ तक कि मैंने अपने दिल में यह शिकायत भी की कि परमेश्वर मुझे इस तरह के परिवेश का सामना क्यों करने देगा। उस समय मैंने सचमुच अपनी कमियों को समझा और यह भी समझा कि केवल कष्ट के परिवेश का अनुभव करके ही मैं खुद की सच्ची समझ और परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम पा सकती हूँ।

बाद में, मेरे माता-पिता मुझे जबरदस्ती एक पादरी के पास ले गए और पादरी से मेरे लिए प्रार्थना करने को कहा। उन्होंने मुझे अपने साथ बाइबल का अध्ययन करने के लिए भी मजबूर किया, ताकि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखना छोड़ दूँ। उन्होंने कहा, “तुम्हें गुमराह किया गया है। तुम खोए हुए उड़ाऊ पुत्र हो। अगर तुम वापस आ सकती हो और अपने माता-पिता के पास लौट सकती हो, तो प्रभु फिर भी तुम्हारी देखभाल करेगा। अगर तुम विद्रोह करना जारी रखोगी, तो प्रभु तुम्हारी देखभाल नहीं करेगा। तुम्हें एक संतानोचित अच्छी बच्ची बनना चाहिए, अपने माता-पिता का सम्मान और उनसे प्रेम करना चाहिए। अभी तुम गलत रास्ते पर चल रही हो!” मैं जानती थी कि यह शैतान का प्रलोभन है। उन्होंने कहा कि मुझे गुमराह किया गया है और मैंने गलत चीज में विश्वास रखा है, लेकिन मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर कुछ सत्य समझ लिए थे और मुझे दृढ़ विश्वास था कि प्रभु यीशु लौट आया है; वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। मैंने परमेश्वर की वाणी सुनी और परमेश्वर के घर लौट आई। मुझे गुमराह नहीं किया गया था। मैं जानती थी कि सच्चे परमेश्वर में विश्वास रखना आसान नहीं है। यह ठीक अनुग्रह के युग के उन लोगों की तरह है जो प्रभु यीशु में विश्वास रखते थे। उस समय बहुत से लोगों ने कहा कि प्रभु यीशु में विश्वास रखना गलत है, कुछ लोगों ने फरीसियों का अनुसरण किया और प्रभु यीशु को ठुकरा दिया। लेकिन, अंततः प्रभु यीशु ने सूली पर चढ़ाए जाने और पूरी मानवजाति को छुटकारा दिलाने का कार्य पूरा किया। उनका अनुसरण करने वाले शिष्यों ने इस बात की परवाह नहीं की कि दूसरे क्या कहते हैं। वे कष्ट सहने को तैयार थे और मार्ग के अंत तक प्रभु का अनुसरण करने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया। अब मैंने परमेश्वर की वाणी सुन ली थी और कई सत्य और रहस्य समझ लिए थे, मैं फिर से धर्म में वापस नहीं जाना चाहती थी। धर्म में कोई नई रोशनी नहीं है, और पवित्रात्मा का कोई कार्य नहीं है। धर्म में कोई कभी भी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर सकता। उन्होंने वे शब्द केवल मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने से रोकने के लिए कहे थे, लेकिन मैं उनसे जरा भी प्रभावित नहीं हुई।

एक हफ्ते बाद, मैंने अपने माता-पिता के दबाव में फिर से कॉलेज जाना शुरू कर दिया। मेरी माँ अक्सर परमेश्वर की निंदा करने के लिए कुछ निराधार अफवाहें फैलाती थी और मुझे आज्ञा न मानने वाली कहती थीं। मेरे सहपाठियों ने भी मुझे गलत समझा, मेरे बारे में बुरा सोचा और मुझे नीची नजर से देखा। यहाँ तक कि कॉलेज के प्रिंसिपल ने भी कहा, “क्या तुम कलीसिया में एक अगुआ हो? तुम्हें अपने किसी भी सहपाठी को अपनी सभाओं में शामिल होने के लिए नहीं कहना चाहिए। तुम्हारी माँ तुम्हारी इतनी परवाह करती हैं। तुम्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए और अपने माता-पिता की आज्ञा माननी चाहिए। वरना तुम्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया जाएगा। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखना चाहती हो, तो तुम धार्मिक कलीसिया जा सकती हो और वहाँ यीशु से प्रार्थना कर सकती हो। यह ठीक रहेगा।” मेरे माता-पिता और प्रिंसिपल ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की सभाओं में शामिल नहीं होने दिया। उन्होंने हर दिन मुझ पर नजर रखने के लिए किसी को ढूँढ़ लिया। मेरे शिक्षक, सहपाठी, दोस्त, परिवार और यहाँ तक कि कैंपस के सुरक्षाकर्मी भी मुझ पर नजर रख रहे थे। मेरे माता-पिता हमेशा मुझे समय पर कॉलेज से लाते और छोड़ते थे। अगर मेरी माँ को काम खत्म करने में देर हो जाती, तो वह कैंपस के सुरक्षाकर्मी से मुझ पर नजर रखने को कहती। मुझे प्रिंसिपल के ऑफिस के पास अपनी माँ का इंतजार करना पड़ता था। मेरी माँ को डर था कि मैं परमेश्वर में विश्वस रखना जारी रखूँगी और उन्होंने मुझे चेतावनी दी, “अगर मैंने तुम्हें फिर से परमेश्वर में विश्वास रखते हुए पाया, तो मैं पुलिस को बता दूँगी और वे तुम्हारे साथ सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बाकी सभी लोगों को गिरफ्तार कर लेंगे!” ये शब्द सुनकर, मैंने मन ही मन सोचा, “क्या तुम अभी भी मेरी माँ हो? तुम मेरे बारे में सब कुछ नियंत्रित करती हो और इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करती कि मैं कैसा महसूस करती हूँ।” मेरी मौसी ने भी कहा, “अगर तुमने भागने के बारे में सोचा भी, तो हम तुम्हारी टाँगें तोड़ देंगे और देखेंगे कि तुम भाग सकती हो या नहीं!” उस दौरान, मैं सभाओं में शामिल नहीं हो सकती थी या अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। मैं हर दिन गहरी पीड़ा में रहती थी। कभी-कभी मैं यह भी सोचती, “इस तरह जीने से तो मर जाना ही बेहतर है।” मुझे एहसास हुआ कि ये विचार शैतान से आए हैं, इसलिए मैंने खुद से कहा : चाहे कुछ भी हो जाए, मुझे इसका सामना करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए।

बाद में, मैं कॉलेज में अपनी दोस्त से मिली। वह भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखती है। उसने मुझे अपना फोन दिया और मुझसे बहन क्लोई से संपर्क करने को कहा। बहन क्लोई ने मुझे फिल्म ‘मेरी कहानी, हमारी कहानी’ की कहानी सुनाई, जिसमें भाइयों ने जेल में परमेश्वर के वचन पहुँचाए थे। उसने कहा, “उन भाइयों में से कुछ को दस साल के लिए जेल की सजा हुई थी। उनके पास करने के लिए कोई कर्तव्य नहीं था और उनका कोई कलीसियाई जीवन नहीं था, लेकिन उन्होंने कभी परमेश्वर में आस्था नहीं खोई। वे लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करते थे और जेल में परमेश्वर पर भरोसा करते थे, उन्होंने परमेश्वर के कर्मों को देखा और परमेश्वर के प्रेम और अगुआई को महसूस किया।” मैंने जेल में उन भाइयों के बारे में सोचा, जिनमें से कुछ एक दशक से वहाँ थे, जबकि मैं केवल अपने परिवार की बाधाओं और प्रतिबंधों का सामना कर रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मुझे इतना कमजोर नहीं होना चाहिए। मुझे भी परमेश्वर में आस्था रखनी होगी। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अनुच्छेद पढ़े : “परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना या उनके भीतर नकारात्मकता आना या परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य बात है। लेकिन कुल मिलाकर तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए और अय्यूब की तरह तुम्हें भी परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि जन्म के बाद लोगों के पास जो भी चीजें होती हैं वे सब यहोवा द्वारा दी जाती हैं और यहोवा ही उन्हें ले भी लेता है। उसे चाहे जिन परीक्षणों से गुजारा गया, उसने यह विश्वास बनाए रखा। अपने अनुभवों में, लोग परमेश्वर के वचनों के चाहे जिस भी शोधन से गुजरें, परमेश्वर कुल मिलाकर जो चाहता है वह है उनकी आस्था और परमेश्वर-प्रेमी हृदय। इस तरह से कार्य करके वह जिस चीज को पूर्ण बनाता है, वह है लोगों की आस्था, प्रेम और दृढ़ निश्चय। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है और वे इसे देख नहीं सकते, छू नहीं सकते; ऐसी परिस्थितियों में आस्था आवश्यक होती है। जब कोई चीज नग्न आँखों से न देखी जा सकती हो, तब आस्था आवश्यक होती है। जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते, तब आस्था आवश्यक होती है। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते तो यही अपेक्षा की जाती है कि तुम आस्था रखो, ठोस रुख अपनाए रखो और अपनी गवाही में अडिग रहो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँच गया तो परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और उससे बोला। यानी जब तुममें आस्था होगी, तभी तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे। जब तुममें आस्था होगी, परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा और अगर तुममें आस्था नहीं है तो वह ऐसा नहीं कर सकता। ... आस्था किस चीज को संदर्भित करती है? आस्था सच्चा भरोसा और ईमानदार हृदय है, जो मनुष्यों के पास तब होना चाहिए जब वे किसी चीज को देख या छू न सकते हों, जब परमेश्वर का कार्य मनुष्यों की धारणाओं के अनुरूप न होता हो, जब वह मनुष्यों की पहुँच से बाहर हो। मैं इसी आस्था की बात करता हूँ(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। “जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें यह प्रदर्शन करने के लिए कि तुम में परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का इरादा और इच्छा है और इस समर्पण की वास्तविकता है, तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। ‘प्रतीक्षा’ का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और इसकी प्रतीक्षा करना कि उसके इरादे धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट किए जाएँ। ‘खोजने’ का अर्थ है, परमेश्वर द्वारा योजना बनाकर लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से उसके श्रमसाध्य इरादों की जाँच करना और उन्हें समझना, उनसे संबद्ध सत्यों को समझना, जो मनुष्यों को अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे समझना और उन सच्चे मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन अवश्य करना चाहिए, यह समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को प्राप्त करने का अभिप्राय रखता है और उनमें किन उपलब्धियों को पाना चाहता है। निस्सन्देह, ‘समर्पण करने,’ का अर्थ उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों को स्वीकार करना है जो परमेश्वर ने आयोजित की हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके माध्यम से यह अनुभव करना है कि सृष्टिकर्ता किस तरह से मनुष्य की नियति पर संप्रभु है, वह किस प्रकार अपना जीवन मनुष्य को प्रदान करता है, वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सत्य गढ़ता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि जब मैंने परिवार के सदस्यों और शिक्षकों के उत्पीड़न और बाधा का सामना किया, भले ही मुझमें कमजोरी थी, मैं परमेश्वर में आस्था नहीं खो सकती थी, परमेश्वर को नकार नहीं सकती थी या परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं कर सकती थी। मुझे अय्यूब का अनुकरण करना था। भले ही अय्यूब ने अपने ऊपर परीक्षण आने पर अपने जन्म के दिन को कोसा, उसने कभी परमेश्वर को नकारा नहीं और न ही परमेश्वर के बारे में शिकायत की। लेकिन इन उत्पीड़नों का सामना करते हुए मैं लगातार परमेश्वर के बारे में शिकायत कर रही थी : उसने यह सब मुझ पर क्यों आने दिया? मैं अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी, तो ये कष्ट और अपमान मुझ पर क्यों आए? मैं इन परिवेशों का अनुभव नहीं करना चाहती थी और उनसे बचकर निकलना चाहती थी। मैं ऐसे परिवेशों में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकती थी। लेकिन परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जब कोई परिवेश हम पर आता है, तो हमें पहले इंतजार करना चाहिए और फिर खोजना और समर्पण करना चाहिए। मुझे इंतजार करना, परमेश्वर के इरादे को खोजना और अंत में परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करना सीखना होगा। परमेश्वर जो कुछ भी व्यवस्थित करता है वह अच्छा है। मुझे और अधिक प्रार्थना करनी होगी और सब कुछ परमेश्वर को सौंपना होगा। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, भले ही मुझे ऐसा परिवेश कठिन लगता है और मेरे दिल में कमजोरी है, तुम्हारे वचनों ने मुझे शक्ति दी है और तुम्हारे वचनों ने मेरे दिल में शांति लाई है। मैं सब कुछ तुम्हें सौंपने को तैयार हूँ।”

बाद के दिनों में मेरी माँ अभी भी लगातार सर्वशक्तिमान परमेश्वर का प्रतिरोध और निंदा करती रही। हर शाम वह सबसे मेरे लिए प्रार्थना करवाती और वह अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर की ईशनिंदा भी करती थी। उसके शब्द मेरे दिल में एक खंजर की तरह चुभते थे। मैं उन शब्दों को सहन नहीं कर सकती थी जो परमेश्वर की निंदा और उसका प्रतिरोध करते थे। और फिर मेरे पिता थे। वे नशे में होने पर मुझे कोसते और यहाँ तक कि मारते भी थे क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “आजकल, वे जो खोज करते हैं और वे जो नहीं करते, दो पूरी तरह भिन्न प्रकार के लोग हैं, जिनके गंतव्य भी काफ़ी अलग हैं। वे जो सत्य के ज्ञान का अनुसरण करते हैं और सत्य का अभ्यास करते हैं, वे लोग हैं जिनका परमेश्वर उद्धार करेगा। वे जो सच्चे मार्ग को नहीं जानते, वे दुष्टात्माओं और शत्रुओं के समान हैं। वे प्रधान स्वर्गदूत के वंशज हैं और विनाश की वस्तु होंगे। यहाँ तक कि एक अज्ञात परमेश्वर के धर्मपरायण विश्वासीजन—क्या वे भी दुष्टात्मा नहीं हैं? ... जो भी देहधारी परमेश्वर को नहीं मानता, दुष्ट है, यही नहीं, वह नष्ट किया जाएगा। वे सब जो विश्वास करते हैं, पर सत्य का अभ्यास नहीं करते, वे जो देहधारी परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वे जो परमेश्वर के अस्तित्व पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं रखते, वे सब नष्ट होंगे। वे सभी जिन्हें रहने दिया जाएगा, वे लोग हैं, जो शोधन के दुख से गुज़रे हैं और डटे रहे हैं; ये वे लोग हैं, जो वास्तव में परीक्षणों से गुज़रे हैं। जो कोई परमेश्वर को नहीं पहचानता, शत्रु है; यानी कोई भी जो देहधारी परमेश्वर को नहीं पहचानता—चाहे वह इस धारा के भीतर है या बाहर—एक मसीह-विरोधी है! परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मेरे माता-पिता और मैं बिल्कुल अलग-अलग रास्तों पर चल रहे हैं। मेरे माता-पिता ने देहधारी परमेश्वर को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने उसका प्रतिरोध और निंदा भी की। खास तौर पर, मेरी माँ लगातार परमेश्वर की ईशनिंदा और निंदा करती थी। अपने सार में, वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं; वे परमेश्वर के दुश्मन हैं, वे दानव और शैतान हैं। अंत में, वे परमेश्वर द्वारा विनाश के भागी होंगे। मैं अब और उनके बंधन में नहीं रह सकती थी।

मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “शैतान चाहे जितना भी ‘ताकतवर’ हो, चाहे वह जितना भी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो, चाहे नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता जितनी भी बड़ी हो, चाहे मनुष्य को भ्रष्ट करने और लुभाने की उसकी तकनीकें जितनी भी व्यापक हों, चाहे मनुष्य को डराने की उसकी तरकीबें और साजिशें जितनी भी चतुराई से भरी हों, चाहे उसके अस्तित्व के रूप जितने भी परिवर्तनशील हों, वह कभी एक भी जीवित चीज सृजित करने में सक्षम नहीं हुआ, कभी सभी चीजों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाएँ या नियम निर्धारित करने में सक्षम नहीं हुआ, और कभी किसी सजीव या निर्जीव चीज पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं हुआ। ब्रह्मांड और आकाश के भीतर, एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उससे पैदा हुई हो, या उसके कारण अस्तित्व में हो; एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उसके द्वारा शासित हो, या उसके द्वारा नियंत्रित हो। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन रहना है, बल्कि, परमेश्वर के सभी आदेशों और आज्ञाओं के प्रति समर्पण करना है। परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान के लिए जमीन पर पानी की एक बूँद या रेत का एक कण छूना भी मुश्किल है; परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान धरती पर चींटियों का स्थान बदलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर की दृष्टि में, शैतान पहाड़ पर उगने वाली कुमुदिनियों से, हवा में उड़ने वाले पक्षियों से, समुद्र में रहने वाली मछलियों से, और पृथ्वी पर रहने वाले कीड़ों से भी तुच्छ है। सभी चीजों के बीच उसकी भूमिका सभी चीजों की सेवा करना, मानवजाति की सेवा करना और परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधन-योजना की सेवा करना है। उसकी प्रकृति कितनी भी दुर्भावनापूर्ण क्यों न हो, और उसका सार कितना भी बुरा क्यों न हो, केवल एक चीज जो वह कर सकता है, वह है अपने कार्य का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करना : परमेश्वर के लिए सेवा देना, और परमेश्वर को एक विषमता प्रदान करना। ऐसा है शैतान का सार और उसकी स्थिति। उसका सार जीवन से असंबद्ध है, सामर्थ्य से असंबद्ध है, अधिकार से असंबद्ध है; वह परमेश्वर के हाथ में केवल एक खिलौना है, परमेश्वर की सेवा में रत सिर्फ एक मशीन है!(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। अभी मैं ऐसे लोगों से घिरी हुई थी जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते थे और मेरे माता-पिता मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहे थे। चाहे मैं कॉलेज में होऊँ या घर पर, वे हर दिन मुझ पर निगरानी रखते थे, मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने या प्रार्थना करने से रोकने की कोशिश में बहुत सारी साजिशें और हथकंडे अपनाते थे। उन्होंने मेरे जीवन को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया था। लेकिन, परमेश्वर के वचनों ने मुझे आशा दी। मैं समझ गई कि चाहे वे बाहर से कितने भी शक्तिशाली दिखें, परमेश्वर ही सब पर संप्रभु है और सब कुछ उसी के अधिकार में है। मुझसे जुड़ी हर चीज परमेश्वर के हाथों में है। चाहे शैतान मुझे बाधित करने के लिए मेरे परिवार का कैसे भी इस्तेमाल करे, शैतान केवल परमेश्वर के लिए सेवा प्रदान करता है। इन घटनाओं के बिना, मैं अपने परिवार के परमेश्वर-प्रतिरोधी सार की असलियत नहीं समझ पाती। अपने परिवार के हाथों उत्पीड़न का अनुभव करने से परमेश्वर का अनुसरण करने का मेरा संकल्प और भी मजबूत हुआ है। चाहे यह कितना भी कठिन क्यों न हो, मुझे परमेश्वर पर भरोसा रखना चाहिए और अपनी गवाही में अडिग रहना चाहिए। यह समझने के बाद, मैं अपने दिल में अब और नहीं डरती थी।

बाद में, क्योंकि मेरे पास कक्षा के बहुत सारे नोट्स थे, मेरे माता-पिता ने मुझे एक लैपटॉप खरीद दिया। क्योंकि स्कूल सीसीटीवी कैमरों से भरा था और मेरे दोस्त और सहपाठी मुझ पर निगरानी रख रहे थे, मैं केवल अपना लैपटॉप बाथरूम में ले जा सकती थी और कुछ अनुभवजन्य गवाही वीडियो और परमेश्वर की स्तुति में भजनों के वीडियो देखने के लिए उसे कैंपस के वाई-फाई से जोड़ सकती थी। मेरे परिवार ने मेरे दोस्तों से मुझ पर नजर रखने को कहा, इसलिए मैं स्वतंत्र रूप से परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ सकती थी और कलीसियाई जीवन नहीं जी सकती थी; एक सृजित प्राणी का कर्तव्य तो मैं बिल्कुल भी पूरा नहीं कर सकती थी। मुझे लगा कि इस तरह जीने का कोई मतलब नहीं है। इसलिए, एक दिन सुबह-सुबह, मैं घर से भाग गई। अब मैं अपने परिवार के बंधन से बाहर आ गई हूँ और अपने भाई-बहनों के साथ कलीसियाई जीवन जी सकती हूँ। मैं स्वतंत्र रूप से परमेश्वर के वचन पढ़ सकती हूँ और अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ, मेरा दिल बेहद शांत और मुक्त है। मैं अपने उद्धार के लिए परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ!

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