8. बुढ़ापे में बेटे से सहारा मिलने की मेरी उम्मीदें टूटने के बाद
जब से मैंने होश सँभाला है, मैंने बड़ों को अक्सर कहते सुना है, ‘फलाँ कितना भाग्यशाली है, उसके बच्चे कितने संतानोचित हैं।’ जब वे बीमार होते थे तो उनके बच्चे उनके बिस्तर के पास रहकर उनकी देखभाल करते थे और बुढ़ापे में मरने के बाद उन्हें सम्मानजनक तरीके से दफनाया जाता था और ऐसा लगता था जैसे उन्होंने एक सार्थक जीवन जिया हो। “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” की यह मान्यता मेरे दिल में गहराई से जड़ें जमा चुकी थी। जब मेरे माता-पिता बीमार हुए, मैंने और मेरे भाई-बहनों ने बारी-बारी से उनकी देखभाल की और हमारे माता-पिता के गुजर जाने के बाद हमने उन्हें सम्मान के साथ दफनाया। मेरा मानना था कि हमारे माता-पिता ने हमारी परवरिश व्यर्थ ही नहीं की है और मैं मन ही मन सोचती थी, “क्या कोई इंसान बच्चों की परवरिश इसलिए नहीं करता ताकि आखिरी साँस तक कोई उसका ख्याल रखे और उसके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करे?” हमारे गाँव में एक बुजुर्ग महिला अकेली रहती थी। उसका पति और बेटा दोनों ही गुजर चुके थे, जिससे वह अकेली और बेसहारा रह गई थी। बुढ़ापे में जब वह बीमार थी तो किसी ने उसकी देखभाल नहीं की और उसके मरने के बाद किसी ने उसके अंतिम संस्कार की व्यवस्था नहीं की। उसकी जिंदगी मुझे बड़ी दुखभरी लगी। शादी के बाद मेरा एक बेटा हुआ। जब मेरा बेटा पंद्रह साल का था, तब मेरे पति का निधन हो गया। मेरे पति की मृत्यु मेरे लिए बहुत बड़ा झटका थी। जिंदगी की तमाम मुश्किलों, लोगों के तानों और अफवाहों ने मुझसे आगे जीने का हौसला लगभग छीन लिया था। लेकिन फिर मैं अपने बेटे के बारे में सोचती और ठान लेती कि जिंदगी चाहे जितनी भी कठिन क्यों न हो, मैं उसे जरूर पालूँगी और उम्मीद करती कि भविष्य में वह मेरी आखिरी साँस तक मेरा ख्याल रखेगा और मेरे अंतिम संस्कार की व्यवस्था करेगा। बाद में मुझे हृदय रोग हो गया और जब भी मैं काम करती तो मुझे अस्वस्थ महसूस होता। मेरा बेटा मेरी देखभाल करना जानता था और जब मैं बीमार होती तो वह चिंता व्यक्त करता, जिससे मुझे सांत्वना मिलती। मुझे लगा कि मैंने उसे व्यर्थ ही नहीं पाला है। बाद में मुझे मेरा वर्तमान पति मिल गया।
2008 में मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। एक साल बाद मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य करने लगी। मैं कभी-कभी अपने बेटे की देखभाल करने के लिए घर जाती। मैं उसके लिए उसका पसंदीदा खाना बनाती, घर के कामों में मदद करती और उसे कुछ जेब खर्च देती। मैं उसकी जरूरतों को यथासंभव पूरा करने की कोशिश करती। 2012 में चूँकि मेरे बेटे को सेना में शामिल होने के लिए राजनीतिक पृष्ठभूमि की जाँच की जरूरत थी, हमारे गाँव की पुलिस मेरी आस्था की जाँच करने आई, इसलिए मैं घर छोड़कर कहीं और छिप गई। दो महीने बाद मैंने सुना कि मेरे पति को सुसमाचार प्रचार करने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया है। उसके बाद मैंने घर लौटने या अपने बेटे से संपर्क करने की हिम्मत नहीं की।
2017 तक मैं अक्सर कमजोर महसूस करती थी और मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाती थी, इसलिए मैं इलाज के लिए घर वापस जाना चाहती थी। लेकिन मेरे लिए घर लौटना सुरक्षित नहीं था, इसलिए मैं अपनी बड़ी बहन के पास रुकी और उससे कहा कि वह मेरे बेटे से संपर्क करे। उसे आखिरी बार देखे हुए पाँच साल हो चुके थे, इसलिए जब मैंने अपने बेटे को देखा तो मैं बहुत उत्साहित थी। पिछले कुछ सालों में जो कुछ हुआ था, हमने उसके बारे में बात की। मेरे बेटे ने मुझे बताया कि उसने शादी कर ली है। वह मुझे घर ले जाना चाहता था और चाहता था कि उसकी पत्नी मेरे साथ डॉक्टर के पास जाए। उसने यह भी कहा कि उसने मेरे बुढ़ापे के लिए एक घर अलग से रखा है जिसमें मैं रह सकूँ। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने सोचा कि मैंने अपने बेटे को सालों से नहीं देखा था और उसकी देखभाल नहीं की थी, लेकिन वह अभी भी बुढ़ापे में मेरे भविष्य के बारे में सोच रहा था और मुझे लगा कि मैं अभी भी अपने बेटे पर भरोसा कर सकती हूँ। लेकिन अगली शाम को मेरा बेटा काम के बाद उदास होकर मुझसे मिलने आया और बोला, “माँ, मेरी पत्नी तुम्हें नहीं स्वीकारती है। वह इस बात से असहज महसूस करती है कि तुम इतने सालों से घर नहीं आई। हमारे बीच बहुत झगड़ा हुआ और उसने कह दिया कि या तो मैं उसे चुनूँ या तुम्हें। चूँकि उसने मुश्किल समय में मेरी देखभाल की है, इसलिए मैंने उसे चुना।” मुझे लगा जैसे मुझ पर बिजली गिर गई हो। मैंने इतने साल तक अपने बेटे को अपनी जीवन रेखा माना था। मैंने उसे पालने के लिए कड़ी मेहनत की थी, उम्मीद की थी कि वह मेरी आखिरी साँस तक मेरी देखभाल करेगा और मेरे अंतिम संस्कार की व्यवस्था करेगा। लेकिन अब उसने मुझे छोड़ अपनी पत्नी को चुन लिया था और वह मुझे अपने घर में नहीं आने देना चाहता था। क्या उसकी परवरिश करने में मेरी सारी मेहनत बेकार नहीं गई? मैं इस सच्चाई को काफी समय तक स्वीकार नहीं कर पाई और खूब रोई।
मेरे बेटे के चले जाने के बाद मैं अपनी बहन के घर पर ही रहती रही और भावनात्मक आघात के कारण मेरी हालत और खराब हो गई। मेरा पति मेरे साथ नहीं था और अब मैं अपने बेटे पर भी भरोसा नहीं कर सकती थी। लोग कहते हैं कि माता-पिता बुढ़ापे में सहारा पाने के लिए बच्चों की परवरिश करते हैं, लेकिन मेरे पास कोई नहीं था जिस पर मैं निर्भर रह सकूँ। मैं वाकई बहुत दुखी और व्यथित महसूस कर रही थी। मैंने अपनी बहन के परिवार को खुशी-खुशी एक साथ मिलते, हँसते और गर्मजोशी से बातें करते हुए देखा और मुझे लगने लगा कि बेटा होने या न होने में कोई फर्क नहीं रहा, मैं तो वैसे ही अकेली बूढ़ी औरत बन गई थी। जब मैं बीमार पड़ूँगी तो कोई मेरी देखभाल नहीं करेगा और जब मैं मर जाऊँगी तो मेरा अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं होगा। मुझे लगा कि मेरा जीवन पूरी तरह से विफल हो गया है। मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी तो ऐसा कैसे हो सकता है कि गैर-विश्वासी लोग मुझसे बेहतर जीवन जी रहे हैं? मैंने जितना इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही दुखी होती गई और मैंने अपने दिन उदास और निरुत्साह महसूस करते हुए बिताए। कुछ समय बाद एक दिन मेरा बेटा अचानक मुझसे मिलने आ गया। उसने कहा कि वह एक मुकदमे में फँस गया है और हमसे कुछ पैसे उधार लेना चाहता है। मैंने सोचा कि बीते कुछ सालों में मैंने उसकी ठीक से देखभाल नहीं की और अब जब वह मुसीबत में है तो एक माँ होने के नाते मुझे इस कठिन समय में उसकी मदद करनी चाहिए। इसलिए मैंने अपने पति से उसे कुछ पैसे देने के लिए कहा। मेरे बेटे ने कहा कि वह अपनी पत्नी और बेटी को हमसे मिलवाने के लिए लाएगा। वसंत उत्सव के बाद मेरा बेटा सचमुच अपनी छोटी बेटी को मुझसे मिलवाने लाया। मैंने सोचा कि भले ही मेरी बहू ने अभी भी मुझे नहीं स्वीकारा है, कम से कम मेरा बेटा और पोती मेरे साथ रहेंगे और जब मैं बूढ़ी हो जाऊँगी, तब मेरी देखभाल करेंगे, वे मेरी मृत्यु तक मेरा ध्यान रखेंगे और मेरे अंतिम संस्कार की व्यवस्था करेंगे। मैं बहुत खुश थी और मुझे उम्मीद थी कि मेरे बुढ़ापे में मेरे पास ऐसे लोग होंगे जिन पर मैं भरोसा कर सकूँगी।
2024 के वसंत उत्सव से ठीक पहले मेरे चचेरे भाई को गिरफ्तार कर लिया गया और उसने मेरे साथ गद्दारी कर दी। पुलिस की निगरानी और गिरफ्तारी से बचने के लिए मैं अपना कर्तव्य करने के लिए दूसरी जगह चली गई और मैं वसंत उत्सव के लिए घर जाने की हिम्मत नहीं कर पाई। जब वह दिन आया जब मेरा बेटा मुझसे मिलने वाला था, मैं अपना दिल शांत नहीं कर सकी। मैंने सोचा कि कैसे पिछले दो वर्षों में मेरे बेटे और मेरे बीच का रिश्ता अभी सुधरा ही था और फिर मैं दोबारा चली गई। क्या वह मुझसे नाराज होगा और मुझसे फिर कभी बात नहीं करेगा? क्या मैं अपने बेटे को फिर से नहीं खो दूँगी? जब मैंने भविष्य का अकेले सामना करने के बारे में सोचा तो मेरा दिल टूट गया और मैं बेचैन हो गई और मैं ठीक से खा या सो नहीं पाई। भले ही मैं अपना कर्तव्य करती रही, लेकिन मेरा दिल उसमें नहीं लगता था। मुझमें कलीसिया के कार्य का जायजा लेने की भी कोई इच्छा नहीं थी। मैंने कई बार परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे मेरी नकारात्मक मनोदशा से बाहर निकालने के लिए कहा।
बाद में मैंने सोचा, “मैं अपने बेटे को न देख पाने के कारण इतनी व्यथित और दुखी क्यों थी? इसका मूल कारण क्या था?” एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “वयस्क बच्चों से ऐसी अपेक्षाएँ रखने के अलावा, माता-पिता अपने बच्चों से एक ऐसी अपेक्षा रखते हैं जोकि दुनिया भर के माता-पिताओं में एक-जैसी है, और वह यह उम्मीद है कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखेंगे और अपने माता-पिता से अच्छी तरह पेश आएँगे। बेशक, कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों और प्रांतों में बच्चों से और ज्यादा खास अपेक्षाएँ रखी जाती हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखने के अलावा, अपने माता-पिता की अंतिम समय तक देखभाल कर उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था भी करनी होती है, वयस्क होने के बाद अपने माता-पिता के साथ रहना पड़ता है, और उनके जीवनयापन की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। अपनी संतान के प्रति माता-पिता की अपेक्षाओं का यह अंतिम पहलू है जिस पर अब हम चर्चा करेंगे—यह माँग करना कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें, और बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें। क्या सभी माता-पिता बच्चों को जन्म देने के पीछे यही मूल मंशा नहीं रखते और साथ ही अपने बच्चों से यही बुनियादी अपेक्षा नहीं रखते? (हाँ, जरूर।) ... जब उनके बच्चे बहुत छोटे होते हैं, तभी माता-पिता माँगें तय करना शुरू कर देते हैं, और हमेशा यह पूछकर उनकी परीक्षा लेते रहते हैं, ‘जब तुम बड़े हो जाओगे, तो क्या मम्मी-डैडी को सहारा दोगे?’ ‘हाँ।’ ‘क्या तुम डैडी के माता-पिता को सहारा दोगे?’ ‘हाँ।’ ‘क्या तुम मम्मी के माता-पिता को सहारा दोगे?’ ‘हाँ।’ ‘तुम्हें सबसे ज्यादा कौन पसंद है?’ ‘मुझे मम्मी सबसे ज्यादा पसंद है।’ फिर डैड को जलन होती है, ‘डैडी का क्या?’ ‘मुझे डैडी सबसे ज्यादा पसंद हैं।’ तो मम्मी को जलन होती है, ‘तुम सचमुच किसे सबसे ज्यादा पसंद करते हो?’ ‘मम्मी और डैडी।’ तब दोनों माता-पिता संतुष्ट हो जाते हैं। वे प्रयत्न करते हैं कि उनके बच्चे बोलना सीखते ही संतानोचित निष्ठा रखने लगें, और उम्मीद करते हैं कि बड़े होकर वे उनसे अच्छी तरह पेश आएँगे। हालाँकि ये बच्चे खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते, और ज्यादा कुछ समझ नहीं पाते, फिर भी माता-पिता अपने बच्चों के जवाबों में एक वायदा सुनना चाहते हैं। साथ-ही-साथ वे अपने बच्चों में अपना भविष्य भी देखना चाहते हैं, और उम्मीद करते हैं कि जिन बच्चों को वे पाल-पोस कर बड़ा कर रहे हैं वे कृतघ्न नहीं होंगे, बल्कि संतानोचित धर्मनिष्ठ बच्चे बनेंगे जो उनकी जिम्मेदारी उठाएँगे, और उससे भी ज्यादा जिन पर वे भरोसा कर सकेंगे और जो बुढ़ापे में उन्हें सहारा देंगे। हालाँकि वे ये सवाल अपने बच्चों से बचपन से ही पूछते रहे हैं, पर ये सवाल सरल नहीं हैं। ये इन माता-पिता के दिलों की गहराई से निकली संपूर्ण अपेक्षाएँ और आशाएँ हैं, अत्यंत वास्तविक अपेक्षाएँ और अत्यंत वास्तविक आशाएँ। तो जैसे ही उनके बच्चे चीजों की समझ हासिल करने लगते हैं, माता-पिता को आशा होने लगती है कि उनके बीमार होने पर बच्चे चिंता दिखाएँगे, उनके सिरहाने बैठेंगे और उनकी देखभाल करेंगे, भले ही यह उन्हें पीने के लिए पानी देना ही क्यों न हो। हालाँकि बच्चे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, पैसों की या ज्यादा व्यावहारिक मदद नहीं कर सकते, फिर भी उन्हें इतनी संतानोचित निष्ठा का प्रदर्शन करना चाहिए। माता-पिता बच्चों के छोटे होने पर भी यह संतानोचित निष्ठा देखना चाहते हैं, और समय-समय पर इसकी पुष्टि करना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर, जब माता-पिता की तबीयत ठीक न हो या वे काम से थक गए हों, तो वे यह देखना चाहते हैं कि क्या उनके बच्चे उनके लिए चाय-कॉफी लाना, जूते लाना, उनके कपड़े धोना, या उनके लिए सरल-सा खाना बनाना या अंडा चावल बनाना जानते हैं, या क्या वे अपने माता-पिता से पूछते हैं, ‘क्या आप थक गए हैं? अगर हाँ, तो मैं आपके खाने के लिए कुछ बना देता हूँ।’ कुछ माता-पिता छुट्टियों के दौरान बाहर चले जाते हैं और जानबूझकर खाने के वक्त खाना बनाने के लिए घर नहीं पहुँचते, बस यह देखने के लिए कि क्या उनके बच्चे बड़े और समझदार हो गए हैं, क्या वे उनके लिए खाना बनाना जानते हैं, क्या वे संतानोचित निष्ठा का पालन करना और विचारशील होना जानते हैं, क्या वे उनकी मुश्किलें बाँट सकते हैं या फिर वे बेदर्द कृतघ्न हैं, क्या उन्होंने उन्हें बेकार ही बड़ा किया। बच्चों के बड़े होते समय और वयस्क अवस्था में भी उनके माता-पिता निरंतर उनकी परीक्षा लेते हुए इस मामले में ताक-झाँक करते रहते हैं, और साथ-ही-साथ वे अपने बच्चों से निरंतर माँगें करते रहते हैं, ‘तुझे ऐसा बेदर्द कृतघ्न नहीं होना चाहिए। हम, तेरे माता-पिता ने, तुझे पाल-पोस कर बड़ा क्यों किया? इसलिए कि हमारे बूढ़े हो जाने पर तू हमारी देखभाल करेगा। क्या हमने तुझे बेकार ही बड़ा किया? तुझे हमारी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तुझे बड़ा करना हमारे लिए आसान नहीं था। यह कड़ी मेहनत का काम था। तुझे विचारशील होकर ये चीजें जाननी चाहिए।’ खास तौर से तथाकथित विद्रोहपूर्ण दौर में, यानी किशोरावस्था से वयस्क अवस्था में आते समय कुछ बच्चे ज्यादा समझदार या विवेकशील नहीं होते और अक्सर अपने माता-पिता की उपेक्षा करते हैं, मुसीबत पैदा करते हैं। उनके माता-पिता रोते हैं, तमाशा करते हैं, और यह कहकर उनका सिर खाते हैं, ‘तू नहीं जानता, तेरे बचपन में तेरी देखभाल करने के लिए हमने कितने कष्ट सहे! हमें उम्मीद नहीं थी कि तू यूँ बड़ा होगा, बिल्कुल भी संतानोचित निष्ठा नहीं है, घरेलू रोजमर्रा के कामों या हमारी मुश्किलों का बोझ बाँटने के बारे में तू बिल्कुल अनजान है। तू नहीं जानता हमारे लिए यह सब कितना मुश्किल है। तू संतानोचित निष्ठा नहीं रखता, उपेक्षापूर्ण है, अच्छा इंसान नहीं है!’ अवज्ञाकारी होने या पढ़ाई या दैनिक जीवन में उग्र व्यवहार दिखाने के लिए अपने बच्चों पर नाराज होने के अलावा, माता-पिता के गुस्से का एक और कारण यह है कि वे अपने बच्चों में अपना भविष्य नहीं देख सकते, या वे देखते हैं कि उनके बच्चे भविष्य में संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाएँगे, वे विचारशील नहीं हैं, न ही अपने माता-पिता के लिए दुखी होते हैं, वे अपने माता-पिता को अपने दिलों में नहीं बसाते, या और सटीक ढंग से कहें तो वे जाकर माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना नहीं जानते। तो माता-पिता की दृष्टि से ऐसे बच्चों से कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती : वे कृतघ्न या उपेक्षापूर्ण हो सकते हैं, और उनके माता-पिता अत्यंत दुखी हो जाते हैं, उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने बच्चों की खातिर जो निवेश या खर्च किए वह बेकार था, उन्होंने बुरा सौदा किया, वह इस लायक नहीं था, वे पछताते हैं, दुखी होते हैं, संतप्त और व्यथित होते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर उजागर करता है कि माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखते हैं, खासकर वे अपने बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी मृत्यु तक उनकी देखभाल करें और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करें। जब उनके बच्चे इन अपेक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रहते हैं तो वे दुखी और निराश हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि उन्होंने बेकार ही अपने बच्चों का पालन-पोषण किया। ठीक यही मनोदशा मेरी भी थी। जब मेरा बेटा बहुत छोटा था, तभी से मुझे उससे ये अपेक्षाएँ थीं। मुझे उम्मीद थी कि जब मैं बीमार पड़ूँगी तो वह मेरी देखभाल करेगा, मुझे उम्मीद थी कि जब मैं बूढ़ी और चलने-फिरने में असमर्थ हो जाऊँगी तो वह मेरा सहारा बनेगा और मेरी दैनिक जरूरतों का ध्यान रखेगा, मेरे गुजर जाने के बाद वह मेरे अंतिम संस्कार की व्यवस्था करेगा। जब मेरा बेटा बड़ा हुआ तो सीसीपी के उत्पीड़न के कारण मैं कई वर्षों तक घर लौटने की हिम्मत नहीं कर पाई। जब मैं वापस लौटी, मैंने सुना कि मेरे बेटे ने मेरे लिए एक घर रखा है और मैं अपने बुढ़ापे में वहाँ रहने के लिए वापस आ सकती हूँ। मैं बहुत खुश थी और मुझे लगा कि मेरा बेटा अभी भी संतानोचित और विश्वसनीय है। लेकिन जब उसने मेरे बजाय अपनी पत्नी को चुना तो मैं बहुत दुखी और निराश हो गई। मुझे लगा कि मेरा बेटा भरोसेमंद नहीं है और मैंने व्यर्थ ही उसकी परवरिश की है। जब मेरा बेटा मेरी पोती को मुझसे मिलवाने लाया तो मुझे तसल्ली हुई। लेकिन जब मैं उससे फिर से नहीं मिल सकी, क्योंकि मुझे सीसीपी की गिरफ्तारी से बचना था तो मुझे चिंता हुई कि मेरा बेटा अब मुझे स्वीकार नहीं करेगा और बुढ़ापे में मेरी देखभाल के लिए उस पर निर्भर रहने की मेरी उम्मीदें टूट गईं। मैं एक बार फिर दर्द में पड़ गई और कलीसिया के कार्य का जायजा लेने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकी। लेकिन अब मुझे समझ में आया कि मेरे दर्द की जड़ यह थी कि मैं “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” के विचार से नियंत्रित थी और मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर सकी।
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “बच्चे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, इस अपेक्षा के मामले में माता-पिता को एक ओर यह जानना चाहिए कि सब-कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित होता है और यह परमेश्वर के विधान पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, लोगों के पास अवश्य ही विवेक होना चाहिए और बच्चों को जन्म दे कर माता-पिता को जीवन में सहज ही कुछ विशेष अनुभव होता है। उन्होंने अपने बच्चों से पहले ही बहुत-कुछ पा लिया है, और परवरिश करने का सुख-दुख समझ लिया है। यह प्रक्रिया उनके जीवन का समृद्ध अनुभव है, और बेशक यह एक यादगार अनुभव भी है। यह उनकी मानवता में मौजूद कमियों और अज्ञान की भरपाई करता है। बतौर माता-पिता अपने बच्चों के पालन-पोषण से उन्हें जो प्राप्त होना चाहिए वे पहले ही प्राप्त कर चुके हैं। अगर वे इससे संतुष्ट न हों और माँग करें कि उनके बच्चे सहायकों या गुलामों की तरह उनकी सेवा करें, और अपेक्षा करें कि उनके पालन-पोषण के एवज में बच्चे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, उनका अंतिम संस्कार करें, उन्हें ताबूत में रखें, घर में उनके शव को सड़ने से बचाएँ, उनके मरने पर उनके लिए जोरों से रोएँ, तीन साल तक उनके लिए शोक मनाएँ, आदि, उनके बच्चे इस तरह उनका कर्ज चुकाएँ, तो यह अनुचित और अमानवीय हो जाता है। देखो, लोगों को उनके माता-पिता से पेश आने का तरीका सिखाने के संदर्भ में परमेश्वर बस इतनी अपेक्षा रखता है कि वे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, और बिल्कुल अपेक्षा नहीं रखता कि मृत्यु होने तक वे माता-पिता को सहारा दें। परमेश्वर लोगों को यह जिम्मेदारी और दायित्व नहीं देता—उसने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। परमेश्वर केवल बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखने का परामर्श देता है। माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखना एक विशाल दायरे वाला सामान्य वक्तव्य है। आज अगर हम इस बारे में विशिष्ट अर्थ में बात करें तो इसका अर्थ है अपनी काबिलियत और हालात के अंदर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना—यह काफी है। इतनी सरल बात है, बच्चों से बस यही एकमात्र अपेक्षा है। तो माता-पिता को यह बात कैसे समझनी चाहिए? परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि ‘बच्चों को माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करनी चाहिए, और उन्हें विदा करना चाहिए।’ इसलिए, जो माता-पिता हैं उन्हें अपना स्वार्थ छोड़ देना चाहिए और अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि उनके बच्चों की हर बात सिर्फ इसलिए उनसे जुड़ी होगी क्योंकि उन्होंने उन्हें जन्म दिया। अगर बच्चे अपने माता-पिता के आसपास नहीं मंडराते और उन्हें अपने जीवन का केंद्र नहीं मानते, तो माता-पिता के लिए यह ठीक नहीं कि वे उन्हें निरंतर डाँटते रहें, उनके जमीर को परेशान करें, और ऐसी बातें कहें, ‘तू एक हृदयहीन कृतघ्न है, तुझमें संतानोचित निष्ठा नहीं है, बात नहीं मानता, और इतने समय तक तेरी परवरिश करके भी मैं तुझ पर भरोसा नहीं कर सकता,’ हमेशा अपने बच्चों को इस तरह डाँटते रहना और उन पर बोझ डालना ठीक नहीं है। यह माँग करना कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें और उनके साथ रहें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, फिर मृत्यु होने पर दफनाएँ, और जहाँ भी जाएँ हमेशा उनके बारे में सोचते रहें, सहज रूप से यह काम करने का गलत रास्ता है, एक अमानवीय सोच और विचार है। शायद ऐसी सोच कमोबेश अलग-अलग देशों या अलग-अलग विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों में हो, लेकिन पारंपरिक चीनी संस्कृति पर गौर करें तो चीनी लोग खास तौर से संतानोचित निष्ठा पर जोर देते हैं। प्राचीन काल से वर्तमान तक, लोगों की मानवता के हिस्से और किसी के अच्छे-बुरे होने की माप के मानक के रूप में इस पर हमेशा चर्चा होती रही है। बेशक, समाज में, एक सामान्य प्रथा और लोकमत भी है कि अगर बच्चे संतानोचित निष्ठा नहीं रखते, तो उनके माता-पिता भी शर्मिंदा महसूस करेंगे, और बच्चे अपने नाम पर यह कलंक सह नहीं पाएँगे। विविध कारकों के प्रभाव में माता-पिता भी इस पारंपरिक सोच से गहराई से विषाक्त हो जाते हैं, और बिना सोचे-जाने माँग करते हैं कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” का विचार गलत है। माता-पिता के रूप में बच्चों की परवरिश हमारी जिम्मेदारी और दायित्व है। हमें इसे अपने बच्चों के साथ लेन-देन के रूप में नहीं देखना चाहिए। चूँकि हमने उन्हें जन्म देने का फैसला किया है, इसलिए उनकी देखभाल करना भी हमारी जिम्मेदारी है। यह ठीक वैसा ही है जैसे जानवर अपने बच्चों की देखभाल करते हैं। वे तब तक उनकी सावधानीपूर्वक देखभाल करते हैं जब तक वे अपने दम पर जीवित नहीं रह सकते। यह सब उन सहज प्रवृत्तियों का हिस्सा है जो परमेश्वर ने उन्हें दी हैं। सभी जानवर इस नियम का पालन करते हैं ताकि सभी सजीव प्राणी प्रजनन कर सकें और उनका अस्तित्व बना रहे। मनुष्य कोई अपवाद नहीं हैं। मैंने सोचा कि मैंने अपने बेटे की परवरिश कैसे की और मैंने देखा कि यह एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसने मेरे जीवन के अनुभव को समृद्ध किया। उसके पहले शब्द बोलने से लेकर, उसके पहले कदम चलने, स्कूल जाने और मेरे कामों में हाथ बँटाने तक, इन सबने मुझे एक माँ के रूप में जिम्मेदारी का एहसास दिलाया। इसने मेरी मानवता को भी परिपक्व होने दिया। माता-पिता के तौर पर अपने बच्चों की परवरिश करना हमारी जिम्मेदारी और दायित्व है, दयालुता नहीं। लेकिन चूँकि मैंने “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” की पारंपरिक धारणा को अपनाया था, इसलिए मैंने उसकी परवरिश करने का इस्तेमाल सौदेबाजी के तौर पर किया और उसके साथ लेन-देन करने की कोशिश की, सोचती रही कि चूँकि मैंने उसकी परवरिश की है, इसलिए उसे मेरे बूढ़े होने या बीमार होने पर मेरी देखभाल करनी चाहिए और जब मैं मर जाऊँ तो उसे मेरा भव्य अंतिम संस्कार करना चाहिए। उसकी परवरिश मैंने सिर्फ अपने दैहिक हितों को संतुष्ट करने के लिए की थी। परमेश्वर सिर्फ इतना चाहता है कि लोग अपनी वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करें। बच्चों को बुढ़ापे में अपने माता-पिता की देखभाल करने या उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन मैंने “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” की पारंपरिक धारणा को थामे रखा, “जब वह छोटा था, तब मैंने उसकी परवरिश की और जब मैं बूढ़ी हो जाऊँ तो वह मेरा ख्याल रखे,” इसलिए मैंने माँग की कि मेरा बेटा मेरे जीवन की पूरी जिम्मेदारी ले। क्या यह पूरी तरह से अनुचित, बेहद स्वार्थी और घृणित नहीं था? हर बार जब मैंने देखा कि मैं अपने बेटे पर भरोसा नहीं कर सकती तो मेरा दिल टूट गया और मुझे निराशा हुई और लगा कि जीवन में कोई उम्मीद नहीं है। मैंने परमेश्वर के बारे में भी शिकायत की, सोचने लगी कि उसमें विश्वास रखने के बावजूद मेरा जीवन उन लोगों से भी बदतर था जो विश्वास नहीं रखते थे। मैं अपने भविष्य के बारे में लगातार चिंतित थी और अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी। मैंने देखा कि “बुढ़ापे में सहारे के लिए बच्चों की परवरिश करो” का पारंपरिक सांस्कृतिक विचार मुझे नुकसान पहुँचा रहा था और मुझे बांध रहा था, जिससे मैं सही-गलत देखने में असमर्थ हो गई थी। यह विचार पूरी तरह से बेतुका है!
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “दरअसल, सिर्फ बच्चों को जन्म देने और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने के कार्य से ही तुम पहले ही उनसे बहुत-कुछ हासिल कर चुके हो। तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा का पालन करेंगे या नहीं, क्या अपनी मृत्यु से पहले तुम उन पर भरोसा कर सकोगे, और तुम उनसे क्या प्राप्त कर सकोगे, ये चीजें इस बात पर निर्भर करती हैं कि क्या तुम लोगों का साथ रहना नियत है, और यह परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, तुम्हारे बच्चे कैसे माहौल में जीते हैं, उनके जीवनयापन की दशा कैसी है, क्या वे इस स्थिति में हैं कि तुम्हारी देखभाल कर सकें, क्या उनकी वित्तीय स्थिति ठीक है, क्या उनके पास तुम्हें भौतिक आनंद और सहायता देने के लिए अतिरिक्त धन है, ये भी परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करते हैं। इसके अलावा, माता-पिता के तौर पर व्यक्तिपरक ढंग से, क्या तुम्हारे भाग्य में है कि तुम अपने बच्चों द्वारा दी जाने वाली भौतिक वस्तुओं, धन या भावनात्मक आराम का आनंद लो, यह भी परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) ये वे चीजें नहीं हैं जिन्हें इंसान सुनिश्चित कर सकते हैं। देखो, कुछ बच्चे माता-पिता को पसंद नहीं होते, और माता-पिता उनके साथ रहने को तैयार नहीं होते, लेकिन परमेश्वर ने उनका अपने माता-पिता के साथ रहना नियत किया है, इसलिए वे ज्यादा दूर यात्रा नहीं कर सकते या अपने माता-पिता को नहीं छोड़ सकते। वे जीवन भर अपने माता-पिता के साथ ही फँसे रहते हैं—तुम कोशिश करके भी उन्हें दूर नहीं भगा सकते। दूसरी ओर, कुछ बच्चों के माता-पिता उनके साथ रहने के बहुत इच्छुक होते हैं; वे अलग नहीं किए जा सकते, हमेशा एक-दूसरे को याद करते हैं, लेकिन विविध कारणों से वे माता-पिता के शहर या उनके देश में नहीं रह पाते। उनके लिए एक-दूसरे को देखना और आपस में बात करना मुश्किल होता है; हालाँकि संचार के तरीके बहुत विकसित हो चुके हैं, और वीडियो संवाद भी संभव है, फिर भी यह दिन-रात साथ रहने से अलग है। चाहे जिस कारण से उनके बच्चे विदेश जाते हैं, शादी के बाद किसी दूसरी जगह काम करते या जीवनयापन करते हैं, वगैरह, इससे उनके और उनके माता-पिता के बीच एक बहुत बड़ा फासला आ जाता है। एक बार भी मिलना आसान नहीं होता और फोन या वीडियो कॉल करना समय पर निर्भर करता है। समय के अंतर या दूसरी असुविधाओं के कारण वे अपने माता-पिता से अक्सर संवाद नहीं कर पाते। ये बड़े पहलू किससे संबंधित हैं? क्या ये सब परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने से संबद्ध नहीं हैं? (हाँ।) यह ऐसी चीज नहीं है जिसका फैसला माता-पिता या बच्चे की व्यक्तिपरक इच्छाओं से किया जा सकता है; सबसे बढ़कर यह परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, माता-पिता को चिंता होती है कि क्या वे भविष्य में अपने बच्चों पर भरोसा कर सकेंगे। तुम उन पर किसलिए भरोसा करना चाहते हो? चाय लाने और पानी देने के लिए? यह कैसी निर्भरता है? क्या तुम खुद यह नहीं कर सकते? अगर तुम स्वस्थ हो और चल-फिरकर अपनी देखभाल कर सकते हो, अपने तमाम काम खुद कर सकते हो, तो क्या यह बढ़िया नहीं है? अगर दूसरों को तुम्हारी सेवा करनी पड़े तो क्या यह एक अच्छी बात है? क्या अपने बच्चों की देखभाल और साथ का आनंद लेना, और खाने की मेज और दूसरी जगहों पर उनका तुम्हारी सेवा करना सचमुच में खुशी की बात है? जरूरी नहीं। अगर तुम चल-फिर नहीं सकते, और उन्हें सचमुच खाने की मेज और अन्य जगहों पर तुम्हारी सेवा करनी पड़ रही है, तो क्या यह तुम्हारे लिए खुशी की बात है? अगर तुम्हें विकल्प दिया जाए, तो तुम क्या चुनोगे, यह कि तुम स्वस्थ रहो और तुम्हें अपने बच्चों की देखभाल की जरूरत न पड़े, या यह कि तुम लकवे से बिस्तर पर पड़े रहो और तुम्हारे बच्चे तुम्हारे सिरहाने रहें? तुम किसे चुनोगे? (स्वस्थ होना।) स्वस्थ रहना बहुत-बहुत बेहतर है। चाहे तुम 80, 90 या 100 साल तक भी जियो, तुम खुद अपनी देखभाल कर सकते हो। यह जीवन की अच्छी गुणवत्ता है। भले ही तुम बूढ़े हो जाओ, तुम्हारा दिमाग उतना न चले, तुम्हारी याददाश्त कमजोर हो जाए, कम खाने लगो, काम धीरे-धीरे करो, अच्छे ढंग से न कर पाओ, और बाहर जाना उतना सुविधाजनक न हो, फिर भी यह बड़ी बात है कि तुम अपनी बुनियादी जरूरतों का खुद ख्याल रख पाते हो। कभी-कभी हेलो कहने के लिए अपने बच्चों से फोन आना या छुट्टियों के दौरान उनका घर आकर तुम्हारे साथ रहना काफी है। उनसे ज्यादा माँगने की क्या जरूरत है? तुम हमेशा अपने बच्चों के भरोसे रहते हो; क्या तुम तभी खुश होगे जब वे तुम्हारे गुलाम बन जाएँगे? क्या तुम्हारा इस तरह सोचना स्वार्थ नहीं है?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे अचानक रोशनी दिखाई दी। क्या कोई व्यक्ति जीवन में अपने बच्चों से देखभाल और ध्यान रखे जाने का आनंद ले सकता है या उसे अपने बच्चों से कितनी भौतिक या भावनात्मक सुविधा मिल सकती है, यह सब परमेश्वर के निर्धारण पर निर्भर करता है। यह सिर्फ हमारे चाहने से नहीं हो जाता। उदाहरण के लिए, मेरे बड़े भाई को ही लो। उसके पाँच बच्चे हैं, लेकिन जब वह बीमार था तो उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। आखिरकार उसके गुजर जाने तक मेरे पति ने ही उसकी देखभाल की। पीछे मुड़कर देखूँ तो पिछले कुछ सालों में अपना कर्तव्य करते हुए मेरी सेहत अच्छी नहीं रही। मुझे कई बार दिल का दौरा पड़ा और हर बार परमेश्वर ही था जिसने मेरी रक्षा की और मुझे खतरे से बचाया। एक बार मुझे अचानक अपने दिल में बहुत बेचैनी महसूस हुई और ऐसा लगा कि इसने धड़कना बंद कर दिया है। मुझे चक्कर आने लगा, मैं बिल्कुल भी हिल नहीं पा रही थी और मुझे लगा कि मैं मर जाऊँगी। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरा जीवन तुम्हारे हाथों में है। अगर मैं आज यहाँ मर भी जाऊँ तो भी मैं तुम्हारी संप्रभुता के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ।” उसी समय मेजबान परिवार का छोटा भाई बाहर से लौटकर आया। वह डॉक्टर था और उसने मुझ पर थोड़ा एक्यूप्रेशर किया, थोड़ी देर बाद मुझे उतना बुरा महसूस नहीं हुआ। मैंने देखा कि कैसे परमेश्वर ने मेरी मदद करने के लिए मेरे आसपास लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था की, मुझे पता था कि यह परमेश्वर की अद्भुत सुरक्षा थी। सोचने पर लगता है कि जब मैं बीमार थी और मेरा बेटा मेरे साथ था, तब भी मैं उतना ही कष्ट झेल रही थी और अगर परमेश्वर मेरी जान लेना चाहता तो मेरा बेटा वहाँ होते हुए भी शक्तिहीन होता। मेरा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, मेरा स्वास्थ्य भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है। साथ ही मुझे अपने जीवन की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए, मुझे हर चीज के लिए अपने बेटे पर निर्भर नहीं रहना चाहिए और मुझे उसके बिना स्वतंत्र रूप से जीवन को सँभालना चाहिए। माता-पिता के पास यही विवेक होना चाहिए। यह एहसास होने के बाद मेरा दिल बहुत उज्ज्वल हो गया।
मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, तब मुझे यह अंतर्दृष्टि मिली कि भव्य अंतिम संस्कार की चाहत और बच्चों की सिर्फ अपने अंतिम समय के लिए परवरिश करना कितनी बड़ी बेवकूफी है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोग सोचते हैं, ‘तुम्हें ताबूत में रखने के लिए बच्चों का तुम्हारे साथ होना, तुम्हें कफन पहनाना, तुम्हारा मेकअप करना और शानदार अंत्येष्टि की व्यवस्था करना एक बड़ी अच्छी बात है। अगर तुम मर जाओ और कोई तुम्हारी अंत्येष्टि या अंतिम विदाई की व्यवस्था न करे तो यूँ लगेगा मानो तुम्हारे संपूर्ण जीवन का उचित समापन नहीं हुआ।’ क्या यह विचार सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) आजकल, युवा लोग इन चीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, लेकिन अभी भी दूर-दराज की जगहों में ऐसे लोग हैं और थोड़ी-सी अंतर्दृष्टि वाले कुछ बूढ़े लोग हैं जिनके दिलों में यह सोच और नजरिया बैठा हुआ है कि बच्चों को अपने माता-पिता की बुढ़ापे में देखभाल करनी चाहिए और उन्हें विदा करना चाहिए। तुम सत्य के बारे में चाहे जैसे संगति करो, वे इसे स्वीकार नहीं करते—इसका अंतिम नतीजा क्या होता है? नतीजा यह होता है कि वे बहुत कष्ट सहते हैं। यह गाँठ उनके भीतर बहुत समय से दबी हुई है, और उनमें इसका जहर फैल जाएगा। इसे खोद कर बाहर निकाल देने पर उनमें इसका जहर नहीं रहेगा और उनका जीवन आजाद हो जाएगा। कोई भी गलत कर्म गलत विचारों के कारण होता है। अगर उन्हें अपने घर में मर जाने और सड़ जाने का डर है, तो वे हमेशा सोचते रहेंगे, ‘मुझे एक बेटे को पाल-पोसकर बड़ा करना है। उसके बड़े हो जाने पर मैं उसे ज्यादा दूर नहीं जाने दे सकता। मेरी मृत्यु के समय अगर वह मेरे पास न रहा तो क्या होगा? बुढ़ापे में मेरी देखभाल करने वाला या मुझे विदा करने वाला कोई न हुआ तो यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा पछतावा होगा! अगर मेरे लिए यह करने वाला कोई मेरे पास हुआ, तो मेरा जीवन बेकार नहीं हुआ होगा। यह एक पूर्ण जीवन होगा। कुछ भी हो जाए मैं अपने पड़ोसियों द्वारा उपहास का विषय नहीं बन सकता।’ क्या यह एक सड़ी हुई विचारधारा नहीं है? (हाँ, जरूर है।) यह संकीर्ण और अधम सोच है, जो भौतिक शरीर को बहुत ज्यादा महत्त्व देती है! असल में, भौतिक शरीर बेकार होता है : जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का अनुभव करने के बाद कुछ नहीं बचता। अगर लोगों ने जीवित रहते हुए सत्य प्राप्त कर लिया हो, तभी बचाए जाने पर वे सदा-सर्वदा जीवित रहेंगे। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे शरीर के मर जाने और नष्ट हो जाने के बाद कुछ भी नहीं बचेगा; तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति चाहे जितने भी संतानोचित निष्ठा रखते हों, तुम इसका आनंद नहीं ले पाओगे। जब कोई व्यक्ति मर जाता है और उसके बच्चे उसके शव को ताबूत में रख कर दफना देते हैं, तो क्या वह बूढ़ा शव कुछ महसूस कर सकेगा? क्या वह कोई चीज समझ सकेगा? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) उसमें लेश मात्र भी अनुभूति नहीं होती। लेकिन जीवन में, लोग इस मामले को बहुत महत्त्व देते हैं, अपने बच्चों से बहुत-सी माँगें करते हैं कि क्या वे उन्हें विदा कर सकेंगे—जोकि मूर्खता है, है कि नहीं? (हाँ, जरूर है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। किसी की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा शरीर से निकल जाती है। शरीर में जीवन का कोई चिह्न नहीं रह जाता और कुछ ही दिनों में वह सड़ने लगता है। भले ही उसके बच्चे और पोते-पोती शोक के कपड़े पहनें और चाहे अंतिम संस्कार कितना भी भव्य क्यों न हो, उसके शरीर में अब कोई संवेदना नहीं बचती और उसे कुछ भी पता नहीं चलता। मृत्यु के बाद भव्य अंतिम संस्कार की माँग करना बहुत मूर्खतापूर्ण है! लेकिन मैंने इस मामले को बहुत गंभीरता से लिया और जब मेरे बेटे ने मेरी जगह अपनी पत्नी को चुना तो मुझे चिंता हुई कि एक दिन मैं किसी गंभीर बीमारी से मर सकती हूँ और अगर कोई मुझे दफनाने वाला नहीं है तो मेरे जीवन का अंत अपूर्ण और दयनीय हो जाएगा। मेरे ये विचार सचमुच बेतुके थे! असल में अंत के दिनों में परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, जिसका उद्देश्य यह है कि सत्य लोगों के अंदर उतारा जाए और केवल सत्य का अनुसरण करके ही लोग एक सार्थक और मूल्यवान जीवन जी सकते हैं। परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम को इस आधार पर निर्धारित करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं। केवल सत्य प्राप्त करके और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीकर ही कोई व्यक्ति अनंत जीवन प्राप्त कर सकता है और एक सुंदर गंतव्य पर पहुँच सकता है। यदि किसी व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में सत्य का अनुसरण नहीं किया है या अच्छे कर्म तैयार नहीं किए हैं, तो चाहे उसका अंतिम संस्कार कितना भी भव्य क्यों न हो, उसकी आत्मा नरक में जाएगी। अपनी आस्था में मुझे इस बारे में सोचना चाहिए कि सत्य का अनुसरण कैसे किया जाए, अपने स्वभाव में परिवर्तन कैसे लाया जाए और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे अच्छी तरह से निभाया जाए। एक बार जब कोई व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर लेता है, केवल तभी वह एक मूल्य और अर्थ से भरा जीवन जी सकता है। जैसा कि परमेश्वर ने कहा : “असल में, भौतिक शरीर बेकार होता है : जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का अनुभव करने के बाद कुछ नहीं बचता। अगर लोगों ने जीवित रहते हुए सत्य प्राप्त कर लिया हो, तभी बचाए जाने पर वे सदा-सर्वदा जीवित रहेंगे।” मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, अगर मैं मृत्यु के बाद भव्यता की चाह रखूँ और जीने के लिए इन चीजों पर निर्भर रहूँ तो यह मुझे मूर्ख और छद्म-विश्वासी बना देगा। मेरा बेटा मेरे साथ कैसा व्यवहार करता है, यह सब परमेश्वर के निर्धारण पर निर्भर है। भले ही वह मेरी मृत्यु तक मेरी देखभाल न करे और मेरे अंतिम संस्कार की व्यवस्था न करे, फिर भी मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। यही विवेक मेरे पास होना चाहिए। हम परमेश्वर के सुसमाचार के विस्तार के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण में हैं और मुझे बस यही करना चाहिए कि मेरे पास अभी जो समय है, उसे संजोऊँ, अपना कर्तव्य व्यावहारिक तरीके से निभाऊँ, खुद को और अधिक सत्य से सुसज्जित करूँ और परमेश्वर की गवाही दूँ, राज्य के सुसमाचार के विस्तार में अपना योगदान दूँ। अब जब मैं इन बातों को समझ गई हूँ, मेरे पास जीवन में सही लक्ष्य और दिशा है, मैं अपने दिल में स्वतंत्र और मुक्त महसूस करती हूँ और मैं अब अपने कर्तव्य में प्रभावित नहीं होती।