100. बीमारी के माध्यम से शोधन : मेरे जीवन के लिए जरूरी
1999 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि यह मानवता के लिए परमेश्वर के उद्धार कार्य का अंतिम चरण है और सिर्फ परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार करके, सत्य का अनुसरण करके और पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करके ही किसी व्यक्ति को महा विनाशों से बचने का अवसर मिल सकता है। मैं वाकई धन्य हो गया और मुझे अपने कर्तव्य ठीक से करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के जीवन में एक बार मिलने वाले इस अवसर का लाभ उठाना था। इसलिए मैंने घर छोड़ दिया और कलीसिया में सुबह से शाम तक अथक परिश्रम करते हुए सक्रियता से सुसमाचार का प्रचार करने लगा। यहाँ तक कि जब दुनिया ने मुझे बदनाम किया और मेरे परिवार ने मुझे नकार दिया, तब भी मैंने इन चीजों को कष्ट नहीं माना। बाद में जब सुसमाचार का प्रचार करने के कारण पुलिस ने मुझे गिरफ्तार किया तो मैंने परमेश्वर को धोखा नहीं दिया और रिहा होने के बाद मैं पहले की तरह अपना कर्तव्य करता रहा। मुझे लगा कि मैंने इतने वर्षों में बहुत सारे अच्छे कर्म तैयार किए हैं और भविष्य में भले ही अन्य लोग न बचाए जाएँ, फिर भी मुझे बचा लिया जाएगा।
मुझे पता भी नहीं चला और 2015 खत्म होने को आ गया। मेरी कमर में बहुत दर्द होने लगा, मैं सुबह बिना सहारे के मुश्किल से उठ पा रहा था और मुझमें चलने-फिरने की भी ताकत नहीं थी। पहले तो मैंने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा, लेकिन कुछ समय बाद मेरी कमर में दर्द और भी बढ़ गया और मैं लंगड़ाने लगा। एक सुबह मेरी कमर में इतना दर्द हुआ कि मैं बिल्कुल भी उठ नहीं पाया। मैंने सोचा, “बस हो गया। मैं उठ भी नहीं सकता तो मैं अपने कर्तव्य कैसे कर सकता हूँ? अगर मैं अपने कर्तव्य नहीं कर सकता और अच्छे कर्म तैयार नहीं कर सकता तो क्या परमेश्वर मुझे अभी भी बचा सकता है?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “शायद परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है और जब तक मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करता और अपने कर्तव्य करता रहता हूँ, शायद परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह करेगा, मुझे आशीष देगा और मेरी बीमारी ठीक हो जाएगी।” लेकिन चीजें वैसी नहीं हुईं जैसी मैंने उम्मीद की थी। मेरी बीमारी हर दिन बढ़ती गई, मैं रात को सोते समय करवट नहीं बदल पाता था और कभी-कभी मेरी कमर में इतना दर्द होता था कि मैं बिल्कुल भी हिल नहीं पाता था। यहाँ तक कि दवा भी काम नहीं करती थी। बाद में मैं एक्स-रे के लिए अस्पताल गया और मुझे हैरानी हुई कि मुझे एंकिलॉजिंग स्पॉन्डिलाइटिस होने का पता चला। डॉक्टर ने कहा, “वे इस स्थिति को ‘कभी न मरने वाला कैंसर’ कहते हैं। यह एक पुरानी, आजीवन रहने वाली बीमारी है और गंभीर होने पर यह स्थायी पक्षाघात का कारण बन सकती है।” डॉक्टर की यह बात सुनकर मेरे शरीर की सारी ताकत खत्म हो गई और मैंने मन ही मन सोचा, “मुझे इतनी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है? परमेश्वर को पाने के बाद से मैंने उत्साहपूर्वक त्याग किए हैं और खुद को खपाया है तो परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? अगर मुझे लकवा मार जाता है और अपने कर्तव्य नहीं कर पाता हूँ तो क्या मैं बेकार नहीं हो जाऊँगा?” मेरा दिल दुख से खीझ उठा और मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतनी गंभीर बीमारी मुझ पर क्यों आई है। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं एक पिचका हुआ गुब्बारा हूँ और मैं सचमुच बहुत हताश था। इसके बाद मैं ठीक होने के लिए घर चला गया।
घर लौटने के बाद मेरी मनोदशा बहुत खराब हो गई और अब मुझमें वह आस्था नहीं रही जो पहले थी। मुझे लगा कि अब जीवन में कोई उम्मीद नहीं है। मैंने मन ही मन सोचा, “दूसरे भाई-बहन स्वस्थ हैं और सक्रियता से अपने कर्तव्य कर रहे हैं, लेकिन मैं जब चलता हूँ तो बहुत लंगड़ाता हूँ और मैं अपने कर्तव्य नहीं कर सकता। शायद एक दिन मेरी बीमारी और बढ़ जाएगी और मैं मर जाऊँगा और फिर परमेश्वर के उद्धार में मेरा कोई हिस्सा नहीं होगा।” जितना ज्यादा मैंने इस तरह सोचा, उतना ही लगा कि परमेश्वर ने मुझे छोड़ दिया है, मैं अब सत्य का अनुसरण नहीं करना चाहता था और जब मैं परमेश्वर के वचन पढ़ता था तो उन पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता था। मैं अपने दिन उलझन में जीता था और अपनी ही देह में डूबने लगा था। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं अभी भी जीवित रहता हूँ तो मैं अपने बेटे से एक अपार्टमेंट खरीदने को कहूँगा ताकि मैं वहाँ रह सकूँ और बीमारी में अपनी देखभाल कर सकूँ। मैं बस जितना हो सके उतना जीने की कोशिश करूँगा।” मैंने अविश्वासी रिश्तेदारों और दोस्तों को देखा जो स्वस्थ थे और जिनके पास कारें और घर थे, जबकि मैंने परमेश्वर पर विश्वास किया था और इतने सालों तक त्याग किए और खुद को खपाया था, जिसके एवज में मुझे सिर्फ बीमारी मिली, इसलिए मुझे अपने द्वारा किए हर त्याग और प्रयास पर पछतावा होने लगा। मेरी पत्नी ने देखा कि मेरी मनोदशा गलत है और उसने मेरे साथ संगति की, “अचानक हुई इस बीमारी के पीछे परमेश्वर का इरादा है। हम शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट किए जा चुके हैं और हमारे भ्रष्ट स्वभाव हमारे अंदर गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं। इन चीजों को पूरी तरह से सुलझाने और बदलने के लिए सिर्फ परमेश्वर के वचन पढ़ना ही काफी नहीं है। हमें कई तरह के परीक्षणों और शोधनों से भी गुजरना होगा। हमें यह समझने के लिए और ज्यादा खोजने की जरूरत है कि हमारे भ्रष्ट स्वभाव के किस पहलू को परमेश्वर ऐसी गंभीर बीमारी के जरिए सुलझाना चाहता है। तुम्हें जल्दी से पश्चात्ताप करना चाहिए और बदलना चाहिए! तुम परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकते!” अपनी पत्नी की बातें सुनने के बाद मेरा दिल ज्यादा शांत हो गया और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अभी बहुत दर्द में हूँ। मैं तुम्हारा इरादा नहीं समझ पा रहा हूँ, मुझे प्रबुद्ध करो।”
प्रार्थना करने के बाद मैंने लोगों के परीक्षण और शोधन के बारे में परमेश्वर के वचनों की खोज की। परमेश्वर के वचनों के एक अंश ने मुझे वाकई प्रोत्साहित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी की पीड़ा, वित्तीय तनाव, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाना सहते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2))। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे परमेश्वर मेरे सामने मुझसे सवाल कर रहा हो। मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। अतीत में जब परमेश्वर ने मुझे आशीष दिया था और सब कुछ बिना किसी आपदा या दुर्भाग्य के सुचारु रूप से चल रहा था, मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य करने को तैयार था। मैं परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और ऊपर की ओर बढ़ने के लिए सत्य का अनुसरण करने को तैयार था। जब सीसीपी ने मुझे पकड़ लिया था, तब भी मैं पीछे नहीं हटा या नकारात्मक नहीं हुआ था और रिहा होने के बाद भी अपने कर्तव्य करता रहा था। मुझे लगा था कि मेरे पास अंतहीन ऊर्जा है। लेकिन अब इस बीमारी और पक्षाघात की आशंका का सामना करते हुए और यह देखते हुए कि आशीष पाने की मेरी उम्मीदें टूट गई हैं, मैंने परमेश्वर में अपनी आस्था गँवा दी थी, परमेश्वर के बारे में मेरी सभी शिकायतें और गलतफहमियाँ सामने आ गई थीं। मैं सोचता था कि चूँकि मैंने इतने सारे त्याग किए हैं और खुद को खपाया है, परमेश्वर को मुझे बीमारी या दुर्भाग्य का अनुभव नहीं कराना चाहिए, परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए और मुझे अच्छा स्वास्थ्य देना चाहिए। जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं तो मैंने खुद को चुपचाप परमेश्वर का विरोध करने की मनोदशा में पाया। मैं अब परमेश्वर के वचन पढ़ना नहीं चाहता था, न ही मेरा मन सबक सीखने के लिए चिंतन करने का था। इसके बजाय मैं नकारात्मक हो गया, शिकायत करने लगा और पूरी तरह से निराशा में डूब गया। तथ्यों के प्रकाशन के माध्यम से मैंने आखिरकार देखा कि मेरा पहले का प्रेम और वफादारी झूठी थी। परमेश्वर ने यह बीमारी होने की अनुमति मुझे हटाने के लिए नहीं, बल्कि इस स्थिति का उपयोग मेरी भ्रष्टता को स्वच्छ करने के लिए दी थी और मुझे परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मैं परमेश्वर के प्रति गहराई से ऋणी हो गया। मैं अब और इतना नकारात्मक नहीं रह सकता था और चाहे मेरी बीमारी में सुधार हो या न हो, मुझे पहले समर्पण करना और अपने कष्ट से सबक सीखना चाहिए।
एक दिन मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। “मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3 : मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के प्रकाशन ने सीधे मेरी मनोदशा को संबोधित किया। मैंने सिर्फ परमेश्वर का अनुग्रह पाने, महा विनाशों से बचने और स्वर्ग के आशीष का आनंद लेने के लिए परमेश्वर में विश्वास किया और अपने कर्तव्य किए। जब मैंने पहली बार कार्य के इस चरण को स्वीकारा था, उस समय को याद करूँ तो मैंने सोचा था कि जब तक मैं अपने कर्तव्य कर सकता हूँ, त्याग कर सकता हूँ, परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकता हूँ, पीड़ा सह सकता हूँ और कीमत चुका सकता हूँ, मैं एक सुंदर मंजिल प्राप्त कर सकता हूँ। बाद में परमेश्वर के आशीष पाने के लिए मैंने त्याग किए, खुद को खपाया और अपने कर्तव्य किए और चाहे दुनिया ने मुझे कितना भी बदनाम किया हो या मेरे परिवार ने मुझे कैसे भी नकारा हो, कुछ भी मुझे रोक नहीं सका। यहाँ तक कि जब मुझे पुलिस ने गिरफ्तार किया था, तब भी मैंने अपने कर्तव्य नहीं छोड़े थे। मैंने सोचा था कि ऐसी कीमत चुकाने से मुझे निश्चित रूप से परमेश्वर के आशीष मिलेंगे और मैं महा विनाशों में बच जाऊँगा। लेकिन जब बीमारी ने मुझे जकड़ लिया, मुझे लकवा मार जाने और अपने कर्तव्य न कर पाने का जोखिम हो गया तो मुझे लगा कि मैंने उद्धार की सारी उम्मीद खो दी है। मैं अपने दिल में परमेश्वर से शिकायत और बहस करता रहा, मुझे लगा कि चूंकि मैंने परमेश्वर के लिए इतना कुछ दिया है, परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए और मुझे बीमारी की यातना नहीं झेलने देना चाहिए। जब आशीषें पाने की मेरी इच्छा चकनाचूर हो गई तो मैं परमेश्वर द्वारा मेरे लिए तय की गई स्थिति के प्रति प्रतिरोधी होने लगा, नकारात्मक हो गया और उसका विरोधी बन गया, यहाँ तक कि अपने पिछले त्यागों पर पछताने की हद तक पहुँच गया। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर में अपनी आस्था को सौदेबाजी की मानसिकता के साथ देख रहा था, अपने कथित त्यागों और प्रयासों का फायदा उठाकर परमेश्वर से आशीषों के बदले में सौदेबाजी करने की कोशिश कर रहा था। मैं किराए के मजदूर की तरह पेश आ रहा था, सोच रहा था कि कड़ी मेहनत करने के बाद मुझे परमेश्वर से इसके अनुरूप पुरस्कार मिलना चाहिए। मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी नहीं थी। मैं बस उसे धोखा देने और उसका इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा था। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “अगर तुम्हारी वफादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहना चाहूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो मुझे अपने इरादों से धोखा देते हैं और शर्तों द्वारा मुझसे जबरन वसूली करते हैं। मैं मनुष्य से सिर्फ यही चाहता हूँ कि वह मेरे प्रति पूरी तरह से वफादार हो और सभी चीजें एक ही शब्द : आस्था—के वास्ते—और उसे साबित करने के लिए करे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। परमेश्वर लोगों के प्रति ईमानदार है और बदले में कुछ नहीं माँगता। परमेश्वर यह भी आशा करता है कि लोग उसके प्रति अपनी भक्ति में एकनिष्ठ हो सकें और परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग झूठ या अशुद्धता के साथ उस पर विश्वास करें। लेकिन कीमत चुकाने और खुद को खपाने में मैं अनुग्रह और आशीषों के बदले में परमेश्वर से सौदेबाजी करने का प्रयास कर रहा था। मैं अपने लक्ष्य पाने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल करना चाहता था और जब मुझे आशीष नहीं मिले तो मैंने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत की। मेरे जैसे स्वार्थी व्यक्ति से परमेश्वर को तिरस्कार और घृणा कैसे नहीं होती? अगर परमेश्वर का प्रकाशन न होता तो मैं परमेश्वर में अपने विश्वास के पीछे अपने घृणित इरादों को नहीं जान पाता, मैं गलत रास्ते पर चलता रहता और आखिरकार परमेश्वर मुझे हटा देता। इसका एहसास होने पर मैं परमेश्वर के प्रति बहुत ऋणी हो गया और मैंने उससे प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने इतने वर्षां से तुम पर विश्वास किया है, लेकिन मैं ईमानदार नहीं रहा हूँ। मैं तुमसे सौदेबाजी करने और तुम्हें धोखा देने की कोशिश करता रहा हूँ। मेरी यह आस्था तुम्हारे लिए घृणा और बेहद नफरत के लायक है। परमेश्वर, मैं तुमसे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ। मुझे प्रबुद्ध और रोशन करो और मुझे मेरी गलत मनोदशा से बाहर निकालो।”
इसके बाद मैंने विचार किया : मैं सोचता था कि परमेश्वर में विश्वास करके, उसके लिए त्याग करके और खुद को खपाकर मुझे उसकी सुरक्षा और आशीष मिलना चाहिए और मुझे बीमारी या दुर्भाग्य का सामना नहीं करना चाहिए। यह दृष्टिकोण वाकई कितना गलत था? मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों के बारे में सोचा : “अय्यूब ने शैतान के विध्वंस झेले थे, किंतु फिर भी उसने यहोवा परमेश्वर का नाम नहीं तजा। उसकी पत्नी पहली थी जो बाहर आई और, मनुष्य की आँखों को दिखाई दे सकने वाले रूप में शैतान की भूमिका निभाते हुए, उसने अय्यूब पर आक्रमण किया। मूल पाठ इसका वर्णन इस प्रकार करता है : ‘तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, “क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा”’ (अय्यूब 2:9)।” “अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने न केवल अपनी सत्यनिष्ठा को नहीं छोड़ा या परमेश्वर को नहीं त्यागा, बल्कि उसने अपनी पत्नी से यह भी कहा : ‘क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’ क्या ये वचन बहुत महत्व रखते हैं? यहाँ, केवल एक ही तथ्य इन वचनों का महत्व सिद्ध करने में सक्षम है। इन वचनों का महत्व यह है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा अपने हृदय में स्वीकार किया गया है, ये वे वचन हैं जो परमेश्वर द्वारा वांछित थे, ये वे वचन हैं जिन्हें परमेश्वर सुनना चाहता था, और ये वे परिणाम हैं जिन्हें परमेश्वर देखने को लालायित था; ये वचन अय्यूब की गवाही के तत्व भी हैं” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। जब अय्यूब ने अपने बच्चों और संपत्तियों को गँवा दिया और उसके पूरे शरीर पर फोड़े हो गए तो भी उसने न सिर्फ परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं की, बल्कि अपनी पत्नी से भी कहा कि उन्हें आशीष और दुर्भाग्य दोनों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए। अय्यूब जानता था कि उसके बच्चे और संपत्तियाँ परमेश्वर की देन थीं और परमेश्वर द्वारा उन्हें छीन लेना उचित था। चाहे परमेश्वर ने उसके साथ कैसा भी व्यवहार किया हो, उसने कोई शिकायत नहीं की और परमेश्वर से कोई माँग या सौदेबाजी की कोशिश नहीं की। अय्यूब के अनुभव से मैंने समझा कि परमेश्वर में विश्वास सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने के बारे में नहीं है, बल्कि परमेश्वर से आने वाले परीक्षणों और मुश्किलों को स्वीकारने के बारे में भी है। हमें आशीष मिले या दुर्भाग्य, यह सब परमेश्वर के हाथों में है और हमें परमेश्वर से माँग किए बिना स्वीकारना और समर्पण करना चाहिए। मैंने यह भी समझा कि बीमार पड़ने पर मैंने शिकायत की, क्योंकि मैं परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं समझता था। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। वास्तव में, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तब भी क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। तुम लोग क्या कहोगे—परमेश्वर द्वारा शैतान का विनाश क्या उसकी धार्मिकता की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) अगर उसने शैतान को बने रहने दिया होता, तब तुम क्या कहते? तुम हाँ कहने का दुस्साहस तो नहीं करते? परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्या थी? ‘तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?’” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरा दृष्टिकोण विकृत था। अपने दिल में मैं सोचता था कि धार्मिकता में निष्पक्षता और तर्कसंगतता शामिल है, यह समतावाद है और मैंने जितना काम किया है, उसके अनुरूप मुझे भुगतान किया जाना चाहिए। अपनी आस्था के वर्षों में मैंने बहुत कुछ छोड़ दिया था और मैंने अपने परिवार और करियर दोनों को त्याग दिया था, इसलिए मुझे लगा कि परमेश्वर को मुझे आशीष देना चाहिए, मुझे बीमारी और आपदा से मुक्त रखना चाहिए, सब कुछ सुचारु रूप से चलना चाहिए और आखिरकार मुझे राज्य में प्रवेश करने में सक्षम होना चाहिए। मुझे लगा कि यह निष्पक्ष और उचित था और इसी तरह परमेश्वर धार्मिक होगा। जब मैंने देखा कि अन्य भाई-बहन शांति से और बिना किसी समस्या के जी रहे हैं, जबकि मैं इतनी गंभीर बीमारी से पीड़ित हूँ तो मैंने शिकायत की कि परमेश्वर अधार्मिक है। मैं परमेश्वर की धार्मिकता मापने के लिए भ्रष्ट मानवीय दृष्टिकोणों, सौदेबाजी और लेन-देन के तर्क का इस्तेमाल कर रहा था। यह दृष्टिकोण विकृत था और सत्य के अनुरूप नहीं था। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मेरे पास जो कुछ भी है वह सब उसी से आया है, इसलिए मुझे परमेश्वर से ये तर्कहीन माँगें नहीं करनी चाहिए। मेरे पास विवेक की बहुत कमी थी! परमेश्वर लोगों के साथ कैसा भी व्यवहार करे, चाहे वह उन पर आशीष भेजे या दुर्भाग्य, सब में उसके अच्छे इरादे होते हैं। लोगों को स्वीकारना चाहिए और समर्पण करना चाहिए और परमेश्वर से माँगें नहीं करनी चाहिए। यही अंतरात्मा और विवेक लोगों में होना चाहिए। इसका एहसास होने पर मेरा दिल बहुत उज्ज्वल हो गया। उसके बाद मैं हर दिन परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर से अपनी मनोदशा ठीक करने लगा। कुछ समय बाद मेरी बीमारी में काफी सुधार हुआ और कलीसिया ने मेरे लिए फिर से अपना कर्तव्य करने की व्यवस्था कर दी। मैं खुश और आभारी दोनों महसूस कर रहा था और लगातार परमेश्वर को धन्यवाद दे रहा था। मैं अपने कर्तव्य सँजोने के लिए तैयार था और अब मैं पहले की तरह आशीष पाने की खातिर खुद को खपाना और अपना कर्तव्य नहीं करना चाहता था। मैं सिर्फ परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा करना चाहता था।
छह महीने बाद मेरी बीमारी फिर से बढ़ गई और मेरा कमर दर्द पहले से भी बदतर हो गया। मुझे बाथरूम जाने के लिए छड़ी का सहारा लेना पड़ता था और हर कदम थका देने वाला होता था। इलाज का कोई असर नहीं हो रहा था। मेरे डॉक्टर ने निराशा में आह भरी और कहा कि मेरी बीमारी का इलाज करना मुश्किल है। डॉक्टर की यह बात सुनकर मेरे दिल में गहरी पीड़ा हुई। मैंने मन ही मन सोचा, “क्या मेरी बीमारी सचमुच लाइलाज है? क्या मैं लकवाग्रस्त हो जाऊँगा? अगर चीजें इसी तरह चलती रहीं तो क्या मैं निकम्मा नहीं बन जाऊँगा?” फिर मैंने सोचा, “मैंने अपनी बीमारी के कारण अपने कर्तव्यों में देरी नहीं की है और मैंने अपना सब कुछ दे दिया है। मेरी हालत में सुधार होना चाहिए था तो इसके बजाय यह बिगड़ क्यों गई? क्या परमेश्वर मुझे हटाने वाला है?” जितना मैंने सोचा, मैं उतना ही नकारात्मक होता गया और अंदर ही अंदर, मैं परमेश्वर से अपनी बीमारी दूर करने की माँग करने लगा। मेरा पूरा ध्यान अपनी बीमारी के ठीक होने की उम्मीद पर था और अपनी बीमारी की प्रगति के साथ-साथ मेरा मूड भी हर दिन बदलता रहता था। अगर मेरी हालत में थोड़ा भी सुधार होता तो मैं खुश होता, लेकिन अगर मैं अपनी हालत बिगड़ती देखता तो मेरा दिल टूट जाता। एक दिन मुझे अचानक परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति याद आ गई : “ब्रह्मांड में घटित होने वाली समस्त चीजों में से ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसमें मेरी बात आखिरी न हो। क्या कोई ऐसी चीज है, जो मेरे हाथ में न हो?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 1)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे लिए सब कुछ स्पष्ट कर दिया। ब्रह्मांड में सब कुछ परमेश्वर के नियंत्रण में है, जिसमें मेरी बीमारी की दशा भी शामिल है। मुझे परमेश्वर से अपनी बीमारी दूर करने की माँग नहीं करनी चाहिए। यह अनुचित है। मुझे समर्पण करना चाहिए।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सभी लोगों के लिए शोधन बेहद कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शोधन के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धार्मिक स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक व्यावहारिक काट-छाँट प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से मनुष्य अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान प्राप्त करता है, और उसे परमेश्वर के इरादों की और अधिक समझ प्राप्त होती है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त होता है। शोधन का कार्य क्रियान्वित करने में परमेश्वर के लक्ष्य ऐसे होते हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शोधन का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना होता है। बल्कि इसका अर्थ है शोधन के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शोधन मनुष्य की व्यावहारिक परीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शोधन के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य कर सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शोधन का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल अचानक उज्ज्वल हो गया। पता चला कि बीमारी इसलिए नहीं हुई थी क्योंकि परमेश्वर मुझे हटाना चाहता था, बल्कि इसलिए हुई थी क्योंकि आशीष पाने की मेरी इच्छा बहुत बड़ी थी और इस तरह की स्थिति के जरिए इसे सुलझाया जाना जरूरी था। यह मुझ पर परमेश्वर का प्रेम था। भले ही मुझे आशीष पाने के बारे में अपने इरादों और दृष्टिकोणों की कुछ समझ थी, लेकिन ये पूरी तरह से हल नहीं हुए थे, जब मेरी बीमारी फिर से लौट आई तो मैं फिर से शिकायत करने लगा और परमेश्वर को गलत समझा। मैंने देखा कि आशीष पाने के मेरे इरादे बहुत गहराई से जड़ें जमाए हुए थे, मुझे स्वच्छ होने के लिए और ज्यादा दर्द और परीक्षणों से गुजरने की जरूरत थी। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है तो परमेश्वर एक गंदे और भ्रष्ट व्यक्ति को अपने राज्य में प्रवेश करने की अनुमति कैसे दे सकता है जिसने उसके बारे में शिकायत की और उसका प्रतिरोध भी किया? मैंने अपनी आस्था के इतने वर्षों को एकनिष्ठ रूप से आशीष पाने की कोशिशों में बिताया था, सिर्फ बाहरी त्यागों और खुद को खपाने पर ध्यान केंद्रित किया था, लेकिन सत्य का अनुसरण करने पर नहीं। मेरा स्वभाव जरा भी नहीं बदला था और फिर भी मैं राज्य में प्रवेश करना और परमेश्वर के आशीष पाना चाहता था। क्या यह सिर्फ महत्वाकांक्षी सोच नहीं थी? अगर मैं इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो न सिर्फ परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा, बल्कि मुझे दंडित भी करेगा। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि भले ही बाहर से यह बीमारी एक बुरी चीज लगती है, असल में परमेश्वर मेरी भ्रष्टता को स्वच्छ करके मुझे बचा रहा था और इसके पीछे परमेश्वर का श्रमसाध्य इरादा था। इसका एहसास होने पर मैं गहराई तक प्रभावित हुआ और पछतावे से भर गया, मुझे लगा कि मैं परमेश्वर से इस तरह के उद्धार के बिल्कुल भी लायक नहीं हूँ। मैंने परमेश्वर के हृदय को नहीं समझा, बार-बार उसे गलत समझा और उसके बारे में शिकायत की। मेरे पास वाकई अंतरात्मा और विवेक की कमी थी!
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, प्रकाशनों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान के निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। ‘अपने फायदे के लिए’ इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिए अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नजर में तुम्हारे कार्यों को अच्छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की जाएगी। परमेश्वर में ऐसे विश्वास से कोई क्या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्वास अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगा?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि सच्चे अच्छे कर्म क्या होते हैं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से पूरा करता है, अपने स्वयं के इरादों और उद्देश्यों से दूर रहता है और अपने स्वयं के हितों या स्वार्थी इच्छाओं के हिसाब से पेश नहीं आता है तो ऐसा अभ्यास परमेश्वर द्वारा अनुमोदित है और यह वाकई एक अच्छा कर्म है। अतीत में मैं सोचता था कि जब तक मैं त्याग कर सकता हूँ, खुद को खपा सकता हूँ, अपने कर्तव्य में ज्यादा कर सकता हूँ और ज्यादा कष्ट सह सकता हूँ, इसे अच्छे कर्म तैयार करने के रूप में गिना जाएगा और मुझे यकीनन भविष्य में एक अच्छी मंजिल मिलेगी। अब परमेश्वर के वचनों के आधार पर मुझे एहसास हुआ कि अच्छे कर्मों को मापने के बारे में मेरे दृष्टिकोण गलत थे। अपना कर्तव्य निभाना और अच्छे कर्म तैयार करना परमेश्वर के इरादों के अनुसार है, लेकिन अगर किसी व्यक्ति के इरादे दूषित हैं और वह अपने लक्ष्य पाने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल करना चाहता है तो यह एक बुरा कर्म है, ऐसे में भले ही यह व्यक्ति बड़ी कीमत चुकाए, परमेश्वर इसे नहीं स्वीकारेगा और इसके बजाय परमेश्वर उसे एक कुकर्मी मानेगा। अगर यह व्यक्ति पश्चात्ताप नहीं करता है और इसी मार्ग पर चलता रहता है तो परमेश्वर उसे निश्चित रूप से हटा देगा, क्योंकि परमेश्वर ने कहा है : “तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के तहत चीजों के प्रति मेरा गलत परिप्रेक्ष्य कुछ हद तक बदल गया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि आगे बढ़ते हुए मैं सही इरादों के साथ अपना कर्तव्य करना चाहता हूँ, मैं अब परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश नहीं करूँगा और चाहे मुझे आशीष मिले या दुर्भाग्य, मैं परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से पूरा करने के लिए तैयार रहूँगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीच इससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है और यह कुछ ऐसा है जिसे एक ऐसी कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है और उन सबके लिए भी जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या याद किए जाने लायक नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज है। और जहाँ तक प्रश्न यह है कि सृष्टिकर्ता उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है जो सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हैं और वह उनसे क्या वादे करता है, यह सृष्टिकर्ता का मामला है; सृजित मानवजाति का इससे कोई सरोकार नहीं है। इसे थोड़ा और सरल तरीके से कहूँ तो यह परमेश्वर पर निर्भर है और लोगों को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। तुम्हें वही मिलेगा जो परमेश्वर तुम्हें देता है, यदि वह तुम्हें कुछ भी नहीं देता है तो तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। जब कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करता है और अपना कर्तव्य निभाने और जो वह कर सकता है उसे करने में सृष्टिकर्ता के साथ सहयोग करता है तो यह कोई लेन-देन या व्यापार नहीं होता है; लोगों को परमेश्वर से कोई वादा या आशीष पाने के लिए रवैयों की अभिव्यक्तियों या क्रियाकलापों और व्यवहारों का सौदा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि चूँकि परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया है और उसे जीवन की साँस दी है और अब मुझे सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का अवसर दिया है, यह पहले से ही परमेश्वर का अनुग्रह और असाधारण उत्थान है और मुझे परमेश्वर से कोई माँग नहीं करनी चाहिए। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मुझे हर समय, बिना किसी शर्त और सौदेबाजी की कोशिश या माँग किए बिना अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा करना चाहिए। यही विवेक मेरे पास होना चाहिए। इसके अलावा परमेश्वर का इरादा यह नहीं है कि हम उसका अनुग्रह और आशीष पाने के लिए बाहरी त्याग करें और खुद को खपाएँ, बल्कि यह है कि हम अपने कर्तव्य करके सत्य प्राप्त करें, अपनी भ्रष्टताओं, अशुद्धियों और शैतानी स्वभावों को ठीक करें और आखिरकार शुद्ध होकर उद्धार प्राप्त करें। परमेश्वर यही देखने की उम्मीद करता है और यही वह लक्ष्य है जिसे मुझे अपने कर्तव्य में अपनाना चाहिए। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मैं बहुत ज्यादा सहज हो गया और भले ही मेरी बीमारी में सुधार नहीं हुआ था, फिर भी मैं अब इतना बेबस नहीं था। इसके बाद मैंने इलाज कराते समय आत्म-चिंतन किया, संकल्प लिया कि चाहे बीमारी में सुधार हो या नहीं या फिर अंतिम परिणाम कुछ भी हो, मैं सब कुछ परमेश्वर को सौंप दूँगा और अब कोई माँग नहीं करूँगा। कुछ समय बाद मेरी स्थिति में सुधार होने लगा और मैं सामान्य रूप से चलने-फिरने लगा। बहुत जल्द मैं फिर से कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हो गया।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मेरे जीवन के लिए दर्दनाक शोधन आवश्यक है और इस तरह के शोधन के बिना मैं अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जी रहा होता और मैं अभी भी आशीष पाने के इरादे से परमेश्वर पर विश्वास और अपने कर्तव्य कर रहा होता। अगर मैं अपने अनुसरण में इसी तरह आगे बढ़ता रहता तो आखिरकार परमेश्वर मुझे बेनकाब करके हटा देता। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे बेनकाब करने, बदलने और शुद्ध करने के लिए वास्तविक परिस्थितियों की व्यवस्था की। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था!