12. गिरफ्तारी के बाद चिंतन

यू लू, चीन

2018 में मुझे कलीसिया में अगुआ चुना गया। उस समय ली हुआ लगातार दूसरों पर दबाव डालती और उन्हें सताती थी और कलीसिया के जीवन में बाधा डाल रही थी। हमें परमेश्वर के वचनों के साथ एक बुरी इंसान के तौर पर उसके व्यवहार को उजागर करना और उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। लिन रू, जो मेरी सहयोगी बहन थी, उसने मुझसे अपने साथ चलने को कहा। जब हम ली हुआ के साथ संगति करके उसे उजागर कर रहे थे, तो ली हुआ ने इसे कबूल नहीं किया; उसका रवैया बेहद नीचतापूर्ण था। उसने न सिर्फ अपने बुरे कर्मों को मानने से इनकार किया, बल्कि हमें आँखें दिखाकर अपना बचाव भी किया। उसका वह क्रूर रूप देखकर मैं थोड़ी सहम गई। मैं मन ही मन लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करती रही और उससे मार्गदर्शन माँगती रही। उसी समय मैंने कंप्यूटर खोला तो परमेश्वर के वचनों का एक ऐसा अंश देखा जो ली हुआ के व्यवहार से हूबहू मेल खाता था। हमने उसे साथ मिलकर पढ़ा और फिर मैंने अलग-अलग समय पर कही गई उसकी बातों और उसके लगातार बुरे बर्ताव के बीच के विरोधाभासों के साथ उसके बुरे कर्मों को उजागर किया। दूसरे भाई-बहनों ने भी मिलकर उसके व्यवहार को उजागर किया, तब जाकर वह मानी। ली हुआ के जाने के बाद एक बहन ने कहा : “आज इस बुरी इंसान का तेवर देखकर तो मैं सचमुच थोड़ी डर गई थी। अगर तुमने उसे उजागर न किया होता, तो वह सच में मानने वाली नहीं थी।” यह सुनकर, मैंने मुँह से तो कहा, “परमेश्वर का धन्यवाद, यह सब परमेश्वर का ही मार्गदर्शन है,” पर दिल ही दिल में मैं बहुत खुश हो रही थी। मुझे लगा कि हाँ, मुझमें सचमुच कुछ तो कार्य क्षमता है। कुछ समय बाद, मैं पाठ-आधारित कार्य करने वालों के लिए एक सभा करने गई। क्योंकि मुझे पाठ-आधारित कार्य के सिद्धांतों की खास पकड़ नहीं थी, मुझे डर था कि कहीं मैं स्पष्ट संगति न कर पाई और लोग मुझे हिकारत से न देखें। इसलिए मैं मन ही मन लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे मार्गदर्शन माँगती रही। इसके बाद, मैंने उनके साथ मिलकर सिद्धांत पढ़े, अपनी कुछ समझ साझा की और उनके काम की समस्याओं और विचलनों पर संगति करके उन्हें सुलझाया। उसके बाद सभी को समझ आ गया कि काम कैसे करना है। कुछ भाई-बहनों ने खुशी-खुशी कहा कि मेरी संगति से उन्हें काफी मदद मिली। जब मैंने देखा कि उस दौरान अपने कर्तव्य निभाने में मुझे कुछ कामयाबी मिली थी और सभी भाई-बहन मेरी तारीफ कर रहे थे, तो मैं मन ही मन खुद से काफी खुश थी। “आगे भी मुझे उनकी और समस्याएँ सुलझाने में मदद करनी है। इस तरह हर कोई यकीनन मेरी और भी प्रशंसा करेगा।” जल्द ही, ऊपरी अगुआओं ने मुझे कई मुश्किल कामों की जिम्मेदारी सौंप दी। शुरू में मुझे लगा कि वे बहुत मुश्किल हैं और पूरे नहीं किए जा सकते। अगुआओं ने मूसा द्वारा इस्राएलियों को लाल सागर पार कराने की घटना और आस्था से जुड़े परमेश्वर के वचनों पर मेरे साथ संगति की। उसके बाद मुझमें काम पूरा करने का संकल्प आ गया। काम करने के दौरान जब मुश्किलें आईं और समझ नहीं आया कि क्या करूँ, तो मैंने कई बार परमेश्वर से प्रार्थना की और सत्य सिद्धांतों को खोजा। धीरे-धीरे काम कामयाबी से पूरा हो गया। मैं अपनी पीठ थपथपाए बिना न रह सकी, सोचने लगी कि कोई भी मुश्किल मेरे लिए बड़ी नहीं है। बाद में, जब भाई-बहनों को अपने कर्तव्य निभाने में मुश्किलें आतीं और वे आस्था खो बैठते, तो मैं उनके सामने अपनी बड़ाई हाँकती : “तुम्हारी ये मुश्किलें तो कुछ भी नहीं हैं। मेरे कर्तव्य निभाने में जो मुश्किलें आईं, उनकी तुलना में तो ये बहुत मामूली हैं।” फिर मैं बड़े विस्तार से बताती कि कैसे मैंने अपने कर्तव्य निभाने में आई मुश्किलों को परमेश्वर पर भरोसा करके सुलझाया। लेकिन इस दौरान मेरे अंदर जो नकारात्मकता थी, जो आस्था की कमी थी, इस प्रक्रिया के दौरान जो हार मान लेने की इच्छा थी, उसका मैंने जिक्र तक नहीं किया। बातचीत के बाद मेरे मन में कुछ जागृति-सी हुई। क्या यह मैं खुद को ऊँचा नहीं उठा रही और दिखावा नहीं कर रही? लेकिन फिर खयाल आया : “मैंने यह भी तो बताया कि कैसे मैंने समस्याओं और मुश्किलों को सुलझाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया। यह दिखावा करना तो नहीं हुआ।” खास तौर पर जब मैंने अपने भाई-बहनों की आँखों में वह ईर्ष्या और प्रशंसा देखी तो मुझे लगने लगा कि मैं सत्य को समझती हूँ और मुझमें कुछ तो कार्य क्षमता है।

एक बार मैं एक सभा में गई। बहन लियू ली, जो कलीसिया के सफाई कार्य के लिए जिम्मेदार थी, उसने कहा : “एक कलीसिया अगुआ ने खबर दी है कि किसी का व्यवहार बहुत ही खराब है। उन्होंने उसके साथ संगति की, लेकिन उसने न सिर्फ उसे मानने से इनकार कर दिया और खुद का बचाव करने लगा, बल्कि उल्टे उन्हीं पर दबाव बनाने की कोशिश भी की। अगर मेरा पाला ऐसे किसी इंसान से पड़ जाए, तो मुझे समझ नहीं आएगा कि उससे कैसे संगति करूँ और कैसे उसे उजागर करूँ। मुझे तो दिल में थोड़ा डर लगेगा।” मैंने मन में सोचा : “मुझे तुम्हें बताना ही होगा कि मैं बुरे लोगों को कैसे उजागर करती हूँ ताकि तुम कुछ सीख सको।” फिर मैंने बड़े विस्तार से बताया कि कैसे मैंने ली हुआ को उजागर किया, कैसे वह पहले तो मान नहीं रही थी, पर आखिरकार वह कैसे पूरी तरह से मान गई। मैं जितना बोलती गई, उतना ही जोश में आती गई। हालाँकि मैंने यह भी कह दिया कि उस समय मैं थोड़ी डरी और सहमी हुई थी, लेकिन वह बस बातों-बातों में ही कहा था। लियू ली ने जब सुना, तो उसने ईर्ष्या और प्रशंसा भरी नजरों से मुझे देखा और कहा : “अगर तुम्हारी जगह मैं होती, तो मुझे समझ ही नहीं आता कि उसे उजागर कैसे करूँ।” उसकी यह बात सुनकर मैं बहुत खुश हुई, मुझे इसमें बड़ा मजा आया। उस दौरान खुद को दिखाने की मेरी ख्वाहिश दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही थी। हर बार जब मैं सभा से लौटती, तो मैं लिन रू को कलीसिया में जो भी समस्याएँ मुझे दिखीं और मैंने उन्हें कैसे सुलझाया, सब कुछ शुरू से आखिर तक बताती थी। लिन रू अक्सर कहती थी : “यह तो सच है, तुम समस्याएँ ढूँढ़ने और उन्हें सुलझाने में वाकई बहुत माहिर हो! अगर मैं होती, तो शायद मैं समस्याएँ ढूँढ़ भी नहीं पाती, उन्हें सुलझाना तो बहुत दूर की बात है।” बाद में, जब भी लिन रू के सामने कोई भी बात आती, तो वह मुझसे पूछती कि उससे कैसे निपटा जाए और उसे कैसे हल किया जाए; वह छोटे-मोटे कामों के लिए भी मेरे लौटने और उन्हें सँभालने का इंतजार करती थी। मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था, तो लिन रू ने मुझसे कहा : “तुम्हें अपनी सेहत का अच्छे से ख्याल रखना चाहिए। अगर तुम्हारी सेहत बिगड़ गई, तो हमारी कलीसिया का काम कौन करेगा?” जिन बहनों के साथ मैं काम करती थी, वे हमेशा मुझे पौष्टिक चीजें खाने को देती थीं और मुझे यह एहसास और भी पक्का होता गया कि मैं ही कलीसिया की रीढ़ की हड्डी हूँ। बाद में मेरे भाई-बहन अपनी सारी समस्याओं पर संगति करने और मेरी सलाह लेने के लिए मेरे पास ही आने लगे। हर सभा में मेरे भाई-बहन मुझसे सवाल पूछने के लिए एक-दूसरे से होड़ करते थे। मेरे दिल में एक अजीब सी खुशी महसूस होती थी और मैं सोचती थी : “लगता है इस कलीसिया के काम के लिए तो मैं ही सबसे जरूरी हूँ। मेरे बिना पतवार सँभाले यह गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती!” मैंने पूरी कलीसिया के काम के बारे में सोचा : चाहे मामला कितना भी बड़ा हो या छोटा, आखिरी फैसला तो मुझे ही करना होता था। इसलिए मुझे लगने लगा कि मेरी उपस्थिति बहुत जरूरी है। लेकिन चूँकि मैंने कभी खुद पर चिंतन नहीं किया और न ही खुद को समझा, परमेश्वर का क्रोध मुझ पर टूट पड़ा।

जून 2021 में एक शाम मैं घर पर सो रही थी। पुलिसवालों की एक टोली दरवाजा तोड़कर अंदर घुस आई और मेरे घर में सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। वे मुझे पूछताछ के लिए काउंटी के मामला-निपटान केंद्र भी ले गए। उन्होंने मुझे एक कुर्सी से हथकड़ी लगा दी, मैं काफी डर गई थी। मुझे चिंता सता रही थी कि कहीं मुझे पीटा तो नहीं जाएगा या जेल की सजा तो नहीं हो जाएगी। अपने दिल में मैं परमेश्वर को छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पाई और मैं लगातार परमेश्वर से यही गुहार लगाती रही कि वह मुझे यहूदा बनने से बचा ले। पूछताछ के उन कई दिनों के दौरान मैं लगातार यही सोचती रही : “मुझे इस माहौल में डालने के पीछे परमेश्वर का क्या इरादा है? क्या मैंने कुछ ऐसा कर दिया जो परमेश्वर की इच्छा के खिलाफ था?” पुलिस ने मुझसे कलीसिया से जुड़ी जानकारी देने को कहा, लेकिन मैंने कुछ नहीं बताया। पुलिस ने ताना मारते हुए मुझसे कहा : “तुम तो बस एक मामूली सी अगुआ हो, है न? दर्जनों लोगों की तुम इंचार्ज हो और जैसे चाहो वैसे सब कुछ तय कर सकती हो, इससे तुम्हें बड़ी पुष्टि का एहसास होता है, क्यों? तुम तो यहाँ अपनी बहादुरी का खूब दिखावा कर रही हो!” मैं हक्की-बक्की रह गई और मन ही मन प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर, पुलिस ने मुझसे ऐसा क्यों कहा? कृपा करके मुझे प्रबुद्ध कर।” प्रार्थना के बाद, मैंने इस दौरान अपने कर्तव्य निभाने में अपने हर तरह के बर्ताव के बारे में सोचा। जब मैं अलग-अलग टीम सभाओं में गई थी, तो भाई-बहन मुझसे समस्याएँ सुलझाने और मुश्किलें हल करने के तरीके पूछने के लिए उतावले रहते थे। अपने दिल में मैंने इसका खूब लुत्फ उठाया था। जिस बहन के साथ मैं सहयोगी थी, वह भी मुझ पर बहुत ज्यादा निर्भर थी; चाहे मामला कितना भी बड़ा हो या छोटा, वह हमेशा मेरी राय लेने आती थी। मुझे लगने लगा था कि मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं हो सकता और मुझे ही सभी मामलों में पतवार सँभालनी है और आखिरी फैसला करना है। इससे मुझे वास्तव में पुष्टि का एहसास हुआ। क्या मैं भाई-बहनों को अपने सामने नहीं ला रही थी? मसीह-विरोधी परमेश्वर के साथ रुतबे और लोगों के लिए होड़ करते हैं; आखिर में, वे लोगों को अपने ही सामने ले आते हैं। क्या मेरे कामों का स्वभाव हूबहू मसीह-विरोधी जैसा नहीं था? तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं मसीह-विरोधियों की राह पर चलने लगी थी। यह तो परमेश्वर की नफरत और घृणा को बुलावा देना है। मैं जितना सोचती गई, उतना ही मेरा डर बढ़ता गया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर! मुझसे गलती हो गई। अगर पुलिस ने मुझे गिरफ्तार न किया होता, तो मैं कभी इस राह पर चिंतन नहीं करती और न ही इसे समझ पाती जिस पर मैं चल रही हूँ। मैं कितनी सुन्न हो गई थी! यह गिरफ्तारी तुम्हारा प्रेम है जो मुझ पर आया है और यह वह कष्ट है जिसके मैं लायक हूँ। मैं इसे कबूल करने को तैयार हूँ। चाहे मुझे कितने भी साल की सजा हो, मैं समर्पण करूँगी।” हिरासत में बिताए उन करीब बारह दिनों में मैं लगातार गहरे पछतावे और आत्म-ग्लानि में डूबी रही। मुझे खुद से सख्त नफरत थी कि मैं इतनी बेखबर हो गई थी और बिना जाने ही परमेश्वर का विरोध करने वाले काम कर बैठी थी। जब मैंने यह पक्का इरादा कर लिया कि मैं परमेश्वर के साथ कभी विश्वासघात नहीं करूँगी, परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों का सौदा कभी नहीं करूँगी, भले ही इसके लिए मुझे जेल में ही क्यों न मरना पड़े, तो परमेश्वर का प्रेम एक बार फिर मुझ पर उमड़ पड़ा। पुलिस मुझे निरोध गृह भेजने की तैयारी में थी; पहले वे मुझे शारीरिक जाँच के लिए अस्पताल ले गए। हैरानी की बात यह कि गर्भावस्था परीक्षण का नतीजा सकारात्मक आया, जिस वजह से निरोध गृह ने मुझे लेने से इनकार कर दिया। बारह दिन हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने सुनवाई तक मेरी जमानत के आधार पर मेरी रिहाई की अर्जी दी। बाद में जाकर मुझे पता चला कि मैं तो गर्भवती थी ही नहीं! मैंने परमेश्वर के अद्भुत कर्मों को देखा और मेरा दिल परमेश्वर के लिए आभार से भर उठा। उसी समय मुझे यह भी गहराई से महसूस हुआ कि मैं परमेश्वर की कितनी ज्यादा कर्जदार हूँ।

रिहा होने के बाद मैंने अपने कर्तव्य निभाने के दौरान किए गए अपने हर काम पर गहराई से सोचना शुरू किया। असल में मैं अपना असली आध्यात्मिक कद जानती थी। अगर परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन न मिला होता, तो मैं अपना कर्तव्य कभी भी अच्छी तरह से नहीं निभा पाती। लेकिन मैंने परमेश्वर के प्रबोधन को खुद की बड़ाई करने की पूँजी बना ली थी और भाई-बहनों को अपने सामने ले आई थी। इससे परमेश्वर की घृणा मुझ पर आ पड़ी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीजों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में आम है। लोग सामान्यतः कैसे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपनी बड़ाई करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के मन में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उनकी सराहना करें, उन्हें मान दें, उनकी प्रशंसा करें और यहाँ तक कि उनकी आराधना करें, उनका आदर करें और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो ऊपरी तौर पर तो परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं। क्या इस तरह पेश आना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से परे हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है, अर्थात, वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, सांसारिक आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीकों पर इतराते तक हैं। अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमजोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब भी दूसरे लोगों को बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ गलत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुकसान पहुँचाया होता है उसका तो वे जिक्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतजार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का ही तरीका नहीं है? क्‍या अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रकट होता है? अहंकार। यह प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनके शब्द पूरी तरह अकाट्य होते हैं और उनमें अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्‍य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? (हैं।) यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर ने कहा कि भ्रष्ट इंसान लोगों को उनके बारे में ऊँचा सोचने पर मजबूर करना और उनसे अपना आदर करवाना पसंद करते हैं। जब उन्हें अपने कर्तव्य निभाने से थोड़े नतीजे मिल जाते हैं तो वे इसे दिखावे के लिए पूँजी के रूप में प्रयोग करते हैं। वे बड़े स्वाभाविक रूप से लोगों के सामने अपना दिखावा करते हैं। मैंने उस समय को याद किया जब मैं अगुआ का कर्तव्य निभा रही थी। जब मैंने देखा था कि शुद्धिकरण के कार्य के लिए जिम्मेदार लोग एक बुरे व्यक्ति को उजागर करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे तो इसलिए कि वे मेरे बारे में ऊँचा सोचें मैंने इसका दिखावा किया कि कैसे मैंने एक बुरी व्यक्ति को उजागर किया और उसे मनाया। मैंने पूरी प्रक्रिया का बखान तो बड़े विस्तार से किया था लेकिन अपने दिल की कायरता और डर के बारे में ज्यादा नहीं बोली। जब उन्होंने यह सुना तो वे सभी मुझसे ईर्ष्या और मेरी वाह-वाही करने लगे। जब भाई-बहनों को अपने कर्तव्य निभाने में मुश्किलें आती थीं और वे आस्था खो देते तो मैं इस तरह संगति करती थी कि कैसे मैंने मुश्किलों पर फतह पाई और काम को आसानी से पूरा कर लिया ताकि वे मेरी कार्य-क्षमता देख सकें। यह सुनने के बाद भाई-बहन मेरे बारे में बहुत ऊँचा सोचने लगे थे। मैंने अपनी सहयोगी बहन के सामने भी खूब दिखावा किया। हर बार जब मैं कलीसिया का कोई काम निपटाकर आती तो मैं उसके सामने बखान करती थी कि कैसे मैंने समस्याएँ ढूँढ़ीं और उन्हें सुलझाने के लिए कैसी संगति की। इसका नतीजा यह हुआ था कि वह हर छोटे-बड़े मामले में मुझ पर ही आश्रित हो गई थी। क्योंकि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था, उसे चिंता रहती थी कि कहीं मैं इतनी थक न जाऊँ कि सामान्य रूप से अपना कर्तव्य न निभा पाऊँ और इसलिए वह सभी अच्छी और पौष्टिक चीजें मेरे लिए ही रखती थी। मैंने देखा कि कैसे मैं हर मौके पर अपनी बड़ाई करती और खुद का दिखावा करती थी ताकि लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें और मेरा आदर करें। यह लोगों के दिलों में रुतबा पाने की चाहत थी! एक अगुआ का कर्तव्य होता है परमेश्वर को ऊँचा उठाना, परमेश्वर की गवाही देना और भाई-बहनों को परमेश्वर के सामने लाना; यही परमेश्वर का इरादा है। लेकिन मैंने तो सभी भाई-बहनों को अपने ही सामने लाकर खड़ा कर दिया था। मुझमें सचमुच कोई मानवता नहीं थी और मुझमें जमीर और विवेक नाम की कोई चीज ही नहीं थी!

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जब लोग अपनी प्रकृति और सार में अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपनी आज्ञा मनवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करे, तुम्हारी आज्ञा मानें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करेंगे और अपने तरीके से चीजों को करेंगे। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेंगे। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहेगा और वे परमेश्वर को अलग रख देंगे। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें दुष्ट व्यक्ति समझेगा और हटा देगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर ने कहा कि चूँकि इंसानों की प्रकृति घमंडी होती है तो वे ऐसे काम करते हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं; यह इंसान स्वाभाविक रूप से प्रकट करते है। मैंने सोचा कि जब मैंने अगुआ के तौर पर अभी काम शुरू ही किया था तो मुझे अपने काम में कुछ समस्याएँ और मुश्किलें आई थीं। परमेश्वर के प्रबोधन और उसकी अगुआई की बदौलत मेरे काम में कुछ नतीजे दिखने लगे, लेकिन मैंने इसकी महिमा परमेश्वर को नहीं दी, बल्कि मैंने इसे खुद को दिखाने के लिए पूँजी बना लिया। मैंने सोचा, “मैं यह समस्या भी सुलझा सकती हूँ और वह मुश्किल भी सँभाल सकती हूँ”; मुझे ऐसा लगने लगा मानो मैं पहले से ही सत्य समझती हूँ और काम करना जानती हूँ। नतीजा यह हुआ कि मैं और भी ज्यादा घमंडी हो गई। क्योंकि मैं अपने कर्तव्य निभाने के दौरान हर मौके पर खुद को दिखाती थी, तो जब मेरे भाई-बहनों पर समस्याएँ आतीं, वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते थे, न ही उस पर भरोसा करते थे, बल्कि वे उन्हें सुलझाने के लिए मुझ पर ही निर्भर रहते थे। मैंने तो बेशर्मी की हद तक यह भी सोच लिया था कि मैं दूसरों से कहीं बेहतर सत्य समझती हूँ, कि मैं ही कलीसिया की रीढ़ की हड्डी हूँ, मैं ही पतवार थामे हुए हूँ और कलीसिया में मेरे बिना काम चल ही नहीं सकता। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी मूर्ख और हास्यास्पद बन गई थी! मैं इतनी घमंडी हो गई थी कि मुझमें रत्ती भर भी विवेक बाकी नहीं रहा था! मुझे पौलुस का खयाल आया। चूँकि वह बहुत घमंडी था तो वह लगातार खुद की ही गवाही देता रहता था कि उसने सुसमाचार का प्रचार करके कितने लोगों को पाया है, कितनी दूर तक सफर किया है और कितने कष्ट उठाए हैं और आखिर में उसने यह गवाही दी कि उसके लिए तो जीना ही मसीह है। उसने परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाई और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। क्या मैं भी पौलुस की ही राह पर नहीं चल रही थी? अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो मेरा अंजाम भी पौलुस जैसा ही होगा।

उसके बाद मैंने सत्य की खोज जारी रखी और अपनी समस्याओं पर चिंतन किया। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “‘महिमा’ शब्द का सरोकार मनुष्यों से नहीं है। महिमा केवल परमेश्वर को मिल सकती है, सृष्टिकर्ता को मिल सकती है और इसका सृजित मनुष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। भले ही लोग कड़ी मेहनत और सहयोग करें, फिर भी वे पवित्र आत्मा के कार्य की अगुआई के अधीन होते हैं। अगर पवित्र आत्मा का कोई कार्य न हो तो लोग क्या कर सकते हैं? ‘गवाही’ शब्द का सरोकार भी मनुष्यों से नहीं है। चाहे वह संज्ञा ‘गवाही’ हो या क्रिया ‘गवाही देना,’ इन दोनों शब्दों का सृजित मनुष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। केवल सृष्टिकर्ता ही गवाही दिए जाने और लोगों की गवाही के योग्य है। यह परमेश्वर की पहचान, दर्जे और सार से निर्धारित होता है और यह इसलिए भी है क्योंकि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह परमेश्वर के प्रयासों से आता है और परमेश्वर इसे पाने के योग्य है। लोग जो कर सकते हैं वह निश्चित रूप से सीमित है और यह सब पवित्र आत्मा के प्रबोधन, अगुआई और मार्गदर्शन का नतीजा है। जहाँ तक मानव प्रकृति की बात है, लोग कुछ सत्य समझने और थोड़ा-सा काम कर सकने के बाद ही अहंकारी हो जाते हैं। अगर उन्हें परमेश्वर की ओर से न्याय और ताड़ना का कोई साथ न मिले तो कोई भी परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाएगा और न ही उसकी गवाही दे सकेगा। परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण हो सकता है कि लोगों के पास कुछ खूबियाँ या विशेष प्रतिभाएँ हों, उन्होंने कुछ पेशे या कौशल सीख लिए हों या उनमें थोड़ी चतुराई हो और इसलिए वे बहुत ज्यादा अहंकारी बन जाते हैं और लगातार चाहते हैं कि परमेश्वर अपनी महिमा और अपनी गवाही उनके साथ साझा करे। क्या यह अविवेकपूर्ण नहीं है? यह बेहद अविवेकपूर्ण है। यह दर्शाता है कि वे गलत स्थिति में खड़े हैं। वे खुद को मनुष्य नहीं, बल्कि एक अलग नस्ल मानते हैं, अतिमानव मानते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं बेहद शर्मिंदा हुई। महिमा और गवाही का इंसानों से कोई वास्ता नहीं; सिर्फ सृष्टिकर्ता ही इस योग्य है कि उसकी गवाही दी जाए। मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर ने इस इंसानी दुनिया के सारे दुख-दर्द सहे। भले ही सीसीपी ने उस पर अत्याचार किया, दुनिया ने उसका मजाक उड़ाया और धार्मिक समुदाय ने उसकी निंदा की और उसे बदनाम किया, परमेश्वर ने हमेशा यह सब चुपचाप सहा है। परमेश्वर ने हमारे लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है। इसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। मैं तो बस एक छोटी सृजित प्राणी हूँ। अगर मैं कुछ कर्तव्य निभा भी सकती हूँ, तो वे बहुत सीमित हैं। यह ठीक वैसा है जब मैंने उस बुरी इंसान ली हुआ को उजागर किया था। वह तो परमेश्वर ही था जिसने मुझे परमेश्वर के उपयुक्त वचन ढूँढ़ने की राह दिखाई थी और वह बुरी इंसान भी तभी मानी जब मेरे भाई-बहनों ने भी मिलकर उसे उजागर किया। जब मुझे अपने कर्तव्य में मुश्किलें आईं, तो वह परमेश्वर ही था जिसने फौरन अगुआओं को मेरे साथ संगति करने के लिए भेजा। मैंने परमेश्वर के वचनों से उसके इरादों को समझा और तभी मुझमें आस्था आई। यह सब कुछ परमेश्वर ने ही किया था; मैंने खुद तो तारीफ के लायक कुछ भी नहीं किया। अगर परमेश्वर का मार्गदर्शन न होता, तो मैं अपने कर्तव्य निभाने में कभी भी अच्छे नतीजे हासिल नहीं कर सकती थी। लेकिन, मैंने इन सबका सेहरा अपने सिर बाँध लिया। मैं सचमुच कितनी घमंडी और विवेकहीन थी! मेरा भ्रष्ट स्वभाव इतना गंभीर था, लेकिन परमेश्वर ने मेरे बुरे कर्मों की वजह से मुझे न तो त्यागा, न ही हटाया। यह परमेश्वर ही था जिसने मेरी गिरफ्तारी का वह माहौल रचा, ताकि मैं रुक जाऊँ और मेरे बुराई करने पर रोक लग सके। उसने एक पुलिस अधिकारी के मुँह का प्रयोगकर मुझे आत्मचिंतन करने और खुद को समझने का मौका दिया। परमेश्वर का सार कितना सुंदर और कितना भला है! मैंने यह भी सचमुच अनुभव किया कि सिर्फ परमेश्वर ही लोगों की तारीफ और गवाही के लायक है! बाद में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तो कार्य करने का कौन-सा तरीका अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना नहीं है? अगर तुम किसी मामले के संबंध में दिखावा करते और अपने बारे में गवाही देते हो, तो तुम यह परिणाम प्राप्त करोगे कि, कुछ लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय बनाएँगे और तुम्हारी पूजा करेंगे। लेकिन अगर तुम उसी मामले के संबंध में खुद को उजागर कर देते हो, और अपने आत्मज्ञान को साझा करते हो, तो उसकी प्रकृति अलग होती है। क्या यह सच नहीं है? अपने आत्मज्ञान के बारे में बात करने के लिए खुद को पूरी तरह उजागर कर देना, कुछ ऐसा है जो साधारण मानवता में होना चाहिए। यह एक सकारात्मक चीज है। अगर तुम वास्तव में खुद को जानते हो और अपनी अवस्था के बारे में सही, वास्तविक और सटीक ढंग से बोलते हो; अगर तुम उस ज्ञान के बारे में बोलते हो जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित है; अगर तुम्हें सुनने वाले इससे सीखते और लाभान्वित होते हैं; और अगर तुम परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हो और उसे महिमामंडित करते हो, तो यह परमेश्वर के बारे में गवाही देना है। अगर खुद को पूरी तरह उजागर करने के माध्यम से, तुम अपनी खूबियों के बारे में खूब बोलते हो और इस बारे में कि तुमने कैसे कष्ट उठाया, और कैसे कीमत चुकाई और अपनी गवाही में कैसे दृढ़ता से खड़े रहे, और इसके परिणामस्वरूप लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हैं और तुम्हारी पूजा करते हैं, तो यह अपने बारे में गवाही देना है। तुम्हें इन दो व्यवहारों के बीच अंतर बता पाने में समर्थ होना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे परमेश्वर को ऊँचा उठाने और परमेश्वर की गवाही देने का एक मार्ग मिला। मैंने परमेश्वर की गवाही देने और खुद को दिखाने के बीच का अंतर भी समझा। दोनों में ही अपने अनुभवों के बारे में संगति करना शामिल है लेकिन मुख्य अंतर व्यक्ति के इरादों और प्राप्त नतीजों में है। संगति की प्रक्रिया के दौरान हमें अपनी सच्ची मनोदशा और उस भ्रष्टता के बारे में बोलना चाहिए जिसे हमने प्रकट किया है अपनी भ्रष्टता को उजागर करने के लिए इसे परमेश्वर के वचनों के साथ मिलाना चाहिए और अंत में यह बताना चाहिए कि हमने अभ्यास के कौन से मार्ग पाए हैं और परमेश्वर के बारे में हमें क्या समझ मिली है। केवल इसी तरह संगति करके हम परमेश्वर को ऊँचा उठा रहे हैं और परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं। अगर हम केवल यह बताते हैं कि हमने समस्याओं को कैसे हल किया और जब हम पर चीजें आ पड़ीं तो हम अपनी गवाही में कैसे दृढ़ रहे और केवल अच्छे पक्ष के बारे में बताते हैं बिना अपनी भ्रष्टता को उजागर किए तो इस प्रकार की संगति बस खुद को दिखाना है। जब मैंने अपने अनुभव के बारे में बताया तो मैंने उस भ्रष्टता को खुलकर उजागर नहीं किया जिसे मैंने प्रकट किया था। हर बार मेरे भाई-बहनों के सामने मैंने जो कुछ भी व्यक्त किया वह सकारात्मक सक्रिय प्रवेश था। इससे मेरे भाई-बहनों को लगा कि मुझमें आस्था है और मैं समस्याएँ हल करने में सक्षम हूँ। मैं जो कर रही थी वह खुद को ऊँचा उठाना और दिखावा करना था।

इसके बाद कलीसिया ने मेरे लिए पाठ-आधारित कार्य करने की व्यवस्था की। एक दिन मैं अपनी सहयोगी बहन डिंग निंग के साथ काम पर चर्चा कर रही थी। डिंग निंग ने कहा : “मुझे लगता है कि मैंने अपने भाई-बहनों को जो संचार पत्र लिखा उसमें मेरी अभिव्यक्ति तुम्हारी जितनी स्पष्ट नहीं है। मुझे लगता है कि तुमने जो लिखा वह बहुत अच्छा है।” जब डिंग निंग ने बात खत्म की तो मैं बहुत खुश हुई। मैं फिर से यह दिखावा करना चाहती थी कि मैं संचार पत्र कैसे लिखती हूँ। इस समय मुझे एक एहसास हुआ : क्या यह फिर से खुद को दिखाने की इच्छा करना नहीं है? तो मैंने डिंग निंग से कहा : “वास्तव में मुझे भी लिखने की प्रक्रिया में कठिनाइयाँ हुई थीं। कभी-कभी मुझे नहीं पता होता था कि खुद को कैसे व्यक्त किया जाए। मैंने कुछ लिखा, उसे मिटाया और कुछ और लिखा और कभी-कभी तो हार मानने का भी मन हुआ। बाद में मैं क्यों अच्छा नहीं लिख पा रही, इस पर चिंतन करने के लिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। खोज और विचार करते समय मैं समझी कि जब मैं लिख रही थी तो मेरा इरादा गलत था। मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए नहीं लिख रही थी—मैं अच्छा लिखना चाहती थी ताकि लोग मेरी प्रशंसा करें। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि चाहे वह कैसे भी लिखा हो जब तक उसमें सिद्धांत शामिल हों और भाई-बहन उसे समझ सकें तो ठीक है। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया और फिर से लिखा तो मेरे मन में कुछ विचार आए और मैं अपने इच्छित अर्थ को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में सक्षम हुई। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : ‘मैं पवित्र राज्य के लिए प्रकट होता हूँ, और अपने आपको मलिनता की भूमि से छिपा लेता हूँ(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 29)। उस समय मैं इस वाक्य का अर्थ समझ पाई। जब मेरे इरादे ठीक नहीं होते थे और मैं चिट्ठी लिखकर खुद का दिखावा करना चाहती थी तो परमेश्वर मुझसे अपना मुँह छिपा लेता था और मैं चाहे कुछ भी लिखती वह किसी काम का नहीं होता था। लेकिन जब मैंने अपनी मानसिकता सही कर ली और नतीजे पाने के लिए लिखा तो परमेश्वर की अगुआई में मैं उसे बड़ी सहजता से लिख पाई।” डिंग निंग ने यह सुनकर कहा कि अब वह जान गई है कि यह कैसे करना है। इस तरह अभ्यास करने से मेरे दिल को सचमुच बड़ा सुकून और चैन मिला।

इसके बाद जब मैं अपने भाई-बहनों के साथ होती थी तो मैं जानबूझकर खुलकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को और जिस तरह मैंने अतीत में खुद को ऊँचा उठाया था और अपनी नुमाइश की थी उसे उजागर करती थी और बताती थी कि कैसे परमेश्वर ने मुझे बचाने और बदलने के लिए माहौल रचा था। इस तरह मेरे भाई-बहन मेरा भेद पहचान सके और वे लोगों के प्रति परमेश्वर के उद्धार को भी समझ सके। इसके बाद जब मैंने अपना कर्तव्य निभाया तो मैंने पहले की तरह खुद को ऊँचा नहीं उठाया और न ही दिखावा किया। मैं इस तरह बदल पाई यह परमेश्वर के वचनों की अगुआई का ही नतीजा है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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