13. मैं अब अपने बेटे की शादी को लेकर परेशान नहीं होती
मेरा जन्म 1960 के दशक में एक किसान परिवार में हुआ था। मेरे माता-पिता मेरे बड़े भाई का घर बनवाने और उसकी शादी करवाने की खातिर पैसे कमाने के लिए सुबह जल्दी उठते और देर रात तक काम करते थे। वे बहुत थक जाते थे। अपने माता-पिता की शिक्षा के प्रभाव और उनके दबाव के कारण मेरा मानना था कि अपने बच्चों की शादी करवाना माता-पिता की जिम्मेदारी है। शादी के बाद हमें एक बेटा हुआ। मैंने अपने पति से कहा, “जब तक हम जवान हैं कुछ पैसे कमा लें। कम से कम हमें उसके लिए एक घर तो खरीदना ही होगा।” बाद में, मेरे पति ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। इसके बाद, सभाओं में जाने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण पुलिस उसे ढूँढ़ने लगी। उसे घर छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। दो साल बाद मैंने भी परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। क्योंकि पड़ोस की महिला मामलों की अधिकारी लगातार मेरे घर आकर मेरे पति के बारे में पूछताछ करती रहती थी, मैं घर पर परमेश्वर में विश्वास नहीं कर सकती थी और न ही अपना कर्तव्य निभा सकती थी। कोई चारा न होने पर, मैंने भी घर छोड़ दिया। तब से मैं और मेरे पति अपने गृहनगर से दूर हो गए और निर्वासित जीवन जीने लगे, हम घर लौटने में असमर्थ थे।
दिन तेजी से बीतते गए। पलक झपकते ही मेरा बेटा बीस साल से ऊपर का हो गया। उसकी शादी की उम्र हो गई। फरवरी 2013 में, मेरे पति और मैंने एक संयोगवश मिले मौके का फायदा उठाया और चुपके से घर लौट गए। हमारे बेटे ने हमसे अपनी शादी का जिक्र किया, कहा कि उसे एक साथी मिल गई है। उसकी साथी के माता-पिता शादी जल्दी तय करना चाहते थे। उन्होंने मेरे बेटे से कहा, “हम जानते हैं कि तुम्हारे परिवार के पास पैसे नहीं हैं। हमें कोई रक़म नहीं चाहिए, लेकिन कम से कम तुम्हें एक घर तो खरीदना ही होगा! बिना घर के तुम दोनों का गुजारा कैसे होगा?” जब मैंने अपने बेटे से यह सुना, तो मैं बहुत चिंतित हो गई। क्योंकि सीसीपी मुझे और मेरे पति को ढूँढ़ रही थी, हम सालों से घर से दूर भागते हुए अपना कर्तव्य निभा रहे थे और बाहर जाकर काम करके पैसे नहीं कमा सकते थे। हमारे पास घर खरीदने के लिए पैसे जुटाने का कोई तरीका नहीं था। जब मैंने अपने बेटे को आहें भरते और कराहते देखा, तो मैं भी चिंतित और परेशान हो गई, सोचने लगी, “अगर हमारे पैसे न जुटा पाने के कारण मेरे बेटे की शादी बिगड़ गई, तो क्या वह मेरे बारे में शिकायत नहीं करेगा?” जब दूसरे लोगों के बच्चों की शादी हुई, तो उनके माता-पिता ने उनके लिए कार और घर खरीदने के लिए पैसे बचाए, जबकि मैं पैसे नहीं जुटा पाई और मैंने एक माँ की जिम्मेदारी नहीं निभाई। मैं अपने बेटे को यह कैसे समझा सकती थी? मुझे लगा कि मैं उसके सामने सिर नहीं उठा सकती और खुद को सही नहीं ठहरा सकती। जितना मैंने सोचा, उतनी ही मैं चिंतित होती गई। मैं अपने बेटे की शादी के बारे में क्या करूँगी? एक बार, मेरी सास ने मुझसे और मेरे पति से कहा, “तुम्हें अपने बेटे के बारे में सोचना होगा। देखो हमारे पड़ोसी का बेटा शादी कर रहा है। उन्होंने अपने बेटे के लिए एक घर खरीदा और दुल्हन के परिवार को दसियों हज़ार युआन दिए। फिर अपनी चचेरी बहन को देखो। जब उसके बेटे की शादी हुई, तो उसने उसके लिए एक घर खरीदा और दुल्हन के लिए एक लाख युआन से अधिक का रक़म दिया। तुम्हारे बेटे को जो साथी मिला है उसका परिवार सचमुच विचारशील है। वे नहीं चाहते कि हमारा परिवार दुल्हन के लिए रक़म दे, बस घर के लिए डाउन पेमेंट चाहते हैं। उसके परिवार ने एक खूबसूरत बेटी को व्यर्थ ही तो नहीं पाला-पोसा न? इसके अलावा, उन दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी है। अगर हमारे पैसे न जुटा पाने के कारण तुम्हारे बेटे की शादी बिगड़ गई, तो यह कितनी शर्म की बात होगी? और लोग हम पर हँसेंगे!” अपनी सास की बातें सुनकर मैं परेशान हो गई, मानो दिल में छुरा घोंप दिया हो। आँसू बेकाबू होकर मेरे चेहरे पर बहने लगे। मुझे याद आया जब मेरा बेटा 8 महीने का था, तो उसके पिता घर छोड़कर चले गए थे क्योंकि सीसीपी उन्हें ढूँढ़ रही थी और उसे कभी अपने पिता का प्यार नहीं मिला। बाद में, मुझे भी सुरक्षा जोखिमों के कारण अपना घर छोड़ना पड़ा, इसलिए हम अपने बेटे के साथ रहने से ज्यादा उससे दूर रहे थे। जब से वह तेरह साल का हुआ, मैंने उसे बिल्कुल नहीं देखा था। इन सभी वर्षों में, वह अपने दादा-दादी के सहारे जीता रहा। अब उसे शादी करने के लिए पैसे चाहिए थे, लेकिन मैं पैसे नहीं जुटा पाई। मैंने अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी नहीं की थी। जितना मैंने सोचा, उतना ही मुझे लगा कि मैंने अपने बेटे को निराश किया है। एक माँ के रूप में, मैं बहुत नाकाबिल थी। हमारा बेटा कितना दयनीय था जो वो हमारे परिवार में जन्मा। अगर सीसीपी की गिरफ्तारियाँ और उत्पीड़न न होते, तो हमें इस तरह छिपने की जरूरत नहीं पड़ती, किसी न किसी तरह हम अपने बच्चे के लिए कुछ पैसे जरूर कमा पाते। मैंने अपने बड़े भाई और बहन से पैसे उधार लेने के बारे में सोचा, ताकि मैं घर खरीदने के लिए डाउन पेमेंट दे सकूँ और अपनी सास, रिश्तेदारों और दोस्तों की बातों से बच सकूँ। लेकिन फिर मैंने दोबारा सोचा। एक बार जब मैंने पैसे उधार ले लिए, तो मुझे उन्हें चुकाने के लिए काम करना होगा और मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी। मैं कई कलीसियाओं के काम के लिए जिम्मेदार थी। अगर मैं पैसे कमाने के लिए अपना कर्तव्य छोड़ दूँ, तो क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं होगा? लेकिन मेरे बेटे को अभी भी शादी करने के लिए पैसे चाहिए थे। मैं इतने सारे पैसे कहाँ से लाऊँगी? मैं दुविधा की स्थिति में जी रही थी। पीड़ा में, मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आई, “प्रिय परमेश्वर। अपने बेटे की शादी को लेकर, मुझे सचमुच नहीं पता कि क्या करूँ। मैं जानती हूँ कि मैं अपना कर्तव्य नहीं छोड़ सकती। मैं अपने बेटे के लिए पैसे कमाने और उसकी शादी करवाने के लिए तुम्हारे साथ विश्वासघात नहीं कर सकती। लेकिन मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। मैं उसकी शादी को लेकर बेबस हूँ। मैं इस मामले को तुम्हें सौंपने और इस बारे में तुम्हारी ओर देखने को तैयार हूँ। प्रिय परमेश्वर, कृपया मेरी मदद करो ताकि मैं अपने बेटे की शादी को लेकर तुम्हारे साथ विश्वासघात न करूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मेरा दिल बहुत शांत हो गया।
मैं उस जगह लौट आई जहाँ मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी। बाहर से, मैं हर दिन कलीसिया के काम को सँभालने में व्यस्त रहती थी। लेकिन जैसे ही अपने बेटे की शादी के बारे में सोचती, मेरे दिल में पीड़ा होने लगती। मुझे डर था कि पैसे न होने के कारण मेरे बेटे की शादी बिगड़ जाएगी। मुझे बहुत पीड़ा और दुख महसूस हुआ। मुझे लगा कि मैं अपने बेटे की कर्जदार हूँ। उस दौरान, मैं ठीक से खा या सो नहीं पाती थी। चिंता और परेशानी के मारे मेरे दाँतों में दर्द था और मेरा गला भी खराब था। कभी-कभी, सभाओं में भी मेरा मन भटक जाता था और मैं अनजाने में ही सोचने लगती थी कि मैं अपने बेटे की शादी के बारे में क्या करूँगी। मैं हमेशा ऊँघती रहती थी और मेरा जोश भी ठंडा रहता था। मेरी सहयोगी बहन ने देखा कि मेरी मनोदशा ठीक नहीं है और मुझमें पहले की तरह अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी का एहसास नहीं है। उसने मेरे साथ संगति की कि उसके बेटे के साथ उसका अनुभव कैसा रहा था। उसने यह भी कहा कि जब वह घर से दूर थी, तो उसके बेटे ने स्वतंत्र रूप से जीना सीख लिया था और उसे एक साथी भी मिल गया था। यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। अपनी बहन की संगति सुनने के बाद, मैंने सोचा, “तुम्हारे बेटे की किस्मत अच्छी थी कि उसे अच्छा साथी मिल गया।” बाद में, मैं समय-समय पर अभी भी बेबस महसूस करती थी। अगर मेरे बेटे की शादी बिगड़ गई, तो मेरा दिल जीवन भर शांत नहीं रह पाएगा। मैं लगातार दर्द और पीड़ा में जीती रही, ऐसा लगता था मानो मेरे दिल पर कोई पत्थर रखा हो। इस समय, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मेरे दिल को थोड़ी राहत महसूस हुई। परमेश्वर कहता है : “विवाह किसी व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह व्यक्ति के भाग्य का परिणाम है, और किसी के भाग्य में एक महत्वपूर्ण कड़ी है; यह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा या प्राथमिकताओं पर आधारित नहीं होता है, और किसी भी बाहरी कारक द्वारा प्रभावित नहीं होता है, बल्कि यह पूर्णतः दो पक्षों के भाग्य, युगल के दोनों सदस्यों के भाग्य के लिए सृजनकर्ता की व्यवस्थाओं और उसके पूर्वनिर्धारणों द्वारा निर्धारित होता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि व्यक्ति के जीवन का भाग्य परमेश्वर ने बहुत पहले ही तय कर दिया है। यह भी सच है कि विवाह भी परमेश्वर ही निर्धारित करता है और यह किसी भी बाहरी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता है। यदि परमेश्वर ने यह निर्धारित किया है कि मेरा बेटा और उसकी साथी एक परिवार बनें, तो कोई भी चीज उन्हें अलग नहीं कर सकती। यदि वे एक परिवार नहीं बनने वाले हैं, तो अंत में शादी सफल नहीं होगी। इसका सफल होना या न होना परमेश्वर के हाथों में है, पैसे से इसका कोई लेना-देना नहीं। अतीत में, मैं सैद्धांतिक रूप से जानती थी कि विवाह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। लेकिन जब मेरे बेटे की शादी की बात आई, तो मैंने सोचा कि बिना पैसे के वह अपनी साथी से शादी नहीं कर पाएगा। जब मेरी सहयोगी बहन ने अपने अनुभव और परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में मुझसे संगति की, तो अपने दिल में मैंने इस पर यकीन नहीं किया। मैंने सोचा कि ऐसा इसलिए था क्योंकि उसके बेटे की किस्मत अच्छी थी। दूसरी ओर, मेरे बेटे की बिना पैसे के शादी नहीं हो सकती थी। खासकर, जब मैंने देखा कि आज के समाज में गरीब परिवारों के अधिक से अधिक लड़के बहू नहीं ला पा रहे हैं, तो मुझे और भी लगने लगा कि बिना पैसे के कोई शादी नहीं कर सकता। मैं अपने बेटे की शादी को लेकर इतनी तनावग्रस्त थी कि मैं ठीक से खा या सो नहीं पाती थी, मेरे पास अपना कर्तव्य निभाने की भी कोई प्रेरणा नहीं थी। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मेरे मन को प्रबोधन मिला। मुझे एहसास हुआ कि विवाह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। उदाहरण के तौर पर मेरी बड़ी बहन को ही ले लो। उसके पास बहुत पैसे हैं, लेकिन उसके पोते ने चाहे कुछ भी किया, पर बहू नहीं ला पाया। इसके अलावा, मैं एक ऐसे परिवार को जानती थी जिसमें कई लड़के थे। उनके पास कोई पैसा नहीं था, लेकिन सभी लड़कों को पत्नी मिल गई। ऐसा बहुत होता है। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सही हैं। विवाह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। यह पैसे से तय नहीं होता है। मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी लेकिन परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को नहीं देखती थी, परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं करती थी, यहाँ तक कि अविश्वासियों की प्रवृत्तियों का भी अनुसरण करती थी, मुझमें परमेश्वर में विश्वास का लेशमात्र भी अंश नहीं था। क्या यह एक छद्म-विश्वासी का नजरिया नहीं है? विवाह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। इसका पारिवारिक परिवेश या बाहरी कारकों से कोई लेना-देना नहीं है। यह वैसा नहीं है जैसा मैंने सोचा था कि पैसे होने पर मेरे बेटे की शादी सफल हो जाएगी और बिना पैसे के सफल नहीं होगी। जब मुझे यह समझ आया, तो मेरा दिल अचानक साफ और रोशन हो गया। मैं अपने बेटे की शादी के मामले को भी कुछ हद तक छोड़ पाई।
बाद में मैंने विचार किया : मुझे हमेशा क्यों लगता है कि मैंने अपने बेटे को निराश किया है और दिल में बेचैनी क्यों रहती है? मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है, और अंतरात्मा का और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर चुकी है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और नेक औरत नहीं रहीं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, ‘मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।’ इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आती है? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पातीं तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझीं? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में ‘अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ’ की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी वफादारी रख लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य करने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने पति और बच्चों की देखभाल करने के मौके ढूँढ़ोगी, उन्हें और भी अधिक समय देना चाहोगी, और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है तो भी यह ठीक है, बशर्ते अपने मन को सुकून मिलता रहे। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने “एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ होने” के गलत विचार और दृष्टिकोण को हमारे सामने उजागर किया है। पारंपरिक संस्कृति की अपेक्षा है कि महिलाओं को “अपने पति की सहायता करनी चाहिए, बच्चों का अच्छे से पालन-पोषण करना चाहिए और एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ बनना चाहिए,” उन्हें अपने पतियों और बच्चों के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए। सभी सोचते थे कि यह एक योग्य महिला होने का मानक है। अन्यथा, वे अच्छी महिला या अच्छी माँ नहीं हैं। जब मैं छोटी थी, मैंने देखा कि कैसे मेरे माता-पिता पैसे कमाने के लिए सुबह जल्दी उठते और देर रात तक काम करते थे, ताकि मेरे बड़े भाई की शादी हो सके। चाहे वे कितना भी कष्ट सहें या थक जाएँ, फिर भी उन्हें यह बोझ उठाना ही था। मेरा मानना था कि माता-पिता के रूप में हमें अपने बच्चों को बड़ा करना होगा, उनका घर बसाने और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद करनी होगी। केवल इसी तरह से हम माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हैं और अच्छे माता-पिता कहलाने के लायक हो सकते हैं। इस विचार और दृष्टिकोण के साथ जीते हुए, मुझे लगा कि मैं एक योग्य माँ नहीं हूँ। जब मेरा बेटा छोटा था, तो मुझे बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न के कारण घर छोड़कर भागना पड़ा और मैं उसके साथ रहकर उसकी देखभाल नहीं कर सकी। जब मेरा बेटा बड़ा हुआ और शादी करने के लिए उसे घर खरीदने की जरूरत थी, तो एक माँ होने के नाते मैं पैसे नहीं जुटा पाई और न ही थोड़ी सी भी मदद कर पाई, इसलिए मुझे लगा मैं अपने बेटे की कर्जदार हूँ। यहाँ तक कि मैंने अपना कर्तव्य त्यागकर पैसे कमाने के बारे में भी सोचा ताकि मेरे परिवार और दोस्त मुझ पर न हँसें और मेरा बेटा मेरे बारे में शिकायत न करे। “एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ होने” का दृष्टिकोण मेरे विचारों को नियंत्रित कर रहा था और मेरे व्यवहार का मार्गदर्शन कर रहा था। जब मैं अपने बेटे की जरूरतें पूरी नहीं कर पाती थी, तो मुझे बहुत पीड़ा होती थी, यहाँ तक कि अपने दिल में परमेश्वर के बारे में शिकायत भी करती थी और उसे गलत भी समझती थी। मैं अपने बेटे की शादी को लेकर फँसी हुई और बेबस थी, अकथनीय पीड़ा झेल रही थी। मैं शांत मन से अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाती थी। मैंने देखा कि “एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ होने” का पारंपरिक संस्कृति का विचार वास्तव में लोगों को बाँधने वाली एक बेड़ी है। यह लोगों को केवल परमेश्वर से दूर करती है और उसके साथ विश्वासघात करवाती है। अपने दृष्टिकोण के बारे में कुछ समझ आने के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों में खोजना जारी रखा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही व्यक्ति के जीवन का प्राथमिक कार्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा नहीं करतीं, तो तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ हो सकती हो, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान रहोगी जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर इसे पूरा नहीं किया, जिसने इसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। “जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बाहर से महज एक परिवेश प्रदान करना है और बस इतना ही होता है क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के अलावा किसी भी चीज का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्व निर्धारित किया जा चुका होता है, किसी के माता-पिता भी उसके भाग्य को नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को बिल्कुल भी नहीं रोक सकते या जब उस भूमिका की बात आती है जो वे जीवन में निभाते हैं तो उसमें जरा-सा भी योगदान नहीं दे सकते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि वह परिवार जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म लेना नियत होता है, और वह परिवेश जिसमें वह बड़ा होता है, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए, किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते, किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के परिवेश में रहते हुए अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी अन्य निष्पक्ष स्थितियाँ किसी व्यक्ति के ध्येय को, जो सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जाता है, प्रभावित नहीं कर सकतीं। सभी लोग अपने-अपने परिवेश में जिसमें वे बड़े होते हैं, परिपक्व होते हैं; तब क्रमशः धीरे-धीरे, अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं, और सृष्टिकर्ता द्वारा नियोजित उस नियति को पूरा करते हैं। वे स्वाभाविक रूप से, अनायास ही लोगों के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में भूमिका ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के लिए, उसकी संप्रभुता के लिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना शुरू करते हैं” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम हूँ, यह तथ्य परमेश्वर द्वारा मुझे दिया गया एक अवसर है। यह परमेश्वर का अनुग्रह भी है। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना ही व्यक्ति के जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता है। यह किसी भी दूसरी चीज से अधिक महत्वपूर्ण है। यदि मैं केवल अपने बेटे को संतुष्ट करने के लिए एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करती हूँ, तो भले ही दूसरे लोग मुझे एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ के रूप में देखेंगे, लेकिन यदि मैं एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे नहीं करती हूँ, तो यह परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा नहीं दिखाना है; यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने वाला व्यक्ति होना है। मैं यह भी समझ गई कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना मिशन होता है और प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य स्वतंत्र होता है। भले ही मैंने अपने बेटे को जन्म दिया, लेकिन उसका भाग्य कैसा होगा यह परमेश्वर के हाथों में है। माता-पिता का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कोई भी यह नहीं बदल सकता कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कितना दुख या सुख भोगेगा, उसका परिवार या विवाह कैसा होगा, वह किस परिवेश में बड़ा होगा या वह किन चीजों का अनुभव करेगा। माता-पिता तो इसे और भी कम बदल सकते हैं। यह सब परमेश्वर ही निर्धारित करता है। जब मुझे यह समझ आया, तो मैं अपने बेटे की शादी की बात छोड़ पाई, मुझे अब ऐसा नहीं लगा कि मैंने अपने बेटे को निराश किया है। मैं चीजों को उनके हिसाब से चलने देने में सक्षम हो पाई। बाद में, मैंने अपने बेटे से कहा, “विवाह परमेश्वर ही निर्धारित करता है और इसकी सफलता या असफलता परमेश्वर के हाथों में है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम उन्हें कितने पैसे देते हो। शादी के बारे में इतना मत सोचो। जब शादी करने का समय आएगा, तो हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि परमेश्वर कैसे इसकी व्यवस्था करेगा। हमें परमेश्वर के समय का इंतजार करना सीखना होगा। जैसी कि कहावत है, ‘कोई चीज तुम्हारी है तो कोई उसे तुमसे छीन नहीं सकता, कोई चीज पराई है तो तुम उसे पा नहीं सकते।’” कुछ समय बाद, मेरा बेटा पहले जितना परेशान नहीं था और उसने हमसे घर खरीदने के लिए पैसे माँगने की बात भी बंद कर दी। मैं अब उसकी शादी को लेकर उतनी चिंतित नहीं थी और अपने कर्तव्य निभाते समय मैं अपना दिल शांत रख पाती थी। मेरा दिल बहुत अधिक मुक्त महसूस कर रहा था।
कई महीनों बाद, मेरे बेटे ने मुझे फोन किया और खुशी से मुझसे कहा, “माँ, यह अद्भुत है, मैंने एक घर खरीद लिया। मुझे डाउन पेमेंट नहीं देना पड़ा। मेरे सहकर्मी को दक्षिण में काम पर तबादला होने के कारण तत्काल पैसे की जरूरत थी, इसलिए उसने मुझे तीन लाख युआन में घर बेच दिया। मैंने बैंक से चार लाख युआन का कर्ज लिया, जो घर की सजावट के लिए भी काफी है। मैं हर महीने एक हजार युआन से थोड़ा अधिक चुकाऊँगा। तो घर की मेरी समस्या इतनी आसानी से हल हो गई, बस ऐसे ही!” जब मैंने यह खबर सुनी, तो मैं बहुत खुश हुई। मैं लगातार परमेश्वर का धन्यवाद करती रही। एक साल बाद, मेरे बेटे और उसकी साथी ने काम से बचाए हुए पैसों से अपनी शादी कर ली। हमें न तो चिंता करनी पड़ी और न ही एक पैसा खर्च करना पड़ा। मेरे बेटे ने हमें अपने कर्तव्य निभाने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिए कुछ जेब खर्च भी दिया। जिसकी मुझे सबसे कम उम्मीद थी वह यह था कि मेरा बेटा भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करने लगा! इस अनुभव के माध्यम से, मैंने परमेश्वर के अद्भुत कर्मों को देखा और देखा कि कैसे व्यक्ति का विवाह, हृदय और आत्मा सब परमेश्वर के हाथों में हैं।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और समझा कि माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हर इंसान की नियति परमेश्वर द्वारा नियत है; इसलिए वे जीवन में कितने आशीष या कष्ट अनुभव करेंगे, उनका परिवार, शादी और बच्चे कैसे होंगे, वे समाज में कैसे अनुभवों से गुजरेंगे, जीवन में वे कैसी घटनाओं का अनुभव करेंगे, वे खुद ये चीजें पहले से भाँप नहीं सकते, न बदल सकते हैं, और इन्हें बदलने की क्षमता माता-पिता में तो और भी कम होती है। इसलिए, अगर बच्चे किसी मुश्किल का सामना करें, तो माता-पिता को सक्षम होने पर सकारात्मक और सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। अगर नहीं, तो माता-पिता के लिए यह श्रेष्ठ है कि वे आराम करें और इन मामलों को एक सृजित प्राणी के नजरिये से देखें, अपने बच्चों से भी समान रूप से सृजित प्राणियों जैसा बर्ताव करें। जो कष्ट तुम सहते हो, उन्हें भी वे कष्ट सहने चाहिए; जो जीवन तुम जीते हो, वह उन्हें भी जीना चाहिए; अपने छोटे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की जिस प्रक्रिया से तुम गुजरे हो, वे भी उससे गुजरेंगे; समाज और लोगों के बीच जो तोड़-मरोड़, जालसाजी और धोखा तुमने अनुभव किए हैं, जो भावनात्मक उलझनें और आपसी मतभेद और ऐसी ही चीजें जिनका तुमने अनुभव किया है, वे भी उनका अनुभव करेंगे। तुम्हारी तरह वे सब भी भ्रष्ट मनुष्य हैं, सभी बुराई की धारा में बह जाते हैं, शैतान द्वारा भ्रष्ट हैं; तुम इससे बच नहीं सकते, न ही वे बच सकते हैं। इसलिए सभी कष्टों से बचे रहने और संसार के समस्त आशीषों का आनंद लेने में उनकी मदद करने की इच्छा रखना एक नासमझी भरा भ्रम और मूर्खतापूर्ण विचार है। गरुड़ के पंख चाहे जितने भी विशाल क्यों न हों, वे नन्हे गरुड़ की जीवन भर रक्षा नहीं कर सकते। नन्हा गरुड़ आखिर उस मुकाम पर जरूर पहुँचेगा जब उसे बड़े होकर अकेले उड़ना होगा। जब नन्हा गरुड़ अकेले उड़ने का फैसला करता है, तो कोई नहीं जानता कि उसका आसमान किस ओर फैला हुआ है या वह अपनी उड़ान के लिए कौन-सी जगह चुनेगा। इसलिए, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद माता-पिता के लिए सबसे तर्कपूर्ण रवैया जाने देने का है, उन्हें जीवन को खुद अनुभव करने देने का है, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने देने का है, और जीवन की विविध चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना कर उनसे निपटने और उन्हें सुलझाने देने का है। अगर वे तुमसे मदद माँगें, और तुम ऐसा करने में सक्षम और सही हालात में हो, तो बेशक तुम मदद कर सकते हो, और जरूरी सहायता दे सकते हो। लेकिन तुम्हें एक तथ्य समझना होगा : तुम चाहे जो भी मदद करो, पैसे देकर या मनोवैज्ञानिक ढंग से, यह सिर्फ अस्थायी हो सकती है, और कोई ठोस चीज बदल नहीं सकती। उन्हें जीवन में अपना रास्ता खुद बनाना है, और उनके किसी मामले या नतीजे की जिम्मेदारी लेने को तुम बिल्कुल बाध्य नहीं हो। यही वह रवैया है जो माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति रखना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि अपने बच्चों को जन्म देने और उन्हें वयस्क होने तक पालने-पोषने के बाद, माता-पिता की जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। फिर उन्हें अपने बच्चों को अपने दम पर दुनिया में आगे बढ़ने देना चाहिए, जीवन में अपने रास्ते पर चलने देना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों को अपने दम पर जीवन का अनुभव करने देना चाहिए और जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं का स्वतंत्र रूप से सामना और समाधान करने देना चाहिए। जब बच्चों के सामने कठिनाइयाँ आएँ, यदि माता-पिता के पास आर्थिक साधन और क्षमता हो, तो वे अपने बच्चों की वास्तविक कठिनाइयों को हल करने में मदद कर सकते हैं। यदि माता-पिता के पास सही साधन न हों, तो उन्हें चीजों को उनके स्वाभाविक रूप से होने देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर द्वारा निर्धारित मार्ग पर चलता है और माता-पिता अपने बच्चों के भाग्य को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकते। जहाँ तक मेरे बेटे की शादी की बात है, यदि मैंने उसे शादी करने के लिए पैसे दिए भी होते, तो इससे केवल उसकी एक अस्थायी समस्या हल होती। इससे यह समस्या हल नहीं हो सकती थी कि उसकी शादी सफल होगी या नहीं। चाहे बाज के पंख कितने भी बड़े क्यों न हों, वह अपने बच्चों को जीवन भर आश्रय नहीं दे सकता। जब बच्चे वयस्क हो जाते हैं, वे परमेश्वर की संप्रभुता और निर्धारण के अनुसार अपना मिशन पूरा करते हैं। उनके जीवन में उन्हें जो दुख-तकलीफ और परीक्षाएँ झेलनी हैं, उन्हें कोई नहीं बदल सकता। मैं यह भी समझ गई कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह माता-पिता हो या बच्चे, उसका अपना मिशन होता है। उन सभी को सत्य का अनुसरण करना चाहिए और उद्धार का अनुसरण करना चाहिए। उनके पास जो सीमित समय है, उसमें उन्हें अपना समय और प्रयास अपने कर्तव्य पर लगाना चाहिए और अपना मिशन पूरा करना चाहिए, क्योंकि यही एकमात्र चीज है जो मूल्यवान और सार्थक है। यदि केवल अपने बच्चों की अपेक्षाओं और माँगों को पूरा करने के लिए माता-पिता उनके बारे में चिंतित और परेशान रहते हैं या बिना किसी शिकायत के अपने बच्चों के गुलाम के रूप में कड़ी मेहनत करते हैं, अपने कर्तव्यों को त्याग देते हैं, तो यह बिना अर्थ या मूल्य का जीवन है। वे चाहे कितना भी ऐसा करें, परमेश्वर उन्हें याद नहीं रखेगा और वे अपने बच्चों का भाग्य नहीं बदल सकते। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मेरा दिल बहुत रोशन हो गया। अब मैं जानती हूँ कि अपने बेटे के साथ कैसा व्यवहार करना है। उसे कठिनाइयाँ होने पर अगर मैं उसकी मदद कर सकी तो जरूर करूँगी और यदि नहीं कर सकी तो इस मामले को छोड़ दूँगी। मैं उसे अपने दम पर अपने जीवन का अनुभव करने दूँगी। मुझे अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करना होगा और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना होगा। यही वह जिम्मेदारी है जो मुझे पूरी करनी चाहिए।
मैं पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित और बंधी हुई थी, एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ बनने की चाह में मैंने बहुत दुख झेले। यह परमेश्वर के वचन थे जिन्होंने मुझे मेरी पीड़ा से मुक्त किया, अभ्यास की दिशा और मार्ग खोजने में मेरी मदद की। अब मेरे पास अपने बेटे के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत हैं और मेरा जीवन मुक्त और स्वतंत्र है। परमेश्वर का धन्यवाद!