15. जब मेरे सहपाठियों ने सुसमाचार प्रचार करने के कारण मेरी रिपोर्ट कर दी

ली शिनचेन, चीन

जब मैं प्राथमिक विद्यालय में थी, तभी मैंने अपने दादा-दादी के साथ सभाओं में भाग लेना शुरू किया, लेकिन जब मैं माध्यमिक विद्यालय में गई तो मेरी पढ़ाई और कठिन हो गई, इसलिए मैं सभाओं में भाग नहीं ले सकी और न ही परमेश्वर के वचन पढ़ सकी और मेरा दिल परमेश्वर से और भी दूर होता चला गया। नवंबर 2011 में आखिरकार मैं अपना कलीसियाई जीवन फिर से शुरू कर पाई और अपने भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और परमेश्वर की स्तुति में भजन गाने लगी। इससे मुझे वाकई संतुष्टि का एहसास हुआ। दिसंबर 2012 में जब मैं विश्वविद्यालय में थी, सीसीपी मुख्यधारा के मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का उपयोग करके विभिन्न आधारहीन अफवाहें गढ़ रही थी और फैला रही थी, जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की निंदा और बदनामी कर रही थीं। मेरे कमरे में साथ रहने वालों ने यह नकारात्मक प्रचार देखा और उन्होंने मेरी आस्था की रिपोर्ट हमारे शिक्षक से कर दी। शिक्षक ने फिर मेरे माता-पिता को सूचित किया और मेरे माता-पिता को मेरी आस्था के बारे में पता चल गया।

20 दिसंबर 2012 की शाम को मैं अभी-अभी अपने कर्तव्य खत्म करके स्कूल लौटी ही थी। छात्रावास में पहुँचने के कुछ ही समय बाद दो शिक्षक मुझसे सवाल करने आए। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं पिछले कुछ दिनों से कहाँ थी और क्या कर रही थी और उन्होंने यह भी पूछा कि क्या मैं स्कूल में सुसमाचार का प्रचार कर रही हूँ। फिर मेरी माँ और चाचा मेरे छात्रावास में आए और मुझे डाँटते हुए कहने लगे कि वे मुझे घर ले जाएँगे। मेरी चचेरी बहन को मेरे चाचा ने परमेश्वर में उसकी आस्था के कारण महीनों तक घर में कैद करके रखा था और मुझे डर था कि मेरे माता-पिता भी मेरे साथ ऐसा ही करेंगे। इसलिए मैं अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे मेरे लिए कोई रास्ता खोलने के लिए कहती रही। मैंने अपनी माँ से कहा, “मैं स्कूल में रहना चाहती हूँ, घर नहीं जाना चाहती।” मेरे दृढ़ संकल्प को देखते हुए मेरी माँ ने मुझे स्कूल में रहने की अनुमति दे दी। लेकिन मेरी पीठ पीछे उन्होंने मेरे शिक्षकों से मुझ पर कड़ी नजर रखने को कहा। अगले दिन शिक्षकों और विभागाध्यक्ष ने एक-एक करके मुझसे बात की। उन्होंने कहा कि स्कूल अब धार्मिक विश्वासों से संबंधित मुद्दों का सख्ती से प्रबंधन कर रहा है और उन्होंने मुझे कुछ दिनों के लिए छात्रावास में रहने और कहीं नहीं जाने के लिए कहा। स्कूल के सुरक्षा गार्डों के पास मेरी तस्वीर भी थी और अगर वे मुझे स्कूल के गेट से बाहर जाते हुए देखते तो वे मेरी शिकायत कर देते। सिर्फ परमेश्वर में मेरी आस्था के कारण मेरे शिक्षक और सहपाठी मुझे अजीब नजरों से देखने लगे और मेरे साथ अजीब व्यवहार करने लगे। मुझे बहुत अपमानित महसूस हुआ और यह सब सहना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया। मैं सिर्फ परमेश्वर में विश्वास रखती थी और कुछ भी बुरा नहीं कर रही थी तो वे मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे थे जैसे कि मैं कुछ बुरा कर रही हूँ? मैंने यह भी सोचा, “अगर मैंने सुसमाचार प्रचार नहीं किया तो क्या मेरे शिक्षक और सहपाठी मुझे गलत समझना और मुझे अजीब नजरों से देखना बंद कर देंगे?” मैं बहुत कमजोर महसूस कर रही थी, इसलिए मैंने दूसरे विश्वविद्यालय में पढ़ रही अपनी बड़ी बहन को अपनी भावनाएँ साझा करने के लिए फोन किया। मेरी बहन ने कहा कि उसके साथ रहने वाली लड़कियों ने भी उसकी शिकायत की है और उसके शिक्षक ने पूरी कक्षा के सामने उसे डाँटा भी था। उसकी यह बात सुनकर मुझे एहसास हुआ कि सीसीपी की निराधार अफवाहों और उसके द्वारा सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की बदनामी के कारण अनेक भाई-बहनों को सताया गया है। यह सोचकर कि कैसे सीसीपी सरकार निराधार अफवाहें फैला रही है, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की निंदा और बदनामी कर रही है, मुझे एहसास हुआ कि उनका सीधा निशाना परमेश्वर है और परमेश्वर ने अत्यधिक और अनगिनत अपमान और पीड़ा सहन की है। इस स्थिति में मैंने बस अपनी पीड़ा के बारे में सोचा, लेकिन मैंने कभी यह नहीं सोचा कि इस बदनामी और इन हमलों के सामने परमेश्वर का दिल कैसा महसूस करता है। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “मानवजाति के लिए कार्य हेतु परमेश्वर ने कई रातें बिना सोए गुजारी हैं। गहन ऊँचाई से लेकर अनंत गहराई तक जीते-जागते नरक में जहाँ मनुष्य रहता है, वह मनुष्य के साथ अपने दिन गुजारने के लिए उतर आया है, फिर भी उसने कभी मनुष्य के बीच पसरी फटेहाली की शिकायत नहीं की है, मनुष्य के विद्रोहीपन के लिए कभी भी उसे फटकारा नहीं है, बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करते हुए सर्वाधिक अपमान सहन करता है। परमेश्वर नरक का अंग कैसे हो सकता है? वह नरक में अपना जीवन कैसे बिता सकता है? लेकिन समस्त मानवजाति के लिए, ताकि पूरी मानवजाति को जल्द ही आराम मिल सके, उसने अपमान सहा है और पृथ्वी पर आने का अन्याय झेला है, मनुष्य को बचाने की खातिर व्यक्तिगत रूप से ‘नरक’ और ‘रसातल’ में, शेर की माँद में, प्रवेश किया है। मनुष्य परमेश्वर का विरोध करने योग्य कैसे हो सकता है? परमेश्वर से शिकायत करने का उसके पास क्या कारण है? वह परमेश्वर के सामने जाने की हिम्मत कैसे कर सकता है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (9))। परमेश्वर पवित्र है और वह मानवजाति को बचाने के लिए स्वर्ग से धरती पर आया, फिर भी उसे गलत समझा गया और दुश्मन की तरह व्यवहार किया गया और भ्रष्ट मानवता द्वारा उसे नकारा गया और उसकी निंदा की गई। अत्यधिक अपमान और दर्द सहने के बावजूद उसने हमें बचाने के लिए बोलना और काम करना जारी रखा है। लेकिन मैं परमेश्वर के इरादे को नहीं समझ पाई। थोड़ा सा भी कष्ट होने पर मैंने शिकायत की और नकारात्मक हो गई। जब सहपाठियों और शिक्षकों से थोड़े बहिष्कार और अजीब नजरों का सामना करना पड़ा तो मुझे अन्याय और पीड़ा महसूस हुई और मुझे सुसमाचार का प्रचार करने पर भी पछतावा हुआ। मेरा आध्यात्मिक कद वाकई छोटा था! यह सोचकर मुझे अब अपना कष्ट इतना बड़ा नहीं लगा और मुझे लगा कि जो उत्पीड़न मैं झेल रही हूँ, वह परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण मुझे झेलना ही चाहिए।

बाद में शिक्षकों ने मेरे साथ रहने वाली लड़कियों को मुझ पर नजर रखने और यह देखने के लिए कहा कि मैं क्या कर रही हूँ, मेरे पास कंबल के नीचे छिपने और अपने MP4 प्लेयर का उपयोग करके परमेश्वर के वचन पढ़ने और भजन सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। उन दिनों मेरे शिक्षक भी यह देखने के लिए मुझसे बात करते थे कि मैं सुसमाचार का प्रचार कर रही हूँ या नहीं। कुछ सहपाठी जो पहले मेरे बहुत करीब थे, वे मुझसे दूर होने लगे। कुछ ने मुझे डाँटा, कहा कि मुझे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखना चाहिए और कुछ ने मेरा मजाक उड़ाया। रिश्तेदारों ने भी फोन करके मुझे परमेश्वर में विश्वास न रखने के लिए मनाने की कोशिश की। मेरे दो चचेरे भाइयों ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की बदनामी और निंदा करने वाली कुछ निराधार अफवाहें और शैतानी टिप्पणियाँ भी भेजीं। उन दिनों जब भी मैं फोन की घंटी सुनती, मेरा दिल तेजी से धड़कने लगता, क्योंकि मुझे डर लगता कि यह कोई परिवार का सदस्य है जो मुझे डाँटने के लिए फोन कर रहा है। उन कुछ दिनों में ऐसा लग रहा था कि हर दिन एक साल का होता है और मैं खुद को अलग-थलग और असहाय महसूस कर रही थी। मुझे अपने भाई-बहनों की बहुत याद आती थी और मैं उनके साथ अपना दुख साझा करना चाहती थी। लेकिन मेरे शिक्षकों और सहपाठियों की निगरानी के कारण, मैं सभाओं में नहीं जा सकती थी। मैं अंदर से बहुत कमजोर पड़ गई थी और नहीं जानती थी कि इस स्थिति का अनुभव कैसे करूँ। मैं उस समय वाकई चिंतित थी : मेरे माता-पिता ने हमेशा मेरी और मेरी बड़ी बहन की आस्था का कड़ा विरोध किया था और मुझे निश्चित नहीं था कि इस बार वे मेरे साथ क्या करेंगे। क्या वे मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा मेरे चाचा ने मेरी चचेरी बहन के साथ किया था और मुझे घर में बंद कर देंगे? इतनी सारी आलोचना और उत्पीड़न का सामना करते हुए क्या मैं अडिग रह पाऊँगी? मेरे माता-पिता ने पहले ही कहा था कि अगर उन्हें पता चला कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ तो वे मुझे अस्वीकार कर देंगे। इस समय तक मेरे पिता ने मुझे अभी भी फोन नहीं किया था। क्या इसका मतलब यह था कि वे वाकई अब मुझे नहीं चाहते थे? इन सभी अनिश्चितताओं का सामना करते हुए मैं पूरी तरह से असहाय हो गई थी। मैं बस इतना कर सकती थी कि अपनी कठिनाइयाँ परमेश्वर को सौंप दूँ और उससे मार्गदर्शन माँगूँ। अपनी उलझन और बेबसी में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “परमेश्वर से प्रेम करने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है, और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था दी। मैं परमेश्वर पर विश्वास रखकर जीवन में सही मार्ग पर चल रही थी, इसलिए भले ही हर कोई मुझे गलत समझे, मेरा मजाक उड़ाए और मुझे अस्वीकार करे, जब तक मैं अपनी आस्था में अडिग रहूँगी, ये कठिनाइयाँ मुझ पर हावी नहीं होंगी। मुझे हमेशा अपने परिवार द्वारा अस्वीकार किए जाने और डाँटे जाने का डर रहता था, मुझे सहपाठियों और शिक्षकों के उपहास और अजीब नजरों से भी डर लगता था और मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि मैं आगे नहीं बढ़ सकती। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं बहुत कायर थी और मुझमें कष्ट सहने का संकल्प नहीं था। मुझे परमेश्वर के वचनों के एक अध्याय का शीर्षक याद आया जिसे मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा था, “परमेश्वर द्वारा हासिल होने के लिए अन्धकार के प्रभाव को त्याग दो।” परमेश्वर ने इस स्थिति को इस उम्मीद में व्यवस्थित किया था कि मैं शैतान के अंधेरे प्रभाव को तोड़ सकूँ। इस पूरे समय क्योंकि मेरे माता-पिता ने परमेश्वर में मेरे विश्वास का विरोध किया, मैं उनके द्वारा बहुत बेबस थी और जब तक मेरे माता-पिता मेरे आस-पास थे, मैंने परमेश्वर के वचन खाने या पीने की हिम्मत नहीं की और मैंने सभाओं में जाने या अपने कर्तव्य करने की हिम्मत नहीं की। मैं उनके दबाव के आगे और अधिक झुक नहीं सकती थी। केवल इस अंधेरे प्रभाव को तोड़कर और उनकी बाधा से बचकर ही मैं परमेश्वर में उचित रूप से विश्वास रख सकती थी और अपने कर्तव्य कर सकती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं वाकई अपने परिवार के अंधेरे प्रभाव को तोड़ना चाहती हूँ, लेकिन मुझमें साहस की कमी है। मुझे आस्था और शक्ति प्रदान करो, ताकि मैं शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकूँ और एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकूँ।” प्रार्थना के माध्यम से मुझे कुछ आस्था मिली और मुझे यह भी महसूस हुआ कि परमेश्वर हमेशा मेरे साथ था। मेरे दर्द और बेबसी में ये परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मुझे सांत्वना दी, प्रोत्साहित किया और मुझे आस्था दी। मैंने मन ही मन संकल्प लिया, “चाहे मेरा परिवार और शिक्षक मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करें, मैं अपनी आस्था और अपने कर्तव्यों में दृढ़ रहूँगी।” इसलिए मैंने अपनी बहन को फोन किया और हम दोनों ने पूर्णकालिक रूप से अपने कर्तव्यों के लिए समर्पित होने का निर्णय लिया। मैंने परमेश्वर से भी प्रार्थना की, उससे कहा कि वह मेरे लिए मेरे शिक्षकों और सहपाठियों की निगरानी से मुक्त होने का मार्ग खोले।

उस दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के भजन के बारे में सोचा “हर चीज में सत्य को समझने का प्रयास करके ही लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हैं” : “यदि तुम लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना चाहते हो, तो तुम्हें यह सीखना कि सभी मामलों में कैसे अनुभव किया जाए, और अपने साथ घटित होने वाली हर चीज में प्रबोधन प्राप्त करने योग्य बनना आवश्यक है। वह चीज अच्छी हो या बुरी, तुम्हें वह लाभ ही पहुँचाए और तुम्हें नकारात्मक न बनाए। इस बात पर ध्यान दिए बिना, तुम्हें चीजों पर परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर विचार करने में सक्षम होना चाहिए और मानवीय दृष्टिकोण से उनका विश्लेषण या अध्ययन नहीं करना चाहिए। यदि तुम ऐसा अनुभव करते हो, तो तुम्हारा हृदय तुम्हारे जीवन के बोझ से भर जाएगा; तुम निरंतर परमेश्वर के मुखमंडल की रोशनी में जियोगे, और अपने अभ्यास में आसानी से विचलित नहीं होओगे। ऐसे लोगों का भविष्य उज्ज्वल होता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्ण बनाए जा चुके लोगों से प्रतिज्ञाएँ)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए मैं परमेश्वर का इरादा थोड़ा और समझ पाई। इस दौरान परमेश्वर में मेरी आस्था के कारण मुझे अपने सहपाठियों से बहिष्कार और उपहास का सामना करना पड़ा, भले ही यह एक बुरी बात लगती थी, लेकिन यह वाकई मेरे जीवन के विकास के लिए फायदेमंद थी। मुझे व्यक्तिगत लाभ के परिप्रेक्ष्य से इसका विश्लेषण नहीं करना चाहिए था, मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए था और उसका इरादा खोजना चाहिए था। सीसीपी ऑनलाइन निराधार अफवाहें फैला रही है, परमेश्वर की निंदा और बदनामी कर रही है और भले ही यह बुरी बात लगती है, परमेश्वर वास्तव में अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सेवा प्रदान करने के लिए बड़े लाल अजगर का उपयोग कर रहा है, क्योंकि इसके नकारात्मक प्रचार के माध्यम से अधिक लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम को जानने लगे हैं। यह वाकई परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि है। मेरे साथ रहने वाली लड़कियों ने मेरी रिपोर्ट की और सभी को परमेश्वर में मेरी आस्था के बारे में पता चला। मेरे परिवार, शिक्षकों और सहपाठियों ने मेरा उपहास किया और मुझे डाँटा, भले ही मुझे शारीरिक रूप से कुछ कष्ट हुआ, लेकिन इस स्थिति ने मुझे अंधकार के प्रभाव से बाहर निकलने और जीवन में सही मार्ग चुनने के लिए प्रेरित किया। यह मेरे लिए अच्छी बात थी। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के कारण मेरी मनोदशा धीरे-धीरे सुधरने लगी और मैं इस स्थिति का सही ढंग से सामना करने में सक्षम हो गई। जब भी मेरे पास समय होता मैं परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करती और मुझे ऐसा नहीं लगता था कि यह एकाकीपन इतना दर्दनाक है। इसके विपरीत परमेश्वर के करीब आने के कारण मेरा दिल पहले से कहीं अधिक संतुष्ट था।

बाद में परमेश्वर ने मेरे लिए एक रास्ता खोल दिया। मेरे साथ रहने वाली लड़कियाँ अब मुझ पर नजर नहीं रखती थीं और इसलिए मैंने अवसर का लाभ उठाते हुए बाहर जाकर एक सभा में भाग लिया। जब मैंने अपने भाई-बहनों को फिर से देखा तो मुझे गर्मजोशी का जबरदस्त एहसास हुआ, और मेरे दिल में एक अवर्णनीय खुशी भर गई। भले ही मैं सभाओं में भाग लेने में सक्षम थी, लेकिन मेरा अविश्वासी परिवार अभी भी मेरी आस्था का विरोध करता था और मेरे शिक्षक समय-समय पर मेरी निगरानी करते रहते थे, यहाँ तक कि मुझे फोन करके पूछते थे कि मैं कहाँ पर हूँ। कभी-कभी जब मैं सभाओं में भाग लेने के लिए बाहर जाती थी तो मेरा दिल अशांत हो जाता था और इस परिवेश में मैं स्वतंत्र रूप से परमेश्वर में विश्वास नहीं रख पाती थी या अपने कर्तव्य नहीं कर पाती थी। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे मेरा मार्गदर्शन करने और मुझे सही चुनाव करने का संकल्प देने के लिए कहती रही। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना :

मनुष्य को एक सार्थक जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए

1  मनुष्य को अर्थपूर्ण जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और उसे अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। पतरस की छवि के अनुरूप अपना जीवन जीने के लिए, उसमें पतरस के ज्ञान और अनुभवों का होना जरूरी है। मनुष्य को ज्यादा ऊँची और गहन चीजों के लिए अवश्य प्रयास करना चाहिए। उसे परमेश्वर को अधिक गहराई एवं शुद्धता से प्रेम करने का, और एक ऐसा जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए जिसका कोई मोल हो और जो सार्थक हो। सिर्फ यही जीवन है; तभी मनुष्य पतरस जैसा बन पाएगा। तुम्हें सक्रिय रूप से सकारात्मक पक्ष में प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए, और अधिक गहन, विस्तृत और व्यावहारिक सत्यों को नजरअंदाज करते हुए अस्थायी आसानी के लिए निष्क्रिय होकर पीछे नहीं हट जाना चाहिए। तुम्हारे पास व्यावहारिक प्रेम होना चाहिए और तुम्हें जानवरों जैसे इस निकृष्ट और बेपरवाह जीवन को जीने के बजाय स्वतंत्र होने के रास्ते ढूँढ़ने चाहिए। तुम्हें एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो अर्थपूर्ण हो और जिसका कोई मोल हो; तुम्हें अपने-आपको मूर्ख नहीं बनाना चाहिए या अपने जीवन को एक खिलौना नहीं समझना चाहिए।

2  परमेश्वर से प्रेम करने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है, और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके। तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसके इरादों को कैसे पूरा करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुम्हारे अंदर ऐसी आकांक्षा और कर्मठता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है, तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए, और अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए। यह अहसास किए बिना, तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा; क्या उसके बाद तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करने का दूसरा अवसर मिलेगा? क्या मनुष्य मरने के बाद परमेश्वर से प्रेम कर सकता है? तुम्हारे अंदर पतरस के समान ही आकांक्षाएँ और चेतना होनी चाहिए; तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होना चाहिए, और तुम्हें अपने साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए! परमेश्वर का अनुसरण करने वाले एक व्यक्ति के रूप में, तुम्हें इस योग्य होना होगा कि तुम बहुत ध्यान से यह विचार कर सको कि तुम्हें अपने जीवन के साथ कैसे पेश आना चाहिए, तुम्हें अपने-आपको परमेश्वर के सम्मुख कैसे अर्पित करना चाहिए, तुममें परमेश्वर के प्रति और अधिक अर्थपूर्ण विश्वास कैसे होना चाहिए और चूँकि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, तुम्हें उससे कैसे प्रेम करना चाहिए कि वह ज्यादा पवित्र, ज्यादा सुंदर और बेहतर हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान

इस भजन को सुनने के बाद मैं परमेश्वर का इरादा समझ गई। मुझे एक सकारात्मक पहलू से प्रवेश और अनुसरण करना था और मुझे सिर्फ पीछे न हटने या नकारात्मक न होने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। मुझे सक्रिय होकर सत्य का अनुसरण करना था और यह खोजना था कि एक सार्थक जीवन कैसे जिऊँ। खासकर जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम्हारे पास व्यावहारिक प्रेम होना चाहिए और तुम्हें जानवरों जैसे इस निकृष्ट और बेपरवाह जीवन को जीने के बजाय स्वतंत्र होने के रास्ते ढूँढ़ने चाहिए। तुम्हें एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो अर्थपूर्ण हो और जिसका कोई मोल हो; तुम्हें अपने-आपको मूर्ख नहीं बनाना चाहिए या अपने जीवन को एक खिलौना नहीं समझना चाहिए,” तो मुझे लगा कि यह परमेश्वर का हमें निर्देश देना और हमसे माँगें करना है और यही वह है जिसका मुझे अनुसरण करना चाहिए। मेरा जीवन वाकई बहुत पतित था। विश्वविद्यालय में शिक्षकों ने हमें सही जीवन लक्ष्य निर्धारित करना नहीं सिखाया, बल्कि विश्वविद्यालय के जीवन का आनंद लेना सिखाया। कुछ शिक्षकों ने तो यहाँ तक कहा कि अगर तुमने कक्षा नहीं छोड़ी, प्रेम संबंध में नहीं पड़े या विश्वविद्यालय में थोड़ा पागलपन नहीं किया तो तुमने असल में जीवन जिया ही नहीं। पूरे विद्यालय में ऐसा ही माहौल था, हर कोई खाने-पीने और मौज-मस्ती के पीछे भाग रहा था और एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहा था। कुछ ही लोग वाकई अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे। लोग जिन चीजों के बारे में बात करते थे, वे यह नहीं होती थीं कि कैसे पढ़ाई की जाए या किसी कौशल में महारत हासिल की जाए, बल्कि खाने-पीने, मौज-मस्ती करने, शिक्षकों की चापलूसी करने और व्यक्तिगत संबंधों को सँभालने के तरीके के बारे में होती थीं। ऐसा लगता था कि हम स्वतंत्र और सहज जीवन जी रहे थे, लेकिन अंदर से हम खालीपन और भ्रमित महसूस कर रहे थे, हमें इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि जीवन का अर्थ क्या हो सकता है और यह भी नहीं पता था कि हमें जीवन में वास्तव में किस चीज का अनुसरण करना चाहिए। भले ही मुझे पता था कि इन चीजों का अनुसरण करने का कोई वास्तविक अर्थ नहीं है, मगर मेरा आध्यात्मिक कद छोटा था और इस माहौल में मैं अभी भी इस जीवन शैली को अपनाने से खुद को रोक नहीं पाई, मुझे शांत रहना और सत्य का अनुसरण करना मुश्किल लगा। मैं कभी-कभार सभाओं में जाने और अपने माता-पिता के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने से संतुष्ट थी, बिना यह सोचे कि एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे पूरा किया जाए। क्या मैं बस नकारात्मक नहीं हो रही थी और अस्थायी आराम का आनंद लेने के लिए पीछे नहीं हट रही थी? पहले मैं सत्य को नहीं समझती थी और नहीं जानती थी कि वाकई किस चीज का अनुसरण करना मूल्यवान है। मैं बस अपने शिक्षकों और माता-पिता की इच्छाओं के अनुसार जीती थी, सोचती थी कि अगर मैं विश्वविद्यालय में गई तो मुझे जीवन में कुछ दिशा मिलेगी और एक लक्ष्य मिलेगा। लेकिन असलियत में विश्वविद्यालय के जीवन ने मुझे जीवन में एक उज्ज्वल मार्ग नहीं दिया, बल्कि और भी अधिक नीचता और भ्रम का जीवन दिया। वहाँ रुके रहने का क्या तुक था? मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मैं हाल ही में भाई-बहनों के साथ सुसमाचार प्रचार करने गई थी। हालाँकि कभी-कभी हमारा अपमान किया जाता था और हमारा मजाक उड़ाया जाता था, लेकिन मेरा दिल संतुष्ट और खुश रहता था, मुझे लगता था कि एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना और न्यायपूर्ण काम करना ही जीवन को सार्थक बनाता है। दिल में यह खुशी और शांति किसी भी चीज से नहीं बदली जा सकती। पहले मैं परमेश्वर में ठीक से विश्वास नहीं करती थी और ज्ञान का अनुसरण करने के कारण मैंने इतना अधिक समय बर्बाद कर दिया। अगर मैं अपने माता-पिता के आगे बेबस बनी रहती और विद्यालय में इस पतित जीवन को जारी रखती, क्या यह मेरी बेहद मूर्खता नहीं होती? यह एहसास होने पर मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ने और अपना कर्तव्य निभाने का संकल्प लिया।

1 जनवरी 2013 की शाम को मैं और मेरी बहन घर लौट आईं। मेरे पिता ने मुझसे और मेरी बहन से कहा, “मैंने तुम्हारे सामने सारी चीजें रखने के लिए आज तुम्हें वापस बुलाया है। तुम्हें अच्छी तरह से सोचना होगा और तय करना होगा कि क्या तुम अभी भी परमेश्वर में विश्वास रखना चाहती हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखना चाहती हो तो अपनी पढ़ाई जारी रखने की जहमत मत उठाओ और तुम दोनों मेरे लिए खुद को मरा हुआ समझो! अगर तुम अपनी आस्था छोड़ने का फैसला करती हो तो परमेश्वर में विश्वास रखने वालों से अपने संबंध तोड़ लो और अपनी पढ़ाई जारी रखो।” उन्होंने यह भी कहा, “परमेश्वर में विश्वास रखने का सरकार द्वारा विरोध किया जाता है और हम सीसीपी के शासन में रह रहे हैं। क्या तुम्हें सच में लगता है कि तुम उनका विरोध कर सकती हो?” जैसे ही मैंने और मेरी बहन ने उनके सामने परमेश्वर के कार्य की गवाही दी, मेरे पिता और चाचा क्रोधित हो गए, उन्होंने परमेश्वर को नकारना और उसकी ईशनिंदा करनी शुरू कर दी, उन्होंने हमें फटकारा और डाँटा। उन्हें इस तरह देखकर मैं वाकई डर गई और अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, परमेश्वर से मुझे इस स्थिति का सामना करने के लिए आस्था और शक्ति देने के लिए कहती रही। वे तड़के करीब दो या तीन बजे तक हमें डाँटते रहे। मेरी माँ भी हमसे पूछती रही कि क्या हम अभी भी परमेश्वर में विश्वास रखना चाहती हैं। मैं वाकई चुप रहना चाहती थी और किसी तरह बच निकलना चाहती थी, लेकिन मैंने सोचा कि कैसे अपने परिवार द्वारा अस्वीकार किए जाने के डर के कारण मैंने यह स्वीकारने की हिम्मत नहीं की कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और मैंने परमेश्वर की गवाही नहीं दी। मैं ऐसा दोबारा नहीं कर सकती थी। न केवल मेरा परिवार मेरे जवाब का इंतजार कर रहा था, बल्कि परमेश्वर भी यह इंतजार कर रहा था कि मैं अपनी स्थिति घोषित कर दूँ। शैतान भी देख रहा था कि मैं क्या चुनूँगी। चाहे मेरे माता-पिता मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करें, मुझे अपनी गवाही में अडिग रहना था। इसलिए मैंने दृढ़ता से कहा, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखना जारी रखूँगी!” मेरे पिता ने गुस्से में कहा, “चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखना जारी रखोगी, इसलिए तुम्हें यह घर छोड़ देना चाहिए। अब से तुम मेरे लिए मर चुकी हो!” फिर उन्होंने हमें अपने कमरे से बाहर निकाल दिया। मेरा दिल बहुत दुख रहा था। मैं बस परमेश्वर में विश्वास रखना चाहती थी और मैंने कभी नहीं कहा कि मैं अपने माता-पिता को नहीं चाहती, लेकिन वे मेरे दिल की बात क्यों नहीं सुन पा रहे थे? वे क्यों मुझ पर चुनने का दबाव डाल रहे थे? जब मैं अपने कमरे में लौटी तो मैं अपनी भावनाओं को शांत नहीं कर सकी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! चाहे वे मुझे कैसे भी रोकने की कोशिश करें, मैं तुम्हारा अनुसरण करूँगी। मुझे आस्था और शक्ति दो और आगे के मार्ग पर मेरा मार्गदर्शन करो।”

अगली सुबह जैसे ही भोर होने लगी, मेरे चाची-चाचा हमारे घर आए और मुझसे और मेरी बहन से परमेश्वर में विश्वास न रखने का आग्रह करने लगे। मेरी चाची ने कहा कि हमारी परवरिश करने में मेरे पिता ने बहुत कष्ट सहे हैं और वह रो भी पड़ी, मुझसे परमेश्वर में विश्वास रखना बंद करने की भीख माँगने लगी। मैं वाकई कमजोर पड़ गई और उन्हें खुश करने के लिए सचमुच हाँ में सिर हिलाना चाहती थी, लेकिन मुझे पता था कि ऐसा करके मैं गवाही नहीं दे रही हूँगी और मैं परमेश्वर को नकार नहीं सकती या उसे धोखा नहीं दे सकती। मैं परमेश्वर के दिल को ठेस नहीं पहुँचा सकती। अगले कुछ दिनों में वे मुझे और मेरी बहन पर अंतरात्मा की कमी होने का आरोप लगाते रहे। मेरे पिता भी इस बात पर जोर देते रहे कि हम अपनी आस्था को चुन लें या फिर अपने परिवार को। अपने दिल में मैं जानती थी कि परमेश्वर में विश्वास रखना सही रास्ता है। जब मैं छोटी थी, तब से ही परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करता और साथ देता आया है, मेरी आस्था पहले से ही मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। मैं परमेश्वर को नहीं छोड़ सकती थी। लेकिन जब मैंने सोचा कि मेरे माता-पिता ने मुझे पालने के लिए कितनी मेहनत की है तो मैं अपने दिल में उनके प्रति ऋणी होने की एक निरंतर भावना महसूस करती थी और मैं उनकी भावनाओं को ठेस भी नहीं पहुँचाना चाहती थी। मुझे नहीं पता था कि क्या करना है, इसलिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहती रही। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। क्रमशः मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। यह परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस ही है जो हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में वजूद में है और बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की परवरिश के अनुग्रह में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिल्कुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, कि अध्यवसाय ही उसके जीवन के अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन का विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण के प्रति मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है और यही वह तरीका है जिससे वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिन मनुष्यों की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है उनमें से एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर अपनी बनाई योजना के अनुसार बस उस मनुष्य पर कार्य करना जारी रखता है, जिससे कोई अपेक्षा नहीं है। वह ऐसा इस आशा में करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुकता को समझेगा जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने के लिए बेसब्री से लालायित रहता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे समझ आया कि मेरा जीवन परमेश्वर से आता है, यह परमेश्वर ही है जिसने मुझे जीवन की यह सांस दी है, जिससे मैं इस दुनिया में जीवित रह सकती हूँ। मेरे परिवार और मेरे माता-पिता की व्यवस्था परमेश्वर ने की थी। भले ही ऐसा लगता था कि मेरे माता-पिता ने मुझे वयस्क होने तक पाला है, असल में यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर गुप्त रूप से मेरी देखभाल और सुरक्षा कर रहा है, इसलिए मैं आज तक जीवित हूँ। मेरे बचपन से लेकर वयस्क होने तक मेरे माता-पिता ने केवल मेरी भौतिक जरूरतों और ट्यूशन का खर्च उठाया, लेकिन उन्होंने शायद ही कभी मेरी परवाह की या यह सिखाया कि मुझे कैसे आचरण करना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मैंने जाना कि मुझे कैसे ठीक से आचरण करना चाहिए। जब मैं छोटी थी तो मैं और मेरी चचेरी बहन छोटी-छोटी बातों पर बहस करती थीं, मेरी दादी ने ही परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे सहनशील और धैर्यवान बनना सिखाया और यह भी सिखाया कि मुझे न तो मन छोटा करना चाहिए और न ही बदला लेने की भावना रखनी चाहिए। विद्यालय में मेरे कई सहपाठी बुरी प्रवृत्तियों के पीछे भाग रहे थे, वे ऑनलाइन गेम के आदी हो गए और बहुत कम उम्र में ही रिश्तों में पड़ गए। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और जाना कि ये चीजें परमेश्वर को नापसंद हैं, इसलिए मैंने इन चीजों के पीछे भागने में उनका अनुसरण नहीं किया। विश्वविद्यालय में मेरे कई सहपाठी परीक्षाओं में नकल करते थे, अपने शैक्षणिक भविष्य की खातिर शिक्षकों की चापलूसी करते थे और एक-दूसरे का फायदा उठाते थे। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि परमेश्वर हमसे ईमानदार लोग बनने की अपेक्षा करता है और हमें कपट, ईर्ष्या या विवादों में नहीं पड़ना चाहिए, इसलिए मैंने इन चीजों को करने में उनका अनुसरण नहीं किया। साथ ही जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, मुझे कई डरावनी और भय उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, प्रार्थना पर निर्भर होकर और परमेश्वर को पुकारकर मैं हमेशा भरोसा पाने और डरना बंद करने में सक्षम रही। ये परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया और कुछ सत्य समझने में मेरी मदद की, इसलिए मैं उन बुरी प्रवृत्तियों से गुमराह नहीं हुई या प्रलोभन में नहीं आई और मैं दुष्ट या नीच नहीं बनी। परमेश्वर ने ही हमेशा मेरी देखभाल और रक्षा की, जिससे मैं शांतिपूर्वक और स्वस्थ रूप से बड़ी हो सकी। यह परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण ही था कि मेरे माता-पिता ने मुझे जन्म दिया। मेरे लिए उनका भरण-पोषण करना भी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन था और मुझे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास रखने के बाद भी मैंने परमेश्वर के लिए बहुत कुछ नहीं किया था, मैं बस परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद ले रही थी। पहले अपने माता-पिता के आगे बेबस होने के कारण मैंने अपने कर्तव्य नहीं किए थे, लेकिन मैं इस तरह विद्रोही नहीं बनी रह सकती थी, मैं अब अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों को छोड़ना नहीं चाहती थी।

मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। जब मैंने देखा कि परमेश्वर का वचन कहता है : “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो,” मुझे इस बात की स्पष्ट समझ मिली कि मुझे क्या चुनाव करना चाहिए। मेरे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते थे, उन्होंने मुझे सताने और विश्वास रखने से रोकने की भी कोशिश की। जब मैंने और मेरी बहन ने उनके सामने परमेश्वर के बारे में गवाही दी, मेरे पिता बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने परमेश्वर को कोसा, ईशनिंदा वाली बातें कहीं। उनका सार दानवों वाला है और वे शैतान के हैं। पहले मैंने सोचा था कि वे केवल इसलिए मेरी आस्था का विरोध करते हैं क्योंकि वे सीसीपी की निराधार अफवाहों से गुमराह हो गए थे, लेकिन जब दूसरों ने भी सीसीपी की निराधार अफवाहों को देखा तो वे सही-गलत का भेद पहचानने में सक्षम हो गए और उन्होंने आँख मूँदकर सीसीपी द्वारा परमेश्वर की निंदा का अनुसरण नहीं किया। लेकिन मेरे माता-पिता ने भेद नहीं पहचाना और उन्होंने आँख मूँदकर सीसीपी पर विश्वास किया और परमेश्वर की निंदा करने में उसके साथ चले गए। इसके अलावा मेरे दादा-दादी ने पहले भी उन्हें सुसमाचार सुनाया था, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया और बाद में जब उन्होंने मेरे दादा-दादी को हमें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए प्रेरित करते देखा तो उन्होंने मेरे दादा-दादी के प्रति घृणा की भावना रखी, यहाँ तक कि उन पर हमला किया और उनका अपमान भी किया। उन्होंने मेरे दादा-दादी को यह कहते हुए धमकाया कि अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखते रहे तो वे उन्हें पैसे देना बंद कर देंगे। इस दौरान उन्होंने मुझे और मेरी बहन को भी लगातार परमेश्वर में विश्वास न रखने की धमकी दी। इस बार जब उन्हें पता चला कि हम परमेश्वर में विश्वास रखती हैं तो उन्होंने हमसे संबंध तोड़कर हमें अपनी आस्था छोड़ने के लिए मजबूर करने की कोशिश की। मुझे एहसास हुआ कि ऐसा नहीं था कि वे मूर्ख और अज्ञानी थे या भेद पहचानने में असमर्थ थे, लेकिन उनकी प्रकृति परमेश्वर के प्रति घृणा करने वाली और उसके खिलाफ प्रतिरोध करने की थी। उस दिन मैंने परमेश्वर में विश्वास रखने और सही मार्ग पर चलने का फैसला किया, लेकिन मेरे माता-पिता मुझे सताने और मेरा विरोध करने की कोशिश करते रहे। मैं उनके जैसे रास्ते पर नहीं थी और मैं उनके द्वारा बेबस होकर नहीं रह सकती थी। उस रात मैं करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई और परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, कहती रही कि परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करे और मुझे अपना कर्तव्य निभाने का अवसर दे।

अगली सुबह मेरे पिता मुझे स्कूल ले गए। अपनी अंतिम परीक्षाएँ समाप्त करने के बाद मैंने अपना पेपर जल्दी जमा कर दिया और जब मेरे सहपाठी आस-पास नहीं थे तो मैंने अपना बैग समेटा और अपना कर्तव्य करने निकल पड़ी। अब मैं लगभग दस वर्षों से कलीसिया में अपना कर्तव्य कर रही हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़कर और अपने कर्तव्य में प्रशिक्षण लेकर मैंने धीरे-धीरे सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचानना सीख लिया है और मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की भी कुछ समझ प्राप्त हुई है। धीरे-धीरे मैं थोड़ा-बहुत मानव के समान जीने लगी हूँ। जब भी मैं इस अनुभव को याद करती हूँ, मैं परमेश्वर का बहुत आभारी होती हूँ। भले ही मैं बचपन से परमेश्वर में विश्वास रखती आई थी, लेकिन मैं बहुत अज्ञानी और कायर थी और भले ही मैं सच्चा मार्ग जानती थी, लेकिन मुझमें उस पर चलने का साहस नहीं था। मैं अपने माता-पिता के दबाव में आ गई और सत्य का सही तरीके से अनुसरण नहीं कर सकी और अपना कर्तव्य नहीं कर सकी। यह परमेश्वर ही है जो हमेशा मेरा मार्गदर्शन करता रहा है, अपने वचनों का उपयोग करके मुझे जीवन में सही मार्ग पर ले जाता रहा है। मैं परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए आभारी हूँ।

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