31. मुझे अब संतान होने की चिंता नहीं रही
शादी के बाद, मैं अपने कर्तव्यों में काफी व्यस्त थी, तो मैंने सोचा कि अगर मैं गर्भवती हो गई और बच्चा हो गया, तो मुझे हर दिन उसी के इर्द-गिर्द रहना पड़ेगा और मेरे पास अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए समय और ऊर्जा नहीं होगी, इसलिए मैंने फिलहाल बच्चे पैदा न करने और अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देने का फैसला किया। कुछ साल बाद मेरे माता-पिता बीमार पड़ गए और जब तक कि वे दोनों चल नहीं बसे, मैं उनकी देखभाल में व्यस्त रही। उनके गुजर जाने के बाद मुझे अचानक एक ऐसी चिंता हुई जो पहले कभी नहीं हुई थी। मैंने सोचा कि जब मेरे माता-पिता बीमार थे, तो उनकी देखभाल के लिए मैं उनके पास थी, लेकिन अगर मेरे बच्चे नहीं हुए तो बुढ़ापे में या बीमार पड़ने पर मेरी देखभाल करने के लिए कौन तैयार होगा? लेकिन यह विचार कभी-कभार ही आता था और इससे मेरे कर्तव्य पर कोई खास असर नहीं पड़ा, इसलिए मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
कुछ समय बाद मुझे अचानक मासिक धर्म का बहुत तेज दर्द उठा। दर्द इतना तेज था कि मुझे उल्टी हो गई। मुझे सालों से मासिक धर्म में दर्द होता था, लेकिन इतना दर्द पहले कभी नहीं हुआ था। मैं जाँच के लिए अस्पताल गई और मुझे एडेनोमायोसिस और गर्भाशय में रसौली होने का पता चला और रसौली पहले ही पाँच सेंटीमीटर तक बढ़ चुकी थी। डॉक्टर ने कहा कि इस बीमारी का इलाज मुश्किल है, समय के साथ दर्द और भी बदतर होता जाएगा, यह इतना दर्दनाक हो सकता है कि मैं आत्महत्या करने के बारे में भी सोच सकती हूँ और आखिरकार मुझे अपना गर्भाशय निकलवाना पड़ेगा। जब डॉक्टर को पता चला कि मेरे अभी तक बच्चे नहीं हैं, तो उसने मुझसे जल्दी बच्चा पैदा करने का आग्रह किया और कहा कि अगर उसके बाद मैं बच्चे नहीं चाहती तो मैं अपना गर्भाशय निकलवा सकती हूँ। उस समय मैंने इस पर ज्यादा नहीं सोचा और मुझे लगा कि डॉक्टर की बातें कुछ ज़्यादा ही गंभीर थीं। घर आने के बाद मैंने इस बीमारी के बारे में ऑनलाइन बहुत सारी जानकारी खोजी और बीजिंग में एक विशेषज्ञ से सलाह लेने के लिए कुछ पैसे खर्च किए। मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह एक जटिल स्थिति होगी और मुझे पता चला कि इसका इलाज वाकई मुश्किल था। या तो मुझे इसे प्रबंधित करने और इसे जल्दी बिगड़ने से रोकने के लिए नियमित रूप से एक हॉर्मोन लेना होगा, या फिर मुझे अपना गर्भाशय निकलवाना होगा। अगले कुछ दिनों में मेरी हालत बद से बदतर होती गई। मुझे एक अजीब-सा डर और उदासी महसूस हुई, मन ही मन सोचने लगी, “यह बीमारी समय के साथ निश्चित रूप से और भी बदतर और दर्दनाक होती जाएगी। अगर मैंने अपना गर्भाशय निकलवा दिया तो तीस-बत्तीस की होकर भी मैं कभी बच्चे पैदा नहीं कर पाऊँगी। लेकिन अभी मेरे पास अपने कर्तव्य हैं और मैं हर दिन बहुत व्यस्त रहती हूँ। मुझे बच्चा पैदा करने और पालने के लिए समय या ऊर्जा कैसे मिलेगी? इसके अलावा प्रभु यीशु ने कहा : ‘उन दिनों में जो गर्भवती और दूध पिलाती होंगी, उन के लिये हाय, हाय’ (मत्ती 24:19)। परमेश्वर का मानवजाति को बचाने का कार्य समाप्त होने वाला है और महा विनाश भी आ चुका है। अगर मैंने बच्चा पैदा करने के कारण सत्य का अनुसरण करने और बचाए जाने का अपना मौका गँवा दिया तो क्या होगा? लेकिन अगर मैं अभी बच्चा पैदा नहीं करती, तो एक बार गर्भाशय निकल जाने के बाद मैं फिर कभी बच्चे पैदा नहीं कर पाऊँगी। तो जब मैं बूढ़ी हो जाऊँगी तो मेरी देखभाल कौन करेगा?” मैं तनाव और व्यग्रता में जी रही थी, अपनी हालत के बद से बदतर होने और गर्भाशय निकलवाने को लेकर चिंतित थी। मैं हर समय उदास रहती थी और अपने कर्तव्य करने की कोई प्रेरणा नहीं थी। मेरा दिल भयानक पीड़ा में था। मैंने अपनी कठिनाइयों के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना की और मार्गदर्शन माँगा। मैं परमेश्वर के इरादे के अनुरूप अभ्यास कैसे कर सकती थी?
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मुझे बताओ, क्या पहले से किसी के भाग्य में यह नहीं लिखा है कि वह कब किस रोग से बीमार पड़ेगा, किस उम्र में उसकी सेहत कैसी रहेगी, और क्या वह कोई बड़ा या गंभीर रोग पकड़ लेगा? बिल्कुल लिखा हुआ है और यह पक्का है। हम अभी इस पर चर्चा नहीं करेंगे कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजें कैसे पूर्वनिर्धारित करता है; लोगों का रंग-रूप, नाक-नक्श, डील-डौल और उनकी जन्मतिथि सबको साफ तौर पर पता होती है। गैर-विश्वासी भविष्य बताने वाले, ज्योतिषी और नक्षत्र और लोगों की हथेलियाँ पढ़ सकने वाले, लोगों की हथेलियाँ, चेहरे और जन्मतिथियाँ देखकर यह बता सकते हैं कि उन पर विपत्ति कब टूटेगी, और दुर्भाग्य उन पर कब बरसेगा—ये चीजें पहले से पूर्व-निर्धारित हैं। ... किसी की सेहत किस उम्र में कैसी रहेगी और क्या उसे कोई बड़ा रोग होगा, ये सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और वे हथेलियाँ, जन्मतिथियाँ और चेहरे दिखाकर ये बातें जानने के लिए किसी को ढूँढ़ते फिरते हैं, और वे इन बातों पर यकीन करते हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और अक्सर सत्य पर धर्मोपदेश और संगतियाँ सुनते हो, फिर अगर तुम उनमें विश्वास न रखो, तो तुम एक छद्म-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं हो। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है तो तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि ये सभी चीजें—चाहे गंभीर रोग, बड़े रोग, मामूली रोग हों या किसी की शारीरिक हालत कैसी है—परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है और किसी गंभीर रोग का आना और किसी खास उम्र में किसी की सेहत कैसी रहती है, ये ऐसी चीजें नहीं हैं जो संयोग से हों। यह एक सकारात्मक और सही समझ है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि किसी व्यक्ति का जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु सब कुछ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितना कष्ट सहता है, उसे कौन-सी बीमारी और कठिनाई का सामना करना पड़ता है और वह कितनी आशीषों का आनंद लेता है, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है और इससे कोई नहीं बच सकता। मुझे हमेशा चिंता रहती थी कि कहीं मेरी बीमारी और न बढ़ जाए, कहीं दर्द इतना असहनीय न हो जाए कि मुझे गर्भाशय निकलवाना पड़े और भविष्य में अगर मेरे बच्चे नहीं हुए तो मुझे किस तरह के कष्ट का सामना करना पड़ेगा। दरअसल ये सारी चिंताएँ फिजूल थीं। अगर मुझे सच में अपना गर्भाशय निकलवाना पड़ा और मेरे कोई बच्चे नहीं हुए तो यही मेरा भाग्य होगा। यह ऐसी चीज नहीं थी जिसे मेरी चिंता और संकट से हल किया जा सकता था। मेरी हालत कैसी थी और मेरा भविष्य कैसा होगा—यह सब परमेश्वर के हाथ में है। मुझे इसका शांति से सामना करना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। इसके अलावा मेरी बीमारी से मेरे जीवन को कोई खतरा नहीं था, इसलिए मुझे इसके बारे में परेशान और चिंतित होकर अपने दिन नहीं बिताने चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात सत्य का अनुसरण करना था, इस स्थिति में परमेश्वर का इरादा खोजना और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना सीखना था। यह सोचने पर मुझे कम परेशानी महसूस हुई। लेकिन कभी-कभी मैं फिर भी सोचती थी, “क्या होगा अगर मैं बच्चे पैदा करने की क्षमता खो दूँ और मेरे कोई बच्चे न हों? तो जब मैं बूढ़ी हो जाऊँगी या बीमार पड़ जाऊँगी तो मैं क्या करूँगी? क्या मुझे अभी बच्चा पैदा कर लेना चाहिए? लेकिन क्या बच्चा पैदा करने से सत्य के मेरे अनुसरण और मेरे उद्धार पर असर पड़ेगा?”
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “शादी के मामले में, तुम्हें उन बोझों को त्याग देना चाहिए जिन्हें त्यागने की तुमसे अपेक्षा की जाती है। एकल रहना चुनना तुम्हारी आजादी है, शादी चुनना भी तुम्हारी आजादी है, और बहुत-से बच्चे करना भी तुम्हारी ही आजादी है। तुम्हारा चयन चाहे जो हो, यह तुम्हारी आजादी है। एक ओर, शादी को चुनने का यह मतलब नहीं है कि तुमने इस तरह अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुका दिया है या अपना संतानोचित कर्तव्य निभा दिया है; बेशक एकल रहना चुनने का यह अर्थ भी नहीं है कि तुम अपने माता-पिता की अवज्ञा कर रहे हो। दूसरी ओर, शादी करने या कई बच्चे होने को चुनना परमेश्वर के प्रति विद्रोह करना नहीं है। इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं की जाएगी। न ही एकल रहने के चुनाव के कारण अंततः परमेश्वर तुम्हें उद्धार दे देगा। संक्षेप में कहें, तो चाहे तुम एकल हो या शादीशुदा, या तुम्हारे कई बच्चे हों, परमेश्वर इन घटकों के आधार पर यह निर्धारित नहीं करेगा कि आखिरकार तुम बचाए जाओगे या नहीं। परमेश्वर तुम्हारी वैवाहिक पृष्ठभूमि या वैवाहिक स्थिति पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ इस बात पर गौर करता है कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, तुमने कितना सत्य स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण किया है, और क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो। आखिरकार, परमेश्वर भी यह निर्धारित करने के लिए कि तुम बचाए जाओगे या नहीं, तुम्हारे जीवन पथ, तुम्हारे जीने के सिद्धांतों और तुम्हारे द्वारा चुने गए जीवित रहने के नियमों की जाँच करने के लिए तुम्हारी वैवाहिक स्थिति को किनारे रख देगा। ... शादी करने के बाद तुम्हारे कितने बच्चे होंगे, यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत है, लेकिन अपने असली हालात और अनुसरणों के आधार पर तुम खुद भी चुन सकते हो। परमेश्वर तुम पर नियम नहीं थोपेगा। मान लो कि तुम एक करोड़पति, अरबपति या खरबपति हो, और कहते हो, ‘आठ-दस बच्चे होना मेरे लिए कोई समस्या नहीं है। ढेर सारे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने से अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति मेरी ऊर्जा के साथ कोई समझौता नहीं होगा।’ अगर तुम झंझटों-झमेलों से नहीं डरते, तो आगे बढ़ो, बच्चे कर लो; परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। शादी पर तुम्हारे रवैयों के कारण परमेश्वर तुम्हारे उद्धार के प्रति अपना रवैया नहीं बदलेगा। बात ऐसी ही है। समझ आया? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मुझे अचानक समझ आया कि शादी करना और बच्चे पैदा करना परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई एक स्वतंत्रता है। परमेश्वर लोगों को सिर्फ इसलिए दोषी नहीं ठहराता क्योंकि वे शादी करते हैं या बच्चे पैदा करते हैं। कोई व्यक्ति बचाया जा सकता है या नहीं, इसका निर्णय परमेश्वर मुख्य रूप से उसके कर्तव्य के प्रति उसके रवैये के आधार पर करता है और इस आधार पर कि वह सत्य का अनुसरण करता है और सत्य के प्रति समर्पित होता है या नहीं। भले ही कोई व्यक्ति शादी न करे या बच्चे पैदा न करे, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता और अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं सुलझाता, तो अंत में वह फिर भी बचाया नहीं जाएगा। असल में परमेश्वर किसी व्यक्ति के बाहरी त्याग या कार्यों को नहीं देखता। लोग बच्चे पैदा करना या अविवाहित रहना चुन सकते हैं, और इस मामले में वे चाहे जो भी चुनाव करें, परमेश्वर उन्हें दोषी नहीं ठहराता। यह उनकी स्वतंत्रता और अधिकार है। हालाँकि ऐसे मामले व्यक्ति की वास्तविक स्थिति पर आधारित होने चाहिए। अगर शादी करने और बच्चे पैदा करने से किसी के सत्य के अनुसरण और कर्तव्य पर असर पड़ेगा, तो उन्हें इन चीजों को अलग रखकर अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए। अब परमेश्वर के मानवजाति को बचाने के कार्य में एक महत्वपूर्ण क्षण है, और केवल अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने और सत्य का अनुसरण करने से ही मेरे पास बचाए जाने का मौका है। अगर मैं सिर्फ भविष्य में देखभाल पाने के लिए बच्चा पैदा करूँ, और अपनी सारी ऊर्जा अपने बच्चे को पालने में लगा दूँ, तो इससे मेरे सत्य के अनुसरण और मेरे कर्तव्य दोनों पर असर पड़ेगा। बच्चे पैदा करना परमेश्वर द्वारा दी गई एक स्वतंत्रता और अधिकार है, लेकिन मुझे यह पहचानना था कि क्या अधिक महत्वपूर्ण है, और अभी सत्य का अनुसरण करना और उसे पाना सबसे महत्वपूर्ण है। जब मैंने यह सोचा, तो मेरे दिल में मुक्ति की भावना भर गई, और मुझे पता था कि शादी और बच्चे पैदा करने के इस मामले से कैसे निपटना है।
जब मैं समर्पित होने को तैयार हो गई, तो एक दिन अचानक एक रिश्तेदार ने मुझसे संपर्क किया, उसने कहा कि एक जगह मुफ्त में शरीर अनुकूलन की सुविधा मिल रही है, और उसने पूछा कि क्या मैं जाना चाहती हूँ। उस समय मैं अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त नहीं थी, इसलिए मैंने जाकर देखने का फैसला किया। कुछ महीनों बाद मेरी हालत में अप्रत्याशित रूप से सुधार हुआ। मैं जाँच के लिए अस्पताल गई और रिपोर्ट में पता चला कि रसौली सिकुड़कर तीन सेंटीमीटर की हो गई है। मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि एक भी पैसा खर्च किए बिना मेरी हालत सुधर जाएगी। मैंने तहे दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया। जब मैं शरीर अनुकूलन के लिए जा रही थी, मैंने देखा कि वहाँ ज्यादातर लोग बुजुर्ग पुरुष और महिलाएँ थे, और मैंने उनसे पूछा कि क्या उनकी देखभाल के लिए उनके बच्चे हैं। कुछ ने कहा कि उनके बच्चे न केवल उनकी देखभाल नहीं करते, बल्कि उन्हें अपनी पेंशन से अपने बच्चों की मदद भी करनी पड़ती है। कुछ, जो लगभग सत्तर साल के थे, अभी भी अपने पोते-पोतियों की देखभाल करते थे, उन्हें स्कूल से लाते और छोड़ते थे। वे बीमार होने से डरते थे क्योंकि उन्हें डर था कि उनके बच्चे उनसे नाराज़ हो जाएँगे, इसलिए वे अक्सर अनुकूलन के लिए आते थे। मुझे अचानक एहसास हुआ कि बच्चे पैदा करने का मतलब यह नहीं है कि आपकी देखभाल होगी, और असल में जब कोई व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है, तो उसे अपने बच्चों और पोते-पोतियों की देखभाल करनी पड़ सकती है। यह मेरे दिल को गहराई से छू गया।
एक दिन मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “बच्चों के पालन-पोषण का क्या तुक है? यह तुम्हारे अपने प्रयोजनों के लिए नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदारी और दायित्व है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। एक पहलू यह है कि बच्चों का पालन-पोषण करना मानवीय सहज ज्ञान से संबंधित है, जबकि दूसरा यह है कि यह इंसानी जिम्मेदारी का अंश है। तुम सहज ज्ञान और जिम्मेदारी के कारण बच्चों को जन्म देते हो, इस खातिर नहीं कि तुम अपने बुढ़ापे की तैयारी करो और बुढ़ापे में तुम्हारी देखभाल हो। क्या यह दृष्टिकोण सही नहीं है? (बिल्कुल।) क्या जिन लोगों के बच्चे नहीं हैं, वे बूढ़े होने से बच सकते हैं? क्या बूढ़े होने का अर्थ अनिवार्य रूप से दुखी होना है? जरूरी नहीं है, है ना? जिन लोगों के बच्चे नहीं हैं वे भी बुढ़ापे तक जी सकते हैं, कुछ तो स्वस्थ भी रहते हैं, अपने बुढ़ापे का आनंद लेते हैं, और शांति से कब्र में चले जाते हैं। क्या बच्चों वाले लोग निश्चित रूप से अपने बुढ़ापे में खुश और सेहतमंद रहने का आनंद लेते हैं? (जरूरी नहीं।) इसलिए, उम्र-दराज माता-पिता की सेहत, खुशी और जीवन स्थिति, साथ ही उनके भौतिक जीवन की गुणवत्ता का उनके बच्चों के उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखने से बहुत कम ही लेना-देना होता है, और दोनों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता। तुम्हारी जीने की स्थिति, जीवन की गुणवत्ता, और बुढ़ापे में शारीरिक दशा का संबंध उससे होता है, जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किया है, और जो जीने का माहौल तैयार किया है, इनका तुम्हारे बच्चों के संतानोचित निष्ठा रखने से कोई सीधा संबंध नहीं होता। तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हारी जीने की हालत की जिम्मेदारी उठाने को तुम्हारे बच्चे बाध्य नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (है।) ... तुम्हें अपने जीवन और जीवित रहने की जिम्मेदारी और बोझ खुद उठाना चाहिए, और इसे दूसरों, खास तौर से अपने बच्चों पर नहीं डालना चाहिए। तुम्हें अपने बच्चों के साथ या सहायता के बगैर खुद सक्रियता और सही ढंग से अपने जीवन का सामना करना चाहिए, और अपने बच्चों से दूर होने पर भी तुम्हें जीवन में आई तमाम चीजों का अपने आप सामना करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। “माता-पिता और उनके बच्चों के भाग्य में कितना साथ रहना नियत है, और माता-पिता अपने बच्चों से कितना कुछ पा सकते हैं—गैर-विश्वासी इसे ‘सहायता पाना’ या ‘सहायता न पाना’ कहते हैं। हम इसका अर्थ नहीं जानते। आखिरकार, कोई अपने बच्चों पर भरोसा कर सकता है या नहीं, यह सीधे शब्दों में कहें तो परमेश्वर द्वारा नियत और निर्धारित होता है। ऐसा नहीं है कि सब-कुछ तुम्हारी कामना के अनुसार होता है। बेशक, सभी चाहते हैं कि चीजें अच्छे ढंग से हों, और वे अपने बच्चों से लाभ पाएँ। लेकिन तुमने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि यह तुम्हारे भाग्य में है या नहीं या तुम्हारी नियति में लिखा हुआ है या नहीं? तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच का बंधन कितना लंबा चलेगा, जीवन में तुम जो भी काम करते हो क्या उसका तुम्हारे बच्चों से संबंध होगा, क्या परमेश्वर ने तुम्हारे बच्चों के लिए यह व्यवस्था की है कि वे तुम्हारे जीवन की अहम घटनाओं में सहभागी बनें, और क्या तुम्हारे जीवन में कोई बड़ी घटना होने पर इससे जुड़े लोगों में तुम्हारे बच्चे होंगे—ये सब परमेश्वर के निर्धारण पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर के विधान में यह न हो, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर वयस्क बनाने के बाद भले ही तुम उन्हें घर से बाहर न खदेड़ो, समय आने पर वे खुद ही छोड़कर चले जाएँगे। यह ऐसी चीज है जिसकी असलियत लोगों को जाननी चाहिए। अगर तुम इस बात की गहराई को नहीं समझते, तो हमेशा स्वार्थी इच्छाएँ और माँगें पकड़े रहोगे, और अपने शारीरिक सुख के लिए तरह-तरह के नियम बनाओगे और सोच के अलग-अलग तरीके अपना लोगे। अंत में क्या होगा? जब तुम्हारी मृत्यु होगी तो पता चल जाएगा। तुमने अपने जीवनकाल में बहुत-सी मूर्खतापूर्ण चीजें की हैं, बहुत-सी अवास्तविक चीजों के बारे में सोचा है जो तथ्यों या परमेश्वर के निर्धारण के अनुरूप नहीं हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि बच्चे पैदा करना एक मानवीय प्रवृत्ति और एक जिम्मेदारी भी है, और व्यक्ति को बुढ़ापे में अपनी देखभाल के लिए अपने बच्चों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। किसी के अंतिम वर्ष कैसे होंगे, इसमें अधिक कष्ट होगा या अधिक स्वास्थ्य और खुशी, यह इस बात से तय नहीं होता कि किसी के बच्चे हैं या नहीं, बल्कि परमेश्वर की पूर्वनियति से होता है। लोगों को अपनी क्षमताओं के भीतर अपने बुढ़ापे की जिम्मेदारी लेनी चाहिए, जीवन की चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना करना चाहिए और इन चीजों के लिए अपने बच्चों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं इस बात को लेकर चिंतित थी कि अगर मेरी हालत गंभीर हो गई और मेरा गर्भाशय निकाल दिया गया तो मैं बच्चे पैदा नहीं कर पाऊँगी। मुझे यह भी चिंता थी कि जब मैं बूढ़ी हो जाऊँगी या बीमार पड़ जाऊँगी तो मेरी देखभाल कौन करेगा। इसलिए मैं चिंता और तनाव की स्थिति में जीती रही। मैं जिस पारंपरिक विचार पर अड़ी रही, वह था, “बुढ़ापे में अपनी देखभाल के लिए बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करो,” जिसमें मेरे बच्चे पैदा करने का उद्देश्य मेरे बुढ़ापे में स्थिरता सुनिश्चित करना था, ताकि जब मैं बूढ़ी हो जाऊँ तो कोई मेरी देखभाल कर सके। मेरा ध्यान केवल अपने फायदे पर था, जिसका उद्देश्य उनसे माँगें पूरी करवाना था। यह पूरी तरह से स्वार्थी दृष्टिकोण था। इसके अलावा हर किसी का बुढ़ापा कैसे बीतेगा, यह परमेश्वर पहले ही तय कर चुका है, और इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि किसी के बच्चे हैं या नहीं। कुछ बुजुर्ग स्वस्थ हैं और उनके पास पेंशन है, लेकिन उनके बच्चे कर्ज में डूबे हुए हैं, इसलिए उन्हें न केवल अपने बच्चों की देखभाल की जरूरत नहीं है, बल्कि वे वास्तव में अपने बच्चों की मदद करते हैं। कुछ लोगों के लिए, बूढ़े होने और बीमार पड़ने के बाद, उनके बच्चों में मानवता की कमी होती है और वे उनकी देखभाल करने को तैयार नहीं होते, और जब वे बीमार पड़ते हैं, तो दूसरे रिश्तेदार उनकी देखभाल में मदद करते हैं। मैंने देखा कि बच्चे होने से सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलती। किसी का बुढ़ापा कैसे बीतता है और क्या उसके बच्चे उसका साथ देते हैं या उसकी देखभाल करते हैं, यह सब परमेश्वर की पूर्वनियति पर निर्भर करता है। यह सोचते हुए कि मेरा पति कहीं और काम करता है और मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, हालाँकि मेरी देखभाल के लिए मेरे साथ कोई नहीं था, मैंने बीमार और परेशान होने पर परमेश्वर पर भरोसा करना सीखा। यह परमेश्वर के वचन थे जिन्होंने मेरी कठिनाइयों में मेरा मार्गदर्शन किया। मेरे स्वास्थ्य में बहुत सुधार हुआ। यह सब परमेश्वर का अनुग्रह और दया थी। भले ही भविष्य में मेरे बच्चे न हों, मैं फिर भी परमेश्वर पर भरोसा करके अच्छी तरह से जी सकती हूँ। लेकिन मैं हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहती थी कि अगर भविष्य में मेरी देखभाल के लिए मेरे बच्चे नहीं हुए तो मैं क्या करूँगी, जिससे मैं तनाव और चिंता में जीती रही और मैं अपना कर्तव्य करने के लिए खुद को प्रेरित भी नहीं कर पाई। क्या यह सिर्फ खुद को दर्द देना और परमेश्वर की संप्रभुता पर भरोसा न करना नहीं था? मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी लेकिन उस पर भरोसा नहीं करती थी या उसकी संप्रभुता को नहीं समझती थी। मैं शैतान की पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जी रही थी। क्या मेरे विचार छद्म-विश्वासियों जैसे नहीं थे? इन बातों को समझने के बाद मुझे राहत महसूस हुई। मुझे भविष्य के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए, और मुझे खुद को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए। चाहे मेरे अंतिम वर्ष कैसे भी हों, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी। परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना और उद्धार का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण बात है, और सबसे यथार्थवादी भी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अगर तुम अपने जीवन के सबसे अच्छे साल कोई अच्छी नौकरी खोजने या जीवनसाथी की तलाश करने के बारे में सोचते हुए, परमेश्वर में विश्वास रखते हुए देह-सुख वाले जीवन का आनंद लेने की आशा करते हुए या फिर एक ही समय में दोनों कार्य करने के बारे में सोचते हुए बिता दोगे, तो कुछ सालों के बाद, शायद तुम्हें कोई जीवनसाथी मिल जाए, तुम शादी कर लोगे, बच्चे पैदा कर लोगे, एक घर और करियर भी बना लोगे, मगर इन सालों में तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से कुछ भी हासिल नहीं होगा, तुम्हें कोई सत्य प्राप्त नहीं होगा, तुम्हें अपने दिल में खोखलापन महसूस होगा, और तुम्हारे सबसे अच्छे साल यूँ ही बीत चुके होंगे। चालीस साल की उम्र में जब पीछे मुड़कर देखोगे, तो तुम्हारा एक परिवार होगा, बच्चे होंगे, तुम अकेले नहीं होगे, लेकिन तुम्हें अपने परिवार का भरण-पोषण करना होगा। यह एक ऐसा बंधन है जिससे तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो तुम्हें अपने परिवार के बंधनों में जकड़े रहकर ऐसा करना होगा। तुम्हारा दिल कितना भी बड़ा क्यों न हो, तुम दोनों पर ध्यान नहीं दे सकते—तुम न तो पूरे दिल से परमेश्वर का अनुसरण कर पाओगे और न ही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे। ऐसे बहुत से लोग हैं जो परिवार और सांसारिक चीजों को त्याग देते हैं, लेकिन कुछ सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी वे केवल शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते रहते हैं। उन्हें न तो सत्य प्राप्त होता है और न ही उनके पास कोई वास्तविक अनुभव की गवाही होती है। यह उनके लिए अपना समय बर्बाद करना ही तो है। अब अपना कर्तव्य निभाते समय उन्हें किंचित-मात्र भी सत्य समझ नहीं आता और जब उनके साथ कुछ घटता है तो वे उसका अनुभव करना नहीं जानते—वे सिसकने लगते हैं, उन्हें बहुत पछतावा होता है। जब वे अपने शुरुआती दिनों के बारे में सोचते हैं, कलीसियाई जीवन एक साथ मिलकर जीने वाले, अपना कर्तव्य निभाने वाले, मिलकर परमेश्वर के भजन गाने और उसकी स्तुति करने वाले बहुत से युवाओं के बारे में सोचते हैं, तब उन्हें एहसास होता है कि वे कितने अच्छे दिन थे, और वे उस समय में लौटने के लिए बेचैन हो जाते हैं! दुर्भाग्य से, इस दुनिया में पछतावे का कोई इलाज नहीं है। कोई चाहे भी तो समय को वापस नहीं मोड़ सकता है। शुरुआती दिनों में वापस जाने और फिर से जीवन जीने का कोई रास्ता नहीं है। इसीलिए, एक बार जो मौका हाथ से निकल जाता है, वह दोबारा नहीं आता। एक व्यक्ति का जीवन केवल कुछ दशकों का होता है, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के इस सबसे सही समय को खो देते हो, तो तुम्हारा पछतावा किसी काम नहीं आएगा। ... अभी, तुम इस महान क्षण के लिए बिल्कुल सही समय पर हो—परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय कार्य कर रहा है। यह लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का एकमात्र अवसर है। परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने के इस अहम पल में तुम सब लोग अपना-अपना कर्तव्य निभा रहे हो। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा असाधारण उत्कर्ष है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने किस क्षेत्र में पढ़ाई की है, तुम्हें किस क्षेत्र का ज्ञान है या तुम्हारे पास कौन-सी खूबी या विशेषज्ञता है; चाहे जो भी हो, परमेश्वर तुम्हें अपने घर में उस विशेषज्ञता का उपयोग करके कर्तव्य निभाने की अनुमति देकर अनुग्रह दिखा रहा है। ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है)। अंत के दिनों में मानवजाति के लिए परमेश्वर का उद्धार अंतिम अवसर है। दूसरा या तीसरा मौका नहीं मिलेगा। खासकर अब, लोगों को बचाने और पूर्ण बनाने के लिए परमेश्वर द्वारा सत्य व्यक्त करने का यह एक महत्वपूर्ण समय है। यह कि मैं अपने जीवन की इतनी अच्छी उम्र में परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर सकी, कि मैं बिना किसी बोझ या उलझन के, पूर्णकालिक रूप से अपना कर्तव्य निभा सकी हूँ, और अपने कर्तव्यों में सत्य और स्वभाव में बदलाव का अनुसरण भी कर सकी, यह सचमुच परमेश्वर का अनुग्रह है। मुझे अपना सबसे अच्छा समय और ऊर्जा सुसमाचार का प्रचार करने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने में समर्पित करना चाहिए। अगर मैं बच्चा पैदा करूँ तो, यह देखते हुए कि मेरे माता-पिता पहले ही गुजर चुके हैं, और मेरे सास-ससुर और पति परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो बच्चे की देखभाल करने में कोई मेरी मदद नहीं करेगा, और मुझे खुद ही उसकी देखभाल करनी पड़ेगी। मेरा सारा ध्यान मेरे बच्चे पर ही होगा, और इससे मुझ पर और भी बोझ और उलझनें आ जाएँगी। मेरे पास सत्य का अनुसरण करने या अपने कर्तव्य निभाने के लिए बहुत कम समय या ऊर्जा होगी। अगर मैं अपना सारा सबसे अच्छा समय और ऊर्जा बच्चे पैदा करने में लगा देती हूँ, तो मैं परमेश्वर द्वारा मुझे पूर्ण बनाए जाने का यह सबसे अच्छा अवसर गँवा दूँगी। अंत में, मैं न तो सत्य पाऊँगी और न ही अपने कर्तव्य पूरे कर पाऊँगी, मैं उद्धार का अपना मौका गँवा दूँगी, और तब तक पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जो मेरे दिल को गहराई से छू गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अविश्वासियों को यह समझ नहीं आता कि कोई व्यक्ति अपने जीवन में सबसे सार्थक काम क्या कर सकता है, लेकिन तुम लोग तो इस बारे में थोड़ा-बहुत समझते हो, है ना? (हाँ।) परमेश्वर का आदेश स्वीकारना और अपना लक्ष्य पूरा करना—ये सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। आज तुम लोग जो कर्तव्य निभा रहे हो वे मूल्यवान हैं! हो सकता है कि तुम्हें फिलहाल उनके नतीजे दिखाई न दें, यह भी हो सकता है कि तुम्हें फिलहाल उनके बड़े प्रभाव न दिखें, लेकिन उनका फल मिलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। यदि यह काम अच्छी तरह कर लिया गया तो लंबे समय में मानवजाति के लिए इसके योगदान को पैसों से मापना असंभव होगा। ऐसी सच्ची गवाहियाँ किसी भी अन्य चीज से अधिक कीमती और मूल्यवान हैं और वे अनंत काल तक बनी रहेंगी। ये परमेश्वर का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के अच्छे कर्म हैं, और ये याद रखने योग्य हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने, सत्य का अनुसरण करने और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने के अलावा मनुष्य के जीवन में सब कुछ खोखला है और याद न रखने योग्य है। भले ही तुमने धरती को हिला देने वाला कारनामा किया हो, भले ही तुम अंतरिक्ष में गए हो और चंद्रमा तक जा चुके हो; भले ही तुमने ऐसी वैज्ञानिक प्रगति की हो जिससे मानवजाति को कुछ लाभ या मदद मिली हो, यह सब क्षणभंगुर है और ये सभी चीजें नष्ट हो जाएँगी। ऐसी एकमात्र चीज कौन-सी है जो कभी नष्ट नहीं होगी? (परमेश्वर के वचन।) केवल परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की गवाहियाँ, वे सभी गवाहियाँ और कार्य जो सृष्टिकर्ता की गवाही देते हैं और लोगों के अच्छे कर्म नष्ट नहीं होंगे। ये चीजें हमेशा रहेंगी और ये बहुत मूल्यवान हैं। इसलिए अपनी सभी सीमाएँ तोड़ दो, इस महान प्रयास को अंजाम दो और खुद को किसी भी व्यक्ति, घटनाओं और चीजों से बाधित मत होने दो; ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाओ, और अपनी सारी ऊर्जा और हृदय का रक्त अपने कर्तव्य निभाने में लगाओ। यही वह चीज है जिसे परमेश्वर सबसे अधिक आशीष देता है और इसके लिए किसी भी हद तक कष्ट उठाना सार्थक है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सृजित प्राणी का कर्तव्य उचित ढंग से निभाने में ही जीने का मूल्य है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना, राज्य के सुसमाचार के विस्तार के लिए अपनी शक्ति अर्पित करना और अधिक लोगों को परमेश्वर के सामने लाना, सबसे सम्मानजनक और परमेश्वर की सबसे अधिक स्वीकृति पाने वाली बातें हैं। पाठ-आधारित कर्तव्य कर पाना, और लोगों पर परमेश्वर के कार्य के नतीजों की गवाही देने के लिए अच्छे अनुभवजन्य गवाही के अधिक लेखों को चुन पाना, जिससे अधिक लोग परमेश्वर को जान सकें और उसके सामने लौट सकें, यह परमेश्वर की गवाही देना है, ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर स्वीकृति देता है, और इसमें मैं जो भी कष्ट सहती हूँ, वह सार्थक है। परमेश्वर का मानवजाति को बचाने का कार्य समाप्त होने वाला है और महा विनाश पहले ही शुरू हो चुका है। मैं यह भी नहीं जानती थी कि कल क्या होगा या आपदा कब आएगी, फिर भी मैं भविष्य के लिए योजना बना रही थी और बुढ़ापे में अपनी देखभाल के लिए बच्चे पैदा करने के बारे में सोच रही थी। भविष्य को लेकर मेरे सारे तनाव और चिंताएँ फिजूल हैं। अब मैं बिना किसी बोझ या उलझन के, पूर्णकालिक रूप से अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ। अपने कर्तव्य निभाते हुए मैं सत्य का अनुसरण और स्वभाव में बदलाव का प्रयास भी कर सकती हूँ। यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है। मुझे सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के इस मौजूदा अवसर को सँजोना चाहिए, और अपनी सारी ऊर्जा और समय अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की गवाही देने में लगाना चाहिए। अगर मैं कुछ सत्य समझ सकूँ और परमेश्वर द्वारा बचाई जा सकूँ, तो मेरा जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा। इन बातों को समझने के बाद, मैंने अपने दिल के तनाव और चिंताओं को छोड़ दिया, और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए जीने की मेरी आस्था और बढ़ गई। परमेश्वर का धन्यवाद!