29. मैं अब क्लेश से नहीं घबराती

लियु जी, चीन

अगस्त 2023 में मैं एक कलीसिया में अगुआ थी। 29 तारीख को उच्च अगुआओं का एक पत्र आया। उसमें कहा गया था कि हाल के दिनों में सीसीपी ने दो नजदीकी कलीसियाओं को गिरफ्तारी के लिए निशाना बनाया है और कई भाई-बहनों को गिरफ्तार किया गया है। उन्होंने पूछा कि क्या मुझे वहाँ की स्थिति के बारे में पता है। पत्र पढ़कर मुझे झटका लगा, “इतने सारे भाई-बहनों को फिर से कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है? अगुआओं ने शायद पत्र यह देखने के लिए भेजा है कि क्या मैं वहाँ जाकर बाद की स्थिति को संभाल सकती हूँ। हालाँकि मैं वहाँ की स्थिति को नहीं समझती थी, लेकिन मुझे बाद की स्थिति को संभालने का कुछ पिछला अनुभव है। अगर वहाँ मेरा जाना हुआ तो मैं यह कार्य कर पाऊँगी। इसके अलावा चूँकि वहाँ की कलीसियाओं से बहुत से भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया है, इसलिए बाद की स्थिति से निपटने के लिए लोगों को ढूँढ़ना मुश्किल होगा।” लेकिन फिर मेरे मन में एक दूसरा विचार आया, “बाद की स्थिति से निपटना बहुत खतरनाक है। पुलिस मुझे ढूँढ़ रही है। अगर मैं वहाँ गई तो मुझे भी गिरफ्तार किया जा सकता है। वैसे भी मुझे वाकई समझ नहीं आ रहा है कि उन कलीसियाओं में चल क्या रहा है और इसके अलावा अगुआओं ने मेरे जाने की व्यवस्था भी नहीं की है। सबसे अच्छा तो यह है कि मैं इस कार्य के लिए स्वेच्छा से आगे न आऊँ।” इसलिए मैंने जवाब दिया कि मैं वहाँ कभी नहीं गई हूँ और स्थिति को नहीं समझती हूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरे पत्र भेजते ही उच्च अगुआओं का दूसरा पत्र आ जाएगा। उसमें कहा गया था कि मुझे उन दो कलीसियाओं में जाकर बाद की स्थिति से निपटना चाहिए। अगुआओं ने उन सत्रह लोगों की सूची भी दे दी जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। कलीसिया अगुआओं और महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने वाले कई अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था। पत्र में उच्च अगुआओं ने बाद की स्थिति से निपटने के लिए मेरे साथ कुछ मार्गों के बारे में संगति भी की, मुझे वहाँ जाकर बहन झोउ ना का पता लगाने और उसके साथ कार्य करने को कहा और आग्रह किया कि मैं परमेश्वर से अधिक से अधिक प्रार्थना करूँ और अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखूँ। यह पढ़कर मेरा दिल बहुत असहज हो गया। मैंने विचार किया कि इन कलीसियाओं के कितने सारे भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया है, इसलिए बाद की स्थिति को संभाल पाने वाले बहुत कम लोग हैं। मुझे इस बारे में कुछ अनुभव था और मैं इस कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त थी, लेकिन मैंने खुद को अलग रखने का विकल्प चुना क्योंकि मुझे अपनी सुरक्षा की चिंता थी और गिरफ्तारी से डरती थी और जब तक मुझे विशेष रूप से नहीं कहा गया, मैं यह कार्य करने को तैयार नहीं थी। जब चीजें मेरे सिर पर आ पडीं तो मैंने सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचा—मैंने कलीसिया के हितों के बारे में जरा भी विचार नहीं किया। मैं बहुत स्वार्थी थी! इसलिए मैंने अगुआओं को लिख दिया कि मैं बाद की स्थिति को संभालने के लिए तैयार हूँ। लेकिन फिर मैंने सोचा, “इन दोनों कलीसियाओं के ज्यादातर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है। अगर उनमें से कुछ लोग यातना नहीं सह पाए और यहूदा बन गए और अगर मैं वहाँ चली गई तो क्या मैं सीधे गिरफ्तार नहीं हो जाऊँगी? सीसीपी खुद मुझे तलाश रही है, इसलिए अगर मैं गिरफ्तार हो गई तो यकीनन मुझे दूसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा यातनाएँ दी जाएँगी। अगर मुझे पीट-पीटकर नहीं मारा गया तो मैं विकलांग तो हो ही जाऊँगी।” यह सोचकर मन ही मन मैं काफी डर गई। लेकिन कर्तव्य पुकार रहा था और मैं स्वार्थी और नीच बनकर केवल अपने बारे में नहीं सोच सकती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और विनती की कि वह मेरा मार्गदर्शन करे। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “अपने कर्तव्य और जो तुम्हें करना है, और उससे भी बढ़कर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और तुम्हारे दायित्व, साथ ही वह महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे कर्तव्य से बाहर है, मगर उसे पूरा करने में तुम्हारी जरूरत है, ऐसे कार्य जिसकी व्यवस्था तुम्हारे लिए हुई है और जिसे करने के लिए तुम्हें नामित किया गया है—यह कितना भी कठिन क्यों न हो, तुम्हें इसकी कीमत चुकानी चाहिए। भले ही तुम्हें अपनी पूरी शक्ति से इसमें जुट जाना हो, भले ही उत्पीड़न सामने मंडरा रहा हो, और भले ही इससे तुम्हारा जीवन जोखिम में पड़ जाए, तुम्हें यह कीमत चुकाने में संकोच न करते हुए अपनी मृत्यु तक अपनी वफादारी दिखाकर समर्पण करना है। वास्तविकता में, अपनी वास्तविक खपत और अपने वास्तविक अभ्यास में सत्य का अनुसरण इस प्रकार अभिव्यक्त होता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि कर्तव्य की पुकार परमेश्वर की ओर से मेरी परीक्षा है। परमेश्वर अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया देखना चाहता था और देखना चाहता था कि क्या उसमें मेरी आस्था और उसके प्रति समर्पण है। हालाँकि बाद की स्थिति को संभालना खतरनाक था, लेकिन इस कर्तव्य को निभाने के लिए मेरा नाम लेकर मुझे बुलाया गया था। मुझे यह कर्तव्य अच्छे से निभाना था, फिर भले ही इसके लिए मुझे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। सबसे महत्वपूर्ण चीज यह थी कि परमेश्वर के चढ़ावे को नुकसान पहुँचने से बचाना था। मैंने विचार किया कि परमेश्वर के घर ने इन वर्षों में मुझे सींचा और विकसित किया था। अब इस महत्वपूर्ण मोड़ पर मुझे कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी थी। मैं खुद पर विचार करते हुए कछुए की तरह अपनी खोल में सिमटी नहीं रख सकती थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैं एक सृजित प्राणी हूँ, तुम्हारे प्रति समर्पित होना पूरी तरह से न्यायसंगत और उचित है। मुझे अपनी पसंद और अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए। भले ही मैं कमजोर हूँ, लेकिन मैं तुम्हारे इरादे के प्रति विचारशील होने को तैयार हूँ और मैं अपने कर्तव्य में कोई पछतावा नहीं छोड़ना चाहती। तुम मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करो।”

31 अगस्त को मैं अपने पास की एक कलीसिया में पहुँचकर झोउ ना से मिली। मैंने झोउ ना को यह कहते सुना कि सीसीपी ने इस अवसर पर भाई-बहनों को गिरफ्तार करने के लिए कई पुलिस अधिकारियों को भेजा था। दो अगुआ, सुसमाचार उपयाजक और मेजबान सभी को गिरफ्तार कर लिया गया था। एक भी सुरक्षित घर नहीं बचा था। मैंने मन ही मन सोचा, “इतने सारे लोग गिरफ्तार हो गए हैं। लगता है पुलिस लंबे समय से उनका पीछा कर रही है और उन पर नजर रख रही है। यहाँ कर्तव्य निभाना बहुत ही खतरनाक है!” यह सोचकर मैं मन ही मन काफी डर गई। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “शैतान चाहे जितना भी ‘ताकतवर’ हो, चाहे वह जितना भी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो, चाहे नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता जितनी भी बड़ी हो, चाहे मनुष्य को भ्रष्ट करने और लुभाने की उसकी तकनीकें जितनी भी व्यापक हों, चाहे मनुष्य को डराने की उसकी तरकीबें और साजिशें जितनी भी चतुराई से भरी हों, चाहे उसके अस्तित्व के रूप जितने भी परिवर्तनशील हों, वह कभी एक भी जीवित चीज सृजित करने में सक्षम नहीं हुआ, कभी सभी चीजों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाएँ या नियम निर्धारित करने में सक्षम नहीं हुआ, और कभी किसी सजीव या निर्जीव चीज पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं हुआ। ब्रह्मांड और आकाश के भीतर, एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उससे पैदा हुई हो, या उसके कारण अस्तित्व में हो; एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उसके द्वारा शासित हो, या उसके द्वारा नियंत्रित हो। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन रहना है, बल्कि, परमेश्वर के सभी आदेशों और आज्ञाओं के प्रति समर्पण करना है। परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान के लिए जमीन पर पानी की एक बूँद या रेत का एक कण छूना भी मुश्किल है; परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान धरती पर चींटियों का स्थान बदलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की तो बात ही छोड़ दो(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था दी। परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है और सभी पर संप्रभु है। शैतान भी परमेश्वर के हाथों में है। शैतान चाहे कितना भी अनियंत्रित क्यों न हो जाए, परमेश्वर की अनुमति के बिना वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मेरा गिरफ्तार होना या न होना परमेश्वर के हाथों में है। अगले दिन झोउ ना और मैं उन लोगों का पता लगाने निकले जिनके पास कलीसिया के चढ़ावे और सामान की सुरक्षा थी। एकमत होकर हमने परमेश्वर से प्रार्थना की और चर्चा की कि कैसे मिलकर कार्य किया जाए। कुछ ही दिनों में हमने कलीसिया के सामान और चढ़ावे को सुरक्षित रूप से वहाँ से हटा दिया था। मैंने परमेश्वर की सुरक्षा और अगुआई देखी और अपने दिल में मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।

इसके तुरंत बाद झोउ ना और मैं दूसरी कलीसिया गए। इस कलीसिया के लगभग सभी अगुआ और उपयाजक गिरफ्तार हो चुके थे। केवल सुसमाचार उपयाजक ही गिरफ्तारी से बच पाया था, ऐसा कोई घर नहीं बचा था जहाँ हम आराम से सिर छिपा सकें। सुसमाचार उपयाजक से मिलकर कार्य पर चर्चा करने के लिए हमारे पास मकई के खेत या पहाड़ियों के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उस समय कार्य में कई कठिनाइयाँ थीं और हम उन सभी को एक साथ नहीं सुलझा सकते थे। मुझे अपने दिल में कमजोरी महसूस हुई, मैं कठिनाइयों के बीच जी रही थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करे। प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “सबसे बड़ी बुद्धिमानी परमेश्वर की तरफ देखना और सभी बातों में परमेश्वर पर भरोसा करना है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए)। मेरा दिल अचानक रोशन हो उठा, “हाँ, मुझे परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। परमेश्वर के पास स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों को नियंत्रित करने का अधिकार और सामर्थ्य है। अगर मैं परमेश्वर पर भरोसा रखूँ तो कुछ भी हासिल करना मुश्किल नहीं है।” परमेश्वर के वचन मेरे लिए जीवनरेखा की तरह थे जो मुझे आस्था और शक्ति देते थे। मैंने सोचना शुरू किया कि सुरक्षित मेजबान घर के बिना क्या करूँ। फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं किसी बहन को घर किराए पर देने को कहूँ तो क्या हमारे पास रहने और कार्य पर चर्चा करने के लिए जगह नहीं हो जाएगी? मैंने फौरन झोउ ना को इस विचार के बारे में बताया। हम दोनों सहमत हो गए और उसी दिन इस बारे में संगति करने के लिए एक बहन को ढूँढ़ने चले गए। लेकिन उस समय अभी भी मेरे मन में कुछ शंकाएँ थीं। परिवेश इतना खतरनाक था—क्या बहन सहमत होगी? मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह कहेगी कि वह हमारी मेजबानी के लिए घर किराए पर देने की योजना बना रही है। हैरानी की बात है कि हमने भी यही सोचा था। मैं बेहद भावुक हो गई। हम दोनों ने कृतज्ञता में बहन का हाथ थामा और अनायास ही आँसू बह निकले। मैं गहराई से समझ गई कि यह सब परमेश्वर की अगुआई है। अपनी सबसे बड़ी कमजोरी, सबसे बड़ी कठिनाई और सबसे बुरी पीड़ा के समय मैंने परमेश्वर पर भरोसा किया और परमेश्वर के हाथ देखे; मैंने देखा कि परमेश्वर ने पहले से ही एक मेजबान उम्मीदवार तैयार करके, हमारे लिए आगे का मार्ग खोला और अपने कार्य की रक्षा की। मैं मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद देती रही। बाद में मुझे पता चला कि सामान्य मामलों की उपयाजक लिन शी को गिरफ्तार कर लिया गया, उसके बेटे ने कुछ पैसे खर्च किए और एक संपर्क से उसे जमानत पर रिहा करवाने के लिए कहा। लिन शी ने बताया कि पुलिस ने उसे प्रताड़ित किया था। उन्होंने उसे घूँसे, लात और थप्पड़ मारे और बिजली के डंडे से झटके दिए। उन्होंने उस पर सरसों का तेल भी डाला, ठंडा पानी छिड़का और फिर उसे गर्म पानी से जलाया। उसे इतनी बुरी तरह से पीटा गया था कि उसके चेहरे पर नील पड़ गई थी। हाथों में हथकड़ी इतनी कसकर लगाई गई थी कि उसके मांस में गहरे गड़ गई थी और निकल नहीं पा रही थी। मैंने यह भी सुना कि कलीसिया अगुआ बहन ली शुआंग को इतनी बुरी तरह पीटा गया था कि वह पहचान में नहीं आ रही थी। जब मैंने यह सब सुना तो मैं दिल में बहुत डर गई। मुझे पूरा शरीर शिथिल महसूस हो रहा था, मेरा दिल इतना दर्द में था मानो किसी ने उसमें चाकू घोंप दिया हो। मैंने सोचा, “मैं बाद की स्थिति को संभाल रही हूँ, इसलिए कभी-कभी मुझे व्यक्तिगत रूप से चढ़ावे और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करना पड़ता है। यहाँ अपना कर्तव्य निभाना पुलिस की नाक के नीचे से चढ़ावा छीनने जैसा है। आजकल हर जगह कैमरे और सीसीटीवी लगे हुए हैं और पुलिस मुझे ढूँढ़ रही है। मुझे कभी भी गिरफ्तार किए जाने का खतरा है। परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करते समय अगर मुझे रास्ते में गिरफ्तार कर लिया गया तो वे मुझे कैसे प्रताड़ित करेंगे? लिन शी 78 साल की बूढ़ी है, फिर भी वे उसे बेरहमी से पीट-पीटकर अधमरा कर डालते हैं। अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया तो पता नहीं पुलिस मुझे क्या यातनाएँ देगी। क्या मुझे पीट-पीटकर मार नहीं डाला जाएगा? पता नहीं मैं जेल से जिंदा बाहर भी आ पाऊँगी या नहीं। अगर मैं यातना सहन न कर पाई और यहूदा बन गई तो परमेश्वर में विश्वास रखने का मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा और मुझे उद्धार का कोई मौका नहीं मिलेगा।” मैं जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही ज्यादा डर जाती। मेरे शरीर में कोई ताकत नहीं बची थी और मुझे कुछ पछतावा भी हुआ, “अब मैं वाकई मुसीबत में हूँ। मैंने इस कर्तव्य को इतनी हड़बड़ी में स्वीकारने से पहले ठीक से सोचा क्यों नहीं? मैं इतनी मूर्ख कैसे हो सकती हूँ?” मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा गलत है और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैंने सुना है कि बड़े लाल अजगर ने कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया है, बहनों को इतना पीटा है कि वे पहचान में ही नहीं आ रही हैं और उन्हें हर तरह से प्रताड़ित किया गया है। मेरा दिल कमजोर और डरा हुआ है और मैं बुजदिली में जी रही हूँ। प्रिय परमेश्वर, तुमसे विनती है कि मेरी अगुआई और मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे आस्था और शक्ति दो ताकि मैं सीसीपी के अंधेरे प्रभाव से न डरूँ!”

प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति याद आई : “चाहे किसी व्यक्ति को अपना जीवन क्यों न बलिदान करना पड़े, फिर भी उसे परमेश्वर के आदेशों को पूरा करना चाहिए।” मैंने पढ़ने के लिए यह अंश देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हें परमेश्वर के आदेशों से कैसे पेश आना चाहिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो तुम्हें सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंड स्वीकारना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्य परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेशों कोपूरा करें। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को हल्के में लेते हो, तो यह परमेश्वर के साथ भयंकर विश्वासघात है। इसमें तुम यहूदा से भी अधिक निंदनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के आदेशों को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझ होनी चाहिए : परमेश्वर मनुष्य को जो आदेश देता है, वह मनुष्य को परमेश्वर से मिला उत्कर्ष है, उसके द्वारा मनुष्य पर बरसाया गया विशेष अनुग्रह है, और यह सबसे शानदार चीज है। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है, यहाँ तक कि अपना जीवन भी लेकिन परमेश्वर के आअदेशों को पूरा किया जाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो समझ आया कि कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को दिया गया एक आदेश है और एक जिम्मेदारी है जिसे लोग किसी भी तरह से नकार नहीं सकते। यदि तुम इसे पूरा नहीं कर सकते तो तुम जीने लायक नहीं हो। मैंने अतीत के संतों के बारे में सोचा। परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए उन्होंने दुनिया के सभी हिस्सों में परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार किया। भले ही उनका खून बहा हो और उन्होंने अपनी जान दे दी हो, लेकिन वे कभी भी शैतान की ताकतों के आगे नहीं झुके। वे बिना किसी हिचकिचाहट या संदेह के परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते रहे। लेकिन जब यह कर्तव्य मुझ पर आया तो मैंने इसे एक सम्मानजनक चीज के रूप में नहीं देखा। इसके बजाय मैं बुजदिल बनकर जीती रही क्योंकि मुझे गिरफ्तारी का डर था। मैं सिर्फ अपने हितों, लाभों और हानियों के बारे में सोचती थी। जब मुझ पर खतरा आया तो मैं भाग जाना चाहती थी। जब मैं असल में गिरफ्तार भी नहीं हुई थी और मुझे यातना भी नहीं दी गई थी, तब भी मुझे इस कर्तव्य को स्वीकारने पर पछतावा होने लगा था, मैंने अपने दिल में पहले ही परमेश्वर को धोखा दे दिया था। पिछले युगों के संतों की तुलना में मैं सच में शर्मिंदा थी! परमेश्वर के इतने सारे वचनों को पढ़े बिना भी वे ऐसी गवाही देने में सक्षम थे, लेकिन मैं तो बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखती आई थी और परमेश्वर के बहुत सारे वचन खाए और पिए थे, लेकिन महत्वपूर्ण क्षण में मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं हुई और अपने कर्तव्य निर्वहन में कोई वफादारी नहीं दिखाई। मुझमें अंतरात्मा और मानवता बिल्कुल नहीं थी!

मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी बेहद स्वार्थी और घिनौने होते हैं। उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था नहीं होती, परमेश्वर के प्रति निष्ठा तो बिल्कुल नहीं होती; जब उनके सामने कोई मसला आता है तो वे केवल अपना बचाव और अपनी सुरक्षा करते हैं। उनके लिए अपनी सुरक्षा से ज्यादा जरूरी और कुछ नहीं है। अगर वे जिंदा रह सकें और गिरफ्तार न हों तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि कलीसिया के काम को कितना नुकसान हुआ है। ये लोग बेहद स्वार्थी हैं, वे भाई-बहनों के बारे में या कलीसिया के काम के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते, सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोचते हैं। वे मसीह-विरोधी हैं। तो ऐसी चीजें जब उन लोगों के साथ घटती हैं जो परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हैं और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं तो वे इन्हें कैसे सँभालते हैं? वे जो करते हैं वह मसीह-विरोधियों के काम से किस तरह अलग है? (जब ऐसी चीजें उन लोगों के साथ घटती हैं जो परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हैं तो वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने, परमेश्वर के चढ़ावे को नुकसान से बचाने के लिए हर तरीके के बारे में सोचेंगे और वे नुकसान को कम करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं और भाई-बहनों के लिए जरूरी व्यवस्थाएँ भी करेंगे। जबकि मसीह-विरोधी सबसे पहले यह सुनिश्चित करते हैं कि वे सुरक्षित रहें। वे कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सुरक्षा के बारे में चिंता नहीं करते और जब कलीसिया को गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ता है तो इससे कलीसिया के कार्य को नुकसान होता है।) मसीह-विरोधी कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चढ़ावे को छोड़कर भाग जाते हैं और वे गिरफ्तारी के बाद की स्थिति को सँभालने के लिए लोगों की व्यवस्था नहीं करते। यह बड़े लाल अजगर को परमेश्वर के चढ़ावे और उसके चुने हुए लोगों को अपने कब्जे में लेने की अनुमति देने के समान है। क्या यह परमेश्वर के चढ़ावे और उसके चुने हुए लोगों के साथ गुप्त विश्वासघात नहीं है? जब वे लोग जो परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं, स्पष्ट रूप से जानते हैं कि परिवेश खतरनाक है, तब भी वे गिरफ्तारी के बाद का कार्य सँभालने का जोखिम उठाते हैं और खुद को बचाने से पहले वे परमेश्वर के घर को होने वाले नुकसान को न्यूनतम कर जाते हैं। वे अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं देते। मुझे बताओ, बड़े लाल अजगर के इस दुष्ट राष्ट्र में कौन यह सुनिश्चित कर सकता है कि परमेश्वर में विश्वास करने और कर्तव्य करने में कोई भी खतरा न हो? चाहे व्यक्ति कोई भी कर्तव्य निभाए, उसमें कुछ जोखिम तो होता ही है—लेकिन कर्तव्य का निर्वहन परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश है और परमेश्वर का अनुसरण करते हुए व्यक्ति को अपना कर्तव्य निभाने का जोखिम उठाना ही चाहिए। इसमें व्यक्ति को बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए और अपनी सुरक्षा के इंतजाम करने की भी आवश्यकता होती है, लेकिन उसे अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा को पहला स्थान नहीं देना चाहिए। उसे पहले परमेश्वर के इरादों पर विचार करना चाहिए, उसके घर के कार्य और सुसमाचार के प्रचार को सबसे ऊपर रखना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश सौंपा है, उसे पूरा करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और यह सबसे पहले आता है। मसीह-विरोधी अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं; उनका मानना है कि किसी और चीज का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। जब किसी दूसरे के साथ कुछ होता है तो वे परवाह नहीं करते, चाहे वह कोई भी हो। जब तक खुद मसीह-विरोधियों के साथ कुछ बुरा नहीं होता, तब तक वे आराम से बैठे रहते हैं। वे निष्ठारहित होते हैं, जो मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से निर्धारित होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर के वचन मसीह-विरोधियों की स्वार्थी और घृणित प्रकृति को उजागर करते हैं। मुझे एहसास हुआ कि जब बड़े लाल अजगर की गिरफ्तारियों के खतरनाक परिवेश का असर मसीह विरोधियों पर पड़ता है तो वे हर मौके पर खुद को सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं। वे अपनी सुरक्षा को सबसे पहले रखते हैं और कभी भी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते। वे अपनी सुरक्षा की खातिर परमेश्वर के चढ़ावे को भी त्याग देते हैं। परमेश्वर के वचनों के संयोजन में मैंने इसकी तुलना उससे की जो मैंने प्रकट किया था और पाया कि मैं भी मसीह विरोधी के समान ही हूँ। जब मैंने सुना कि गिरफ्तारियों की इस लहर में पुलिस ने बहुत से अधिकारियों को संगठित किया है, गिरफ्तार किए गए भाई-बहनों को तरह-तरह की यातनाएँ दी गई हैं, ली शुआंग को इस बुरी तरह से पीटा गया है कि वह पहचान में नहीं आ रही है और उन्होंने 78 साल की लिन शी को भी नहीं छोड़ा, तो मुझे डर लगा कि बाद की स्थिति से निपटने के दौरान कहीं मैं पुलिस के हाथों में न पड़ जाऊँ और अगर मुझे पीट-पीटकर मार नहीं डाला गया तो मैं विकलांग तो हो ही जाऊँगी। अगर मैं यातना न सह पाई और यहूदा बन गई तो मैं बचाई नहीं जा पाऊँगी। मैं बुजदिली और भय में जी रही थी, बल्कि इस कर्तव्य को स्वीकारने पर पछता रही थी। जब मुझ पर खतरा आया तो मैं बस खुद को सुरक्षित रखना चाहती थी। मैंने भाई-बहनों की सुरक्षा के बारे में नहीं सोचा और यह भी विचार नहीं किया कि कहीं परमेश्वर के चढ़ावे को बड़े लाल अजगर द्वारा जब्त तो नहीं कर लिया जाएगा। ऐसा लग रहा था कि जब तक कि मैं खुद गिरफ्तार नहीं हो जाती, तब तक मुझे परवाह ही नहीं है कि कौन गिरफ्तार हुआ है। मैंने कलीसिया के कार्य की बिल्कुल भी सुरक्षा नहीं की। मैं बहुत ही स्वार्थी और नीच थी! मैंने विचार किया कि बड़े लाल अजगर के देश में रहकर अगर हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं या कोई कर्तव्य निभाते हैं तो हमें गिरफ्तारी का खतरा है, लेकिन परमेश्वर इस परिवेश का उपयोग हमारी परीक्षा लेने और हमारी आस्था को पूर्ण करने के लिए करता है। जो लोग खतरनाक परिवेश में अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं करते, परमेश्वर के चढ़ावों की रक्षा करते हैं, भाई-बहनों की रक्षा करते हैं, वही लोग कलीसिया के कार्य की रक्षा करते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं। जब मैंने यह समझ लिया तो मैं उतनी भयभीत नहीं रही जितनी पहले थी और मेरे अंदर बाद की स्थिति को अच्छे से संभालने की, नुकसान को कम करने के लिए चढ़ावों और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को यथाशीघ्र स्थानांतरित करने की आस्था जागी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “प्रभु यीशु के उन शिष्यों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी रूप से दंडित किया गया था? नहीं। उन्होंने प्रभु का सुसमाचार फैलाया था, लेकिन दुनिया के लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया, इसके बजाय उनकी भर्त्सना की, पीटा और डाँटा-फटकारा और यहाँ तक कि मार डाला—इस तरह वे शहीद हुए। हम उन शहीदों के अंतिम परिणाम की, या उनके व्यवहार की परमेश्वर की परिभाषा की बात न करें, बल्कि यह पूछें : जब उनका अंत आया, तब जिन तरीकों से उनके जीवन का अंत हुआ, क्या वह मानव धारणाओं के अनुरूप था? (नहीं, यह ऐसा नहीं था।) मानव धारणाओं के परिप्रेक्ष्य से, उन्होंने परमेश्वर के कार्य का प्रसार करने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई, लेकिन अंत में इन लोगों को शैतान द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। यह मानव धारणाओं से मेल नहीं खाता, लेकिन उनके साथ ठीक यही हुआ। परमेश्वर ने ऐसा होने दिया। इसमें कौन-सा सत्य खोजा जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें इस प्रकार मरने देना उसका श्राप और दण्डादेश था, या यह उसकी योजना और आशीष थी? यह दोनों ही नहीं थे। यह क्या था? अब लोग गहरे दुख के साथ उनकी मृत्यु पर विचार करते हैं, किन्तु चीजें इसी प्रकार थीं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसी तरीके से मारे गए, इसे कैसे समझाया जाए? जब हम इस विषय का जिक्र करें, तो तुम लोग स्वयं को उनकी स्थिति में रखो, क्या तब तुम लोगों के हृदय उदास होते हैं, और क्या तुम भीतर ही भीतर पीड़ा का अनुभव करते हो? तुम सोचते हो, ‘इन लोगों ने परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का अपना कर्तव्य निभाया, इन्हें अच्छा इंसान माना जाना चाहिए, तो फिर उनका अंत, और उनका परिणाम ऐसा कैसे हो सकता है?’ वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उन जीवनों के, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की घोर निंदा करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहाँ तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं नकारा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि उसने समस्त मानवजाति के छुटकारे के लिए जो कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित रह पाई है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपना कर्तव्य निभाया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी चीजें हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए जीवन सबसे अधिक प्रिय और संजोने योग्य होता है, सबसे बहुमूल्य होता है, और यही कारण है कि ये लोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में अपनी सबसे बहुमूल्य वस्तु—जीवन—अर्पित कर सके। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में जब उसने उनसे उनके प्राणों की कीमत भी वसूल ली, तब भी उन्होंने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। यही अपना कर्तव्य चरम सीमा तक पूरा करना है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे कुछ ऐसा मानकर स्वीकार करना चाहिए जिसे करने को तुम कर्तव्यबद्ध हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रचार करना वह कर्तव्य है जिसे सभी विश्वासी पूरा करने को बाध्य हैं)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मुझे समझ में आया कि परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तुम्हारे पास ऐसा हृदय होना चाहिए जिसमें परमेश्वर के लिए जबरदस्त चाहत हो। मैंने युग-युगांतर के उन संतों के बारे में विचार किया जिन्होंने प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपना जीवन दे दिया। कुछ को घोड़ों के पीछे बाँधकर घसीटा गया, कुछ को खौलते तेल में फेंक दिया गया और पतरस को परमेश्वर के लिए उल्टा सूली पर चढ़ा दिया गया, लेकिन वह मृत्यु पर्यंत समर्पित रहा; उन्होंने परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दी। उनकी मौत बेहद सार्थक और मूल्यवान थी; उनकी मृत्यु को परमेश्वर ने याद रखा। भले ही उनके शरीर को शैतान ने नुकसान पहुँचाया और मार डाला, लेकिन उनकी आत्माएँ कभी नहीं मरीं। अगर गिरफ्तारी और पीट-पीटकर मार दिए जाने के डर से मैं अपना कर्तव्य त्याग दूँ या यहूदा बन जाऊँ और परमेश्वर को धोखा दूँ तो मैं एक चलती-फिरती लाश बनकर रह जाऊँगी। अंत में मेरी आत्मा को अनंत दंड भुगतने के लिए नरक में डाल दिया जाएगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मेरे जीवन और मृत्यु पर अंतिम निर्णय तुम्हारा है। मैं तुम्हारे आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। अगर मुझे वाकई गिरफ्तार किया जाता है तो यह तुम्हारी अनुमति से होगा। मैं तुम्हारे लिए अपनी गवाही में अडिग रहने को तैयार हूँ। अगर पुलिस मुझे यातना देकर मार भी डाले तो भी मैं कभी यहूदा नहीं बनूँगी और कलीसिया के हितों से गद्दारी नहीं करूँगी।” प्रार्थना करने के बाद मेरे दिल में और भी आस्था पैदा हुई।

चूँकि कलीसिया के सभी अगुआ गिरफ्तार कर लिए गए थे, हमें यह पता ही नहीं था कि कलीसिया कितने घरों में पुस्तकें रखती थी। बाद में हमने आसपास पूछताछ की तो पता चला कि बहन हाओ यी और एक अन्य बहन के पास रखी गई परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करना होगा। रिहा की गई एक बहन से हमने यह भी सुना कि पुलिस गिरफ्तारियों का दूसरा दौर शुरू करने वाली है। अगर पुस्तकों को समय रहते स्थानांतरित नहीं किया गया तो वे बड़े लाल अजगर के हाथों में पड़ जाएँगी। हमने हाओ यी से मिलने के लिए एक सुनसान जगह ढूँढ़ी, लेकिन उसने कहा कि जहाँ परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें रखी हैं, उस घर के दरवाजे पर दो निगरानी कैमरे लगे हुए हैं। उसे डर था कि अगर हमने पुस्तकें स्थानांतरित करने की कोशिश की तो कुछ गलत हो जाएगा और वह हमें किसी भी कीमत पर ऐसा नहीं करने देगी। मैंने मन ही मन सोचा, “पुलिस के पास हाओ यी की एक तस्वीर है और उन्होंने गिरफ्तार किए गए भाई-बहनों से उसकी पहचान करने को कहा है। अगर हम पुस्तकें स्थानांतरित नहीं करेंगे और अगर उसे कुछ हो गया तो परमेश्वर के वचनों की सारी पुस्तकें बड़े लाल अजगर के हाथों में पड़ जाएँगी और कलीसिया के हितों को गंभीर नुकसान पहुँचेगा। लेकिन अगर मैं पुस्तकों को स्थानांतरित करते समय गिरफ्तार हो गई तो क्या पुलिस मुझे पीट-पीटकर मार नहीं डालेगी?” दिल ही दिल में मैं थोड़ी चिंतित और डरी हुई थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। प्रभु यीशु ने जो कहा था, मैंने उस पर विचार किया : “जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्‍ट कर सकता है(मत्ती 10:28)। हाँ। शैतान शरीर को तो नुकसान पहुँचा सकता है, लेकिन आत्मा को नहीं मार सकता। अगर मुझे पुस्तकें स्थानांतरित करते समय गिरफ्तार कर लिया गया तो इसमें परमेश्वर की अनुमति होगी। यह परमेश्वर की गवाही देने का मेरा समय था। मैं परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को बड़े लाल अजगर के हाथों में नहीं पड़ने दे सकती थी। मैंने हाओ यी से कहा, “तुम्हें परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करने में शामिल होने की जरूरत नहीं है। हम खुद ही उन्हें स्थानांतरित कर देंगे।” हाओ यी सहमत हो गई। झोउ ना और मैंने चर्चा की और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को स्थानांतरित करने के तरीके पर सहमति जताई। झोउ ना ने कहा, “यह स्थानांतरण बहुत खतरनाक है। पुलिस तुम्हें ढूँढ़ रही है—तुम्हें अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहिए। मैं अकेली जाऊँगी, इस तरह सिर्फ मुझे ही गिरफ्तार किया जाएगा।” झोउ ना की यह बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गई, वह चाहती थी कि मैं उसे अकेले ही यह काम करने दूँ। लेकिन फिर मुझे याद आया कि उसकी तबीयत खराब है और वह खतरे में पड़ जाएगी क्योंकि सारी पुस्तकें अकेले स्थानांतरित करने में बहुत समय लगेगा। मैं स्वार्थी और नीच बनी रहकर अपनी सुरक्षा नहीं कर सकती थी। मैंने कहा, “हम दोनों का जाना ही बेहतर होगा। इस तरह यह कार्य जल्दी हो जाएगा। जितना कम समय लगेगा, उतना ही सुरक्षित होगा।” इसलिए हमने भेष बदलकर सावधानी से परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को वहाँ से स्थानांतरित कर दिया। कुछ दिनों बाद हमने दूसरे स्थान से भी परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों का स्थानांतरण पूरा कर लिया। मैंने परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा देखी, मैं दिल से परमेश्वर की बेहद आभारी थी!

इस बाद की स्थिति को संभालने के बाद मैं बेहद भावुक हो गई। परमेश्वर के वचनों ने ही कदम दर कदम बुजदिली और भय से बाहर निकलने में मेरी मदद की। मेरी सबसे बड़ी पीड़ा और लाचारी की घड़ी में परमेश्वर ने ही मेरे लिए एक रास्ता खोला, मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की कुछ वास्तविक समझ और अनुभव दिया। साथ ही मुझे अपनी स्वार्थी और नीच शैतानी प्रकृति की भी कुछ समझ हासिल हुई। मुझे एहसास हुआ कि इस खतरनाक परिवेश में अपना कर्तव्य निभाना मुझे प्रकट और पूर्ण कर रहा था। मैं खतरनाक परिवेश में भी अपना कर्तव्य निभाने से पीछे नहीं हटी। ये सभी नतीजे परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से प्राप्त हुए। परमेश्वर का धन्यवाद!

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