34. जब माँ की बीमारी का पता चला
मई 2023 में, मैं घर से दूर अपना कर्तव्य निभा रही थी। एक दिन मुझे अपने गृहनगर से एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि मेरी माँ को कुछ साल पहले स्ट्रोक हुआ था और वे कम ही चल-फिर पाती थीं। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह सच है। जब मैंने स्ट्रोक के बाद अपनी माँ की हालत के बारे में सोचा, तो मेरे आँसू थम नहीं रहे थे। मैंने मन ही मन सोचा, “सीसीपी के उत्पीड़न और पीछा किए जाने के कारण मैं लगभग नौ साल से घर नहीं लौटी हूँ। मेरे अविश्वासी परिवार के सदस्य और रिश्तेदार निश्चित रूप से मुझे ढूँढ़ रहे होंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे उससे लगातार पूछताछ करते रहे और बहुत ज्यादा दबाव के कारण उसे स्ट्रोक हो गया? मेरे परिवार का कोई भी सदस्य परमेश्वर में विश्वास नहीं करता और वे मेरी माँ को सताते भी हैं। क्या वे सच में उसकी अच्छी देखभाल करेंगे? खासकर मेरे भाई और मेरी भाभी: अब जब माँ को स्ट्रोक हो गया है, तो वे न तो कारोबार करके पैसा कमा सकती हैं, न ही उनके बच्चों की देखभाल में मदद कर सकती हैं। बल्कि उन्हें ही उनकी देखभाल की जरूरत है। एक कहावत है, ‘लंबे समय तक बीमार रहने वाले माँ-बाप की सेवा करने वाला कोई बेटा नहीं होता।’ जैसे-जैसे समय बीतेगा, क्या उनमें उनकी देखभाल करने का धैर्य बचा रहेगा? क्या रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी उनसे चुभने वाली बातें कहेंगे? अगर ऐसा हुआ, तो मेरी माँ को न केवल बीमारी की पीड़ा सहनी पड़ेगी, बल्कि मानसिक पीड़ा भी झेलनी पड़ेगी। क्या वे इस हालात से उबर सकेंगी?” उस समय मैं सचमुच तुरंत घर लौटकर अपनी माँ की देखभाल करना चाहती थी, लेकिन मैं घर नहीं जा सकती थी क्योंकि सीसीपी मुझे सता रही थी और गिरफ्तार करने की कोशिश कर रही थी। मैंने सोचा कि कैसे उन्होंने मुझे जन्म दिया, पाला-पोसा और मेरी पढ़ाई में मेरा साथ दिया। घर पर जीवन कठिन था, और मेरी माँ ने पेट काटकर और भारी-ब्याज वाले कर्ज का दबाव झेलकर मुझे विश्वविद्यालय भेजा। मैं पिछले नौ सालों से अपनी माँ की देखभाल नहीं कर पाई थी, और अब उनके स्ट्रोक के बाद भी मैं उनकी देखभाल के लिए घर नहीं जा सकती थी। मेरी माँ ने मेरे लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई थी, लेकिन एक बेटी होने के नाते मैंने अपना कोई भी संतानोचित कर्तव्य पूरा नहीं किया था। मुझे लगा कि मैं सचमुच उनकी कर्जदार हूँ। इन सभी वर्षों में मैं हमेशा यही उम्मीद करती रही कि एक दिन अपनी माँ से फिर से मिलूँगी और देर तक दिल से बातें करूँगी। लेकिन अब यह सपना पूरी तरह से टूट चुका था। स्ट्रोक के बाद, मेरी माँ सामान्य रूप से बात भी नहीं कर सकती थीं, दिल से लंबी बात तो दूर की बात है। मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही दुखी महसूस करती। मैं अपना कर्तव्य करते समय भी अपना दिल शांत नहीं कर पाती थी। बीमारी से तड़पती मेरी माँ की छवि बार-बार मेरे दिमाग में कौंधती रही, और मैं लगातार रोती रही।
शाम को, मैं करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मेरा मन स्ट्रोक के बाद मेरी माँ की तस्वीर से भरा हुआ था, और मैं पूरी तरह से उनके प्रति अपने स्नेह में जी रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, और अगर मैं इसी तरह चलती रही तो निश्चित रूप से अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाऊँगी। हम सुसमाचार फैलाने में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। मुझे जल्द से जल्द अपनी दशा सुधारनी चाहिए और फिर से अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाना चाहिए। इस समय मुझे अय्यूब का अनुभव याद आया। रातों-रात, अय्यूब के पूरी पहाड़ी पर फैले मवेशी और भेड़ें छीन ली गईं, उसके बच्चे मर गए, और उसके पूरे शरीर पर दर्दनाक फोड़े निकल आए। इतने बड़े परीक्षण और इतने बड़े दर्द का सामना करते हुए, अय्यूब ने परमेश्वर से शिकायत का एक शब्द भी नहीं कहा। उसने यह भी कहा : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। अब जब मेरी माँ को स्ट्रोक हुआ, हालाँकि मैं परमेश्वर का इरादा पूरी तरह से नहीं समझ पाई, फिर भी मैं जानती थी कि यह घटना जो मुझ पर आई, वह परमेश्वर की ओर से मेरा एक परीक्षण ले रहा और मुझे आजमा रहा था। मुझे अय्यूब का अनुकरण करना था। चाहे कुछ भी हो, मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत का एक शब्द भी बोलकर पाप नहीं कर सकती थी, और न ही अपना कर्तव्य छोड़कर परमेश्वर से विश्वासघात कर सकती थी। यह सोचने पर, मेरा दिल धीरे-धीरे शांत हो गया।
एक सुबह, मैंने ‘माँ को कैंसर होने का पता चलने के बाद’ शीर्षक वाला एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा। उसमें उद्धृत परमेश्वर के वचनों के एक अंश ने मेरे दिल को बहुत हिला दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हें अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या किसी बड़ी विपत्ति में फँसने का बहुत ज्यादा विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से बहुत-सी ऊर्जा इसमें नहीं लगानी चाहिए—ऐसा करने का कोई लाभ नहीं होगा। लोगों का जन्म लेना, बूढ़े होना, बीमार पड़ना, मर जाना और जीवन में तरह-तरह की छोटी-बड़ी चीजों का सामना करना बड़ी सामान्य घटनाएँ हैं। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने तरीके से सोचना चाहिए, और इस मामले को शांत और सही ढंग से देखना चाहिए : ‘मेरे माता-पिता बीमार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें मेरी बहुत याद आती थी, क्या यह संभव है? वे यकीनन मुझे याद करते थे—कोई व्यक्ति अपने बच्चे को कैसे याद नहीं करेगा? मुझे भी उनकी बहुत याद आई, तो फिर मैं बीमार क्यों नहीं पड़ा?’ क्या कोई व्यक्ति अपने बच्चों की याद आने के कारण बीमार पड़ जाता है? बात ऐसी नहीं है। तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला तैयार किया है। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) उन लोगों के बारे में सोचो जो परमेश्वर में यकीन नहीं करते—क्या उनके परिवार के सभी सदस्य साल-दर-साल साथ नहीं रहते? जब उन माता-पिता का महाविपत्ति से सामना होता है, तो उनके विस्तृत परिवार के सदस्य और बच्चे सब उनके साथ होते हैं, है कि नहीं? जब माता-पिता बीमार पड़ते हैं या जब उनकी बीमारियाँ बदतर हो जाती हैं, तो क्या इसका कारण यह है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया? बात यह नहीं है, ऐसा होना ही था। बात बस इतनी है कि चूँकि बच्चे के तौर पर तुम्हारा अपने माता-पिता के साथ खून का रिश्ता है, इसलिए उनके बीमार होने की बात सुनकर तुम परेशान हो जाते हो, जबकि दूसरे लोगों को कुछ महसूस नहीं होता। यह बहुत सामान्य है। लेकिन, तुम्हारे माता-पिता के ऐसी महाविपत्ति का सामना करने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने की जरूरत है, या यह चिंतन करने की जरूरत है कि इससे कैसे मुक्त हों या इसे कैसे दूर करें। तुम्हारे माता-पिता वयस्क हैं; उन्होंने समाज में इसका कई बार सामना किया है। अगर परमेश्वर उन्हें इससे मुक्त करने के माहौल की व्यवस्था करता है, तो देर-सबेर यह पूरी तरह से गायब हो जाएगी। अगर यह मामला उनके जीवन में एक रोड़ा है और उन्हें इसका अनुभव होना ही है, तो यह परमेश्वर पर निर्भर है कि उन्हें कब तक इसका अनुभव करना होगा। इसका उन्हें अनुभव करना ही है, और वे इससे बच नहीं सकते। अगर तुम अकेले ही इस मामले को सुलझाना चाहते हो, इसके स्रोत, कारणों और नतीजों का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना चाहते हो, तो यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है। इसका कोई लाभ नहीं, और यह बेकार है। तुम्हें इस तरह कार्य नहीं करना चाहिए, विश्लेषण, जाँच-पड़ताल और मदद के लिए अपने सहपाठियों और दोस्तों से संपर्क करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए, बढ़िया डॉक्टरों से संपर्क करने और उनके लिए सर्वोत्तम अस्पताल शय्या की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए—तुम्हें ये सब करने में अपना दिमाग नहीं कुरेदना चाहिए। अगर तुम्हारे पास सच में कुछ ज्यादा ऊर्जा है, तो तुम्हें अभी जो कर्तव्य निभाना है उसे बढ़िया ढंग से करना चाहिए। तुम्हारे माता-पिता का अपना अलग भाग्य है। कोई भी उस उम्र से बच नहीं सकता जब उसे मरना है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भाग्य के विधाता नहीं हैं, और उसी तरह से तुम अपने माता-पिता के भाग्य के विधाता नहीं हो। अगर उनके भाग्य में उन्हें कुछ होना लिखा है, तो तुम उस बारे में क्या कर सकते हो? व्याकुल होकर और समाधान खोजकर तुम कौन-सा प्रभाव हासिल कर सकते हो? इससे कुछ भी हासिल नहीं हो सकता; यह परमेश्वर के इरादों पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर उन्हें दूर ले जाना चाहता है, और तुम्हें अपना कर्तव्य अबाधित रूप से निभाने देना चाहता है, तो क्या तुम इसमें दखलंदाजी कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर से शर्तों पर चर्चा कर सकते हो? तुम्हें इस वक्त क्या करना चाहिए? अपना दिमाग कुरेद कर समाधान पाना, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करना, खुद को दोष देना और अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा महसूस करना—क्या ये विचार और कार्य किसी व्यक्ति को करने चाहिए? ये तमाम अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के अभाव की हैं; ये अतार्किक, बुद्धिहीन और परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ नहीं होनी चाहिए। क्या तुम समझे? (बिल्कुल।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझी कि एक व्यक्ति अपने जीवन में कितना कष्ट सहता है, उसे कौन-सी गंभीर बीमारियाँ होती हैं और उसे कितनी मुश्किलों का अनुभव करना होता है, यह सब बहुत पहले ही परमेश्वर द्वारा नियत किया जा चुका है, इसका बाहरी कारकों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरी माँ का बीमार पड़ना उनकी नियति में था। उन्हें यह बीमारी कितने साल झेलनी होगी, यह पूरी तरह से ठीक हो सकती है या नहीं, और क्या अंत में इसका कोई दुष्प्रभाव बचेगा, यह सब बहुत पहले ही परमेश्वर द्वारा नियत किया जा चुका था। लेकिन, मैं परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझी और विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करती रही, यह मानती रही कि इतने सालों से मेरे घर न लौटने और मेरे अविश्वासी परिवार तथा रिश्तेदारों द्वारा सताए जाने के कारण, वे भारी दबाव सहन नहीं कर पाईं और नतीजतन उन्हें स्ट्रोक हो गया। मुझे यह भी चिंता थी कि स्ट्रोक के बाद मेरा परिवार मेरी माँ की देखभाल नहीं करेगा, और रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी उनसे कुछ चुभने वाली बातें कहेंगे, जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की पीड़ा होगी। सीसीपी द्वारा उत्पीड़न और गिरफ्तारी के खतरे के कारण मैं उनकी देखभाल के लिए घर नहीं जा सकती थी, और इसलिए मैं उनकी कर्जदार बनकर जी रही थी, और मेरा दिल पूरी तरह से मेरी माँ की बीमारी में लगा हुआ था। मैं अपना कर्तव्य करते समय भी अपना दिल शांत नहीं कर पाती थी। अब मुझे एहसास हुआ कि मेरी माँ के स्ट्रोक का इस बात से कोई संबंध नहीं था कि मैं उनके पास थी या नहीं। ऐसा नहीं है कि अगर मैं उनके साथ होती तो वे इस बीमारी से बच जातीं, और ऐसा भी नहीं है कि अगर मैं उनकी देखभाल के लिए घर लौट आती तो उनकी बीमारी कम हो जाती या पूरी तरह से ठीक हो जाती। यह वैसा ही था जैसे जब मेरी नानी को खाने की नली का कैंसर और मेरी मौसी को लिवर का कैंसर हुआ था। उस समय मेरी माँ ने उनके इलाज के लिए हर तरह के उपाय सोचे, बहुत पैसा खर्च किया, और अक्सर उनसे मिलने जाती थीं। लेकिन, अंत में वे फिर भी चल बसीं। इससे पता चला कि एक व्यक्ति को अपने जीवन में कौन-सी बीमारियाँ होती हैं और वह कब मरेगा, यह सब बहुत पहले ही परमेश्वर द्वारा नियत किया जा चुका है। चाहे लोग कितनी भी कोशिश करें, या बीमारों की कैसी भी देखभाल करें, वे इसे जरा भी नहीं बदल सकते। भले ही मैं अपनी माँ के पास रहकर उनकी देखभाल करती, फिर भी उन्हें यह बीमारी हो जाती। इन तथ्यों के प्रकट होने से, मैंने देखा कि हालाँकि मैं कई सालों से परमेश्वर में विश्वास करती थी, फिर भी चीजों को देखने का मेरा नजरिया एक अविश्वासी जैसा ही था। मैं परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझती थी। यह सोचने पर, मुझे अपने दिल में शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं परमेश्वर की ओर लौटने को तैयार थी, अपनी माँ की बीमारी को पूरी तरह से परमेश्वर को सौंपते हुए, और चाहे उसमें सुधार हो या न हो, खुद को परमेश्वर के आयोजन के अधीन करने और किसी भी हाल में शिकायत न करने को तैयार थी। धीरे-धीरे, मेरी दशा में बहुत सुधार हुआ। कभी-कभी, मैं अभी भी अपनी माँ की बीमारी के बारे में सोचती थी, लेकिन मेरे दिल में दर्द कम था और मैं अपने कर्तव्यों में अपना दिल लगा पाती थी।
एक दिन, मैं कुछ बहनों के साथ बातें कर रही थी और अनजाने में अपनी माँ के स्ट्रोक का जिक्र कर दिया। मेरी आँखों में फिर से आँसू भर आए, और मेरा मन मेरी माँ द्वारा मेरी देखभाल करने और परमेश्वर में मेरे विश्वास का समर्थन करने की छवियों से भर गया। इसके बाद, मैंने खोज की: जब मुझे पता चला कि मेरी माँ को स्ट्रोक हुआ है तो मुझे इतना दर्द क्यों हुआ? मुझे इस दशा से कैसे बाहर निकलना चाहिए? खोज के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। क्रमशः मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। यह परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस ही है जो हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में वजूद में है और बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की परवरिश के अनुग्रह में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिल्कुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, कि अध्यवसाय ही उसके जीवन के अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन का विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण के प्रति मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है और यही वह तरीका है जिससे वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है ...” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। “आओ, चर्चा करें कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं’ की व्याख्या कैसे की जाए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (जरूर है।) चूँकि यह एक तथ्य है, इसलिए हमारे लिए इसमें निहित मुद्दों को स्पष्ट समझना उचित है। आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझी कि परमेश्वर ही मनुष्य के जीवन का स्रोत है और मेरे जीवन की साँस परमेश्वर ने ही मुझे दी है। मेरे जन्म से पहले ही परमेश्वर ने मेरे लिए एक परिवार और माता-पिता की व्यवस्था कर दी थी, और मेरे बड़े होने तक हमेशा मेरी देखभाल और सुरक्षा की। उसने मुझे सुसमाचार सुनाने के लिए भाई-बहनों की भी व्यवस्था की, जिससे मैं इतनी भाग्यशाली हुई कि परमेश्वर की वाणी सुन सकी और उसका उद्धार पा सकी। तब से, मैंने दुनिया की प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागना बंद कर दिया। यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी। सतह पर तो ऐसा लगता था जैसे मेरी माँ मुझे पाल रही थीं, लेकिन यह परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति से हुआ था। मेरे पिता लड़कों को लड़कियों से ज्यादा महत्व देते थे, और मेरे जन्म के दिन से ही वे मुझे कभी पसंद नहीं करते थे। अगर मैं जरा-सी भी गलती करती तो वे मुझे पीटते थे, और हर बार मेरी माँ मेरा साथ देतीं और मेरी रक्षा करती थीं। मेरे पिता ने मुझे हाई स्कूल नहीं जाने दिया, लेकिन मेरी माँ ने जोर दिया कि मैं जाऊँ और यहाँ तक कि मुझे विश्वविद्यालय भेजने के लिए भारी-ब्याज वाले कर्ज का दबाव भी झेला। जब मैंने स्नातक किया और नौकरी ढूँढ़ना शुरू किया तो मुझे हर मोड़ पर निराशा हाथ लगी और मैं दुख और हताशा में जी रही थी। एक रात, मेरी माँ कुछ बहनों को मेरे साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करने के लिए ले आईं ताकि मुझे मदद और सहारा मिल सके, ताकि मैं अपने दुख और हताशा से बाहर निकल सकूँ। जब मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ा, तो मेरी माँ ने मुझे बहुत आर्थिक सहायता दी, और घर की स्थिति बनाए रखने में भी मेरी मदद की ताकि मुझे परिवार के सदस्यों द्वारा सताया या बाधित न किया जाए। मेरी माँ ने मेरे बड़े होने और परमेश्वर में विश्वास करने की यात्रा के दौरान मेरे लिए जो कुछ भी किया, वह उनकी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करना था। ये वे जिम्मेदारियाँ थीं जो उन्हें मुझे जन्म देने के बाद निभानी थीं; यह कोई एहसान नहीं था और न ही मुझे इसे चुकाने की ज़रूरत थी। लेकिन, मैंने हमेशा अपनी माँ के पालन-पोषण और मेरे लिए चुकाई गई कीमत को एक तरह का एहसान माना था। साथ ही, बचपन से ही मुझ पर “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” जैसी पारंपरिक सांस्कृतिक मूलुओं का गहरा असर हुआ था, मुझे लगने लगा कि मुझे अपनी माँ का एहसान चुकाना चाहिए। अगर मैंने इसे नहीं चुकाया तो मैं उन्हें निराश करूँगी और मेरा जमीर भी निंदा के अधीन होगा। जब मुझे पता चला कि मेरी माँ को स्ट्रोक हुआ है और मैं उनकी देखभाल के लिए घर नहीं जा सकती, तो मेरा दिल उनके प्रति कर्ज की भावनाओं से भर गया, और मैं अपना कर्तव्य करते समय भी अपना दिल शांत नहीं कर पाती थी। अब, महा विनाश हम पर आ चुके हैं, और परमेश्वर का तत्काल इरादा यह है कि अधिक से अधिक लोग उसकी वाणी सुनें, परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौटें और उसका उद्धार पाएँ। सुसमाचार फैलाने के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर, अगर मैं केवल अपनी माँ के प्रति स्नेह के बीच जीती रही, अपने कर्तव्य को हल्के में और लापरवाही से लेती रही, तो यह परमेश्वर के साथ एक गंभीर विश्वासघात होगा। मैं सचमुच बिना जमीर वाली और अकृतज्ञ होऊँगी। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया, मुझे उसके सामने आने और जीवन के वचन प्रदान करके मुझ पर अनुग्रह किया। उसने मुझे दो कार दुर्घटनाओं में भी बचाया, मुझे खतरे से निकाला। परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के बिना मुझे नहीं पता कि मैं कितनी बार मर चुकी होती। परमेश्वर के उद्धार के बिना, मैं अभी भी एक अविश्वासी की तरह, शून्यता और दर्द में जी रही होती। मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम अत्यधिक बड़ा है। मुझे सबसे ज्यादा परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए, और मुझे जो सबसे ज्यादा करना चाहिए वह है परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, और उनमें अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, इससे संबंधित अभ्यास के सिद्धांत पाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर अपने जीवन-परिवेश और उस संदर्भ के आधार पर, जिसमें तुम खुद को पाते हो, अपने माता-पिता का सम्मान करने से परमेश्वर का आदेश पूरा करने और अपना कर्तव्य निभाने में कोई टकराव नहीं होता—या, दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता का सम्मान करने से तुम्हारे निष्ठापूर्वक कर्तव्य-प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता—तो तुम एक ही समय में उन दोनों का अभ्यास कर सकते हो। तुम्हें अपने माता-पिता से बाहरी रूप से अलग होने, उन्हें बाहरी रूप से त्यागने या नकारने की जरूरत नहीं। यह किस स्थिति में लागू होता है? (जब अपने माता-पिता का सम्मान करना व्यक्ति के कर्तव्य-प्रदर्शन से नहीं टकराता।) यह सही है। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालने की कोशिश नहीं करते, और वे भी विश्वासी हैं, और वे वाकई तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में समर्थन और प्रोत्साहन देते हैं, तो तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता, आम शाब्दिक अर्थ में, रिश्तेदारों के बीच का दैहिक रिश्ता नहीं है, वह कलीसिया के भाई-बहनों के बीच का रिश्ता है। उस स्थिति में, उनके साथ कलीसिया के साथी भाई-बहनों की तरह बातचीत करने के अलावा तुम्हें उनके प्रति अपनी कुछ संतानोचित जिम्मेदारियाँ भी पूरी करनी चाहिए। तुम्हें उनके प्रति थोड़ा अतिरिक्त सरोकार दिखाना चाहिए। अगर इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन प्रभावित नहीं होता, यानी, अगर वे तुम्हारे दिल को विवश नहीं करते, तो तुम अपने माता-पिता को फोन करके उनका हालचाल पूछ सकते हो और उनके लिए थोड़ा सरोकार दिखा सकते हो, तुम उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने और उनके जीवन की कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम उनके जीवन-प्रवेश के संदर्भ में उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने में भी मदद कर सकते हो—तुम ये सभी चीजें कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा नहीं डालते, तो तुम्हें उनके साथ यह रिश्ता बनाए रखना चाहिए, और तुम्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। और तुम्हें उनके लिए सरोकार क्यों दिखाना चाहिए, उनकी देखभाल क्यों करनी चाहिए और उनका हालचाल क्यों पूछना चाहिए? क्योंकि तुम उनकी संतान हो और तुम्हारा उनके साथ यह रिश्ता है, तुम्हारी एक और तरह की जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी के कारण तुम्हें उनकी थोड़ी और खैर-खबर लेनी चाहिए और उन्हें और ज्यादा ठोस सहायता प्रदान करनी चाहिए। अगर यह तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता और अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन में बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, और वे तुम्हें रोकते भी नहीं, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना स्वाभाविक और उचित है और तुम्हें इसे उस हद तक करना चाहिए, जिस हद तक तुम्हारा जमीर तुम्हें न धिक्कारे—यह सबसे न्यूनतम मानक है, जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपनी परिस्थितियों के प्रभाव और बाधा के कारण घर पर अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर पाते, तो तुम्हें इस नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना चाहिए और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करने पर जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता; वह लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करता। ... अपने माता-पिता का सम्मान करना तुम्हारी जिम्मेदारी है, और अगर परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो तुम यह जिम्मेदारी निभा सकते हो, लेकिन तुम्हें अपनी भावनाओं से विवश नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे माता-पिता में से कोई बीमार पड़ जाए और उसे अस्पताल जाना पड़े, और उनकी देखभाल करने वाला कोई न हो, और तुम अपने कर्तव्य में इतने व्यस्त हो कि घर नहीं लौट सकते, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसे समय, तुम अपनी भावनाओं से विवश नहीं हो सकते। तुम्हें मामला प्रार्थना के हवाले कर देना चाहिए, उसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए और उसे परमेश्वर के आयोजनों की दया पर छोड़ देना चाहिए। इसी तरह का रवैया तुम्हारे अंदर होना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता का जीवन लेना चाहता है और उन्हें तुमसे दूर करना चाहता है, तो भी तुम्हें समर्पित होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : ‘भले ही मैं समर्पण कर चुका हूँ, फिर भी मैं दुखी महसूस करता हूँ और मैं इस बारे में कई दिनों से रो रहा हूँ—क्या यह एक दैहिक भावना नहीं है?’ यह कोई दैहिक भावना नहीं है, यह मानवीय दयालुता है, यह मानवता होना है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। तुम रो सकते हो, लेकिन अगर तुम कई दिनों तक रोते रहते हो और सो या खा नहीं पाते, और अपना कर्तव्य करने की तुम्हारी मनोदशा नहीं है, यहाँ तक कि तुम घर जाकर अपने माता-पिता से मिलना भी चाहते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और तुम सत्य को अमल में नहीं लाए हो, जिसका अर्थ है कि तुम अपने माता-पिता का सम्मान करके अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हो, तुम अपनी भावनाओं के बीच जी रहे हो। अगर तुम अपनी भावनाओं के बीच जीते हुए अपने माता-पिता का सम्मान करते हो, तो तुम अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे, और तुम परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं कर रहे, क्योंकि तुमने परमेश्वर का आदेश त्याग दिया है, और तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है। इस तरह की स्थिति का सामना करने पर अगर इससे तुम्हारे कर्तव्य में देरी न होती हो या तुम्हारे कर्तव्य का निष्ठावान प्रदर्शन प्रभावित न होता हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ ऐसी चीजें कर सकते हो जिन्हें करने में तुम सक्षम हो, और वे जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो जिन्हें पूरा करने में तुम सक्षम हो। संक्षेप में, यही है जो लोगों को करना चाहिए और जिसे वे मानवता के दायरे में करने में सक्षम हैं। अगर तुम अपनी भावनाओं में फँस जाते हो और इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन बाधित होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के विपरीत है। परमेश्वर ने तुमसे कभी ऐसा करने की अपेक्षा नहीं की, परमेश्वर सिर्फ यह माँग करता है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, बस। संतानोचित निष्ठा होने का यही अर्थ है। जब परमेश्वर ‘अपने माता-पिता का सम्मान करने’ की बात कहता है, तो इसका एक संदर्भ होता है। तुम्हें बस कुछ जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, जिन्हें हर तरह की परिस्थितियों में हासिल किया जा सकता है, इसके अलावा कुछ नहीं। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या उनकी मृत्यु का सवाल है, तो क्या ये बातें तुम्हें तय करनी हैं? उनका जीवन कैसा है, वे कब मरेंगे, किस बीमारी से मरेंगे या कैसे मरेंगे—क्या इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना है? (नहीं।) उनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझी कि अपने माता-पिता का मान करना न तो परमेश्वर का आदेश है, न ही यह मेरा मिशन है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना ही मेरा परम कर्तव्य है, क्योंकि परमेश्वर ने कहा है : “क्या अपना कर्तव्य हर हाल में नहीं निभाना चाहिए? यह स्वर्ग से प्राप्त कर्म है, एक जिम्मेदारी है जो छोड़ी नहीं जा सकती। तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, भले ही कोई और निभाए या न निभाए। यह दृढ़ संकल्प तुममें होना ही चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है)। हालाँकि बच्चों की अपने माता-पिता का आदर करने की ज़िम्मेदारी होती है, लेकिन यह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं है। हमें अलग-अलग परिस्थितियों और पृष्ठभूमियों के अनुसार अभ्यास का सही मार्ग खोजना होगा, और हम जो कुछ भी करते हैं वह इस आधार पर होना चाहिए कि उससे हमारे कर्तव्य में बाधा न पड़े। अगर माहौल और हालात इजाज़त देते हैं तो मुझे एक बेटी के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, और जितना मुझसे हो सके अपनी माँ की देखभाल करनी चाहिए। लेकिन, सीसीपी के उत्पीड़न और पीछा किए जाने के कारण मैं घर नहीं लौट सकती थी, और उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास नहीं रह सकती थी। यहाँ तक कि उनसे मिलने या उनकी हालत के बारे में पूछने के लिए उन्हें फोन करने का मेरा अधिकार भी सीसीपी ने निर्दयता से छीन लिया था। इसके अलावा, मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त थी और मेरे पास वापस जाकर अपनी माँ की देखभाल करने का समय नहीं था। अगर मैं अपनी माँ की देखभाल करने के लिए घर लौटती और कलीसिया के कार्य में देरी करती तो यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं होता। जब मैंने यह सब सोच लिया तो मेरे दिल को बहुत शांति मिली, और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “प्रिय सर्वशक्तिमान परमेश्वर, अब मैं जानती हूँ कि अपनी माँ की बीमारी के मामले से कैसे निपटना है। मैं उसके प्रति अपना स्नेह छोड़ने और अपने कर्तव्य पर डटे रहने को तैयार हूँ। मैं उसकी देखभाल करने के लिए घर नहीं लौट सकती, इसलिए मैं उसे आपके हाथों में सौंपती हूँ। भविष्य में उस पर चाहे कुछ भी आए, मैं समर्पण करने को तैयार हूँ।” प्रार्थना के बाद, मेरे दिल को थोड़ी और मुक्ति महसूस हुई। मैं अपने कर्तव्य में अपना दिल लगा सकी और अब अपनी माँ के स्ट्रोक के मामले से बाधित या उसमें उलझी नहीं थी। मैं इस परिस्थिति की व्यवस्था करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ, जिससे मैं अपने अंदर के पारंपरिक विचारों का कुछ भेद पहचान सकी, और यह जान सकी कि अपने माता-पिता के साथ सही तरीके से कैसे पेश आना है।