41. अपने अहंकारी स्वभाव को हल करने का मार्ग खोजना
मैंने हाई स्कूल में नृत्य सीखा था और मुझे नृत्य का कुछ अनुभव है। मुझे वास्तव में नृत्य करना भी बहुत पसंद है। जब कलीसिया ने मेरे लिए नृत्य का कर्तव्य करने की व्यवस्था की तो मैं वास्तव में खुश था—मुझे लगा कि अपने आधार के साथ मैं इसे निश्चित ही आसानी से सीख जाऊँगा। मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के यह कर्तव्य स्वीकार कर लिया। अभ्यास के दौरान मैं सभी चेष्टाएँ आसानी से करने में सक्षम था, इसलिए मुझे लगा कि मैं अपने भाई-बहनों से बेहतर नर्तक हूँ। कभी-कभी मेरे भाई-बहन सुझाव देते थे, वे कहते थे कि मेरी चेष्टाएँ उनकी चेष्टाओं से अलग हैं और हमारी नृत्य चेष्टाएँ एकीकृत होनी चाहिए। मैं उन्हें केवल ऊपरी तौर पर स्वीकार करता था। अपने दिल में मुझे लगता था कि मेरी चेष्टाएँ उनकी चेष्टाओं से ज्यादा यथोचित हैं और मैं उनकी बात नहीं सुनना चाहता था। बाद में जब पर्यवेक्षकों ने हमारे बनाए वीडियो नमूने की समीक्षा की, तो उन्होंने भी यह जिक्र किया कि हमारी नृत्य चेष्टाएँ असंगत हैं और वे एकीकृत होनी चाहिए। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि समूहगान वाले हिस्से में मेरी नृत्य चेष्टाएँ बहुत अच्छी थीं और दूसरे भाई-बहन मुझसे सीख सकते हैं। उन्होंने मुझसे उन्हें नृत्य सिखाने के लिए भी कहा। यह सुनकर मैं खुश हो गया और मुझे और भी दृढ़ता से महसूस हुआ कि मैं इन लोगों में सबसे अच्छा नर्तक हूँ। मेरे पास काफी अनुभव था और मैं उनका मार्गदर्शन कर सकता था और नृत्य में उनकी अगुआई कर सकता था। जब मैं उन्हें नृत्य चेष्टाएँ सिखा रहा होता था, तो उन्हें मेरे मानक तक पहुँचने के लिए बार-बार अभ्यास करना पड़ता था क्योंकि मेरी चेष्टाएँ काफी विस्तृत होती थीं और उनमें अधिक ताकत थी। यह उनके लिए बहुत मुश्किल होता था। उस समय मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया और नृत्य योजना को और अधिक उपयुक्त बनाने के लिए समायोजन नहीं किया। इसके बजाय मैंने बस यही सोचा कि मैं बहुत अच्छा हूँ और मेरी नृत्य चेष्टाएँ वाकई खास हैं। अगले दिन जब हमारा अभ्यास जारी था, तो पैरों की हरकतों को लेकर हमारी राय अलग-अलग थीं। मैं इसे उनके सुझाए तरीके से नहीं करना चाहता था क्योंकि मुझे लगता था कि उनकी चेष्टाएँ अच्छी नहीं लगतीं। मैं उन्हें अपने विचारों के अनुसार अभ्यास करना सिखाता रहा।
बाद में, बहन डाएन ने कहा कि मेरे हाथों की चेष्टाएँ काफी अतिरंजित थीं और बहुत विनीत नहीं थीं और मुझसे अपनी चेष्टाओं का फैलाव कम करने को कहा। दूसरे भाई-बहन भी उससे सहमत थे, लेकिन मैंने इसे स्वीकार नहीं किया। मुझे लगा कि मेरी चेष्टाएँ सही हैं। हालाँकि मुझे चिंता थी कि अगर मैंने उनका सुझाव नहीं माना तो वे कह सकते हैं कि मैं बहुत अहंकारी हूँ। केवल तभी मैंने अपने हाथों की हरकतों का फैलाव कम करने की कोशिश की। जब हमने नृत्य वीडियो के नमूने को फिर से देखा, तो मैंने पाया कि हमारी चेष्टाएँ एकसमान नहीं थीं। मेरी चेष्टाओं का विस्तार अभी भी उनकी चेष्टाओं से बहुत ज्यादा था। मुझे विश्वास था कि मैं उनसे बेहतर नृत्य करता हूँ और मेरी चेष्टाएँ अधिक यथोचित हैं। पहले पर्यवेक्षकों ने अच्छी चेष्टाओं के लिए मेरी प्रशंसा की थी और इसलिए अगर हमारी चेष्टाएँ एकसमान नहीं थीं तो यह निश्चित रूप से उनकी समस्या थी। कभी-कभी भले ही मैं उनके सुझाए तरीके से चीजें करता था, मुझे नहीं लगता था कि उनकी चेष्टाएँ सुंदर हैं। असल में हर बार जब मैं मन ही मन उनके सुझावों से असहमत होता था और उनके साथ अच्छी तरह से काम नहीं कर पाता था, तो मेरे दिल को बहुत पीड़ा होती थी। मैं बहुत थक जाता था और अपने साथ परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाता था। मैंने अपने कर्तव्य के प्रति अपना जुनून भी खो दिया था। मैं सोचने लगा, “ऐसा क्यों है कि हर बार जब मैं उनके साथ नृत्य करता हूँ तो मेरे दिल को पीड़ा होती है? क्या इस तरह से अपना कर्तव्य करना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है?” मैं इस तरह से जारी नहीं रखना चाहता था और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की ताकि मैं अपनी समस्याओं पर विचार कर सकूँ।
एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे सचमुच द्रवित कर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। ... अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। अगर कोई ऐसा है जो सत्य समझता है या सत्य के अनुरूप बोलता है, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसकी बात माननी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें ऐसी चीजें नहीं करनी चाहिए जो बाधा डालती या कमजोर करती हों और मनमाने और एकतरफा ढंग से काम नहीं करना चाहिए। इस तरह से तुम कोई बुराई नहीं करोगे। तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे उद्यम तुम करो या सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है। यही तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हारे मन में यह समझ होनी चाहिए। और इसलिए, चाहे कितने भी लोग अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभा रहे हों या वे कैसी भी समस्याओं का सामना कर रहे हों, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे इस तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि अगर हम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहते हैं, तो हमें अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना सीखना चाहिए, अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों से सीखना चाहिए। केवल इसी तरह से हम परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होंगे। अगर हम लगातार अपने विचारों से चिपके रहना चाहते रहे तो इससे कार्य प्रभावित होगा और परमेश्वर हमसे घृणा करेगा। मैंने यह भी विचार किया कि मैं अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम नहीं करता था क्योंकि मुझे लगता था कि मेरे पास अधिक अनुभव है और मैं उनसे बेहतर नृत्य करता हूँ, और इसलिए उन्हें मेरी चेष्टाओं को आदर्श मानकर अपनी चेष्टाएँ करनी चाहिए। जब मेरे भाई-बहनों ने मुझे सलाह दी कि मेरी चेष्टाएँ बहुत अतिरंजित हैं, तो मैंने प्रतिरोधी महसूस किया और उनके सुझावों का पालन नहीं करना चाहा। भले ही मैं देख सकता था कि मेरी चेष्टाओं का फैलाव वास्तव में बहुत ज्यादा था, फिर भी मैं बदलना नहीं चाहता था। कभी-कभी मैं उनके सुझावों के अनुसार चलता था, लेकिन मुझे दिल से अच्छा नहीं लगता था। मुझे अभी भी विश्वास था कि मेरी चेष्टाएँ बेहतर हैं और मैं अपने विचारों से चिपका रहा। इसका मतलब यह था कि मेरी चेष्टाएँ और उनकी चेष्टाएँ असंगत और असमन्वित थीं। मैंने देखा कि मैं बहुत अहंकारी था और लगातार मानता था कि मेरी चेष्टाएँ सही हैं। असल में मेरी चेष्टाएँ वाकई बहुत अतिरंजित थीं और बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती थीं। इसके अलावा चूँकि मेरी चेष्टाएँ दूसरों की चेष्टाओं से असंगत थीं, इसने समग्र चेष्टाओं की सुघड़ता को प्रभावित किया और नृत्य के नतीजों पर असर डाला। इसने बाधा डालने वाली भूमिका निभाई। परमेश्वर ने कहा था : “तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है।” असल में मेरे सभी भाई-बहनों में कुछ खूबियाँ थीं। कुछ के सिर की चेष्टाएँ बहुत सहज और स्वाभाविक होती थीं, जबकि मेरे सिर की चेष्टाएँ रोबोट की तरह अकड़ी हुई रहती थीं। साथ ही, भले ही उनकी चेष्टाओं का दायरा बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन वे बहुत मनोहर लगती थीं। मुझे एहसास हुआ कि जब वे मुझे फिर से सुझाव दें तो मुझे उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए और उनकी सुझाई गई चेष्टाओं का पालन करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। अगर मेरी कोई अलग राय हो तो मैं उसे बताकर अपने भाई-बहनों के साथ चर्चा कर सकता हूँ और हम अपनी चेष्टाओं को एकीकृत और यथोचित बनाने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं और परमेश्वर की प्रशंसा करने और उसकी गवाही देने के लिए अच्छी तरह से नृत्य कर सकते हैं।
एक बार भाई-बहनों ने कहा कि मेरे कंधे और सिर बहुत ज्यादा हिल रहे हैं और उन्हें समायोजित करने की जरूरत है और मेरी कमर की चेष्टाओं को भी समायोजित करने की जरूरत है। शुरू में मैं इसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर सका : मैं सोचता था कि मेरी चेष्टाएँ सही हैं। मगर जब मैंने देखा कि उनके सिर की चेष्टाएँ मेरी चेष्टाओं से बिल्कुल अलग हैं, तो मैंने सोचा कि शायद वे ही सही हैं और मैंने इसे स्वीकार करने की कोशिश की। कभी-कभी मैं इसे अच्छी तरह से कर पाता था, लेकिन कभी-कभी मैं फिर से अपने पुराने ढर्रे पर लौट आता था। जब वे मुझे देख रहे थे, तो मैंने सोचा, “ऐसा क्यों है कि नृत्य में मेरा आधार उनसे बेहतर है, लेकिन मुझे ही अपनी चेष्टाएँ बदलने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है?” मैंने बहुत कमजोर और शर्मिंदा महसूस किया। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि मुझे दूसरे लोगों की अच्छी बातों से सीखने और उनके सुझावों को स्वीकार करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। चूँकि उन सभी ने कहा कि मेरी चेष्टाएँ खराब हैं, तो मुझे बदलने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। हालाँकि इन चेष्टाओं को अच्छी तरह से करना आसान नहीं है, लेकिन मुझे अपनी पूरी कोशिश करनी होगी ताकि हमारी चेष्टाएँ एकीकृत हों। इसके अलावा दूसरों के सुझावों को स्वीकार करने से न केवल मुझे परमेश्वर की स्तुति में अच्छी तरह से नृत्य करने में मदद मिल सकती है, बल्कि यह मेरे भ्रष्ट स्वभाव का भी समाधान कर सकता है और मुझे घमंड और आत्मतुष्टि से बचने में मदद कर सकता है। उस शाम अपने समूह अभ्यास की समाप्ति के बाद मैं अकेले ही अभ्यास करता रहा। जब हमने अगले दिन फिर से नृत्य का अभ्यास किया, तो उन्होंने कहा कि मेरी चेष्टाएँ कुछ बेहतर हो गई हैं। हालाँकि मेरी चेष्टाएँ अभी भी आदर्श नहीं थीं, लेकिन उनमें कुछ सुधार दिखा था। मैं अपनी पसंद के अनुसार नृत्य नहीं कर सकता—मुझे इसके लिए विचारशील होना पड़ेगा कि हमारी चेष्टाएँ सुसंगत हैं या नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भले ही हम में से कोई एक बहुत अच्छा नृत्य करे, अगर वह दूसरों से अलग नृत्य करता है, तो हमारी चेष्टाएँ सुंदर या सुघड़ नहीं दिखेंगी और अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे। बाद में, पर्यवेक्षकों ने हमारे बनाए डांस वीडियो को देखा और कहा कि हमारी चेष्टाओं में सुधार हुआ है। मैं जानता था कि यह परमेश्वर की अगुआई थी और यह हमारे सामंजस्यपूर्ण सहयोग से प्राप्त हुआ नतीजा भी था।
एक दिन मैंने एक सभा में परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिससे मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ नई समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “शैतान ने मानवजाति को इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है कि सभी की प्रकृति शैतानी और स्वभाव अहंकारी है; यहाँ तक कि मूर्ख और बेवकूफ भी अहंकारी हैं, और खुद को अन्य लोगों से बेहतर मानते हुए उनकी आज्ञा का पालन करने से इनकार कर देते हैं। साफ दिखाई देता है कि मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है और उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना बहुत मुश्किल है। अपने अहंकार और दंभ के कारण, लोगों में विवेक की पूरी तरह से कमी हो गई है; वे किसी की बात नहीं मानते—दूसरों की बात सही और सत्य के अनुरूप होने पर भी वे उनकी बात नहीं मानते। यह अहंकार के कारण ही है कि लोग परमेश्वर का मूल्यांकन, निंदा और प्रतिरोध करने का दुस्साहस करते हैं। तो, अहंकारी स्वभाव का समाधान कैसे किया जा सकता है? क्या इसका समाधान मानवीय संयम के भरोसे रहकर किया जा सकता है? क्या केवल इसकी पहचान करने और इसे स्वीकार करने मात्र से इसका समाधान हो सकता है? बिल्कुल नहीं। अहंकारी स्वभाव के समाधान का केवल एक ही तरीका है, और वह है परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना। केवल वे जो सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, धीरे-धीरे अपना अहंकारी स्वभाव छोड़ सकते हैं; जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे कभी अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करने में सक्षम नहीं होंगे। मैं ऐसे कई लोगों को देखता हूँ जो अपने कर्तव्य में थोड़ी प्रतिभा क्या दिखा देते हैं, इसे अपने दिमाग पर हावी हो जाने देते हैं। अपनी कुछ योग्यताएँ दिखाकर वे सोचते हैं कि वे बहुत प्रभावशाली हैं, और फिर वे उन्हीं के सहारे जीवन गुजार देते हैं और उससे ज्यादा कोशिश नहीं करते। दूसरे चाहे जो भी कहें, वे उनकी बात यह सोचकर नहीं सुनते कि उनके पास जो छोटी-छोटी चीजें हैं, वे ही सत्य हैं और वे स्वयं सर्वोच्च हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। उनमें तर्क की बहुत कमी है। क्या अहंकारी स्वभाव होने पर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? यह तो और भी मुश्किल है। अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए, उसे सीखना होगा कि अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर के कार्य, उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव कैसे किया जाए। केवल इसी तरह से वह स्वयं को वास्तव में जान सकता है। केवल अपने भ्रष्ट सार और अपने अहंकार की जड़ को स्पष्ट रूप से देखकर, और फिर उसे समझकर और उसका विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में अपना प्रकृति सार जान सकते हो। तुम्हें अपने अंदर की सभी भ्रष्ट चीजों को खोदकर बाहर निकालना होगा, और उन्हें सामने रखकर सत्य के आधार पर उन्हें जानना होगा, तभी तुम्हें पता चलेगा कि तुम क्या हो : न केवल तुम भ्रष्ट स्वभाव से भरे हो, और न केवल तुममें विवेक और समर्पण की कमी है, बल्कि तुम पाओगे कि तुममें बहुत-सी चीजों की कमी है, तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, और तुम बहुत दयनीय हो। तब तुम अहंकार नहीं कर पाओगे। यदि तुम इस तरह से विश्लेषण करके स्वयं को नहीं जानते, तो अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें ब्रह्मांड में अपना स्थान पता नहीं चलेगा। तुम सोचोगे कि तुम हर तरह से उत्तम हो, दूसरों से जुड़ा सब कुछ बुरा है, केवल तुम ही सर्वश्रेष्ठ हो। फिर, तुम हर वक्त सबके सामने दिखावा करोगे, ताकि दूसरे तुम्हें आदर से देखें और तुम्हारी पूजा करें। यह पूरी तरह से आत्म-जागरूकता का अभाव होना है। कुछ लोग हमेशा दिखावा करते रहते हैं। दूसरों को यह अप्रिय लगता है, तो वे अहंकारी कहकर उनकी आलोचना करते हैं। परन्तु वे इसे स्वीकार नहीं करते; उन्हें यही लगता है कि वे प्रतिभाशाली और कुशल हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे अत्यधिक अहंकारी और दंभी हैं। क्या ऐसे अहंकारी और दंभी लोग सत्य के प्यासे हो सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि वे कभी स्वयं को जानने में सक्षम नहीं होते, और अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाते, तो क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? निश्चित रूप से, नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि चूँकि व्यक्ति का स्वभाव अहंकारी होता है, इसलिए वह लगातार मानता है कि वह सही है और वह दूसरों से श्रेष्ठ है। इस तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और दूसरों के सुझाव मानना बहुत मुश्किल होता है। जब किसी व्यक्ति के पास कुछ खास क्षेत्रों में कुछ गुण या कौशल होते हैं, तो वह सोचेगा कि वह दूसरों से बेहतर और अधिक जानकार है, वह अपने विचारों के अनुसार काम करेगा और उसे दूसरों के साथ सहयोग करना मुश्किल लगेगा। भले ही दूसरों द्वारा दिए गए सुझाव सिद्धांतों के अनुरूप हों, वह उन्हें अपनाना नहीं चाहता। मेरा व्यवहार बिल्कुल ऐसा ही था। मैं मानता था कि मुझे नृत्य में अनुभव है, इसलिए दूसरों को मेरी चेष्टाओं से सीखना चाहिए। खास तौर पर जब पर्यवेक्षकों ने कहा कि मैं अच्छा नृत्य करता हूँ, तो मैंने खुद के बारे में और भी ऊँची राय बना ली। जब मेरे भाई-बहन मुझे सुझाव देते थे, तो मैं उन्हें ध्यान से नहीं सुनता था और सुधार के लिए उन्हें आजमाना भी नहीं चाहता था। भले ही मेरे भाई-बहनों ने जो कहा वह सही था, और मैं साफ देख सकता था कि मेरी चेष्टाएँ बाकी सभी के समान और उनके तालमेल में नहीं थीं, फिर भी मैं इसे स्वीकार नहीं करना चाहता था और खुद को बदलना नहीं चाहता था। मैंने सोचा, “मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ? मैं तुमसे बेहतर नर्तक हूँ। मुझे तुम्हारा मार्गदर्शन करना चाहिए।” जब मेरे भाई-बहन चाहते थे कि मैं एक नृत्य पद का बार-बार अभ्यास करूँ, तो मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता था, और मुझे लगा कि वे मुझे सिखा रहे हैं। क्या मेरा यह व्यवहार बहुत अहंकारी नहीं था? यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था है कि हम एक साथ नृत्य करें, ताकि हम अच्छी तरह से मिलकर काम कर सकें और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकें। हालाँकि मैं अहंकारी और आत्मतुष्ट था : मैं हमेशा अपने तरीके से नृत्य करता था और दूसरों के सुझावों को स्वीकार नहीं करता था, नतीजतन भाई-बहनों के बीच सहयोग बिगड़ गया और नृत्य की प्रगति में भी देरी हुई। असल में मैंने दुनिया में जो चेष्टाएँ सीखी थीं, वे सिद्धांत या मानक नहीं थीं। कुछ चेष्टाएँ बहुत अतिरंजित थीं और बहुत पवित्र नहीं थीं : वे परमेश्वर की गवाही देने का प्रभाव हासिल नहीं कर सकीं। मैं परमेश्वर का विश्वासी हूँ और मुझे गरिमापूर्ण और यथोचित ढंग से चेष्टाएँ करनी चाहिए। मैं परमेश्वर की स्तुति के लिए नृत्य करता हूँ ताकि दर्शक अपने दिलों में आनंद महसूस करें और मेरे साथ मिलकर परमेश्वर की स्तुति कर सकें। मैं अहंकारी बने रहकर अपने विचारों से चिपका नहीं रह सकता था। मुझे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और खुद को भूलकर अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम करना चाहिए।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है, और यह वह दृष्टिकोण है जो उन्हें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं या दोषों के प्रति रखना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमजोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, उनकी खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि किसी विशेष क्षेत्र में चाहे हमारे पास कोई भी कौशल हो या अनुभव हो, इसका मतलब यह नहीं है कि हम गलतियाँ नहीं करेंगे और इसका मतलब यह नहीं है कि हम पूर्ण हैं। हर कोई गलतियाँ करता है और उसमें कमियाँ होती हैं। इसके लिए हमें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने से पहले अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों से सीखना होगा। अतीत में जब हम अभ्यास कर रहे होते थे, तो मैं अपने भाई-बहनों के साथ अच्छी तरह से काम नहीं करता था। मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था और मैं हमेशा सोचता था कि मैं बेहतर हूँ। मैं उनके सुझावों को गंभीरता से नहीं लेता था, और इसलिए मेरी चेष्टाएँ हमेशा उनकी चेष्टाओं से असंगत रहती थीं। अगर परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन और मेरे भाई-बहनों का मार्गदर्शन न होता, तो मैं खुद को नहीं समझ पाता और यहाँ तक कि ज्यादा अहंकारी हो जाता। मुझे अपने भाई-बहनों से सीखना चाहिए। मुझे अपनी कमियाँ दूर करने के लिए उनकी खूबियों से सीखना चाहिए और एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। केवल इसी तरह से हम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं। बाद में जब हम नृत्य कर रहे थे, तो मेरे भाई-बहनों ने मेरी कुछ और समस्याओं की ओर इशारा किया। उदाहरण के लिए मेरी चेष्टाएँ बहुत तेज थीं और मेरी गति उनकी गति से अलग थी। उन्होंने सुझाव दिया कि मैं थोड़ा धीमा हो जाऊँ ताकि मैं उनके साथ संगत रह सकूँ। जब मैंने ये सुझाव सुने, तो भले ही वे मेरी पसंद के नहीं थे, मैं पहले की तरह अपने विचारों से चिपके नहीं रहना चाहता था। मुझे अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम करना चाहिए और उनके सुझावों को स्वीकार करना चाहिए। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो मेरी चेष्टाएँ पहले से बेहतर हो गईं, मैं उनके साथ तालमेल बिठा पाने में सक्षम था, और मेरे नृत्य में सुधार हुआ।
इस अनुभव के माध्यम से मैंने अपने भाई-बहनों के साथ ठीक से काम करना सीखा, और अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में कुछ समझ हासिल की। मैं जो यह थोड़ी सी समझ प्राप्त कर सका और छोटा सा बदलाव ला पाया, यह परमेश्वर के वचनों से हासिल हुआ नतीजा है। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ!