43. कर्तव्य के दौरान आराम में लिप्त होने के दुष्परिणाम
अगस्त 2022 में मैं कलीसिया में सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार थी। मैं सक्रिय रूप से नए लोगों को सींचती और उनका समर्थन करती थी और कुछ समय बाद मुझे अपने कर्तव्य निभाने में कुछ नतीजे प्राप्त हुए। बाद में मुझे जिला अगुआ चुन लिया गया। उस समय मुझे अंदर से थोड़ा प्रतिरोध महसूस हुआ, “एक अगुआ के रूप में आपको कलीसिया के कार्य के सभी पहलुओं की देख-रेख करनी होती है। आप कई समस्याओं से जूझते हैं और बहुत तनाव में रहते हैं। आपको बहुत पीड़ा सहनी पड़ती है और बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। मुझे लगा कि मैं सिर्फ एक सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार होने के चलते ही काफी व्यस्त हूँ। अगर मैं अगुआ बन गई, तो क्या मैं और ज्यादा व्यस्त नहीं हो जाऊँगी और थक नहीं जाऊँगी?” मैं इससे बचना चाहती थी, इसलिए मैंने उच्च अगुआ से कहा, “मैं अगुआ बनने के लिए अनुपयुक्त हूँ। मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है, मैं अभिमानी और आत्मतुष्ट हूँ और मैं लगातार अपने विचारों पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाती हूँ। अगर मैं कुछ ऐसा कर दूँ जो कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करे और बाधा डाले और उसे नुकसान पहुँचाए, तो क्या होगा? बेहतर है कि किसी और से यह काम करवाया जाए।” लेकिन अपने दिल में मुझे कुछ आत्म-ग्लानि महसूस हुई। मुझे लगा कि कर्तव्य से इनकार करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और परमेश्वर से अपने दिल की रक्षा करने को कहा ताकि मैं समर्पण कर सकूँ।
प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कुछ लोग परमेश्वर की सेवा में दूसरों के साथ समन्वय करने के इच्छुक नहीं होते, तब भी नहीं जबकि वे बुलाए जाते हैं; ये आलसी लोग केवल आराम का सुख उठाने के इच्छुक होते हैं। तुमसे जितना अधिक दूसरों के साथ समन्वय करने का आग्रह किया जाएगा, तुम उतना ही अधिक अनुभव प्राप्त करोगे। तुम्हारे पास अधिक बोझ होने के कारण, तुम अधिक अनुभव करोगे, तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने का अधिक मौका होगा। इसलिए, यदि तुम सच्चे मन से परमेश्वर की सेवा कर सको, तो तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहोगे; और इस तरह तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाये जाने का अधिक अवसर होगा। ऐसे ही मनुष्यों के एक समूह को इस समय पूर्ण बनाया जा रहा है। पवित्र आत्मा जितना अधिक तुम्हें स्पर्श करेगा, तुम उतने ही अधिक परमेश्वर के बोझ के लिए विचारशील रहने के प्रति समर्पित होओगे, तुम्हें परमेश्वर द्वारा उतना अधिक पूर्ण बनाया जाएगा, तुम्हें उसके द्वारा उतना अधिक प्राप्त किया जाएगा, और अंत में, तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। वर्तमान में, कुछ ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के लिए कोई बोझ नहीं उठाते। ये लोग सुस्त और ढीले-ढाले हैं, और वे केवल अपने शरीर की चिंता करते हैं। ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं और अंधे भी होते हैं। यदि तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होते हो, तो तुम कोई बोझ नहीं उठा पाओगे। तुम जितना अधिक परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे, तुम्हें परमेश्वर उतना ही अधिक बोझ सौंपेगा। स्वार्थी लोग ऐसी चीज़ें सहना नहीं चाहते; वे कीमत नहीं चुकाना चाहते, परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर से चूक जाते हैं। क्या वे अपना नुकसान नहीं कर रहे हैं? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील है, तो तुम कलीसिया के लिए वास्तविक बोझ विकसित करोगे। वास्तव में, इसे कलीसिया के लिए बोझ उठाना कहने की बजाय, यह कहना चाहिए कि तुम खुद अपने जीवन के लिए बोझ उठा रहे हो, क्योंकि कलीसिया के प्रति बोझ तुम इसलिए पैदा करते हो, ताकि तुम ऐसे अनुभवों का इस्तेमाल परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए कर सको” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहो)। “जब कोई व्यक्ति अगुआ बनने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो वह इस योग्य बनाया जाता है कि विभिन्न लोगों की दशाओं को बूझने का तरीका सीख ले, विभिन्न लोगों की कठिनाइयों को दूर करने और विभिन्न प्रकार के लोगों को सहारा देने और उनकी आपूर्ति करने और सत्य वास्तविकता में लोगों की अगुआई करने के लिए सत्य को खोजने में प्रशिक्षित हो सके। साथ-ही-साथ उसे कार्य के दौरान सामने आई विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों को दूर करने में भी प्रशिक्षण लेना चाहिए, और विभिन्न प्रकार के मसीह-विरोधियों, बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों में भेदकर उनसे निपटने और कलीसिया को स्वच्छ करने के कार्य का तरीका सीखना चाहिए। इस प्रकार, दूसरों के मुकाबले, वह ज्यादा लोगों, घटनाओं और चीजों का और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों का अनुभव कर सकेगा, परमेश्वर के ज्यादा-से-ज्यादा वचनों को खा-पी सकेगा, और पहले से कहीं अधिक सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकेगा। यह उसके लिए खुद को प्रशिक्षित करने का अवसर है, है ना? प्रशिक्षण के जितने ज्यादा अवसर होंगे, उतने ही ज्यादा लोगों के अनुभव होंगे, उनकी अंतर्दृष्टियाँ उतनी ही व्यापक होंगी, और वे उतनी ही तेजी से बढ़ेंगे। लेकिन, अगर लोग अगुआ का कार्य नहीं करते, तो वे सिर्फ व्यक्तिगत अस्तित्व और व्यक्तिगत अनुभवों का सामना कर उनमें से गुजरेंगे और केवल व्यक्तिगत भ्रष्ट स्वभावों और विभिन्न व्यक्तिगत दशाओं को पहचान पाएँगे—जो सब-के-सब केवल स्वयं उनसे ही संबंधित होते हैं। जब एक बार वे अगुआ बन जाते हैं तो उनका सामना ज्यादा लोगों, ज्यादा घटनाओं और ज्यादा परिवेशों से होता है, जिससे वे अक्सर परमेश्वर के सामने आकर सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। उनके लिए ये लोग, घटनाएँ, और चीजें अलक्षित रूप से एक दायित्व बन जाती हैं, और स्वाभाविक रूप से सत्य वास्तविकता में उनके प्रवेश के लिए अत्यंत अनुकूल स्थितियाँ तैयार कर देती हैं, जोकि एक अच्छी बात है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि एक अगुआ के कर्तव्य निभाना मेरे लिए खुद को सत्य से लैस करने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने का अभ्यास करने का एक अच्छा अवसर था। लेकिन मुझे सत्य से प्रेम नहीं था। मैंने कर्तव्य से बचने के लिए कई कारण और बहाने ढूँढ़े। मैं बस एक आसान कर्तव्य करना चाहती थी जिसमें मुझे पीड़ा न हो या कीमत न चुकानी पड़े। मैंने अपने जीवन में कोई भी बोझ नहीं उठाया था। मैं बहुत मूर्ख थी, बहुत अंधी थी! एक अगुआ होने के नाते आप बहुत से लोगों के संपर्क में आते हैं और आप कई समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करते हैं। हालाँकि लगातार सत्य खोजने से आप पाते हैं कि कैसे सभी प्रकार के लोगों का भेद पहचाना जाए और अपने भाई-बहनों के साथ उनके कर्तव्यों और जीवन प्रवेश में आने वाली कठिनाइयों और समस्याओं पर कैसे संगति की जाए और उनका समाधान कैसे किया जाए। इस तरह के बहुत से अनुभवों के साथ आप बहुत कुछ समझेंगे और बहुत कुछ हासिल करेंगे और आपकी जीवन प्रगति तेज होगी। जब मुझे यह समझ आया, तो मैं अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए समर्पण करने और सब कुछ करने के लिए इच्छुक थी।
शुरुआत में मैं कलीसिया के कार्य के विभिन्न पहलुओं के बारे में अधिक नहीं समझती थी। जिस बहन के साथ मैंने सहयोग किया, उसकी संगति और मदद के जरिए मैंने कलीसिया की स्थिति को समझा और अपने कर्तव्य निभाने के कुछ सिद्धांतों पर पकड़ बनाई। मैंने देखा कि कार्य की विभिन्न मदों में बहुत सी समस्याएँ थीं, जिन्हें सँभालने की जरूरत थी और मैं उनसे सही तरीके से निपटने और गंभीरता से समस्याएँ हल करने में सक्षम थी। हालाँकि जब काम में व्यस्तता बढ़ी तो मैंने कई समस्याएँ देखीं, जिनके बारे में मुझे संगति करने की जरूरत थी और जिन्हें हल करना था। कभी-कभी मुझे देर तक जागना पड़ता था और मैं बहुत थकान और कुछ हद तक चिड़चिड़ाहट महसूस करती थी। बाद में हमने अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का दायरा बाँट लिया। मैं मुख्य रूप से सिंचन कार्य और पाठ-आधारित कार्य के लिए जिम्मेदार थी। मैं मन ही मन थोड़ी नाखुश थी, “सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार होने का मतलब है कि मुझे संगति के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़ने होंगे और सिंचनकर्ताओं के कर्तव्य करने के दौरान आने वाली समस्याएँ और विचलन दूर करने होंगे। मुझे हर समय नवागंतुकों की दशाओं और कठिनाइयों को भी समझने की जरूरत होगी। यह पहले ही बहुत थका देने वाला होता है—क्या इसके ऊपर पाठ-आधारित कार्य करना और भी ज्यादा थकाऊ नहीं होगा? क्या मैं इसके साथ तालमेल बिठा पाऊँगी?” जिस बहन के साथ मैं भागीदार थी, उसने मेरी शंकाएँ देखीं और मेरे साथ संगति की। “हमने अपने काम बाँट लिए हैं, लेकिन हम अभी भी एक टीम के रूप में साथ काम करते हैं। अगर तुम्हें मुश्किलें आती हैं, तो हम उनका सामना करेंगे और उन्हें साथ-साथ सुलझाएँगे।” तभी मैंने अनिच्छा से समर्पण किया। इसके बाद जब मैं अपना कर्तव्य निभा रही होती, तो मैं कुछ आसान और परिचित काम ढूँढ़ लेती थी। मैं उन कामों पर ध्यान नहीं देती थी जो मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं थे। जब मैं उच्च अगुआ से मिले पत्रों का जवाब देती, तो मैं केवल मामूली चीजों के बारे में लिखती और उन पत्रों को अपनी भागीदार बहन की तरफ खिसका देती थी जिनके लिए बहुत अधिक सोच-विचार करने और दिमाग लगाने की आवश्यकता होती थी। कभी-कभी मुझे कुछ हद तक आत्मग्लानि महसूस होती थी। लगता था कि मैं बहुत आलसी हूँ और देह के लिए विचारशीलता दिखा रही हूँ। लेकिन यह विचार मेरे दिमाग में बस एकाएक कौंध गया और उसके बाद मैंने इसे कोई बड़ी बात नहीं माना।
उस समय पाठ-आधारित कार्य में कुछ समस्याएँ थीं, जिनके लिए संगति और समाधान की आवश्यकता थी। हालाँकि मुझे लगता था कि इन समस्याओं के लिए मुझे खोजने और चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है—यह बहुत परेशानी भरा काम है। मैंने सोचा कि मैं थोड़ा इंतजार करूँगी और एक दिन अपनी भागीदार बहन के साथ मिलकर इसे हल करूँगी, ताकि मुझे कोई ऊर्जा न खपानी पड़े। लेकिन वह लगातार दूसरे काम में व्यस्त रहती थी। इस तरह मैं पाठ-आधारित कार्य में समस्याएँ हल किए बिना लगभग एक महीने तक बार-बार टालती रही। बाद में सिंचन कार्य में भी कुछ समस्याएँ सामने आईं, जिसकी जिम्मेदारी मेरी थी। कुछ नवागंतुक नकारात्मक और कमजोर थे और सभाओं में नहीं जा रहे थे क्योंकि उन्हें समय पर सिंचन और सहयोग नहीं मिल रहा था। मैंने सोचा कि मुझे इस संबंध में समस्याओं के बारे में सिंचनकर्ताओं के साथ संगति करने के लिए जल्दी से एक पत्र लिख देना चाहिए, लेकिन फिर मैंने सोचा कि पत्र लिखना बहुत ज्यादा झंझट भरा काम है और वैसे भी मैं कुशाग्रता के साथ संगति नहीं कर सकती थी : सबसे अच्छा होगा कि सभा और आमने-सामने संगति तक इंतजार किया जाए। इसलिए मैंने इन समस्याओं को समय पर हल करने के लिए पत्र नहीं लिखा। मैंने खुद को यह सोचकर सांत्वना दी, “मैं बहुत सारे काम के लिए जिम्मेदार हूँ, इसलिए अगर मैं यह सब नहीं कर पाती तो मुझे माफ किया जाना चाहिए। अगर नतीजे अच्छे नहीं हैं, तो इसका कारण यह है कि सिंचनकर्ता वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं।” इस तरह मैं लगातार देह के प्रति विचारशीलता दिखाने के लिए विभिन्न बहाने ढूँढ़ती रहती थी। अपने दिल में मुझे एहसास था कि यह आलस्य है और देह के लिए विचारशीलता दिखाना है, लेकिन मैंने गंभीरता से आत्म-चिंतन नहीं किया और बस इसी उलझन और भ्रामक अंदाज में बढ़ती रही। यह सिलसिला जारी रहा, फिर एक दिन मैं एक बहन से मिलने अपनी बाइक पर जा रही थी। एक चौराहे को पार करते हुए मैं बाइक पर सवार एक दूसरी महिला से टकरा गई। वह ठीक थी, लेकिन मैं जमीन पर गिर पड़ी। मेरे दाहिने कूल्हे में बहुत पीड़ा हो रही थी और दाहिने पैर में मोच आ गई थी। मैंने खुद को लगातार बाइक चलाने पर मजबूर किया था, मैं दिल में बहुत दुखी महसूस कर रही थी। मैंने सोचा, अगर मैं थोड़ा धीरे चलाती तो यह दुर्घटना न होती। इस समय मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरे साथ यह दुर्घटना कोई संयोग नहीं था। मुझे कुछ सबक सीखने थे। तभी मैं प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के समक्ष आई।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा करना भी एक गंभीर मुद्दा है। तुम लोगों को क्या लगता है कि शारीरिक सुख-सुविधाओं की लालसा की कुछ अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? तुम लोगों ने निजी तौर पर जो अनुभव किए हैं, उनके आधार पर तुम लोग क्या उदाहरण दे सकते हो? क्या रुतबे के लाभों का आनंद लेना इसमें शामिल है? (हाँ।) कुछ और? (अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय कठिन के बजाय आसान कार्यों को प्राथमिकता देना और हमेशा हल्का काम करना पसंद करना।) कर्तव्य करते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, ऐसा काम जो थकाए नहीं और जिसमें बाहर जाकर चीजों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और दैहिक आनंदों में लिप्त रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और यह कहते हुए बहाने बनाते हैं कि उनकी काबिलियत कम है, कि उनमें उस कार्य को करने की क्षमता नहीं है और वे उस कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। वे कोई भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे कष्ट नहीं उठाना चाहते। अगर उन्हें बताया जाए कि काम खत्म करने के बाद उन्हें खाने के लिए भुना पोर्क मिलेगा, तो वे उस काम को बहुत जल्दी और दक्षता से करते हैं, और तुम्हें उनसे काम जल्दी निपटाने के लिए कहने, उत्साहित करने या उन पर नजर रखने की जरूरत नहीं होगी; लेकिन अगर उनके खाने के लिए भुना पोर्क न हो, और उन्हें अपना काम सामान्य समय के बाद तक करना पड़े, तो वे टाल-मटोल करते हैं, और उस काम को टालने के लिए हर तरह के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, और कुछ समय तक ऐसा करने के बाद, कहते हैं कि ‘मुझे चक्कर आ रहे हैं, मेरा पैर सुन्न हो गया है, मेरा दम निकल रहा है! मेरे शरीर का हर हिस्सा दर्द कर रहा है, क्या मैं थोड़ी देर आराम कर सकता हूँ?’ यहाँ समस्या क्या है? वे दैहिक सुखों की लालसा करते हैं। ऐसा भी होता है कि लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। ... कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होतीं और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटती हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करती, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। यह देह-सुखों के भोग में लिप्त होना है, है न? क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे इतनी पीड़ा हुई कि मानो मेरे दिल पर चाकू से वार किया जा रहा हो। परमेश्वर ने जिस बारे में बात की, ठीक वही मेरी दशा थी। अपने कर्तव्य निभाते हुए मैंने आसान काम चुने थे और कठिन कामों से परहेज किया था। मैं केवल आसान और कम थकाऊ काम ही चुनती थी। जिन कामों में पीड़ा सहनी होती या कीमत चुकानी होती थी, उन्हें मैं अपनी भागीदार बहन पर थोप देती थी। जब मुझे पहली बार अगुआ चुना गया, तो मैंने लगातार कर्तव्य से बचने के लिए कारण और बहाने ढूँढ़े। मैंने कहा कि मेरी काबिलियत कम है और मेरे पास कोई कार्य क्षमता नहीं है और मैं इस कर्तव्य को अच्छी तरह से नहीं निभा पाऊँगी। असल में यह आलस्य और देह की पीड़ा झेलने का डर था। पत्रों का उत्तर देने में मैं आलसी रहती थी और कष्ट नहीं सहना चाहती थी और इसीलिए मैं जवाब देने के लिए केवल मामूली समस्याएँ चुनती थी, जबकि वे सभी समस्याएँ बहन पर डाल देती थी जिनके जवाब देने के लिए सोच-विचार करने की आवश्यकता होती थी। मूल रूप से मैं पाठ-आधारित कार्य के लिए जिम्मेदार थी और मुझे अपने भाई-बहनों की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी। लेकिन मैं पीड़ा सहना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी और मैंने ये समस्याएँ हल करने के बारे में नहीं सोचा। मैं दूसरों के द्वारा उन्हें हल किए जाने का इंतजार करना पसंद करती थी जबकि मैं खाली बैठी रहती थी और उनकी कड़ी मेहनत पर पल रही थी। मैं लगातार अपनी भागीदार पर निर्भर रहती थी। नतीजतन पाठ-आधारित कार्य प्रभावित होता था। इसके अलावा मैं आराम में लिप्त हो जाती थी। जब मुझे सिंचन कार्य में समस्याओं का पता चला, तो मैंने उन्हें समय पर हल करने के लिए संगति नहीं की, जिसके नतीजे में नवागंतुकों के जीवन को नुकसान पहुँचा। लेकिन मैं खुद को नहीं समझ पाई और सिंचनकर्ताओं पर जिम्मेदारी डालकर मैंने खुद को सांत्वना दी। मैं सचमुच बहुत धोखेबाज थी! परमेश्वर ने मुझ पर इतना अहम कर्तव्य निभाने का अनुग्रह किया था, लेकिन हर मोड़ पर मैंने देह के लिए विचारशीलता दिखाई और कलीसिया के कार्य में देरी करते हुए खुद को समायोजित किया। मैं परमेश्वर के लिए कितनी घृणित थी! मैंने सोचा कि जब मैंने अभी-अभी यह कर्तव्य स्वीकार किया था, तो मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की थी कि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहती हूँ और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती हूँ। लेकिन जैसे ही देह के पीड़ा झेलने का समय आया, मैंने देह को संतुष्ट करने के लिए भागने की कोशिश की। इसका कारण क्या था?
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े और समस्या का मूल कारण पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। “नकली अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे जानते हैं कि एक अधिकारी की तरह कैसे कार्य करना है। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? यह लोगों का अनुग्रह खरीदने के लिए है। वे ‘नए अधिकारी दूसरों को प्रभावित करने के लिए तत्पर रहते हैं’ का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों को खुश करने के लिए कुछ चीजें करते हैं और कुछ चीजें सँभालते हैं जो हर किसी के रोजमर्रा के कल्याण में सुधार करती हैं। पहले वे लोगों में एक अच्छी छवि बनाने, सबको यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे, ‘यह अगुआ हमारे साथ माता-पिता जैसा व्यवहार करता है!’ फिर वे आधिकारिक तौर पर पदभार सँभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास जनता का समर्थन है और कि उनकी स्थिति सुरक्षित हो गई है; फिर वे रुतबे के फायदों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं, मानो उन पर उनका उचित अधिकार हो। उनका आदर्श वाक्य होता है, ‘जीवन सिर्फ अच्छा खाने और सुंदर कपड़े पहनने के बारे में है,’ ‘चार दिन की जिंदगी है, मौज कर लो,’ और ‘आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।’ वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, जब तक हो सके मौजमस्ती करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए और कौन-से कर्तव्य करने चाहिए। वे सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ शब्दों और सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं—वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे कलीसिया में वास्तविक समस्याओं का पता नहीं लगा रहे हैं और उन्हें पूरी तरह से हल नहीं कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा ऐसे सतही कार्य करने का क्या अर्थ है? क्या यह भ्रामक नहीं है? क्या इस किस्म के नकली अगुआ को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जा सकते हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती, और फिर भी वे कलीसिया में कोई आधिकारिक पद सँभालना, अगुआ बनना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों हैं? कुछ लोग, जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, अगर खराब काबिलियत के हों, तो वे अगुआ नहीं हो सकते—और उन बेकार लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती है; वे अगुआ बनने के लिए और भी कम योग्य हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों से मुझे दैहिक सुखों में लिप्त होने का मूल कारण समझ आया। मुख्य कारण यह था कि शैतान के जहर मेरे दिल में गहराई से समा गए थे और मेरी प्रकृति बन गए थे। मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए”, “जीवन सिर्फ अच्छा खाने और सुंदर कपड़े पहनने के बारे में है” और “ज़िंदगी छोटी है, तो जब तक है मौज करो” जैसे जहरों से ग्रसित हो गई थी। मैंने जो कुछ भी किया, उसमें सबसे पहले यह सोचा कि क्या मेरी देह को पीड़ा होगी। मैंने केवल अपने हितों के बारे में सोचा। हर मोड़ पर मैंने अपनी खातिर और अपने लाभ के लिए काम किया। पहले जब मैं स्कूल में थी और किसी कठिन प्रश्न का सामना करती थी, तो मैं उसे हल करने का प्रयास नहीं करना चाहती थी। मैं सोचती थी कि इसके लिए बहुत अधिक मानसिक प्रयास चाहिए—यह बहुत थकाऊ होगा। शादी होने के बाद मैं इस बारे में सोच रही थी कि कैसे अच्छा खाऊँ, अच्छे कपड़े पहनूँ और मौज करूँ। मेरा मानना था कि जीवन में लोगों को आनंद पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और यही अपने लिए कुछ अच्छा करने का तरीका है और अगर आप अपने लिए अच्छा नहीं करते, तो आप मूर्ख हैं। जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, तब भी मैं देह की संतुष्टि के लिए जीती थी। जब मैं अपने कर्तव्य निभाती थी, तो मैं चालाक, कपटी और लापरवाह रहती थी। मुझे अपने कर्तव्य के प्रति जरा सी भी जिम्मेदारी का एहसास नहीं रहता था और मैं बिल्कुल भी कष्ट नहीं उठाना चाहती थी या थोड़ी सी भी कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। जैसे ही मुझे कोई कठिनाई पेश आती, मैं पीछे हट जाती और जब मुझे कुछ करने की जरूरत होती थी, तब भी अगर संभव हो तो मैं उससे बचती रहती थी। मैंने देखा कि मैं इन शैतानी जहरों के भरोसे पर जी रही थी। मैं बेहद स्वार्थी और नीच थी। मैं फायदे को सबसे आगे रखती थी और मुझमें कोई मानवता नहीं थी। सिंचन कार्य हर नवागंतुक की जीवन प्रगति के लिए महत्वपूर्ण होता है। मुझे अच्छी तरह से भान था कि अगर नवागंतुक नकारात्मक थे और सभाओं में नहीं जाते थे तो मुझे इसे हल करने के लिए जल्दी से सत्य पर संगति करनी चाहिए लेकिन चूँकि मैं आलसी थी और देह की पीड़ा से डरती थी, मैं टालती रही और मुद्दे हल नहीं किए। मैं एक नकली अगुआ थी। मैं एक अगुआ के कर्तव्य करने योग्य ही नहीं थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “नकली अगुआ अपना नकलीपन मुख्य रूप से कहाँ दिखाते हैं? सबसे प्रमुख है वास्तविक कार्य न करना; वे बस कुछ ऐसे काम करते हैं जो उन्हें अच्छा दिखाते हैं और वे मान लेते हैं कि काम पूरा हो गया और फिर वे अपने रुतबे के फायदों के मजे लेने लगते हैं। वे इस प्रकार का कार्य चाहे जितना भी करें, क्या इसका यह अर्थ है कि वे वास्तविक कार्य कर रहे हैं? ज्यादातर नकली अगुआ सत्य को अशुद्ध रूप से समझते हैं, सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, जिससे वास्तविक कार्य ठीक से करना बहुत मुश्किल हो जाता है। नकली अगुआओं का एक तबका तो सामान्य मामलों से संबंधित समस्याएँ भी नहीं सुलझा सकता; उनमें स्पष्ट रूप से कम काबिलियत होती है और आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। ऐसे लोगों को विकसित करने की कोई अहमियत नहीं है। कुछ नकली अगुआओं में थोड़ी काबिलियत तो होती है, लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते और वे दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं। जो लोग दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होते हैं, वे सूअरों से ज्यादा अलग नहीं हैं। सूअर अपने दिन सोने और खाने में बिताते हैं। वे कुछ नहीं करते। फिर भी, एक साल तक उन्हें खाना खिलाने की कड़ी मेहनत के बाद जब पूरा परिवार साल के अंत में उनका मांस खाता है तो यह कहा जा सकता है कि वे किसी काम आए हैं। अगर कोई नकली अगुआ सुअर की तरह रखा जाता है, जो रोज तीन बार मुफ्त में खाता-पीता है, मोटा-तगड़ा हो जाता है, लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं करता और निखट्टू रहता है तो क्या उसे रखना व्यर्थ नहीं रहा? क्या वह किसी काम आया? वह सिर्फ परमेश्वर के कार्य में विषमता ही हो सकता है और उसे हटा देना चाहिए। सचमुच, नकली अगुआ की अपेक्षा सुअर पालना बेहतर है। नकली अगुआओं के पास ‘अगुआ’ की उपाधि हो सकती है, वे इस पद पर आसीन हो सकते हैं और दिन में तीन बार अच्छी तरह खा सकते हैं और परमेश्वर के कई अनुग्रहों का आनंद ले सकते हैं और वर्ष के अंत तक खा-खाकर मोटे और गुलाबी हो गए होते हैं—लेकिन काम के बारे में क्या? देखो कि इस वर्ष तुम्हारे कार्य में क्या कुछ हासिल हुआ है : क्या इस वर्ष कार्य के किसी भी क्षेत्र में तुम्हें परिणाम प्राप्त हुए हैं? तुमने कौन-सा वास्तविक कार्य किया? परमेश्वर का घर यह नहीं कहता कि तुम हर काम पूर्णता से करो, लेकिन तुम्हें मुख्य काम अच्छी तरह से करना ही चाहिए—उदाहरण के लिए, सुसमाचार का काम या फिल्म निर्माण का काम, पाठ-आधारित काम, इत्यादि। ये सभी फलदायी होने चाहिए। सामान्य परिस्थितियों में तीन से पाँच महीने के बाद हर काम में कोई परिणाम और उपलब्धि हासिल होनी चाहिए; अगर एक वर्ष के बाद भी कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो यह एक गंभीर समस्या है। तुम्हारी जिम्मेदारी के दायरे में कौन-सा काम सबसे फलदायी रहा है? किसके लिए तुमने सबसे बड़ी कीमत चुकाई है और वर्ष भर सबसे ज्यादा कष्ट उठाया है। इस उपलब्धि को पेश कर आत्म-चिंतन करो कि क्या तुमने वर्ष भर परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेकर कोई मूल्यवान उपलब्धि हासिल की है; तुम्हारे दिल में इसका स्पष्ट भान होना चाहिए। इस पूरे समय जब तुम परमेश्वर के घर का खाना खा रहे थे और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठा रहे थे, तब तुम क्या कर रहे थे? क्या तुमने कुछ हासिल किया है? अगर तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है तो तुम बस खानापूर्ति कर रहे हो, तुम एक पक्के नकली अगुआ हो। क्या ऐसे नकली अगुआओं को बर्खास्त कर हटा देना चाहिए? (हाँ।)” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। मैंने देखा कि परमेश्वर ने क्या कहा : “जो लोग दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होते हैं, वे सूअरों से ज्यादा अलग नहीं हैं।” “इस पूरे समय जब तुम परमेश्वर के घर का खाना खा रहे थे और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठा रहे थे, तब तुम क्या कर रहे थे?” “क्या ऐसे नकली अगुआओं को बर्खास्त कर हटा देना चाहिए?” ये शब्द मेरे दिल को भेद गए। परमेश्वर की नजर में जो लोग वास्तविक काम किए बिना दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं, वे नकली अगुआ हैं। वे अपना कर्तव्य बिल्कुल निष्प्रभावी तरीके से निभाते हैं और परमेश्वर के घर में रहने के योग्य नहीं हैं। मैंने सोचा, अपना कर्तव्य निभाते हुए मैंने असल में क्या किया था? मुझे क्या नतीजे मिले? मैं एक अगुआ के कर्तव्य निभाने में सक्षम थी, यह परमेश्वर का अनुग्रह था। परमेश्वर को उम्मीद थी कि मैं वास्तविक कार्य करूँगी और वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करूँगी जो एक सृजित प्राणी को पूरे करने चाहिए। लेकिन मैं अपने कर्तव्य के साथ किस तरह से पेश आई? मैंने लगातार देह के लिए विचारशीलता दिखाई और अपने कर्तव्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाई। जब मेरे कर्तव्य में समस्याएँ आईं, तो मैंने संगति नहीं की और उनका समाधान नहीं किया। मैंने ऐसा कोई भी काम करने के लिए अपनी भागीदार बहन का इंतजार किया जिसमें परेशानी उठाने या कीमत चुकाने की जरूरत थी। मैंने अगुआ का पद सँभाल रखा था, लेकिन वास्तविक कार्य नहीं करती थी। मैं चालाक और कपटी थी और मैंने बिल्कुल भी कोई जिम्मेदारी नहीं ली या बिल्कुल कोई कष्ट नहीं सहा। मैं हमेशा आराम में रहने के बारे में सोचती रही। क्या मैं सुअर के समान नहीं थी? इस तरह जीने का क्या मतलब है? अगर मैं इसी तरह जीती रही, तो मैं निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा त्याग दी जाऊँगी और हटा दी जाऊँगी! जब मैंने यह सोचा, तो मुझे वास्तव में खुद से नफरत हो गई। मैंने परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, तुम्हारे खुलासे से मैंने देखा कि मैं कितनी स्वार्थी और नीच हूँ। मैंने जो कुछ भी किया है, वह तुम्हारे लिए बहुत घिनौना और घृणित है। प्यारे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने और अपने कर्तव्य निभाने के प्रति अपना रवैया बदलने के लिए तैयार हूँ। मैं अपना कर्तव्य और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करूँगी और अब देह के लिए नहीं जियूँगी।” बाद में मैं यह समझने के लिए समूह की सभाओं में गई कि पाठ-आधारित कार्यकर्ताओं के साथ क्या चल रहा था। मैंने उनकी मदद करने के लिए उनकी दशाओं और उनके कर्तव्यों में आने वाली कठिनाइयों के बारे में संगति की। मैंने सिंचनकर्ताओं के लिए भी सभाएँ कीं और सभी के साथ मिलकर उन कारणों की खोज की कि सिंचन कार्य नतीजे क्यों नहीं दे रहा था और विचलनों को तुरंत बदल दिया। असल सहयोग के माध्यम से सिंचन कार्य में सुधार दिखने लगा और कुछ नवागंतुकों ने भी सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार किया। मैंने अनुभव किया कि यह सब परमेश्वर की अगुआई थी।
दिसंबर 2023 में पुलिस मेरी भागीदार का पीछा कर रही थी और उस पर नजर रखे हुए थी, इसलिए वह अस्थायी रूप से अपने कर्तव्य करने में असमर्थ थी। उस समय कार्य का सारा भार मुझ पर ही आ गया था : सुसमाचार कार्य, सिंचन कार्य, सफाई का कार्य और पाठ-आधारित कार्य। इन सभी कार्यों को सँभालने की जरूरत पड़ने से मैं इतना दबाव महसूस कर रही थी कि मैं मुश्किल से साँस ले पा रही थी। मैंने मन में सोचा, “यह सारा काम है और मुझे इसे अपने दम पर करना है। मैं कैसे कर सकती हूँ? मुझे कितना कष्ट सहना पड़ेगा और कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी? अगर मैं दिन-रात काम करती रहूँ, तो भी मैं इसे पूरा नहीं कर पाऊँगी। अगर यही चलता रहा तो मैं थकावट के मारे ढह जाऊँगी!” मैं अपने दिल में दमित और दुखी महसूस कर रही थी। इस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा सही नहीं थी। मुझे अभी भी डर था कि देह को तकलीफ होगी और मैं आराम में लिप्त होने के बारे में सोच रही थी। इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की और परमेश्वर से मेरे दिल की रक्षा करने को कहा ताकि मैं पहले शांत हो सकूँ और इस परिवेश के प्रति समर्पण कर सकूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोगों को बस इतना करना चाहिए कि उन्हें जो करना चाहिए उसे पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करें। अगर तुम परमेश्वर के वचनों से अवगत हो जाते हो, उन्हें अपने दिल में महसूस करते हो और उन्हें समझते हो, तुम्हारे आस-पास के लोग तुम्हें याद दिलाते हैं या परमेश्वर द्वारा तुम्हें कोई संकेत या शकुन दिया जाता है जो तुम्हें जानकारी प्रदान करता है—यह कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना चाहिए, यह परमेश्वर का तुम्हें दिया गया आदेश है—तो तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए और निष्क्रिय होकर नहीं बैठना चाहिए या किनारे खड़े होकर इसे नहीं देखना चाहिए। तुम रोबोट नहीं हो; तुम्हारे पास दिमाग और विचार हैं। जब कुछ होता है, तो तुम्हें बिल्कुल पता होता है कि तुम्हें क्या करना चाहिए और तुम्हारे पास निश्चित रूप से भावनाएँ और जागरूकता होती है। इसलिए इन भावनाओं और जागरूकता को वास्तविक स्थितियों पर लागू करो, उन्हें जियो और उन्हें अपने क्रियाकलापों में तब्दील करो, और इस तरह तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली होगी। जिन चीजों के बारे में तुम जान सकते हो, उनके लिए तुम्हें उन सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए जिन्हें तुम समझते हो। इस तरह, तुम अपना सर्वश्रेष्ठ कर रहे हो और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हो” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (21))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे थोड़ी आस्था मिली। परमेश्वर ने इस परिवेश को मुझ पर आने दिया था ताकि मैं सीख सकूँ कि देह के खिलाफ विद्रोह कैसे करना है, परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करना है और यह विश्वास कैसे करना है कि परमेश्वर स्वयं अपना कार्य कर रहा है। मुझे बस वे चीजें करनी थीं जिन्हें मैं समझती थी और अपनी पूरी क्षमता से करने में सक्षम थी—बस इतना ही काफी था। जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मुझे अब इतना दुखी और दमित महसूस नहीं हुआ। इसके बाद मैंने सबसे पहले महत्वपूर्ण और अहम समस्याएँ सँभालीं और उन्हें हल किया। एक उपदेशक ने यह कहते हुए एक पत्र भेजा था कि मुझे पहले प्रत्येक कलीसिया में खाली पदों के लिए अगुआओं और उपयाजकों का चुनाव करना चाहिए। फिर हर कोई काम का बोझ साझा कर पाएगा और यह आसान हो जाएगा। जब हर व्यक्ति ने अपनी खूबियों के बीच तालमेल बिठाकर एक साथ काम किया तो अगुआओं और उपयाजकों का चुनाव हुआ और काम पर बहुत अधिक असर नहीं पड़ा।
इस खुलासे का अनुभव करने के बाद मैंने अपनी स्वार्थी और नीच शैतानी प्रकृति को समझा और अपने कर्तव्य निभाने को लेकर मेरे रवैये में कुछ बदलाए आए। परमेश्वर का धन्यवाद!