49. काट-छाँट के बाद का चिंतन

मेंग हान, चीन

2023 में, मुझे एक जिला अगुआ के रूप में चुना गया था। मुझे लगा कि मेरी ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है, और मैं हर दिन कलीसियाओं के बीच जाती थी, मिलने वाली किसी भी समस्या को सक्रिय रूप से हल करती थी। कुछ समय बाद, कलीसिया के शुद्धिकरण कार्य से कुछ नतीजे मिले, और दूसरे कामों में भी धीरे-धीरे प्रगति होने लगी, तो मैं थोड़ी आत्मसंतुष्ट हो गई, और मुझे लगा कि मैंने कुछ वास्तविक काम किया है। बाद में, जब उच्च अगुआ, बहन चेनशी, ने कार्य का जायजा लिया, तो उसने बताया कि चुनाव का काम धीमी गति से आगे बढ़ रहा है, कि अगुआओं और उपयाजकों का चुनाव पूरा नहीं हुआ था, जिससे कलीसिया के काम में बाधा आ रही थी, और सुसमाचार कार्य भी आगे नहीं बढ़ रहा था। जब मैंने चेनशी को यह कहते सुना, तो हालाँकि मुझे कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई, लेकिन ये समस्याएँ वास्तव में थीं, और मैं उनसे इनकार नहीं कर सकती थी। इसलिए मैंने इन कामों का जायजा लेना शुरू कर दिया। कुछ प्रयास के बाद, चुनाव कार्य और सुसमाचार कार्य दोनों में कुछ प्रगति हुई, और मैंने मन में सोचा, “जब से चेनशी ने इन समस्याओं की ओर इशारा किया है, मैं कार्य का जायजा ले रही हूँ, अगुआ और उपयाजक चुन लिए गए हैं, और सुसमाचार कार्य में पिछले महीने की तुलना में सुधार हुआ है। इस बार, वह निश्चित रूप से यह नहीं कहेगी कि मुझमें कोई समस्या है।”

बाद में, जब चेनशी ने फिर से चुनाव कार्य की प्रगति के बारे में पूछा, तो मैंने उसे स्थिति के बारे में जो कुछ भी पता था, वह बताया, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ, उसने कहा, “जबसे अगुआओं और उपयाजकों को चुना गया है, क्या उनके बायोडाटा और मूल्यांकन ठीक से एकत्र किए गए हैं? औपचारिक चुनाव कब शुरू होगा?” चेनशी को यह कहते सुनकर, मैं अचानक चिंतित हो गई, सोचने लगी, “भले ही मैं हर कलीसिया में चुनाव कार्य का जायजा ले रही हूँ, लेकिन मुझे पक्का पता नहीं है कि बायोडाटा और मूल्यांकन पूरी तरह से एकत्र किए गए हैं या नहीं, या औपचारिक चुनाव कब होगा।” मैंने जल्दी से कहा, “अभी भी इसका जायजा लेना बाकी है।” फिर चेनशी ने पूछा, “तुम्हारी ज़िम्मेदारी के दायरे में, बहुत सारे अगुआओं और उपयाजकों की ज़रूरत है और काम में बाधा आ रही है—तुम इस पर और अधिक तत्परता से काम क्यों नहीं कर रही हो? सुसमाचार का काम भी है। कुछ कलीसियाओं में लंबे समय से कोई नतीजा नहीं निकला है। क्या तुम जानती हो कि असल में समस्या क्या है? इसे हल करने के लिए तुम क्या कर रही हो? अभी तुम्हारे पूरे क्षेत्र में सुसमाचार के नतीजे अच्छे नहीं हैं।” यह सुनकर, मैंने प्रतिरोधी महसूस किया, सोचने लगी, “हाल ही में हमारे काम में विचलनों की ओर इशारा करने के बाद, क्या हमने जल्दी से इन चीजों का जायजा लेकर उन्हें हल नहीं किया? हम त्याग करते रहे हैं और आलसी नहीं रहे हैं। काम को लागू करने में भी समय लगता है, है ना? इसके अलावा, क्या हाल ही में सुसमाचार कार्य और चुनाव कार्य में प्रगति नहीं हुई है? तुम अब भी हमारी काट-छाँट क्यों कर रही हो? ऐसा लगता है कि हम चाहे कुछ भी करें, तुम्हारे लिए वह कभी भी काफी अच्छा नहीं होता। क्या तुम जान-बूझकर हमें निशाना नहीं बना रही हो और हमारी गलतियाँ नहीं ढूँढ़ रही हो?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मैंने प्रतिरोधी महसूस किया, और गुस्से में मैंने कहा, “यह साफ़ है कि मुझमें कोई कार्यक्षमता नहीं है और मेरे कर्तव्य से अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे हैं। मुझे बरखास्त ही कर दिया जाना चाहिए!” मुझे इस तरह देखकर, चेनशी ने कहा कि मैं सत्य को स्वीकार नहीं करती, और जब काम में समस्याएँ होती हैं, तो मैं विचलनों को ठीक करने के लिए सत्य नहीं खोजती, बल्कि प्रतिरोधी और विरोधी महसूस करती हूँ। लेकिन उसने चाहे कुछ भी कहा, मैं और कुछ नहीं सुनना चाहती थी, और मैंने बस अपना सिर झुका लिया और यही लगता रहा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। मैंने मन में सोचा, “मैं हाल ही में बहुत कड़ी मेहनत करती रही हूँ। क्या मैं इस काम का जायजा नहीं ले रही हूँ? क्या यह वास्तविक काम करना नहीं है? तुम अब भी सोचती हो कि यह पर्याप्त नहीं है, और तुम यह भी कहती हो कि मैं सत्य को स्वीकार नहीं कर रही हूँ, तो अगर मुझे बरखास्त करने की ज़रूरत है, तो बस आगे बढ़ो और मुझे बरखास्त कर दो! एक अगुआ के कर्तव्य की आवश्यकताएँ बहुत अधिक हैं, और मैं स्पष्ट रूप से उन्हें पूरा नहीं कर सकती!” इस घटना के बाद, मैं वास्तव में परेशान महसूस कर रही थी। जब मैं शांत होकर आत्म-चिंतन करने लगी, तो मुझे एहसास हुआ कि चेनशी का मेरी समस्याओं की ओर इशारा करना मेरे लिए चीजें मुश्किल बनाने के लिए नहीं था, न ही यह मेरा मज़ाक उड़ाने के लिए था, बल्कि इसलिए था क्योंकि वह कलीसिया के काम के बारे में सोच रही थी। मैं यह क्यों नहीं स्वीकार कर सकी? मैं परमेश्वर के सामने आई और प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, आज बहन ने मेरे कर्तव्य में समस्याओं की ओर इशारा किया, और मुझे इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल लगा। मैं हमेशा बहस करना और खुद को सही ठहराना चाहती थी और महसूस करती रही कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। परमेश्वर, कृपया मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं खुद को समझ सकूँ।”

अपनी खोज में, मैंने देखा कि परमेश्वर उन मसीह-विरोधियों के व्यवहार को उजागर करता है जो सत्य को स्वीकार नहीं करते, और उन्हें खुद से जोड़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो सबसे पहले वे उसका विरोध करते हैं और उसे दिल की गहराई से नकार देते हैं। वे उससे लड़ते हैं। और ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख और उससे घृणा करने वाला होता है और वे सत्य जरा-भी नहीं स्वीकारते। स्वाभाविक-सी बात है कि एक मसीह-विरोधी का सार और स्वभाव उन्हें अपनी गलतियों को मानने या अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारने से रोकता है। इन दो तथ्यों के आधार पर, काट-छाँट किए जाने के प्रति एक मसीह-विरोधी का रवैया उसे पूरी तरह से नकारने और अवज्ञा करने का होता है। वे दिल की गहराइयों से इससे घृणा और इसका विरोध करते हैं, उनमें जरा-सा भी स्वीकृति या समर्पण का भाव नहीं होता, तो सच्चे आत्मचिंतन या पश्चात्ताप की तो बात ही दूर है। जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो यह किसने किया है, यह किससे संबंधित है, उस मामले के लिए वह किस हद तक जिम्मेदार है, उसकी भूल कितनी स्पष्ट है, उसने कितनी बुराई की है या कलीसिया के कार्य के लिए उसकी बुराई से क्या परिणाम पैदा होते हैं—मसीह-विरोधी इनमें से किसी बात पर कोई विचार नहीं करता। एक मसीह-विरोधी के लिए, उसकी काट-छाँट करने वाला बस उसी के पीछे पड़ा है या जानबूझकर उसे सताने के लिए उसमें दोष ढूँढ़ रहा है। मसीह-विरोधी तो यह तक सोच सकता है कि उसे धमकाया और अपमानित किया जा रहा है, उसके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, उसे नीचा दिखाकर उसका उपहास किया जा रहा है। मसीह-विरोधी काट-छाँट के बाद भी, इस बात पर कभी विचार नहीं करते कि उन्होंने आखिर क्या गलती की है, उन्होंने क्या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, और क्या उन्होंने उन सिद्धांतों की खोज की है, जिनके अनुसार उन्हें चलना चाहिए, क्या उन्होंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया या उस मामले में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कीं, जिनमें उनकी काट-छाँट की गई। वे इनमें से किसी की भी न तो जाँच या आत्म-चिंतन करते हैं, न ही इन मुद्दों पर वे सोच-विचार या मंथन करते हैं। बल्कि, वे अपनी इच्छा के अनुसार और उग्रता से काट-छाँट किए जाने से पेश आते हैं। जब भी किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो वह क्रोध, अवज्ञा और असंतोष से भर जाता है और किसी की सलाह नहीं मानता। वह अपनी काट-छाँट को स्वीकार नहीं पाता, वह अपने बारे में जानने और आत्म-चिंतन करने, और अनमना या अपना कर्तव्य निरंकुशता से करने जैसी सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली हरकतों का समाधान करने के लिए कभी परमेश्वर के सामने नहीं आता, न ही वह इस अवसर का उपयोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए करता है। इसके बजाय, वह अपना बचाव करने के लिए, खुद को निर्दोष साबित करने के लिए बहाने ढूँढ़ता है, यहाँ तक कि वह कलह पैदा करने वाली बातें कहकर लोगों को उकसाता है। संक्षेप में, जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ अवज्ञा, असंतोष, प्रतिरोध और अनादर की होती हैं, और उनके दिलों में कुछ शिकायतें उठती हैं : ‘मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई और इतना ज्यादा काम किया। भले ही मैंने कुछ चीजों में सिद्धांतों का पालन नहीं किया या सत्य की तलाश नहीं की, मैंने यह सब अपने लिए नहीं किया! भले ही मेरे कारण कलीसिया के काम को कुछ नुकसान पहुँचा हो, लेकिन मैंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया! कौन गलतियाँ नहीं करता? तुम मेरी गलतियों को पकड़कर मेरी कमजोरियों पर विचार किए बिना और मेरी मनोदशा या आत्म-सम्मान की परवाह किए बिना अंतहीन रूप से मेरी काट-छाँट नहीं कर सकते। परमेश्वर के घर में लोगों के लिए कोई प्रेम नहीं है और यह बहुत अन्यायपूर्ण है! इसके अलावा, तुम इतनी छोटी-सी गलती के लिए मेरी काट-छाँट करते हो—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम मुझे प्रतिकूल नजरों से देखते हो और मुझे हटाना चाहते हो?’ जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनके दिमाग में पहली बात यह नहीं आती कि वे अपनी गलती पर या उस भ्रष्ट स्वभाव पर आत्मचिंतन करें जो उन्होंने प्रकट किया है, बल्कि अटकलें लगाते हुए बहस करना, स्पष्टीकरण देना और खुद को सही ठहराना उनका ध्येय होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी चाहे परमेश्वर के घर के काम में कितनी भी गड़बड़ी और बाधा डालें, उन्हें अपने जमीर पर कोई अपराध-बोध महसूस नहीं होता, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे बस प्रतिरोधी महसूस करते हैं और खुद को सही ठहराते हैं, लगातार अपने मामले पर बहस करने की कोशिश करते हैं, वे अपनी गलतियों को न स्वीकारते हैं, न मानते हैं। वे भाई-बहनों की काट-छाँट को भी दूसरों द्वारा गलतियाँ ढूँढ़ना या उनके लिए चीजें मुश्किल बनाना समझते हैं। यह मसीह-विरोधियों की सत्य से विमुख होने और उससे नफरत करने की प्रकृति के कारण होता है। पुरानी बातें सोचूँ तो, जब मेरी काट-छाँट की गई, तो क्या मैंने जो प्रकट किया वह भी सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं था? उच्च अगुआ ने बताया कि हमारा चुनाव कार्य धीमी गति से आगे बढ़ रहा था, और मैं अपने कर्तव्यों में निष्क्रिय और सुस्त रही थी। उसने यह भी बताया कि हमारी ज़िम्मेदारी के दायरे में समग्र सुसमाचार कार्य प्रभावी नहीं रहा था। ये सब तथ्य थे। उसने हमारे काम में समस्याओं की ओर इशारा किया और इन विचलनों को ठीक करने के लिए हमारा मार्गदर्शन किया। यह कलीसिया के काम की रक्षा के लिए था। मुझे इसे स्वीकार करना चाहिए था और अपने काम में समस्याओं पर विचार करना चाहिए था, और फिर उन्हें तुरंत ठीक करना चाहिए था। लेकिन, मैंने न केवल आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि मैं आत्मसंतुष्टि की दशा में भी जीती रही। मैंने उच्च अगुआ के प्रति प्रतिरोधी महसूस किया, उसे नापसंद किया, मन ही मन लगातार बहस करती और खुद को सही ठहराती रही, यह सोचकर कि उसका मेरी समस्याओं की ओर इशारा करना सिर्फ इसलिए था क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं करती थी, और वह जान-बूझकर मेरी गलतियाँ निकाल रही थी। मैंने यह भी सोचा कि अगुआई के कर्तव्य की माँगें बहुत अधिक थीं, इसलिए मैं नकारात्मक और विद्रोही हो गई, कहा कि मुझमें कार्यक्षमता की कमी है और अपना कर्तव्य पूरा न करने के लिए मुझे बरखास्त ही कर दिया जाना चाहिए। मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा रही थी, यहाँ तक कि बहाने बनाकर काम ही छोड़ दे रही थी, मुझमें सच में कोई विवेक नहीं था! क्या मैंने जो प्रकट किया वह ठीक एक मसीह-विरोधी का सत्य से विमुख होने और नफरत करने का स्वभाव नहीं था? मैंने कलीसिया से निकाले गए एक मसीह-विरोधी के बारे में सोचा। वह हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार काम करती थी, और जब समस्याएँ पैदा हुईं जिनसे कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा, तो उसे कोई पछतावा नहीं हुआ, न ही उसने भाई-बहनों की काट-छाँट, मार्गदर्शन या मदद स्वीकार की। बाद में भी, उसने खुद को नहीं सुधारा, और बस बहस करती रही और उनके खिलाफ शोर मचाती रही। अंत में, उसे उसके कई बुरे कामों के लिए कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया। अगर मैं काट-छाँट स्वीकार करने से, या भाई-बहनों की सही सलाह मानने से इनकार करती रही, जिससे कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान हुआ, तो अंत में, मुझे भी एक मसीह-विरोधी की तरह परमेश्वर द्वारा प्रकट किया और हटा दिया जाएगा! यह महसूस करते हुए कि मुझमें भी एक मसीह-विरोधी के व्यवहार और सत्य से विमुख होने का स्वभाव था, मुझे डर लगने लगा। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे बुराई करने और उसका विरोध करने से बचाने के लिए कहा।

प्रार्थना करने के बाद, मैंने मन में सोचा, “वास्तविक काम करने का क्या मतलब है?” अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने प्रतिभाशाली हो, तुम्हारे पास किस स्तर की काबिलियत और शिक्षा है, तुम कितने नारे लगा सकते हो, या कितने शब्द और धर्म-सिद्धांतों पर तुम्हारी पकड़ है; इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने व्यस्त हो, या दिन भर में कितने थके हो, या तुमने कितनी दूर की यात्रा की है, कितनी कलीसियाओं में जाते हो, या तुम कितने जोखिम उठाते हो और कितना कष्ट सहते हो—इनमें से कोई भी बात मायने नहीं रखती। जो बात मायने रखती है वह यह है कि क्या तुम अपना काम दी गई कार्य व्यवस्थाओं के आधार पर कर रहे हो, क्या तुम उन व्यवस्थाओं को सही ढंग से कार्यान्वित कर रहे हो; क्या तुम अपनी अगुआई के दौरान हर उस विशिष्ट कार्य में भाग ले रहे हो जिसके लिए तुम जिम्मेदार हो, और तुमने वास्तव में कितने वास्तविक मुद्दों का समाधान किया है; तुम्हारी अगुआई और मार्गदर्शन के कारण कितने लोग सत्य सिद्धांतों को समझ पाए हैं, और कलीसिया का काम कितना आगे बढ़ा और विकसित हुआ है—जो मायने रखता है वह यह है कि तुमने ये परिणाम हासिल किए हैं या नहीं। तुम जिस भी विशिष्ट कार्य में लगे हो, उसके बावजूद जो मायने रखता है वह यह है कि क्या तुम उच्चपदस्थ और शक्तिशाली बन कर आदेश जारी करने के बजाय लगातार कार्य का अनुसरण और निर्देशन कर रहे हो या नहीं। इसके अलावा यह भी मायने रखता है कि तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए जीवन प्रवेश करते हो या नहीं, क्या तुम सिद्धांतों के अनुसार मामलों से निपट सकते हो, क्या तुम्हारे पास सत्य को अभ्यास में लाने की गवाही है, और क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने आने वाले वास्तविक मुद्दों को सँभाल सकते हो और उनका समाधान कर सकते हो। ये और इसी तरह की दूसरी चीजें यह आकलन करने की कसौटियाँ हैं कि किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किया है या नहीं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (9))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि कोई अगुआ या कार्यकर्ता वास्तविक काम करता है या नहीं, इसका माप परमेश्वर इस बात से नहीं लेता कि उसने कितना कष्ट सहा या कितना त्याग किया है, बल्कि यह देखता है कि काम में कितनी कठिनाइयाँ और समस्याएँ हल की गई हैं, काम कितना प्रभावी है, और वे अपने कर्तव्य में कितने कुशल हैं। लेकिन मैं हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करती रही, यह सोचकर कि नतीजा, दक्षता या प्रगति चाहे जो भी हो, जब तक मैं आलसी नहीं हो रही हूँ, हर दिन खुद को व्यस्त रखती हूँ, और आवश्यक कार्य समय पर किया जाता है, तो मैं वास्तविक काम कर रही थी। इसलिए, जब उच्च अगुआ ने बताया कि मैं वास्तविक काम नहीं कर रही हूँ, तो मुझे बहुत बुरा लगा, और मैं इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थी और बहस करना चाहती थी। अब परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में खुद पर विचार करते हुए, मैंने देखा कि हालाँकि मैं हर दिन व्यस्त रहती थी, मैं बहुत सारी वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं कर रही थी, खासकर अगुआओं और उपयाजकों के चुनाव में। हालाँकि मैंने लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए पत्र लिखे, लेकिन मैं ज़्यादातर बस औपचारिकता निभा रही थी, केवल नारे लगा रही थी और चीजों का बुनियादी तरीके से जायजा ले रही थी। मैंने शायद ही कभी पूछा कि बाद में कलीसिया का कार्यान्वयन कैसा रहा, प्रगति कैसी रही, और कौन सी कठिनाइयाँ अभी तक हल नहीं हुई थीं, जिससे चुनावों में धीमी प्रगति हुई और कार्यकुशलता बहुत कम रही। सुसमाचार कार्य के मेरे जायजे में भी यही समस्या हुई। सतह पर, ऐसा लगा कि मैंने काम का बहुत जायजा लिया, लेकिन ज़्यादातर समय यह सिर्फ ऊपर-नीचे जानकारी का आदान-प्रदान था। मैं विशिष्ट मौजूदा समस्याओं के बारे में कभी-कभार ही पूछती थी, उन्हें समय रहते हल तो और नहीं कर रही थी, जिसके परिणामस्वरूप काम में खराब प्रभावशीलता रही। यह वास्तविक काम करना नहीं था। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हुए, मैं बस औपचारिकता निभा रही थी, सार रूप में लोगों को धोखा देने और परमेश्वर को ठगने की कोशिश कर रही थी। परमेश्वर चाहता है कि हम अपने कर्तव्य इस तरह से करें कि उसके इरादों पर विचार करें, और हम दक्षता और प्रभावशीलता पर ध्यान केंद्रित करें। बस ऐसा करके ही हम मानक-स्तर पर कर्तव्य-पालन कर सकते हैं। मैंने केवल सतही तौर पर काम का क्रियान्वयन किया और वास्तविक समस्याओं को हल नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप मेरी ज़िम्मेदारियों के दायरे में काम में कोई वास्तविक प्रगति या नतीजा नहीं निकला। अगर यह जारी रहा, तो मैं बस एक झूठी अगुआ के रूप में प्रकट हो जाऊँगी और बरखास्त कर दी जाऊँगी। इन बातों का एहसास होने पर, मुझे खुद से नफरत हुई, और मैंने मन ही मन खुद से संकल्प लिया, “जब मैं फिर से अपना कर्तव्य करूँगी, तो मुझे लगन और पूरी प्रतिबद्धता के साथ ऐसा करना चाहिए, और काम करते समय मुझे दक्षता और वास्तविक नतीजों पर ध्यान देना चाहिए, ताकि काम को जल्द से जल्द आगे बढ़ाया जा सके।” बाद में, सुसमाचार कार्य का क्रियान्वयन करते समय, मैंने अगुआओं और उपयाजकों के साथ मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के इरादे के साथ-साथ सुसमाचार प्रचार के महत्व के बारे में संगति की, और मैंने उन्हें वास्तव में सुसमाचार कार्य में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। भाई-बहनों ने सुसमाचार प्रचार के महत्व को समझा और सुसमाचार कार्य पर सक्रिय रूप से काम किया, और बाद में, सुसमाचार कार्य में कुछ प्रगति हुई। चुनाव कार्य में, मैंने समय पर समस्याओं का जायजा लिया और उन्हें हल किया, और कुछ समय बाद, अधिकांश कलीसिया अगुआओं और उपयाजकों को चुन लिया गया, और कलीसिया का काम सामान्य रूप से आगे बढ़ सका।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “जब काट-छाँट किए जाने की बात आती है तो लोगों को कम से कम क्या जानना चाहिए? मानक-स्तर के तरीके से अपना कर्तव्य करने के लिए काट-छाँट किए जाने का अनुभव जरूर करना चाहिए—यह अपरिहार्य है। यह ऐसी चीज है जिसका लोगों को दिन-प्रतिदिन सामना करना चाहिए और जिसे परमेश्वर में अपने विश्वास में उद्धार प्राप्त करने के लिए अक्सर अनुभव करना चाहिए। कोई भी काट-छाँट किए जाने से अलग-थलग नहीं रह सकता। क्या किसी की काट-छाँट का संबंध उसकी संभावनाओं और नियति से होता है? (नहीं।) तो किसी व्यक्ति की काट-छाँट क्यों की जाती है? क्या यह उसकी निंदा करने के लिए की जाती है? (नहीं, यह लोगों को सत्य समझने और अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाने में मदद करने के लिए की जाती है।) सही कहा। यह इसकी एकदम सही समझ है। किसी की काट-छाँट करना एक तरह का अनुशासन है, एक प्रकार की ताड़ना है और यह स्वाभाविक रूप से एक प्रकार से लोगों की मदद करना और उनका उपचार करना भी है। काट-छाँट किए जाने से तुम समय रहते अपने गलत अनुसरण को बदल सकते हो। इससे तुम अपनी मौजूदा समस्याएँ तुरंत पहचान सकते हो और समय रहते अपने उन भ्रष्ट स्वभावों को पहचान सकते हो जो तुम प्रकट करते हो। चाहे कुछ भी हो, काट-छाँट किया जाना तुम्हें अपनी गलतियाँ पहचानने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में मदद करते हैं, ये तुम्हें चूक करने और भटकने से समय रहते बचाते हैं और तबाही मचाने से रोकते हैं। क्या यह लोगों की सबसे बड़ी सहायता, उनका सबसे बड़ा उपचार नहीं है? जमीर और विवेक रखने वालों को काट-छाँट किए जाने को सही ढंग से लेने में सक्षम होना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों से मैं काट-छाँट किए जाने का महत्व समझ गई, और यह भी कि मानक-स्तर पर कर्तव्य-पालन के लिए काट-छाँट किया जाना एक आवश्यक अनुभव है। जब भाई-बहन हमारे कर्तव्यों में समस्याएँ या विचलन देखते हैं, तो उनका समय पर हमारी समस्याओं की ओर इशारा करना या हमारी काट-छाँट या हमें उजागर करना, हमें अपनी समस्याओं का एहसास करने और उन्हें जल्दी से ठीक करने में मदद करता है। यह कलीसिया के काम की रक्षा करना और हमें सच्ची मदद देना है। मैंने सोचा कि कैसे उच्च अगुआ का बार-बार मेरे काम में समस्याओं की ओर इशारा करना मेरे लिए चीजें मुश्किल बनाने या मुझे शर्मिंदा करने के लिए नहीं था, बल्कि मुझे मेरे काम में कमियों और विचलनों का एहसास कराने में मदद करने के लिए था, जिससे मैं भविष्य में कलीसिया का काम बेहतर ढंग से कर सकूँ, और साथ ही मुझे अपने कर्तव्य में लापरवाह होने के अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने में मदद करने के लिए भी था। उस पल, मुझे सच में एहसास हुआ कि काट-छाँट का कार्य न केवल लोगों के जीवन प्रवेश को लाभ पहुँचाता है, बल्कि उन्हें अपने कर्तव्यों में विचलनों और समस्याओं को तुरंत ठीक करने में भी मदद करता है, उन्हें अपने रास्ते पर जाने से रोकता है और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचने से बचाता है। काट-छाँट किया जाना परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है! बाद में, जब उच्च अगुआ ने मेरे काम का जायजा लिया, तो उसने मेरी समस्याओं की ओर इशारा करना जारी रखा, हालाँकि कभी-कभी मैं फिर भी बहस करने की दशा में आ जाती थी, पर मुझे एहसास हुआ कि अगुआ का मेरे काम का जायजा लेना उसका मुझे हाथ पकड़कर मार्गदर्शन करना था, मुझे सिखाना था कि अपने काम में सिद्धांतों में कैसे प्रवेश किया जाए, और इसलिए मेरे दिल में, मैंने उतना प्रतिरोधी महसूस नहीं किया।

ज्यादा समय नहीं बीता, कि उच्च अगुआ ने एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया था कि मैं सुसमाचार कार्य का जायजा लेने में निष्क्रिय थी, और मैंने सुसमाचार कार्य की उपेक्षा की थी और सारी कठिनाइयाँ सुसमाचार कार्यकर्ताओं पर डाल दी थीं। पत्र पढ़ने के बाद, मैं अपने दिल में बहस करने से खुद को नहीं रोक सकी, “तुम कैसे कह सकती हो कि मैंने ध्यान नहीं दिया? सुसमाचार कार्य प्रभावी नहीं रहा है, और मैं इस वजह से चिंतित और कुंठित रही हूँ। हाल के दिनों में मैंने सुसमाचार कार्य को बढ़ावा दिया और कड़ी मेहनत की है, और मैंने उत्पन्न हुई समस्याओं के संबंध में संगति और मदद प्रदान की है। वो ऐसा कैसे कह सकती है कि मैं सुसमाचार के काम में शामिल नहीं हुई?” उस पल, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से सत्य से विमुख होने का स्वभाव प्रकट करने लगी हूँ, और मैंने सोचा, “अगुआओं के पत्र में निश्चित रूप से एक समस्या की ओर इशारा किया गया है, इसलिए मुझे विवेक से काम लेना चाहिए और पहले समर्पण करना चाहिए।” इसलिए मैंने अपने दिल में चुपचाप प्रार्थना की, परमेश्वर से मुझे समर्पण करने के लिए मार्गदर्शन करने को कहा। फिर मैंने कुछ समय पहले पढ़े परमेश्वर के वचन के एक अंश के बारे में सोचा कि कैसे काट-छाँट से निपटा जाए, और इसलिए मैंने जल्दी से उसे ढूँढ़कर पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तो फिर समर्पित रवैया आखिर क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारे पास एक सकारात्मक रवैया होना चाहिए : जब तुम्हारी काट-छाँट हो तो सबसे पहले सही-गलत का विश्लेषण करने मत बैठ जाओ—इसे समर्पित मन से स्वीकारो। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है कि तुमने कुछ गलत किया है। यद्यपि तुम्हारा दिल नहीं मानता, तुम यह भी नहीं जानते कि क्या गलत किया, फिर भी तुम इसे स्वीकारते हो। स्वीकार करना मूल रूप से एक सकारात्मक रवैया है। इसके अलावा ऐसा रवैया भी है जो इससे थोड़ा ज्यादा नकारात्मक है, वह है चुप रहना और कोई प्रतिरोध न करना। इसमें किस तरह का व्यवहार शामिल है? तुम अपनी समझ पर बहस नहीं करते, अपना बचाव नहीं करते, या अपने लिए वस्तुनिष्ठ बहाने नहीं बनाते। अगर तुम हमेशा अपने लिए बहाने बनाते हो और तर्क-वितर्क करते हो, और जिम्मेदारी दूसरे लोगों पर ठेलते हो तो क्या यह प्रतिरोध है? यह विद्रोह का स्वभाव है। तुम्हें अस्वीकार, प्रतिरोध या समझ को लेकर तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। भले ही तुम्हारी समझ मजबूत हो, लेकिन क्या यही सत्य है? यह मनुष्य का वस्तुनिष्ठ बहाना है, सत्य नहीं। तुमसे वस्तुनिष्ठ बहानों के बारे में नहीं पूछा जा रहा है—यह चीज क्यों हुई, या कैसे हुई—बल्कि, तुम्हें यह बताया जा रहा है कि उस कार्यकलाप की प्रकृति सत्य के अनुरूप नहीं थी। यदि तुम्हारे पास इस स्तर का ज्ञान है, तो तुम वास्तव में स्वीकार करने और प्रतिरोध न करने में सक्षम होओगे। कोई घटना हो जाने पर सबसे पहले समर्पित रवैया अपनाना मुख्य है। ... काट-छाँट का सामना होने पर, एक स्वीकारने वाले और समर्पित रवैये के तहत किस प्रकार के कार्यकलाप आते हैं? कम-से-कम तुम्हें समझदार और तर्कसंगत होना चाहिए। तुम्हें पहले समर्पण करना चाहिए, इसका विरोध या इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए, और इसके साथ तर्कसंगत व्यवहार करना चाहिए। इस तरीके से तुम्हारे पास न्यूनतम आवश्यक तार्किकता होगी। अगर तुम स्वीकृति और समर्पण हासिल करना चाहते हो तो तुम्हें सत्य को समझना होगा। सत्य को समझना कोई आसान चीज नहीं है। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर की चीजों को स्वीकारना होगा : कम-से-कम यह तो जान ही लो कि तुम्हारी काट-छाँट परमेश्वर की अनुमति से होती है, या यह परमेश्वर से आती है। काट-छाँट चाहे पूरी तरह से उचित हो या नहीं, तुम्हें स्वीकार करने वाला और समर्पण का रवैया रखना चाहिए। यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की अभिव्यक्ति है, और साथ ही यह परमेश्वर द्वारा पड़ताल की स्वीकृति भी है। यदि तुम बस अपनी समझ को लेकर तर्क-वितर्क करते रहते हो और अपना बचाव करते हो कि काट-छाँट मनुष्य से आती है, परमेश्वर से नहीं, तो तुम्हारी समझ में खोट है। एक बात तो यह कि, तुमने परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार नहीं किया है, और दूसरी बात परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो परिवेश तैयार किया है उसमें ढलने के लिए तुम्हारे पास न तो समर्पित रवैया है, न ही आज्ञाकारी आचरण है। यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि जब हमारी काट-छाँट की जाती है, तो हमें सही-गलत का विश्लेषण नहीं करना चाहिए या बहस करके खुद को सही ठहराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि स्वीकार करके और समर्पण करके शुरुआत करनी चाहिए। भले ही हम न समझें, हमें इस मामले से खोजने और समर्पण करने के रवैये से निपटना चाहिए। यह वह विवेक है जो एक व्यक्ति में होना चाहिए। आज जिस काट-छाँट का मैंने सामना किया, वह परमेश्वर की अनुमति से था, और मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। भले ही मुझे अभी तक अपनी समस्याएँ पता नहीं थीं, लेकिन मुझे बहस करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय, मुझे खुद को शांत करना चाहिए और विनम्रता से खोजना चाहिए, और अपने काम में विचलनों और समस्याओं पर विचार करना चाहिए। काट-छाँट का सामना करते समय यही सही रवैया है जो मुझमें होना चाहिए। और सोचने पर, हालाँकि मैं आमतौर पर सुसमाचार कार्य का जायजा लेती थी, मैं बहुत सारे विस्तृत काम नहीं कर रही थी। उदाहरण के लिए, मैंने कभी भी खास तौर पर सुसमाचार प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने में सुसमाचार कार्यकर्ताओं को आने वाली समस्याओं को नहीं देखा या हल नहीं किया। क्या उच्च अगुआ ने काम के विवरण में भाग न लेने और सुसमाचार कार्य की पूरी तरह से उपेक्षा करने के बारे में ठीक यही नहीं कहा था? इन बातों का एहसास होने पर, मैंने दिल से अगुआ के मार्गदर्शन को स्वीकार किया। इसके बाद, मैंने वास्तव में सुसमाचार कार्यकर्ताओं का जायजा लिया, और समस्याओं की स्थिति में, मैं जल्दी से प्रासंगिक सत्यों की खोज करती और समाधान के लिए संगति करती। धीरे-धीरे, सुसमाचार कार्य में सुधार होने लगा।

काट-छाँट के इन कई दौरों का अनुभव करके, मैंने अपने मसीह-विरोधी स्वभाव के बारे में कुछ समझ हासिल की, जो सत्य से विमुख है, और मैंने महसूस किया कि क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे अक्सर अपने कर्तव्यों को लापरवाही से करते हैं, और अगर हम काट-छाँट स्वीकार नहीं करते और इसके बजाय प्रतिरोधी और विद्रोही महसूस करते हैं, तो यह सिर्फ काम को गंभीर नुकसान पहुँचाएगा। काट-छाँट के यही दौर जो मुझे पसंद नहीं थे, इन्होंने ही मेरी रक्षा की, मुझे एक नकली अगुआ के गलत रास्ते पर चलने से बचाया। काट-छाँट किया जाना मेरे कर्तव्य के प्रदर्शन के लिए वास्तव में फायदेमंद था!

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