48. मेरा अंतर्मुखी व्यक्तित्व अब मुझे नकारात्मक नहीं बनाता

सोंग युआन, चीन

मैं बचपन से ही अंतर्मुखी रही हूँ, स्कूल में मैं अपनी कक्षा के सभी सहपाठियों को पहचानती भी नहीं थी। मेरे ज्यादा दोस्त नहीं थे और मैं दूसरों से ज्यादा मेलजोल नहीं रखना चाहती थी, क्योंकि मुझे लगता था कि बात करने के लिए कुछ है ही नहीं। धीरे-धीरे, मैं अजनबियों से बात करने में बहुत डरने लगी, जब बहुत सारे लोग होते थे, तो मैं बहुत घबरा जाती थी और बोलना तो बिल्कुल नहीं चाहती थी, क्योंकि मुझे डर था कि अगर मैंने कुछ गलत कहा तो दूसरों के सामने शर्मिंदा हो जाऊँगी।

जब मैं हाई स्कूल में थी, तो मैंने और मेरे परिवार ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। बाद में, मैंने कलीसिया में ग्राफिक डिजाइन का प्रशिक्षण लिया, यह एक ऐसा कर्तव्य था जिसमें ज्यादातर समय कंप्यूटर के सामने बैठना होता था। ज्यादा से ज्यादा, मैं सभाओं के दौरान अपनी दशा के बारे में थोड़ी बात कर लेती थी, लेकिन मुझे दूसरों से बहुत ज्यादा बातचीत करने की जरूरत नहीं थी, इसलिए मैं अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व से ज्यादा बाधित नहीं होती थी। 2022 में, मैंने सिंचन का कर्तव्य सँभाला। शुरुआत में, बहन जियायिन और मैं एक साथ नवागंतुकों के साथ सभा करती थीं। जियायिन बिल्कुल भी शर्मीली नहीं थी। इसके विपरीत, वह नवागंतुकों के साथ बातचीत करने में बहुत अच्छी थी और बातचीत के दौरान, वह नवागंतुकों की दशाओं और मसलों को समझ लेती थी, फिर वह उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश ढूँढ़ लेती थी। नवागंतुक उसे सच में बहुत पसंद करते थे और उसके साथ बातचीत करने को तैयार रहते थे। हर बार जब मैं यह देखती, तो मुझे सच में बहुत ईर्ष्या होती थी। काश मैं भी उसकी तरह बहिर्मुखी होती और लोगों से इतनी आसानी से बात कर पाती। मेरे लिए यह इतना मुश्किल काम था और मैं सोचती थी कि बहन यह इतनी आसानी से कैसे कर लेती थी। मैं किनारे से उन्हें उत्साह से बातें करते हुए देखती, मुझे हमेशा लगता कि मैं उनमें घुल-मिल नहीं पाती थी और इससे मुझे दुख होता था। कभी-कभी, जियायिन मुझसे भी बोलने को कहती थी। नवागंतुकों के सवालों पर मैं थोड़ी संगति कर सकती थी, लेकिन जैसे ही मैं बोलती, मैं हकलाने लगती और अपनी बातें दोहराती रहती थी। मैं जो कहना चाहती थी, उसे कभी भी अच्छी तरह से व्यक्त नहीं कर पाती थी। मुझे लगा कि मेरी काबिलियत इतनी खराब है कि मैं ठीक से बोल भी नहीं सकती, मैं सोचने लगी कि अगर बहन ने नवागंतुकों को मुझे सौंप दिया तो मैं उनसे क्या कहूँगी। अकेले नवागंतुकों के साथ सभा करने के ख्याल से ही मैं घबरा जाती थी, क्योंकि मुझे डर था कि अगर मैं ठीक से नहीं बोली, तो नवागंतुक मुझे नापसंद करेंगे और फिर सभा नहीं करना चाहेंगे। मुझे और भी डर था कि बातचीत की समस्याओं के कारण मैं अपना कर्तव्य ठीक से पूरा नहीं कर पाऊँगी। यह देखते हुए कि नवागंतुकों को सींचने और सुसमाचार का प्रचार करने के लिए लोगों से बातचीत करने की जरूरत होती है और मुझमें इसी कौशल की कमी थी, मुझे लगा कि अगर मैं नवागंतुकों को नहीं सींच सकी, तो मैं दूसरे कर्तव्य भी अच्छी तरह से नहीं कर पाऊँगी, इससे मैं सोचने लगी, “अगर मेरे पास करने के लिए कोई कर्तव्य नहीं होगा, तो मुझे कैसे बचाया जा सकेगा? मेरा भविष्य या मंजिल क्या होगी?” चूँकि मैंने यह कर्तव्य सँभाल लिया था, तो मुझे इस मुश्किल से पार पाने का कोई तरीका ढूँढ़ना ही था। बाद में, मैंने ध्यान से सुनना शुरू किया कि बहन दूसरों से कैसे बातचीत करती है, वह बातचीत शुरू करने के लिए क्या कहती है, वह नवागंतुकों की मुश्किलों को कैसे समझती है, वगैरह-वगैरह। मैंने इन बातों को याद कर लिया और अपने मन में बैठा लिया, ताकि जब मैं नवागंतुकों से मिलूँ, तो मुझे पता हो कि क्या कहना है। लेकिन जब मैं सच में अकेले नवागंतुकों के साथ सभा करने गई, तो मैं बहुत घबराई हुई थी। मेरा दिमाग काम ही नहीं कर रहा था, मैंने जो कुछ भी याद किया था उसमें से ज्यादातर भूल गई थी। मैंने कुछ हिम्मत जुटाई और खुद को बोलने के लिए मजबूर किया, बहन की कही बातों की ही नकल की, लेकिन मेरी बातें बहुत बेजान लग रही थीं। यहाँ तक कि “आजकल तुम कैसी हो?” जैसा आसान सवाल पूछना भी उतना स्वाभाविक नहीं लगा जितना बहन के कहने पर लगता था और दो-चार बातें कहने के बाद ही अजीब सी खामोशी छा जाती थी। मुझे खुद से नफरत होने लगी, सोचने लगी, “मैं बोलने में इतनी अनाड़ी क्यों हूँ? मैं कुछ बुनियादी बातें भी ठीक से नहीं कह सकती!” मैं सच में अपना अंतर्मुखी व्यक्तित्व बदलना चाहती थी, क्योंकि मुझे लगा कि अपना व्यक्तित्व बदलकर ही मैं सिंचन के कर्तव्य को बेहतर ढंग से निभा सकती हूँ, तभी मेरा भविष्य और मंजिल सुरक्षित होगी। मैंने सोचा शायद मैंने पर्याप्त अभ्यास नहीं किया है, इसलिए तब से हर सभा में मैं नवागंतुकों से ज्यादा से ज्यादा बात करने की कोशिश करती, पर मैं इस मुश्किल से पार नहीं पा सकी। फिर मैंने परमेश्वर से और प्रार्थना करने के बारे में सोचा कि शायद अगर परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करे, तो मैं ज्यादा बहिर्मुखी हो जाऊँगी और बातचीत कर पाऊँगी। लेकिन कई बार प्रार्थना करने के बाद भी, मैं लोगों से मिलने पर घबराए बिना नहीं रह पाती थी और मैं धीरे-धीरे हतोत्साहित हो गई, सोचने लगी, “इतने लंबे समय तक अभ्यास करने के बाद भी मुझमें कोई बदलाव क्यों नहीं आया? मैं यह कर्तव्य पूरा करना चाहती हूँ, लेकिन मेरा यह व्यक्तित्व इसके लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं है। परमेश्वर ने मुझे थोड़ा और बहिर्मुखी क्यों नहीं बनाया? अगर मैं जियायिन की तरह बातचीत कर पाती, तो मैं यह कर्तव्य पूरा कर पाती, है न? अगर मुझे बातचीत करने में हमेशा मुश्किल होती रही, तो क्या नवागंतुक सोचेंगे कि मैं बहुत अनाड़ी हूँ? क्या वे भविष्य में भी मेरे साथ सभा करने को तैयार होंगे? अगर मैं अपना कर्तव्य पूरा न करने के कारण बरखास्त कर दी गई तो क्या होगा?”

एक बार, एक नवागंतुक की कुछ धारणाएँ थीं और कलीसिया अगुआओं ने मुझसे उसे सहारा देने के लिए कहा। घर पहुँचकर, मैंने जल्दी से प्रासंगिक सत्य ढूँढ़े। मैंने उन्हें कई बार पढ़ा और याद भी कर लिया, लेकिन जब मैं नवागंतुक के घर पहुँची, तो मैं इतनी घबराई हुई थी कि मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था और कसकर मुट्ठी भींचने के कारण मेरे हाथों में पसीना आ रहा था। नवागंतुक ने कुछ और धारणाओं का भी जिक्र किया और भले ही मेरे पास उनका समाधान करने के बारे में कुछ विचार थे, मैं इतनी घबराई हुई थी कि मेरा दिमाग खाली हो गया और दो-चार वाक्य बोलने के बाद ही मैं भूल गई कि क्या कहना है। नवागंतुक की प्रतिक्रियाएँ भी बहुत उदासीन थीं। जब मैं वहाँ से निकली, तो मैंने मन में सोचा, “मैं इस काम में एकदम बेकार हूँ! मैंने साफ तौर पर पहले से अच्छी तैयारी की थी, लेकिन जब अहम पल आया, तो मैं खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकी। यह कर्तव्य सच में मेरे जैसे किसी ऐसे व्यक्ति के लिए नहीं है, जो बोलने में अच्छा न हो।” जितना मैंने इस बारे में सोचा, मैं उतनी ही नकारात्मक होती गई।

कुछ समय बाद, अगुआओं ने एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था कि मेरा व्यक्तित्व अंतर्मुखी है, मैं दूसरों से बातचीत नहीं कर पाती और मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति दायित्व भाव की कमी है, इसलिए आकलन करने के बाद उन्होंने मुझे एक अलग कर्तव्य सौंपने का फैसला किया। मेरे मन में मिली-जुली भावनाएँ थीं, “मेरे जैसा कोई, जो बोलने में अच्छा नहीं है, नवागंतुकों को सींच भी नहीं सकता, सुसमाचार का प्रचार करना तो दूर की बात है। मुझमें कोई और प्रतिभा नहीं है, तो मैं और कौन-सा कर्तव्य कर सकती हूँ? परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है और मैं बिना किसी कर्तव्य के हूँ; क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे हटा दिया जाएगा?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, मैं उतनी ही दुखी होती गई, मैं इतनी नकारात्मक हो गई कि मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत करना भी शुरू कर दिया। मैंने सोचा, “मैंने बदलने की पूरी कोशिश की है, लेकिन मैं अभी भी अच्छी तरह से बातचीत नहीं कर सकती। परमेश्वर ने मुझे ऐसा व्यक्तित्व क्यों दिया? परमेश्वर को मुझे और बहिर्मुखी बनाना चाहिए था, ताकि मैं दूसरों से बातचीत कर पाती। तब मैं अपना कर्तव्य पूरा कर पाती।” जब मैं इस तरह सोच रही थी, तो मैं अचानक थोड़ा डर गई, “क्या मैं परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं कर रही हूँ?” मैंने अब इस तरह सोचने की हिम्मत नहीं की, लेकिन मुझे अपने कर्तव्य में कोई प्रेरणा महसूस नहीं हुई। उस समय, एक नवागंतुक की दशा खराब थी और मैं उससे संगति करके उसका समाधान नहीं करना चाहती थी। मैंने सोचा कि चूँकि मैं उस नवागंतुक को सींचने के लिए दूसरी बहन को सौंपने वाली थी, तो मैं बहन को ही उसकी समस्याएँ सुलझाने दे सकती हूँ। जब मैंने यह सोचा, तो मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ और मुझे एहसास हुआ कि यह सही नहीं है। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “परमेश्वर हमें जीवन देता है, इसलिए हमें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए; क्योंकि हम जो भी दिन जीते हैं, हमें उस दिन का कर्तव्य निभाना चाहिए। परमेश्वर ने जो कार्य सौंपा है, हमें उसे अपना मुख्य ध्येय बना लेना चाहिए, और कर्तव्य निर्वहन को अपने जीवन की पहली चीज बना लेना चाहिए ताकि इसे अच्छे से पूरा कर सकें। यद्यपि हम पूर्णता का अनुसरण नहीं करते, फिर भी हम सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास कर सकते हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर सकते हैं, ताकि हम परमेश्वर को संतुष्ट और शैतान को शर्मिंदा कर सकें, और हमें कोई पछतावा न रहे। परमेश्वर के विश्वासियों को अपने कर्तव्य के प्रति यही रवैया अपनाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि परमेश्वर किसी व्यक्ति के कर्तव्य के प्रति उसके रवैये को देखता है, साथ ही यह देखता है कि क्या वह समर्पित है और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहा है और यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। मैंने सोचा कि चूँकि मैं अंतर्मुखी थी और अच्छी तरह से बातचीत नहीं कर सकती थी, इसलिए मैं अपने कर्तव्य के प्रति खुद को समर्पित नहीं कर रही थी, मैं नवागंतुक की समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजने का प्रयास नहीं करना चाहती थी। मैं नवागंतुक के जीवन के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच रही थी। इस रवैये के साथ, मुझमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं थी, तो परमेश्वर मुझे कैसे स्वीकार कर सकता था? भले ही मुझे एक नया कर्तव्य सौंपा गया था, फिर भी सौंपने की अवधि के दौरान कुछ काम करने बाकी थे। मैं लापरवाही से काम नहीं कर सकती थी। मुझे नवागंतुक की समस्याओं को जल्दी से हल करना था और अपनी जिम्मेदारी अंत तक निभानी थी। बाद में, मैंने नवागंतुक के मसलों को हल करने के तरीके खोजे, मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे एक बहुत ही मददगार अनुभवजन्य लेख मिला जो नवागंतुक की समस्याओं को सटीक रूप से हल करता था। फिर मैंने लेखक के अनुभवों को नवागंतुक के साथ संगति में साझा किया, भले ही मैं जो कह रही थी उसमें बहुत धाराप्रवाह नहीं थी, फिर भी नवागंतुक की समस्याएँ आखिरकार हल हो गईं।

बाद में, अगुआओं ने देखा कि मैंने कुछ अनुभवजन्य गवाही लेख लिखे हैं और मुझे पाठ-आधारित कर्तव्य सौंप दिए। तीन महीने बाद, अगुआओं ने मुझसे कुछ भाई-बहनों के साथ धर्मोपदेश लिखने के सिद्धांतों को साझा करने के लिए कहा। जब मैंने अपने व्यक्तित्व और बातचीत करने में असमर्थता के बारे में सोचा, सिद्धांतों पर संगति करना तो दूर की बात है, सोचने लगी कि मैं इन बातों को लेकर दूसरों के साथ स्पष्ट रूप से कैसे संगति कर पाऊँगी। इसलिए मैंने कठोर स्वर में कहा, “तुम लोग मुझे कुछ ऐसा करने पर मजबूर कर रहे हो जो मैं कर ही नहीं सकती! मैं दूसरों की प्रगति में बाधा डाल सकती हूँ!” चाहे अगुआओं ने मेरे साथ कैसे भी संगति की, मैं खुद को अक्षम और प्रतिरोधी महसूस करती रही। अगुआओं के जाने के बाद, मैं शांत हुई और मुझे थोड़ा पछतावा और आत्म-ग्लानि महसूस हुई। मुझे एहसास हुआ कि मुझे सौंपे गए सभी कर्तव्य परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का हिस्सा थे और इस तरह से अपने कर्तव्य को अस्वीकार करना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं था। उसके बाद, मैं यह कर्तव्य सँभालने के लिए तैयार हो गई। लेकिन मैं अभी भी अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व से बाधित थी और मैं जो कुछ भी करती थी उसके बारे में हताश महसूस करती थी। मैंने मन में सोचा, “वैसे भी, मैं अपने अनुसरण में सफल नहीं हो सकती, इसलिए मैं बस एक श्रमिक बन जाऊँगी। इतना ही काफी है।” भले ही मैं जानती थी कि यह मानसिकता गलत है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि इसे कैसे बदला जाए।

बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, जिससे मुझे सच में बहुत मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें लोग हल नहीं कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि तुम दूसरों से बात करते समय घबरा जाते हो; जब तुम्हें स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो हो सकता है कि तुम्हारे पास अपने विचार और नजरिये होते हों, लेकिन तुम उन्हें स्पष्टता से कह नहीं पाते हो। जब बहुत सारे लोग मौजूद होते हैं तो तुम विशेष रूप से घबरा जाते हो; तुम बेतुके ढंग से बोलते हो और तुम्हारा मुँह कँपकँपाता है। कुछ लोग तो हकलाते भी हैं; दूसरे लोगों के मामले में, अगर विपरीत लिंग के सदस्य मौजूद होते हैं तो वे और भी कम बोधगम्य होते हैं, उन्हें यह पता ही नहीं होता है कि क्या कहना है या क्या करना है। क्या इस पर काबू पाना आसान है? (नहीं।) कम-से-कम थोड़े समय में तुम्हारे लिए इस दोष पर काबू पाना आसान नहीं है क्योंकि यह तुम्हारी जन्मजात स्थितियों का हिस्सा है। ... अगर तुम इस कमी, इस दोष पर थोड़े समय में काबू पा सकते हो तो ऐसा करो। अगर इस पर काबू पाना कठिन है तो इसे लेकर परेशान मत होओ, इससे संघर्ष मत करो और खुद को चुनौती मत दो। यकीनन, अगर तुम इस पर काबू नहीं पा सकते हो तो तुम्हें नकारात्मक महसूस नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनकाल में इसे कभी दूर न कर पाओ तो भी परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। तुम्हारा मंच पर आने का भय, तुम्हारी घबराहट और डर—ये अभिव्यक्तियाँ तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाती हैं; चाहे वे जन्मजात हों या जीवन में बाद के परिवेश के कारण पैदा हुई हों, हद-से-हद वे एक कमी हैं, तुम्हारी मानवता का एक दोष हैं। अगर तुम इसे लंबे समय में, यहाँ तक कि अपने जीवनकाल में भी नहीं बदल पाते हो तो भी इसके बारे में सोचते मत रहो, इसे खुद को बेबस मत करने दो और न ही तुम्हें इसके कारण नकारात्मक बनना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; इसे बदलने का प्रयास करने या इससे संघर्ष करने का कोई फायदा नहीं है। अगर तुम इसे बदल नहीं पाते हो तो इसे स्वीकार कर लो, इसे मौजूद रहने दो और इसके साथ सही ढंग से पेश आओ क्योंकि तुम इस कमी, इस दोष के साथ-साथ जी सकते हो—तुममें इसका होना परमेश्वर के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करता है। अगर तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो और अपनी पूरी क्षमता से अपने कर्तव्य कर सकते हो तो तुम अभी भी बचाए जा सकते हो; यह तुम्हारे द्वारा सत्य स्वीकार करने और तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने को प्रभावित नहीं करता है। इसलिए तुम्हें अक्सर अपनी मानवता में किसी कमी या दोष से बेबस नहीं होना चाहिए और न ही तुम्हें अक्सर नकारात्मक और हतोत्साहित होना चाहिए या यहाँ तक कि न अपने कर्तव्य छोड़ने चाहिए और न सत्य का अनुसरण करना छोड़ना चाहिए और न उसी कारण से बचाए जाने का मौका खोना चाहिए। ऐसा करना बिल्कुल भी उचित नहीं है; ऐसा कोई बेवकूफ, जाहिल व्यक्ति ही करेगा(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन सही समय पर मेरे सूखे दिल को सींचने वाली बारिश की तरह थे। वे मेरे लिए आशा लेकर आए और मुझे सत्य का अनुसरण करने के लिए जरूरी प्रेरणा दी। मैं समझ गई कि जिस समस्या से मैं हमेशा पार नहीं पा सकी, वह मेरे जन्मजात मानवीय गुणों से संबंधित थी। ये वे चीजें थीं जिनके साथ मैं पैदा हुई थी, जिन्हें परमेश्वर ने निर्धारित किया था और भले ही लोगों में खामियाँ हों, परमेश्वर इनके लिए उनकी निंदा नहीं करता क्योंकि ये भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं। मैंने सोचा कि कैसे मैं अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व के कारण हमेशा मेलजोल करने से डरती रही। मैं अजनबियों की मौजूदगी में या भीड़-भाड़ वाली जगहों पर घबरा जाती और ऊल-जलूल बोलने लगती थी, मैं जो कहती उसमें अजीब महसूस करती और दूसरों से बातचीत नहीं कर पाती थी। मुझे लगता था कि अंतर्मुखी लोग कभी भी बहिर्मुखी लोगों की तरह प्रभावी ढंग से अपने कर्तव्य नहीं निभा सकते, इसलिए मैं अपना अंतर्मुखी व्यक्तित्व बदलने की कोशिश करती रही। मेरा मानना था कि अगर मैंने अपना व्यक्तित्व बदल लिया, तो मैं अपने कर्तव्य पूरे कर सकती हूँ और उद्धार की आशा रख सकती हूँ। इसके लिए, मैंने दूसरों की तरह बोलना सीखने की कोशिश की और यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे थोड़ा और बहिर्मुखी बना दे। जब बदलने की मेरी सारी कोशिशें नाकाम हो गईं, तो मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं थी। मैं हताशा की प्रतिकूल भावनाओं में डूबी रही और मैं ज्यादा से ज्यादा नकारात्मक होती गई। पाठ-आधारित कर्तव्य करने के बाद, अगुआओं ने मुझसे भाई-बहनों के साथ सिद्धांतों पर संगति करने के लिए कहा, लेकिन मैंने इसका प्रतिरोध किया और इसे स्वीकार नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मुझे लगा कि अपने व्यक्तित्व के साथ, मैं कभी भी अच्छी तरह से संगति नहीं कर सकती। मैं बस एक श्रमिक होकर ही संतुष्ट हो गई, जो कुछ भी कर सकती थी, वही करती थी। चूँकि मैं सत्य नहीं समझती थी, इसलिए मैं अपनी खामियों और कमियों से ठीक से निपट नहीं सकी। मैं हताशा की प्रतिकूल भावनाओं में डूबी रही और खुद पर ही फैसला सुनाती रही। मैं बहुत आभारी थी कि कैसे परमेश्वर के वचनों ने ठीक समय पर मेरी मदद की। उन्होंने मुझे समझाया कि अंतर्मुखी होना कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, बल्कि किसी की मानवता में एक खामी है। यह एक जन्मजात मानवीय गुण है और परमेश्वर मुझसे इसे बदलने की माँग नहीं कर रहा था, केवल यह चाहता था कि मैं इसके साथ जीना सीखूँ। इसलिए, मुझे इससे संघर्ष नहीं करना चाहिए या इससे बँधना नहीं चाहिए। इस खामी के साथ भी, जब तक मैं सत्य का अनुसरण करती और अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलती, तब भी मेरा उद्धार हो सकता था। सिर्फ इसलिए कि मुझमें एक खामी थी, सत्य का अनुसरण छोड़ देना मेरी बहुत बड़ी मूर्खता थी!

बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला जिसने मेरे गलत दृष्टिकोण को ठीक किया, जिससे मुझे समझ आया कि किसी के व्यक्तित्व का उसके उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चाहे तुम्हारी समस्याएँ, दोष या खामियाँ कुछ भी हों, इनमें से कोई भी चीज परमेश्वर की नजर में मुद्दा नहीं है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुम किस तरह से सत्य की तलाश करते हो, किस तरह से सत्य का अभ्यास करते हो, किस तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और सामान्य मानवता की अंतर्निहित स्थितियों के तहत परमेश्वर के मार्ग पर चलते हो—परमेश्वर इन्हीं चीजों को देखता है। इसलिए, सत्य सिद्धांतों से संबंधित मामलों में काबिलियत, सहज-ज्ञान, व्यक्तित्व, आदतें और सामान्य मानवता के जीवन जीने के तरीके जैसी बुनियादी स्थितियों को अपने आप पर प्रतिबंध मत लगाने दो। यकीनन, इन बुनियादी स्थितियों पर काबू पाने का प्रयास करने में अपनी ताकत और समय भी मत लगाओ और न ही इन्हें बदलने का प्रयास करो। ... यह एक ऐसी चीज है जो हर सृजित मनुष्य के साथ जन्म से ही होती है। इसका भ्रष्ट स्वभावों या व्यक्ति की मानवता के सार से कोई लेना-देना नहीं है; यह बस अस्तित्व की एक अवस्था है जिसे लोग बाहर से देख सकते हैं, और एक तरीका है जिससे व्यक्ति लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ पेश आता है। कुछ लोग खुद को अच्छी तरह अभिव्यक्त कर लेते हैं जबकि कुछ लोग नहीं कर पाते; कुछ लोग चीजों का वर्णन करना पसंद करते हैं जबकि कुछ लोग नहीं करते; कुछ अपने विचार अपने तक ही रखना पसंद करते हैं जबकि कुछ लोग अपने विचार अपने भीतर रखना पसंद नहीं करते बल्कि उन्हें जोर से व्यक्त करना चाहते हैं ताकि हर कोई उन्हें सुन सके, और तभी उन्हें खुशी महसूस होती है। ये वे अलग-अलग तरीके हैं जिनसे लोग जिंदगी और लोगों, घटनाओं और चीजों से निपटते हैं; यह लोगों का व्यक्तित्व है। तुम्हारा व्यक्तित्व ऐसी चीज है जो तुम्हारे साथ पैदा हुई है। अगर तुम कई कोशिशों के बाद भी इसे बदलने में नाकाम रहे हो तो मैं तुम्हें बता दूँ, तुम अब थोड़ा आराम कर सकते हो; खुद को इतना थका देने की जरूरत नहीं है। इसे बदला नहीं जा सकता, इसलिए इसे बदलने की कोशिश मत करो। तुम्हारा मूल व्यक्तित्व जो भी रहा है, वही तुम्हारा व्यक्तित्व बना रहता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो; यह एक भ्रामक विचार है—तुम्हारा जो भी व्यक्तित्व है, वह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है और तुम उसे नहीं बदल सकते। इसके वस्तुनिष्ठ कारणों के लिहाज से, परमेश्वर अपने कार्य में जो परिणाम प्राप्त करना चाहता है उसका तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह भी तुम्हारे व्यक्तित्व से संबंधित नहीं है। इसके अलावा, तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, इसका भी तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, इस कारण से अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो कि तुम कुछ विशेष कर्तव्य कर रहे हो या कार्य की किसी विशेष मद के पर्यवेक्षक के रूप में सेवा कर रहे हो—यह एक गलत विचार है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारा व्यक्तित्व या जन्मजात स्थितियाँ चाहे कुछ भी हों, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। अंत में, परमेश्वर यह आकलन नहीं करता है कि तुम उसके मार्ग पर चलते हो या नहीं या तुम अपने व्यक्तित्व के आधार पर उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, वह इस आधार पर भी आकलन नहीं करता है कि तुम्हारे पास कौन-सी जन्मजात काबिलियत, कौशल, क्षमताएँ, गुण या प्रतिभाएँ हैं और यकीनन वह यह भी नहीं देखता कि तुमने अपनी दैहिक सहज प्रवृत्तियों और जरूरतों को कितना सीमित किया है। इसके बजाय परमेश्वर यह देखता है कि उसका अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए क्या तुम उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव कर रहे हो, क्या तुममें सत्य का अनुसरण करने की इच्छा और संकल्प है और अंत में, क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में सफल हुए हो। परमेश्वर यही देखता है(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है। किसी व्यक्ति के उद्धार का उसके व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के जन्मजात व्यक्तित्व के आधार पर या उसकी काबिलियत, क्षमताओं या प्रतिभाओं के आधार पर यह नहीं आँकता है कि उसे बचाया जा सकता है या नहीं, बल्कि वह देखता है कि क्या कोई सत्य का अभ्यास कर सकता है और परमेश्वर के मार्ग पर चल सकता है या नहीं। मैं गलत दृष्टिकोण के साथ अपना कर्तव्य करती आ रही थी। मैं हमेशा सोचती थी कि एक सिंचनकर्मी के तौर पर, अगर मैं दूसरों से बातचीत नहीं कर सकती, तो मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा नहीं कर सकती और भविष्य में निश्चित रूप से मुझे नहीं बचाया जा सकेगा। मैंने सोचा कि केवल अपने व्यक्तित्व और खामियों को बदलकर ही मैं अपना कर्तव्य पूरा कर सकती हूँ और भविष्य में मुझे बचाया जा सकता है। इसलिए मैं अपना व्यक्तित्व बदलने की कोशिश करती रही, लेकिन अंत में, मैं इसे बदल नहीं सकी और बस नकारात्मक हो गई। मुझे बहिर्मुखी व्यक्तित्व न देने को लेकर मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत भी की। मैं अपना व्यक्तित्व बदलने का प्रयास करती रही, लेकिन यह गलत था, क्योंकि व्यक्तित्व में बदलाव केवल सतही बदलाव होते हैं। भले ही मैं अपनी खामियों को बदल लेती और बहिर्मुखी बनकर दूसरों से बातचीत करने में सक्षम हो जाती, अगर मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं सुलझाया, अपने कर्तव्य को हमेशा बेमन से करती, पूरे दिल और जान से मेहनत नहीं करती, चुनौतियों का सामना करने पर सत्य नहीं खोजती, और यहाँ तक कि परमेश्वर से बहस करती या उसके बारे में शिकायत करती, तो परमेश्वर मेरा अनुमोदन नहीं करता और अंत में मुझे हटा दिया जाता।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “लोगों के जन्मजात गुण और उनकी देह की सहज प्रवृत्तियाँ परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य नहीं हैं, और उसका कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और लोगों के भीतर की उन चीजों को लक्षित करता है जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करती हैं और परमेश्वर के साथ असंगत हैं। अगर लोग कल्पना करते हैं कि परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य उनकी काबिलियत, उनकी सहज प्रवृत्तियाँ, यहाँ तक कि उनका व्यक्तित्व, आदतें, जीने के ढर्रे आदि बदलना है तो दैनिक जीवन में उनके अभ्यास का हर एक पहलू उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से प्रभावित और नियंत्रित होगा, और अनिवार्य रूप से कई विकृत अंश या चरम चीजें होंगी। ये विकृत अंश और चरम चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं और वे लोगों को सामान्य मानवता के जमीर और विवेक से भटका देंगी और सामान्य मानवता के पथ से अलग कर देंगी। उदाहरण के लिए, मान लो अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में तुम मानते हो कि परमेश्वर लोगों की काबिलियत, क्षमताएँ, यहाँ तक कि उनकी सहज प्रवृत्तियाँ भी, बदलना चाहता है; अगर तुम सोचते हो कि ये वे चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर बदलना चाहता है तो तुम्हारे अनुसरण किस तरह के होंगे? तुम्हारे अनुसरण विकृत और जुनूनी होंगे—तुम श्रेष्ठ काबिलियत का अनुसरण करना चाहोगे और विभिन्न प्रकार के कौशल सीखने और विभिन्न प्रकार के ज्ञान में निपुणता प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करोगे ताकि तुम्हें श्रेष्ठ काबिलियत और श्रेष्ठ क्षमताएँ, श्रेष्ठ अंतर्दृष्टि और आत्म-विकास प्राप्त हो जाएँ, यहाँ तक कि कुछ ऐसी क्षमताएँ भी विकसित हो जाएँ जो सामान्य लोगों से श्रेष्ठ हों—इस प्रकार तुम बाहरी क्षमताओं और प्रतिभाओं पर ध्यान दोगे। तो फिर ऐसे अनुसरणों के लोगों पर क्या परिणाम होते हैं? वे न केवल सत्य के मार्ग पर चलने में असफल होंगे, बल्कि उसके बजाय वे फरीसियों का मार्ग अपनाएँगे। वे आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगे कि किसकी काबिलियत श्रेष्ठ है, किसमें श्रेष्ठ गुण हैं, किसका ज्ञान श्रेष्ठ है, किसकी क्षमताएँ अधिक हैं, किसमें अधिक शक्तियाँ है, लोगों के बीच किसकी प्रतिष्ठा अधिक है और लोग किसका आदर-सम्मान करते हैं। इस प्रकार, वे न केवल सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे सत्य से दूर ले जाने वाले मार्ग पर चल पड़ेंगे(वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ने के बाद, मैंने चिंतन और मनन किया। अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य सत्य सिद्धांतों को हमारे अंदर रोपना है, और हमारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध करने और बदलने के लिए है, साथ ही हमारे अंदर की उन सभी चीजों को भी बदलने के लिए है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध करती हैं, न कि हमारी जन्मजात काबिलियत, सहज-वृत्तियों और व्यक्तित्व जैसी चीजों को बदलने के लिए है। मैं परमेश्वर के कार्य को नहीं समझती थी और गलत परिप्रेक्ष्य के साथ जीती थी। मैं परमेश्वर से मुझे बहिर्मुखी, वाक्पटु और अच्छी काबिलियत वाली बनाने के लिए कहती रही, लेकिन यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत था। मैंने पौलुस के बारे में सोचा। बाहर से यह स्पष्ट था कि उसके पास बड़ी खूबियाँ थीं, वह वाक्पटु था और सुसमाचार का प्रचार करके उसने कई लोगों को जीता था, लेकिन उसने कभी भी सत्य में प्रयास नहीं किया या जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं किया और उसका भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं बदला। उसने अपने किए हुए सभी कार्यों के कारण हमेशा खुद को ऊँचा उठाया और अंत में, उसने “लिये जीवित रहना ही मसीह है” जैसे अत्यंत अहंकारी शब्द कहे। इसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। मैं एक ऐसे व्यक्ति को भी जानती थी जो बहुत बहिर्मुखी और वाक्पटु था, लेकिन उसने केवल खुद को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से लैस करने पर ध्यान केंद्रित किया, उसने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया या चिंतन के माध्यम से खुद को नहीं जाना और अंत में वह एक छद्म-विश्वासी के रूप में बेनकाब हुआ और हटा दिया गया। मैंने देखा कि अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण न करना और अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित न करना वास्तव में खतरनाक है, अंत में यह व्यक्ति को गलत रास्ते पर ले जा सकता है और परमेश्वर द्वारा हटा दिया जा सकता है।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी पूर्ण या महान क्यों न हो या चाहे दूसरे लोगों की तुलना में तुममें कम खामियाँ और खराबियाँ हों और तुम्हारे पास ज्यादा शक्तियाँ हों, इससे यह प्रकट नहीं होता है कि तुम सत्य समझते हो और न ही यह सत्य की तुम्हारी तलाश की जगह ले सकता है। इसके विपरीत, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, बहुत सारा सत्य समझते हो और तुम्हें इसकी पर्याप्त रूप से गहरी और व्यावहारिक समझ है, तो इससे तुम्हारी मानवता की कई खराबियों और समस्याओं की भरपाई हो जाएगी। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम दब्बू और अंतर्मुखी हो, तुम हकलाते हो और तुम ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हो—यानी, तुममें बहुत सारी कमियाँ और अपर्याप्तताएँ हैं—लेकिन तुम्हारे पास व्यावहारिक अनुभव है और वैसे तो तुम बात करते समय हकलाते हो, फिर भी तुम स्पष्टता से सत्य की संगति कर सकते हो और यह संगति हर सुनने वाले को उन्नत करती है, समस्याएँ हल करती है, लोगों को नकारात्मकता से उबरने में सक्षम बनाती है और परमेश्वर के बारे में उनकी शिकायतें और गलतफहमियाँ दूर करती है। देखो, वैसे तो तुम अपने शब्दों को हकलाकर बोलते हो, फिर भी वे समस्याएँ हल कर सकते हैं—ये शब्द कितने महत्वपूर्ण हैं! जब आम लोग उन्हें सुनते हैं तो वे कहते हैं कि तुम एक अशिक्षित व्यक्ति हो और जब तुम बोलते हो तो व्याकरण के नियमों का पालन नहीं करते हो और कभी-कभी तुम जिन शब्दों का उपयोग करते हो, वे वाकई उपयुक्त नहीं होते हैं। हो सकता है कि तुम क्षेत्रीय भाषा या रोजमर्रा की भाषा का उपयोग करते हो और तुम्हारे शब्दों में वह उत्कृष्टता और शैली नहीं होती है जो वाक्पटुता से बोलने वाले उच्च-शिक्षित लोगों में होती है। लेकिन तुम्हारी संगति में सत्य वास्तविकता होती है, यह लोगों की कठिनाइयाँ हल कर सकती है और जब लोग इसे सुनते हैं तो उसके बाद उनके चारों तरफ के सारे काले बादल छँट जाते हैं और उनकी सभी समस्याएँ सुलझ जाती हैं। देखो, क्या सत्य को समझना महत्वपूर्ण नहीं है? (है।)” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक स्पष्ट मार्ग दिया। अब मुझे सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करना था। भले ही मेरे स्वभाव में कुछ खामियाँ थीं, जब तक मैं सत्य समझती थी, मैं इनमें से कुछ समस्याओं की भरपाई कर सकती थी। पीछे मुड़कर सोचूँ तो जब से मैंने सिंचन का कर्तव्य सँभाला था, मैं हमेशा यही सोचती थी कि मैं अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व और नवागंतुकों से बातचीत करने में अक्षम होने के कारण अपने कर्तव्य में असफल हो रही थी, इसलिए मैं अपने व्यक्तित्व की खामियों को बदलने की कोशिश करती रही। मैंने सत्य में कभी मेहनत नहीं की, इसके बजाय मेरी सारी कोशिशें अपनी खामियों को दूर करने में चली गईं। यह असल में गलत था। उस समय, जब मैं नवागंतुकों को सहारा देने गई, भले ही मैं अपने व्यक्तित्व से बाधित थी और नवागंतुकों की धारणाओं का सामना करने पर नहीं जानती थी कि क्या कहूँ, सच तो यह था कि मुख्य मसला यह था कि मुझे उनकी धारणाओं को दूर करने के बारे में केवल आंशिक समझ थी। असल में मेरा कर्तव्य पूरा न कर पाना पूरी तरह से व्यक्तित्व का मसला नहीं था और मुख्य मसला मेरे सत्य न समझने में था। इसके बाद से मुझे सत्य सिद्धांतों में मेहनत करने पर ध्यान देना था और अगर मैं सत्य को स्पष्ट रूप से समझ लेती, तो आखिरकार मैं स्पष्ट रूप से बोल पाती। अगर कभी-कभी मैं घबरा जाती और शब्द भूल जाती, तो मैं अपने दिल को शांत करने के लिए परमेश्वर से और प्रार्थना कर सकती थी, मैं जो कहना चाहती थी उसे अपने दिल में कई बार दोहरा सकती थी और धीरे-धीरे बोल सकती थी। अगर मैं फिर भी कुछ स्पष्ट रूप से नहीं समझा पाती, तो बाद में, मैं परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश ढूँढ़ सकती थी या भाई-बहनों से खोज सकती थी। मुझे इसी तरह अभ्यास करना चाहिए।

अब मैं अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व के कारण और नकारात्मक नहीं होती, सभाओं में संगति करते समय, मैं अपने दिल को शांत करने का अभ्यास करती हूँ और दूसरों से बातचीत कर पाती हूँ। मैं अब इस बात से परेशान नहीं होती कि दूसरों से कैसे बातचीत करूँ, जैसी कि मैं पहले होती थी, अब मैं दबाव के कारण खुद को घुटन में नहीं पाती। मैं सच में महसूस करती हूँ कि सत्य किसी व्यक्ति की सभी मुश्किलों को हल कर सकता है और ये परमेश्वर के वचन ही थे जो मुझे नकारात्मकता से बाहर लाए। मैं अब अपने व्यक्तित्व की खामियों से बँधी या बेबस नहीं हूँ।

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