52. बरखास्त होने से मुझे क्या प्राप्त हुआ
2016 में मुझे कलीसिया में अगुआ चुना गया। कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी देते हुए मुझे बहन झांग जिंग के साथ भागीदार बनाया गया। उस समय मुझे परमेश्वर में विश्वास रखते हुए दो साल से कुछ ज्यादा समय हुआ था। झांग जिंग लंबे समय से अगुआ थी और उसके पास व्यापक कार्य अनुभव था। इसके अलावा सभाओं में उसकी संगति काफी स्पष्ट होती थी। भाई-बहनों को चाहे जो भी मुश्किलें होती हों, वह जल्दी से संगति के लिए प्रासंगिक परमेश्वर के वचन ढूँढ़ लेती थी और उनकी मदद कर देती थी। हर कोई वास्तव में उसका प्रशंसक था। मुझे झांग जिंग से बहुत ईर्ष्या होती थी और मैं उम्मीद करती थी कि एक दिन मैं भी उसकी तरह बनूँ और सभी की प्रशंसा और स्वीकृति हासिल कर सकूँ। कड़ी मेहनत की अवधि के बाद अगर मुझे पता चलता कि सभाओं के दौरान किसी की कोई भी दशा है, तो मैं भी बहुत जल्दी परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़ पाती थी और अपने अनुभव या कुछ उदाहरण शामिल करके संगति साझा कर लेती थी। मेरे भाई-बहन ध्यान से सुनते और नोट्स बनाते थे। मैं यह दृश्य देखकर बहुत खुश होती थी और मुझे लगता था कि मेरे भाई-बहन वास्तव में मुझे स्वीकार करते हैं। नतीजतन, मैं और अधिक उत्साह के साथ संगति करती थी।
एक बार एक कलीसिया में कई भाई-बहनों ने मिलकर एक नकली अगुआ की रिपोर्ट की। उस समय मुझे पता नहीं था कि इसे कैसे सँभालना है, इसलिए मैंने ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना की और फिर अपने भाई-बहनों के साथ संगति की। आखिर में नकली अगुआ को बरखास्त कर दिया गया और कलीसिया का कार्य सामान्य रूप से चलने लगा। इस घटना के बाद मैंने आत्म-प्रशंसा करनी शुरू कर दी : “मैंने कुछ ही दिनों में इतनी जटिल समस्या हल कर दी। मुझे अपने भाई-बहनों को दिखाना होगा कि यह कैसे किया जाता है। मेरी कम उम्र और परमेश्वर में विश्वास करते हुए कम समय बिताने के बावजूद मैं अभी भी जटिल समस्याएँ सँभाल सकती हूँ।” सभाओं में मैं बहुत उत्साहपूर्वक चर्चा करती थी कि मैंने रिपोर्ट पत्र को कैसे सँभाला, लेकिन मैं इस बात का विवरण नहीं देती थी कि उस समय मैं कठिनाइयों के बीच कैसे रह रही थी, कैसे मैं चीजों का भेद नहीं पहचान पाती थी और कितनी नकारात्मक हो गई थी। मैं मुख्य रूप से इस बात पर जोर देती थी कि घटना कितनी जटिल थी, नकली अगुआ की मानवता कितनी खराब थी और मैंने समस्या हल करने के लिए कैसे शांत और निडर रहते हुए सत्य की खोज की। उस दौरान सभी ने बहुत गंभीरता से मेरी बात सुनी। जब मैंने उनकी आँखों में ईर्ष्या देखी, तो मुझे अपने दिल में अच्छा लगा। मुझे और भी दृढ़ता से महसूस हुआ कि मेरे पास कार्य क्षमता है। एक और बार एक बहन अपने कर्तव्य करने में बेबस थी क्योंकि उसके अविश्वासी परिवार के सदस्य उसे रोक रहे थे। मैंने चर्चा की कि कैसे परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण मेरे पति ने मुझे सताया और कैसे अंत में मैंने अपने परिवार को पीछे छोड़कर अपना सारा समय अपना कर्तव्य निभाने में बिताया। मैंने विस्तार से बताया कि मैंने कितना कष्ट सहा था, कैसे मैंने दृढ़ संकल्प लिया था और कैसे मैंने अपने परिवार को पीछे छोड़ा था। मेरी बात सुनने के बाद बहन ने वास्तव में मेरी प्रशंसा की। उसने कहा, “भले ही तुम्हारे पति ने तुम्हें इतने भयानक रूप से सताया हो, पर तुम अडिग रह पाई। तुमने वास्तव में बहुत कष्ट सहा है। तुम में सचमुच दृढ़ संकल्प है!” अन्य भाई-बहनों ने कहा, “तुम वास्तव में जानती हो कि चीजों का अनुभव कैसे किया जाए। तुम हमसे अधिक सत्य का अनुसरण करती हो। ऐसा क्यों है कि हम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हैं?” उस समय मैंने कहा, “हमारी भ्रष्टता एक जैसी ही है। जब तक हम सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक हैं, परमेश्वर हमारी अगुआई करेगा।” लेकिन अपने दिल में मैंने अभी भी खुद की बहुत प्रशंसा की। मुझे लगा कि मैं सत्य का अनुसरण कर रही हूँ और मेरे भाई-बहनों की तुलना में मेरा आध्यात्मिक कद बड़ा है। अगर ऐसा न होता तो मैं अपने परिवार को छोड़कर अपना कर्तव्य कैसे निभा पाती? और सभी ने मुझे अगुआ क्यों चुना होता? दरअसल जब मैं अपने पति के उत्पीड़न का सामना कर रही थी, तो मुझमें बहुत अधिक नकारात्मकता और कमजोरी थी। मैंने कुछ समय के लिए अपना कर्तव्य तक छोड़ दिया था। लेकिन मैंने बस इन चीजों पर परदा डाल दिया या इन बातों का जिक्र ही नहीं किया। मुझे लगा, “अगर मैं सब कुछ बता दूँगी, तो हर कोई निश्चित रूप से सोचेगा कि मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मैं उनसे बेहतर नहीं हूँ। उस स्थिति में भविष्य में कौन मेरी प्रशंसा करेगा? साथ ही अगर मैं सकारात्मक अभ्यास के बारे में अधिक बात करती हूँ, तो इससे मेरे भाई-बहनों को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।” इसलिए मैंने इस बारे में और अधिक नहीं सोचा। आम तौर पर जब मैं सभाओं में संगति करती थी तो मैं सचेत रूप से सकारात्मक समझ के बारे में अधिक बात करती थी, लेकिन मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों और घटिया सोच और विचारों का जिक्र नहीं करती थी। इसके बजाय मैं बस एक सरल तरीके से सामान्य, सतही स्तर की भ्रष्टताओं के बारे में बात करती थी, जो हर कोई प्रकट करता है। मुझे डर रहता था कि अगर लोगों को पता चल गया, तो वे फिर मेरी प्रशंसा नहीं करेंगे। मैंने सचेत रूप से और अनजाने ही इस बारे में बात की कि मेरा काम कितना व्यस्त है, मुझे कितनी चीजें करनी पड़ती हैं और कैसे मैं हमेशा शाम को बहुत देर तक काम करती हूँ। तब मेरे भाई-बहनों को विश्वास था कि मैं कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हूँ और मैंने अपना कर्तव्य निभाने में बोझ उठाया है। उन्होंने यह भी कहा कि मैं समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम हूँ और मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान हूँ। वे सभी मेरी प्रशंसा करते थे और मुझ पर भरोसा करते थे। बाद में मैंने पाया कि जब भी मैं अपने सहकर्मियों के साथ सभा करती थी, तो हर कोई अपने काम की सारी समस्याएँ एक साथ उड़ेल देता था और फिर ज्यादा कुछ नहीं बोलता था। पूरी सभा के दौरान मैं ही एकमात्र व्यक्ति थी जो चीजों पर चर्चा कर रही होती थी। मुझे लगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है—क्या सभाएँ ऐसी जगह नहीं बन गई हैं जहाँ मैं अकेले बोल सकती हूँ? जब उन्हें कठिनाइयाँ पेश आती थीं, तो वे सत्य नहीं खोजते थे, बल्कि बस इंतजार करते थे कि मैं उन्हें हल कर दूँ। क्या यह उन्हें मेरे सामने नहीं ला रहा था? मैंने उनसे कहा कि उन्हें परमेश्वर से अधिक प्रार्थना करनी चाहिए, अधिक खोजना और संगति करनी चाहिए और सिर्फ लोगों के भरोसे नहीं रहना चाहिए। लेकिन उसके बाद भी वे वैसे ही रहे।
बाद में मुझे बरखास्त कर दिया गया क्योंकि मैं सभाओं और संगति के दौरान दिखावा करने के लिए लगातार शब्द और धर्म-सिद्धांत ही बोल रही थी, समस्याएँ हल करने में असमर्थ थी और मेरे काम से नतीजे नहीं मिल रहे थे। उस समय मैंने इसके बारे में अधिक नहीं सोचा। मैंने सोचा कि अगर मुझे इसलिए बरखास्त किया गया है क्योंकि मैं वास्तविक काम नहीं कर पाई थी, तो कोई बात नहीं : मुझे बस बरखास्त ही कर देना चाहिए। वैसे भी मैंने अपना सब कुछ दिया था और न तो कोई ढिलाई बरती थी और न ही धूर्तता की थी। लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि मुझे बरखास्त किए जाने के बाद कुछ भाई-बहन इसकी अनुमति नहीं देंगे और सवाल करेंगे कि अगुआओं ने मुझे बरखास्त क्यों किया। अगुआओं ने मुझसे मेरी खुद की समस्याओं पर गहराई से विचार करने को कहा। तभी मुझे डर लगा। मैंने मन ही मन सोचा, “मुझे इसलिए बरखास्त किया गया क्योंकि मैंने अपना काम ठीक से नहीं किया और अब मेरे भाई-बहन मेरी रक्षा कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह अन्याय है और मुझे बचाया जाना चाहिए। क्या मैं उन्हें बस अपने सामने नहीं लाई हूँ? यह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना है!” जितना मैंने सोचा, उतनी ही मैं डर गई। मैं अपने आँसुओं को बहने से नहीं रोक पाई और ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैंने अपना परिवार और अपनी नौकरी छोड़ी और मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहती थी। मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि मैं न केवल अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में विफल रहूँगी बल्कि लोगों को भी अपने सामने ले आऊँगी। मैं सचमुच बहुत विद्रोही हूँ! प्रिय परमेश्वर, मेरी प्रार्थना है कि तुम समस्याएँ समझने में मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं पश्चात्ताप कर सकूँ और बदल सकूँ।”
इसके बाद मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्ट मनुष्यजाति इन चीजों में माहिर है। जब लोग अपनी शैतानी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में आम है। लोग सामान्यतः कैसे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपनी बड़ाई करते हैं, जो उन्हें लोगों के मन में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उनकी सराहना करें, उन्हें मान दें, उनकी प्रशंसा करें और यहाँ तक कि उनकी आराधना करें, उनका आदर करें और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो ऊपरी तौर पर तो परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं। क्या इस तरह पेश आना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से परे हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है, अर्थात, वे निर्लज्ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए क्या-क्या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, सांसारिक आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीकों पर इतराते तक हैं। अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का उनका तरीका स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमजोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तब भी दूसरे लोगों को बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ गलत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुकसान पहुँचाया होता है उसका तो वे जिक्र तक नहीं करते। जब उन्होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतजार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्या यह अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का ही तरीका नहीं है? क्या अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्वभाव प्रकट होता है? अहंकार। यह प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव रखें। उनके शब्द पूरी तरह अकाट्य होते हैं और उनमें अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्वभाव है? और क्या उसमें दुष्टता के कोई तत्त्व हैं? (हैं।) यह एक प्रकार का दुष्ट स्वभाव है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने विचार किया कि मेरे बरखास्त होने के बाद मेरे भाई-बहनों ने इसकी अनुमति नहीं दी, इसका मुख्य कारण यह था कि मैं अक्सर खुद की बड़ाई और दिखावा करती थी, अपनी कमियों और भ्रष्टताओं के बारे में खुलकर नहीं बोलती थी, जिसके कारण सभी को केवल मेरा अच्छा पक्ष ही दिखाई देता था। उन्होंने अपनी सोच के हिसाब से मेरे साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी क्योंकि मैंने उन्हें गुमराह किया था। मैंने रिपोर्ट पत्र सँभालने के बारे में सोचा। पहले तो मैं भी उलझन में थी और नहीं जानती थी कि इसे कैसे सँभालूँ। बाद में मैंने केवल ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना करके और अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर खोज, चर्चा और काम करके समस्या का समाधान किया। हालाँकि उनके सामने मैंने इस बारे में विस्तार से बात की कि मैं कैसे खोज रही थी, कैसे मैंने सत्य सिद्धांतों के आधार पर नकली अगुआ के भेद की पहचान की और आखिरकार मैंने इसे कैसे सँभाला और हल किया। मैंने जो कुछ भी बताया, वह इस बारे में था कि मैंने क्या किया था, ताकि हर कोई मुझे नई दृष्टि से देखे। साथ ही मैं खुद का दिखावा करने के लिए नियमित रूप से इस बारे में बात करने के मौकों का फायदा उठाती थी कि मैंने अपने परिवार के उत्पीड़न का कैसे अनुभव किया। मैं इस बारे में विस्तार से बात करती थी कि मुझे कैसे सताया जाता था और मैंने कितने कष्ट सहे थे लेकिन बस अपनी कमजोरियों को छिपा जाती थी। मैं इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहती थी कि कैसे मैंने अपना कर्तव्य त्यागा और परमेश्वर से विश्वासघात किया, ताकि सभी को लगे कि मेरे पास आध्यात्मिक कद है और मैं जानती हूँ कि चीजों का अनुभव कैसे करना है। मैं अक्सर यह भी दिखावा करती थी कि मैंने अपने कर्तव्य निभाने में कैसे कष्ट सहे और कीमत चुकाई और सचेत रूप से अभ्यास और प्रवेश के सकारात्मक तरीके के बारे में ज्यादा बात करती थी। मैंने अपनी खुद की नकारात्मकता और कठिनाइयों को छिपाए रखा ताकि लोग गलती से यह सोचें कि मैंने उनसे अधिक सत्य का अनुसरण किया और मेरे पास वास्तविकता है। मैंने अपने भाई-बहनों को धोखा देने और उनकी आँखों में धूल झोंकने के लिए इन भ्रमों का इस्तेमाल किया। मैं वास्तव में बहुत दुष्ट और नीच थी! मेरे भाई-बहन इसलिए मेरा आदर करते और सराहते थे क्योंकि मैंने उनकी आँखों में झूल झोंकी थी। जब कलीसिया ने मुझे सिद्धांतों के अनुसार बरखास्त किया क्योंकि मैं वास्तविक कार्य करने में असमर्थ थी, तो उन्होंने मुझे बचाने के लिए आवाज भी उठाई। यह सब मेरे खुद की बड़ाई करने और खुद का दिखावा करने के परिणाम थे। यह मेरा कर्तव्य निभाना कैसे था? मैं परमेश्वर का खुलेआम प्रतिरोध कर रही थी और अपने भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा रही थी! मैंने सोचा कि कैसे जब मैं अगुआ थी, मैंने अपने भाई-बहनों का कोई भला नहीं किया, इसके बजाय मैंने उन्हें गुमराह किया और नुकसान पहुँचाया और मैं अपने दिल में विशेष रूप से दुखी महसूस करती थी।
उस दौरान मैंने हर दिन ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना की, अपनी समस्याएँ हल करने में परमेश्वर की मदद माँगी। एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का गहन-विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँचे रुतबे की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परमेश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जान-बूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन किया, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा चाहती थी कि लोग मेरे इर्द-गिर्द घूमें क्योंकि मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी। मैं अपनी पहचान या रुतबे को नहीं समझती थी और एक साधारण व्यक्ति बनकर दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं थी। इसके बजाय मैं जहाँ जाती, मैं चाहती थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें और मेरी आराधना करें। यह लक्ष्य पाने के लिए मैं सभाओं के दौरान लगातार शब्द और धर्म-सिद्धांत उगलती रहती थी ताकि खुद का दिखावा कर सकूँ और लोगों को लगे कि मेरे पास सत्य वास्तविकता है। मैं लगातार यह भी दिखाती थी कि कैसे मैं समस्याएँ हल कर सकती हूँ, कष्ट सहन कर सकती हूँ और खुद को खपा सकती हूँ। मैंने जान-बूझकर अपनी प्रकट की गईं भ्रष्टताओं और अपनी नकारात्मकता और कमजोरी को छुपाए रखा। मैंने धोखे से अपने भाई-बहनों की प्रशंसा पाने के लिए लोगों को अपने बहुत दृढ़ निश्चयी होने और लगन से सत्य का अनुसरण करने का भ्रम दिखाया। इससे मेरे भाई-बहनों को लगा कि मेरे पास सत्य वास्तविकता है और मैं समस्याएँ हल करने में सक्षम हूँ। जब चीजें उन पर आती थीं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते थे और सत्य नहीं खोजते थे, बल्कि इसके बजाय इसे हल करने के लिए मुझ पर भरोसा करते थे। जब मुझे बरखास्त किया गया, तो उन्होंने उसके खिलाफ लड़ाई भी लड़ी, जो उन्हें अन्याय लगता था। इस बारे में सोचती हूँ तो मैं कलीसिया में एक अगुआ थी। रिपोर्ट के पत्रों को सँभालना और समस्याएँ हल करना जैसे काम मेरे मुख्य काम का हिस्सा थे। इसके अतिरिक्त मैं मामले अच्छी तरह सँभालने में सक्षम थी क्योंकि मेरे पास परमेश्वर की अगुआई और मेरे भाई-बहनों की संगति और सहायता थी। केवल तभी ये नतीजे प्राप्त किए जा सकते थे। मैं खुद पर भरोसा करके कुछ हासिल नहीं कर सकती थी। मेरे पास तो दिखावा करने लायक कोई पूँजी ही नहीं थी। इसके अलावा जब मैंने अपने परिवार द्वारा उत्पीड़न का अनुभव किया, तो मुझे कुछ हद तक पीड़ा हुई, लेकिन अगर कोई परमेश्वर में विश्वास करता है और उस देश में परमेश्वर का अनुसरण करता है जहाँ सीसीपी सत्ता में है, तो उसे ये कष्ट सहने होंगे। ऐसा इसलिए है ताकि मुझे बचाया जा सके। इसके अलावा मैं अक्सर कमजोर और नकारात्मक रहती थी और यहाँ तक कि एक बार तो मैंने अपने कर्तव्य त्याग दिए थे और परमेश्वर से विश्वासघात किया था। अगर परमेश्वर के वचनों की अगुआई न होती, तो मैं अपने दम पर अडिग नहीं रह पाती। मगर मैंने परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं किया और परमेश्वर की गवाही नहीं दी। इसके बजाय मैंने खुद का उत्कर्ष किया। यहाँ तक कि जब हर किसी ने मेरी प्रशंसा की तो मुझे खुशी भी हुई और इसे आनंददायी भी पाया। मुझमें वाकई कोई शर्म नहीं थी! मैंने देखा कि मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, न ही मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होने का जरा भी संकेत था। मैं निहायत ही भ्रष्ट इंसान थी, जिसके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी, फिर भी मैंने अपने भाई-बहनों के दिलों में अपनी जगह बनाने के लिए खुद की बड़ाई करने और खुद का दिखावा करने के गुप्त तरीके तलाशने की कोशिश की। मैं वास्तव में बहुत अहंकारी थी और मेरे पास विवेक की कमी थी! फिर मैंने पौलुस के बारे में सोचा और यह कि वह कितना अहंकारी और दंभी था। वह हमेशा चाहता था कि लोग उसकी प्रशंसा करें और उसकी आराधना करें। जैसे ही वह जरा सा काम करता, वह दिखावा करता था कि उसने कैसे कष्ट सहे और वह कितना वफादार था, फिर भी उसने कभी प्रभु यीशु के वचनों की गवाही नहीं दी। अंत में, उसने यहाँ तक कहा, “मेरे लिए जीना ही मसीह है।” यह अत्यधिक अहंकारी होना है और ईशनिंदा है। उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और परमेश्वर की धार्मिक दंड का भागी बना। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से आखिरकार मैंने देखा कि चीजें करने में मेरा व्यवहार और मैंने जो स्वभाव प्रकट किया, वे पौलुस जैसे ही थे। मैं मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रही थी, परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी। परमेश्वर ने इसकी निंदा की थी। मैं अपने दिल में भयभीत थी। मुझे उम्मीद नहीं थी कि कई साल तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली इंसान बन जाऊँगी। क्या परमेश्वर मुझे फिर भी बचाएगा? क्या वह इस बरखास्तगी का उपयोग मुझे बेनकाब करने और हटाने के लिए करेगा? जितना अधिक मैंने सोचा, उतनी ही अधिक मुझे वेदना हुई। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने को कहा ताकि मैं उसका इरादा समझ सकूँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “लोग अपने परिणाम और गंतव्य और अपने कर्तव्य के समायोजन तथा कर्तव्य से हटा दिए जाने के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं। कुछ लोग अक्सर ऐसी चीजों के बारे में गलत निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं, वे सोचते हैं कि जैसे ही वे अपने कर्तव्य से हटा दिए जाएँगे, और जब उनकी कोई हैसियत नहीं होगी या फिर परमेश्वर कहेगा कि वह उन्हें पसंद नहीं करता या अब उसे उनकी जरूरत नहीं है, तो यह उनका अंत होगा। वे लोग इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं। वे मानते हैं, ‘परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई तुक नहीं है, परमेश्वर मुझे नहीं चाहता है, और मेरा परिणाम पहले से तय है, तो अब जीने का क्या तुक है?’ दूसरे लोग ऐसे विचार सुनकर, उन्हें उचित और गरिमामय समझते हैं—लेकिन वास्तव में, यह कैसी सोच है? यह परमेश्वर के प्रति विद्रोहशीलता है, यह खुद को मायूसी में छोड़ देना है। वे खुद को मायूसी में क्यों छोड़ देते हैं? इसलिए कि वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते हैं, वे स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते हैं कि परमेश्वर लोगों को किस तरह बचाता है, और वे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं रखते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। “परमेश्वर से निंदा का सिर्फ एक वक्तव्य सुन कर तुम सोचते हो कि परमेश्वर द्वारा निंदित होने के कारण लोग उसके द्वारा त्याग दिए गए हैं और अब वे बचाए नहीं जाएँगे, और इस वजह से तुम निराश हो जाते हो, और खुद को मायूसी में डुबो लेते हो। यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना है। असल में परमेश्वर ने लोगों को नहीं त्यागा है। उन्होंने परमेश्वर की गलत व्याख्या कर खुद को त्याग दिया है। लोग खुद को त्याग दें इससे ज्यादा गंभीर कुछ नहीं होता, जैसा कि पुराने नियम के वचनों में साकार हुआ है : ‘मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं’ (नीतिवचन 10:21)। लोग खुद को मायूसी में डुबो लें उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तुम परमेश्वर के ऐसे वचन पढ़ते हो जो लोगों को रेखांकित करते हुए-से लगते हैं; असल में ये लोगों को रेखांकित नहीं करते, बल्कि ये परमेश्वर के इरादों और राय की अभिव्यक्ति हैं। ये सत्य और सिद्धांत के वचन हैं, वे किसी का रेखांकन नहीं कर रहे हैं। क्रोध या रोष के समय में बोले गए परमेश्वर के वचन उसका स्वभाव भी दर्शाते हैं, ये वचन सत्य हैं और इसके अलावा सिद्धांत से संबंधित हैं। लोगों को यह बात समझनी चाहिए। यह कहने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को सत्य और सिद्धांतों को समझने देना है; यह किसी को भी परिसीमित करने के लिए बिल्कुल नहीं है। इसका लोगों की अंतिम मंजिल और पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है, यह लोगों का अंतिम दंड तो है ही नहीं। ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर विवेक का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। परमेश्वर के वचनों से मैं परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे को समझ गई। जब हम असफलता और खुलासों का सामना करते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि हम हटा दिए जाएँगे। अगर हम असफलता के बीच में सत्य खोज सकें, सबक सीख सकें और सच्चा पश्चात्ताप कर सकें, तो यह हमारे लिए उद्धार है। मैंने सोचा कि कैसे मैंने हमेशा खुद की बड़ाई की थी और अपने कर्तव्य निभाते समय खुद का दिखावा किया था। इस पूरे समय मैं बिना किसी एहसास के मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रही थी। जब इस बार मुझे बरखास्त किया गया, तो मैंने केवल यही सोचा कि चूँकि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर सकती, तो मेरा कर्तव्य बदल दिया जाएगा और यह ठीक ही होगा। मैंने बिल्कुल भी आत्म-चिंतन नहीं किया। केवल जब अगुआओं ने मुझे आत्म-चिंतन की याद दिलाई और परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे यह समझ आया कि मैं बहुत पहले ही गलत रास्ते पर चली गई थी, मैं बुराई और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी। मैं वास्तव में बहुत स्तब्ध थी! मेरे लिए यह बरखास्तगी एक बहुत बड़ी सुरक्षा थी। मैं बुराई कर रही थी और इसने मुझे इस रास्ते पर चलने से रोक दिया था। अन्यथा मुझे आखिरकार दंडित किया जाता और तब भी मुझे यह पता न चल पाता कि क्या हो रहा है। मैंने देखा कि असफल होने और बेनकाब किए जाने का मतलब हटाया जाना नहीं है—इसके बजाय इसका मतलब खुद को समझना, पश्चात्ताप करना और बदलना है। मैंने परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे का अनुभव किया और मैं बहुत द्रवित हो गई। मैंने बहुत से ऐसे काम किए थे जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे लेकिन फिर भी उसने मेरे उद्धार को नहीं त्यागा। यह सचमुच परमेश्वर का प्रेम था! मैं अब परमेश्वर को गलत नहीं समझती थी और परमेश्वर से पश्चात्ताप करने को तैयार थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊँचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। “तो कार्य करने का कौन-सा तरीका अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना नहीं है? अगर तुम किसी मामले के संबंध में दिखावा करते और अपने बारे में गवाही देते हो, तो तुम यह परिणाम प्राप्त करोगे कि, कुछ लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय बनाएँगे और तुम्हारी पूजा करेंगे। लेकिन अगर तुम उसी मामले के संबंध में खुद को उजागर कर देते हो, और अपने आत्मज्ञान को साझा करते हो, तो उसकी प्रकृति अलग होती है। क्या यह सच नहीं है? अपने आत्मज्ञान के बारे में बात करने के लिए खुद को पूरी तरह उजागर कर देना, कुछ ऐसा है जो साधारण मानवता में होना चाहिए। यह एक सकारात्मक चीज है। अगर तुम वास्तव में खुद को जानते हो और अपनी अवस्था के बारे में सही, वास्तविक और सटीक ढंग से बोलते हो; अगर तुम उस ज्ञान के बारे में बोलते हो जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित है; अगर तुम्हें सुनने वाले इससे सीखते और लाभान्वित होते हैं; और अगर तुम परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हो और उसे महिमामंडित करते हो, तो यह परमेश्वर के बारे में गवाही देना है। ... वक्ता के इरादे को देखना यह पहचानने की कुंजी है कि लोग अपनी बड़ाई कर रहे हैं या नहीं और अपने बारे में गवाही दे रहे हैं या नहीं। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाना है कि तुम्हारी भ्रष्टता कैसे उजागर हुई, और तुम कैसे बदल गए हो, और दूसरों को इससे लाभ उठाने में समर्थ बनाना है, तो तुम्हारे शब्द निष्कपट और सच्चे हैं, और तथ्यों के अनुरूप हैं। ऐसे इरादे सही हैं, और तुम दिखावा नहीं कर रहे या अपने बारे में गवाही नहीं दे रहे। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाना है कि तुम्हारे पास वास्तविक अनुभव हैं, और तुम बदल गए हो और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, ताकि वे तुम्हारे बारे में ऊँचा सोचें और तुम्हारी पूजा करें, तो ये इरादे गलत हैं। यह दिखावा करना और अपने बारे में गवाही देना है। अगर तुम जिस अनुभवात्मक गवाही की बात करते हो वह झूठी है, उसमें मिलावट है और यह लोगों की आँखों पर पट्टी बाँधने के इरादे से है, कि वे तुम्हारी वास्तविक अवस्था न देख सकें, और यह तुम्हारे इरादे, भ्रष्टता, कमजोरी या नकारात्मकता दूसरों के सामने प्रकट होने से रोकने के इरादे से है, तो ऐसे शब्द धोखा देने और गुमराह करने वाले हैं। यह झूठी गवाही है, यह परमेश्वर से चालाकी करना और परमेश्वर को लज्जित करना है, और यह वह है जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। इन अवस्थाओं के बीच स्पष्ट अंतर है, और इन सबको इरादे के आधार पर पहचाना जा सकता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। अपना कर्तव्य करते समय मुझे सही इरादा रखना चाहिए और सचेत रूप से परमेश्वर का उत्कर्ष करना चाहिए, परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए और अपने दिल में परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करना चाहिए। अपने अनुभव बताते समय मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए। चाहे वह मेरी अपनी नकारात्मकता और कमजोरी हो या मेरी भ्रष्टता का खुलासा, मुझे हमेशा इस बारे में खुलकर बात करनी चाहिए और सब कुछ बताना चाहिए ताकि मेरे भाई-बहन इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव का भेद पहचान सकें, जानें कि इसे कैसे समझना और हल करना है और मेरे अनुभव से शिक्षा और लाभ प्राप्त कर सकें। इसके अलावा खुलकर बोलने और सब कुछ बताने से मेरे भाई-बहन मेरे असली आध्यात्मिक कद और मेरी भ्रष्टता के सत्य को स्पष्ट रूप से देख पाएँगे और यह जानेंगे कि मेरे पास दूसरों द्वारा प्रकट की गई बहुत सी भ्रष्टता है, मेरे कुछ भ्रष्ट स्वभाव तो अन्य लोगों की तुलना में और ज्यादा गंभीर हो सकते हैं और यह कि मैं दूसरों की प्रशंसा पाने और आराधना किए जाने के लायक तो बिल्कुल नहीं हूँ। इस तरह से अभ्यास करना भी खुद की रक्षा करना है।
जब मैंने इसे समझा, तो मैंने सोचा कि कैसे अगुआओं ने कहा था कि सभी में मुझे लेकर भेद की पहचान की कमी है और मुझे आत्म-चिंतन करने को कहा था। इसलिए मैं इस अवधि में सभाओं में अपने आत्म-चिंतन और खुद के ज्ञान के बारे में खुलकर बोलना चाहती थी और मैंने जो भ्रष्टता प्रकट की थी उसे खोलकर रखना चाहती थी। इस तरह हर कोई मेरे भेद की पहचान कर पाता। लेकिन जब वास्तव में बोलने का समय आया, तो मुझे अपने दिल में थोड़ी हिचक महसूस हुई, “अगर मेरे भाई-बहन मेरी प्रकट की गई इन बातों और मेरे व्यवहारों के बारे में जान गए, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं हमेशा से एक पाखंडी थी? क्या वे मुझे ठुकरा देंगे?” फिर मैं खुलकर बोलने और संगति करने के लिए थोड़ी अनिच्छुक हो गई। उस समय मुझे नीनवे के लोगों के पश्चात्ताप के बारे में परमेश्वर की संगति याद आई। परमेश्वर कहता है : “‘अपने कुमार्ग से फिर जाने’ का अर्थ है कि ऐसे लोग ये कार्य दोबारा कभी नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, वे दोबारा कभी इस बुरे तरीके से व्यवहार नहीं करेंगे; उनके कार्यों का तरीका, स्रोत, मकसद, इरादा और सिद्धांत सब बदल चुके हैं; वे अपने मन को आनंदित और प्रसन्न करने के लिए दोबारा कभी उन तरीकों और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करेंगे। ‘अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना’ में ‘त्याग देना’ का अर्थ है छोड़ देना या दूर करना, अतीत से पूरी तरह से नाता तोड़ लेना और कभी वापस न मुड़ना। जब नीनवे के लोगों ने हिंसा त्याग दी, तो इससे उनका सच्चा पश्चात्ताप सिद्ध हो गया। परमेश्वर लोगों के बाहरी रूप के साथ-साथ उनका हृदय भी देखता है। जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप देखा जिसमें कोई सवाल नहीं थे, और यह भी देखा कि वे अपने कुमार्गों से फिर गए हैं और उन्होंने हिंसा त्याग दी है, तो उसने अपना मन बदल लिया” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। नीनवे के लोगों ने टाट और राख में परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया था। उन्होंने अतीत के अपने बुरे तरीके त्याग दिए थे और अब बुरे कर्म नहीं करते थे। अंत में उन्होंने परमेश्वर की दया प्राप्त की। इसके विपरीत मैंने केवल पश्चात्ताप करने की इच्छा के बारे में बात की थी। लेकिन जब वास्तव में एक परिवेश मेरे सामने आया, तो मैं बस फिर से अपना सम्मान बचाना चाहती थी। यह सच्चा पश्चात्ताप नहीं था! मुझे अपने सम्मान को जाने देना चाहिए और अपने भाई-बहनों के साथ अपनी भ्रष्टता के सत्य के बारे में खुलकर बात करनी चाहिए। मुझे सभी को मेरा असली आध्यात्मिक कद स्पष्ट रूप से देखने देना चाहिए, ताकि वे अब मेरी प्रशंसा या आराधना न करें और मेरी विफलता से परमेश्वर की धार्मिकता को समझें, इससे चेतावनी पाएँ। जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मैंने खुलकर बात की और मैंने जो कुछ भी प्रकट किया था और अगुआ बनने के बाद से मैंने जैसा व्यवहार किया था, उसके बारे में संगति की : मैंने कैसे खुद का उत्कर्ष किया और कैसे खुद का दिखावा किया। संगति समाप्त होने पर मेरे दिल ने विशेष रूप से मुक्त महसूस किया।
कुछ दिन बाद उच्च-स्तरीय अगुआओं ने मेरे लिए एक कर्तव्य की व्यवस्था की। उस समय मैं इतनी उत्साहित थी कि मैं रो पड़ी। मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि जब मैं वास्तव में परमेश्वर से पश्चात्ताप करूँगी, तो मैं उसका मुस्कराता हुआ चेहरा देखूँगी। परमेश्वर ने मुझे त्यागा नहीं था, न ही उसने मेरे अपराधों के अनुसार मेरे साथ व्यवहार किया था। मैं बेहद द्रवित हो गई। मैंने चुपचाप संकल्प लिया, “भविष्य में अपना कर्तव्य करते समय मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए, सचेत रूप से परमेश्वर का उत्कर्ष करना चाहिए, परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए, सत्य का अनुसरण करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, अपने कर्तव्य व्यावहारिक ढंग से करने चाहिए और खुद का दिखावा करना बंद करना चाहिए।” बाद में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए मैंने बहुत अधिक संयम दिखाया। हर बार जब मैं खुद का दिखावा करना चाहती थी, तो मैं सचेत रूप से परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, उसकी जाँच-पड़ताल को स्वीकारती थी, अपने गलत इरादों के खिलाफ विद्रोह करती थी और अब अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य नहीं करती थी। इस तरह अभ्यास करने पर मुझे दिल में बहुत सुकून महसूस हुआ।