53. धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित आस्था के परिणाम
2004 में, परमेश्वर के अनुग्रह से मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया। भाई-बहनों के साथ सभा करते हुए, कभी-कभी मैं उन्हें अपने अनुभवों पर संगति करते सुनती थी, वे बताते कि उन्होंने बीमारी में भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा और चमत्कारिक रूप से ठीक हो गए। मैंने कुछ भाई-बहनों द्वारा लिखे गए अनुभवजन्य गवाही लेख भी पढ़े। एक बहन को कैंसर था लेकिन फिर भी उसने अपने कर्तव्य करने पर जोर दिया, और अनजाने में परमेश्वर ने उसका कैंसर दूर कर दिया। इन अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में पता चला तो मैंने मन में सोचा, “जब भाई-बहनों पर बीमारी का परीक्षण आया, तो उन्होंने आस्था के साथ उसका अनुभव किया—वे अपनी गवाही में अडिग रहे, और उनकी बीमारी ठीक हो गई। भविष्य में, मुझे भी उनसे सीखना चाहिए। चाहे कोई भी बीमारी या आपदा आए, मुझे अपने कर्तव्यों को मजबूती से थामे रहना है और अपनी गवाही में अडिग रहना है। इस तरह, मैं भी भाई-बहनों की तरह परमेश्वर की आशीषों में जीऊँगी।”
2011 की गर्मियों में एक दिन दोपहर को, मेरा सात साल का बेटा लिविंग रूम में रोलर स्केट्स पहनकर खेल रहा था। गलती से वह टेलीविजन सेट से जा लड़ा जो उसी पर आ गिरा, उस समय मेरा बेटा ज़मीन पर बैठा था और खून से लथपथ था, उसकी नाक से भी लगातार खून बह रहा था। मैं चौंक गई और मेरा दिल मुँह को आ गया। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे बच्चे का चाहे जो भी हो, वह जिए या मरे, कृपया मेरे दिल को शिकायत करने से दूर रखना।” मेरे बेटे की अस्पताल में जाँच होने के बाद, डॉक्टर ने उसे घर पर निगरानी में रखने को कहा और बताया कि जब तक उसे बुखार न हो, सब ठीक रहेगा। बाद में, मेरा बेटा ठीक हो गया। बाद में, मैंने इस घटना पर विचार किया। इस संकट के दौरान मैंने शिकायत नहीं की और मेरा बेटा जल्दी ठीक हो गया। इससे मैं और भी आश्वस्त हो गई कि आपदाओं के दौरान शिकायत न करने और अपनी गवाही में अडिग रहने से मुझे परमेश्वर की सुरक्षा और आशीषें देखने को मिलेंगी। तब से, मैंने और भी अधिक उत्साह के साथ खुद को खपाया। कलीसिया ने मुझे चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, चाहे कितना भी कष्ट या कीमत क्यों न चुकानी पड़े, मैंने समर्पण किया। मुझे लगा कि मैं ऐसी इंसान हूँ जो परमेश्वर से प्रेम करती है और भविष्य में निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आशीष पाऊँगी।
मई 2016 में, मैं घर से दूर अपने कर्तव्य कर रही थी। एक दिन, मुझे घर से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मेरे बेटे को ल्यूकीमिया है और वह गंभीर रूप से बीमार है, और उसे पहले ही अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। पत्र पढ़ने के बाद, मेरा दिमाग सुन्न हो गया, और मैं प्रार्थना करने के लिए अपने कमरे में चली गई। मैं बिस्तर पर घुटने टेककर, बेतहाशा रोते हुए कहने लगी, “परमेश्वर, मेरा बेटा सिर्फ बारह साल का है। क्या तुम सच में उसे ले जाओगे?” उसके बाद, मैं और कुछ नहीं कह सकी। मैं तुरंत वापस जाकर अपने बेटे की देखभाल करना, उसे दिलासा और हिम्मत देना चाहती थी, लेकिन मैंने सोचा कि कैसे मसीह-विरोधी कलीसिया के जीवन में बाधा डाल रहे हैं, कार्य की विभिन्न मदों में रुकावट डाल रहे हैं, और भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुँचा रहे हैं। इस नाजुक मोड़ पर, परमेश्वर देख रहा था कि मैं क्या चुनूँगी—कलीसिया के कार्य को बनाए रखना या अपने बेटे की देखभाल के लिए अपने कर्तव्यों को दरकिनार करना। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा जिसने इतने बड़े परीक्षण सहे—उसकी संपत्ति छीन ली गई, उसके बच्चे मारे गए, और उसका शरीर फोड़ों से ढक गया—फिर भी उसने परमेश्वर से शिकायत नहीं की बल्कि अपनी गवाही में अडिग रहा। अंत में, परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ, न केवल उसे ठीक किया बल्कि उसे दोगुनी आशीष भी दी। जब मैंने सोचा कि मेरे बेटे की बीमारी परमेश्वर के हाथों में है, तो मुझे पता था कि मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करना और अपने कर्तव्यों को बनाए रखना चुनना होगा, शैतान की योजनाओं को सफल नहीं होने देना है। मुझे विश्वास था कि अगर मैं अपनी गवाही में अडिग रही तो परमेश्वर मेरे बेटे को ठीक होने की आशीष देगा। खासकर यह सोचते हुए कि कैसे अब्राहम ने परमेश्वर के प्रति समर्पण किया और अपने इकलौते बेटे इसहाक की बलि देने को तैयार था, और कैसे परमेश्वर ने उसके बेटे को नहीं लिया बल्कि उसे और भी अधिक आशीष दी, मुझे लगा कि परमेश्वर मेरे बेटे की बीमारी के जरिए मेरी भी परीक्षा ले रहा है। अगर मैं अपने बेटे को परमेश्वर के हाथों में सौंप दूँ और अपनी गवाही में अडिग रहूँ, तो मुझे विश्वास था कि परमेश्वर मेरे बेटे को ठीक होने की आशीष देगा। उसके बाद, मैं अपने बेटे की बीमारी के बारे में नहीं सोचती थी, बल्कि सब कुछ भूलकर अपने कर्तव्य कर सकती थी।
जब मैं तीन महीने बाद घर लौटी, तो मेरे पति ने मुझे बताया कि हमारे बेटे को ल्यूकीमिया नहीं है; यह सिर्फ सफेद रक्त कोशिकाओं में वृद्धि और कम प्रतिरक्षा थी, जो समय पर इलाज न मिलने पर ल्यूकीमिया में बदल सकती थी। हम कई नामी अस्पतालों में गए, लेकिन कई विशेषज्ञ परामर्शों के बाद भी, वे बीमारी का निदान नहीं कर सके। हमारे पास घर लौटकर पारंपरिक इलाज कराने के अलावा कोई चारा नहीं था। हमने चीनी दवा पर दो हजार युआन से ज्यादा खर्च किए, लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। मैंने मन में सोचा, “परमेश्वर के लिए कोई भी मामला मुश्किल नहीं है। जब तक लोग ईमानदारी से परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और उसके प्रति समर्पण करते हैं, क्या परमेश्वर के लिए उन्हें ठीक करना बहुत आसान नहीं है?” उसके बाद, मैं अक्सर अपने बच्चे के साथ संगति करती थी, “इस बीमारी में, हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। अगर हम अपनी गवाही में अडिग रहे, तो परमेश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा और तुम्हें ठीक होने में मदद करेगा।” इस बीच, मैंने अपने बेटे की बीमारी का इलाज करने के लिए हर जगह घरेलू उपचारों के बारे में भी पूछताछ की। हालाँकि, एक महीना बीत जाने के बाद, मेरे बच्चे की हालत में सुधार तो नहीं हुआ, बल्कि और खराब हो गई। मैं मन से नकारात्मक और कमजोर महसूस करने लगी, सोचने लगी, “जब से मेरा बच्चा बीमार हुआ है, मैं लगन से अपने कर्तव्य कर रही हूँ। परमेश्वर मेरे बेटे के स्वास्थ्य की रक्षा क्यों नहीं कर रहा है? ज्यादा इलाज से उसकी हालत क्यों बिगड़ रही है? अगर यह सच में डॉक्टरों के कहे अनुसार ल्यूकीमिया में बदल गया, तो क्या मेरे बेटे की कोई उम्मीद नहीं बचेगी?” मैं जितना इस बारे में सोचती, उतनी ही डर जाती।
एक सुबह, मेरे पति ने लगभग रोते हुए मुझसे कहा, “हमने इस बच्चे की बीमारी के लिए हर तरीका आजमा लिया है, लेकिन यह ठीक तो नहीं हो रही, बल्कि और खराब होती जा रही है। हमें क्या करना चाहिए?” अपने पति की पीड़ा देखकर, मुझे अकथनीय दुख हुआ। तो, मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचन निकाले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना या उनके भीतर नकारात्मकता आना या परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य बात है। लेकिन कुल मिलाकर तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए और अय्यूब की तरह तुम्हें भी परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि जन्म के बाद लोगों के पास जो भी चीजें होती हैं वे सब यहोवा द्वारा दी जाती हैं और यहोवा ही उन्हें ले भी लेता है। उसे चाहे जिन परीक्षणों से गुजारा गया, उसने यह विश्वास बनाए रखा। लोगों के अनुभवों में, परमेश्वर के वचनों के चाहे जिस भी शोधन से वे गुजरें, परमेश्वर कुल मिलाकर जो चाहता है वह है उनकी आस्था और परमेश्वर-प्रेमी हृदय। इस तरह से कार्य करके वह जिस चीज को पूर्ण बनाता है, वह है लोगों की आस्था, प्रेम और दृढ़ निश्चय। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है और वे इसे देख नहीं सकते, छू नहीं सकते; ऐसी परिस्थितियों में आस्था आवश्यक होती है। जब कोई चीज नग्न आँखों से न देखी जा सकती हो, तब आस्था आवश्यक होती है। जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते, तब आस्था आवश्यक होती है। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते तो यही अपेक्षा की जाती है कि तुम आस्था रखो, ठोस रुख अपनाए रखो और अपनी गवाही में अडिग रहो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँच गया तो परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और उससे बोला। यानी जब तुममें आस्था होगी, तभी तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे। जब तुममें आस्था होगी, परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा और अगर तुममें आस्था नहीं है तो वह ऐसा नहीं कर सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे सच्ची आस्था क्या है, इस बारे में कुछ समझ मिली—जब हम परमेश्वर के कार्य को देख नहीं सकते या उसके इरादों को समझ नहीं पाते, तब भी परमेश्वर में विश्वास करना और उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहना, ठीक अय्यूब की तरह, जिसने किसी भी समय परमेश्वर को नकारा नहीं। यही परमेश्वर चाहता है। मैंने अपने पति के साथ संगति की, “जब सब कुछ ठीक चल रहा हो, केवल तब परमेश्वर में विश्वास करना और अपने कर्तव्य करना, अनिवार्य रूप से सच्ची आस्था को नहीं दर्शाता। जब हम परीक्षणों का सामना करते हैं और यह नहीं देख पाते कि नतीजे क्या होंगे, फिर भी परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने में लगे रहते हैं—तो यह आस्था सच्ची है, और यह परमेश्वर के शोधन और परीक्षणों का चाहा गया नतीजा है। वरना, हम केवल परमेश्वर के अनुग्रह और लाभों के लिए उसमें विश्वास कर रहे होते, और शैतान हम पर आरोप लगाता और हमें मानने से इनकार कर देता। चाहे हमारे बेटे की हालत सुधरे या न सुधरे, अगर हम परमेश्वर का अनुसरण और उसके प्रति समर्पण करते रहें, तो शैतान हार जाएगा और शर्मिंदा होगा, और परमेश्वर हमसे महिमा पाएगा।” यह सुनकर मेरे पति ने भी सहमति में सिर हिलाया।
उसके बाद, हमारे बेटे की हालत में सुधार के कोई संकेत नहीं दिखे। एक दिन, हमारा बेटा खिड़की पर झुका हुआ था, वह दूसरे बच्चों को बस्ता लेकर स्कूल जाते देख रहा था। उसकी आँखों में हसरत भरी थी, उसकी आँखों में आँसू थे, और उसने भर्राई आवाज में कहा, “माँ, बाकी सब बच्चे स्कूल जा रहे हैं, लेकिन मैं बीमार हूँ और नहीं जा सकता। तुम हमेशा मुझसे कहती हो कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करूँ। ठीक होने के लिए मुझे कब तक समर्पण करना होगा?” मेरे बेटे के शब्द सुनकर मेरा दिल चाकू की तरह चुभ गया। मेरी आस्था अब और सहन नहीं कर सकी। मैंने मन में सोचा, “जब से मेरा बच्चा बीमार हुआ है, मैंने कष्ट सहे हैं, लेकिन मैंने हमेशा अपने कर्तव्यों को मजबूती से निभाया है। मैंने उन्हें करने की पूरी कोशिश की है। परमेश्वर अभी भी मेरे बेटे की बीमारी को ठीक क्यों नहीं कर रहा है? क्या मेरा दिल पर्याप्त सच्चा नहीं है? डॉक्टर ने कहा कि अगर मेरे बेटे की बीमारी ठीक नहीं हुई, तो उसका अंग काटना पड़ सकता है। अगर ऐसा हुआ, तो वह भविष्य में कैसे जिएगा?” इन भयानक परिणामों के बारे में सोचकर, मेरा दिल असहनीय दर्द से भर गया, जैसे कि उसे कीमा बनाने की मशीन में डाल दिया गया हो। इस हद तक दर्द पहुँचने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे बेटे की बीमारी ठीक क्यों नहीं हो रही है? मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है; मैं सच में अब और यह सहन नहीं कर सकती। परमेश्वर, कृपया मुझे अपना इरादा समझने के लिए प्रबुद्ध करो।”
सितंबर के अंत में, हमारे अगुआ ने मुझे एक पत्र भेजा जिसमें एक निश्चित कर्तव्य में मेरे सहयोग का अनुरोध किया गया था। मैंने मना कर दिया क्योंकि मैं अपने बेटे की बीमारी को लेकर चिंतित थी। बाद में, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर में विश्वास के इन सभी वर्षों में, मैंने कभी भी किसी कर्तव्य से इनकार नहीं किया, चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाई का सामना क्यों न करना पड़ा हो। लेकिन आज, मैंने अपने बेटे की बीमारी के कारण एक कर्तव्य को अस्वीकार कर दिया। इस एहसास से मुझे दुख हुआ। इस दौरान अपनी दशा पर विचार करते हुए, मैं हर दिन बस बेमन से प्रार्थना करती और परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ लेती थी। मेरे दिल में कोई ताकत नहीं थी। हर दिन, अपने बेटे को दवा देने के अलावा, मेरा दिल डर और चिंता से भरा रहता था। मैं लगातार चिंतित थी कि मेरे बेटे की बीमारी ठीक नहीं होगी और मैं उसे खो सकती हूँ, इसलिए मैं अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं दे रही थी। जब मैंने यह सोचा, तो मुझे अचानक एहसास हुआ—क्या मैं परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं कर रही थी? मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “तुम परमेश्वर के आदेशों से कैसे पेश आते लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के न्याय के कठोर वचनों से, मैंने उसके क्रोध को महसूस किया। पता चला कि परमेश्वर के आदेश को हल्के में लेना इतना गंभीर मामला है। जो लोग उसके आदेश को ठुकराते हैं, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया घृणा और शाप देने का है। ये वचन पढ़कर मैं डर गई। मैंने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था, लेकिन मुझमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी; जब ऐसी परिस्थितियों से सामना हुआ जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थीं, तो मैंने अपने कर्तव्य छोड़कर परमेश्वर के साथ विश्वासघात भी किया। यह पहचानकर, मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की।
अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था। यही वह मार्ग है जिस पर वह चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद वे भीड़ से अलग दिखाई दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं। वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने व्यवसाय और पारिवारिक पेशे को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी गैर-विश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : ‘मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब-कुछ त्याग देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के समक्ष वफ़ादार होना चाहिए, और अंततः मुझे बड़े पुरस्कार और शानदार मुकुट मिलेंगे।’ यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीजें पाने की कोशिश करते हैं। वे बिल्कुल भी अलग नहीं हैं, और वे उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है। यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जो मार्ग अपनाते हैं, वह पतरस के मार्ग से एकदम विपरीत होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से, मैंने देखा कि इन कई वर्षों में, मेरा त्याग करना और खुद को खपाना अपने कर्तव्यों को पूरा करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं था, बल्कि परमेश्वर के साथ लेन-देन करने की कोशिश थी, जो हमेशा आशीष पाने की मंशा से नियंत्रित होती थी—मैं पौलुस के आशीष के पीछे भागने के मार्ग पर चल रही थी। जब से मैंने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया था, मैंने देखा था कि जब कुछ भाई-बहन बीमारी और क्लेश के दौरान अपनी गवाही में अडिग रहे, तो उन्हें परमेश्वर की सुरक्षा मिली। इसलिए, कलीसिया द्वारा मुझे सौंपे गए कर्तव्य चाहे कितने भी कठिन या जोखिम भरे क्यों न हों, मैं बिना किसी झिझक या डर के उन्हें करती थी। मेरे दिल में, मुझे दृढ़ विश्वास था कि जब तक मैं परमेश्वर के लिए कष्ट सहूँगी और कीमत चुकाऊँगी, क्लेशों का सामना करते समय शिकायत नहीं करूँगी, और अपने कर्तव्यों को करने में लगी रहूँगी, तो मुझे निश्चित रूप से परमेश्वर की आशीषें मिलेंगी। जब मुझे पता चला कि मेरा बेटा गंभीर रूप से बीमार है, तब भी मैंने अपने कर्तव्य करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का फैसला किया, ताकि परमेश्वर मेरे बेटे को ठीक कर सके। हालाँकि, जब मेरे बेटे की बीमारी लंबे समय तक ठीक नहीं हुई, तो मैं मानने लगी परमेश्वर मेरे साथ गलत कर रहा है। मैंने अपने पिछले त्याग और खुद को खपाने को परमेश्वर से सौदेबाजी का मोहरा बना लिया, उसके साथ बहस की और उसके खिलाफ शोर मचाया, मेरे बेटे को लेकर उसकी सुरक्षा की कमी के बारे में शिकायत की, यहाँ तक कि अपने कर्तव्य करने से भी इनकार कर दिया। मेरी स्वार्थी, नीच और लाभ चाहने वाली शैतानी प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो गई थी। मैं परमेश्वर के लिए अपने त्याग और खुद को खपाने को उससे आशीषें माँगने के साधन के रूप में इस्तेमाल कर रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं पौलुस के ही रास्ते पर चल रही थी। पौलुस ने परमेश्वर से पुरस्कार और मुकुट माँगने के लिए खुद को खपाया और बलिदान दिया, परमेश्वर के साथ लेन-देन करने की कोशिश की। वह परमेश्वर को धोखा दे रहा था और उसका प्रतिरोध कर रहा था, और अंततः उसे परमेश्वर की निंदा और दंड मिला। मैंने विचार किया कि कैसे परमेश्वर में अपनी कई वर्षों की आस्था के दौरान, सत्य का अनुसरण न करने या परमेश्वर के वचनों में उसके इरादे न खोजने के कारण, मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाने को और अपने कर्तव्य के प्रदर्शन को लेन-देन के रूप में लिया था। मैंने देखा कि मैं वास्तव में कितनी स्वार्थी और घृणित थी, पूरी तरह से परमेश्वर के उद्धार के अयोग्य थी।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम अय्यूब के परीक्षणों से गुजरते हो, और साथ ही, तुम पतरस के परीक्षणों से भी गुजरते हो। जब अय्यूब की परीक्षा ली गई, तो उसने गवाही दी, और अंत में, यहोवा उसके सामने प्रकट हुआ। गवाही देने के बाद ही वह परमेश्वर का चेहरा देखने योग्य हुआ था। यह क्यों कहा जाता है : ‘मैं गंदगी की भूमि से छिपता हूँ, लेकिन खुद को पवित्र राज्य को दिखाता हूँ’? इसका मतलब यह है कि जब तुम पवित्र होते हो और गवाही देते हो, केवल तभी तुम्हें परमेश्वर का चेहरा देखने का गौरव प्राप्त हो सकता है। अगर तुम उसके लिए गवाह नहीं बन सकते, तो तुम्हें उसका चेहरा देखने का गौरव प्राप्त नहीं होगा। अगर तुम शोधनों का सामना करने से पीछे हट जाते हो या परमेश्वर के विरुद्ध शिकायतें करते हो, और इस प्रकार परमेश्वर का गवाह बनने में विफल हो जाते हो और शैतान की हँसी के पात्र बन जाते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के दर्शन प्राप्त नहीं होंगे। अगर तुम अय्यूब की तरह हो, जिसने परीक्षणों के बीच अपनी ही देह को धिक्कारा और परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत नहीं की, और अपने शब्दों से शिकायत या पाप किए बिना अपनी ही देह का तिरस्कार करने में समर्थ हुआ, तो तुम गवाह बनोगे। जब तुम एक निश्चित मात्रा तक शोधनों से गुजरते हो और फिर भी अय्यूब की तरह हो सकते हो, परमेश्वर के सामने सर्वथा समर्पित हो सकते हो और उससे कोई अन्य अपेक्षा नहीं रखते या अपनी धारणाएँ नहीं रखते, तब परमेश्वर तुम्हें दिखाई देगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। “मनुष्य के लिए, परमेश्वर बहुत-से ऐसे काम करता है जो अबूझ और यहाँ तक कि अविश्वसनीय भी होते हैं। जब परमेश्वर किसी को आयोजित करना चाहता है, तो यह आयोजन प्रायः मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और उसके लिए अबूझ होता है, फिर भी ठीक यही अननुपरूता और अबूझता ही है जो परमेश्वर द्वारा मनुष्य का परीक्षण और परीक्षा हैं। इस बीच, अब्राहम परमेश्वर के प्रति समर्पण प्रदर्शित कर पाया, जो परमेश्वर की अपेक्षा को संतुष्ट करने में उसके समर्थ होने की सबसे आधारभूत शर्त थी। ... यद्यपि, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की परीक्षा लेने के लिए भिन्न-भिन्न तरीक़ों का प्रयोग करता है, किंतु अब्राहम में परमेश्वर ने वह देखा जो वह चाहता था, उसने देखा कि अब्राहम का हृदय सच्चा था, और यह कि उसका समर्पण बेशर्त था। ठीक इसी ‘बेशर्त’ की परमेश्वर ने आकांक्षा की थी। कुछ लोग प्रायः कहते हैं, ‘मैंने पहले ही यह चढ़ा दिया है, मैंने पहले ही उसका त्याग कर दिया है—फिर भी परमेश्वर मुझसे संतुष्ट क्यों नहीं है? वह मुझे परीक्षाओं के लिए विवश क्यों करता रहता है? वह मुझे परखता क्यों रहता है?’ यह एक तथ्य दर्शाता है : परमेश्वर ने तुम्हारा हृदय नहीं देखा है, और तुम्हारा हृदय प्राप्त नहीं किया है। कहने का तात्पर्य है कि उसने वैसा शुद्ध हृदय नहीं देखा है जैसा तब देखा था जब अब्राहम अपने ही हाथ से अपने पुत्र का वध करने और उसे परमेश्वर को भेंट चढ़ाने के लिए छुरी उठा सका था। उसने उसके प्रति तुम्हारा बेशर्त समर्पण नहीं देखा है, और उसे तुम्हारे द्वारा आराम नहीं पहुँचाया गया है। ऐसे में, यह स्वाभाविक है कि परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता रहे” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गई कि परमेश्वर उन लोगों को आशीष देता है जो सच्चे दिल से उसके लिए खुद को खपाते हैं। परमेश्वर चाहे कैसे भी कार्य करे, वे बिना किसी माँग, अनुरोध या व्यक्तिगत मिलावट के, बिना शर्त उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं। यही सच्ची गवाही है। मैं अय्यूब के बारे में सोचे बिना नहीं रह सकी। उसने केवल परमेश्वर के बारे में सुना था, फिर भी जब उसने अपनी सारी संपत्ति और बच्चे खो दिए, और उसका शरीर फोड़ों से ढक गया, यहाँ तक कि उसकी पत्नी ने भी उसका मज़ाक उड़ाया, फिर भी वह परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने के मार्ग पर बना रहा, और कहा, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। अय्यूब ने परमेश्वर के साथ कोई लेन-देन या माँग नहीं की; उसने उसके प्रति एक शुद्ध हृदय रखा। मैंने अब्राहम के बारे में भी सोचा। उसे सौ साल की उम्र में बेटा हुआ, इसहाक, जिसे वह बहुत प्यार करता था। जब परमेश्वर ने उसे इसहाक की बलि चढ़ाने के लिए कहा, तो हालाँकि उसे अपने बेटे के प्रति स्नेह था, लेकिन वह इस स्नेह के सहारे नहीं जिया। उसने स्वेच्छा से इसहाक को वेदी पर चढ़ा दिया। अब्राहम और अय्यूब की परमेश्वर के प्रति आस्था और समर्पण पूर्ण और बिना शर्त थे, जिसमें कोई लेन-देन या माँग नहीं थी। उन्होंने जो किया वह केवल परमेश्वर के मार्ग के अनुसरण के लिए था, आशीषों या व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं। उनकी गवाहियाँ वास्तव में सराहनीय और प्रशंसनीय थीं। हालाँकि, मैं हमेशा गलत समझती रही। मैंने सोचा कि जब बीमारी या आपदा का सामना करना पड़े, तो जब तक मैं बिना शिकायत किए अपने कर्तव्य निभा सकती हूँ, तो ये अच्छे व्यवहार मेरी गवाही में अडिग रहने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त थे, और मुझे उसकी आशीषें मिलेंगी। मेरे खुद को खपाने के पीछे, परमेश्वर के प्रति कोई सच्चाई या समर्पण नहीं था। मेरे बलिदान पूरी तरह से धोखे, सौदेबाजी और माँगों से प्रेरित थे। यह बिल्कुल भी सच्ची गवाही नहीं थी, और यह व्यवहार परमेश्वर के लिए घिनौना था और मैं उसकी आशीषों के लायक नहीं थी। अतीत में, मैंने अय्यूब और अब्राहम की गवाहियों के बारे में अनगिनत बार पढ़ा था, लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया कि उन्होंने कैसे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण किया, उसका भय माना, बुराई से दूर रहे, और परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित रहे। इसके बजाय, मैंने उन आशीषों पर ध्यान केंद्रित किया जो उन्हें अपनी गवाही में अडिग रहने के बाद मिलीं। यह सब इसलिए था क्योंकि मैं अपनी लाभ चाहने वाली शैतानी प्रकृति से प्रेरित थी। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से, मुझे इस बारे में कुछ ज्ञान मिला कि सच्ची गवाही क्या होती है।
बाद में, मैंने विचार किया : परमेश्वर में विश्वास के इन वर्षों में, मैं हमेशा सोचती थी कि अगर मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया और बलिदान दिया तो परमेश्वर को मुझे आशीष देनी चाहिए; यही परमेश्वर की धार्मिकता थी। तो जब मेरा बेटा ठीक नहीं हुआ और उसकी हालत और बिगड़ गई, मेरा दिल शिकायतों और गलतफहमियों से भर गया और मैंने अपना कर्तव्य करने से भी इनकार कर दिया। तो फिर मैं परमेश्वर की धार्मिकता की सही समझ तक कैसे पहुँचूँ? अपनी खोज के दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। वास्तव में, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तब भी क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। ... वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक विवेकहीन साबित हो रहे हैं। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीजें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्य हर चीज की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीजें हैं जिन्हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्वर के स्वभाव को जानना आसान बात नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन पर विचार करने पर, मुझे एहसास हुआ कि मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की शुद्ध समझ नहीं थी। मैं सोचती थी कि अगर हम परमेश्वर के लिए खुद को खपाएँ और अपनी गवाही में अडिग रहें तो परमेश्वर को हमें आशीष देनी चाहिए, हमारी सारी कठिनाइयों और दर्द को दूर करना चाहिए ताकि हम उसकी आशीषों में जी सकें। यह मुझे उचित और तर्कसंगत लगता था; मैंने सोचा कि यही परमेश्वर की धार्मिकता है। मैंने देखा कि इस तरह की मेरी समझ परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मनुष्य सृजित प्राणी हैं। परमेश्वर हमारे साथ कैसा व्यवहार करता है, यह उसका अपना मामला है, और हमें परमेश्वर से अनुचित माँगें नहीं करनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे जब अय्यूब अपनी गवाही में अडिग रहा तो परमेश्वर का अय्यूब को आशीष देना उसकी धार्मिकता थी, और अगर वह अय्यूब को आशीष न भी देता तो भी वह धार्मिक होता। परमेश्वर का स्वभाव सार ही धार्मिकता है। लेकिन मैं यह देख नहीं पाई। मेरा मानना था कि धार्मिकता का मतलब समतावाद, निष्पक्षता और तर्कसंगतता है। मैंने सोचा कि अगर मैंने परमेश्वर के लिए बलिदान दिया तो परमेश्वर को मुझे पुरस्कार और आशीष देना चाहिए। यह मानसिकता लेन-देन से भरी थी। जब मेरा बेटा बीमार पड़ा तब भले ही मैंने अपने कर्तव्य करने में दृढ़ता दिखाई, लेकिन इसके पीछे मेरी व्यक्तिगत मंशा थी—परमेश्वर से अनुग्रह माँगना, ताकि परमेश्वर मेरे बेटे की बीमारी को दूर कर दे। यह वास्तव में एक लेन-देन था, गवाही नहीं। अगर मेरे बच्चे की बीमारी न होती, तो परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की मेरी नीच मंशा उजागर नहीं होती। मैंने परमेश्वर के कार्य में उसकी बुद्धि को देखा और अपने अंतरात्मा और विवेक की कमी को महसूस किया। तो मैंने एक संकल्प लिया : मेरे बच्चे की बीमारी चाहे जैसी भी हो, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करूँगी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि अपना कर्तव्य करना मनुष्य का स्वर्ग से भेजा हुआ उद्यम है। इसका आशीषों या दुर्भाग्य से कोई लेना-देना नहीं है; यह वह है जो हमें करना चाहिए। अतीत में, मैं धारणाओं और कल्पनाओं में जीती थी, यह मानती थी कि अगर मैं दुर्भाग्य का सामना करते हुए भी बिना शिकायत के अपने कर्तव्यों में लगी रह सकती हूँ तो मैं परमेश्वर की आशीषों की हकदार हूँ, और परमेश्वर को मेरे परिवार को सुरक्षित रखना चाहिए। अब मैं समझ गई कि यह एक गलत दृष्टिकोण था। चाहे मेरे बच्चे की बीमारी में सुधार हो, या अंत में उसकी हालत कैसी भी हो, मुझे परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तब से, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए तैयार थी। तीन दिन बाद, मुझे उच्च अगुआओं से एक पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि मेरे लिए एक जरूरी काम है। हालाँकि मैं अपने बच्चे को छोड़ने के लिए अनिच्छुक थी, पर मैं समझ चुकी थी कि मुझे स्नेह के आधार पर नहीं जीना चाहिए। मेरा अपना कर्तव्य था, और मेरे बच्चे की बीमारी परमेश्वर के हाथों में थी। मैं अपने बच्चे को परमेश्वर को सौंपने और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार थी। उसके बाद, मैं अपना कर्तव्य करने चली गई।
तीन महीने बाद, मैं अपने बेटे से मिलने घर लौटी और पता चला कि मेरे पति उसे इलाज के लिए एक ग्रामीण डॉक्टर के पास ले गए थे। वह दिन-ब-दिन धीरे-धीरे ठीक हो रहा था। साल के अंत तक, डॉक्टर ने कहा, “यह बच्चा बहुत जल्दी ठीक हो गया। उसकी बीमारी ठीक हो गई है।” जब मैंने यह नतीजा सुना तो मैं बेहद उत्साहित थी, जिसे शब्दों में बयां नहीं कर सकती।
इस अनुभव के बाद, मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कुछ ज्ञान मिला। मुझे यह भी एहसास हुआ कि सत्य को पाने का अनुसरण करना और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करना परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। हमें परमेश्वर से शारीरिक लाभ, पारिवारिक शांति, बीमारी और आपदा से मुक्ति नहीं माँगनी चाहिए, या अनुकूल परिणाम और मंजिलें नहीं माँगनी चाहिए। ये अनुचित माँगें हैं। अपनी आस्था में धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके, हम कभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते। केवल परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के साथ-साथ परीक्षणों और शोधन का अनुभव करके ही हम सत्य को पा सकते हैं और भ्रष्टता को दूर कर सकते हैं। हालाँकि मैंने अपने बेटे की बीमारी के माध्यम से कुछ दर्द और शोधन सहा, इसने मेरे लंबे समय से चली आ रही भ्रष्ट अशुद्धियों और परमेश्वर में विश्वास के बारे में मेरे भ्रामक दृष्टिकोणों को उजागर कर दिया। इस अनुभव ने मुझे खुद को जानने, सत्य की खोज करने और यह महसूस करने में मदद की कि परमेश्वर किस तरह की गवाही को स्वीकार करता है। इसने मुझे अपने गलत दृष्टिकोणों को तुरंत ठीक करने और सही रास्ते पर चलने में सक्षम बनाया। यह मेरे प्रति परमेश्वर का अनुग्रह है!