58. पर्यवेक्षण से बचकर वास्तव में क्या छिपाया जा रहा है?
जून 2021 में मुझे प्रचारक चुना गया। पहले तो मैं अपने काम से परिचित नहीं थी, इसलिए मैंने विनम्रतापूर्वक अपने सहकर्मियों के जरिए अध्ययन किया। कुछ समय बाद मेरी जिम्मेदारी वाली कलीसियाओं ने अपने कार्यों में कुछ नतीजे हासिल किए। हालाँकि कुछ कामों में बहुत प्रगति नहीं हुई थी। एक सभा में एक उच्च-स्तरीय अगुआ ने मुझसे पूछा, “इस दौरान तुमने क्या काम किया है? कलीसिया में कार्य की विभिन्न मदों की प्रगति कैसी है?” मैंने मन ही मन सोचा, “जब से मैंने काम सँभाला है, तब से सिंचनकर्ताओं को विकसित करने में कोई प्रगति नहीं हुई है। मैं अभी इसका जिक्र नहीं करूँगी, कहीं ऐसा न हो कि अगुआ कह दे कि मैं ठीक से काम नहीं कर रही हूँ और मुझे नीची नजर से देखे। लेकिन सुसमाचार कार्य और कलीसिया की स्वच्छता के कार्य में कुछ नतीजे मिले हैं। अगर मैं इनके बारे में बात करूँगी, तो अगुआ की मेरे बारे में निश्चित रूप से अच्छी छवि बनेगी और वह सोचेगी कि मैं कर्तव्य निभाने में सक्षम हूँ।” इसलिए मैंने केवल उस काम के बारे में बात की जिसमें नतीजे हासिल हुए थे। मुझे उम्मीद नहीं थी कि अगुआ मुझसे पूछेगी कि सिंचनकर्ताओं को विकसित करने का काम कैसा चल रहा है। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर अगुआ को पता चलेगा कि मुझे विकसित करने के लिए कोई भी उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिला है, तो क्या वह कहेगी कि मेरे पास कार्य क्षमता नहीं है?” इसलिए मैंने कहा, “मैं फिलहाल लोगों की तलाश कर रही हूँ।” यह सुनकर अगुआ ने और विस्तार से नहीं पूछा। उसने बस मुझे जल्द से जल्द लोगों को विकसित करने को कहा। मैं यह सोचकर मन ही मन खुश थी कि मैं आखिरकार इससे बच गई थी। अप्रत्याशित रूप से अगुआ ने मुझसे फिर से पूछा, “क्या सभा घरों में कोई सुरक्षा का जोखिम है?” यह सुनते ही मैं घबरा गई। कुछ घरों में वास्तव में सुरक्षा जोखिम थे, पर चूँकि हमें उपयुक्त घर नहीं मिल पाए थे, इसलिए हम बस उनके साथ काम चलाते रहे थे। अगर मैंने सच बता दिया तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह कहेगी कि मैंने जान-बूझकर सिद्धांतों का उल्लंघन किया और सुरक्षा पर विचार नहीं किया? क्या वह मेरी काट-छाँट करेगी? उस समय मैं अंदर से थोड़ी चिढ़ी हुई थी, “वह इतने विस्तृत प्रश्न क्यों पूछ रही है?” इसलिए मैंने झूठ बोल दिया और कहा, “स्थिति ऐसी ही है लेकिन हमने इसका इस्तेमाल सिर्फ एक बार किया है। जब मैं वापस जाऊँगी तो इसे बदल दूँगी।” अगुआ ने मानो मेरे मन की बात जान ली। उसने मेरी काट-छाँट करते हुए कहा, “तुम्हें अच्छी तरह पता है कि सभा घर असुरक्षित है और फिर भी तुम इसका इस्तेमाल कर रही हो। अगर कुछ होता है तो इसके परिणामों के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता! क्या तुम उन्हें झेल पाओगी? साथ ही विकसित करने के लिए कोई उपयुक्त सिंचनकर्ता अभी तक नहीं मिला है। क्या इससे काम में देरी नहीं हो रही है?” अगुआ को यह कहते हुए सुनकर मैं और भी घबरा गई, “अगुआ ने पहली बार मुझसे मिलते ही मुझमें इतनी सारी समस्याएँ देख ली थीं। मैं अपना मुँह कैसे दिखाऊँ? क्या अगुआ कहेगी कि मैं कर्तव्य के लायक नहीं हूँ?” उसी समय मैंने चुपचाप अपना बचाव भी किया, “मैं बहुत लंबे समय से कार्य के लिए जिम्मेदार नहीं हूँ, इसलिए यह समझ में आता है कि कुछ कार्य ठीक से नहीं हुआ है। क्या मेरे दूसरे कार्य से कुछ नतीजे नहीं मिले हैं? तुम्हें मुझे थोड़ा समय देना चाहिए ताकि मैं इसे धीरे-धीरे कर सकूँ।” मैंने यह कहकर अपनी बात समझाई कि मैंने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया है और अभी भी कुछ सिद्धांत नहीं समझे हैं। अगुआ ने मेरी बात सुनी और फिर कुछ सिद्धांतों के बारे में मुझसे संगति की। मामला टल गया।
कुछ दिन बाद वही उच्च-स्तरीय अगुआ कुछ मामले सँभालने के लिए हमारी कलीसिया में आई। चलते-चलते उसने पूछा कि मेरी जिम्मेदारी वाले क्षेत्र में कितने अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पदोन्नत और विकसित किया जा सकता है और क्या उनमें से किसी को बरखास्त करने या दूसरा काम सौंपने की आवश्यकता है। मैंने मन ही मन सोचा, “पिछली बार जब अगुआ ने कार्य से अपना परिचय कराया था, तो मेरी कई समस्याएँ और भटकाव उजागर हुए थे। वह फिर से क्यों पूछ रही है? मैं कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ निरंतर संपर्क में नहीं हूँ और मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकती कि उन्हें पदोन्नत और विकसित किया जा सकता है या नहीं। जहाँ तक उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं का सवाल है जो अपने कर्तव्य करने में अच्छे नतीजे नहीं पाते, मैं अभी यह नहीं तौल सकती कि उन्हें दूसरा काम सौंपना चाहिए या नहीं। मुझे क्या कहना चाहिए? अगर मैं कहती हूँ कि मुझे नहीं पता, तो अगुआ सोचेगी कि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर रही हूँ। अगर मैं कहती हूँ कि मुझे पता है, तो मैं विवरणों के बारे में स्पष्ट रूप से बात नहीं कर पाऊँगी।” इसलिए मैंने लापरवाह ढंग से उत्तर दिया, “मैं इसका भेद नहीं पहचान सकती, मैं इसे ठीक से तौल नहीं पाऊँगी।” अगुआ ने देखा कि मैं सवालों का जवाब नहीं दे पा रही हूँ तो उसने कुछ और नहीं पूछा। उसके बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरा रवैया गलत था और मुझे थोड़ी आत्मग्लानि महसूस हुई। अगुआ केवल कलीसिया के कार्य की बारीकियों को समझना चाहती थी और ऐसा नहीं था कि मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं ईमानदारी से क्यों नहीं बोल पाई?
अगले दिन अगुआ ने मुझे संगति के लिए ढूँढ़ा और मुझसे पूछा, “तुमने कार्य की स्थिति की रिपोर्ट करते समय सच क्यों नहीं बोला और तुम क्यों नहीं चाहती कि लोग उस काम का पर्यवेक्षण करें और जाँच करें जिसके लिए तुम जिम्मेदार हो? यह कैसा स्वभाव है?” जब मैंने यह सुना, तो मेरा दिल धड़कने लगा। “अब अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? मैं वास्तविक कार्य नहीं कर पाई हूँ और मैंने उसे कार्य का पर्यवेक्षण भी नहीं करने दिया है। यह निश्चित रूप से एक गंभीर मुद्दा है!” इसलिए मैंने सावधानी से उत्तर दिया, “मुझे अभी-अभी समझ आया कि मैं काफी धोखेबाज रही हूँ।” अगुआ ने गंभीरता से कहा, “वास्तव में तुम्हारा स्वभाव धोखेबाज है। लेकिन तुम पर्यवेक्षण कार्य के प्रति प्रतिरोधी महसूस कर रही हो और लोगों को कार्य की प्रगति नहीं समझने दे रही हो। इससे कलीसिया के कार्य के कार्यान्वयन में बाधा आ रही है। इससे मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट हो रहा है। तुम्हें अच्छी तरह से आत्म-चिंतन करना चाहिए!” जब मैंने अगुआ के शब्द सुने तो मुझे दिल में थोड़ा डर लगा। मुझे उम्मीद नहीं थी कि समस्या की प्रकृति इतनी गंभीर होगी। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की और परमेश्वर से अपनी समस्याएँ समझने के लिए मार्गदर्शन करने को कहा। बाद में अगुआ ने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश खोजा, जिससे मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी चाहे किसी भी कार्य में लगा हो, वह उसके बारे में ऊपरवाले के ज्यादा जानने और पूछताछ करने से डरता है। अगर ऊपरवाला कार्य की स्थिति या कर्मचारियों की नियुक्ति के बारे में पूछताछ करे, तो वह बस थोड़ी-सी तुच्छ चीजों का सतही हिसाब दे देगा, ऐसी थोड़ी-सी चीजों का, जिनके बारे में वह मानता है कि ऊपरवाला जान भी ले तो कोई बात नहीं, और उन्हें जान लेने से भी कोई बुरे परिणाम नहीं होंगे। अगर ऊपरवाला बाकी चीजों के बारे में भी पूछताछ पर जोर दे, तो उसे लगेगा कि वह उसके कर्तव्य और ‘आंतरिक मामलों’ में दखल दे रहा है। वह और ज्यादा कुछ नहीं बताएगा, बल्कि मूर्ख बनकर, धोखेबाज और चीजों पर परदा डालने वाला बना रहेगा। ... तो फिर कार्य करने का उसका लक्ष्य क्या होता है? यह अपने रुतबे और आजीविका को सुरक्षित करने को लेकर होता है। वह जो भी बुरे काम करता है, उनके पीछे का इरादा और मंशा वह लोगों को नहीं बताता। वह इन्हें पूरी तरह से गोपनीय रखेगा; उसके लिए यह गुप्त जानकारी होती है। ऐसे लोगों के लिए सबसे अधिक संवेदनशील विषय क्या होता है? यह तब पता चलता है जब तुम उनसे पूछते हो, ‘हाल के दिनों में तुम क्या करते रहे हो? क्या तुम्हारे कर्तव्य निष्पादन के कोई नतीजे निकले हैं? क्या तुम्हारे कार्य के दायरे के क्षेत्र में कोई गड़बड़ियाँ या विघ्न-बाधाएँ आई हैं? तुम उनसे कैसे निपटे? क्या अपने कार्य में तुम वहीं हो जहाँ तुम्हें होना चाहिए? क्या तुम अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाते रहे हो? क्या तुमने जो कार्य संबंधी फैसले लिए हैं, उनसे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा है? क्या जो अगुआ मानक-स्तर के नहीं हैं, उन्हें बर्खास्त कर दिया गया है? क्या अच्छी काबिलियत वाले लोग जो सत्य का अपेक्षाकृत अधिक अनुसरण करते हैं, उन्हें पदोन्नत और विकसित किया गया है? क्या तुमने उन लोगों को दबाया है जो तुम्हारे प्रति अवज्ञापूर्ण रहे हैं? तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का कितना ज्ञान है? तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो?’ ये विषय उनके लिए सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। ऐसे सवाल पूछे जाने से वे सबसे ज्यादा डरते हैं, इसलिए तुम्हारे उनके बारे में पूछने की प्रतीक्षा करने से पहले वे जल्दी से कोई दूसरा विषय ढूँढ़ने की कोशिश करेंगे ताकि वे उन पर परदा डाल सकें। वे हर तरह से तुम्हें गुमराह करने की कोशिश करेंगे, तुम्हें यह जानने नहीं देंगे कि मौजूदा वास्तविक स्थिति क्या है। वे तुम्हें हमेशा अँधेरे में रखते हैं, यह जानने देने से रोकते हैं कि वास्तव में वे अपने कार्य में कहाँ तक पहुँचे हैं। वहाँ जरा भी पारदर्शिता नहीं होती। क्या ऐसे लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं? क्या वे परमेश्वर का भय मानते हैं? नहीं। वे कभी भी सक्रिय होकर कार्य की रिपोर्ट नहीं देते, न ही वे सक्रियता से अपने कार्य में हुई दुर्घटनाओं की सूचना देते हैं; वे अपने काम में आने वाली चुनौतियों और उलझनों के बारे में कभी भी नहीं पूछते, खोजते या खुलकर नहीं बताते, बल्कि उन चीजों को छिपाने, और दूसरों की आँखों में धूल झोंकने और उन्हें धोखा देने में लग जाते हैं। उनके कार्य में जरा भी पारदर्शिता नहीं होती, और सिर्फ जब ऊपरवाला उनसे तथ्यात्मक रिपोर्ट और हिसाब-किताब देने के लिए दबाव डालता है, तभी वे अनिच्छा से थोड़ा-बहुत बताते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे से जुड़े मसलों पर बोलने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे—उस पर एक भी शब्द बोलने से पहले ही मर जाएँगे। इसके बजाय, वे नहीं समझ पाने का बहाना करेंगे। क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी हमेशा इस बात से डरते हैं कि ऊपरवाला उनके काम के बारे में पूछेगा और उनके काम की दशा के बारे में पता करेगा। वे उन चीजों से बेहद खौफ खाते हैं जो उन्होंने नहीं की हैं या अपनी कमियाँ और कमजोरियाँ उजागर होने से डरते हैं। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए वे अपनी सारी कोशिशें छिपाने और चालबाजियाँ करने में लगा देते हैं ताकि लोगों को सच का पता न चले। मैंने अपने बारे में सोचा। मैं भी ऐसी ही थी। जब अगुआ ने मेरे काम के बारे में पता लगाने की कोशिश की, तो यह साबित करने के लिए कि मेरे पास कार्य क्षमता है, मैंने अगुआ को उस काम की रिपोर्ट देने की पहल की जिसमें हासिल हुए थे। लेकिन मैंने उस काम के बारे में अपना मुँह बंद रखा जिसने नतीजे नहीं दिए थे। जब अगुआ ने मुझसे सिंचनकर्ताओं को विकसित करने की प्रगति के बारे में पूछा तो भले ही मुझे अच्छी तरह से पता था कि मैं कठिनाइयों के बीच जी रही थी और वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी, मुझे डर था कि अगर मैंने सच बताया तो अगुआ मेरी काट-छाँट करेगी, इसलिए मैंने धोखेबाजी की और कहा कि वह प्रगति पर है, जिससे अगुआ को गलत तरीके से विश्वास हो गया कि मैं वास्तविक कार्य कर रही हूँ। इस तरह मुझे लगता था कि मैं अगुआ के मन में अपनी छवि बचा सकती हूँ। जब अगुआ ने पूछा कि क्या सभा घर सुरक्षित हैं, तो मुझे चिंता हुई कि अगर अगुआ को असल स्थिति पता चल गई, तो वह सिद्धांतों के बिना काम करने के लिए मेरी काट-छाँट करेगी; इसलिए मैंने तथ्य छिपाए और समस्या के महत्वपूर्ण क्षेत्रों की बात टालते हुए गोल-मोल बातें कीं ताकि अगुआ यह सोचे कि मैं केवल इस एक अवसर पर सिद्धांतों के अनुसार काम करने में विफल रही हूँ। मैंने अगुआ को बेवकूफ बनाया और इससे बच निकलने की कोशिश की। जब अगुआ ने मेरी काट-छाँट की और मुझे उजागर किया, तो मैंने देखा कि मैं इसे और अधिक नहीं छिपा सकती। मुझे अपनी प्रतिष्ठा गँवाने का डर था और इसलिए मैंने बहाने ढूँढ़े, कहा कि मैं बहुत लंबे समय से अपना कर्तव्य नहीं निभा रही हूँ और सिद्धांत नहीं समझती हूँ। इसके अलावा जब उच्च-स्तरीय अगुआ ने मुझसे मेरी जिम्मेदारी के क्षेत्र में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बारे में पूछा, तो भले ही मुझे अच्छी तरह पता था कि मैं कुछ लोगों को नहीं समझती, मैं लापरवाही बरत रही थी, कह रही थी कि मैं भेद नहीं पहचान पा रही हूँ और उनकी असलियत नहीं जान सकी। मैंने देखा कि अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए मैं हर मोड़ पर काम में भटकाव और खामियाँ छिपाने के लिए छल और चालबाजी करने में लिप्त थी। मैं वास्तव में बहुत धूर्त और धोखेबाज थी! असल में अगुआओं के लिए काम की स्थिति के बारे में पूछना बहुत उचित बात है। काम में विचलन और समस्याएँ होना भी सामान्य बात है। जब तक मैं उन क्षेत्रों को समझ पाती हूँ जिन्हें मैं करने में कामयाब नहीं हुई हूँ और उन्हें ठीक कर सकती हूँ, तब तक ठीक है। मगर मैं उनके साथ सही तरीके से पेश नहीं आ पाई और यह नहीं सोचा कि कलीसिया के कार्य को लाभ पहुँचाने के लिए चीजें कैसे की जाएँ। इसके बजाय अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने के लिए मैं खुलेआम धोखे और चालबाजी में लिप्त हो गई। मैंने अपने सारे प्रयास काम में भटकाव और खामियाँ छिपाने में झोंक दिए। मुझे इस बात का बेहद खौफ था कि अगुआ को उनका पता चल जाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि अगुआ काम में समस्याएँ समझने में असमर्थ हो गई और संगति कर उनका तुरंत समाधान नहीं कर पाई। मैं जो कर रही थी, वह कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रहा था। मैं परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी! मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं था। मैंने एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट किया था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण के नुकसान और परिणामों के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे सत्य से प्रेम है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम विभिन्न कठिनाइयाँ सहन करोगे। अगर इसका मतलब अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत का बलिदान और दूसरों से उपहास और अपमान सहना भी हो, तो भी तुम बुरा नहीं मानोगे—अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो, तो यह पर्याप्त है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसका अभ्यास करना और ईमानदार रहना चुनते हैं। यही सही मार्ग है, और इस पर परमेश्वर का आशीष है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह क्या चुनता है? वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, गरिमा और चरित्र बनाए रखने के लिए झूठ का उपयोग करना चुनता है। वह धोखेबाज होगा और परमेश्वर उससे घृणा कर उसे ठुकरा देगा। ऐसे लोग सत्य को नकारते हैं और परमेश्वर को भी नकारते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत चुनते हैं; वे धोखेबाज होना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर प्रसन्न होता है या नहीं, या वह उन्हें बचाएगा या नहीं। क्या परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों को बचा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि उन्होंने गलत मार्ग चुना है। वे सिर्फ झूठ बोलकर और धोखा देकर ही जीवित रह सकते हैं; वे रोजाना सिर्फ झूठ बोलकर उसे छिपाने और अपना बचाव करने में अपना दिमाग लगाने का दर्दनाक जीवन ही जी सकते हैं। अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है। जो लोग धोखेबाज हैं, वे इसे कभी नहीं समझेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज लोगों से बेइंतहा नफरत और घृणा करता है। अगर कोई अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने के लिए निरंतर झूठ और छल का इस्तेमाल करता है, तो वह एक धोखेबाज व्यक्ति है और उसे बचाया नहीं जा सकता। जब मैंने इस बारे में सोचा कि अगुआ ने काम के बारे में पूछा था और उसका जायजा लिया था ताकि वह कलीसिया की दशा की गहरी समझ प्राप्त कर सके। थोड़ा भी विवेक रखने वाले किसी व्यक्ति को सच्चाई से जवाब देना चाहिए। मगर मुझे इस बात का बहुत डर था कि अगुआ को मेरे काम में विचलन और समस्याओं के बारे में पता चल जाएगा और इससे अगुआ के मन में मौजूद मेरी अच्छी छवि प्रभावित होगी। मैंने केवल अच्छी खबरें बताईं, किसी समस्या का उल्लेख नहीं किया और चीजें छिपाने के लिए गोल-मोल बातें कीं। उदाहरण के लिए, लोगों को विकसित करने का मामला। मुझे अच्छी तरह से पता था कि मैं कठिनाइयों में जी रही थी और मैंने इसे लागू नहीं किया था, लेकिन मैंने झूठ बोला और कहा कि मैं इसके साथ आगे बढ़ रही हूँ। सभा घर का मामला भी था। मैंने एक से अधिक अवसरों पर सिद्धांतों के उल्लंघन में इसका उपयोग किया था और ये जान-बूझकर किए गए और सुचिंतित उल्लंघन थे। लेकिन मैंने अगुआ से कुतर्क करते हुए कहा था कि मैं सिद्धांत नहीं समझती। चूँकि मैंने सच नहीं बताया था, इसलिए अगुआ वास्तविक स्थिति नहीं समझ सकी और उसके पास काम में विभिन्न समस्याओं और विचलनों के तुरंत समाधान का कोई तरीका नहीं था। जैसे ही समस्याएँ आतीं, वे काम में बाधा डालतीं। ऐसा करके मैं परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी। मैं कुछ ऐसा कर रही थी जिससे परमेश्वर को बेइंतहा नफरत है। मैंने तथ्य छिपाकर अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए झूठ पर भरोसा किया। मैंने सोचा कि मैं लोगों को मूर्ख बनाकर अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचा सकती हूँ। लेकिन तथ्यों ने साबित कर दिया कि हर बार जब मैंने झूठ बोला और चालें चलीं, तो अगुआ ने सीधे मेरी असलियत जान ली। न केवल मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने में विफल रही बल्कि मैंने खुद को और भी अधिक मूर्ख बनाया। चूँकि मैं झूठ और छल में लिप्त थी, इसलिए मेरी अंतरात्मा धिक्कार रही थी। मैंने उन नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें बेनकाब कर हटाया गया था। अपनी खुद की प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने और लोगों के दिलों में अपनी छवि स्थापित करने के लिए वे अपना कर्तव्य करते समय परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार नहीं करते और अपने भाई-बहनों की निगरानी को स्वीकार नहीं करते हैं। भले ही वे अपने काम को पूरी तरह से गड़बड़ कर दें, फिर भी वे इसे छिपाते हैं ताकि किसी और को पता न चले। नतीजतन, वे कलीसिया के कार्य को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाते हैं और अंत में उन्हें बरखास्त कर हटा दिया जाता है। क्या मेरा व्यवहार उनके जैसा ही नहीं था? अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए मैं बार-बार अपने काम में विचलन और खामियाँ छिपाने के लिए धोखेबाजी कर रही थी। मैंने लोगों को धोखा दिया और परमेश्वर से छल करने की कोशिश की। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करती, तो मैं निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा ठुकरा दी जाती और उद्धार का अपना मौका गँवा देती।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर का घर उन लोगों का निरीक्षण, अवलोकन और उन्हें समझने का प्रयास करता है जो कर्तव्य करते हैं। क्या तुम लोग परमेश्वर के घर का यह सिद्धांत स्वीकारने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारा पर्यवेक्षण करना, अवलोकन करना और तुम्हें समझने का प्रयास करना स्वीकार सकते हो, तो यह बहुत बढ़िया बात है। यह तुम्हारा कर्तव्य निभाने में, संतोषजनक तरीके से तुम्हारा कर्तव्य कर पाने में और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में तुम्हारे लिए मददगार है। यह बिना किसी भी नकारात्मक पक्ष के तुम्हें फायदा पहुँचाता है और तुम्हारी मदद करता है। एक बार जब तुम इस सिद्धांत को समझ गए हो, तो क्या तुममें अब अपने अगुआओं, कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी के खिलाफ प्रतिरोध या सतर्कता की कोई भावना होनी चाहिए? भले ही कभी-कभी कोई तुम्हें समझने का प्रयास करता हो, तुम्हारा अवलोकन करता हो और तुम्हारे कार्य का पर्यवेक्षण करता हो, यह व्यक्तिगत रूप से लेने वाली बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो कार्य अब तुम्हारे हैं, जो कर्तव्य तुम निभाते हो, और कोई भी कार्य जो तुम करते हो, वे किसी एक व्यक्ति के निजी मामले या व्यक्तिगत कार्य नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य से संबंधित हैं और परमेश्वर के कार्य के एक भाग से संबंध रखते हैं। इसलिए, जब कोई तुम्हारी पर्यवेक्षण या प्रेक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुम्हें गहराई से समझने लगता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी दशा कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति कोई नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और समझने की कोशिश को स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और समझने के प्रयासों को स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सबका विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की समझने की कोशिश से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर की अपेक्षाएँ इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होती हैं। अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा पर्यवेक्षण किया जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या भाई-बहनों द्वारा पर्यवेक्षण स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है और अक्सर अपने कर्तव्य करते समय लोग अनजाने ही लापरवाह हो जाते हैं। वे अक्सर अपने ही विचारों के आधार पर सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले काम भी करते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता है। सत्य प्राप्त करने से पहले कोई भी भरोसेमंद नहीं होता। इसलिए जब हम अपने कर्तव्य निभाते हैं तो हमें अगुआओं और अपने भाई-बहनों की निगरानी स्वीकार करनी चाहिए। यह कलीसिया के कार्य और हमारे निजी जीवन प्रवेश, दोनों के लिए फायदेमंद है। जैसे कि इस बार जब अगुआ ने काम के बारे में तुरंत पता लगाया और उसका जायजा लिया, तो मुझे आखिरकार पता चला कि लोगों को विकसित करने का मेरा काम आगे नहीं बढ़ा था और यह पहले से काम में बाधा डाल रहा था। केवल जब अगुआ ने काम का जायजा लिया और उसके बारे में पता लगाया, तभी मुझे इसकी तात्कालिकता का थोड़ा एहसास हुआ और मैंने कार्य को बड़ा नुकसान पहुँचाने से बचाने के लिए जल्दी से इसे लागू करना चाहा। इसके अलावा मैंने बिना सिद्धांत के सभा घरों का चयन किया। अगर अगुआ बार-बार नहीं पूछती, तो मैं खुद को बचाती रहती और सिद्धांतों के उल्लंघन में काम करती रहती। एक बार जब बड़े लाल अजगर की तरफ से हमारी गिरफ्तारियाँ होतीं और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता, तो पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होती। इसके अलावा मैं कलीसिया अगुआओं की स्थिति नहीं समझ पाई थी। जिन कुछ लोगों को विकसित किया जाना चाहिए था, उन्हें विकसित नहीं किया गया था, जबकि मैं इस बारे में स्पष्ट नहीं थी कि किसे बरखास्त किया जाना चाहिए। मैं पूरी तरह भ्रमित थी। भले ही यह मामला था, फिर भी मैंने चीजें छिपाने की कोशिश की। अगर अगुआ ने काम के बारे में न पूछा होता, तो मुझे कभी एहसास न होता कि मेरे कर्तव्य के प्रदर्शन में इतने सारे विचलन और खामियाँ थीं और मैं चीजों को बदलने के लिए व्याकुल नहीं होती और जल्दी न करती। जहाँ तक मेरा सवाल है, बहुत संभव है कि मुझे दूसरा काम सौंपा गया होता या बरखास्त कर दिया जाता क्योंकि मैं अच्छा काम नहीं कर रही थी। मैंने देखा कि अगर उच्च-स्तरीय अगुआ ने तुरंत काम का जायजा न लिया होता और समस्या पता न लगाया होता, तो मैं बस सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करने में असमर्थ होती। मैं केवल बुराई करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे परमेश्वर का प्रतिरोध करने में ही सक्षम होती। मुझे अब जाकर समझ आया कि जब अगुआ मेरे काम की निगरानी और जाँच करती है, तो वह मुझे नीची नजर से नहीं देखती, न ही वह मुझे जान-बूझकर शर्मिंदा करती है। इसके बजाय वह अपने काम के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रही होती है। वह मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में मदद कर रही होती है और कलीसिया के हितों की रक्षा कर रही होती है। यह एक सकारात्मक बात है। लेकिन मुझे इससे प्रतिरोध महसूस हुआ और मैंने बचने की कोशिश की। ऐसा करते हुए मैं सत्य से विमुख हो गई। मैं परमेश्वर से लड़ रही थी! मैं अपने सम्मान और रुतबे पर विचार करती नहीं रह सकती थी और अगुआ के पर्यवेक्षण कार्य से नहीं बच सकती थी। मुझे अपने काम में भटकावों और खामियों पर सही तरीके से पेश आना था। इसके बाद मैंने सुरक्षा जोखिम वाले सभा घर को बदल दिया और सिंचनकर्ताओं को विकसित करने की वास्तविक परिस्थितियों और कठिनाइयों की रिपोर्ट अगुआ को दी। अगुआ ने बताया कि मैं सिद्धांतों के अनुसार लोगों की जाँच नहीं कर रही हूँ और लोगों से मेरी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं। उसने मेरे साथ सिद्धांतों पर संगति भी की और मेरे साथ-साथ लोगों की जाँच की। अंत में हमने ऐसे लोगों का चयन किया जो विकसित होने में सक्षम थे।
बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जाँच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएँगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीजों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने हमारे कर्तव्य को अच्छी तरह से करने के लिए अभ्यास का मार्ग बताया। हमें परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार करनी चाहिए और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर भ्रष्ट साधनों या चालों का उपयोग नहीं करना चाहिए। हमें कलीसिया के हितों को सबसे ऊपर रखना चाहिए और तुरंत उन चीजों के बारे में खुलकर बात करनी चाहिए और खोजना चाहिए जिन्हें हम नहीं समझते या नहीं कर सकते। हमें उस कार्य के संबंध में खुद को छिपाना या उस पर पर्दा नहीं डालना चाहिए जो अच्छी तरह से नहीं किया गया है और हमें उस तरीके से कार्य-कलाप करना चाहिए जिससे कार्य को सबसे अधिक लाभ पहुँचे। इस तरह का आचरण थकाऊ नहीं होता और हम अपने कर्तव्य निर्वहन में परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं।
बाद में चाहे अगुआ कार्य के बारे में जानने के लिए मुझसे मिलते या काम का जायजा लेने के लिए पत्र भेजते, मैं हमेशा सचेत रूप से अपने भ्रष्ट स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करती और सही रवैया अपनाती। एक बार उच्च-स्तरीय अगुआओं ने हमें कार्य की कई मदों पर रिपोर्ट करने के लिए एक पत्र भेजा और यदि कार्य की किसी भी मद ने अच्छे नतीजे नहीं दिए थे, तो हमें इसका कारण बताना था। मैंने मन ही मन सोचा, “पिछले दो हफ्ते में मैं सफाई कार्य के कार्यान्वयन में व्यस्त रही हूँ। मुझे अन्य कार्यों का जायजा लेने का मौका नहीं मिला है। एक कलीसिया में अगुआओं की कमी है और अभी तक वहाँ चुनाव नहीं हुए हैं। मैंने वास्तव में सिंचन कार्य और सुसमाचार कार्य का भी जायजा नहीं लिया है। मुझे इस बारे में अधिक जानकारी नहीं है कि इन कार्य क्षेत्रों में क्या चल रहा है। जब इतने सारे काम नहीं किए गए हैं तो मैं रिपोर्ट कैसे प्रस्तुत कर सकती हूँ? अगर अगुआओं को पता चला, तो क्या वे कहेंगे कि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर रही हूँ और इस काम के लिए सक्षम नहीं हूँ? अभी जो काम नहीं किए गए हैं, मैं बस उनकी रिपोर्ट क्यों करूँ और उन्हें कर लेने के बाद ही उनकी रिपोर्ट क्यों न करूँ?” फिर मैंने अपना मन बदला और सोचा, “यह गलत है! क्या मैं तथ्य छिपाने, धोखेबाज बनने और चालें चलने की कोशिश नहीं कर रही हूँ?” इस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी। मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार कर सकते हैं। परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करने पर तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। यह सच है। परमेश्वर की अपेक्षा है कि हम सब कुछ परमेश्वर के सामने करें और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करें। मैं अब लोगों के सामने चीजें नहीं कर सकती और उनकी प्रशंसा पाने के लिए धोखेबाज नहीं हो सकती और चालें नहीं चल सकती। इससे परमेश्वर को बेइंतहा नफरत होती है। चाहे दूसरे मेरे बारे में कुछ भी सोचें, मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना है। चीजें स्पष्ट और तथ्यों के बिल्कुल अनुरूप होनी चाहिए। केवल यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैंने कुछ काम ठीक से नहीं किया है और मैं इसकी रिपोर्ट न करके इसे छुपाना चाहती हूँ। तुम सम्मान और रुतबा छोड़ने, ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए सत्य का अभ्यास करने और अगुआओं को सच्चाई से हालात की रिपोर्ट करने में मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना के बाद मैंने कलीसिया के कार्यों की सभी विभिन्न मदों की स्थिति सच्चाई से लिखी और अगुआओं को दे दी। इसके बाद मैंने जल्दी से अपनी समस्याओं और भटकावों का सारांश तैयार किया और इन कार्यों का जायजा लेना और उन्हें सँभालना जारी रखा। अंत में मैंने वह सारा कार्य पूरा कर लिया जो पूरा नहीं किया गया था। इस तरह से अभ्यास करके मुझे अपने दिल में बहुत सुकून महसूस हुआ। बाद में जिन कलीसियाओं के लिए मैं जिम्मेदार थी, उनमें कुछ कार्य समय पर पूरे नहीं हुए। अगुआओं के निरंतर जायजा लेने और पर्यवेक्षण के कारण ही वे मुझे तुरंत काम करने और चीजों को बदलने के लिए प्रेरित करने में सक्षम थे। जब मुझे ऐसी समस्याएँ मिलीं जिन्हें मैं हल नहीं कर सकती थी, तो मैं तुरंत अगुआओं को उनकी रिपोर्ट करती थी और वे मुझे अभ्यास का मार्ग बताते थे। उन्होंने मेरे काम में काफी मार्गदर्शन किया और मदद की। अब मैं दिल की गहराई से अगुआओं द्वारा मेरे काम का पर्यवेक्षण करने और जायजा लेने को स्वीकारती हूँ।
इस खुलासे के माध्यम से मैंने आखिरकार देखा कि अपनी प्रकृति में मैं सत्य से प्रेम नहीं करती थी। प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर मैं झूठ बोलने, छल करने, काम में खामियाँ छिपाने और अगुआओं के पर्यवेक्षण से बचने में भी सक्षम थी। मैं मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रही थी! इसी दौरान मुझे यह एहसास भी हुआ कि अगर मैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पर्यवेक्षण के बिना अपना कर्तव्य निभाती हूँ तो मैं बस कार्य को ठीक से नहीं कर पाऊँगी। अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पर्यवेक्षण कार्य मेरे लिए बहुत फायदेमंद रहा है!