59. बच्चों का कर्जदार होने की भावना को मैंने त्याग दिया
2003 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। प्रभु यीशु की वापसी का स्वागत कर पाने के कारण मैं बहुत उत्साहित थी, और यह खुशखबरी प्रभु में अपने भाई-बहनों को जल्दी से बताना चाहती थी, ताकि वे सब परमेश्वर के पास आ सकें। इसलिए, मैं जल्दी ही सुसमाचार टीम में शामिल हो गई।
मार्च 2004 में, कार्य की जरूरतों के कारण मैं सुसमाचार का प्रचार करने के लिए दूसरे इलाकों में गई। उस समय, मैं संकल्प से भरी थी और मैं जल्द से जल्द बाहर जाकर सुसमाचार का प्रचार करना चाहती थी, ताकि मैं परमेश्वर की वाणी सुनने अंत के दिनों के उसके उद्धार का अनुग्रह स्वीकार करने में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की मदद कर सकूँ। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं चली गई तो मेरे दो बच्चों की देखभाल कौन करेगा? मेरी बेटी 13 साल की है और मेरा बेटा 12 साल का है। बचपन से ही मैंने उन्हें पाला-पोसा है। मेरे पति दिन भर काम में व्यस्त रहते हैं और उन्होंने बच्चों पर कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने बाहर चली गई, तो उन्हें दिन में तीन वक्त का खाना कौन खिलाएगा? अगर बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा और कुछ हो गया तो, क्या मेरे पति और सास यह नहीं कहेंगे कि मैंने एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं? मेरे रिश्तेदार और पड़ोसी भी कहेंगे कि मैं एक अच्छी माँ नहीं हूँ।” यह सोचकर, मेरा मन बहुत भारी हो गया, मानो दिल पर कोई बड़ा पत्थर रखा हो। मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “हे परमेश्वर, मैं बाहर जाकर सुसमाचार का प्रचार करना चाहती हूँ, लेकिन मैं अपने बच्चों को छोड़ नहीं पा रही हूँ। मुझे डर है कि मेरे जाने के बाद बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। मुझे कैसे अभ्यास करना चाहिए? कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद, मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “कौन वास्तव में पूरी तरह से मेरे लिए खप सकता है और मेरी खातिर अपना सब-कुछ अर्पित कर सकता है? तुम सभी अनमने हो; तुम्हारे विचार इधर-उधर घूमते हैं, तुम घर के बारे में, बाहरी दुनिया के बारे में, भोजन और कपड़ों के बारे में सोचते रहते हो। इस तथ्य के बावजूद कि तुम यहाँ मेरे सामने हो, मेरे लिए काम कर रहे हो, अपने दिल में तुम अभी भी घर पर मौजूद अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता के बारे में सोच रहे हो। क्या ये सभी चीजें तुम्हारी संपत्ति हैं? तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम्हें मुझ पर पर्याप्त विश्वास नहीं है? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा? तुम हमेशा अपने दैहिक परिवार के बारे में परेशान क्यों रहते हो और तुम हमेशा अपने प्रियजनों के लिए चिंता क्यों महसूस करते हो? क्या तुम्हारे दिल में मेरा कोई निश्चित स्थान है? तुम फिर भी मुझे अपने भीतर प्रभुत्व रखने और अपने पूरे अस्तित्व पर कब्जा करने देने की बात करते हो—ये सभी कपटपूर्ण झूठ हैं! तुम में से कितने लोग कलीसिया के लिए पूरे दिल से समर्पित हो? और तुम में से कौन अपने बारे में नहीं सोचता, बल्कि आज के राज्य की खातिर कार्य कर रहा है? इस बारे में बहुत ध्यानपूर्वक सोचो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और वह सभी लोगों के भाग्य पर संप्रभुता रखता और शासन करता है, तो क्या मेरे दोनों बच्चे भी परमेश्वर के हाथों में नहीं थे? परमेश्वर ने पहले ही तय कर दिया है कि भविष्य में मेरे बच्चों का क्या होगा। मेरे चिंता करने का कोई फायदा नहीं था। मुझे परमेश्वर पर विश्वास रखना था और अपने बच्चों को उसे सौंपना था। तो, मैंने अपने दोनों बच्चों के लिए इंतज़ाम किया और निश्चिंत होकर अपना कर्तव्य निभाने बाहर चली गई।
2004 की सर्दियों में मौसम बहुत ठंडा था। मैंने कुछ भाई-बहनों को यह कहते सुना कि वे अपने बच्चों के लिए सर्दियों के कपड़े खरीदना चाहते हैं, और मुझे अपने दोनों बच्चों की चिंता होने लगी। “ठंड है, क्या उन्होंने गर्म कपड़े पहने हैं? अगर उन्हें ठंड लग गई तो क्या होगा?” तो मैंने अपने काम की व्यवस्था की और घर चली गई। जब मैं घर पहुँची, तो मैंने देखा कि मेरे दोनों बच्चों ने खाना बनाना और अपने कपड़े धोना सीख लिया है, और दोनों का स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। परमेश्वर ने जो कहा था मैंने उसके बारे में सोचा : “तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम्हें मुझ पर पर्याप्त विश्वास नहीं है? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा? तुम हमेशा अपने दैहिक परिवार के बारे में परेशान क्यों रहते हो और तुम हमेशा अपने प्रियजनों के लिए चिंता क्यों महसूस करते हो?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। पहले मेरी आस्था बहुत कम थी, लेकिन अब यह देखकर कि मेरे बच्चे ठीक हैं, मैं उनकी चिंता छोड़कर शांत मन से अपना कर्तव्य निभाने लगी। बाद में, जब मैं अगली बार अपने दोनों बच्चों से मिली, तो वे लंबे हो गए थे। वे न केवल दुकान में अपने पिता की चीजें बेचने में मदद करते थे, बल्कि उन्होंने माल खरीदना भी सीख लिया था। उनके आस-पास के सभी लोगों ने दोनों बच्चों की काबिलियत और क्षमता की तारीफ की। मैं बहुत खुश थी और परमेश्वर की आभारी थी। उसके बाद, मैंने अपने दोनों बच्चों को सुसमाचार सुनाया। उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया और घर पर परमेश्वर के वचन पढ़े।
2012 के अंत में, जब मैं घर से दूर सुसमाचार का प्रचार कर रही थी, तो मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने मुझे एक हफ्ते तक यातना दी ताकि मैं कलीसिया के अगुआ के साथ गद्दारी करूँ, और उस दौरान वे मुझे लगातार धमकाते और डराते रहे, यह कहते हुए कि मैं परमेश्वर में विश्वास करने के कारण एक राजनीतिक अपराधी थी और मेरे जैसे मामलों में लोगों को कम से कम तीन से सात साल की सजा होगी। जब मैंने इतने सालों की सजा के बारे में सोचा, तो मैं लगातार रोती रही। मैंने मन में सोचा, “अगर मेरे दोनों बच्चों को पता चला कि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है, तो क्या वे मेरे बारे में चिंता करेंगे? अगर पुलिस को पता चला कि वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो क्या वे उन्हें भी गिरफ्तार कर लेंगे? मैंने इन सालों में उनकी अच्छी तरह से देखभाल नहीं की है। अगर मैंने उन्हें मुसीबत में भी डाल दिया तो ...” मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही दुखी होती। अप्रत्याशित रूप से, कुछ दिनों बाद, जब पुलिस मुझे हिरासत केंद्र के दरवाजे पर ले गई, तो वहाँ मैंने अपनी बेटी को देखा, और मुझे पता चला कि मेरे दोनों बच्चों ने लोगों को ढूँढ़कर अपनी जान-पहचान का इस्तेमाल किया था, बहुत परेशानी उठाकर और 70,000 से 80,000 युआन खर्च करके मुझे मुकदमे तक जमानत पर रिहा करवाया, इसलिए मैं 18 महीने तक अपनी सजा बाहर काट सकी। जब मैं घर पहुँची, तो मेरे पति ने कहा, “दोनों बच्चों ने तुम्हें वहाँ से निकालने के लिए बहुत भाग-दौड़ की। वे हर दिन पूछताछ कर रहे थे, और उनका दिल अब व्यापार करने में नहीं लगता था। वे दिन भर चिंतित और डरे हुए रहते थे, इस डर से कि कहीं पुलिस तुम्हें पीट-पीट कर मार न डाले। हमारे बेटे ने कहा कि चाहे सब कुछ क्यों न बेचना पड़े, वह तुम्हें छुड़ाकर ही रहेगा।” जब मैंने अपने पति के ये शब्द सुने, तो मैं रोना बंद नहीं कर सकी। पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो जब मेरे बच्चे किशोर थे, तब मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया था। मैंने इन सालों में उनकी अच्छी तरह से देखभाल नहीं की, और अब उन्होंने मेरे लिए इतनी बड़ी कीमत भी चुकाई थी। मुझे बच्चों के लिए बहुत बुरा लगा। मैंने सोचा कि अब से घर पर रहकर ही उनकी अच्छी देखभाल करूँगी, उनके बच्चों को सँभालने और कामों में उनकी मदद करूँगी, ताकि उनका कुछ कर्ज चुका सकूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि जब मैं सिर्फ दस दिनों के लिए घर पर थी, पाँच-छह पुलिसकर्मी अचानक मेरे घर में घुस आए और मुझे गिरफ्तार कर लिया, और फिर से हिरासत केंद्र ले गए। उन्होंने छह दिनों तक मुझे यातना दी और मुझसे पूछताछ की, लेकिन मेरे कुछ भी बताए बिना ही मुझे जाने दिया। पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने से बचने के लिए, मेरे पास घर छोड़कर कहीं और जाकर अपने कर्तव्य निभाने के अलावा कोई चारा नहीं था।
एक बार, मैंने अपनी बेटी को घर की स्थिति के बारे में पूछने के लिए पत्र लिखा। मेरी बेटी ने कहा कि जब से मैंने घर छोड़ा है, पुलिस कई बार मेरे घर आकर उन्हें मेरा ठिकाना बताने के लिए मजबूर कर चुकी है। मेरे बेटे की नौकरी सरकार ने बंद करवा दी थी, और मेरी बेटी ने भी मेरी गिरफ्तारी के कारण सभाओं में जाना और अपने कर्तव्य निभाना बंद कर दिया था, जिससे उसे सुरक्षा का खतरा था। समय के साथ, मेरी बेटी कमजोर हो गई, और मेरा बेटा अब सभाओं में नहीं जाना चाहता था। पत्र पढ़ने के बाद, मैं बहुत व्यथित महसूस कर रही थी, मन में सोचा, “अगर मेरे दोनों बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, तो क्या वे भविष्य में अच्छा परिणाम पाने में असमर्थ नहीं होंगे? अगर मैं घर पर होती और उनके साथ परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करती, तो क्या वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य ठीक से निभाने में सक्षम नहीं होते? मैं दूसरे इलाकों में दूसरों को सुसमाचार का प्रचार करते हुए अपने दिन बिताती हूँ, लेकिन अब मेरे अपने बच्चे कमजोर हैं और मैंने उनकी ठीक से मदद करके उन्हें सहारा नहीं दिया है। मैं सच में एक अच्छी माँ नहीं हूँ।” उस दौरान, मेरी दशा खराब थी, और मेरा कर्तव्य निभाने में कोई मन नहीं था। मैं नवागतों को समय पर सींच नहीं पाई, जिससे उनमें से कुछ नकारात्मक हो गए। मैं जानती थी कि अगर मैंने अपनी दशा नहीं बदली तो यह बहुत खतरनाक होगा, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे खुद को समझने और उसके इरादे को समझने में मेरा मार्गदर्शन करे। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने उसे पढ़ने के लिए ढूँढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है, और अंतरात्मा का और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर चुकी है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और नेक औरत नहीं रहीं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, ‘मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।’ इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आती है? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पातीं तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझीं? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में ‘अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ’ की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी वफादारी रख लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य करने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने पति और बच्चों की देखभाल करने के मौके ढूँढ़ोगी, उन्हें और भी अधिक समय देना चाहोगी, और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है तो भी यह ठीक है, बशर्ते अपने मन को सुकून मिलता रहे। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है? अब तुम दो नावों पर सवार हो, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हो लेकिन नेक पत्नी और प्यारी माँ भी बनना चाहती हो। लेकिन परमेश्वर के सामने हमारे पास सिर्फ एक जिम्मेदारी और दायित्व होता है, एक ही मिशन होता है : सृजित प्राणी का अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। क्या तुमने यह कर्तव्य अच्छे से निभाया? तुम फिर से रास्ते से क्यों भटक गईं? क्या तुम्हें वास्तव में कोई अपराध बोध नहीं है, क्या तुम्हारा दिल तुम्हें धिक्कारता नहीं है? चूँकि अभी तक तुम्हारे दिल में सत्य की बुनियाद नहीं पड़ी है, तुम्हारे दिल पर सत्य का शासन नहीं है, इसलिए अपना कर्तव्य करते हुए तुम रास्ते से भटक सकती हो। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य कर पा रही हो, तुम वास्तव में अभी भी सत्य के मानकों और परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर हो। ... हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही व्यक्ति के जीवन का प्राथमिक कार्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा नहीं करतीं, तो तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए जाने पर मैंने देखा कि मैं पारंपरिक संस्कृति से बहुत कसकर जकड़ी हुई थी। मैं मानती थी कि एक अच्छी माँ को अपने बच्चों के लिए जीना चाहिए, यह पक्का करना चाहिए कि उन्हें दिन में तीन वक्त का खाना मिले, और घर के कामों के साथ-साथ उनके जीवन की हर चीज का ध्यान रखना चाहिए। केवल ऐसा करके ही कोई एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ बन सकती है। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकती, तो तुम एक अच्छी औरत नहीं हो : तुमने अंतरात्मा और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन किया होगा। इन सालों में, मैंने हमेशा एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ होने को एक अच्छी औरत होने का मानक माना था। चाहे मैंने अपने बच्चों के लिए कितना भी कष्ट सहा हो, मुझे विश्वास था कि यह बिल्कुल स्वाभाविक है, और मैं जीवन भर अपने बच्चों के लिए गुलामी करने को पूरी तरह से तैयार थी। मुझे लगा कि केवल इसी तरह से काम करके ही मैं एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकती हूँ। खास तौर से, जब मुझे कम्युनिस्ट पार्टी ने गिरफ्तार कर लिया, तो मेरे दोनों बच्चों ने मेरे लिए बहुत पैसा खर्च किया, उनके व्यापार में बाधा आई, और वे चिंतित और डरे हुए भी थे। मुझे लगा कि मैं अपने बच्चों के कर्ज के तले और भी दब गई हूँ। मुझे लगा कि मैंने उनकी अच्छी तरह से देखभाल नहीं की और उन्हें मेरे लिए इतना कष्ट सहने दिया, इसलिए मैं उनके लिए और काम करना चाहती थी और उनके बच्चों की देखभाल में उनकी मदद करना चाहती थी ताकि मैं उनकी भरपाई करने की पूरी कोशिश कर सकूँ। जब मैंने सुना कि मेरी गिरफ्तारी के कारण बेटी सभाओं में शामिल होने और अपना कर्तव्य करने में असमर्थ हो गई बेटे की नौकरी चली गई और बहू भी उसे रोक रही थी और सता रही थी जिससे बेटे का भी परमेश्वर में विश्वास करने का मन नहीं रहा, तो मुझे लगा कि मैं ही अपनी जिम्मेदारियों में नाकाम रही हूँ, क्योंकि मैंने उन्हें परमेश्वर के अधिक वचन पढ़कर नहीं सुनाए थे। इस वजह से, मैं खुद को धिक्कारते हुए जीती रही और मेरा कर्तव्य निभाने में मन नहीं हुआ। जिन नवागतों के सिंचन के लिए मैं जिम्मेदार थी, वे नकारात्मकता और कमजोरी के कारण नियमित रूप से सभाओं में शामिल नहीं हो पा रहे थे, लेकिन मैंने उनकी समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजने की जल्दी नहीं की। इसके बजाय, मेरा दिमाग इसी बात से भरा था कि घर वापस जाकर बच्चों की देखभाल कैसे की जाए। क्योंकि मेरी सुरक्षा को खतरा था, इसलिए मैं घर नहीं जा सकती थी, और लगातार ऐसा महसूस करती थी जैसे मैं अपने बच्चों की कर्जदार हूँ, जबकि मेरा दिल दर्द और पीड़ा से भरा था। मैंने एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ होने को सत्य प्राप्त करने, अपना कर्तव्य निभाने और बचाए जाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण माना था। हालाँकि मैंने इन सभी सालों में अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना परिवार और नौकरी छोड़ दी थी, मेरे विचारों और दृष्टिकोणों में जरा भी बदलाव नहीं आया था। मैं यह नहीं सोच रही थी कि परमेश्वर के सामने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभाया जाए, बल्कि इसके बजाय एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ बनने का प्रयास कर रही थी। मैंने लगभग अपना कर्तव्य और बचाए जाने का मौका बर्बाद कर दिया था। मैं कितनी अंधी और अज्ञानी थी! पीछे मुड़कर सोचती हूँ, तो मैं अक्सर अपने बच्चों से परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बात करती थी, और उन्हें परमेश्वर के सामने लाई, इसलिए मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं और मुझ पर उनका कोई कर्ज नहीं है। मेरे बच्चों द्वारा सहे गए कष्ट वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी के कारण थे। अगर कम्युनिस्ट पार्टी परमेश्वर में विश्वास करने वालों को न सताती और गिरफ्तार न करती, तो मैं घर जाकर उनकी देखभाल कर सकती थी। मुझे कम्युनिस्ट पार्टी से नफरत करनी चाहिए थी क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी ही मेरे और मेरे बच्चों के लिए दुख लाई थी। हालाँकि, मैंने इसका सारा दोष खुद पर मढ़ दिया, और जोर देकर कहा कि मेरे बच्चों ने इस तरह से कष्ट सहा क्योंकि एक माँ के रूप में मैंने उनकी अच्छी तरह से देखभाल नहीं की। मैं इतनी मूर्ख थी और चीजों की असलियत देख नहीं पाई थी! जब मैं यह समझ गई, तो मेरी दशा कुछ हद तक बदल गई। मैं अपना दिल अपने कर्तव्य में लगा सकी, और वे नकारात्मक और कमजोर नवागत भी सामान्य रूप से सभाओं में शामिल हो सके।
2023 में, मुझे एक यहूदा ने धोखा दिया और पुलिस मुझे गिरफ्तार करने की कोशिश करती रही। जनवरी 2024 में, पुलिस ने मेरी बेटी को फोन किया और उसे पुलिस स्टेशन जाने के लिए कहा। मेरी बेटी ने सोचा कि मुझे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया है और घबराहट में पुलिस स्टेशन भागी। अप्रत्याशित रूप से, पुलिस ने मेरी बेटी को परमेश्वर को नकारने और धोखा देने के लिए “तीन कथन” पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया, और उसे धमकाया और डराया भी। मेरी बेटी शैतान की चाल की असलियत नहीं जान पाई और उसने “तीन कथन” पर हस्ताक्षर कर दिए। यह खबर सुनकर, मेरा दिल बहुत दुखी हुआ। मैंने मन में सोचा, “मेरी बेटी आज्ञाकारी और समझदार है, और उसने मुझे कभी भी परमेश्वर में विश्वास करने से नहीं रोका है। जब मुझे पुलिस ने गिरफ्तार किया, तो वह गिरफ्तारी के जोखिम के कारण सभाओं में नहीं जा सकती थी या अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। बाद में, वह अपने पति और ससुर द्वारा बाधित थी, इसलिए इन सालों में, वह ठीक से सत्य का अनुसरण नहीं करती रही है और पैसे के पीछे भागती रही है। नतीजतन, वह परमेश्वर के वचनों को ठीक से खाया-पिया नहीं है और न ही अपना कर्तव्य निभाया है। कलीसिया ने उसे पहले ही एक छद्म-विश्वासी होने के कारण बाहर निकाल दिया था। अब, उसने ‘तीन कथन’ पर हस्ताक्षर किए हैं जिसका मतलब है कि उसने उद्धार पाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है।” यह सोचकर, मैं अपने आँसुओं के सैलाब को रोक नहीं पाई। अगर मैं नियमित रूप से घर जाकर अपने बच्चों को देख पाती और उनके साथ परमेश्वर के वचनों के बारे में ज़्यादा संगति कर पाती, तो शायद मेरी बेटी और ज़्यादा सत्य समझ पाती और उसने “तीन कथन” पर हस्ताक्षर नहीं किए होते। मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही मैं खुद को दोषी ठहराती। उन दिनों, मुझे कुछ भी करने का मन नहीं था, और मेरा कर्तव्य निभाने में कोई मन नहीं था। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा खराब है, इसलिए मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, कि वह अपना इरादा समझने में मेरा मार्गदर्शन करे।
प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी निश्चित तरह का व्यक्ति है तो वह एक निश्चित मार्ग पर चलेगा। क्या यह तय नहीं है? (है।) व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है उससे निर्धारित होता है कि वह क्या है। वह जिस मार्ग को अपनाता है और जिस तरह का व्यक्ति बनता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। ये ऐसी चीजें हैं जो पूर्व-नियत, जन्मजात हैं और जिनका संबंध व्यक्ति की प्रकृति से है। तो माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा की क्या उपयोगिता है? क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को नियंत्रित कर सकती है? (नहीं।) माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा मानव प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकती और न ही इस समस्या को हल कर सकती है कि व्यक्ति किस मार्ग पर जाएगा। वह एकमात्र शिक्षा क्या है जो माता-पिता दे सकते हैं? अपने बच्चों के दैनिक जीवन में कुछ सरल व्यवहार, कुछ एकदम सतही विचार और स्व-आचरण के नियम—ये ऐसी चीजें हैं जिनका माता-पिता से कुछ लेना-देना है। बच्चों के बालिग होने से पहले माता-पिता को अपनी उचित जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, यानी अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे सही मार्ग पर चलें, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करें और बड़े होने पर बाकी लोगों से ऊपर उठने में सक्षम होने का प्रयास करें, बुरे काम न करें या बुरे इंसान न बनें। माता-पिता को अपने बच्चों के व्यवहार को भी नियंत्रित करना चाहिए, उन्हें विनम्र होना और अपने से बड़ों से मिलने पर उनका अभिवादन करना सिखाना चाहिए, और उन्हें व्यवहार से संबंधित अन्य बातें सिखानी चाहिए—यही वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। अपने बच्चे के जीवन का ख्याल रखना और उसे स्व-आचरण के कुछ बुनियादी नियमों की शिक्षा देना—माता-पिता का प्रभाव इतना ही है। जहाँ तक उनके बच्चे के व्यक्तित्व का सवाल है, माता-पिता यह नहीं सिखा सकते। कुछ माता-पिता शांत स्वभाव के होते हैं और हर काम आराम से करते हैं, जबकि उनके बच्चे बहुत अधीर होते हैं और थोड़ी देर के लिए भी शांत नहीं रह पाते। वे 14-15 साल की उम्र में अपने से ही जीविकोपार्जन करने के लिए निकल पड़ते हैं, वे हर चीज में अपने फैसले खुद लेते हैं, उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत नहीं होती और वे बहुत स्वतंत्र होते हैं। क्या यह उन्हें उनके माता-पिता सिखाते हैं? नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव और यहाँ तक कि उसके सार, और साथ ही भविष्य में वह जो मार्ग चुनता है, इन सबका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। ... कोई व्यक्ति जीवन में जो मार्ग अपनाता है, वह उसके माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित होता है। ऐसा कहा जाता है कि ‘मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है,’ और यह कहावत मानवीय अनुभव से निकली है। व्यक्ति के बालिग होने से पहले तुम यह नहीं बता सकते कि वह कौन-सा मार्ग अपनाएगा। जब वह बालिग हो जाएगा, और उसके पास विचार होंगे और वह समस्याओं पर चिंतन कर सकेगा तब वह चुनेगा कि इस विस्तृत समुदाय में उसे क्या करना है। कुछ लोग कहते हैं कि वे वरिष्ठ अधिकारी बनना चाहते हैं, दूसरे कहते हैं कि वे वकील बनना चाहते हैं और फिर कुछ और कहते हैं कि वे लेखक बनना चाहते हैं। हर किसी की अपनी पसंद और अपने विचार होते हैं। कोई भी यह नहीं कहता, ‘मैं बस अपने माता-पिता द्वारा मेरी शिक्षा पूरी किए जाने का इंतजार करूँगा। मैं वही बनूँगा जो मेरे माता-पिता मुझे बनने के लिए शिक्षित करेंगे।’ कोई भी व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं है। बालिग होने के बाद लोगों के विचार उमड़ने और धीरे-धीरे परिपक्व होने लगते हैं, और इस तरह उनके आगे का मार्ग और लक्ष्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। इस समय धीरे-धीरे यह जाहिर और स्पष्ट हो जाता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और किस समूह का हिस्सा है। यहाँ से हरेक इंसान का व्यक्तित्व, साथ ही उसका स्वभाव और वह किस मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जीवन में उसकी दिशा और वह किस समूह से संबंधित है, सब धीरे-धीरे स्पष्ट परिभाषित होने लगता है। यह सब किस पर आधारित है? आखिरकार, यह उसी चीज पर आधारित है जो परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है—इसका व्यक्ति के माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि बच्चे कौन-सा रास्ता चुनते हैं, यह माता-पिता न तय कर सकते हैं, न बदल सकते हैं। यह उनके प्रकृति सार से तय होता है और इसका माता-पिता की शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। मैंने सोचा कि मेरी बेटी “तीन कथन” पर हस्ताक्षर करने से पहले भी सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, और जैसे ही उसका काम-धंधा व्यस्त हो जाता, वह सभाओं में नहीं जाती थी या परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ती थी, और अपना कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं थी। उसने पैसे और दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों के पीछे भागने पर ध्यान केंद्रित किया। अगुआ ने उसके साथ कई बार संगति की थी, लेकिन उसने पश्चात्ताप नहीं किया, इसलिए कलीसिया ने उसके हमेशा के रवैये को देखते हुए उसे एक छद्म-विश्वासी मानकर बाहर निकाल दिया था। अब जब उसने “तीन कथन” पर हस्ताक्षर कर दिए थे, तो उसने पूरी तरह से प्रकट कर दिया था कि उसका सार एक छद्म-विश्वासी का था। उसका सत्य का अनुसरण न करना या सही मार्ग पर न चलना, यह उसके प्रकृति सार से तय हुआ था, और इसका मुझसे, उसकी माँ के रूप में, कोई लेना-देना नहीं था। मेरे बच्चे इस दशा में इसलिए पहुँचे क्योंकि स्वभाव से, वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे और सत्य का अनुसरण नहीं करते थे। किसी और को दोष नहीं दिया जा सकता, और ऐसा नहीं है कि अगर मैंने उनके लिए परमेश्वर के और वचन पढ़े होते, तो वे लगन से सत्य का अनुसरण करते और सही मार्ग पर चलते। स्वभाव से, वे सत्य से विमुख थे और सत्य का अनुसरण नहीं करते थे, इसलिए भले ही मैं हर दिन उनके साथ संगति करती, मैं उनके सार या उनके चुने मार्ग को बदल नहीं पाती। जब मैंने अपने बच्चों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखा, मेरा दिल बहुत ज़्यादा मुक्त महसूस हुआ, और अब खुद को उनका कर्जदार महसूस नहीं करती थी, और अब मैं अपना कर्तव्य निभाने में और बाधित नहीं हुई। परमेश्वर का धन्यवाद!