68. मैं अब अपनी नियति के बारे में शिकायत नहीं करूँगी
मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए बच्चों के विपरीत मेरे जीवन की शुरुआत उनसे कहीं नीचे से हुई थी। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि जब मैं प्राथमिक विद्यालय में थी, तब मेरे माता-पिता का तलाक हो गया। मेरे पिता ने मुझे मेरे स्कूल के पास एक बोर्डिंग परिवार में रख दिया और बाद में मैं अपनी चाची और दादी के साथ रहने लगी। जब मेरी उम्र के बच्चों को मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता चला तो उन्होंने मुझसे दूरी बना ली और मैं हमेशा दूसरों से हीन महसूस करती थी। रात को मैं अक्सर रोती थी और मुझे लगता था कि मेरे साथ गलत हुआ है, मैं सोचती थी, “मुझे इतनी बुरी नियति क्यों दी गई है?” मैंने खुद को सबसे अलग कर लिया था और शायद ही किसी से दिल की बात करती थी। मैंने टीवी पर मजबूत महिला सीईओ को फूलों और वैभव से घिरा देखा और मुझे उनसे ईर्ष्या हुई, सोचने लगी कि उनकी किस्मत वाकई अच्छी है। मैंने सोचा कि मैं कैसे किसी और के घर में रह रही हूँ और मुझे नीची नजरों से देखा जा रहा है और इसलिए मैंने मन ही मन ठान लिया, “जब मैं बड़ी हो जाऊँगी तो मैं टीवी पर दिखने वाली महिलाओं की तरह ही कुछ बनकर दिखाऊँगी और जो लोग मुझे नीची नजरों से देखते हैं, उन्हें एक नए नजरिए से देखने पर मजबूर कर दूँगी।”
लेकिन मेरे माता-पिता के तलाक ने मेरे बचपन पर एक काली परछाई छोड़ दी थी और मैं अक्सर दर्द और दुख महसूस करती थी और धीरे-धीरे मैं संकोची और अंतर्मुखी होती चली गई। बाद में मैंने प्रभु यीशु में विश्वास रखने में अपनी दादी का अनुसरण किया और जब मैं 16 साल की थी तो मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। मैंने सीखा कि मनुष्य के कष्ट का स्रोत शैतान की भ्रष्टता है और इस चरण में परमेश्वर का कार्य लोगों को पाप से बचाने और लोगों को एक सुंदर मंजिल में लाने का है। मैंने सोचा कि अंत के दिनों में परमेश्वर के उद्धार का अवसर कितना दुर्लभ है और कैसे परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है, इसलिए मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाने के लिए प्रशिक्षण लिया। कलीसिया में मैंने देखा कि जब भी भाई-बहनों को कोई समस्या होती थी तो वे अगुआओं से पूछते थे और अगुआ तब समाधानों पर संगति करते थे। सभी भाई-बहन उनका बहुत सम्मान करते थे और मुझे उनसे ईर्ष्या हुई, सोचने लगी, “मुझे अच्छी तरह अनुसरण करना है, ताकि भविष्य में मैं एक अगुआ या कार्यकर्ता बन सकूँ, तब मैं सिर्फ एक साधारण अनुयायी नहीं रहूँगी, बल्कि एक प्रमुख हस्ती बन जाऊँगी।” उसके बाद कलीसिया ने मुझे जो भी कर्तव्य सौंपे, मैंने उन्हें करने की पूरी कोशिश की, भाई-बहनों ने मेरी कम उम्र में अच्छी काबिलियत होने के लिए मेरी प्रशंसा की और उन्होंने मुझे अच्छी तरह अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। मैं बहुत खुश हो गई, सोचने लगी, “ऐसा लगता है कि मैं विकसित होने के लिए एक होनहार उम्मीदवार हूँ! मुझे अच्छी तरह अनुसरण करते रहना है!” इसलिए मैंने सक्रिय रूप से अपने कर्तव्य किए। जब मुझे नए लोगों का सिंचन करने के लिए दूर यात्रा करनी पड़ती थी, तब भी मुझे थकान महसूस नहीं होती थी और चाहे बारिश हो या धूप, मैंने अपने कर्तव्यों में बिल्कुल भी देरी नहीं की। मुझे बस उम्मीद थी कि मेरे प्रयासों और बलिदानों पर भाई-बहनों का ध्यान जाएगा और एक दिन मुझे एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुना जाएगा। लेकिन हर बार जब कलीसिया का चुनाव होता तो मुझे नहीं चुना जाता था और तीन साल बाद भी मैं पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी। मुझे समझ नहीं आया और मैंने सोचा, “क्या मैं सिर्फ पाठ-आधारित कर्तव्य करने के लिए बनी हूँ? क्या कलीसिया में यही मेरी जगह है?”
फरवरी 2019 में मैं कलीसिया के पाठ-आधारित कार्य का पर्यवेक्षण कर रही थी और मुझे बहुत खुशी हुई, सोचने लगी कि यह एक महत्वपूर्ण मोड़ है। मैंने मन ही मन सोचा, “शायद यह परमेश्वर का मुझे पहले से ही प्रशिक्षित करना है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर के घर में मेरा अभी भी भविष्य है। अगुआ बनने के लिए व्यक्ति को समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम होना चाहिए। इसलिए मुझे भी भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करने का अभ्यास करना चाहिए। मैंने अभी-अभी पाठ-आधारित कार्य का पर्यवेक्षण करना शुरू किया है और कुछ समय तक प्रशिक्षण लेने के बाद शायद मैं अगुआ बन सकती हूँ।” एक बार एक सभा के दौरान मैंने सुना कि एक नए सदस्य को अगुआ के रूप में चुना गया है और मैं कड़वाहट महसूस करने लगी, सोचने लगी, “यह नया सदस्य, जिसने अभी बस एक साल पहले विश्वास रखना शुरू किया है, इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। मैंने कई साल से परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी मेरे पास अब तक ऐसा अच्छा अवसर क्यों नहीं आया? मैं एक ही जगह पर क्यों अटकी हुई हूँ? पाठ-आधारित कर्तव्य महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे अगुआ या कार्यकर्ता होने की तरह सबकी नजर में नहीं आते। दोनों में बहुत बड़ा अंतर है।” मैं अपनी बाइक धकेलते हुए बस रो ही पड़ी। उसके बाद मेरे मन से कर्तव्य करने की इच्छा ही चली गई। 2022 में पाठ-कर्मियों में फेरबदल किए गए लेकिन मैंने पाठ-आधारित कर्तव्य करना जारी रखा। मुझे बहुत निराशा हुई और मैंने सोचा, “परमेश्वर में विश्वास रखते हुए इतने साल बीत गए, फिर भी मैं अब तक पाठ-आधारित कर्तव्य ही क्यों कर रही हूँ? क्या मैं सिर्फ पाठ-आधारित कर्तव्यों के लिए उपयुक्त हूँ? क्या ऐसा हो सकता है कि मेरी नियति में अगुआ बनना नहीं है? क्या परमेश्वर के वचन यह नहीं कहते कि हम जो भी कर्तव्य करते हैं और जब भी करते हैं, वह सब परमेश्वर की पूर्वनियति और संप्रभुता के अनुसार होता है? शायद मेरी नियति में सिर्फ पाठ-आधारित कर्तव्य करना ही लिखा है।” मैंने एक भाई के बारे में सोचा जो मुझसे कुछ साल बड़ा था। वह परमेश्वर को पाने के कुछ ही समय बाद कलीसिया में अगुआ बन गया और बाद में वह उपदेशक बन गया। मुझे लगा कि वह अगुआ बनने के लिए ही पैदा हुआ था, लेकिन मैं चाहे कितनी भी कोशिश कर लूँ, मुझे कभी भी अगुआ या कार्यकर्ता बनने का मौका नहीं मिलेगा, मेरे विकास के लिए कोई संभावना नहीं है और मेरा जीवन बस ऐसा ही रहेगा। इसके बाद जब भी पर्यवेक्षक मुझसे कुछ करने के लिए कहते तो मैं कर देती, लेकिन मैं अब बेहतर करने के लिए सक्रियता से प्रयास नहीं करती थी और कभी-कभी जब मैं अपने कर्तव्यों में समस्याएँ देखती तो मुझे उन्हें हल करने की कोई प्रेरणा महसूस नहीं होती थी। मेरे काम के नतीजे और भी गिरते जा रहे थे, पर्यवेक्षक ने मेरे कर्तव्यों में प्रगति न होने और निष्क्रिय रवैया रखने के लिए मेरी काट-छाँट की। मैं अंदर से जानती थी कि मैं अपने कर्तव्यों में निष्क्रिय हो रही हूँ, लेकिन मुझे अपनी समस्याओं की ज्यादा समझ नहीं थी।
बाद में मैंने हताशा के मुद्दे को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े और तभी मुझे अपनी दशा समझ में आने लगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो काम करते समय हमेशा हताश और निष्क्रिय होता है, शक्ति नहीं जुटा पाता, उसकी भावनाएँ और रवैया कुछ ज्यादा सकारात्मक या आशावादी नहीं होते, और वह हमेशा बेहद नकारात्मक, दोषारोपण करने वाला और हताश रवैया दर्शाता है। तुम उसे सलाह देते हो, मगर वह कभी नहीं सुनता, हालाँकि वह मानता है कि तुम्हारा बताया रास्ता सही है और तुम्हारे तर्क बढ़िया हैं, फिर भी काम करते समय वह बिल्कुल शक्ति नहीं जुटा पाता और अभी भी नकारात्मक और निष्क्रिय रहता है। गंभीर मामलों में, उस व्यक्ति की चाल-ढाल, कद-काठी, उसके चलने के तरीके, बोलने के लहजे और शब्दों से तुम समझ सकते हो कि उसकी भावनाओं पर उदासी छाई हुई है, अपने हर काम में वह शक्तिहीन है, निचोड़े हुए फल जैसा है, और जो भी उसके साथ बहुत ज्यादा समय बिताता है उस पर भी उसका असर हो जाएगा। यह सब क्या है? हताशा में जीने वाले लोगों के विविध व्यवहार, चेहरे के हाव-भाव, बोलने के लहजे और उनके द्वारा व्यक्त विचारों और दृष्टिकोणों में नकारात्मक गुण होते हैं। तो इन नकारात्मक घटनाओं का कारण क्या है? इसकी जड़ कहाँ है? निस्संदेह प्रत्येक व्यक्ति के लिए हताशा की नकारात्मक भावना पैदा होने का मूल कारण अलग होता है। किसी एक प्रकार के व्यक्ति में इस बात से हताशा की भावना आ सकती है कि वह अपनी भयावह नियति के ख्याल से निरंतर घिरा रहता है। क्या यह एक कारण नहीं है? (अवश्य है।) ... एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, ऐसे लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने की ठान लेते हैं, वे कठिनाइयाँ झेलने और कड़ी मेहनत करने लायक हो जाते हैं, हर मामले में किसी भी दूसरे से ज्यादा सहने में समर्थ हो जाते हैं, और वे ज्यादातर लोगों की स्वीकृति और आदर पाने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उन्हें कलीसिया अगुआ, कोई प्रभारी या टीम अगुआ भी चुना जा सकता है, और तब क्या वे अपने पूर्वजों और अपने परिवार का सम्मान नहीं बढ़ाएंगे? तब क्या उन्होंने अपनी नियति नहीं बदल ली होगी? मगर वास्तविकता उनकी कामनाओं पर खरी नहीं उतरती और वे मायूस होकर सोचते हैं, ‘मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और अपने भाई-बहनों से मेरे अच्छे संबंध हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि जब कभी अगुआ, प्रभारी या टीम अगुआ चुनने का समय आता है, मेरी बारी कभी नहीं आती? क्या इसलिए कि मैं दिखने में बहुत साधारण हूँ, या मेरा कामकाज बढ़िया नहीं रहा, और मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया? हर बार चुनाव होने पर मुझे थोड़ी-सी आशा होती है, और मैं एक टीम अगुआ भी चुन लिया जाऊँ तो मुझे खुशी होगी। मुझमें परमेश्वर का प्रतिदान करने का बड़ा जोश है, मगर हर बार चुनाव के समय चुने न जाने के कारण मैं निराश हो जाता हूँ। इसका कारण क्या है? क्या इसलिए कि मैं जीवन भर सच में सिर्फ एक औसत, साधारण और मामूली व्यक्ति ही बना रहूँगा? जब मैं पीछे मुड़कर अपने बचपन, अपने यौवन और अपनी अधेड़ उम्र को देखता हूँ, तो जिस मार्ग पर मैं चला हूँ, वह हमेशा बेहद मामूली रहा है और मैंने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है। ऐसी बात नहीं है कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है या मेरी क्षमता बहुत कम है, ऐसा भी नहीं है कि मैं पर्याप्त प्रयास नहीं करता या कठिनाइयाँ नहीं झेल सकता। मेरे संकल्प हैं, मेरे लक्ष्य हैं, और कह सकते हैं कि मैं महत्वाकांक्षी भी हूँ। तो फिर ऐसा क्यों है कि मैं कभी भी भीड़ में सबसे अलग नहीं दिख सकता? अंतिम विश्लेषण यही है कि मेरा ही भाग्य खराब है, दुख सहना मेरी नियति है, और परमेश्वर ने मेरे लिए ऐसी ही व्यवस्था की है।’ वे इस बारे में जितना सोचते हैं, उन्हें लगता है कि उनका भाग्य उतना ही खराब है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं आखिरकार समझ गई कि मेरे कर्तव्यों में मेरी बढ़ती निष्क्रियता और नकारात्मकता चीजों पर भ्रामक नजरिए के कारण थी। मुझे लगता था कि एक अगुआ या कार्यकर्ता न बन पाने और सबसे अलग न दिखने का मतलब है कि मेरी नियति खराब है, सिर्फ एक अगुआ या कार्यकर्ता बनने से ही मेरा भविष्य बनेगा और यह दिखाएगा कि मेरी नियति अच्छी है। एक अगुआ या कार्यकर्ता चुने जाने के लिए मैंने परमेश्वर के वचनों से खुद को सुसज्जित करने के लिए कड़ी मेहनत की, जब भी मैंने भाई-बहनों की दशा में समस्याएँ देखीं तो मैंने सक्रियता से संगति और मदद करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजे। जब मेरी संगति के नतीजे मिले तो मुझे लगा कि मुझमें काबिलियत है और मैं वास्तविक समस्याएँ सुलझा सकती हूँ, सोचा कि एक दिन अगर हर कोई मेरी क्षमताएँ देख ले तो वे मुझे एक अगुआ के रूप में चुन सकते हैं। लेकिन मैंने चाहे कितनी भी कोशिश की, मैं पाठ-आधारित कर्तव्य करने में ही फँसी रही। खासकर जब मैंने उन भाई-बहनों को देखा, जिन्होंने मुझसे कम समय तक परमेश्वर में विश्वास रखा था, वे पहले से ही अगुआ और कार्यकर्ता बन रहे थे, मुझे लगा कि उनकी नियति अच्छी है और वे अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए ही पैदा हुए थे। लेकिन कई साल तक पाठ-आधारित कर्तव्य करने के बाद मुझे लगा कि मैं एक ही जगह पर फँस गई हूँ, कलीसिया में किसी का ध्यान मुझ पर नहीं जाता और मैं बस एक साधारण व्यक्ति बनकर रह गई हूँ। इसलिए मैंने इस समस्या का दोष अपनी खराब नियति पर मढ़ दिया, सोचने लगी कि परमेश्वर मुझ पर कृपा नहीं कर रहा है और मेरे लिए जो कर्तव्य उसने पूर्वनियत और व्यवस्थित किया है, वह खराब है, इसलिए कर्तव्यों के प्रति मेरी प्रेरणा लगातार कम होती गई। जब मेरे काम के नतीजे खराब थे तो मैंने आत्मचिंतन नहीं किया और जब मुझे समस्याओं का पता चला तो मैं उन्हें हल करने के लिए मानसिक प्रयास नहीं करना चाहती थी। मैं साफ जानती थी कि मेरे पास व्यावहारिक अनुभव की कमी है और मुझे अधिक अभ्यास करने और अधिक सत्यों से खुद को सुसज्जित करने की जरूरत है, लेकिन मैं प्रयास करने को तैयार नहीं थी और मैंने खुद पर से हार मान ली। ऐसा लग रहा था जैसे मैं एक दलदल में फँस गई हूँ, धीरे-धीरे उसमें समा रही हूँ और बचने में असमर्थ हूँ। मेरी हताशा का प्रभाव वाकई बहुत बड़ा था!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन देखा और मैं अपने भ्रामक नजरियों को समझने लगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर ने बहुत पहले ही लोगों के भाग्य तय कर दिए थे, और उन्हें बदला नहीं जा सकता। यह ‘सौभाग्य’ और ‘दुर्भाग्य’ हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है, और लोगों के परिवेश और इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसा महसूस करते हैं और किसका अनुसरण करते हैं। इसलिए किसी का भाग्य न तो अच्छा होता है न ही बुरा। हो सकता है कि तुम्हारा जीवन बहुत कष्टमय हो, पर शायद तुम सोचो, ‘मैं कोई आलीशान जिंदगी नहीं जीना चाहता। बस भरपेट खाना और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े हों, तो मैं खुश हूँ। अपने जीवनकाल में सभी कष्ट सहते हैं। सांसारिक लोग कहते हैं, “अगर बारिश न हो, तो तुम इंद्रधनुष नहीं देख सकते,” तो कष्ट का अपना महत्व है। यह बहुत बुरा नहीं है, और मेरा भाग्य भी बुरा नहीं है। स्वर्ग ने मुझे कुछ पीड़ा, कुछ परीक्षण और तकलीफें दी हैं। ऐसा इसलिए कि वह मेरे बारे में अच्छी राय रखता है। यह सौभाग्य है!’ कुछ लोग सोचते हैं कि कष्ट सहना बुरा है, इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है, और सिर्फ ऐसे ही जीवन का अर्थ, जिसमें कष्ट न हों, आराम और आसानी हो, अच्छा भाग्य होना है। गैर-विश्वासी इसे ‘मत भिन्नता’ कहते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले ‘भाग्य’ के इस मामले को किस तरह देखते हैं? क्या हम ‘सौभाग्य’ या ‘दुर्भाग्य’ होने की बात करते हैं? (नहीं।) हम ऐसी बातें नहीं कहते। मान लो कि परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण तुम्हारा भाग्य अच्छा है, फिर यदि तुम अपने विश्वास में सही मार्ग पर नहीं चलते, तुम्हें दंडित किया जाता है, उजागर कर हटा दिया जाता है, तब इसका क्या अर्थ है, तुम्हारा भाग्य अच्छा है या खराब? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो संभवतः तुम्हें उजागर किया या हटाया नहीं जा सकता। गैर-विश्वासी और धार्मिक लोग, लोगों को उजागर करने या समझने की बात नहीं करते, और वे निकाले या हटाए जा रहे लोगों की बात भी नहीं करते। इसका अर्थ होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने में समर्थ होने पर लोगों का भाग्य अच्छा है, मगर यदि अंत में वे दंडित होते हैं, तो क्या इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है? एक पल उनका भाग्य अच्छा है और दूसरे ही पल बुरा—तो फिर वह कैसा है? किसी का भाग्य अच्छा है या नहीं, यह एक ऐसी बात नहीं है जिसका फैसला हो सकता हो, लोग इसका फैसला नहीं कर सकते। यह सब परमेश्वर द्वारा होता है, और परमेश्वर की हर व्यवस्था अच्छी होती है। बस इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य-पथ या उसका परिवेश, वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनसे उसका वास्ता पड़ता है, और अपने जीवन में वह जिस जीवन मार्ग का अनुभव करता है, वे सब भिन्न होते हैं; ये चीजें हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीने के परिवेश और विकास करने के परिवेश की व्यवस्था परमेश्वर करता है और ये दोनों ही अलग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में जिन चीजों का अनुभव करता है, वे अलग-अलग होती हैं। कोई तथाकथित सौभाग्य या दुर्भाग्य नहीं होता—परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था करता है, और परमेश्वर ही ये सब करता है। यदि हम इस मामले को इस नजरिए से देखें कि यह सब परमेश्वर करता है, परमेश्वर का हर कार्य अच्छा और सही होता है; तो बस इतना ही है कि लोगों के झुकाव, भावनाओं और चुनावों के नजरिए से देखें, तो कुछ लोग आरामदेह जीवन जीना चुनते हैं, शोहरत, लाभ, प्रतिष्ठा, संसार में समृद्धि और अपनी सफलता चुनते हैं। वे मानते हैं कि इसका अर्थ अच्छे भाग्य का होना है, और जीवन भर औसत दर्जे का और असफल रहना, हमेशा समाज के बिल्कुल निचले तबके में जीना भाग्य का खराब होना है। गैर-विश्वासियों और सांसारिक चीजों के पीछे भागने वाले और संसार में जीने की इच्छा रखने वाले सांसारिक लोगों के नजरिए से चीजें यूँ ही नजर आती हैं, और इस तरह से सौभाग्य और दुर्भाग्य का विचार पैदा होता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य का विचार भाग्य के बारे में मनुष्य की संकीर्ण समझ और सतही नजरिए से, और लोग कितना शारीरिक कष्ट सहते हैं, कितना आनंद वे पाते हैं और कितनी शोहरत और लाभ वे प्राप्त करते हैं, इत्यादि पर लोगों की सोच से पैदा होता है। दरअसल, यदि हम इसे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता के नजरिए से देखें, तो अच्छे भाग्य और बुरे भाग्य की ऐसी कोई व्याख्याएँ नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (सही है।) यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के नजरिए से मनुष्य के भाग्य को देखो, तो परमेश्वर जो भी करता है, वह अच्छा ही होता है, और हर व्यक्ति को इसी की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए है कि पिछले और वर्तमान जीवन में कारण और प्रभाव अपनी भूमिका अदा करते हैं, ये परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं, इन पर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, और परमेश्वर इनकी योजना बनाता और इनकी व्यवस्था करता है—मानवजाति के पास कोई विकल्प नहीं है। यदि हम इसे इस नजरिए से देखें, तो लोगों को यह फैसला नहीं करना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या बुरा, ठीक है न? यदि लोग इस बारे में यूँ ही सोच बना लेते हैं तो क्या वे एक भयानक गलती नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर की योजनाओं, व्यवस्थाओं और संप्रभुता पर फैसला करने की गलती नहीं कर रहे हैं? (जरूर कर रहे हैं।) और क्या यह गलती गंभीर नहीं है? क्या यह उनके जीवन-पथ को प्रभावित नहीं करेगी? (जरूर करेगी।) फिर यह गलती उन्हें विनाश की ओर ले जाएगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर उजागर करता है कि कुछ लोग सोचते हैं कि सबसे अलग दिखना, प्रसिद्धि और लाभ हासिल करने का मतलब है कि उसकी नियति अच्छी है, और औसत जीवन जीना और असफल रहना, बुरी किस्मत का होना है, कष्ट का मतलब है कि व्यक्ति की नियति खराब है। वे सोचते हैं कि आरामदायक, सहज और शांतिपूर्ण जीवन जीने का मतलब एक अच्छी नियति होना है। अच्छी या बुरी नियति के बारे में ये सभी विचार लोगों की व्यक्तिपरक खोजों और इच्छाओं पर आधारित हैं। क्योंकि हर किसी के जीवन की दिशा परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अनुरूप होती है, परमेश्वर लोगों की जरूरतों के आधार पर चीजों की व्यवस्था करता है और सब कुछ उनके जीवन के लिए फायदेमंद है, अच्छी या बुरी नियति जैसी कोई चीज नहीं होती। व्यक्तिगत पसंद के आधार पर यह कहना कि तुम्हारी नियति खराब है, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित की गई स्थितियों के प्रति समर्पण न करना और उसकी संप्रभुता में विश्वास न करना है। सच तो यह है कि परमेश्वर जो कुछ भी व्यवस्थित करता है वह अच्छा है। ठीक वैसे ही जब मैंने अपने यौवन में पारिवारिक दुर्भाग्य का अनुभव किया और मुझे उपेक्षित किया गया और मेरा अनादर कर नीची नजरों से देखा गया, अगर मैं इन असफलताओं और दर्दों से नहीं गुजरी होती तो शायद मैं परमेश्वर के सामने नहीं आती। मेरा परमेश्वर के वचन पढ़ने और अपने कर्तव्यों में प्रशिक्षित होने का अवसर प्राप्त करना, यह सब परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है। लेकिन मैंने सोचा कि प्रसिद्ध व्यक्ति बनना, सबसे अलग दिखना और दूसरों से आदर पाना अच्छी नियति का होना है, साधारण, औसत दर्जे का जीवन जीना और नीची नजरों से देखा जाने का मतलब बुरी नियति होना है। ये एक छद्म-विश्वासी के नजरिए थे। परमेश्वर को पाने के बाद जब मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समस्याएँ सुलझाने की अपनी क्षमता के कारण भाई-बहनों द्वारा सम्मानित और प्रशंसित होते देखा तो मैंने सोचा कि मेरे अगुआ या कार्यकर्ता होने पर ही मेरे आगे बढ़ने की कोई संभावना होगी और यह कि उनकी नियति साधारण भाई-बहनों से बेहतर है। चूंकि मैं इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी सिर्फ पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी, मुझे लगा कि मुझे महत्व नहीं दिया जा रहा है, मेरे विकास के लिए कोई भविष्य नहीं है और मैंने अपने कर्तव्यों के लिए अपनी प्रेरणा खो दी। लेकिन जब सोचती हूँ तो क्या अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में पदोन्नत होना सचमुच अच्छी नियति का प्रतीक होता है? वास्तविकता में अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता है और उसका भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है, फिर भले ही वह इंसानों प्रशंसा और आराधना हासिल कर ले, उसे बचाया या पूर्ण नहीं किया जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, जो अपने कई वर्षों के कार्य अनुभव को दूसरों को लगातार बाधित करने के लिए पूंजी के रूप में उपयोग करते हैं, अपनी इच्छानुसार कार्य करते हैं, कलीसिया के काम में रुकावट और व्यवधान डालते हैं और आखिरकार वे प्रकट और बरखास्त कर दिए जाते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग कभी भी अगुआ नहीं रहे हैं, लेकिन वे अपने कर्तव्य अपनी जगह के अनुसार करते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने और अपने इरादों, नजरियों और भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और वे अभी भी परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, अपने कर्तव्यों में नतीजे प्राप्त करते हैं और अपने जीवन में आगे बढ़ते हैं। हम कोई भी कर्तव्य करें, मुख्य बात सत्य का अनुसरण करना है। अच्छी या बुरी नियति जैसी कोई चीज नहीं होती। इसका एहसास होने पर मेरा दिल थोड़ा उज्जवल हो गया। मैंने देखा कि मैं प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे पर बहुत अधिक केंद्रित थी, मैं एक सृजित प्राणी के रूप में ठोस तरीके से अपना कर्तव्य करने को तैयार नहीं थी और मैं हमेशा प्रसिद्धि का अनुसरण करने के साधन के रूप में अपने कर्तव्य करने के अवसर का उपयोग करना चाहती थी। लेकिन अगर मेरी इच्छाएँ पूरी हो जातीं तो प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए मेरी लालसा और भी तीव्र हो जाती, मैं और अधिक अहंकारी और दंभी हो जाती और सोचती कि मैं हर किसी से बेहतर हूँ। यह शायद मेरे लिए कोई अच्छी चीज नहीं होती। मैंने वाकई महसूस किया कि परमेश्वर जो कुछ भी व्यवस्थित करता है वह अच्छा है और इस सब के पीछे परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे हैं।
बाद में मैंने फिर से सोचा, “परमेश्वर द्वारा ठहराई और व्यवस्थित की गई परिस्थितियों के प्रति मेरा क्या रवैया होना चाहिए?” मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोग भाग्य के बारे में कैसा महसूस करते हैं, उसे लेकर उनकी भावनाएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं, हो सकता है ऐसे भाग्य हों जिनमें सब-कुछ आसानी से हो जाए, ऐसे भाग्य हों जिनके रास्तों में रोड़े भरे हों, ऐसे भाग्य हों जो कठिन हों, दुःख देते हों—भाग्य अच्छे या खराब नहीं होते। भाग्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, सक्रियता और मेहनत से इन सब चीजों की व्यवस्था में सृष्टिकर्ता का प्रयोजन और अर्थ खोजना चाहिए, और सत्य की समझ हासिल करनी चाहिए, इस जीवन में परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित की गई अपनी सबसे बड़ी भूमिका को निभाना चाहिए, सृजित प्राणी के कर्तव्य, दायित्व और उत्तरदायित्व निभाने चाहिए, और अपने जीवन को तब तक और अधिक सार्थक और मूल्यवान बनाना चाहिए जब तक कि अंततः सृष्टिकर्ता खुश होकर तुम्हें याद न रखने लगे। बेशक, इससे भी अच्छा यह होगा कि तुम अपनी खोज और मेहनतकश प्रयासों से उद्धार प्राप्त करो—यह परिणाम सर्वोत्तम होगा। किसी भी हाल में, भाग्य के मामले में, सृजित मानवजाति को जो सबसे उपयुक्त रवैया अपनाना चाहिए, वह मनमाने फैसले और परिभाषा का नहीं है, या इससे निपटने के लिए अतिशय विधियों के प्रयोग करने का नहीं है। बेशक लोगों को अपने भाग्य का प्रतिरोध करने, उसे चुनने या बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि उन्हें उसका सामना सकारात्मक रूप से करने से पहले, उसे दिल से समझने, खोजना, जाँचना और उसके अनुरूप चलने की कोशिश करनी चाहिए। अंततः जीने के माहौल और जीवन में परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय यात्रा में, तुम्हें वह आचरण विधि खोजनी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हें सिखाता है, वह मार्ग खोजना चाहिए जिसे अपनाने की परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, और इस प्रकार परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करना चाहिए, और अंत में, तुम आशीष पाओगे। जब तुम सृष्टिकर्ता द्वारा इस तरह तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करोगे, तब तुम जिसे समझ पाओगे वह सिर्फ दुख, विषाद, आँसू, पीड़ा, निराशा और विफलता ही नहीं, बल्कि अधिक अहम तौर पर तुम उल्लास, शांति और सुकून का अनुभव करोगे, और साथ ही प्रबुद्धता और सत्य की रोशनी का भी अनुभव करोगे, जो सृष्टिकर्ता तुम्हें प्रदान करता है। इसके अलावा, जब तुम जीवन के अपने मार्ग में खो जाओगे, जब निराशा और विफलता से तुम्हारा सामना होगा, और तुम्हें एक विकल्प चुनना होगा, तब तुम सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुभव करोगे, और अंत में, तुम अत्यंत सार्थक जीवन जीने के तरीके की समझ और अनुभव हासिल कर उसे सराह सकोगे। फिर अपने भाग्य को खराब मानने के कारण हताशा की भावना में डूबना तो दूर की बात रही, तुम कभी भी जीवन में दोबारा खोओगे नहीं, कभी भी निरंतर व्याकुलता की अवस्था में नहीं रहोगे, और बेशक कभी भी भाग्य खराब होने की शिकायत नहीं करोगे। यदि तुम ऐसा रवैया रखो और सृजनकर्ता द्वारा व्यवस्थित भाग्य का सामना करने के लिए इस तरीके का प्रयोग करो, तो केवल यह मामला नहीं होगा कि तुम्हारी मानवता और अधिक सामान्य हो जाएगी, तुम सामान्य मानवता वाले बन जाओगे और तुम्हारे पास चीजों को देखने के लिए सोच, नजरिए और सिद्धांत होंगे, जो सामान्य मानवता से संबंधित हैं-इससे भी अधिक, बेशक तुम जीवन के उस अर्थ के बारे में नजरिए और समझ पा लोगे, जो गैर-विश्वासियों के पास कभी नहीं होगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि चाहे किसी व्यक्ति को लगे कि उसकी नियति अच्छी है या बुरी, उसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, किसी स्थिति में परमेश्वर का इरादा क्या है यह खोजना चाहिए, अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को अच्छे से पूरा करना चाहिए। यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। इसलिए मैंने मन ही मन सोचा, “मैं हमेशा पाठ-आधारित कर्तव्य करती रही हूँ; इसमें परमेश्वर का इरादा क्या है?” मैंने सोचा कि जब चीजें होती थीं तो मुझे नहीं पता था कि सत्य कैसे खोजना है और मैं परमेश्वर के वचनों पर विचार करने में शायद ही कोई प्रयास करती थी। पाठ-आधारित कर्तव्य करने के माध्यम से मैं इन खामियों की भरपाई कर पाई थी, जिससे मैं परमेश्वर के वचनों पर लगन से विचार करना और अपने भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन करना सीख पाई। यह मेरे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद था। साथ ही इस स्थिति ने यह प्रकट किया कि मैं रुतबे को बहुत अधिक महत्व देती थी और जब रुतबे की मेरी इच्छा पूरी नहीं होती थी तो मैं हार मान लेना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने अपनी आस्था में जिसका अनुसरण किया वह रुतबा था, सत्य नहीं। बार-बार असफलताओं का सामना करने के बाद मैं रुतबे का पीछा करने के गलत रास्ते से अवगत होने लगी और मैं एक अगुआ बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को त्यागकर अपने कर्तव्यों को ईमानदारी और निष्कपटता से निभाने में सक्षम हो गई। मैंने इस पर भी चिंतन किया कि मुझे एक अगुआ क्यों नहीं चुना गया था। मुख्य रूप से क्योंकि मुझमें अपने कर्तव्यों में जिम्मेदारी की भावना की कमी थी और क्योंकि मेरी कार्यक्षमता अपर्याप्त थी, मुझमें अगुआ बनने की काबिलियत नहीं थी या मैं मानदंडों को पूरा नहीं करती थी। इसका इससे कोई लेना-देना नहीं था कि मेरी नियति अच्छी थी या बुरी। इसका एहसास होने पर मैं अपनी कमियों और अपर्याप्तताओं को सही रूप में देखने, परमेश्वर द्वारा आयोजित स्थितियों के प्रति समर्पण करने और अपने वर्तमान कर्तव्यों में सिद्धांतों के अनुसार उचित रूप से कार्य करने में सक्षम हो गई। बाद में भाई-बहनों ने मुझे सिंचन उपयाजक चुना और केवल कुछ हफ्तों के प्रशिक्षण के बाद पाठ-संबंधी कर्मियों की कमी के चलते अगुआओं ने मुझे दोबारा पाठ-आधारित कर्तव्यों के लिए नियुक्त कर दिया। इस बार मैंने शिकायत नहीं की या हताश नहीं हुई। इसके बजाय मैंने सोचा कि कैसे कलीसिया ने मुझे कई वर्षों तक पाठ-आधारित कर्तव्य करने के लिए विकसित किया था और इस क्षेत्र में मेरे पास कुछ ताकतें थीं। एक उपयाजक होने की तुलना में पाठ-आधारित कर्तव्य मेरे लिए अधिक उपयुक्त थे और मैंने अपने दिल की गहराई से इसके प्रति समर्पण किया, सोचने लगी, “अतीत में जब मैं पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी तो कुछ बातें ऐसी हुईं जिनका मुझे पछतावा रहा, लेकिन इस बार मुझे यह पूरे मन से करना है।” कुछ समय बाद मेरे कर्तव्यों के कुछ नतीजे मिले और मुझे बहुत सहजता का एहसास हुआ।
इस पूरे अनुभव से गुजरने के बाद मैंने देखा कि परमेश्वर अपनी संप्रभुता के हिस्से के रूप में जो स्थितियाँ व्यवस्थित करता है, वे हमेशा अच्छी होती हैं और ठीक वही होती हैं जिनकी मेरे जीवन को जरूरत होती है। मैं इस समझ को प्राप्त करने और परिस्थितियों को पलटने में सक्षम हो सकी, यह सब परमेश्वर के वचनों का ही नतीजा था। परमेश्वर का धन्यवाद।